Post – 2017-08-25

खट्टर को जाना चाहिए, प्रभू जाना चाहें तो जायं

प्रभु के मन्त्रित्व काल में कई दुर्घटनाएं हुई, ऎसी जिन्हें कोई दूसरा भी रोक न सकता था. खान पान को लेकर उन्होंने कुछ प्रयोग किए जो अपूर्व थे. अब आप वेज और नॉन-वेज के बीच ही नहीं उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय आहार और उपाहार के बीच चुनाव कर सकते थे. खोजी पत्रकारों ने बताया और दिखाया कि स्वच्छता का स्तर अपेक्षा के अनुरूप न था. यद्यपि उनके पास इस बात का आंकड़ा न था कि कब यह अपेक्षा के अनुरूप था फिर भी मैं मानता हूँ निगरानी के स्तर पर चूक हुई. यह नहीं जानता कि इस और ध्यान दिलाने के बाद उन्होंने सुधार की और ध्यान दिया या नही, या दिया तो कितना.

उनके स्तर पर जो निर्णय लिए जा सकते थे और लिए गए उनके कारण कोई दुर्घटना नहीं हुई. जैसे कुछ गाड़ियों की गति बढाने का फैसला. किसी दुर्घटना का कारण यह न बताया गया कि पटरियां उतनी गति के अनुरूप न थी और इसलिए पटरी उखड गई. मानव रहित क्रोसिंगों को सुरक्षित बनाने के अभूतपूर्व अभियान के कारण. जो दुर्घटनाएं हुईं उनकी प्रकृति अलग है . उनमें से किसी के लिए उन्हें दोषी नही ठहराया जा सकता. इस विषय पर मैं अपने ज्ञान और अनुभव के बल पर अब तक के किसी टिप्पणीकार, स्तंभकार और एंकर के अभिमत को बचकाना, दुराग्रह्पूर्ण या उद्वेजक मानता हूँ, जिसमें मैं इंडिया टीवी के कुशल एंकर की योजना और प्रबंधन को भी शामिल करत्ता हूँ. मैं यह दावा क्यों करता हूँ इसे कल समझाऊंगा.

परन्तु हरयाना के मुख्यमंत्री खट्टर से अयोग्य और प्रशासनिक दृष्टि से अक्षम व्यक्ति पाने के लिए शोध कार्य की जरूरत होगी. शोध के बाद भी कोई किसी देश में मिल ही जाए यह जरूरी नहीं. जिस जत्थे का कोई एक व्यक्ति यह दावा करे कि उसके गुंडेश्वर को कुछ हो गया तो भारत का नक़्शे से निशान मिटा दिया जाएगा और वह नहीं समझ पाता कि ऐसे लोग इस कथन के साथ देशद्रोह के संदेह में हिरासत में लिए जाने चाहिये, जो मात्र डंडे लेकर चलने वालों के डंडे ले कर उन्हें आगे जाने दे और उनके ड्राइविंग लाइसेंस का नंबर लिए और उन्हें यह हिदायत दिए बिना आगे जाने दे कि यदि कुछ भी अप्रिय घटा तो तुमको उसमें भागीदार मानकर तुम्हारे ऊपर कार्र्वाई की जायेगी. जो धारा १४४ लगाकर भी लोगों का जमावड़ा होने दे, जिसे सक्रिय होने के लिए बार बार अदालत को लानत भेजनी पड़े, उस निकम्मे मुख्यमंत्री को न हटाया गया तो यह इस बात का प्रमाण होगा कि मोदी संघ के दबाव और उसके निकम्मों के बचाव से मुक्त नहीं हैं और उनसे बहत अधिक आशा नहीं रखी जा सकती.

Post – 2017-08-25

बाबा राम रहीम जिस विश्वास से जा रहे थे उसमें यह ध्वनित था फैसला उन्हें पहले से मालूम है कि उन्हें कुछ न होगा।

Post – 2017-08-24

चलेंगे हुश्न के चर्चे कहीं भी और कभी भी तो
तुम्हे जो याद रक्खेगे मुझे भी याद आएंगे .

Post – 2017-08-24

तीन तलाक का भविष्य

उन्हें डर था कि अब जाने कहां तक बात पहुंचेगी।
अभी तो इब्तदा है, इन्तहा तक बात पहुंचेगी ।।

गुलामी की लम्बी आदत में अन्याय और उत्पीड़न की कुछ रीतियां आकर्षक लगने लगती है। सैडिज्म और मैसोकिज्म एक दूसरे की जरूरत बने रहते है। महिलाओं की एक बड़ी संख्या अपने ऊपर आग्रहपूर्वक थोपी गई पाबन्दियों और अपने साथ किये जाने वाले अत्याचारों को मजहबी विधान, इज्जत या शालीनता का हिस्सा मान कर इनका पालन करने की हिमायत करती हैं। शिक्षा, संचार के आधुनिक साधनों और दूसरे समुदायों के प्रभाव में ऐसे प्रचलनों के विरुद्ध उनके बीच लगभग सर्वानुमति पैदा करती हैं जिससे किसी एक में उसे चुनौती देने का साहस पैदा होता है और अपने पूरे समुदाय का समर्थन मिलता है। अत्याचार को अधिकार मानने वाले, इस तथ्य के बावजूद कि इसके दुष्परिणाम उनकी ही बेटियों, बहनों को झेलना पड़ता है जिन्हें वे सुखी देखना चाहते हैं, जुल्म ढाने के अपने अधिकार को छोड़ना नहीं चाहते, अन्यथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर विराजमान किसी व्यक्ति को तीन तलाक को जारी रखने का खयाल नहीं आ सकता था,और वह आधुनिक शिक्षा प्राप्त होते हुए कठमुल्लों का साथ न देता।

कठमुल्लों को और ऐसे जज का, ऐसे चलन का, जो उसके धर्मग्रन्थों के विधान के विपरीत है और जिसको लगभग सभी अनुचित मान रहे थे, समर्थन इस प्राकृत न्याय से भय के कारण लग रहा था कि गुलामी की एक बेड़ी भी टूटी तो एक एक करके दूसरी बेड़िया तोड़ने की आकांक्षा पैदा होगी और यह सिलसिला तब तक जारी रहेगा, जब तब सभी प्रतिबन्ध हट नहीं जाते।

इस फैसले से मुस्लिम महिलाओं को आजादी तो नहीं मिली, पर आजादी की लड़ाई का रास्ता खुला है । प्रकट रूप में गुस्से या नशे में एक पर एक तीन तलाक कह कर छुट्टी पाने पर रोक अवश्य लगी है। हलाला के चलन पर लगभग पूरी रोक लग जाएगी क्योंकि तैश में आकर लिए गए ऐसे तलाक में गलती का अहसास होने पर हलाला की नौबत आती है। मुल्लों की अपनी आमदनी और मस्ती का एक जरिया खत्म हो गया । सरकार को इस विषय में कानून बनाना है और आज ऐसी सरकार है जो ऐसे तलाक पर कठोर दंड की व्यवस्था तो कर ही सकती है, अन्यथा भी तलाक शुदा महिलाओं और यतीम होने वाले बच्चों के आर्थिक हितों की रक्षा करने वाले विधान ला सकती है, जिससे तलाक की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा ।

अगली लड़ाई बहुविवाह के विरुद्ध होनी है जिसकी दर तलाक से अधिक है और जिसकी यातना तीन तलाक से भी अधिक मर्माहत करने वाली है । परन्तु उसके विषय में इस फैसले ने परसनल ला को अछूता रखने की शर्त लगा कर प्रतिगामी निर्णय दिया है। इस विषय में वर्तमान सरकार भी जुझारू महिलाओं के आन्दोलन की प्रतीक्षा करने को बाध्य है, परन्तु महिलाओं को भी तलाक का अधिकार देकर इससे मुक्ति की संभावना कम से कम ऐसी औरतों के मामले में पैदा कर ही सकती है जो आर्थिक रूप में आत्मनिर्भर रह सकती हैं ।

महिलाओं में शिक्षा के प्रसार के अनुपात में ही इस जंग में तेजी आएगी । मोदी सरकार ने मुस्लिम बालिकाओं की शिक्षा पर प्रोत्साहन राशि की व्यवस्था करके उसमें अपनी भूमिका अदा कर दी है।

कांग्रेस के कपिल सिब्बल ने मुल्लों का साथ दे कर और दूसरे दलों ने ठंडा रुख दिखाकर और इनकी तुलना में भाजपा ने पूरा समर्थन दे कर ही नहीं आगे की जंग में एकमात्र हितैषी का विश्वास दिला कर वोटबैंक का खेल खेले बिना, मुस्लिम महिलाओं के मत पर एकाधिकार कर लिया जिससे आगामी एक ही नहीं सभी चुनावों में भारी लाभ मिलेगा। परन्तु अपने को सेक्युलर और प्रगतिशील कहने वालों ने यह सिद्ध कर दिया कि वे मुस्लिम समाज के साथ नही उसके मुल्लों के साथ खड़े रहे है और नकारात्मक राजनीति करते रहे हैं जो सकारात्मक राजनीति के एक तेवर मात्र से जमीन पर आ जाती है। जिन्हें मेरा यह आरोप अनुचित लगता रहा हो की सेकुलारिस्म मुस्लिम लीग के एजेंडे को अपना कार्यभार मानता है वे उसकी पुष्टि यहाँ भी देख सकते हैं.

Post – 2017-08-23

वह हमें दैख न सकता है मगर
हम उसे देखते हैं, देखिये तो !

बीतेगी गम की रात मगर इस तरह नदीम
देखोगे मुझे पूछोगे यह आपही तो हैं?

क्यों पूछते है मेरा पता दुश्मने जान
क्यों आप छिपाते हैं यह बतलाइये तो
हम दूर है पर दूर भी इतने तो नही
शिकवे के लिए ही करीब आइए तो।।
….

मियाद अपनी पता है फिर भी
मौत से छेड़छाड़ करते हैं
जिनको ट्रोलिंग की सजा है मालूम
रपट करने में देर करते हैं ।

Post – 2017-08-23

टकावादी मार्क्सवाद (१२)

“तुम यह तो मानोगे कि सारी पैंतरेबाजी और रोजगार के आश्वासनों के बाद भी बेरोजगारी बढी है, मंहगाई बढ़ी है, लोग बेहाल हैं। ऊपर से जो भी दावे किये जाँय स्थिति बेकाबू होती जा रही है। जनता को सपने दिखा कर कुछ चुने हुए उद्योगपतियों के खजाने भरे जा रहे है। वे कर वंचना कर रहे हैं तो उसकी अनदेखी की जा रही है। अब तो निर्वाचन आयोग ने भी कह दिया कि कुछ घरानों को लाभ पहुंचाया जा रहा है। तुम्हें इनमें से कुछ दिखाई नहीं देता।”

“मुझे तो यह भी दिखाई देता है कि हालत और बिगड़ेगी। सरकारी दफ्तरों में काम में सुस्ती के अनेक कारणों में एक यह भी है कि उनमें जरूरत से अधिक लोग भरे हुए हैं। कुशलता बढाने के लिए हो सकता है अनेक विभागों में रिक्त होने वाले पदों को ही समाप्त कर दिया जाये। स्वचालित यंत्रों के बढ़ने से कुछ और पद कम होंगे और बेकारी और विकट रूप लेगी। यदि तुम चाहो तो मैं चित्र को और निराशाजनक बना सकता हूँ। तुम दुर्भाग्य को अवसर मानते हो, इसलिए इसके समानांतर कुछ और सचाइयां हैं जिनकी और तुम्हारी नज़र नही जाती। उसके बावजूद तुम भी मानने लगे हो कि २०१९ में भी यही सरकार बनी रहेगी। दुर्भाग्य सचमुच बढ़ता जाय तो भी । और इसका कारण है विकल्प का अभाव। प्रयत्न विकल्प बनाने का करना चाहिए, प्रतीक्षा तुम देश की अधोगति की करते हो। देश ऐसे लोगों के साथ कैसे अपनत्व अनुभव कर सकता है। तुमने आर्थिक प्रश्नों पर ध्यान देने के सुझाव पर स्वयं इसके लिए टकावाद का प्रयोग किया था पर यह भूल गए कि तुमने टकावादी प्रलोभनों से मजदूरों को अपने पक्ष में करते हुए, उनको कामचोरी और तोड़फोड़ का औजार बनाते हुए अपना हवाई वितान ताना था। तुम्हारे पास क्रान्ति के सपने के अलावा कोई सकारात्मक कार्यक्रम था ही नही। जनता से जुड़ने का माध्यम जो भाषा है उस तक से न जुड़ सके।

“यदि मुझे नाम देना होता तो तुम्हें टकावादी न कह कर पाखण्डवादी मार्क्सवादी कहता। भाजपा के विषय में और कुछ भी कहो, उसने न तो अटल जी के काल में नकारात्मक राजनीति की न ही मोदी के कार्यकाल में, न ही विपक्ष में रहते हुए। संघ की विवशता थी कि उसे अटल जी को भी झेलना पड़ा और मोदी को भी झेलना पड़ रहा है और इन दोनों को संघ के दबाव से बचते हुए अपने सपनों के भारत का निर्माण करने का रास्ता निकालना पड़ा जिसमें किसी के लिए अलग से कोई ऎसी रियायत नहीं दी गई जिसकी संविधान में व्यवस्था नहीं। अपतोष के आदी लोगों को भले यह रास न आया हो और आज भी न आता हो। तुम्हारी राजनीति इतनी नकारात्मक रही कि उनके अच्छे कामों पर नज़र तक नहीं डाल पाते। यह तक समझ नहीं पाते कि उन सारी बुराइयों के बाद भी जनता का मोदी में विश्वास बढ़ता क्यों गया है? तुम इसकी विफलता देखते हो, सफलता के कारणों को समझना तक नहीं चाहते।”

“मैं नहीं समझता तो तुम्हीं समझा दो। तुमको तो नकारात्मक भी सकारात्मक दिखाई देता है।”

“पहले तुम मोदी के व्यक्तित्व को समझो। यह आदमी किसी को अपना दुश्मन नही मानता। यह अपना बनाने और अपनत्व निभाने में विश्वास करता है। सत्ता के प्रतिस्पर्धियों में खलबली इसी से मच जाती है। कुटिल योजना वाले पड़ोसियों में घबराहट इसी से पैदा हो जाती है। यह जिस भी काम को हाथ में लेता है, इतने समर्पित भाव से करता है कि अपने सहयोगियों और उन व्यक्तियों का मन जीत लेता है, चाहे वे कभी के अडवानी जी हों या जोशी जी या आज की भारतीय जनता। इससे सहयोगियों, प्रेमियों का ऐसा विशाल दायरा बनता है कि लोग दूसरे सभी आग्रहों को छोड़ कर इससे सीधे जुड़ते जाते हैं। यह दुश्मन का भी दिल जीतने और विशवास रखता है और जब तक इसे हासिल नही कर लेता तब तक धैर्य रखने की शक्ति रखता है! जब यह तरीका काम नहीं करता तो बिनु भय होइ न प्रीति वाले सूत्र का सहारा लेता है। अपने इसी गुण के बल पर इसने अपने संगठन के भीतर अपने वरिष्ठों और कनिष्ठों और समवयस्को का विश्वास जीता, पटेल बहुल और सता के प्रति आग्रही पटेलों के बीच अपना महत्त्व स्थापित किया और अपनी समर्पित कार्यनिष्ठ के कारण जिन वरिष्ठों में यह विश्वास पैदा किया कि वह उनका भक्त है। समय आने पर आदर सहित किनारे डालने में भी सफल हुआ। जो अग्रज नख-दन्त-विहीन करके किनारे डाल दिए गए वे खुलकर शिकायत तक नहीं कर सकते।

उसकी वही नीति अपने देश के सभी धडों को, इसके सभी अंचलों को, अपने सभी पड़ोसी देशों को मिलजुल कर सबकी प्रगति को संभव बनाने के प्रयोग में हुई जिसके लिए वह उस हद तक नम्रता दिखाने को तैयार दिखा जब तक आत्मसम्मान, देशहित और राष्ट्र सम्मान को ठेस न पहुंचे। कलह के लम्बे इतिहास वाले कश्मीर में उसी सहृदयता का परिचय देते हुए जब उसने उसकी आपदा निवारण , उसके विकास की संभावनाओं की तलाश और लोकमत का सम्मान करते हुए सबसे बड़े दल के साथ सरकार बनाने जैसे चकित करने वाले कदम उठाये तो आतंक और नफरत का निर्यात करने वाले पकिस्तान में खलबली मच गई। सत्ता से बाहर हो चुके दलों में वैसी ही बेचैनी। ये उसके कच्चे दाव न थे, न कठोर कदम थे। आतंकवादियों और अलगाववादियों को, उपद्रवकारियों को रिश्वत देकर उग्र होने से रोकने का तरीका उसने बंद किया। सोचो, यदि देना स्वयं उपद्रवकारियों को रिश्वत देकर मनाये तो उनकी तुलना में उसका मनोबल कितना गिरा रहेगा? कश्मीर जैसी उलझी समस्या को सुलझाने का सकल्प, धैर्य, सूझ, और यह विश्वास कि यह गोली से नही गले मिलकर हल होने वाली समस्या है, तुम्हे लफ्फाजी लगती है और मुझें एक अभूतपूर्व सूझ। तुम अपनी हताशा में अलगाववादियों के साथ खड़े हो कर कश्मीर में तो जगह बना नही पाते, देश से भी अलग होते जाते हो।“

“विरुदावली समाप्त हो गई?”

“अभी बाक़ी है । मैं जानता हूँ तुम भीतर से इतने बेचैन हो कि मेरी पूरी बात सुन भी नहीं पा रहे होगे। पर जितना भी कान में पड़ जाय, अमृत समझो। यही नीति उसने पाकिस्तान और चीन के साथ भी अपनाई। यदि आर्थिक हितों को मजबूत किया जाय तो सामरिक तनाव कम होगा, परन्तु यह प्रयास सामरिक तैयारी के साथ किया। लेन देन के रिश्ते जोड़ते है, इसलिए प्रेम और दूसरे नातों का एक मजबूत धागा है अवसर के अनुरूप लेन देन, उपहार और सहयोग। पर इसी के साथ उसका वह व्रत न हम आँख झुका कर बात करेंगे न आँख दिखा कर बात करेंगे। हम आँख से आँख मिला कर बात करेंगे। तुम जानते हो, इससे पहले आँख चुराकर बात करने का चलन था। हमारी सेना के लोग भी कहते थे चीन के सामने हम कहीं नही ठहरते। पूरा देश पर्कुसन मेनिया से ग्रस्त था – चीन बर्मा से, श्री लंका से, पकिस्तान से हमें घेरता दिखाई दे रहा था और अपनी सीमाओं पर हमारे सनिक कापते खड़े रहते थे। आज चीन स्वयं घिरा हुआ लगता और अपनी दहाड़ के बाद भी सिहरा सिहरा दिखाई देता है और हमारी उन्ही सेनाओं के लोग कहते है हम चीन पर भारी पड़ते हैं, फिर भी टकराव की जगह संवाद को सही तरीका भी मानते है। अच्छे दिन तश्तरी में लड्डू रख कर नही कर्मठता और संकल्प जगाते हुए आते हैं।“

“बस करो यार, यह देखो, मैंने हाथ भी खड़े कर दिए।“ उसने हाथ उठाते हुए कहा ।

“करता हूँ पर जहां से बात शुरू हुई थी उस पर लौटें। इतने बड़े देश की बेरोजगारी जिसमें हर दशक में एक नया देश पैदा हो जाता है, दुनिया की कोई सरकार दूर नही कर सकती। वह लोगों को स्वयं अपनी सूझ बूझ से अपनी जीविका का साधन निकालने के लिए आर्थिक सहायता, तकनीकी सलाह और शैक्षिक सुविधाएं देने का प्रयास करे तो ही लोगों को सरकार की जिम्मेदारी पर बच्चे पैदा करने की जगह अपने घर परिवार को संभाल कर रखने की अक्ल भी पैदा हो सकती है। पता लगाना वह इस दिशा में सरकार कुछ कर रही है या नही।

॰मुझे इस व्यक्ति के काम से निराशा नही है। आशंका इसके उस अपार आत्मविश्वास से होती है जिसमें इसने किये तीन तीन इतने साहसिक प्रयोग जो यदि किसी दूसरे देश ने किये तो डूब गया या किसी अन्य ने किये ही नहीं। जन हित के नाम पर चलाई जाने वाली योजनाओं का पैसा बीच में खा जाने वाले दलालों को एक एक झटके में काट कर सीधे एक एक व्यक्ति से जुड़ने का उसका प्रयोग दूसरा सर्जिकल स्ट्राइक था। अब तक के विश्व इतिहास में अनूठा। यदि घबराहट में और कुछ न सुनाई पडा हो तो इतना सुन लो कि उसकी सबसे बड़ी ताकत लोगों का विश्वास जीतने , लोगों को जोड़ कर रखने की कला है। वह दुश्मन को मिटाने की जगह दुश्मनी को मिटाने के लिए जरूरत होने पर शक्ति का भी प्रयोग कर सकता है। इस कला में भी वह दक्ष है। अब उसकी इस शक्ति को जान लेने के बाद यह सोचो कि क्या उससे उसका यह हथियार छीन सकते हो। समाज से उसी तरह जुड़ सकते हो और उसका विश्वास जीत सकते हो?”

Post – 2017-08-22

लोकप्रियता और लोकहित

हम तुम्हे चाहते हैं पर देखो
जान हो, जान के दुश्मन भी हो.
तुम हो मेरे गले का हार मगर
तुम मेरी लाश के कफन भी हो.

इस अप्रिय विषय पर लिखने चला तो यह मिसरा कहाँ से उपस्थित हो गया. यह मुझे पता न था. लोकप्रियता उत्कृष्टता का मानक नहीं बन सकती, परन्तु लोक तक पहुँचे बिना हम क्या जनमानस को कोई दिशा दे सकते हैं? यह किसी पर कोई आरोप नही. एक प्रश्न है कि विचार, कला और कौशल में हम किसे छोड़ कर कला को एक सशक्त संचार माध्यम बना सकते हैं और अपने को, कला को कलाकार के दायित्व को बचा भी सकते हैं और नए प्रयोग भी कर सकते है? उस सुबह को आना है लेकिन वह सुबह शाम तक आएगी. आपका क्या ख्याल है ?

Post – 2017-08-22

प्रतिबद्धता की सीमा

मेरे तर्क और प्रमाण पर ध्यान दें, पर निष्कर्ष पर भरोसा न करें. जो ध्यान न देगा वह अपना बचाव न कर पाएगा और मुश्किल में पड़ जाएगा, जो भरोसा करेगा वह बेमौत मरा जाएगा. मैंने जब पक्षधर भूमिका अपना ली और उसका वकील बन गया जिसकी बात रखने वाला कोई नहीं मिल रहा था, उसी समय मैं एक विचारक और निर्णायक की भूमिका से उतर कर वाद प्रतियोगिता के एक प्रतियोगी या प्रतिपक्ष की भूमिका में आ गया जिसमें मैं सही न होते हुए भी अपने को सही और सही को गलत या अवांछनीय सिद्ध करने का प्रयत्न करने को प्रतिश्रुत हूँ. परन्तु यदि मेरे इस बेबाक आत्मस्वीकार से आपको यह समझ में आ जाए कि पक्षधरता, वह किसी नाम से हो, या किसी भी ध्येय को समर्पित हो न न्यायपरक हो सकती है न मानवतावादी, भले ध्येय की पवित्रता से आकृष्ट हो कर महान से महान विभूतियाँ स्वयं अपना जीवन इसके लिए उत्सर्ग कर दें. और यह न जान पायें कि उन्होंने इस पवित्र आवेश में यातना और वेदना के कितने रूपों को देखने और जानने से इनकार कर दिया. यह समझने का प्रयत्न तक नहीं किया कि वे जिस मानवतावादी सरोकार से एक संगठन से जुडे थे वह मानवतावाद है या औपचारिक मानवतावाद या व्यावहारिक मानवतावाद है. खैर राजनीति संभावनाओं का खेल है, इसलिए उसकी विवशताएँ है, परन्तु साहित्यकार और कलाकार को भी क्यां उनकी वेदनाओं से अनजान या जानकर भी निर्वेद रहने का अधिकार था?
वैचारिक प्रतिबद्धता, कलात्मक प्रतिबद्धता में जिस तत्त्व का आभाव या क्षय होता है वह मानवीय संवेदना का अभाव. इसमें कलाबाजी दिखाई जा सकती है जो कलावाद की विरोधी प्रतीत होते हुए भी कलावाद से भी अनुर्वर हो सकती है.
इस सत्य का साक्षात्कार मुझे उस अभागे का वकील बनने के बाद हुआ. क्या आपको इस बहस से कोई फायदा हुआ? यदि मैंने नतीजा निकाला उससे सहमत हो गए तो आप गए. आप हैं और रहेंगे यह सिद्ध करने के लिए मुझे और मेरे पाठकों को बताएं कि किन बातों को मैंने छिपा लिया है और उनके आने पर निष्कर्ष कितना बदल सकता है?

Post – 2017-08-22

टकावादी मार्क्सवाद (११)

‘‘तुमने तो मुझे सचमुच डरा दिया यार, मैं रात में बुरे सपने देखता और नीद टूट जाती, फिर सोता तो वही सपना।’’

‘‘तुम अपनी औकात को कम करके आंक रहे हो। तुम सिर्फ रात में ही नहीं, दिन में भी बुरे सपने ही देखते आ रहे हो। कई साल से केवल बुरे सपने। और मुहावरा तो केवल नींद टूटने का है, तुमने जाग टूटने और फिर फिर जागने की कोशिश में ही पिछले चार साल बिताए हैं क्योंकि यह बीमारी चुनाव से पहले ही आरम्भ हो गई थी। फिर भी रात कुछ ऐसा तो हुआ ही कि तुम्हें खुद भी इसका अहसास हुआ। बताओ, मैं भी तो सुनूँ।’’

“यह ठिठोली का समय नहीं है, समस्या सचमुच गंभीर है। तुम बताओ एक तानाशाह को सबसे अधिक खतरा किससे होता है? बुद्धिजीवियों से ही न, वह अपने आलोचकों को या तो गायब कर देता है या जेल में दाल देता है। सूचना के स्रोतों को अपनी मुट्ठी में कर लेता है और जो झुकने से इनकार करते हैं की उन्हें उत्पीडित करके या तो तबाह कर देता है या झुकने पर मजबूर कर देता है। यह आदमी यही कर रहा है, कहो कर चुका है और तुम फिर भी कहते हो यह लोकतंत्रवादी है। खुली सचाई यह है कि तानाशाही आ चुकी है। हम आपातकालीन परिस्थितियों में आपात काल की घोषणा के बिना ही डाल दिए गए है।

“तुम ठीक कह रहे हो। मैंने पहले ही कहा था कि यदि तानाशाही आई तो मोदी के कारण नहीं आएगी, तुम्हारे कारण आएगी। गौर करो, तानाशाह लोगों के अधिकारों का हनन करते हुए, कानून का उल्लंघन करते हुए, शक्ति का प्रयोग करते हुए ऐसा करता है। इसने किसी नियम का उल्लंघन नहीं किया, उलटे तुम आजादी आजादी चिल्लाते हुए नियमों और मर्यादाओं का उल्लंघन करते रहे। तुम उसे फासिस्ट बताते रहे और फासिस्ट भाषा और हथकंडों का प्रयोग करते रहे और उसने दिखा दिया कि फासिस्ट प्रवृत्तियों को भी जनतान्त्रिक तरीके से विफल किया जा सकता है। तुम्हे याद है उसने minimum government and maximum governance का नारा देते हुए चनाव जीता था और यह उसी का अमली रूप है।

“लोकतंत्रवादी हुआ करे, पर विरोध को कुचल देना, कोई रोक टोक करनेवाला न रह जाना, जो जी में आया करते जाना, यही तो करता है तानाशाह। वही हो रहा है।”

“कुचल देना न कहो, कहो विपक्ष की अपनी करनी से उसका डूबते जाना, बुद्धिजीवियों का अपने अहंकार में, शोर मचाते हुए सन्नाटे का हिस्सा बन जाना, कहो। खैर, प्रक्रिया जो भी हो, शक्ति का एक व्यक्ति में के्द्रित हो जाना मुझे भी डरावना लगता है। तुम लोग मेरी बात पर ध्यान तो देते नहीं, मैंने पहले ही कहा था यदि तानाशाही आई भी तो इसके जिम्मेदार तुम लोग होगे। और आज तो एक और गजब हो गया, तुम्हारा सौ साल पुराना नुस्खा अपने आप फट गया। तुम लोग वोट बैंक की राजनीति के चलते मुसलमानों में हिंदुत्व के प्रति नफ़रत फैला कर उसे उनके वोट से वंचित करते रहे। उसने नफ़रत की दीवार को ढहाते हुए मुस्लिम महिलाओं को सीधे अपने पक्ष में कर लिया और मुस्लिम पुरुषों की आवाज में जो फर्क नजर आया वह यह कि वे जिस आदमी से इतना परहेज करते रहे हैं, वह सचमच सबको साथ लेकर सच्चे दिल से चलना चाहता है। नफ़रत का विस्तार करते हुए अपने को जिलाए रखने का तुम्हारा सबसे कारगर औजार बेकार हो रहा है। शिया समुदाय में उसकी पैठ पहले हो चुकी है.। अब तो कोई नया हथियार तलाशो।