समझदारों के बीच एक सही विचार की तलाश’
[परन्तु ओम थानवी जी की एक पोस्ट***
मैं इस पर टिप्पणी करने से अधिक उचित अपनी वाल पर एक पोस्ट लिखना समझता हूं, ‘समझदारों के बीच’। बहस जैसे भी छिड़ी, बहुत उत्तेजक रही, यह इस पर आई प्रतिक्रियाओं से प्रकट है। यह जारी रहनी चाहिए और संयत भाषा में जारी रहनी चाहिए, हुड़दंग के बीच समझ की जरूरत बढ़ जाती है। जिन्हें थानवी जी के लेख और अपनी टिप्पणियों का मूल्यांकन देखना हो वे आज की मेरी पोस्ट देखें और सहमति असहमति तर्क और प्रमाण के साथ दें। हां, पोस्ट लंबी होती है, बोर भी कर सकती है इसलिए जो इसे देख कर घबरा उठें वे ‘पढ़ न सका’ या ‘बोर हो गया’ भी लिख सकते हैं।]
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मैं अाज अपने कल की पोस्ट का किसी तकनीकी चूक से उड़ गया अंश प्रस्तुत करना चाहता था। परन्तु ओम थानवी जी की एक पोस्ट पर जो नरेन्द्र मोदी के कल के वक्तव्य पर थी, आई टिप्पणियों से बहुत प्रभावित हुआ। प्रभावित होने के पीछे तीन कारण थे, पहला तो बौद्धिक जगत में अाज की स्थितियों से पैदा व्याकुलता, दूसरे यह तथ्य कि इस पर सकारात्मक और नकारात्मक विचार व्यक्त करने वालों की नजर से कुछ बातों का ओझल हो जाना, और तीसरे वह जड़ता जिसमें किन्हीं कारणों से कुछ आशंकाएं दहशत या फोबिया का रूप ले लेती हैं और इसलिए हो कुछ भी आप की घृणा या आशंका मन से जाती ही नहीं, अर्थात् आपका दिमाग उस खास संदर्भ में भीतरी गांठ या निक्रियता का शिकार हो जाता है, जिसे हम दूसरे शब्दों में कहें तो पार्टली मेंटली डेड कह सकते हैं। इसलिए जरूरी नहीं कि हम किसी व्यक्ति या संगठन के तात्कालिक बयानों को उसकी अन्तरात्मा की आवाज मान कर उस पर पूरी तरह विश्वास कर लें, अपितु यह कि हम तथ्यों और प्रमाणों के साथ अपनेे दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुुए उन लोगों को भी सचेत करें जो एक बार के बयान के कारण किसी भुलावे में आ गए हैं।
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सबसे पहले मैं यह स्पष्ट कर दूं कि संघ से जिससे नरेन्द्र मोदी निकले हैं, मेरी राय अच्छी नहीं रही है। मरी राय किसी भी संकीर्ण सोच वाले दल या संगठन के बारे में, जिसमें मुस्लिम लीग, सिम्मी, जैसे माेहम्मद, हिन्दू महासभा, शिवसेना, मनसे, बजरंगदल के बारे में अच्छी नहीं रही है न आज है न कल हो सकती है । परन्तु मैं इनसे जुड़े लोगों, इनकी मान्यताओ, विचारों से घृणा नहीं करता। घृणा करने का अर्थ है आवेग का प्रबल हो जाना और बुद्धि का सुन्न हो जाना। इससे घृणा और घृणा पैदा करने और इन पर पलने वाले व्यक्तियों, संगठनों, विचारधाराओं और विश्वासधाराओं को फूलने, फलने, फैलने और बढने का मौका मिलता है और हमारी समग्र सामाजिक प्रतिरोध क्षमता उसी अनुपात में कम होती जाती है।
उपाय एक ही है कि इन्हें व्याधि या विकृति मानना और इस बात की व्याख्या करना कि इसका कारण क्या है, यह फैला किन कारणों से है, और इसका निराकरण कैसे किया जा सकता है। यदि नष्ट करना है तो मच्छर को, मच्छर काटने से बीमार को नहीं। जहां बीमारियों का वायरस इतिहास में हो, वह बहुत धैर्य और अनासक्त पर अविरक्त भाव से उसके कारकों, कारणों और परिणामों को समझना होगा। जहां इसके वायरस हमारे विश्वास या मत-मतान्तर में हैं, वहां हमें उनकी मीमांसा करते हुए उनको आधुनिक जीवन, ज्ञान और विज्ञान के अनुरूप बनाना होगा। जहां ऐसा केवल अपने निजी या अपने राजनीतिक लाभ के लिए किया गया है वहां हमें राजनीतिक नेतृत्व के खतरों से जन साधारण को अवगत कराते हुए उन्हें उससे बाहर लाने और स्वयं बाहर आने का प्रयत्न करना होगा।
जहां अपनी जाति, समुदाय के व्यापक हित में स्वयं भी बलिदान और त्याग करते हुए किसी ने ऐसा निर्णय लिया जिसके दूरगामी परिणाम अहितकर रहे वहां उन महापुरुषों के प्रति आदर रखते हुए भी यह स्वीकार करना होगा कि वे उस मामले में गुमराह थे और उनसे हुई गलतियों से बाहर आना होगा। यह मेरी अपनी समझ है और इसी के अनुसार मैं अपनी राय बनाता और उस पर तक तक दृढ़ रहता हूं जब तक कोई ऐसे तथ्य, साक्ष्य या तर्क देते हुए मेरे मत का खंडन न कर दे ।
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मैंने जिस आहत मानसिकता की चर्चा ऊपर की है उससे हमारे समाज के नब्बे प्रतिशत लोग ग्रस्त हैं इसका पता मुझे फेब बुक पर, फुर्सत होने पर, लोगों की प्रतिक्रियाओं, उनकी भाषा, उनके विचारो की अपरिवर्तनीयता को देखते हुए चला। जाति, धर्म, और विचारधारा को ले कर इतने दो फांक कि जिससेे अनुकूलन है उसकी मूर्खतापूर्ण या काापटिक उक्तियों का भी आंख मूद कर, उसके छद्म को जानते हुए भी ‘क्या खूब कही, क्या खूब कही’ करने लगें, और उसकी तार्किक आलोचना से भी खिन्न हो उठें, और जिससे मन उचटा हुआ है उसका आभास मिलते ही या तो आगे बढ़ जायं, या चुप लगा जायं, और उसमें दिए गए तथ्यों या प्रमाणों से क्षुब्ध हो जायं । यह विभाजन है, यह तो जानता था, पर इतने बड़े पैमाने पर है यह फेसबुक पर आ कर ही समझ पाया।
जब विचार इतने बंटे हुए हो तो किसी गहन सोच या विश्लेषण की जरूरत नहीं, फिकरेबाजी से भी काम चल जाता है और हमारे देश और समाज के लिए गंभीर और हमारे वर्तमान और भविष्य को प्रभावित करने वाले गंभीर मसलों पर चुटकुलेदार टिप्पणियों के माध्यम से बहुत सारे लोगों का समर्थन तो जुटा सकते हैं, परन्तु अपने और उनके समय को क्षय करते हुए, एक दुर्लभ मंच को व्यर्थ कर सकते हैं। हमारा बौद्धिक स्तर बहुत उथला हो चला है और उस उथलेपन में ही प्रसन्न और तुष्ट रह कर हम अपने साथ भी अन्याय करते हैं क्योंकि हम उसी व्याधि को अपनी ओर से भी बढ़ाते हैं जिसे मैंने आहत मानसिकता कहा है। जरूरी है यह समझना कि यह कैसे पैदा हुई, कैसे दिलों को उस तरह फाड़ने में सफल हुई जैसा यह दिखाई दे रहा है और यह समझने की भी जरूरत है कि आज के दिन यह काम कौन कर रहा है या उसकी चाल को न समझ पाने के कारण कौन कौन इसमें शामिल हैं और अपने सीमित दायरे में ही सही क्या हम इस विच्छिन्नता को दूर या कम कर सकते हैं। यह विवेचन फिकरों में नहीं किया जा सकता। यह एक न्याय विचार है और आप जानते हैं फतवे और आदेश तो एक वाक्य में दिए जा सकते हैं, फिकरे एक वाक्य में किए जा सकते हैं, परन्तु न्यायविचार कुछ समय लेता है और उसे फतवे की भाषा में नहीं लिखा जा सकता। न्याय का सार अवश्य एक वाक्य में दिया जा सकता है। वह वाक्य जिस ऊहापोह के बाद किया कया है इसे लिपिबद्ध करने में कई दस्ते कागज लग जाते हैं। मेरी पोस्टों के लंबा हो जाने का भी यह एक कारण है और यदि मैं अपना मन्तव्य आज भी कतिपय सीमाओं को ध्यान में रख कर न पूरा कर सकूं तो जिन्हें लगे कि यह एक जरूरी और उपयोगी प्रयास है उन्हें आगे भी मेरे साथ रहना होगा।
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हमारे समाज में बहुरूपता अनादि काल से है। हितों का टकराव भी। खंड के भीतर भी कई तरह के खंड। परन्तु दिल उस तरह न फटा था जिसकी योजना बहुत दूरदर्शिता से उपनिवेशी शासकों ने बनाई और उसका सफलतापूर्वक कार्यान्वयन भी कर दिया। यह था बांटो और राज करो की नीति। नीति भारतीय है और सबसे पुराना नमूना बुद्ध के उस उत्तर में था कि जब तक लिच्छवियों में एकता है तब तक उन्हें कोई परास्त नहीं कर सकता जिसके बाद का इतिहास हमें मालूम है।
बांटो और राज करो का प्रयोग शत्रु के प्रति किया जाता रहा है, अपने ही देश या समाज के भीतर नहीं। अंग्रेजों ने ऐसा किया तो मैं उनकी चतुराई का सम्मान करता हूं और जितने धैर्य से किया वह जिस परिपक्वता की मांग करता है वह हमारे राजनेताओं में आरंभ से ही नहीं दिखाई देता। परन्तु स्वतंत्र भारत में हमने उत्तराधिकार में उनकी भाषा और उनकी नीति भी अपना ली और उनका उपयोग अपने समाज के विरुद्ध करने लगे, यह सबसे दुर्भाग्यपूण है और उनकी समाजचिन्ता को सन्दिग्ध बनाता है कि उन्होंने अपने समाज को तरह तरह के वोट बैंकों में बांट दिया। यह दूसरी बात है कि यह काम भी शुद्ध भारतीय परंपरा के अनुसार ही आरंभ हुआ और पहला वोट बैंक नेहरू को पंडित नेहरू बनाते हुए, ब्राह्मणों का कायम हुआ – का नहि बाभन करि सकै, का न समुद्र समाय। वह ईसाई को भी ब्राह्मण बना सकता है, अब नये पंडित, राहुल गांधी है, और नई पंडितानी का नाम आप सुझाएं। हम समाज नहीं है, वोट बैंको के अदना खाते हैं जिनमें हमारे हिस्से में हमारा दुर्भाग्य जमा होता चला गया है। और इसे जमा करने वाला कौन रहा है इसका फैसला भी आप करें। सुना मोदी ने वोट बैेक बनने का विकल्प चालू बैंकों में असली खाता धारक बनने की व्यवस्था कर दी जिसमें से आपत विपत पर खाते से दुर्भाग्य नहीं दो लाख की सहायता राशि निकल सकती है। यह सच है या अफवाह, अपनी राय दें यह दुर्भाग्य जमा करने वाले खाते से धाता धारक में परिवर्तन उन सबके लिए अच्छे दिनों की शुरुआत है या बुरे दिनों की वापसी, इसका फैसला भी करें और यदि दिमाग सचमुज जवाब दे गया हो तो इन पंक्तियों के लेखक को मोदी भक्त कह कर गाली तो दे ही सकते हैं, क्योंकि सड़े दिमाग में पहुंचने पर विचार भी गालियों में बदल जाता है ।
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आगे जारी