Post – 2016-09-25

कुछ नसीहत उन्‍हें भी दे नासेह
जो नहीं जानते हुआ क्‍या है ।
बददुआ को दुआ समझते हैं
यह नहीं जानते दुआ क्‍या है ।
क्‍यों कहें, क्‍या कहें, समझ ही नहीं
चुप रहें कब, इसे सीखा ही नही
मानते खुद को जमाने का खुदा
पूछते हैं कि माजरा क्‍या है ।
पूछो भगवान से उसको वजह पता होगी
पता न हो तो पता करके बताए तो सही
पढ़े लिखों का सर फिरता हैं कैसे हंसते हुए
हया का मोल दिखाता ये बेहया क्‍या है ।

***
भगवान मुझे देख कर डरता है देखिए
कहता हूं सामने आ पर आ कर नहीं देता ।

Post – 2016-09-25

समझदारों के बीच एक सही विचार की तलाश’

[परन्‍तु ओम थानवी जी की एक पोस्‍ट***
मैं इस पर टिप्‍पणी करने से अधिक उचित अपनी वाल पर एक पोस्‍ट लिखना समझता हूं, ‘समझदारों के बीच’। बहस जैसे भी छिड़ी, बहुत उत्‍तेजक रही, यह इस पर आई प्रतिक्रियाओं से प्रकट है। यह जारी रहनी चाहिए और संयत भाषा में जारी रहनी चाहिए, हुड़दंग के बीच समझ की जरूरत बढ़ जाती है। जिन्‍हें थानवी जी के लेख और अपनी टिप्‍पणियों का मूल्‍यांकन देखना हो वे आज की मेरी पोस्‍ट देखें और सहमति असहमति तर्क और प्रमाण के साथ दें। हां, पोस्ट लंबी होती है, बोर भी कर सकती है इसलिए जो इसे देख कर घबरा उठें वे ‘पढ़ न सका’ या ‘बोर हो गया’ भी लिख सकते हैं।]
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मैं अाज अपने कल की पोस्‍ट का किसी तकनीकी चूक से उड़ गया अंश प्रस्‍तुत करना चाहता था। परन्‍तु ओम थानवी जी की एक पोस्‍ट पर जो नरेन्‍द्र मोदी के कल के वक्‍तव्‍य पर थी, आई टिप्‍पणियों से बहुत प्रभावित हुआ। प्रभावित होने के पीछे तीन कारण थे, पहला तो बौद्धिक जगत में अाज की स्थितियों से पैदा व्‍याकुलता, दूसरे यह तथ्‍य कि इस पर सकारात्‍मक और नकारात्‍मक विचार व्‍यक्‍त करने वालों की नजर से कुछ बातों का ओझल हो जाना, और तीसरे वह जड़ता जिसमें किन्‍हीं कारणों से कुछ आशंकाएं दहशत या फोबिया का रूप ले लेती हैं और इसलिए हो कुछ भी आप की घृणा या आशंका मन से जाती ही नहीं, अर्थात् आपका दिमाग उस खास संदर्भ में भीतरी गांठ या निक्रियता का शिकार हो जाता है, जिसे हम दूसरे शब्‍दों में कहें तो पार्टली मेंटली डेड कह सकते हैं। इसलिए जरूरी नहीं कि हम किसी व्‍यक्ति या संगठन के तात्‍कालिक बयानों को उसकी अन्‍तरात्‍मा की आवाज मान कर उस पर पूरी तरह विश्‍वास कर लें, अपितु यह कि हम तथ्‍यों और प्रमाणों के साथ अपनेे दृष्टिकोण को प्रस्‍तुत करते हुुए उन लोगों को भी सचेत करें जो एक बार के बयान के कारण किसी भुलावे में आ गए हैं।
*****

सबसे पहले मैं यह स्‍पष्‍ट कर दूं कि संघ से जिससे नरेन्‍द्र मोदी निकले हैं, मेरी राय अच्‍छी नहीं रही है। मरी राय किसी भी संकीर्ण सोच वाले दल या संगठन के बारे में, जिसमें मुस्लिम लीग, सिम्‍मी, जैसे माेहम्‍मद, हिन्‍दू महासभा, शिवसेना, मनसे, बजरंगदल के बारे में अच्‍छी नहीं रही है न आज है न कल हो सकती है । परन्‍तु मैं इनसे जुड़े लोगों, इनकी मान्‍यताओ, विचारों से घृणा नहीं करता। घृणा करने का अर्थ है आवेग का प्रबल हो जाना और बुद्धि का सुन्‍न हो जाना। इससे घृणा और घृणा पैदा करने और इन पर पलने वाले व्‍यक्तियों, संगठनों, विचारधाराओं और विश्‍वासधाराओं को फूलने, फलने, फैलने और बढने का मौका मिलता है और हमारी समग्र सामाजिक प्रतिरोध क्षमता उसी अनुपात में कम होती जाती है।

उपाय एक ही है कि इन्‍हें व्‍याधि या विकृति मानना और इस बात की व्‍याख्‍या करना कि इसका कारण क्‍या है, यह फैला किन कारणों से है, और इसका निराकरण कैसे किया जा सकता है। यदि नष्‍ट करना है तो मच्‍छर को, मच्‍छर काटने से बीमार को नहीं। जहां बीमारियों का वायरस इतिहास में हो, वह बहुत धैर्य और अनासक्‍त पर अविरक्‍त भाव से उसके कारकों, कारणों और परिणामों को समझना होगा। जहां इसके वायरस हमारे विश्‍वास या मत-मतान्‍तर में हैं, वहां हमें उनकी मीमांसा करते हुए उनको आधुनिक जीवन, ज्ञान और विज्ञान के अनुरूप बनाना होगा। जहां ऐसा केवल अपने निजी या अपने राजनीतिक लाभ के लिए किया गया है वहां हमें राजनीतिक नेतृत्‍व के खतरों से जन साधारण को अवगत कराते हुए उन्‍हें उससे बाहर लाने और स्‍वयं बाहर आने का प्रयत्‍न करना होगा।

जहां अपनी जाति, समुदाय के व्‍यापक हित में स्‍वयं भी बलिदान और त्‍याग करते हुए किसी ने ऐसा निर्णय लिया जिसके दूरगामी परिणाम अहितकर रहे वहां उन महापुरुषों के प्रति आदर रखते हुए भी यह स्‍वीकार करना होगा कि वे उस मामले में गुमराह थे और उनसे हुई गलतियों से बाहर आना होगा। यह मेरी अपनी समझ है और इसी के अनुसार मैं अपनी राय बनाता और उस पर तक तक दृढ़ रहता हूं जब तक कोई ऐसे तथ्‍य, साक्ष्‍य या तर्क देते हुए मेरे मत का खंडन न कर दे ।
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मैंने जिस आहत मानसिकता की चर्चा ऊपर की है उससे हमारे समाज के नब्‍बे प्रतिशत लोग ग्रस्‍त हैं इसका पता मुझे फेब बुक पर, फुर्सत होने पर, लोगों की प्रतिक्रियाओं, उनकी भाषा, उनके विचारो की अपरिवर्तनीयता को देखते हुए चला। जाति, धर्म, और विचारधारा को ले कर इतने दो फांक कि जिससेे अनुकूलन है उसकी मूर्खतापूर्ण या काापटिक उक्तियों का भी आंख मूद कर, उसके छद्म को जानते हुए भी ‘क्‍या खूब कही, क्‍या खूब कही’ करने लगें, और उसकी तार्किक आलोचना से भी खिन्‍न हो उठें, और जिससे मन उचटा हुआ है उसका आभास मिलते ही या तो आगे बढ़ जायं, या चुप लगा जायं, और उसमें दिए गए तथ्‍यों या प्रमाणों से क्षुब्‍ध हो जायं । यह विभाजन है, यह तो जानता था, पर इतने बड़े पैमाने पर है यह फेसबुक पर आ कर ही समझ पाया।

जब विचार इतने बंटे हुए हो तो किसी गहन सोच या विश्‍लेषण की जरूरत नहीं, फिकरेबाजी से भी काम चल जाता है और हमारे देश और समाज के लिए गंभीर और हमारे वर्तमान और भविष्‍य को प्रभावित करने वाले गंभीर मसलों पर चुटकुलेदार टिप्‍पणियों के माध्‍यम से बहुत सारे लोगों का समर्थन तो जुटा सकते हैं, परन्‍तु अपने और उनके समय को क्षय करते हुए, एक दुर्लभ मंच को व्‍यर्थ कर सकते हैं। हमारा बौद्धिक स्‍तर बहुत उथला हो चला है और उस उथलेपन में ही प्रसन्‍न और तुष्‍ट रह कर हम अपने साथ भी अन्‍याय करते हैं क्‍योंकि हम उसी व्‍याधि को अपनी ओर से भी बढ़ाते हैं जिसे मैंने आहत मानसिकता कहा है। जरूरी है यह समझना कि यह कैसे पैदा हुई, कैसे दिलों को उस तरह फाड़ने में सफल हुई जैसा यह दिखाई दे रहा है और यह समझने की भी जरूरत है कि आज के दिन यह काम कौन कर रहा है या उसकी चाल को न समझ पाने के कारण कौन कौन इसमें शामिल हैं और अपने सीमित दायरे में ही सही क्‍या हम इस विच्छिन्‍नता को दूर या कम कर सकते हैं। यह विवेचन फिकरों में नहीं किया जा सकता। यह एक न्‍याय विचार है और आप जानते हैं फतवे और आदेश तो एक वाक्‍य में दिए जा सकते हैं, फिकरे एक वाक्‍य में किए जा सकते हैं, परन्‍तु न्‍यायविचार कुछ समय लेता है और उसे फतवे की भाषा में नहीं लिखा जा सकता। न्‍याय का सार अवश्‍य एक वाक्‍य में दिया जा सकता है। वह वाक्‍य जिस ऊहापोह के बाद किया कया है इसे लिपि‍बद्ध करने में कई दस्‍ते कागज लग जाते हैं। मेरी पोस्‍टों के लंबा हो जाने का भी यह एक कारण है और यदि मैं अपना मन्‍तव्‍य आज भी कतिपय सीमाओं को ध्‍यान में रख कर न पूरा कर सकूं तो जिन्‍हें लगे कि यह एक जरूरी और उपयोगी प्रयास है उन्‍हें आगे भी मेरे साथ रहना होगा।
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हमारे समाज में बहुरूपता अनादि काल से है। हितों का टकराव भी। खंड के भीतर भी कई तरह के खंड। परन्‍तु दिल उस तरह न फटा था जिसकी योजना बहुत दूरदर्शिता से उपनिवेशी शासकों ने बनाई और उसका सफलतापूर्वक कार्यान्‍वयन भी कर दिया। यह था बांटो और राज करो की नीति। नीति भारतीय है और सबसे पुराना नमूना बुद्ध के उस उत्‍तर में था कि जब तक लिच्‍छवियों में एकता है तब तक उन्‍हें कोई परास्‍त नहीं कर सकता जिसके बाद का इतिहास हमें मालूम है।

बांटो और राज करो का प्रयोग शत्रु के प्रति किया जाता रहा है, अपने ही देश या समाज के भीतर नहीं। अंग्रेजों ने ऐसा किया तो मैं उनकी चतुराई का सम्‍मान करता हूं और जितने धैर्य से किया वह जिस परिपक्‍वता की मांग करता है वह हमारे राजनेताओं में आरंभ से ही नहीं दिखाई देता। परन्‍तु स्‍वतंत्र भारत में हमने उत्‍तराधिकार में उनकी भाषा और उनकी नीति भी अपना ली और उनका उपयोग अपने समाज के विरुद्ध करने लगे, यह सबसे दुर्भाग्‍यपूण है और उनकी समाजचिन्‍ता को सन्दिग्‍ध बनाता है कि उन्‍होंने अपने समाज को तरह तरह के वोट बैंकों में बांट दिया। यह दूसरी बात है कि यह काम भी शुद्ध भारतीय परंपरा के अनुसार ही आरंभ हुआ और पहला वोट बैंक नेहरू को पंडित नेहरू बनाते हुए, ब्राह्मणों का कायम हुआ – का नहि बाभन करि सकै, का न समुद्र समाय। वह ईसाई को भी ब्राह्मण बना सकता है, अब नये पंडित, राहुल गांधी है, और नई पंडितानी का नाम आप सुझाएं। हम समाज नहीं है, वोट बैंको के अदना खाते हैं जिनमें हमारे हिस्‍से में हमारा दुर्भाग्‍य जमा होता चला गया है। और इसे जमा करने वाला कौन रहा है इसका फैसला भी आप करें। सुना मोदी ने वोट बैेक बनने का विकल्‍प चालू बैंकों में असली खाता धारक बनने की व्‍यवस्‍था कर दी जिसमें से आपत विपत पर खाते से दुर्भाग्‍य नहीं दो लाख की सहायता राशि निकल सकती है। यह सच है या अफवाह, अपनी राय दें यह दुर्भाग्‍य जमा करने वाले खाते से धाता धारक में परिवर्तन उन सबके लिए अच्‍छे दिनों की शुरुआत है या बुरे दिनों की वापसी, इसका फैसला भी करें और यदि दिमाग सचमुज जवाब दे गया हो तो इन पंक्तियों के लेखक को मोदी भक्‍त कह कर गाली तो दे ही सकते हैं, क्‍योंकि सड़े दिमाग में पहुंचने पर विचार भी गालियों में बदल जाता है ।
*****
आगे जारी

Post – 2016-09-25

मुझे आज अपनी शृंखला से हट कर ओम थानवी की एक पोस्‍ट और उस पर आई प्रतिक्रियाओं से प्रभावित हो कर अपनी टिप्‍पणी देने की आवश्‍यकता अनुभव हुई। प्रतिक्रिया के रूप में लिखा कि आज की पोस्‍ट मैं इसी पर केन्द्रित करूँगा । वह लिखना शुरू ही किया कि मेरी चेतना में यह तथ्‍य कि कितने समय से कितने सारे लोग लगातार एक ही व्‍यक्ति के एक ही पक्ष को लेकर सोच, गढ़ और कह रहे हैं, और उससे बाहर निकल ही नहीं पा रहे हैं, दूसरा कुछ दिखाई ही नहीं पढ़ रहा है, दिखाई भी पड़ता है तो कितना धुंधला, कि अवचेतन ने एक मिसरा ठोक दिया

गौर से देखिए उस जुल्‍फे परेशां को मगर
यह भी तो जानिए खुद आप परेशान से हैं।

सोचा चलो इसकी भी खलिश पूरी हो गई कि कुछ देर बाद एक और

दीवाने के हर काम में दीवानगी मत ढूंढ़
कुछ ऐसा भी करे है, लोग याद करेंगे।

अब वह पोस्‍ट तो शाम तक आएगी, पर रचनाप्रकिया के इस दुहरे चरित्र को तो शेयर किया ही जा सकता है। चेतन कुछ सोच रहा है अवचेतन कुछ और, और दोनों के बीच एक ऐन्‍द्रजालिक रिश्‍ता।

Post – 2016-09-25

समझदारों के बीच एक सही विचार की तलाश’

मैं अाज अपने कल की पोस्‍ट का किसी तकनीकी चूक से उड़ गया अंश प्रस्‍तुत करना चाहता था। परन्‍तु ओम थानवी जी की एक पोस्‍ट पर जो नरेन्‍द्र मोदी के कल के वक्‍तव्‍य पर थी, आई टिप्‍पणियों से बहुत प्रभावित हुआ। प्रभावित होने के पीछे तीन कारण थे, पहला तो बौद्धिक जगत में अाज की स्थितियों से पैदा व्‍याकुलता, दूसरे यह तथ्‍य कि इस पर सकारात्‍मक और नकारात्‍मक विचार व्‍यक्‍त करने वालों की नजर से कुछ बातों का ओझल हो जाना, और तीसरे वह जड़ता जिसमें किन्‍हीं कारणों से कुछ आशंकाएं दहशत या फोबिया का रूप ले लेती हैं और इसलिए हो कुछ भी आप की घृणा या आशंका मन से जाती ही नहीं, अर्थात् आपका दिमाग उस खास संदर्भ में भीतरी गांठ या निक्रियता का शिकार हो जाता है, जिसे हम दूसरे शब्‍दों में कहें तो पार्टली मेंटली डेड कह सकते हैं। इसलिए जरूरी नहीं कि हम किसी व्‍यक्ति या संगठन के तात्‍कालिक बयानों को उसकी अन्‍तरात्‍मा की आवाज मान कर उस पर पूरी तरह विश्‍वास कर लें, अपितु यह कि हम तथ्‍यों और प्रमाणों के साथ अपनेे दृष्टिकोण को प्रस्‍तुत करते हुुए उन लोगों को भी सचेत करें जो एक बार के बयान के कारण किसी भुलावे में आ गए हैं।
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सबसे पहले मैं यह स्‍पष्‍ट कर दूं कि संघ से जिससे नरेन्‍द्र मोदी निकले हैं, मेरी राय अच्‍छी नहीं रही है। मरी राय किसी भी संकीर्ण सोच वाले दल या संगठन के बारे में, जिसमें मुस्लिम लीग, सिम्‍मी, जैसे माेहम्‍मद, हिन्‍दू महासभा, शिवसेना, मनसे, बजरंगदल के बारे में अच्‍छी नहीं रही है न आज है न कल हो सकती है । परन्‍तु मैं इनसे जुड़े लोगों, इनकी मान्‍यताओ, विचारों से घृणा नहीं करता। घृणा करने का अर्थ है आवेग का प्रबल हो जाना और बुद्धि का सुन्‍न हो जाना। इससे घृणा और घृणा पैदा करने और इन पर पलने वाले व्‍यक्तियों, संगठनों, विचारधाराओं और विश्‍वासधाराओं को फूलने, फलने, फैलने और बढने का मौका मिलता है और हमारी समग्र सामाजिक प्रतिरोध क्षमता उसी अनुपात में कम होती जाती है।

उपाय एक ही है कि इन्‍हें व्‍याधि या विकृति मानना और इस बात की व्‍याख्‍या करना कि इसका कारण क्‍या है, यह फैला किन कारणों से है, और इसका निराकरण कैसे किया जा सकता है। यदि नष्‍ट करना है तो मच्‍छर को, मच्‍छर काटने से बीमार को नहीं। जहां बीमारियों का वायरस इतिहास में हो, वह बहुत धैर्य और अनासक्‍त पर अविरक्‍त भाव से उसके कारकों, कारणों और परिणामों को समझना होगा। जहां इसके वायरस हमारे विश्‍वास या मत-मतान्‍तर में हैं, वहां हमें उनकी मीमांसा करते हुए उनको आधुनिक जीवन, ज्ञान और विज्ञान के अनुरूप बनाना होगा। जहां ऐसा केवल अपने निजी या अपने राजनीतिक लाभ के लिए किया गया है वहां हमें राजनीतिक नेतृत्‍व के खतरों से जन साधारण को अवगत कराते हुए उन्‍हें उससे बाहर लाने और स्‍वयं बाहर आने का प्रयत्‍न करना होगा।

जहां अपनी जाति, समुदाय के व्‍यापक हित में स्‍वयं भी बलिदान और त्‍याग करते हुए किसी ने ऐसा निर्णय लिया जिसके दूरगामी परिणाम अहितकर रहे वहां उन महापुरुषों के प्रति आदर रखते हुए भी यह स्‍वीकार करना होगा कि वे उस मामले में गुमराह थे और उनसे हुई गलतियों से बाहर आना होगा। यह मेरी अपनी समझ है और इसी के अनुसार मैं अपनी राय बनाता और उस पर तक तक दृढ़ रहता हूं जब तक कोई ऐसे तथ्‍य, साक्ष्‍य या तर्क देते हुए मेरे मत का खंडन न कर दे ।
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मैंने जिस आहत मानसिकता की चर्चा ऊपर की है उससे हमारे समाज के नब्‍बे प्रतिशत लोग ग्रस्‍त हैं इसका पता मुझे फेब बुक पर, फुर्सत होने पर, लोगों की प्रतिक्रियाओं, उनकी भाषा, उनके विचारो की अपरिवर्तनीयता को देखते हुए चला। जाति, धर्म, और विचारधारा को ले कर इतने दो फांक कि जिससेे अनुकूलन है उसकी मूर्खतापूर्ण या काापटिक उक्तियों का भी आंख मूद कर, उसके छद्म को जानते हुए भी ‘क्‍या खूब कही, क्‍या खूब कही’ करने लगें, और उसकी तार्किक आलोचना से भी खिन्‍न हो उठें, और जिससे मन उचटा हुआ है उसका आभास मिलते ही या तो आगे बढ़ जायं, या चुप लगा जायं, और उसमें दिए गए तथ्‍यों या प्रमाणों से क्षुब्‍ध हो जायं । यह विभाजन है, यह तो जानता था, पर इतने बड़े पैमाने पर है यह फेसबुक पर आ कर ही समझ पाया।

जब विचार इतने बंटे हुए हो तो किसी गहन सोच या विश्‍लेषण की जरूरत नहीं, फिकरेबाजी से भी काम चल जाता है और हमारे देश और समाज के लिए गंभीर और हमारे वर्तमान और भविष्‍य को प्रभावित करने वाले गंभीर मसलों पर चुटकुलेदार टिप्‍पणियों के माध्‍यम से बहुत सारे लोगों का समर्थन तो जुटा सकते हैं, परन्‍तु अपने और उनके समय को क्षय करते हुए, एक दुर्लभ मंच को व्‍यर्थ कर सकते हैं। हमारा बौद्धिक स्‍तर बहुत उथला हो चला है और उस उथलेपन में ही प्रसन्‍न और तुष्‍ट रह कर हम अपने साथ भी अन्‍याय करते हैं क्‍योंकि हम उसी व्‍याधि को अपनी ओर से भी बढ़ाते हैं जिसे मैंने आहत मानसिकता कहा है। जरूरी है यह समझना कि यह कैसे पैदा हुई, कैसे दिलों को उस तरह फाड़ने में सफल हुई जैसा यह दिखाई दे रहा है और यह समझने की भी जरूरत है कि आज के दिन यह काम कौन कर रहा है या उसकी चाल को न समझ पाने के कारण कौन कौन इसमें शामिल हैं और अपने सीमित दायरे में ही सही क्‍या हम इस विच्छिन्‍नता को दूर या कम कर सकते हैं। यह विवेचन फिकरों में नहीं किया जा सकता। यह एक न्‍याय विचार है और आप जानते हैं फतवे और आदेश तो एक वाक्‍य में दिए जा सकते हैं, फिकरे एक वाक्‍य में किए जा सकते हैं, परन्‍तु न्‍यायविचार कुछ समय लेता है और उसे फतवे की भाषा में नहीं लिखा जा सकता। न्‍याय का सार अवश्‍य एक वाक्‍य में दिया जा सकता है। वह वाक्‍य जिस ऊहापोह के बाद किया कया है इसे लिपि‍बद्ध करने में कई दस्‍ते कागज लग जाते हैं। मेरी पोस्‍टों के लंबा हो जाने का भी यह एक कारण है और यदि मैं अपना मन्‍तव्‍य आज भी कतिपय सीमाओं को ध्‍यान में रख कर न पूरा कर सकूं तो जिन्‍हें लगे कि यह एक जरूरी और उपयोगी प्रयास है उन्‍हें आगे भी मेरे साथ रहना होगा।
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हमारे समाज में बहुरूपता अनादि काल से है। हितों का टकराव भी। खंड के भीतर भी कई तरह के खंड। परन्‍तु दिल उस तरह न फटा था जिसकी योजना बहुत दूरदर्शिता से उपनिवेशी शासकों ने बनाई और उसका सफलतापूर्वक कार्यान्‍वयन भी कर दिया। यह था बांटो और राज करो की नीति। नीति भारतीय है और सबसे पुराना नमूना बुद्ध के उस उत्‍तर में था कि जब तक लिच्‍छवियों में एकता है तब तक उन्‍हें कोई परास्‍त नहीं कर सकता जिसके बाद का इतिहास हमें मालूम है।

बांटो और राज करो का प्रयोग शत्रु के प्रति किया जाता रहा है, अपने ही देश या समाज के भीतर नहीं। अंग्रेजों ने ऐसा किया तो मैं उनकी चतुराई का सम्‍मान करता हूं और जितने धैर्य से किया वह जिस परिपक्‍वता की मांग करता है वह हमारे राजनेताओं में आरंभ से ही नहीं दिखाई देता। परन्‍तु स्‍वतंत्र भारत में हमने उत्‍तराधिकार में उनकी भाषा और उनकी नीति भी अपना ली और उनका उपयोग अपने समाज के विरुद्ध करने लगे, यह सबसे दुर्भाग्‍यपूण है और उनकी समाजचिन्‍ता को सन्दिग्‍ध बनाता है कि उन्‍होंने अपने समाज को तरह तरह के वोट बैंकों में बांट दिया। यह दूसरी बात है कि यह काम भी शुद्ध भारतीय परंपरा के अनुसार ही आरंभ हुआ और पहला वोट बैंक नेहरू को पंडित नेहरू बनाते हुए, ब्राह्मणों का कायम हुआ – का नहि बाभन करि सकै, का न समुद्र समाय। हम समाज नहीं है, वोट बैंको के अदना खाते हैं जिनमें हमारे हिस्‍से में हमारा दुर्भाग्‍य जमा होता चला गया है।
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Post – 2016-09-24

प्रयोग – 13
नजारा और नाजिजरीन
एक समय था हमें इस बात की शिकायत थी कि पार्क में बेंचें कम हैं, और हमे इस बात का पछतावा था कि उनकी संख्‍या अधिक हो गई थी फिर भी इसे घेर कर बसी सोसायटी के लोगों के लिए ही बैठने का ठौर नहीं मिल रहा था, जिनके लिए यह सांस लेने की जगह थी। लड़कियों-लड़कों की जोड़ी आगे-पीछे या साथ जैसे भी आए सहमती हुई बरगद के छांव के चार बेंचो पर पहुंचने की कोशिश में रहती, कुछ सकपकाई हुई कि कोई टोक न दे, फिर उनकी संख्‍या बढ़ने के साथ पहले की वह झिझक खत्‍म हो गई और धीरे धीरे वे खुले में लगी उन बेंचों पर भी जगह बनाने लगे और हालत यह हो गई कि बुजुर्ग लोग टहलने घूमने के बाद इधर उधर झांक रहे हैं कि कहीं सुस्‍ताने को जगह मिले और ये अपनी मंडली लिए पड़े हैं। इन सभी सोसायटियों के पार्क में खुलने वाले दरवाजे एक नियत समय पर एक नियत अवधि के लिए खुलते जो प्रात: और सायं दा दो घंटों का होता, जिसका मैं पूरा उपयोग करता था और इससे पहले या बाद में सुरक्षा कारणों से बन्‍द कर दिए जाते। जब तक खुले रहते तब तक एक पहरेदार वहां मौजूद रहता। अब हालत यह कि लोग पार्क में पहुंचते उससे पहले ही मौज मस्‍ती वाले वहां आ जमे रहते । और इनमें एक नया तत्‍व जुड़ गया था, नजारा देखने वालों का जिसकी दल्‍लूपुरा के गूजरों और उसमें बसे किरायेदारों के किशाेरों और युवकों में कमी नहीं थी। खुली जगहों की बेंचे जिन पर सोसायटियों के पुरुष और महिलाएं बैठतीं थी, दूसरा उन पर बैठने से बचता था उस पर ये लड़के ही कहीं और खाली जगह न पाकर आ बैठते।
कुछ लड़के अब इस दृश्‍य पर एक नजर डालने के लिए सायकिलों पर भी आ जाते, और एक नया तत्‍व मोटरबाइक पर सवार लड़कों का भी होता ।
पार्क के एक हिस्‍से में एक बड़ा चबूतरा बना था जिस पर आयाताकार छह बेंचें लगी थी। इस पर बैठक जमती और पन्‍द्रह बीस आदमी स्‍थानीय से लेकर राष्‍ट्रीय राजनीति पर बहस करते और बहस कभी कभी गरम हो जाती तो आवाजें दूर तक सुनाई देतीं । यह चबूतरा बरगद के उन पेड़ों से निकट था जिनके नीचे की बेंचों पर जोडि़यों ने जुड़ना आरंभ किया था । इससे आगे की ओर ट्रैक के पार एक बेंच पर भी दो तीन नाजि़रीन आ बैठते । इस नये बदले पर्यावरण में हमारी कल्‍पना के अनुसार सबसे अधिक असुविधा महिलाओं को होती रही होगी, यद्यपि प्रकाश व्‍यवस्‍था होने के कारण उनकी संख्‍या में कमी नहीं आई थी, न ही केवल एक महिला को छोड़ कर दूसरा इस पर आपत्ति जताता था। वह बूढ़ी थी और जब तब खड़ा हो कर फटकार लगाने लगती थी पर उसका उन पर कोई असर होता दिखाई नहीं दिया। सोसायटियों की महिलाओं के प्रति इन नाजरीनों का व्‍यवहार अभद्रता का नहीं होता, या कभी वे इसकी शिकायत करती न देखी गईं। वे उधर का पूर्वानुमान करके उधर से मुंह फेरे सीधे अपनी राह पर चली जाती। सुरक्षा को ले कर इस विषय में भी आश्‍वस्‍त होतीं कि आगे पीछे दूसरे स्‍त्री पुरुष हैं ही। संभव है अकेली पड़ जाने वाली लड़कियों के साथ वे फब्तियां भी कस‍ते रहे हों पर केवल एक बार अबुल फजल की एक लड़की मेरे पास आई, ‘अंकल, उस कोने में बैठे लड़के फिकरे कस रहे थे।’ मैंने वहां जा कर पूछा, ‘यहां क्‍यों बैठे हो। उठो, भागो यहां से। फिर दिखाई नहीं देना।’ वे उठे चले गए। परन्‍तु इस बात पर मुझे कुछ हंसी भी आ रही थी कि यह जिम्‍मा भी अब तुम्‍हें ही संभालना होगा।
एक अजीब विरोधाभास है कि हमारे समाज में खाते पीते लोगों में शराफत बढ़ी है और आत्‍मसम्‍मान कम हुआ है। धूर्तता, कमीनापन और अकर्मण्‍यता बढ़ी है और समझ कम हुई है । (अपूर्ण, जो लुप्‍त हो गया उसे कल देखे, ‘अवशिष्‍ट’ के रूप में और यदि संभव हो तो इसे उससे जोड़ कर पढ़ें।)

Post – 2016-09-24

ढूंढ़ कर लाओ कहीं से वह शख्‍स
जो तुम्‍हें देख कर उदास न हो ।

Post – 2016-09-24

प्रयोग – 13
नजारा और नाजिरीन

एक समय था हमें इस बात की शिकायत थी कि पार्क में बेंचें कम हैं, और हमे इस बात का पछतावा था कि उनकी संख्‍या अधिक हो गई थी फिर भी इसे घेर कर बसी सोसायटी के लोगों के लिए ही बैठने का ठौर नहीं मिल रहा था, जिनके लिए यह सांस लेने की जगह थी। लड़कियों-लड़कों की जोड़ी आगे-पीछे या साथ जैसे भी आए सहमती हुई बरगद के छांव के चार बेंचो पर पहुंचने की कोशिश में रहती, कुछ सकपकाई हुई कि कोई टोक न दे, फिर उनकी संख्‍या बढ़ने के साथ पहले की वह झिझक खत्‍म हो गई और धीरे धीरे वे खुले में लगी उन बेंचों पर भी जगह बनाने लगे और हालत यह हो गई कि बुजुर्ग लोग टहलने घूमने के बाद इधर उधर झांक रहे हैं कि कहीं सुस्‍ताने को जगह मिले और ये अपनी मंडली लिए पड़े हैं। इन सभी सोसायटियों के पार्क में खुलने वाले दरवाजे एक नियत समय पर एक नियत अवधि के लिए खुलते जो प्रात: और सायं दा दो घंटों का होता, जिसका मैं पूरा उपयोग करता था और इससे पहले या बाद में सुरक्षा कारणों से बन्‍द कर दिए जाते। जब तक खुले रहते तब तक एक पहरेदार वहां मौजूद रहता। अब हालत यह कि लोग पार्क में पहुंचते उससे पहले ही मौज मस्‍ती वाले वहां आ जमे रहते । और इनमें एक नया तत्‍व जुड़ गया था, नजारा देखने वालों का जिसकी दल्‍लूपुरा के गूजरों और उसमें बसे किरायेदारों के किशाेरों और युवकों में कमी नहीं थी। खुली जगहों की बेंचे जिन पर सोसायटियों के पुरुष और महिलाएं बैठतीं थी, दूसरा उन पर बैठने से बचता था उस पर ये लड़के ही कहीं और खाली जगह न पाकर आ बैठते।

कुछ लड़के अब इस दृश्‍य पर एक नजर डालने के लिए सायकिलों पर भी आ जाते, और एक नया तत्‍व मोटरबाइक पर सवार लड़कों का भी होता ।

पार्क के एक हिस्‍से में एक बड़ा चबूतरा बना था जिस पर आयाताकार छह बेंचें लगी थी। इस पर बैठक जमती और पन्‍द्रह बीस आदमी स्‍थानीय से लेकर राष्‍ट्रीय राजनीति पर बहस करते और बहस कभी कभी गरम हो जाती तो आवाजें दूर तक सुनाई देतीं । यह चबूतरा बरगद के उन पेड़ों से निकट था जिनके नीचे की बेंचों पर जोडि़यों ने जुड़ना आरंभ किया था । इससे आगे की ओर ट्रैक के पार एक बेंच पर भी दो तीन नाजि़रीन आ बैठते । इस नये बदले पर्यावरण में हमारी कल्‍पना के अनुसार सबसे अधिक असुविधा महिलाओं को होती रही होगी, यद्यपि प्रकाश व्‍यवस्‍था होने के कारण उनकी संख्‍या में कमी नहीं आई थी, न ही केवल एक महिला को छोड़ कर दूसरा इस पर आपत्ति जताता था। वह बूढ़ी थी और जब तब खड़ा हो कर फटकार लगाने लगती थी पर उसका उन पर कोई असर होता दिखाई नहीं दिया। सोसायटियों की महिलाओं के प्रति इन नाजरीनों का व्‍यवहार अभद्रता का नहीं होता, या कभी वे इसकी शिकायत करती न देखी गईं। वे उधर का पूर्वानुमान करके उधर से मुंह फेरे सीधे अपनी राह पर चली जाती। सुरक्षा को ले कर इस विषय में भी आश्‍वस्‍त होतीं कि आगे पीछे दूसरे स्‍त्री पुरुष हैं ही। संभव है अकेली पड़ जाने वाली लड़कियों के साथ वे फब्तियां भी कस‍ते रहे हों पर केवल एक बार अबुल फजल की एक लड़की मेरे पास आई, ‘अंकल, उस कोने में बैठे लड़के फिकरे कस रहे थे।’ मैंने वहां जा कर पूछा, ‘यहां क्‍यों बैठे हो। उठो, भागो यहां से। फिर दिखाई नहीं देना।’ वे उठे चले गए। परन्‍तु इस बात पर मुझे कुछ हंसी भी आ रही थी कि यह जिम्‍मा भी अब तुम्‍हें ही संभालना होगा।

एक अजीब विरोधाभास है कि हमारे समाज में खाते पीते लोगों में शराफत बढ़ी है और आत्‍मसम्‍मान कम हुआ है। धूर्तता, कमीनापन और अकर्मण्‍यता बढ़ी है और समझ कम हुई है ।

Post – 2016-09-24

कल मेरी चूक से प्रयाेग – 12 अधूरा ही सार्वजनिक हो गया। पूरा पोस्‍ट नीचे है। जिन्‍होंने पढ़लिया हो वे 2 से आगे पढ़ सकते हैं।

Post – 2016-09-23

प्रयोग – 12
अंधेरे के बीच राेशनी

पार्क है तो प्रकाश की व्‍यवस्‍था भी होनी चाहिए। प्रकाश व्‍यवस्‍था के साथ अंधेर न हो तो चिराग के नीचे अंधेरा का मुहावरा गलत हो जाएगा। डीडीए को भी इसका ध्‍यान था, इसका पता तीन तरह के खाली पड़े खंभों से चलता था जिनकी रख रखाव की जगह एक दूसरा ठेका दे दिया जाता था। पहले के खंभे उस ऊंचाई के थे जिस के वे गैस के लैंपपोस्‍ट पुराने समय में हुआ करते थे जिन्‍हें सीढ़ी कंधे पर लादे एक आदमी शाम को आता और जलाता था और सुबह को बुझाता था। पार्क में रोशनी के लिए यह सबसे उपयोगी था क्‍योंकि पेड़ों की छाया के नीचे भी इसकी रोशनी पहुंच सकती थी। इसके हंडे अंधकार प्रेमियों ने तोड़ दिए थे, नीचे के तार खींच का काट डाले थे । इसके बाद सड़कों को रौशन करने के लिए जिस तरह के ट्यू्बलाइट उसी उँचाई पर लगवाए गए थे। उनकी भी वही गति हुई थी। अब हार कर पार्क के लगभग बीचोबीच तीसेक फुट की ऊंचाई पर एक खंभा लगा जिसके विषय में यह विश्‍वास था कि ढेला पत्‍थर का निशाना उस ऊंचाई पर न पहुंचेगा। इसके पांच बाजू पांच दिशाओं में बढ़े हुए थे जिनमेंं नियोन बल्‍ब लगे रहे होंगे यह कल्‍पना की जा सकती थी। जिस समय मैंने इस पार्क से रिश्‍ता जोड़ा, यह खंभा भी खड़ा था, पर कहीं न कोई बल्‍ब था न रोशनी की कल्‍पना। आरंभ में पार्क उजाड़ था। इसपर हमारे सतमंजिले कालम के ऊपर सुरक्षा के खयाल से पीछे की ओर जो तेज रोशनी की व्‍यवस्‍था थी उससे जो रोशनी फैलती थी उतनी ही थी। लोग अधिक समय तक बैठना घूमना पसन्‍द नहीं करते थे इसलिए राेशनी की ओर विशेष ध्‍यान गया ही नहीं। हाल यह था कि आरंभ में मोटरपंप ही चालू नहीं था, उस तक बिजती अश्‍वय पहुंची हुई थी पर वह एक कमरे में थी। हरियाली के साथ रौनक लौटी तो चहल-पहल शुरू हुई और खास तौर से उस ओर जिधर बरगद के पेड़ों की कतार सी थी इसलिए दिन ढलते ही अंधेरा हो जाता, लोगों को गुजरते हुए कुछ दिक्‍कत होती। यह इसलिए भी कि बरगद की छाया में पड़ी चार बेंचों में से पता नहीं किस पर कौन बैठा हो और जाने क्‍या कर बैठे।

(2)
मैं लोगों को समझाने की कोशिश कर सकता था, पर जहां से तन्‍त्र या वाद आरंभ होता है, मैं जानता हूँ वहां समझाने का असर नहीं होता, छोटा से छोटा अधिकारी आप से अधिक समझदार होता है और आपकी समझ पर वहीं भरोसा करता है जब आप उसके सामने रिरियाकर उसके अहं की तुष्टि कर सकें या उसको सक्रिय करने के लिए मोबील आयल डाल सकते हैं। ये दोनों काम मेरे वश में नहीं, फटकारना और कोसना जरूर अपने वश का है:
न तंत्रं नो यंत्र न च मोबिल न विलपनं
महामंत्रो जाने भर्त्‍सनं कुत्‍सनं वा ।

इसलिए पहले दूसरी सोसायटियों के पदाधिकारियों को इस बात के लिए सहमत किया कि जब तक कोई अन्‍य व्‍यवस्‍था न हो, वे मेरी अपनी सोसायटी की तरह पार्क के निकट पड़ने वाले हिस्‍से में उसी तरह की प्रकाश व्‍यवस्‍था तो कर ही सकते हैं। कुछ ने इसे मान लिया और इस पर अमल भी किया, कुछ के साथ तकनीकी कठिनाइयां थीं।

अब देखिए, अपनी अल्‍पावधि याददाश्‍त में कितना इधर उधर हो जाता है। खैर इसी बीच मुझे सौभाग्‍य से लक्ष्‍मीनारायण शर्मा हाथ लग गए थे जो स्‍थानीय स्‍तर के नेता बनने वालों की स्‍पर्धा में एक थे और विनी के आस पास पहुंचते थे। अब मुझे ऐसा लग रहा है कि नियोन लाइट का प्रबंध डीडीए के काल में नहीं हुआ था, अपितु इसके एमसीडी के हस्‍तान्‍तरित होने के बाद हुआ था और ऊपर बताए गए तरीकों को अपनाने के बाद हुआ था। इसमें विनी की जनतोषी और शर्मा जी की सक्रिय रुचि थी। और अब पिछले बयान को सुधरते हुए मुझे कहना पड़ेगा कि यह नियोन लाइटें बेकार नहीं हुई थी, ठीक काम कर रही थी और इन्‍हें चालू करने और सुबह बन्‍द करने का दायित्‍व शर्मा ने अपने ऊपर ले रखा था। इनके किसी बल्‍ब में खराबी आने पर शर्मा जी स्‍वयं सक्रिय होते और बताते कि उन्‍होंने यह कर दिया। वह मेरे हाथ कैसे लगे थे वह एक अलग दास्‍तान है और अपने समाज को समझने के लिए जरूरी भी है।

यह प्रकाश व्‍यवस्‍था ठीक चल रही थी, परन्‍तु बिना हमारे अनुरोध या प्रयत्‍न के पता चला कि अब इसकी जगह ऐ उससे काफी ऊंचे खंभे जिनका मैं नाम भी नहीं जानता, इसलिए लगाए जा रहे हैं कि एशियाई खेल योजना में इतने अधिक खंभे खरीद लिए गए जिनकी जरूरत नहीं थी, इसलिए इन्‍हें कहीं न कहीं लगाना तो है ही। जरूरत हो या न हो। इनमें प्रत्‍येक खंभे की कीमत कई लाख थी।

यह पहले से कुछ अधिक उज्‍ज्‍वल प्रकाश व्‍यवस्‍था तो थी ही जो खेलगांव के साथ पैदा हुई और चलती रही। कहीं कोई असुविधा नहीं। परन्‍तु इसी बीच पिछले पार्क के चार मंजिली ऊंचाई का एक स्‍तंभ लगा जिसमें एलईडी की प्रकाश व्‍यवस्‍था थी और इसे लगवाने की पहल तत्‍समय आगामी और अब संपन्‍न एमसीडी के काउंसलर के प्रत्‍याशी ने स्‍थानीय एमपी या भूतपूर्व एमपी के सहयोग से मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए की थी।

वह कांग्रेस का प्रत्‍याशी था। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्‍व के प्रति मेरी अरुचि जुगुप्‍सा के निकट इसलिए पहुंच जाती है कि उसका न तो देश की मिट्टी से लगाव है, न समाज से लगाव है, न भारतीय मतों और विश्‍वासों से लगाव है, न देशनिष्‍ठा है कि इसके हित के लिए हम कोई भी बलिदान दे सकते हैं, न जिनमें राजनीतिक दक्षता या कूटनीतिक परिपक्‍वता है, न शैक्षिक योग्‍यता है, न नैतिक मनोबल है, न अपनी वंशपरंपरा का श्‍लाघ्‍य गुण, फिर भी मैंने यह पाकर कि आप धूर्तों की जमात है, बीजेपी या तो अयोग्‍य है या भ्रष्‍ट जो उन गतिविधियों को अपने शासन काल में चलने दे रही थी, मैं पहली बार स्‍थानीय कांग्रेस नेता आनंद को आशीर्वाद देने को तैयार था। यह वह समय था जब पार्क का पंप कई महीने से बंद पड़ा था, उसे ठीक करने के लिए लिखत पढ़त हो रही थी, नाजुक पौधे सूखने के कगार पर थे, घास सूख चुकी थी, वह अपने प्रचार अभियान में मेरे पास आया तो मैंने कहा, यदि तुम हमारे पार्क को सूखने से बचा सकते हो तो इसको घेरने वाली सोसायटियाें का वोट तुम्‍हें जाएगा। पंप को ठीक करने के लिए उसे बाहर निकालना था या ऐसी ही कोई कठिनाई थी जिसके लिए उसने प्रयत्‍न किया पर सफल न हो पाया। फिर उसने अपने प्रयत्‍न और साधनों से टैंकर मंगा कर उनकी सिंचाई करता रहा और फिर जब उसके बन्‍दे आए तो मैंने कहा, तुम तो जीत चुके हो। अपना वादा पूरा करने वाला हारता नहीं है।

मुझे दुख था कि विनी ने एमएलए का चुनाव जीतने के बाद आप की आन्‍तरिक राजनीति के कारण इस्‍तीफा दिया और आज तक विनी ही अपने आरोपों में सही सिद्ध हुआ है, पर उसने उससे छोटे पद के लिए अपने को प्रत्‍याशी घोषित करने के साथ ही अपनी हार का भी ऐलान कर दिया। मुझे लंबे समय तक विश्‍वास ही न हुआ कि उस जैसा परिपक्‍व क्‍यक्ति ऐसी भूल कर सकता है।

परन्‍तु मैं इस पोस्‍ट के माध्‍यम से आपको यह बताना चाहता था कि कितने तरह के अंधेरों से और अन्‍धेरगर्दियों से घिरे हम रोशनी की तलाश कर रहे हैं और इन कुचालों के कारण हमारी रोशनी की कीमत कितने गुना बढ़ जाती है। रोशनी के नीचे इतनी तरह के अंधेरे हैं जो चिराग के नीचे हो ही नहीं सकते। हम ऐसे युग में जी रहे हैं जिसमे प्रकाश ग्‍लेयर बन कर हमारी आंखों को चौंधिया देता है और हम एक प्रकाशमूर्छित अंधेरे का सामना कर रहे होते हैं जिसमें रोशनी की नहीं पलकों को बंद करने की विवशता पैदा होती है।

लगातार दुखड़ा रोया जाता है कि एमसीडी के पास फंड की कमी है, जब कि सचाई यह है कि फंड इतना है कि सभी पूरा फंड स्‍वयं खा जाना चाहते हैं और खाने पर ध्‍यान अधिक देने के कारण उन्‍हें करना क्‍या है यह तक भूल जाता है ।

Post – 2016-09-23

प्रयोग – 12

अंधेरे के बीच राेशनी

पार्क है तो प्रकाश की व्‍यवस्‍था भी होनी चाहिए। प्रकाश व्‍यवस्‍था के साथ अंधेर न हो तो चिराग के नीचे अंधेरा का मुहावरा गलत हो जाएगा। डीडीए को भी इसका ध्‍यान था, इसका पता तीन तरह के खाली पड़े खंभों से चलता था जिनकी रख रखाव की जगह एक दूसरा ठेका दे दिया जाता था। पहले के खंभे उस ऊंचाई के थे जिस के वे गैस के लैंपपोस्‍ट पुराने समय में हुआ करते थे जिन्‍हें सीढ़ी कंधे पर लादे एक आदमी शाम को आता और जलाता था और सुबह को बुझाता था। पार्क में रोशनी के लिए यह सबसे उपयोगी था क्‍योंकि पेड़ों की छाया के नीचे भी इसकी रोशनी पहुंच सकती थी। इसके हंडे अंधकार प्रेमियों ने तोड़ दिए थे, नीचे के तार खींच का काट डाले थे । इसके बाद सड़कों को रौशन करने के लिए जिस तरह के ट्यू्बलाइट उसी उँचाई पर लगवाए गए थे। उनकी भी वही गति हुई थी। अब हार कर पार्क के लगभग बीचोबीच तीसेक फुट की ऊंचाई पर एक खंभा लगा जिसके विषय में यह विश्‍वास था कि ढेला पत्‍थर का निशाना उस ऊंचाई पर न पहुंचेगा। इसके पांच बाजू पांच दिशाओं में बढ़े हुए थे जिनमेंं नियोन बल्‍ब लगे रहे होंगे यह कल्‍पना की जा सकती थी। जिस समय मैंने इस पार्क से रिश्‍ता जोड़ा, यह खंभा भी खड़ा था, पर कहीं न कोई बल्‍ब था न रोशनी की कल्‍पना। आरंभ में पार्क उजाड़ था। इसपर हमारे सतमंजिले कालम के ऊपर सुरक्षा के खयाल से पीछे की ओर जो तेज रोशनी की व्‍यवस्‍था थी उससे जो रोशनी फैलती थी उतनी ही थी। लोग अधिक समय तक बैठना घूमना पसन्‍द नहीं करते थे इसलिए राेशनी की ओर विशेष ध्‍यान गया ही नहीं। हाल यह था कि आरंभ में मोटरपंप ही चालू नहीं था, उस तक बिजती अश्‍वय पहुंची हुई थी पर वह एक कमरे में थी। हरियाली के साथ रौनक लौटी तो चहल-पहल शुरू हुई और खास तौर से उस ओर जिधर बरगद के पेड़ों की कतार सी थी इसलिए दिन ढलते ही अंधेरा हो जाता, लोगों को गुजरते हुए कुछ दिक्‍कत होती। यह इसलिए भी कि बरगद की छाया में पड़ी चार बेंचों में से पता नहीं किस पर कौन बैठा हो और जाने क्‍या कर बैठे।