Post – 2018-07-15

खुदा बनाया भी तो इतना तंग दिल क्यों कर
औरतें होती हैं उनका खुदा नहीं होता।

अभी अभी पर्सनल ला पर एक बहस सुन कर। कहते हैं खुदा ने आदमी की मौज-मस्ता के सारे सामान बनाने के बाद उसकी पसली से औरत को बनाया कि वह आनन्द लेने के लिए जो भी चाहे करे, अर्थात वह इन्सान नहीं, उपभोक्ता वस्तु है। संविधान और पर्सनल ला के बीच टकराव का यही मुद्दा है। इस पर सभी मानवतावादी बवाली – हिन्दू हों या मुसलमान चुप्पी साध कर घरेलू अत्याचार का समर्थन करते हैं। संविधान जिसने लिंग और धर्म निरपेक्ष रूप में सबको समान नागरिक अधिकार और सुरक्षा प्रदान कर रखा है यदि धर्म सापेक्ष बना कर इसे केवल हिन्दुओ तक सीमित रखता है तो भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का कौन प्रयत्न कर रहा है?

Post – 2018-07-14

#आइए_शब्दों_से_खेलें (20)

हमारी चर्चा के तीन पक्ष हैं : एक, देववाणी से संस्कृत की दिशा में यात्रा और उस के दौरान घटित परिवर्तनों को प्रस्तुत करना। दूसरा, देववाणी और संस्कृत दोनो के निर्माण में अन्य भारतीय भाषाओं की भूमिका। तीसरा, यह समझने का प्रयत्न कि जो संज्ञा किसी वस्तु को मिली है, उसका स्रोत क्या है।

‘हाथ’ पर विचार करते समय हमने पाया कि ‘हस्त’, वैदिक और संस्कृत में देववाणी से आया हुआ शब्द है, परन्तु अपने मूल रूप में हस्त नहीं रहा हो सकता। अधिक संभावना है, यह हत्थ रहा हो, क्योंकि प्राकृत में भी यही रूप मिलता है। क्या यह ‘हत्त’ या ‘हत्ता’ का सजात(cognate) है, जिससे हत्या व्युत्पन्न है? हम निश्चय के साथ यह नहीं कह सकते कि, शिकार करने में जरूरी होने के कारण, इसे यह संज्ञा मिली लगती है। परन्तु अं. के आर्म arm पर ध्यान देने पर इसकी संभावना प्रबल तो होती ही है। ऐसी स्थिति में इसका अनुनादी स्रोत हुआ आघात करते समय हाथ या हथियार के वेग से चलने के साथ वायु के घर्षण से उत्पन्न ध्वनि, जिसका अनुकरण ‘भस्स’, ‘घस्स’ या ‘हस्स’। ऋग्वेद में भर> सं. हर, घन> सं. हन में बदलता दिखाई देता है। इससे उल्टी गति दिखाई नहीं देती। आगे की यात्रा ह-कार के अ-कार में बदलने या लोप या मूक हो जाने की है जो आद्य ह-कार के मामले में ग्रीक मे नियमित और अंग्रेजी में वैकल्पिक (honour, hour परन्तु साथ ही hot, hit, hat) में पाई जाती है, और मध्यस्थ या अन्त्य होने पर घोषमहाप्राण ध्वनि लिखत में दिखाई देती है, पर मध्य में उच्चारण में मूक हो जाती है (might, drought) अथवा अन्त्य होने पर उच्चारण विकृत कर देती है (rough, laugh)।

ऐसी स्थिति में हम प्रहार की मूल अनुकृति ‘हस्स’ नहीं मान सकते। बचे दो विकल्प। ऋग्वेद में हम हाथ के लिए ‘गभस्ति’ का प्रयोग देख आए हैं, जिसमें ‘गभ’ ‘घस्स’ का और ‘भस’ ‘भस्स’ का अवशेष है। यह इस बात का संकेत है कि प्रहार की ध्वनि को दो रूपों मे अनुनादित किया गया – ‘घस्स’ और ‘भस्स’ और हाथ और आघात दो’नों के लिए ‘घस्त’/’घत्त’, ‘भस्स’/भस्त’ का चलन रहा और जिनसे ‘हत्त’/’हत्थ’, ‘भस्त’/’हस्त’ रूप सामने आए पर कभी कभी दोनों के युग्म से हाथ का पर्याय ‘घभस्त’ हो जाया करता था, जैसे तण् =पानी, नीर=पानी, तण्+नीर= तन्नी=पानी। इस युग्म ‘घभस्त’ का ही गभस्ति रूप हम ऋग्वेद में पाते हैं और साथ ही भस्त का हस्त रूप भी जारी रहा।

कोहनी पर बात करते हुए हम यह तो सुझा सके कि यह ‘कुभ’ पूर्वरूप से निकला है, परंतु यह व्याख्या अधिक से अधिक धातु और उसके लिए कल्पित अर्थ के समान है, जिसमें यह पता नहीं चलता कि उसे वह अर्थ मिला या वे अर्थ मिले कैसे। हमारी सैद्धांतिकी के अनुसार कुभ के पीछे जल की किसी ध्वनि का हाथ होना चाहिए। हम पाते हैं कि कुभ में वही कु है जो ‘कुंभ’, ‘कूप’, ‘कुआँ’, ‘कुमुद’, ‘कुंड’ आदि में है। जल के वर्तुल उछाल के कारण वलयाकार वस्तुओं के नाम में इसकी भूमिका निर्णायक रही लगती है। ‘कुंडल’, ‘कुड्म’, ‘कुंचन’, ‘कुब्ज’, आदि इसी से जुड़े हैं। ”गुजहा’ भी इसी शृंखला में आता है।

कोहनी के ”नी” बारे में हम पहले देख आए हैं कि यह हीनार्थक है। यही बात अंगुल या उँगली (अंगुली) के विषय में कही जा सकती है। अंगुल में अंग लालित्य के तकाजे से अंगु हो गया है और -ल या -र परसर्ग ”का” या ”वाला” का द्योतक (अपत्यार्थक)है। अंगुल का अर्थ अंग का या अंग से उत्पन्न या उपांग है, जिसका प्रयोग अंगोपांग में होता है।

हाथ के लिए दो अन्य शब्दों का प्रयोग होता है पाणि और कर। कर का क्रिया के रूप में तो ऋग्वेद में प्रयोग हुआ है (करतां न सुराधसः, सुपथा करत् , सूनृतावतः कर, रथं न दस्रा करणा समिन्वथः, तथा राजाना करथो यदीमह, , सर्वाभ्यो अभयं करत्, यथा विद्वाँ अरं करद्, उरुं हि राजावरुणश्चकार ) और एक दो स्थलों पर कारनामे या कृत्य के लिए करणानि (सत्या सत्यस्य करणानि वोचम् प्र ते पूर्वाणि करणानि वोचं) या कर्त्व (बहूनि मे अकृता कर्त्वानि) के रूप में।

चारण के लिए कारु और चारणगान के लिए कारा का प्रयोग मिलता है पर हाथ या किरण के लिए इसका एक बार भी प्रयोग देखने में नहीं आता। हाथी के लिए भी ऋग्वेद में करी नहीं मिलता। भो. में भी इसका इन आशयों में प्रयोग नहीं होता। हम मान सकते हैं कि हाथ और किरण के आशय में कर का अर्थविस्तार सं. के विद्वानों के शब्दकौतुक की देन है।

अपने क्रिया रूप में इसके दो स्रोत हैं। एक जल से व्युत्पन्न जो चर / कर / सर / छर और इनके लकारान्त भेदों के साथ विविध बोलियों में अपनाया गया, जल की ध्वनियों में से एक और इस कर का अर्थ हुआः 1. जल, 2. जल से किसी रूप में संबंधित (करमा, करमुआ) 3.सिंचित करना (करमोवल), 4. आवाज देना (कर्र्हावल – भैंस को पास बुलाने की आवाज) > कारा (कीर्ति गान) > कारु – चारण।

चक्र के विषय में कुछ विद्वानों की राय है कि यह ‘चर’ धातु से निष्पन्न है (मो.वि.), दूसरे इसे ‘कृ’ धातु से उत्पन्न मानते हैं। हम इसे द्विधातुक ‘चर्कर’ से व्युत्पन्न मानते हैं।

इसका दूसरा स्रोत है पत्थर पर नुकीले पत्थर के खरोंचने (किरोने) की ध्वनि जिसे कर्र /किर्र/ कुर्र के रूप में अनुकृत किया गया और जिससे हिंसा आदि से संबंधित शब्दावली का विकास हुआ। इसके स्वरभेद वाले शब्दों को एकमूलीय सिद्ध करने के लिए ‘कृ’ धातु की उद्भावना की गई। आगे के ब्यौरों में जाने की जरूरत नहीं। इन दोनों स्रोतों से निकली शब्दावली ऋग्वेद और भोजपुरी में मिलती है और इस आधार पर हम मान सकते हैं कि इनमें से वे शब्द जो सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से देवसमाज के स्तर के हों वे देववाणी से आए हैं।

पाणि
पाणि/पानि/पनि भो- में नहीं हैं. बानी/बानि/ बनिज/ बनिया मिलते हैं परन्तु ये अपने संस्कृत प्रतिरूपों के तद्भव हैं। विकास की दृष्टि से भी ये देव समाज की अपेक्षाओं से मेल नहीं खाते, इसलिए यह विनिमय और वाणिज्य के विकास के बाद की उपज है। ऋग्वेद में विभाजन, वितरण, और दानशीलता के अतिरिक्त तोड़ने, आघात करने के सन्दर्भों में इसका प्रयोग हुआ है (हिरण्य पाणि, वीळुपाणि, पृथिव्याः सानौ जङ्घनन्त पाणिभिः, सविता सुपाणिः, आदि)। इसकी उत्पत्ति भांड निर्माण के बाद की लगती है और इसका स्रोत किसी बर्तन के फूटने की ध्वनि के अनुनादों (पण् , भण्) में से एक है। सामान्य बोलचाल में यह विवाह के भड़कीले कार्डों पर छपने वाले पाणिग्रहण की कृपा से भोजपुरी में प्रवेश पा सका।

Post – 2018-07-14

कैसे दिन आ गए हैं सोचो तो
कोई तुमको बुरा नहीं कहता।

Post – 2018-07-13

समाज को कौन बाँट रहा है, क्यों बाँट रहा है, उसकी कोशिशों के बाद भी समाज को जोड़ने के लिए कौन प्रयत्न कर रहा है, ये प्रश्न बेकार हैं, क्योंकि इनका उत्तर लोग जानते है।

Post – 2018-07-12

#आइए_शब्दों_से_खेलें (19)

मनुष्य की सबसे बड़ी आकांक्षा पक्षी बनकर उड़ने की रही है। सपनों में मैं स्वयं भी कई बार कई फर्लांग तक उड़ान भरता रहा हूं। जब हम कल उस अस्थि रचना की बात कर रहे थे जिसे भोजपुरी मैं हँसुली, और अंग्रेजी में कॉलर बोन कहा जाता है, तो मुझे एकाएक इस बात का ध्यान आया की ग्रीवा के साथ क्या हंस की कल्पना नहीं की गई थी। जो समाज अपने भीतर की आत्मा को हमेशा से किसी पक्षी के रूप में कल्पित करता आया है, वह चाहे तोता हो या हंस, उसके विषय में मुझे यह दूर की कौड़ी नहीं प्रतीत हुआ।

भुजा के ऊपरी जोड़ को भोजपुरी में पँखुरा, या पाँखा/ पंखा ( पंख) कहते हैं। जानवरों के अगले पांव को भुजा या बाहु माना जाता था। ऋग्वेद मे अश्व के अगले पांवों की तुलना श्येन (बाज) के पंखों से की गई है – श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं ते अर्वन् ।। 1.163.1। इस तर्क को समझ न पाने के कारण भारतीय पुरातत्व में काम कर चुके मेरे एक मित्र इसे पूरी तरह काल्पनिक मानते हे क्योंकि रही सही कमी उसके बिखरे शृंगों (लुटुकी) से पूरी हो जाती है।

‘भुजा’ के लिए भोजपुरी में ‘बाँहि’ प्रचलित है, न की भुजा। इसका अर्थ क्या है ? वहन करने वाला? असंभव नहीं है। भार ढोने के लिए बांस के लंबे फट्ठे को बहंगा कहा जाता है। आधी बाँह के पहनावे के लिए, अधबहिंआ, बँहकट्टी, और पूरी बाँह के अगले हिस्से के लिए बँहौरी और भुजबल के लिए बाहुबल चलता है। भोजपुरी में भुजा का एक ही रूप है भूजा (भुना हुआ) जिसके लिए पश्चिमी हिन्दी में चबेना (चबाने की चीज) देखने में आता है। ऋग्वेद में भी बाहु के लिए ‘भुजा’ का प्रयोग नहीं हुआ है, केवल भोग्य पदार्थ के लिए इसका प्रयोग देखने में आता है।

हाथ के लिए ‘बाहु’ का ही प्रयोग दिखाई देता है- सुबाहु, अधिबाहुषु, बाहुभ्यां , विश्वतोबाहुः आदि । बाहु कंधे से लेकर उंगली तक के भाग के लिए प्रयोग में आता है, जबकि हाथ कोहनी से आगे के हिस्से के लिए प्रयुक्त होता है। जब बाहु के लिए हाथ का प्रयोग होता है तब उसे ‘प्रहस्त’ कहते हैं।

बाहु के लिए भुजा का देववाणी मैं प्रयोग में नहीं होता था, भोग – खाना, झेलना, कामतुष्टि, और कभी कदा भोग्य वस्तु के लिए प्रयोग होता था। संस्कृत में हाथ के लिए इसका प्रयोंग आर्थी विचलन है।

देववाणी में हाथ शब्द बाहु की तुलना में अधिक प्रचलित था, हथेली, हाथी, हथोड़ा, हाथा-, हथियार, हाथ लगा, निहत्था, हथियाना, आदि शब्द तथा हाथ आना, हाथ उठाना, हाथ हटाना, हाथ खींचना, हाथ मारना, हाथ जोड़ना, हाथ मरोड़ना,हथ लपाक, आदि मुहावरे इसके व्यापक चलन के प्रमाण हैं।

ऋग्वेद में हाथ का प्रयोग करतल (पाम) और हाथ दोनों के लिए देखने में आता है। पूषा त्वेतो नयतु हस्तगृह्य, पूषा तुम्हें यहों से हाथ पकड़ कर ले चलें, … भगः शशमानः पुरा निदः। अद्वेषो हस्तयोर्दधे। भग मैत्री के इच्छुक पुराने निंदकों को भी बिना किसी द्वेषभाव के बाहों में भर लेते हैं। ….पिता पुत्रं न हस्तयोः, जैसे पिता अपने पुत्र को दोनों हाथों में उठा लेता है, हरिवान् दधे हस्तयोर्वज्रमायसम्, घोड़े पर सवार इन्द्र ने अपने हाथों में आयसी वज्र को धारण कर रखा है, निक्तहस्तस्तरणिर्विचक्षणः (निक्त= धुला हुआ) निष्कलुष हाथों से हमें पार उतारने वाला वह विचक्षण।

‘कोहनी’ उसी श्रृंखला का शब्द है जिसका कोहान या ककुद। कुभ > कुब का अर्थ है झुकना, टेढ़ा होना (कुब्ज, कुबजा, कूबड़, कुबरी)। अंग्रेजी में घुटने के लिए ‘नी’ का प्रयोग देखकर यह भ्रम हो सकता है कि यहाँ एक ही आशय के दो शब्दों का प्रयोग है और यह मुड़ने के कारण नी कहां जाता है परंतु यह ‘नी’ लघुता के लिए प्रयुक्त हुआ है, न कि मोड़ के लिए। फिर भी यदि नी की चर्चा आ ही गई तो यह समझना होगा कि क्न/कन/ग्न/गन के अनेक अर्थों में से एक अर्थ गांठ होता है। गन्ने का नामकरण इसी आधार पर पड़ा है यद्यपि वहां दूसरा अर्थ भी लागू होता है और वह है आँख के गड्ढे का। अंग्रेजी का नी हम जानते हैं क्नी (knee) है जैसे अंग्रेजी नाे know जिसका संबंध ग्न gn या गनोस gnos से तथा उससे भी पीछे की भारतीय क्न, ग्न, ज्न और ज्ञ से है।

हाथ के कलाई से आगे के भाग के लिए देववाणी में गभ का व्यवहार होता था। ऋ. ग्राभ, भो. गहुआ जिसका अर्थसंकोच होने के बाद इसका प्रयोग उंगलियों के बीच की जगह के लिए किया जाने लगा, इसी से निकले हैं। ऋ. में यह गभस्ति के रूप में ‘कर’ की तरह किरण और हाथ दोनो के लिए प्रयुक्त हुआ है (गभस्तिपूतं भरत श्रुतायेन्द्राय सोमं यज्यवो जुहोत ।।2.14.8, । एक स्थल पर इसका प्रयोग पाणि केसाथ हुआ है – प्रथमभाजं यशसं वयोधां सुपाणिं देवं सुगभस्तिमृभ्वम् ।, इमा गिरः सवितारं सुजिह्वं पूर्णगभस्तिमीळते सुपाणिम् ।

संस्कृतीकरण के चलते गह में र-कार का प्रवेश हो गया और फिर ऋकार दूर कैसे रहता। इस तरह ग्रह, गृह, ग्राह, आदि के सैकड़ों शब्द बने जिससे आप परिचित हैं। अन्नग्रहण के सादृश्य से ग्रहण ने ग्रास का रूप लिया और फिर ग्रास, घास, आदि की एक नई शब्दशाखा फूट पड़ी।

करतल को हाथ से जोड़ने वाले स्थल को ‘कलाई़’, ‘कल्ला’, ‘गट्टा’, ‘पहुंचा’ आदि नामों से जाना जाता है। संस्कृत में इसके लिए एक अन्य शब्द है मणि, परंतु उसका हिंदी में प्रयोग नहीं होता। जो शब्द सर्वविदित हैं उनके विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, परंतु यह बताना जरूरी है कि पहुंचा में बाहु के सघोष वर्ण का अघोषीकरण हुआ है।

रोचक बात है अधिकांश अलंकार जोड़ों पर ही पहने जाते हैं चाहे वह गला हो या कलाई, कटि हो या पांव का टखना। क्या इसका एक कारण यह हो सकता है कि अलंकरण का प्रधान लक्ष्य सुरक्षा था और पुरुषों द्वारा भी आभूषण पहने जाने का कारण यही था। ऋग्वेद में हाथ और पांव दोनों में पहने जाने वाले वलय का नाम ‘खादि’ था। इस खादि को हड़प्पा की नर्तकी के हाथों और पांवों में देखा जा सकता है। गुजरात और राजस्थान में आज भी महिलाएं उस तरह की कड़ा और गोड़हरा पहने दिखाई पड़ सकती है।

हाथ का एक आभूषण ‘कंगन’ था जिसके लिए ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’ अर्थात जो सामने है उसे देखने के लिए शीशे का सहारा लेने की क्या जरूरत, का मुहावरा प्रचलित है। इसी पर आधारित है विरोधों की निकटता दिखाने वाला कर-कंकण न्याय । बच्चों के हाथ में पहनाए जाने वाले कंगन को आधारित है ‘गुजहा’ कहा जाता है। ‘गुजहा’ का अर्थ है गोलाकार।
एक दूसरा शब्द हाथ के उस हिस्से के लिए, जिसे अंग्रेजी में पाम कहा जाता है, गदोरी है, जिसका अर्थ मांसल है । माप के लिए हाथ से काम लेते थे, इसके कारण हाथ का एक नाम मान था (सद्येव प्राचो विमिमाय मानैर्वज्रेण खान्यतृणन्नदीनाम् )। यही अंग्रेजी और लातिन आदि में मैनम, मैनस, मैनिपुलेट आदि का जनक बना। अं. हेंड हस्त से व्युत्पन्न है, यह आप को पता है। From Proto-Indo-European *meh₂- (“timely, opportune”); hence also immanis (“vast, monstrous”).विक्शनरी आर्ग.

Post – 2018-07-12

#आइए_शब्दों_से_खेलें (19)

मनुष्य की सबसे बड़ी आकांक्षा पक्षी बनकर उड़ने की रही है। सपनों में मैं स्वयं भी कई बार कई फर्लांग तक उड़ान भरता रहा हूं। जब हम कल उस अस्थि रचना की बात कर रहे थे जिसे भोजपुरी मैं हँसुली, और अंग्रेजी में कॉलर बोन कहा जाता है, तो मुझे एकाएक इस बात का ध्यान आया की ग्रीवा के साथ क्या हंस की कल्पना नहीं की गई थी। जो समाज अपने भीतर ही आत्मा को तो हमेशा से किसी पक्षी के रूप में कल्पित करता आया है चाहे तोता हो या हंस, उसके मामले में मुझे यह दूर की कौड़ी नहीं प्रतीत हुआ। भुजा के ऊपरी जोड़ को भोजपुरी में पँखुरा, या पंखा कहते हैं। आश्चर्य इस बात पर है कि जानवरों के अगले पांव को भुजा या बाहु माना जाता था। अश्व के अगले पांवों की तुलना श्येन (बाज) के पंखों से की गई है – श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं ते अर्वन् ।। 1.163.1। इस तर्क को समझ न पाने के कारण भारतीय पुरातत्व में काम कर चुके मेरे एक मित्र इसे पूरी तरह काल्पनिक मानते हे क्योंकि रही सही कमी उसके बिखरे शृंगों (लुटुकी) से पूरीहो जाती है।

भुजा के लिए भोजपुरी में ‘बाँहि’ प्रचलित है, न की भुजा। इसका अर्थ क्या है ? वहन करने वाला? असंभव नहीं है। भार ढोने के लिए बांस के लंबे पट्ठे को बहंगा कहा जाता है। आधी बाँह के पहनावे के लिए, अधबहिंआ, बँहकट्टी, और पूरी बाँह के अगले हिस्से के लिए बँहोरी और भुजबल के लिए बाहुबल चलता है। भोजपुरी में भुजा का एक ही रूप है भूजा (भुना हुआ) जिसके लिए पश्चिमी हिन्दी में चबेना (चबाने की चीज) चाहे वह लाक्षणिक ही क्यों न हो (भुजि डरलऽ) । ऋग्वेद मैं भी ‘भुजा’ का बाहु के लिए प्रयोग नहीं हुआ है, केवल भोग्य पदार्थ के लिए पुरुभुजा आदि का का प्रयोग देखने में आता है।

हाथ के लिए बाहु का ही प्रयोग दिखाई देता है- सुबाहु, अधिबाहुषु, बाहुभ्यां , विश्वतोबाहुः आदि । बाहु कंधे से लेकर उंगली तक के लिए प्रयोग में आता है, जबकि हाथ कोहनी से आगे के हिस्से के लिए प्रयुक्त होता है। जब बाहु के लिए हाथ का प्रयोग होता है तब उसे प्रहस्त कहते हैं।

बाहु के लिए भुजा का देववाणी मैं प्रयोग में नहीं होता था, भोग – खाना, झेलना, कामतुष्टि, और कभी कदा भोग्य वस्तु के लिए प्रयोग में आता था। संस्कृत में हाथ के लिए इसका प्रयोंग आर्थी विचलन है।

हाथ शब्द बाहु से भी अधिक प्रचलित था, हथेली, हाथी, हथोड़ा, हाथा-(पानी उदहने का कृषि उपकरण), हथियार, हाथ लगा, हथियाना, आदि शब्द तथा हाथ आना, हाथ उठाना, हाथ हटाना, हाथ खींचना, हाथ मारना, हाथ जोड़ना, हथ लपाक, आदि मुहावरे इसके व्यापक चलन के प्रमाण हैं।

ऋग्वेद में हाथ का प्रयोग करतल (पाम) और हाथ दोनों रूपों में देखने में आता है। पूषा त्वेतो नयतु हस्तगृह्य, पूषा तुम्हें यहों से हाथ पकड़ कर ले चलें, … भगः शशमानः पुरा निदः। अद्वेषो हस्तयोर्दधे। भग मैत्री के इच्छुक पुराने निंदकों को भी बिना किसी द्वेषभाव के बाहों में भर लेते हैं। ….पिता पुत्रं न हस्तयोः, जैसे पिता अपने पुत्र को दोनों हाथों में उठा लेता है, हरिवान् दधे हस्तयोर्वज्रमायसम्, घोड़े पर सवार इन्द्र ने अपने हाथों में आयसी वज्र को धारण कर रखा है, निक्तहस्तस्तरणिर्विचक्षणः निष्कलुष (निक्त =धुला हुआ) हाथों से हमें पार उतारने वाला वह विचक्षण।

कोहनी उसी श्रृंखला का शब्द है जिसका कोहान या ककुद। कुभ > कुब का अर्थ है झुकना, टेढ़ा होना (कुब्ज, कुबजा, कूबड़, कुबरी)। अंग्रेजी में घुटने के लिए ‘नी’ का प्रयोग देखकर यह भ्रम हो सकता है यह मुड़ने के कारण नी knee कहा जाता है परंतु यहाँ ‘नि’ लघुता के लिए प्रयुक्त हुआ है न कि मोड़ के लिए। फिर भी यदि नी की चर्चा पाई गई तो यह समझना होगा की क्न/कन/ग्न/गन के अनेक अर्थों में से एक अर्थ गांठ होता है गन्ने का नामकरण इसी आधार पर पड़ा ह, यद्यपि वहां दूसरा अर्थ भी लागू होता है और वह है गड्ढे का। अंग्रेजी का नी हम जानते हैं क्नी (knee) है जैसे अंग्रेजी नाे know जिसका संबंध ग्न gn या गनोस gnos से तथा उससे भी पीछे की भारतीय क्न, ग्न, ज्न और ज्ञ से है।

हाथ के कलाई से आगे के भाग के लिए देववाणी में संभवतः गह या गभ का व्यवहार होता था। ऋ. ग्राभ, भो. गहुआ जिसका अर्थसंकोच होने के बाद इसका प्रयोग उंगलियों के बीच की जगह किया जाने लगा, इसी से निकले हैं। ऋ. में यह गभस्ति के रूप में कर की तरह किरण और हाथ दोनो के लिए हुआ है (गभस्तिपूतं भरत श्रुतायेन्द्राय सोमं यज्यवो जुहोत ।।2.14.8, । एक स्थल पर इसका प्रयोग पाणि केसाथ हुआ है – प्रथमभाजं यशसं वयोधां सुपाणिं देवं सुगभस्तिमृभ्वम् ।, इमा गिरः सवितारं सुजिह्वं पूर्णगभस्तिमीळते सुपाणिम् ।

संस्कृतीकरण के चचलते गह में र-कार का प्रवेश हौ गया और फिर ऋकार दूर कैसे रहता। इस तरह ग्रह, गृह, ग्राह, आदि के सैकड़ों शबह बने जिससे आप परिचित हैं। अन्न ग्रहण के सादृश्य से ग्रहण ने ग्रास का रूप लिया और फिर ग्रास, घास, आदि की एक नई शब्दशाखा फूट पड़ी।

करतल को हाथ से जोड़ने वाले स्थल को कलाई़, कल्ला, गट्टा, पहुंचा आदि नामों से जाना जाता है। संस्कृत में इसके लिए एक अन्य शब्द है मणि, परंतु उसका हिंदी में प्रयोग नहीं होता। जो शब्द सर्वविदित हैं उनके विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है परंतु यह बताना जरूरी है कि पहुंचा में बाहु के सघोष वर्ण का अघोषीकरण हुआ है।

रोचक बात है अधिकांश अलंकार जोड़ों पर ही पहने जाते हैं चाहे वह गला हो या कलाई, कटि हो या पांव का टखना। ऋग्वेद में हाथ और पांव दोनों में पहने जाने वाले वलय का नाम खादि था। इस खादि को हड़प्पा की नर्तकी के हाथ और पांव में देखा जा सकता है गुजरात और राजस्थान में आज भी महिलाएं उस तरह की चूड़ियां पहले दिखाई पड़ सकती है।

हाथ का एक आभूषण कंगन था जिसके लिए हाथ कंगन को आरसी क्या अर्थात जो सामने है उसे देखने के लिए शीशे का सहारा लेने की क्या जरूरत का मुहावरा प्रचलित है। इसी पर विरोधों की निकटता दिखाने के लिए कर-कंकण न्याय आधारित है। बच्चों के हाथ में बनाए जाने वाले कंगन को गुजहा कहा जाता है। गुजहा का अर्थ है गोलाकार
एक दूसरा शब्द हाथ के उस हिस्से के लिए जिसे अंग्रेजी में पाम कहा जाता है गदोरी का अर्थ मांसल है ।

Post – 2018-07-12

रिन्दों को दोस दे न, नजाकत समझ वाइज
पत्थर जो न होते तो तू मारा नहीं जाता ।

Post – 2018-07-11

#तुकबन्दियाँ

किया कुछ भी नहीं पर देखिए तो
कई किस्से हमारे नाम से हैं।

Post – 2018-07-11

#तुकबन्दियाँ

उस बुत को खुदा कहना मुमकिन तो न था पहले
रोबो के जमाने में अब क्या नहीं होना है।

Post – 2018-07-10

#आइए_शब्दों_से_खेलें (18)

कंधा
गर्दन के ठीक नीचे जो भाग है उसके लिए हम कंधे का प्रयोग करते हैं। यह कुछ विचित्र प्रयोग है और कहें तो विचित्र है भी नहीं।

विचित्र इस अर्थ में जानवरों के मामले में हम गर्दन को ही कंधा कहते हैं। मनुष्य के मामले में स्थान बदल जाता है। इसका कारण यह है कि बोझ ढोने या खीचने के लिए गाड़ी या हल आदि में जुए का भार जानवरों की गर्दन पर डाला जाता है और मनुष्य के मामले मे गर्दन के ठीक नीचे के दोनों फैले भागों पर। इससे और कुछ नहीं तो यह तो स्पष्ट हो ही जाता है जो भार ढोता है उसे कंधा कहते हैं। जिन जानवरों का भारवहन के लिए प्रयोग नहीं किया जाता उनकी गर्दन को कंधा नहीं, गर्दन ही कहा जाता है। कंधे के लिए संस्कृत में जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उसके तीन रूप हैं एक है स्कंभ, दूसरा स्तंभ और तीसरा स्कन्ध।

आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीळे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ ।।10.5.6
दिवो य स्कम्भो धरुणः स्वातत आपूर्णाे अंशुः पर्येति विश्वतः । 9.74.2
महीं चिद्द्यामातनोत्सूर्येण चास्कम्भ चित कम्भनेन स्कभीयान् ।। 10.111.5

ऋग्वेद में स्तंभ का प्रयोग नहीं हुआ है और स्कंध का प्रयोग केवल एक बारः
अहन् वृत्रं तरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन ।
स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृक्णाऽहिः शयत उपपृक् पृथिव्याः ।। 1.32.5

भार लादने के दो तरीके हैं। एक नीचे से खंभा गाड़ देना और उस पर बोझ टांग देना। यह पेड़ के तने की अनुकृति है। दूसरा है दीवार आदि में खूटी या खूँटा गाड़ना और भार को उस पर टांगना। इसे हम वृक्ष की शाखा की अनुकृति मान सकते थे, परंतु संस्कृत में इसके लिए नागदंत- हाथी के बाहरी दांत- शब्द का प्रयोग होता है। पहले मैं सोचता था आरंभ में खूंटी के लिए कुछ भवनों में हाथीदांत का प्रयोग किया गया होगा। सोच कर हैरान भी होता था और दूसरा कोई उपाय सूझता नहीं था। पर नागदंत आगे की ओर निकला होता है और उसी के अनुकरण पर ऐसी खूंटी गाड़ने को नाग दंत की संज्ञा दी गई। खूँंटा हो या ऐसा खंभा अथवा नागदंत, इनके लिए एक और शब्द का प्रयोग होता है, स्थाणु, अर्थात् जिस पर कोई चीज टिकाई जा सके। स्थाणु का पुराना रूप स्थूण है। ऋग्वेद में इसी का प्रयोग हुआ हैः
सहस्रस्थूण आसाते ।। 2.41.5
हिरण्यरूपमुषसो व्युष्टावयःस्थूणमुदिता सूर्यस्य ।… 5.62.8

नाग दंत को छोड़कर संस्कृत मैं जितने भी शब्द है उनके आदि में हलंत ‘स’ जुड़ा हुआ है। यह देववाणी में संभव न था। अतः हम इन्हें या तो सारस्वत क्षेत्र की उद्भावना कह सकते हैं, अथवा देववाणी में चलने वाले शब्द का संस्कृतीकरण।

हम पाते हैं की स्तंभ की मूल संकल्पना बहुत पुरानी है। इन संस्कृत शब्दों के आद्य स्-कार को हटाकर जो रूप बनता है उसे हम देववाणी का शब्द मान सकते हैं अथवा उसके सबसे निकट होने की कल्पना कर सकते हैं।

ऐसी दशा में यदि देववाणी से होकर ये शब्द सारस्वत क्षेत्र में पहुंचें होंगे तो उनका रूप असवर्ण संयोग से भी मुक्त रहा होगा। अब जो रूप बनते हैं वे है, कँध, कँभ, तँभ, थूँण। परंतु ‘ण’ की ध्वनि भी देववाणी में संभव न थी इसलिए हम उसे नकार में बदलने की छूट ले सकते हैं। जो शब्द निकल कर आता है वह है थून जिसका अमहत रूप थूनी या थुन्ही भोजपुरी में आज भी प्रयोग में आता है। कान्ह या काँह, कहाँर ,भोजपुरी में आज भी प्रयोग में आता है। कहार जाति में पैदा होने वाले कुछ बच्चे अपने नाम का संस्कृतीकरण करके स्कंधधार कहते हैं। ऐसा एक छात्र मेरा सहपाठी भी था, जबकि अपनी इस जांच में हम पाते हैं कि काँध और कहांर तत्सम है और उनका संस्कृत प्रतिरूप तद्भव अर्थात सचेत या अचेत रूप में बनाया या बिगड़ा हुआ रूप। देववाणी में कँभ रूप भी प्रचलित था। काँवर और कांवरिया उसी से बने रूप हैं। परन्तु यह मूलतः खँभ रहा लगता है जो खम्हा, खम्हिया, मलखंभ आदि में सुरक्षित है।

अपनी समीक्षा में है हम पाते हैं हमारे अंगो का नाम अधिकतर उनके काम के आधार पर पड़ा है। देखने वाला अंग, सुनने वाला अंग, खाने वाला अंग, रस लेने वाला अंग, सांस लेने वाला अंग, ढकने वाली हड्डी, काटने वाली हड्डी, चबाने वाली हड्डी, पकड़ा जाने वाला अंग, और अब भार ढोने वाला अर्थात् हमारा कंधा। इस रूप में हम कह सकते हैं कि हमारी भाषा क्रिया पर अधिक बल देती है, रूप पर कम। इसका कारण यह है कि रूप के पास न ध्वनि है, न अपने प्रभेदों के लिए शब्द गढ़ सकता है। इसलिए जहां ऐसा प्रयत्न हुआ है वहां केवल कांति चमक का पता चलता है, रंग तक का पता नहीं चलता।

एक दूसरा पक्ष जो विषय से कुछ हटकर तो है परंतु जरूरी बहुत है इसलिए चर्चा से बाहर आ जाए यह ठीक नहीं होगा यह है देववाणी के बहुत से अधिक सटीक शब्दों का संस्कृत में स्थान न बना पाना। उदाहरण के लिए गज, हस्ती, करी आदि बहुत भ्रामक शब्द हाथी के लिए प्रयोग में आते हैं। गज का अर्थ है चलने वाला, अन्य दोनों शब्दों का अर्थ है हाथ वाला । हस्ती देववाणी का शब्द नहीं हो सकता। गज के विषय में हम यही आपत्ति नहीं उठा सकते। परंतु नागादंत से ऐसा लगता है कि एक समय में यह हाथी के लिए अधिक लोकप्रिय शब्द था। नग पहाड़ और उसके अनुरूप आकार वाला जीव, नाग। यह सामान्य व्यवहार से लगभग लुप्त हो गया, अथवा साँप के लिए प्रयोग में आने लगा, जिसका तर्क हमारी समझ में नहीं आता।

कंधे के लिए संस्कृत का दूसरा शब्द है अंस। ऋग्वेद में इसका कई बार प्रयोग हुआ है
ये अंसत्रा य ऋधग्रोदसी ये विभ्वो नरः स्वपत्यानि चक्रुः ।। 4.34.9
अंसेषु व ऋष्टयः पत्सु खादयो वक्षस्सु रुक्मा मरुतो रथे शुभः ।….5.54.11
अंसेष्वा मरुतः खादयो वो वक्षःसु रुक्मा उपशिश्रियाणाः ।
वि विद्युतो न वृष्टिभी रुचाना अनु स्वधामायुधैर्यच्छमानाः ।। 7.56.13

परन्तु इसके नाकरण का तर्क अभी तक हमारे सामने स्पष्ट नहीं है।

गुनश्चः
अंस का आशय रात हमारी समझ में नहीं आ रहा था। अब यह कह सकते हैं कि यह शब्द भी देववाणी का है। यह कंधे का कुछ दबा हुआ हिस्सा है जहाँ कोई बोझ लटकाना हो ताे उसका फन्दा रहता है जिससे वह बगल की ओर सरकने नहीं पाता। देववाणी में संभवतः इसे हंस कहा जाता था। हमारे ऐसा सोचने का आधार यह है कि इससे सटी जो दो अर्धचन्द्राकार अस्थियां होती हैं उन्हें भोजपुरी में ‘हँसुली’ कहते हैं। इसी के कारण गले के एक आभूषण का नाम हँसुली कहते हैं। अंस का शाब्दिक अर्थ मांसल था। इसी का प्रयोग याज्ञवल्क्य ने शतपथ ब्राह्मण ने ‘अंसलो वा स्यात्’, (यदि मांसल हो तो) किया है। ऋग्वेद में इसका हवाला केवल मरुतों के ऋष्टि रखने के सन्दर्भ में हुआ है। ऋष्टि को सायण ने एक हथियार माना है जो गलत है, अब हम कुछ विश्वास से कह सकते हैं कि यह गले का एक आभूषण था।
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