Post – 2017-08-17

‘लहक’ के कुछ अंक मुझे आज ही मिले क्योंकि वे मेरे उस पते पर भेजे गए थे जहाँ मैं एक साल से नहीं रहता. जिस अंक को खोला उसके सम्यक संवाद पर निर्भय देवयांश की एक कविता मंगलेश की एक टिप्पणी और देवी प्रसाद के एक प्रश्न पर तीखी प्रतिक्रिया के रूप में लिखी गई है. मैं लहक का पहले से प्रशंशक हूँ पर इसे छाप कर उसने यह सन्देश दिया है कि यशलिप्सा में अपने को विज्ञापित करते हुए वैज्ञानिकता को उस यांत्रिकता तक पहुंचाया जा सकता है कि मैंने अपनी मा की कामेच्छा पूरी करते हुए उसका सम्मान किया क्योंकि अंततः प्रकृति के आदेश से यह एक नर का एक मादा से नैसर्गिक सहवास था. अपने लिए सबकुछ पाने के दबाव में हम अपने को तो जिन्दा रखें. मंगलेश का नाम आ गया, समस्या एक व्यापक प्रवृत्ति की है. मैंने सोचा उस पन्ने का चित्र लेकर आप को भी उससे अवगत कराऊँ . संभव न हो सका पर मर्यादाओं की रक्षा का ध्यान रखने वाला यदि संघ ही रह जाएगा तो आप को मिटाने की जरूरत उसे भी न होगी. संघ से बचें पर लोभवश अपनी दुर्वलाताओं से भी बचें .
लहक की सूचना के लिए मेरा पता है:
भगवान सिंह : बी -१७०१ गार्डेनिया स्कायर, क्रोस्सिंग रिपुब्लिक.गाजिआबाद है.

Post – 2017-08-17

“तुम इतनी अंतरर्विरोधी बातें कैसे कर लेते हो? पहले यह तो समझाओ.”

“मैं समझा नहीं.” उसका आक्षेप सचमुच मेरी समझ में नहीं आया था.

“तुम एक ओर कहते हो सब कुछ ठीक चल रहा है, कहते हो मोदी जनतंत्रवादी हैं, फिर आसन्न खतरे की भी बात करते हो, मार्क्सवादियों को आरम्भ से ही लीगी मानसिकता से ग्रस्त बताते हो, और उनकी नैतिक रीढ़ की मजबूती की बात कहते हो. आज के ,मार्क्सवादियों को आखिरी जमात बताते हो और अपने किसी काल्पनिक सही मार्क्सवाद को ही आसन्न खतरे से मुक्ति दिलाने की संभावना भी जताते हो. दक्षिण पंथ का जिस लहजे में प्रयोग करते हो उसमे उसके प्रति अवज्ञा का भाव झलकता है, फिर भी जब हम उसकी धज्जियां उड़ाते हैं तो तुम्हे यह अवांछनीय लगता है. तुम अकेले अपने को सही मार्क्सवादी समझ का इजारेदार मानते हो और मोदी और भाजपा की आढत पर बैठ कर उनका माल बेचते हो, अंतर्विरोधों की ऎसी माला पिरोने की दक्षता मैंने और किसी में तो देखी नहीं.”

“तुम जिसे अंतर्विरोध समझ बैठे वह विरोधाभास है. तुम्हारी मार्क्सवाद की समझ अच्छी होती तो विरोध का यह आभास भी न होता, इसके मर्म को पकड़ लेते. अच्छा मार्क्सवादी बनने में बाधक तुम्हारा शास्त्रीय अज्ञान नहीं है, उसमें तो तुम मेरे गुरुघंटाल हो सकते हो. बाधक लीगी कार्ययोजना को मार्क्सवादी कार्यभार मान लेना है, जिसके कारण दिमाग के जिस कोने में नीर-क्षीर विवेक होता है वहा घृणा का प्रवेश हो गया.

“सच्चा मार्क्सवादी अपने शत्रु से भी घृणा नही करता, वह उसकी प्रकृति और शक्ति के स्रोत को समझने के लिए उसकी जड़ों ही नहीं केशिकाओं तक पहुँचने का प्रयत्न करता और उसके बल पर सही औजार और हथियार ईजाद करता है.

“घृणा फासिस्टों और नाजियों का हथियार है. तुम्हें याद होगा हिटलर का वह कथन कि यदि तुम्हारा शत्रु तुमसे घृणा नही करता तो तुम सच्चे नाज़ी नही हो.

“कौम को राष्ट्र बना देना, और दूसरी कौम को दूसरा राष्ट्र मान कर उसे मिटाने का संकल्प नाजियों से पहले लीगियों ने भारत में कर लिया था और उनकी ही इस नफरत के आभ्यंतरीकरण के कारण हिन्दू नाम आते ही चेतना में ऐसा रासायनिक परिवर्तन हो जाता है कि विवेक तिरोहित हो जाता है और मिटाने का आवेग इतना प्रबल हो जाता है कि मिटाने की सही तरकीब निकालने तक की शक्ति जाती रहती है. तुम मिटाते हो और इस क्रम में तुम मिटते जाते हो और वह प्रबल होता जाता.

“घृणा की प्रबलता और विवेक के ह्रास के कारण अपने किये का नतीजा देखकर भी गलती समझ में नहीं आती. बस एक बात समझ में आती है कि यदि हिन्दू सांप्रदायिकता समाप्त हो गई तो तुम भी मिट जाओगे, क्योंकि तुम्हारे पास हिंदुत्व से लड़ने और उसे मिटाने के अतिरिक्त कोई काम ही नहीं है. इसलिए मोदी जब साम्प्रदायिकता और जातिवाद को मिटाने और सब को जोड़ने मिलाने की बात करते हैं तो तुम्हें सबसे डरावने लगते है. तुम यदि मार्क्सवादी होते तो कहते, हमें तुम पर पूरा भरोसा तो नहीं है फिर भी हम तुम्हारे ऐसे सभी प्रयत्नों के साथ हैं जिनमें तुम अपनी इस प्रतिज्ञा का निर्वाह करोगे, जहां इसमें चूक होगी हम तुम्हारे चरित्र को समाज के सामने उजागर करेंगे.

“मात्र इस सकारात्मक कदम के बल पर भारतीय समाज में तुम्हारी विश्वसनीयता में इतना उछल आता जिसकी तुम कल्पना नहीं कर सकते. पर अंतरात्मा में लीग के प्रवेश के कारण यह सही माने में मार्क्सवादी पहल तुम्हारी चेतना में उतर नहीं पाता.

“अच्छा मार्क्सवादी दुश्मन के गुणों और कारगर हथियारों औजारों को भी अपनाता है और उसके भीतर मिले अवकाश का अपने लिए प्रयोग करता है. मार्क्स की समझ है समाजवाद का रास्ता लोकतंत्र से हो कर गुजरता है, तुम लोकतंत्र को ही मिटाने पर लगे रहे. हार पाछ कर निर्वाचन पद्धति अपनाई भी तो भी अपने बुद्धिजीवियों तक को वैचारिक और कलात्मक स्वतंत्रता न दी और तेवर ऐसा बनाए रहे कि जैसे अब भी गुप्त क्रांतिकारी संगठन के रूप में ही काम कर हो. जिन्होंने यह रास्ता अपनाया वे भूल गए कि हथियार उठाने वाला लोकतान्त्रिक अधिकारों से भी वंचित हो जाता है. अब इन सारे सूत्रों को मिलाकर देखो तो समझ में आ जाएगा कि जो अंतर्विरोध प्रतीत होरहा था उसमें अन्तः संगति है.

“रही रीढ़ की बात तो उप्भाक्तावादी वाराह संस्कृति में जिसमें दूसरे दल आँख मूंद भक्ष्य अभक्ष्य भोग में लगे रहे है, मार्क्सवादी दलों का नेतृत्व और कैडर दोनों में अपेक्षाकृत संयम बना रहा है. नैतिकता का यह तेवर भाजपा अपनाए रहा, मार्क्सवादियों ने भ्रष्ट दलों के साथ सत्ता की राजनीति करने के कारण खोया नही तो भी इसका दावा करने का अधिकार अवश्य खो दिया.

मार्क्सवादियों को आत्मालोचन करते हुए अपना कायाकल्प करना होगा. यह कैसे हो सकता है इस पर चर्चा फिर कभी.

“अरे यार आसन्न खतरे की बात तो रह ही गई.”

“उसे भी आज रहने ही दो.”

Post – 2017-08-17

“मैं इतने सारे दलों के होते हुए मार्क्सवादियों की ही आलोचना इसलिए नहीं करता कि देश को सबसे बड़ा खतरा उनसे है, बल्कि इसलिए कि मैं मानता हूँ आसन्न राजनीतिक खतरों से उद्धार का एकमात्र रास्ता मार्क्सवाद की सही समझ से ही निकल सकता है. दूसरे किसी दल के पास न तो कोई सैद्धांतिक आधार बचा है न वह रीढ़ जिसकी रक्षा मार्क्सवादियों ने दूसरों की अपेक्षा अधिक दृढ़ता से इस दौर में भी किया है जब उनका स्वयं का विश्वास मार्क्सवादी विकल्प से उठ चुका है और लगभग सभी ने अपनी अगली पीढ़ियों को पूंजीवादी तंत्र में कहीं न कही फिट होने के लिए तैयार किया है.

“पूंजीवाद की मार्क्सवाद पर जितनी विजय बाज़ार में दिखाई देती है उससे भी बड़ी विजय मार्क्सवादी तेवर अपनानेवालों के अपने घरों में दिखाई देता है जिसका सामना करना उनके लिए अरुचिकर हो सकता है. वे मान चुके हैं कि वे मार्क्सवादियों की आखिरी जमात हैं. यह स्थिति दक्षिण पंथ के उभार या सत्ता पर अधिकार से पैदा नहीं हुई, अपितु कुछ दूर तक दक्षिण पंथ के उभार की जिम्मेदारी मार्क्सवादियों के अपने ही भविष्य में खोए विश्वास को अवश्य दिया जा सकता है. ये जो बीच बीच में बोल कुबोल के कारण चर्चा में आ जाने वाले लड़के हैं उनमें कोई किसी मार्क्सवादी बाप की संतान नहीं है और उनमें से किसी को मार्क्सवाद की समझ नहीं है. परन्तु क्या तुम यह दावा कर सकते हो कि उनके साथ खड़ा होकर अपने को डूबने से बचाने के लिए डूबने को तैयार बन्दों को पकड़ने वालों के पास मार्क्सवाद की समझ है? उत्तर सूझ जाय तो बताना फिर आगे की बात करेंगे.”

चेहरे से लगा वह सोच भी सकता है.

Post – 2017-08-16

टकावादी मार्क्सवाद – ७
(अर्थात् बात गाली की सिर्फ गाली की)।
“कुछ तय कर पाए कि मति किसकी मारी गई है?”
“उसमें तय क्या करना है भाई? क्या तुम्हें पता नही है कि तुम किसका साथ दे रहे हो? क्या अब भी बताने की जरूरत है कि तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़ गया है?”
“मैं कितनी बार दुहराऊं कि मै उस व्यक्ति का साथ दे रहा हूँ जो इस देश की महाव्याधि साम्प्रदायिकता से मुक्ति दिलाने के लिए कृतसंकल्प है जिससे रतुम्हारी मोटी खोपड़ी में यह बात घुस सके?”
“तुम्हें यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि भाजपा संघ की संतान है? मोदी पहले संघ के सेवक हैं फिर उसकी राजनीति के अग्रदूत। भाजपा संघ से अलग नहीं जा सकती है।”
“क्योंकि मैं जानता हूं कि विकास पूर्वरूप या जनक जननी से भिन्न होता है। देखो, मैंने मति मारी जाने की कठोर टिप्पणी इसलिए की थी कि तुम्हारे पास घबराहट है, एक तरह की छटपटाहट है, जिसमें तुम्हारी प्रमुख चिंता अपने को बचाने की है, परन्तु पस्ती है, इस सीमा तक है कि अक्ल काम नहीं कर रही है। याद करो कितने समय से तुम्हारे दिमाग में कोई नया विचार आया ही नहीं। तुम्हारे पास बाँटने को नफरत तो है, पर विचार नहीं।
“तुम कितने समय से अपने से असहमत होने वालों को गालियां देकर उनकी ज़बान बंद करने की कोशिश इसलिए करते आ रहे
रहे हो क्योंकि तुम्हारे सभी अनुमान ग़लत हो रहे हैं और उनके सही। .
“तुम्हें मैंने कितनी बार समझाया कि गलियां हार का प्रमाण और पराजित की तड़प की अभिव्यक्ति होती हैं। जीतने वाला गाली नहीं देता, किसी को कोसता नही, अपने को गलियां देने वालों पर हँसता है। यह हार तुमने मोदी क़े क़ेन्द्रीय रंगमंच पर कदम रखते ही स्वीकार कर ली। पहले दिन ही तुमने मान लिया कि कोई चारा नहीं बचा है। तुमने केवल दहशत जाहिर की. और तुम्हारे कुछ साथी तो अपने लिए जेल की कोठरियों तक के लिए तैयार करने लगे। किसी ने आलोचना तक न की। ऐसे संचार माध्यम थे जो समाचार देने की जिम्मेदारी के कारण जाते उसकी सभाओं की बानगी लेने पर दहशत के चलते मंच क़े सामने का दृश्य दिखाने की जगह पीछे का हिस्सा दिखाते थे। तब से आज तक तुम्हारी भाषा, तुम्हारे तरीके, तुम्हारे पीठ पीछे से देखने क़े तरीके में कोई अंतर नही आया। यहां तक की तुम अपना दोस्त दुश्मन तक पहचानना भूल गए। गाली और कोसने की भाषा उन तक पहुँचने लगी जहां विचार की क्षीण संभावना बची लगती थी। पस्ती का ऐसा अबाध प्रसार कि अपने को बचाने क़े दरवाजे तक बंद दिखाई दें।
“जानते हो एक दिन क्या हुआ? तुमने भक्त कह कर कई बार शास्त्री जी का मुंह बंद करने की कोशिश की थी जब कि वह अपनी बात सुलझे और तर्कसंगत रूप में रखते हैं. एक दिन खीझ कर कहने लगे डास्साब अब अपनी बात तर्क और प्रमाण के साथ रखने के बाद कहूँगा चुगद लोग इसे नहीं मानेंगे.”
मैंने उन्हें आड़े हाथों लिया, “आपका ऐसा पतन हो सकता है यह तो मैंने सोचा ही न था.” वह घबरा गए तो मजा लेते हुए कहा, “पहले तो आपने अपनी पवित्र भाषा का अपमान किया जो म्लेच्छ भाषा का शब्द आपकी जिह्वा पर आया, अब आपको इसे पंचगव्य से पवित्र करना पड़ेगा। दूसरे आपने यह सोचा तक नहीं कि ऐसा करेंगे तो आप अपना ही अपमान करेंगे. कारण, गाली गाली देनेवाले की असभ्यता का अकाट्य प्रमाण होती है.”
शास्त्री जी आसानी से हार नहीं मानते हैं इसलिए उलझ गए, “डाक्साब, आप मेरे प्रति अन्याय कर रहे हैं. मैं उलूक भी कह सकता था परन्तु उल्लू हमारी परम्परा में असाधारण सतर्कता का प्रतीक रहा है, इसलिए उसको तत्वदर्शी मुनि या सामान्य जनों के तन्द्रा और स्वप्न में चले जाने वाली अवस्था में भी जागरूक और तमभेदी दृष्टिवाला माना जाता रहा है। आप को गीता का वह श्लोक याद होगा : ‘या निशा सर्वभूतानाम तस्यां जाग्रति संयमी, यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:!
“इसकी एक लम्बी परम्परा है जो ऋग्वेद तक जाती है, आपको समझाने का दुस्साहस तो नही कर सकता, परन्तु इसी प्रबुद्धता के कारण उल्लू को लक्ष्मी का वाहन बनाया गया इसकी और आपने ध्यान न दिया। इसी के कारण उसकी आवाज को आसन्न आपदा का सूचक मन जाता है. इसी बोध के प्रसार का परिणाम है कि जहाँ तक वैदिक संस्कृति का प्रसार हुआ वहां यह ग्यानी पक्षी माना जाता रहा। परन्तु मुझे ऐसा लगता है, ज्ञान. सतर्कता का वही पक्षी रहजनों, लुटेरों और तस्करों के लिए घृणा का पात्र बनकर एक भिन्न दृष्टि से मुर्खता का प्रतिक बन गया।
“इसलिए उल्लू और चुगद दोनों का अर्थ एक है परन्तु भाव भिन्न है. एक के साथ ज्ञान जुडा है दूसरे के साथ मुर्खता. एक के साथ यह भाव है कि जिसे कोई नहीं देख सकता उसे वह देखता है, दूसरे में यह कि जो सब लोग देख रहे हैं उसे वह देख नही पाता।
“रही दूसरी बात कि मैंने गाली दी और इसलिए चुगद का प्रयोग किया तो वह मैंने एक प्रतीक के रूप में किया जैसे हम ड्रैगन, टाइगर, लायन, कांगरू, किवी आदि का करते है।”
सच बात तो यह है कि मैं जितनी भी कोशिश करूं आवेग से पूरी तरह मुक्त न हो पाया हूँ, इसलिए मैं शास्त्री जी के ज्ञान से प्रभावित होने की जगह अपमानित अनुभव कर रहा था और उनसे बदला लेने के लिए भीतर ही भीतर तिलमिला रहा था और तिलमिलाहट की एक वजह यह थी कि उनका कथन अकाट्य लग रहा था। संकट से उबारनेवाले का नाम जो भी रखें, असहाय लोगों कि सहायता वही करता है। वही मेरे भी काम आया.
“मुझे ठीक इसी समय एक उत्तर सूझ गया। मैंने शास्त्री जी से कहा, “शास्त्री जी, अर्थ शब्दों से अलग उन आशयों के संचार में होता है जिनसे आप किसी शब्द या प्रतीक का प्रयोग करते हैं और यदि आपने अपने लिए अवहेलना या तिरस्कार के आशय से प्रयुक्त किसी शब्द से आहत हो कर दूसरे को आहत करने के लिए किसी शब्द या प्रतीक का प्रयोग किया तो आप उसके स्तर पर उतर आये जिसे आप जघन्य मानते हैं। होली के हुडदंग में पहल जिसकी भी हो एक बार शामिल हो जाने के बाद आप उससे अलग नही रह जाते। गाली दे कर आपने बदला नहीं लिया, उनकी जमात में शामिल हो गए, जिनको आप इसी शिथिलता के कारण गर्हित समझते थे, जिनके पास गाली के अलावा कोई प्रभावी तर्क न बचा था, उसी संबन्ध के लिए जिसमें दहेज़ देना पड़ता है , यदि कोई अपमानित करने के लिए प्रयोग करे तो अपमानित अनुभव करते हैं. अपमानित करने वालों की हाट से आदमी एक ही सौदा लेकर लौटता है। अपमान। वहाँ देने को भी वही, पाने को भी वही।”
शास्त्री जी तो चुप हो गए, मेरी लाज भी रह गयी, पर क्या तुम इसे समझ पाओगे ?

Post – 2017-08-15

हम भी उस आसमाँ में थे तो सही
आप भी थे तो किस सतह पर थे
नज़र आये न ढूँढ़ने पर भी
इतना हो कर भी बेवजह , पर, थे.

Post – 2017-08-15

यही राज हाथों लगा ज़िन्दगी में
जो हल्का है वह आसमां पर चढ़ेगा .
वजनदार की खामुशी उसकी दौलत
उठाएगा औरों को दब कर रहेगा.

मगर एक पहचान है उसकी बाकी
जिसे जानते हो मगर कह न पाते
सहमते हो कहने से ‘मैं मिट न जाऊं
वह मिटने की कीमत पर उसको कहेगा.

Post – 2017-08-15

हम भी उस आसमां में रहते थे
जिसमें तारे भी सर्द लगते थे.
आप को मैंने भी देखा था तभी
आप कुछ जर्द जर्द लगते थे.