Post – 2018-10-25

#भारतीय_मुसलमानः आभिजात्य और इतिहास

कॉल देव को रंक को राजा और राजा को रंक बनाने का खेल कुछ अधिक पसंद है। किन्ही परिस्थितियों में रंक से राजा बने लोगों के दिन फिर जाने के बाद कभी की अमीरी की याद जितना विभोर करती है उतना अमीरी के दिनों के सुख भोग ने भी न किया होगा। दिवा स्वप्नों में उसे दोबारा हासिल करने की लालसा उल्लास से भरती भी है और साथ साथ उभरा वैसा कर पाने मे असमर्थता का बोध, ग्लानि से भरता भी है। विरोधी भावों का विपाक ही इस खेल का आनन्द बढ़ाता होगा। यह सोच कर लिखने की तैयारी कर रहा था कि इस दुर्भाग्य पर गर्व करने की आदत शेर बन गयीः

इसे भी देखिए है दर्ज यह भी आसमानों में
सितारे हमसे मिलते थे तो शरमा जाया करते थे।

हमारे पास शायद यही बचा है और इसी के चलते हम इतिहास को समझने की जगह इतिहास से प्यार करने लगते हैं, उससे मुक्ति की जगह उसमें लिप्त हो जाते है। लिप्तता के कारण समाधान तलाशते हैं और समस्याएं पैदा होती या बढ़ती हैं। हम चर्चा सैयद अहमद की कर रहे हैं जो अमीरों की दिनोदिन खस्ता हो रही हालत से चिंतित थे और जिनका भविष्य बंगाल के बर्वाद रईसों जैसा होने वाला था, जो किसी अंग्रेज के अपने इलाके में आने की खबर से ही घरों में छिप जाते थे, पर उनका गुस्सा उन अंग्रेजों के प्रति नहीं था, जिनके कारण उनकी यह दशा हुई थी, अपितु उन बंगाली हिंदुओं के प्रति था, जिन्होंने इस अवसर का लाभ ही नहीं उठाया था, अपितु जिनके बीच बढ़ती जागरूकता और अधिकार चेतना से अंग्रेज स्वयं घबराए हुए थे और सर सैयद का अपने औजार के रूप में इस्तेमाल करना चाह रहे थे और जिसके लिए वह अपनी ओर से स्वयं को समर्पित कर रहे थे, जिसका एक कारण अतीत की आसक्ति थी जिसे अंग्रेज अपनी ओर से उकसा रहे थे, और उसी अनुपात में इतिहास की समझ का अभाव था जो इस दशा में होना ही थाः
We are those who ruled India for six or seven hundred years.From our hands the country was taken by Govemment into its own. Is it not natural then for Government to entertain such thoughts? Is Government so foolish as to suppose that in seventy years we have forgotten all our grandeur and our empire?

हम उनकी महिमा का आदर करते हुए यही कह सकते हैं कि इस कथन में समझ का निरा अभाव था। इसे कायदे की चापलूसी तक नहीं कहा जा सकता। आत्मालोचन तो यह हो ही नहीं सकता, अपने समुदाय का प्रोत्साहन भी नहीं कहा जा सकता। भविष्य की दृष्टि, जिसे दूरदर्शिता कहा जाता है, उसका भी अभाव था। वह एक ऐसी शक्ति का विरोध कर रहे थे जिसको रोका नहीं जा सकता था। यह जागरूकता के बल पर लड़ा जाने वाला जनयुद्ध था, जिसे तलवार से दबाया नहीं जा सकता था। दूसरे सभी इसकी शक्ति को जानते थे जिनमें तैय्यब जी भी थे, अकेले सर सैयद इसे नहीं समझ सके।

जिन अंग्रेजों को अपना शोषक मान कर उनसे अधिकारों की मांग करते हुए स्वतंत्रता का युद्ध आरंभ हो रहा था, जिन्होंने ही सत्ता से वंचित करके ये दिन दिखाए थे, उनकी गुलामी हासिल करके अपने रईस वर्ग के लिए कुछ हासिल करने की लड़ाई आप लड़ रहे थे। भरोसा उन पर जता रहे थे जिनका अपनत्व दिखा कर दूसरों का इस्तेमाल करने और विश्वासघात करने का ही इतिहास था।

अपने समय की दो महान विभूतियों मिर्जा गालिब और सर सैयद अपनी खुद्दारी के लतीफों के बावजूद सुख और सम्मान की तलाश में जितने अंग्रेजभक्त हो गए थे, वह हैरान करता है। इनके विपरीत इनसे पहले हो चुके मीर राजनीतिक दृष्टि से अधिक सुलझे लगते हैं जो अपनी निजी परेशानियों से राहत से ही संतुष्ट न रह कर और नवाबों, रईसों, अवाम सबके जीवन में बढ़ रही परेशानियों और देखते हैंः

जिंदगानी हुई है सब पै बवाल
कुजड़े झींके हैं रोते हैम बक्काल।
पूछ मत कुछ सिपाहियों का हाल
एक तलवार बेचे है इक ढाल।

हैं ‘वजी-ओ-शरीफ सारे खवार।
लूट से कुछ है गर्मि-ए-बाजार।

गालिब और सर सैयद कहीं देश और अवाम से जुड़े लगते ही नहीं और उसके बिना न समाज की सही समझ पैदा हो सकती है, न इतिहास की। ऐसे लोगों को आसानी से गुमराह किया और इस्तेमाल किया जा सकता है। वही हुआ। ब्रिटिश कूटनीति ने माइनारिटिज्म सिंड्रोम उभार कर वह कर लिया। संख्याबल की समस्या विरोध की स्थिति में पैदा होती है, सहयोगी की भूमिका में नही। 1857 में अपने परिवार की दशा ने उनके मन में दहशत का रूप ले लिया जो भी उनके अपनी ऐतिहासिक भूमिका से चूकने का कारण बना।

यदि कोई जानना चाहे कि जिन रईसों की हैसियत और इज्जत बचाने की उनको इतनी चिंता थी क्या उन्हें बचा सके, तो इसका जवाब तक देने की जरूरत न होगी।

विशिष्ट बनने या दीखने के सभी प्रयोग एक साथ ही हमें समाज विमुख और पराश्रयी दोनों बनाते हैं। इसके अनुपात में ही ये हमें अ-स्वतंत्र और उसकी क्षतिपूर्ति के लिए अहंकारी और पंगु भी बनाते हैं परन्तु इस पंगुता को हम समझ नहीं पाते, उल्टे उस पर गर्व करने की आदत डाल लेते हैं। यदि आपके पास हर छोटे मोटे काम के लिए नौकर-चाकर हैं, तो यह जानने के लिए कि आप कितने पंगु हें एक दिन के लिए उन सबकी छुट्टी कर दीजिए या सिर्फ कल्पना कीजिए कि सभी ने एक साथ हड़ताल कर दी है। इसके साथ ही आप को यह भी पता चल जाएगा कि आप कितने स्वतंत्र हैं। गुलाम कौन किसका है, इसकी समझ और परिभाषा बदल जाएगी। जिन्हें हम बादशाह कहते हैं और जो दूसरों की स्वतंत्रता छीनने की शक्ति रखते हैं आरामतलब होने के बाद सबसे अ-स्वतंत्र होते हैं। कहते हैं बहादुरशाह जफर अपने को गिरफ्तार करने के लिए आ रहे अंग्रेजों से बच कर भागने की कोशिश तक नहीं कर सका क्योंकि उसे जूती पहनानेवाली आवाज देने पर भी हाजिर न हो सकी। सहायसाध्यं राजत्व। असहाय होने पर राजा ही असमर्थ हो सकता है। चाकर कोई दूसरा काम करके मुश्किल आसान कर लेगा। श्रम, अध्यवसाय और स्वायत्तता एक दूसरे पर निर्भर है, सुख और अकर्मण्यता मनुष्य और समाज को गुलाम बनाते हैं।

Post – 2018-10-25

हम बुरे हुए इतने उसको देख कर साहब
उसने भी मुझे देखा पर भला सा लगता है।।
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मौत के डर से इससे प्यार किया
वर्ना इस जिंदगी में था ही क्या।।
000
लीजिए, वह पड़ाव आ ही गया
जब संभल कर कदम उठाते हैं।

Post – 2018-10-25

पस्ती का दौर

इसे भी देखिए
है दर्ज यह भी आसमानों में
सितारे हमसे मिलते थे तो
शरमा जाया करते थे।

Post – 2018-10-24

#सर_सैयद और #भाषा_विवाद
#भेदनीति : समस्या लिपि की

लिपि की समस्या अधिक पेचीली थी। आक्रमणकारी अपनी जबान और उनमें जो शिक्षित थे वे अपनी एक लिपि लेकर आए थे। उनकी भाषाएं अलग थीं तो भी लिपि एक थी, जिसका आधार अरबी लिपि थी। फारसी की जरूरतों के अनुसार इसमें कुछ परिवर्तन किए गए थे जिन्हें यथेष्ट मान लिया गया था। हिन्दुस्तान में उससे काम नहीं चल सकता था। अत: अरबी-फारसी लिपि में कुछ और सुधार करते हुए इसे हिंदी (हिन्दुस्तान की) बोलियों के अनुरूप बनाया गया था, अत: इसे उसी तर्क से हिंदी या उर्दू लिपि कहा जा सकता था, जिससे नागरी को हम हिन्दी लिपि कहते हैं। यह याद दिलाने की जरूरत नहीं समझते कि यह ब्राह्मी का बदला हुआ रूप है।

परन्तु कुछ लोग इस तर्क से सन्तुष्ट नहीं होंगे। वे कहेंगे ब्राह्मी अक्षरों की बनावट बहुत अलग थी। नागरी या हिंदी लिपि की बनावट उससे अलग है। इसलिए इसका विकास भले ब्राह्मी से हुआ हो, लिपि भिन्न है। अरबी लिपि में ऐसा कोई विकास नहीं हुआ, कुछ अक्षरों में दोचश्मी हे या हकार जोड़ कर नए चिन्ह महाप्राणित ध्वनियों के लिए बनाए गए जैसे रोमन लिपि मे एच जोड़ कर बना लिए जाते हैं। इससे लिपि भिन्न नहीं हो जाती।

मुझे इस पर कोई बहस नहीं करनी। यह अवश्य याद दिलाना है कि यह तर्क उनको भी ठीक लगेगा जो यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उर्दू लिपि भिन्न भाषा परिवार की है और उसकी (व्यंजन प्रधान) अपेक्षाओं के अनुरूप है, परन्तु हमारी अपेक्षाओं पर पूरी नहीं उतरती, इसलिए त्याज्य है और उन लोगों को भी रास आती है जो इस लिपि को धर्म से जोड़कर विश्वइस्लामवाद की अभिन्न कड़ी मानते हैं।

हमारे लिए यह बात अधिक महत्वपूर्ण है कि विजेता किसी देश की शर्तें मानते हुए उस पर राज नहीं करता। अपनी शर्तें अपनी सत्ता के प्रतीक के रूप में उस पर लादता है, और पराजित समाज को उन शर्तों को मानना होता है।

विजेता अपनी भाषा से अपनी जरूरतें पूरी नहीं कर सकते थे, इसलिए व्यवहार के लिए उनको भारतीय भाषाएं सीखनी पड़ी, उनके निजी जीवन में ऐसी कोई विवशता नहीं थी, इसलिए घर परिवार में वे भाषाएं बोलते रहे जो उनके बाप-दादा बोलते थे । यदि बाजार का काम लिखित रूप में ही होता तो उन्हें स्थानीय लिपि भी सीखनी पड़ती। इसकी जरूरत सरकारी कामकाज के लिए थी और इसे अपनी लिपि में ही कर सकते थे। इस तरह एक साथ दो लिपियों का चलन हुआ। एक सरकारी कामकाज की लिपि और दूसरी जनसामान्य की अपनी लिपि जो पहले से व्यवहार में थी।

शिक्षित और सरकारी दफ्तरों अदालतों में नियुक्ति की आकांक्षा रखने वाले लोगों को अरबी लिपि सीखनी पड़ी। विदेशी मूल के मुसलमान अरबी लिपि में काम करते रहे और शेष लोग सुविधा के अनुसार हिंदी या उर्दू में या कहें फारसी लिपि में अपना काम करते रहे। यह सुविधा और जीविका से जुड़ा हुआ प्रश्न था जिसमें पूरे इतिहास में कभी कोई टकराव नहीं पैदा हुआ। हिंदी या नागरी लिपि के कई रूप थे। भू राजस्व से जुड़े कायस्थ थे जिनकी लिपि को कैथी की संज्ञा मिली थी और दूसरी व्यापारियों की लिपि जिसमें शिरोरेखा और मात्राओं का कम प्रयोग होता था जिसे मुड़िया कहा जाता था । फारसी लिपि के दो रूप जिनमें से एक को शिकस्ता कहा जाता था।

एक ऐसे समाज में जिसमें औपचारिक शिक्षा और साक्षरता की कमी हो उसमें अपने व्यावसायिक एकाधिकार के कारण साक्षरों को निरक्षरों में बदलने की कला का ही दूसरा नाम था शिकस्ता, मुड़िया और कैथी । इसके विस्तार में हम यहां नहीं जाना चाहते।

कहना केवल यह चाहते हैं कि सोची-समझी शरारत के बावजूद जो व्यक्ति जिस लिपि में काम करना चाहे कर सकता था। हानि लाभ का विचार या कहां पर किस लिपि का व्यवहार होता है, इसका ध्यान उसे रखना था ।गद्दी पर मुनीमी मुड़िया जाने बिना नहीं संभव, अदालत में पुलिस में और दफ्तरों में फारसी भाषा और फारसी लिपि जाने बिना काम नहीं चल सकता था।

न उचित अनुचित का विचार था, न किसी बदलाव की संभावना । यह सभी प्रश्न बाद में भी नहीं उठे । सत्ता बदलने के बाद पुरानी सत्ता की भाषा सीखने का कोई लाभ न था। उससे मिली सुविधाएं नई सत्ता की भाषा से ही मिल सकती थी। इसलिए बंगाल में पहली बार यह मांग उठी कि कंपनी या तो अपनी भाषा लागू करे जिससे पुराने उत्साह से उसकी भाषा को सीख कर वे उसमें अवसर की तलाश कर सकें या व्यर्थ हो चुकी भाषा और लिपि सीखने के बोझ से मुक्ति मिले। इसमें स्वतंत्रता और सम्मान जैसी कोई बात नहीं थी। यह शुद्ध व्यवहारिकता मांग थी।

मुसलमानों ने इसका प्रभावशाली विरोध इसलिए नहीं किया की दफ्तर से लेकर अदालत तक उनका प्रभाव समाप्त किया जा चुका था। बिहार में अदालतों में कैथी लिपि की मान्यता का भी तीखा विरोध नहीं हुआ। परंतु उत्तर प्रदेश में अदालतों में फारसी लिपि के चलन के कारण शिक्षा में पिछड़ने के बाद भीनौकरियों में मुसलमानों का लगभग एकाधिपत्य था। मांग अदालतों मे और शिक्षा में फारसी लिपि को हटा कर नागरी लिपि को रखने की नहीं, अपितु नागरी को भी स्वीकार करने की थी। इतने से ही मुसलमानों का आधिपत्य समाप्त हो जाता था इसलिए सर सैयद की हिंदुओं से मिलजुल कर रहने की जो पहली शर्त थी वह यह कि वे ऐसी कोई मांग न करें जिससे मुसलमानों का यह एकाधिकार समाप्त होता हो, दूसरी शर्त थी कि वे कांग्रेस में सम्मिलित न हों जिसे वह अंग्रेजों की शह पर बंगाली हिंदुओं की संस्था इसलिए कहते थे कि उसके शक्तिशाली होने पर प्रतिनिधित्वमूलक शक्तिसंतुलन की नौबत आएगी जिसमें एक तो मुसलमानों में भी ऐरे गैरे रईसों की बराबरी करने लगेंगे। उन पर हुक्म भी चला सकते हैं। फिर तो मालिकों को ताबेदारों की ताबेदारी करनी होगी और दूसरी, इससे भी खतरनाक, यह कि बहुसंख्यता के बल पर हिंदू मुसलमानों पर राज्य करने लगेंगे। जब कल्पना संभावना के इतने निकट हो ताे इसे नकारना संभव नहीं रह जाता।

जो भी हो साम्प्रदायिक सद्भाव की उनकी कसौटी यही थी और इसी की सीमा में वह हिंदुओं मुसलमानों दोनों के हितैषी होने का दावा करते थे जो नागरीलिपि को भी स्वीकृति मिलने के साथ ही समाप्त हो गया और नागरी की मांग करने वाले उन्हें सांप्रदायिक लगने लगे।* उन्हें लगने लगे, यह उतनी हैरानी की बात नहीं है जितनी यह कि धर्मनिरपेक्षता की भी यही पहचान बनी रही है और आज भी हिंदुओं पर गुजरी यातनाओं तक पर हमदर्दी दिखाने वालों को सांप्रदायिक सिद्ध करने का अभियान चलाया जाता है इसलिए यह बीती बात नहीं, वर्तमान में इतिहास की सतत उपस्थिति की समस्या है।
{nb. *Communal violence broke out as the issue was taken up by firebrands. Sir Syed Ahmed Khan had once stated, “I look to both Hindus and Muslims with the same eyes & consider them as two eyes of a bride. By the word nation I only mean Hindus and Muslims and nothing else. We Hindus and Muslims live together under the same soil under the same government. Our interest and problems are common and therefore I consider the two factions as one nation.” Speaking to Mr. Shakespeare, the governor of Banaras, after the language controversy heated up, he said “I am now convinced that the Hindus and Muslims could never become one nation as their religion and way of life was quite distinct from one another.”}
यहां हम पहलेे की दो भ्रांतियों को दूर कर दें ।

यह दावा कि रईस मुस्लिम परिवारों में शुद्ध उर्दू बोली जाती थी, गलत है वहां फारसी बोली जाती थी जिसमें केवल इतना अंतर आया था कि वाक्य रचना और क्रिया पदों में नौकरों-चाकरों के प्रभाव से स्थानीय बोली ने जगह बना ली थी बाकी मामलों में वे हठपूर्वक उस भाषा का प्रयोग करते थे जिसे वे अपने पुरखों की भाषा के रूप में बचाए रखना चाहते थे। कहें, शुद्ध मानी और बताई जाने वाली भाषा की प्रकृति विदेशी थी, विदेसीपन की रक्षा संचार की व्यापकता से अधिक जरूरी थी। जो भाषा परिवार की हद में रह कर भी अपनी शुद्धता बचा कर संतुष्ट थी, उसकी जरूरत संचार नहीं कुलीनता की रक्षा थी।

विभिन्न नामों से गुजरते हुए उर्दू नाम से रूढ़ होने वाली जबान इसके ठीक विपरीत जनसाधारण से जुड़ाव के प्रयत्न में विकसित हुई थी, संचार को व्यापक और प्रभावशाली बनाने के उद्देश्य से विकसित हुई भाषा थी। विकास का श्रेय जाता मुसलमानों को, सच कहें तो सूफियों को है। जहां कुलीनों की विदेशी पहचान के लिए चिंतित भाषा का जोर तलफ्फुज या उच्चारण की सर्वशुद्धता और अरबी पदबंध पर था, वहां इसका जोर रवानगी या प्रवाह पर था। जहां जोर पहली में दुर्बोध अरबी फारसी प्रयोगों पर था, वहां इसका लोकोक्तियों, मुहावरों और वचनभंगी पर था। यदि यह रईसों की उच्छिन्नमूल उर्दू के दबाव से मुक्त रह पाई होती तो यह भारतीय व्यवहार की सबसे जीवन्त और सर्वमान्य भाषा होती।

एक दूसरा भ्रम उच्चारण की शुद्धता के निर्वाह को ले कर है। विदेशी अपेक्षाओं के अनुरूप किसी भिन्न भाषिक परिवेश में शुद्ध उच्चारण संभव ही नहीं। इसके कारण उर्दू का जितना अहित हुआ है उसे इस दुर्भाग्यपूर्ण सचाई से समझा जा सकता है कि पहले देश बंटा, फिर पाकिस्तान बंटा, फिर बंटे पाकिस्तान के अवाम इससे नफरत के कारण अपनी बोलियों के लिए उठ खड़े हुए। इसे तारिक़ रहमान के माध्यम से हम देख आए है। उर्दू के लिए अपनाई गई लिपि पर उनकी टिप्पणी ध्यान देने योग्य हैः
Although in his grammar of Urdu Abdul Haq pointed out that ‘Urdu is a purely Indian language of the Indo-Aryan family. Arabic, on the other hand, is from the Semitic family. Thus it is not at all appropriate for the grammarians of Urdu to follow the rules of Arabic.’
उच्चारण की शुद्धता पर भारत से लेकर पाकिस्तान तक बवाल करने वाले कौन हैंः
School grammars, based upon medieval Persian models, specialize in taxonomy. Parts of speech are divided into sub classes which have Persian and Arabic names which must be memorized. Pluralization follows Arabic or Persian rules leading to absurdities. While this is an irritant to school children the urge for prescriptivism in Urdu and English can sometimes be offensive. The Urdu speaking people from UP even now pride themselves upon their linguistic refinement.

पर हम यह सवाल भी करना चाहते हैं कि शुद्धता के पीछे भाषा का सत्यानाश करने वालों मे कितने है जो उच्चारण मे ऐन और अलीफ में फर्क कर पाते है, से, साद, सीन के सही उच्चारण जानते है। ले देकर ये सभी सीन जैसे हो जाते हैं जिनका शीन से फर्क समझ में आता है। ते और तोव के बीच, जे, ज़े, जीम, ज़ोव, के बीच वही समस्या। अब रह जाता है काफ, के, गाफ और ग़ैन, आदि के बीच का फर्क जिसको ले कर जितनी तकरार की जाती है उतना ही भाषा का अपकार।

Post – 2018-10-23

#सर_सैयद और #भाषा_विवाद – 9

मैं इस बात की याद दिलाते हुए आगे अपनी बात रखना चाहता हूं कि मैं जो लिखता हूं उसे मानना आपके लिए जरूरी नहीं है, न अपने से असहमत लोगों को मैं, असहमति के कारण अपने से नासमझ या अनैतिक मानता हूं। मैं केवल चाहता हूं कि इन पहलुओं पर विचार किया जाए, और जो गलत लगे उनकी आलोचना की जाए। यह काम हो नहीं रहा है, इससे तोष की जगह असंतोष बना रहता है।

हम यह बात पहले कह आए हैं कि सर सैयद अहमद सामाजिक भेदभाव के जनक नहीं थे उनके शिकार थे जो यह भेदभाव पैदा कर रहे थे और जिन्होंने यह लक्ष्य कर लिया था कि वंशपरंपरा, हैसियत और पद के कारण उनमें इसके बीज थे और उनके लिए जमीन तैयार करने की योग्यता थी।

भाषा-विवाद भी उन्होंने पैदा नहीं किया था, यह पहले ही ब्रिटिश कूटनीति और जनता की मांग से आरंभ हो चुकी थी। उन्होंने इसके फंदे में अपना पांव रख दिया था, क्योंकि यह फंदा उन्हें रास आता था।

उनकी अपनी प्रतिबद्धता रईस जमात से थी। असबाबे बगावते हिंद के विषय में जितनी हमें जानकारी है उसकी सीमा में यह दावा किया जा सकता है कि उन्होंने केवल यह सिद्ध किया था कि रईसों ने अपनी छीनी गई रियासतों का बदला लेने के लिए न इसकी योजना बनाई थी, न काम किया था। गरज कि रियासत खोकर भी सरकार के वफादार बने रहे थे क्योंकि वफादारी उनके खून में है। सरकशी, जिसके लिए उन्होंने हरमजदगी का प्रयोग भी किया था, और नौकरों चाकरों से होने वाली मामूली चूक पर इसका प्रयोग करने के आदी रहे होंंगे, वे बने हुए मुसलमानों की जमात के लोगों से होती थी और उन्होंने की थी, जिनके खून में ही नमकहरामी है, यद्यपि उनका भी इतना खयाल रखा था कि इसका कारण उनकी बेरोजगारी को बताया था। यह बेकारी कंपनी के अत्याचारों से और काम-धंधा छीन लिए जाने के कारण पैदा हुई थी, यह उन्होंने न कहा होगा क्योंकि खून में ही वफादारी होने के कारण जो लोग रियासतेो खोकर भी वफादारी नहीं छोड़ते वे एेसा आरोप लगाने की नमकहरामी नहीं कर सकते।

हम इसे रेखांकित करना चाहते हैं कि उनका रईसी नजरिया उसी धर्मसमुदाय के 80 प्रतिशत लोगों के विरुद्ध था, जैसे हिंदू अभिजनवादी नजरिया अपने ही 80 प्रतिशत के विरुद्ध रहा है और हिन्दू समाज की सामूहिक चेतना की विवेकशीलता की सराहना करनी होगी कि उसने इसे कभी नहीं खोया, जब कि मुस्लिम समाज अपने ही वर्गशत्रुओं का ग्रास बन गया जो वर्गशत्रुता को नकली और धर्मशत्रुता को असली सिद्ध करने में सफल रहा और भारत में कदम कदम पर वर्गशत्रुता की दुहाई देने वाले इस परिवर्तन पर तालियां ही नहीं बजाते रहे, पीछे से धक्का भी लगाते रहे और आज तक उनकी तालियां और जोर-लगाओ-हइसा जारी है।

भारत में आकर सभी परिभाषाएं बदल जाती है। कसूर उसकी जलवायु का है जो अंग्रेजाें के आने से पहले स्वर्गोपम देश और विश्व का सबसे समृद्ध देश था वह उनके कदम रखते ही ऐसी सड़ी हुई जलवायु का देश सिद्ध किया जाने लगा जिसमें दूसरी चीजें तो दूर दिमाग और ओजस्विता में भी फफूंद लग जाती है और तरोताजा दिमाग इसको सड़ने से बचाने के लिए, इस पर तरस खाकर, पश्चिम से इस पर हमला कर देता रहा है। वही दिमाग हमारे बुद्धिजीवियों और खास करके मार्क्सवादियों को मिला। फिर कोई चीज सही कैसे रह सकती है- स्मृति भ्रंशात बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात जो हो रहा है वह भविष्यति। मार्क्सवादी समझ का भी सत्यानाश यहीं होना था।

भाषा और लिपि का भी धार्मिक विभाजन करने का अपराध यहीं होना था। भाषा किसी देश या प्रदेश की होती है, धर्म की नहीं। धर्म की भाषा धार्मिक कृत्यों तक सीमित रहती है। जिनकी धर्मभाषा अरबी थी उन्होंने ही हाट-बाजार की जरूरतों से स्थानीय बोलियां सीखी थीं जिसे तरह तरह के नाम समय समय पर दिए गए जिनमें एक हिंदी भी था। इस क्रम में उनकी अक्षमता के कारण उनकी जबान के भी कुछ शब्दों का चलन में आ जाना स्वाभाविक था, वे चाहे तुर्की के हों या फारसी के। इस तरह बनी थी सत्ता से जुड़े लोगों के स्थानीय व्यवहार और बाजार की भाषा, जिसका सीधे जनसंपर्क से कटी, राजपिरवारों और दर्बारों की भाषा से कोई संबंध न था। इसके जितनी बोली क्षेत्रों में उनका प्रवेश हुआ, उतने रूप बने। इन्हीं का प्रयोग सूफियों ने अपने काव्योे में किया। सूफियों द्वारा प्रयुक्त बोलियों में एक दिल्ली के आसपास की बोली थी, जिसकी अपनी भाषाई पहचान कई बोलियों से प्रभावित थी इसलिए इसे अपने सही नाम के लिए भटकना पड़ा। इसी का एक समय में ‘रेख्ता’ -‘गिरी हुई’, ‘पड़ी हुई’- पड़ा जो अपभ्रंश का अनुवाद था पर आशय था जनभाषा। इसका प्रयोग भी सूफी कवियों ने किया। इसी के लिए मुसलमानों ने ही हिंदी शब्द का प्रयोग किया। इसको हिंदुओं की भाषा बनाने की जुगत किसकी थी यह पता जानकार लोग लगाएं, पर रेख्ता का अर्थ खड़ी करने वाला, और इस बोली को खड़ी बोली की संज्ञा देनेवाला अंगरेज या उसके संपर्क में रहा होगा जिसने correct, right, erect < rectसे भेद न कर पाने के कारण उस ''गिरी बोली का अर्थ खड़ी बोली कर दिया। और इसी बीच जाने किसकी समझ से हिंदी के स्थान पर 'ओर्दू' अर्थात 'फौजी छावनियों की भाषा' कर दिया गया और हिंदी का प्रयोग करने वाले सूफी उर्दूदां हो गए और खड़ीबोली वालों ने हिंदी शब्द को लपक लिया। जिसकी भी सूझ या चाल से ऐसा हुआ उसको पहचानने में मैं अक्षम हूं, पर जो भी भाषा का मजहबी विभाजन चाहता था या जिसकी भी नादानी से ऐसा हुआ, इसके लिए भी मजहब को दोष नहीं दिया जा सकता। मुझे लगता है इस अलगाव के पीछे मुसलमान नहीं हिंदू थे जिन्होंने सरकारी काम काज में अपनी पैठ सुनिश्चित करने के लिए, हिंदी में फारसी शब्द भरना आरंभ करके इसे जनभाषा से दूर कर दिया - संक्षेप में कहें तो ये खत्री और कायस्थ । नाम बदलने पर भी चरित्र नहीं बदला न ही व्यवहार मजहबी हुआ क्योकि इसका व्यवहार करने वालों मे हिंदुओं की संख्या कम न थी। यह कभी मुसलमानों की भाषा न रही न बनी, बनाने की कोशिश अवश्य लगातार बनी रही। आज भी मुख्य समस्या, भाषा और साहित्य के जन से जुड़ने, जुड़कर भी उन्नत और अनन्य होने और समाज से कट कर एलीट होने और समाज बहिष्कृत हो कर कहीं का न रह जाने और तमगे और ताबीज दिखाते फिरने के बीच चुनाव न कर पाने की है जिसका सही आकलन तक नहीं किया गया है।

Post – 2018-10-23

जहाँ से मैं गुजरता हूँ वहाँ रस्ता नहीं होता।
गुजरने पर समझते लोग हैं चलना इधर से है।

Post – 2018-10-21

#सर_सैयदः #भेद_नीति-8

संभव है यह मेरा भ्रम हो कि जिन दिनों दिल्ली दरबार के शायर भाषा को ऐसी बनाना चाहते थे जिसे एक कहे तो दूसरा समझ ले, अर्थात् भाषा ऐसी हो जिसे अधिक से अधिक लोग समझ सकें, उन्हीं दिनों ऐसे प्रयोग भी हो रहे थे कि या तो लिखने वाला अपने लिखे को स्वयं समझे या कोई कोई समझ ही न सके, क्योंकि निश्चयात्मक ढंग से ऐसा दावा करने के लिए जैसे निर्णायक प्रमाण होने चाहिए वैसे मेरे पास नहीं हैं, यद्यपि परिस्थितिजन्य साक्ष्यों का अभाव भी नहीं है। ।

इस दूसरी कोटि में वे लोग आते थे जिन पर कंपनी की भाषा विषय भेद-नीति का प्रभाव किसी न किसी रूप में पड़ा था। कंपनी की भाषा नीति क्या थी इसे समझ पाना आसान नहीं है। कारण यह दोधारी थी। एक अपनी जरूरत के लिए, दूसरी दुराग्रह और कलह पैदा करने के लिए। एक ओर तो वह आग्रह करके शुद्ध हिंदी के पाठ तैयार करा रही थी, जिनमें, हिंदी छुट दूसरी जबान का पुट नहीं होना चाहिए था और इस शुद्धतावाद के परिणाम भी कम खतरनाक नहीं हो सकते थे। इस काम को जिन तीन सुयोग्य जनों को सौंपा गया था वे इस कसौटी पर अपने अपने ढंग से उस स्थिति में सही उतरे थे जब हम सदल मिश्र की संस्कृतगर्भित भाषा को हिंदवी मान लें। पर हिंदवी छोड़ किसी दूसरी बोली का पुट न आने देने का आश्वासन देने वाले इंशाल्लाह को ऐसा क्या हो गया जो यह कहने लगे कि उनको हिंदुओं से जबान नहीं सीखनी है। उन्हें खाने, पहनने, बोलने, के सलीके हमने सिखाए हैं फिर उनसे भाषा कैसे सीख सकते हैं। “Their (Hindu’s) word or act cannot therefore be authoritative” (Insha• 1808:15).पूर्वोद्धृत.
उनकी इस टिप्पणी में “प्राधिकारिक” का प्रयोग ध्यान देने योग्य है, जो बिना नाम लिए दिल्ली दरबार के उर्दू को बहुजनग्राह्य बनाने के लिए बोलचाल की भाषा के निकट रखने के जौक जैसे शायरों के प्रस्ताव और लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह के देसी रागों, रागिनियों के पुट के साथ रचे गए नाटकों की भी भर्त्सना थी और दिल्ली और अवध पर अपनी नजर गड़ाए कंपनी के मुसलमानों को जो, बादशाहत कर चुके थे, अपना आनबान कायम रखने के लिए अरबी-फारसी-गर्भित भाषा का प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। यह बात मुखर रूप में तो सिरफिरे मिजाज के जाॅन बीम्स द्वारा काफी बाद में कही गई परन्तु यह कंपनी की पहले से चली आरही कूटनीति का हिस्सा थी। सिद्धान्त रूप में वह भाषा को बोलचाल के अनुरूप रखने के पक्ष में थे।

यहां हम कुछ रुक कर यह बता दें कि जॉन बीम्स काल्डवेल के A Comparative Grammar of the Dravidian or South Indian Family of Languages की प्रतिस्पर्धा में वैसा ही A Comparative Grammar of the Modern Aryan or North Indian Family of Langages ग्रंथ तीन खंडों में लिखा था जिसका महत्व इतना ही है कि उसके बारे में सामान्यतः कोई नहीं जानता और उसे पढ़ते हुए मेरी समझ मे न आया कि उनके सामने एक कालजयी कृति थी, उससे नाम के अतिरिक्त उन्होने कोई शिक्षा क्यों ग्रहण न की। जो भी हो उस ग्रंथ में बांग्ला भाषा पर विचार करते हुए उसको इस आधार पर अविकसित भाषा कहा था कि इसमें तत्सम संस्कृत शब्दावली का बाहुल्य है और इसी आधार पर हिन्दी (हिंदुस्तानी) को उससे श्रेष्ठ बताया था कि इसमें उनको अपनी प्रकृति के अनुसार ढाल लिया जाता है, परन्तु हिंदुस्तानी के आदर्श रूप में आईने अकबरी की भाषा या फारसी-अरबी बोझिल भाषा का समर्थन करते थे क्योंकि अरबी फारसी के शब्द उन मुसलमानों को भी पसंद आते हैं जो निरक्षर हैं और वही बोली बोलते हैं जिसे हिंदू। इस तरह की मूर्खतापूर्ण बात उन जैसा कोई व्यक्ति ही कह सकता था, क्योंकि वह नस्लवादी थे और इसे छिपाने तक की जरूरत अनुभव नहीं करते थे। उन्होंने इस रुतबे के लिए लंबी जंग छेड़ी थी कि समपदस्थ भारतीयों का वेतन अंग्रेजों से कम होना चाहिए और इसे उचित ठहराने के लिए दलीलें दी थीं। एक मीटिंग जिसमें एक हिन्दुस्तानी आईसीएस को शामिल होना था उसमें उन्होंने चेयरमैन से आग्रह किया था कि उस अफसर को मीटिंग के दौरान खड़े रहने को कहा जाए। चेयरमैन ने उनसे मीटिंग से बाहर चले जाने को कहा। उस हिंदुस्तानी अफसर ने भाग लिया और बीम्स बाहर निकल कर उसे अपने समक्ष कुर्सी पर बैठा देखने की पीड़ा से बच गए।

जान बीम्स का यह खाका इसलिए पेश करना जरूरी समझा कि इससे आप को इंशांअल्ला खां और सर सैयद अहमद की मानसिकता को समझने में मदद मिलेगी। उनकी तकरीरों की भाषा हो या किताबों, लेखों के शीर्षक उनकी भाषा पर ध्यान दें तो वह ठीक उसी भाषा के हिमायती थे जिसे बीम्स ने आदर्श माना था। यदि हिंदी और हिंदुओं के बारे में जो टिप्पणियां की हैं उन पर ध्यान दें, इनमें उन टिप्पणियों को भी शामिल कर लें जो मेल-मिलाप की चाशनी में पगे हैं, सभी मे संरक्षक वाला तेवर और हिकारत वाला भाव उनकी सावधानी के बाद भी उभर आएगा।

इसका यह मतलब नहीं कि उन्होंने इसे बीम्स से सीखा या बीम्स ने उनसे सीखा। यह उनकी चेतना में गहरे उतरा था और अंग्रेज कूटनीतिज्ञों ने इसे पहचाना, पैना किया, उनके समर्थन को उन्होंने अपनी ताकत मानते हुए अपनी अकड़ को और बढ़ाया।

परन्तु वह जिस भाषा का समर्थन कर रहे थे वह, जैसा कि इंशा अल्लाह खान ने अपनी हेकड़ी के कारण स्वीकार किया था, इस देश की भाषा थी ही नहीं थी। वह दिल्ली और लखनऊ के चंद शरीफ मुसलमानों के घरों की ज़बान थी, जिसे वे भी अपने घर में बोल सकते थे, बाहर नहीं। बाहर कदम रखते ही उन्हीं गंवारों से पाला पड़ता था जिनकी भाषा से उन्होंने अपनी जबान को बचा रखा था, इसलिए वे बाहर निकलते ही नहीं थे, हाट-बाजार का सारा काम काज उनके नौकर-चाकर करते थे जिनसे भी बात करते हुए वे शब्दों से कम, इशारों से ही अधिक काम लेते थे। शब्दों का प्रयोग वे उन्हे गालियां देने और फटकारने के लिए करते थे। इस मामले में सैयद अहमद भी कंजूस न थे, Sir Syed advised the British to appoint Muslims to assist in administration, to prevent what he called ‘haramzadgi’ (a vulgar deed) such as the mutiny.

उनकी अपनी गति अपने जैसों की महफिलों तक थी जिनमें उनके कलाप्रेम और कला की समझ के कारण नाचने-गानेवालियों की महफिलें भी आ जाती थीं। हंटर कमीशन के सामने हिंदी पर उनकी अभद्र टिप्पणी से तिलमिला कर बाबू हरिश्चन्द्र ने जो कुछ कहा, वह कहा तो प्रतिक्रिया में था, परन्तु दुर्भाग्य से वह अक्षरशः सच था। मुस्लिम तहजीब, मुसलमानी भाषा और लिपि, जीवनदृष्टि सभी की मुश्किल यह है कि यह अपने समाज और जमीन से कटकर रहने और किताब से निकलकर किताब में बंद हो जाने को गौरव का विषय मानने की इतनी पक्की आदत डाल चुकी है कि इससे सहज संपर्क केवल उनका सध सकता है जो किताब को जमीन और समाज मान कर उस जैसे बन जाएं। यथासंहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । ऐसी दशा में यह अहंकार पालना संभव हो सकता था कि Special attention was paid to our speech. I lived in the Deccan for twenty years without adopting a single local pronunciation, and continued to speak pure Urdu (Maudoodi, Khud Niwisht1932:13, तारिक,12 ) उसने स्वयं को अपने ही देश, समाज और परिवेश से निर्वासित कर रखा है। पहले मृत्युदंड के बाद सबसे कठोर दंड निर्वासन ही माना जाता था। अपने को दंडित करने का यह तरीका शायद इसलिए कुछ को उतना डरावना नहीं लगता कि आज दुनिया बहुत बड़ी हो गई है पर इस बड़ी दुनिया मे भी पांव रखने के लिए कोई तो जगह ऐसी होनी जाहिए जिसे पूरे विश्वास से अपनी कहा जा सके। वह प्रकृति, परिवेश और देश से जुड़ाव के बिना संभव नहीं।

Post – 2018-10-21

इन्हें भी देखिए जो रात में तारे नहीं गिनते
मगर गिनती में आते, दिन में भी गिनकर दिखा देते।।

Post – 2018-10-20

भेद नीति -7

जब तक अन्याय है, तब तक उससे पिसने वाले भी रहेंगे और उससे विद्रोह करने वाले भी रहेंगे। लंबे समय तक अन्यायपूर्ण, पर सह्य, विचारों या व्यवहारों के चलन में रहने और उनका विरोध न होने पर हमें यह भ्रम हो जाता है कि सब कुछ ठीक है और उस अन्याय से किसी रूप में लाभान्वित लोग इसे अपना वैध अधिकार मान लेते हैं और इन्हे आपत्तिजनक कहने वालों को अपराधी या उपद्रवी समझते हैं।

क्या आपने कभी यह सोचा है की इतिहास का अर्थ ही है अन्याय गाथा। ऐसी सभी घटनाएं जिनको इतिहास में दर्ज करने के योग्य माना जाता है या जिनसे भारी बदलाव आता है, बलप्रयोग और अनैतिक या आपराधिक तरीकों का परिणाम होती हैं और इसमे सकल मानव ऊर्जा और मनुष्य के लिए उपयोगी संपदा और साधनों का विनाश होता है। यदि उसे ही मानव कल्याण में लगाया जा सके तो पूरी मानवता को अकल्पित ऊंचाइयों तक पहुंचाया जा सकता है। परन्तु क्या समाज में उस दशा में वह सक्रियता, सर्जनात्मकता और प्रतिस्पर्धा पैदा की जा सकती है जिसकी आवश्यकता उन्नति के सोपानों के लिए होती है? यदि ऐसा होता तो आदिम जनों का जीवन स्तर सभ्य जगत से कहीं अधिक ऊंचा होता।

फिर भी समय समय पर यह दावा किया जाता है कि हम उस आदर्श व्यवस्था काे हासिल कर चुके है जिसमें आगे किसी बड़े बदलाव की जरूरत नहीं है। ऐसा दावा करने वाले यह दावा भी करते हैं कि इतिहास का अंत हो गया। दूसरों को इसे अपनाना चाहिए और जिन्होंने अपना लिया है, उन्हें इसकी मर्यादाओं का निर्वाह करना चाहिए।

सनातन का भी अर्थ है इतिहास का अंत। उन्होंने मानव मूल्यों को सभी के लिए पालनीय बनाते हुए और अपने को भी युगधर्म के अनुसार बदलते हुए, वर्णाश्रम की स्थापित आदर्श व्यवस्था को सभी के हित में बताते हुए, यह विश्वास पैदा करने का प्रयत्न किया कि राज्य इसके विधानों का उल्लंघन करने वालों को दंडित करे। समाज इसका पालन करता रहा, राज्य ने इसकी पूरी तरह अवज्ञा नहीं की, पर कभी पूरी तरह पालन भी नहीं किया अन्यथा प्रत्येक युग में इससे भिन्न और कभी कभी विरोधी मत और उनके अनुयायी न बने रहते।

इससे हमारे सामने दो चुनौतियां आती हैं। पहली कि हम न्याय या औचित्य की अवज्ञा करने वालों को गर्हित मानने की जगह यह समझने का प्रयत्न करें कि उनके विचार और आग्रह का कारण क्या है क्योंकि पहली नजर में कोई कार्य दुष्टता प्रतीत होते हुए भी किसी विवशता या भावातिरेक से जुड़ा हो सकता है, यहां तक कि किसी अन्याय के विरोध का एक रूप तक हो सकता है। दूसरी यह कि हम अन्याय का सफलता पर्यन्त विरोध करें और दूसरों को यह समझाने का प्रयत्न करें कि वह अन्याय है।

इसका संबंध विचार, कार्य और व्यवहार के सभी रूपों से है और हम भाषा और लिपि पर विचार कर रहे हैं और जिसमें अन्याय और अपराध की सीमा तक पहुंचे हथकंडों तक को हमें सहन करना ही नहीं होता, उनके साथ तालमेल बैठाने की बाध्यता ही नहीं पैदा होती, अपितु अन्याय से बचने के लिए अन्यायियों से हितबद्ध हो कर उनकी गुलामी करते हुए, न्याय की मांग करने वालों का विरोध तक करने की स्थिति पैदा हो जाती है जिसके हम आज शिकार हैं। केवल भारत ही नहीं, पाकिस्तान और बांग्लादेश भी इसी दुर्भाग्य के शिकार हैं। इसका व्यंग्य यह कि ये दोनों देश भाषा और लिपि के प्रश्न पर ही अलग हुए थे।

सब से बड़ा सवाल उस भूभाग की जो पहले हिन्द्स्तान के नाम से जाना जाता था और अपने दुर्भाग्य से उपमहाद्वीप कहा जाने लगा, कोई ऐसी भाषा हो सकती है जो अंग्रेजी का स्थान ले सके ? इसका उत्तर आधे अधूरे रूप में हमें ज्ञात है. परन्तु उसका नाम लेते ही हम अंग्रेजी से हितबद्ध लोगों और इस भाषा की प्रचार शक्ति के कारण, संकीर्ण सोच वाले ठहरा दिए जाएंगे इसलिए इसके लिए संघर्ष करने की तो बात ही अलग, समर्थन करने, यहां तक कि इसे एक विचारणीय विषय मानने तक से कतराते हैं।
निश्चय ही हम हिंदी की बात कर रहे हैं, परन्तु हम कुछ ऐसे सवाल उठाना चाहते हैं जिन्हें उस कोण से उठाया नहीं जाता जिससे उठाना हम जरूरी मानते हैं।

जब हिंदी या हिंदुस्तानी की बात आती है तो अक्सर भूदेव मुखर्जी, केशव चन्द्र सेन आदि का नाम ले लिया जाता है, पर यह ध्यान नहीं रखा जाता कि उनके सामने स्वतंत्र भारत की कोई परिकल्पना न थी। वे जिस समय ये विचार प्रकट कर रहे थे उस समय तक कांग्रेस की स्थापना तक नहीं हुई थी। इसका दूसरा पक्ष यह कि वे अंग्रेजी शिक्षा के विरोधी नहीं, समर्थक थे। अर्थात् उनकी दृष्टि में अंग्रेजी शिक्षा का हिन्दी से विरोध नहीं था। वे स्वतंत्र भारत में नहीं, ब्रिटिश भारत में हिंदी में अखिल भारतीय स्तर पर, जिसमें बंगाल भी आता था, शिक्षा की भाषा को हिंदी या हिंदुस्तानी बनाने का समर्थन कर रहे थे। अदालतों का काम हिंदुस्तानी में हो, इसकी मांग कर रहे थे, परन्तु क्यो? बंगाली की कीमत पर भी हिन्दी क्यो?

इसका एक पक्ष फारसी शिक्षा और और फारसी में अदालती काम बंद करने से जुड़ा था, जिसमें यह मांग की जा रही थी कि बंगाल में या तो बांग्ला या अंग्रेजी, पर फारसी किसी कीमत पर नहीं। यह हमारी भाषा नहीं है, हम पर, हमारी इच्छा के विपरीत लादी हुई भाषा है। दूसरा अखिल भारतीय सेवाओं मे सर्वोपयुक्त लोकग्राह्य भाषा से था जिसमें पहुंचने की संभावना पैदा हो घई थी।

परन्तु इस बात को ताे याद ही नहीं किया जाता कि यह विचार उनसे भी पहले उन अंग्रेजों के मन में उठा था जो भारतीयों को सत्ता जाने के डर से अंग्रेजी सिखाने के पक्ष में नहीं थे और स्वयं भारतीय भाषा सीख कर शासन करने की दूरदृष्टि रखते थे। वे कितनी भाषाएं सीखते ? जाहिर है वे पूरे हिन्दुस्तान की कोई एक भाषा ही हो सकती थी। यह थी हिन्दुस्तानी। इसीलिए वे हिन्दुस्तानी का कोई ऐसा रूप स्थिर करने के प्रयोग करने को तैयार हुए थे जिसके पीछे राजनीति और आवश्यकता का योग था और लल्लूजी लाल, सदल मिश्र तथा इंशां अल्ला खां की उस भाषा की बानगी आई थी जिसमें इंशां अल्ला की ’हिंदवी छुट किसी दूसरी भाषा का पुट नहीं’ वाली भाषा भी थी।

कंपनी के इसी प्रयोग से असहमति जताते हुए फ्रांसिस ह्वाइट एलिस ने जो मद्रास में कलक्टर था और अपनी सारी उम्र तेलुगु क्षेत्र में एक छोटी सी अवधि छोड़कर मद्रास में ही बिताया था, यह प्रस्ताव रखा था कि हिन्दुस्तानी से दक्षिण भारत में काम करना संभव न होगा, कलकत्ता के फोर्ट विलियम कालेज की ही तर्ज पर मद्रास के सेंट जार्ज कालेज की स्थापना कराने मे सफल हुआ था।

हममें से अधिकांश लोग द्रविड़ भाषा परिवार के जनक के रूप में काल्डवेल का ही नाम जानते है, परन्तु एक अलग भाषा परिवार के रूप में दक्षिण भारत की भाषाओं को रखने का काम एलिस ने The Dravidian Proof मेंकिया था। {The first to break ground in the field was Mr Ellis, a Madras civilian, who was profoundly versed in the Tamil language and literature… Though I had lost the satisfaction of supposing myself to be the discoverer of a new field, yet it now appeared to be certain that the greater part of the field lay not only uncolonised but unexplored. (Caldwell, 1856, iv, in T.R.Trautmann, Languages and Nations, Yoda Press, 2006, p.74-75)}.

सभी हिन्दी निरपेक्ष जनों की विचार दृष्टि में हिन्दी भारत के स्वतंत्र होने से बहुत पहले से एकमात्र स्वाभाविक भाषा थी।

Post – 2018-10-19

#भाषा_और_लिपि #भेदनीति के प्रयोग -6

ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार करने आई थी। व्यापार करने के लिए व्यापारियों से संपर्क की और दोनों को एक दूसरे की भाषा की जानकारी जरूरी होती है। आरंभ में यह इशारों से काम लेती हुई के इक्के दुक्के शब्दों की जानकारी के साथ आगे बढ़ती है। धीरे-धीरे या तो दोनों को समझ में आने वाली एक बनावटी भाषा का निर्माण हो जाता है, या दोनों दलों के बीच, मध्यस्थ अर्थात् दलाल पैदा हो जाते हैं जिनके माध्यम से वे अपना काम आसान कर लेते हैं। यह बहुत पुरानी परिपाटी है। विदेश व्यापार में इसका चलन वैदिक काल मे भी था। तब दलाल को उपवक्ता कहा जाता था।
लंबे संपर्क के बाद वे एक दूसरे की भाषा जान लेते हैं। भाषा के विषय में अलग से किसी नीति की जरूरत नहीं पड़ती। भाषा का जो रूप तैयार होता है वह अपने स्वाभाविक क्रम में होता है। कंपनी का अपना काम इसी तरह चल रहा था। अंग्रेजी जानने वाले बंगाली इस दलाल की भूमिका से ही, मैकाले से पहले, पैदा हो चुके थे और उनके माध्यम से, अपने प्रयत्न से अंग्रेजी सीखने वाले भी बढ रहे थे और कंपनी-तंत्र से जुड़कर लाभान्वित हो रहे थे। इस तरह बंगाल में अंग्रजी के पक्ष में पर्यावरण तैयार हुआ था जिसे औपचारिक रूप मैकाले ने दिया था। हम बहुत पहले यह कह आए हैं कि मैकाले ने संसद में जो ओजस्वी भाषण दिया था उसके सभी बिन्दु राममोहन राय के थे जो उन दिनों दिल्ली के बादशाह की पेंशन बढ़वाने के लिए इंग्लैंड भेजे गए थे और संसद सदस्यों को कंपनी प्रशासन के दोषों से भी परिचित कराना चाहते थे। इसका अवसर नहीं मिला था पर मैकाले सहित कई सांसदों से संपर्क साध चुके थे। इनमें शिक्षा की जिम्मेदारी और भाषा का प्रश्न भी था।

कंपनी कई तरह के जोड़-तोड़ के बाद सत्ता में आ गई थी और अपने प्रतिस्पर्धियों को ठिकाने लगा कर स्थाई आधिपत्य कायम कर चुकी थी, भले नाम से दिल्ली सरकार की मोस्ट ओबिडिएंट सर्वेंट हो, बादशाह को भिखारी की सी स्थिति में पहुँचा कर चिर काल तक शासन के प्रति आश्वस्त थी। प्रशासनिक कारणों से अब उसे पुराने अभिलेखों से परिचय के लिए फारसी भाषा की जरूरत थी तो अपनी प्रजा की शिक्षा की जरूरतें पूरी करने के लिए उनकी शैक्ष भाषाओं की के लिए कुछ करना था। कलकत्ता में मुहम्मडन कालेज और संस्कृत कालेज और बनारस में संस्कृत पीठ (क्वीन्स कालेज) तथा दिल्ली कालेज का पुनर्जीवन इसके लिए पर्याप्त था।

एक तीसरी जरूरत प्रशासित जनों की सोच और मनोबल के स्रोत को जानने के लिए उनके प्राचीन साहित्य से परिचित होने की थी। मुसलमानों की फारसी और हिन्दुओं की संस्कृत का ज्ञान स्वयं अर्जित करना था।For Arabic there seemed to be no demand. To know the Koran by heart was, indeed, as in other parts of India, the beginning of wisdom.In most cases it was also the end. Hunter Commission Report, p. ४०३

ये सारे निर्णय वारेन हेस्टिंग्स के समय में हुए जिसमें एक और तो संस्कृत के अध्ययन को प्रोत्साहन दिया गया दूसरी ओर फारसी और संस्कृत से विधि-विधान का अनुवाद किया गया। उन्हीं के सुझाव पर 1773 में फारसी शिक्षा का पीठ आक्सफोर्ड में स्थापित किया गया, जिससे कंपनी की प्रशासनिक सेवा में आने वाले अधिकारी पहले से फारसी सीख कर आएं।

प्राचीन साहित्य के प्रति प्राच्यवादियों के लगाव और प्रशंसा भाव के पीछे जो कुटिलता थी उस पर हमारा ध्यान नहीं जा पाता। हम सारी बुराइयों की जड़ अंग्रेजी शिक्षा को, और सारा दोष इस शिक्षा के पक्षधरों के मत्थे मढ़कर, चाहे वे भारतीय हों या अंग्रेज, खासकर मैकाले को, कोस कर छुट्टी पा लेते हैं। परंतु यदि हेस्टिंग्स की योजना सफल हो गई होती तो भारत से अंग्रेजी राज्य को विदा न होना पड़ता। हम भुलावे में पड़े रहते। उनकी योजना थी कि भारतवासियों को मध्यकालीन चेतना के दायरे से बाहर आने ही न दिया जाए जिससे उनकी खुली लूट जारी रह सके और हम यह भी न सोच सकें कि इस क्रूर पंजे से बाहर निकलने का कोई उपाय है या नहीं। मध्यकाल में नहीं सोचा तो आगे भी कैसे सोचते। जनता सत्ता छीन सकती है यह कल्पनातीत था। राजा के अनुसार ढल जाने के अतिरिक्त उसके पास बचाव तक का कोई रास्ता नजर न आता था।

फोर्ट विलियम कॉलेज भारतीयों को शिक्षित करने की योजना के साथ नहीं स्थापित किया गया था, न साहित्य को प्रोत्साहन देने के लिए। भले इसकी स्थापना कार्नवालिस ने की हो पर यह सूझ भी वारेन हेस्टिंग्स की थी, जिससे वह पूरी तरह सहमत था। कार्नवालिस अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम में पराजित होने के बाद भारत का गवर्नर जनरल बना था। वह जानता था कि स्वयं यूरोपीय संस्थाओं से परिचित होने के कारण ही अमेरिका के नेताओं ने प्रतिनिधित्व के बिना कर देने से इन्कार किया – no taxation without representation- और फिर युद्ध की नौबत आई और ब्रिटेन को हार का मुंह देखना पड़ा। भारतीयों को वह चार्ल्स ग्रांट जैसे हिमायतियों की दलीले मान कर अंग्रेजी और उसके माध्यम से अंग्रेजों के इतिहास, संस्थाओं और अधिकार ज्ञान से परिचित करा कर दोबारा खतरा नहीं उठाना चाहता था।

चार्ल्स ग्रांट ने धर्म प्रचार के लिए भारतीय भाषाओं से, विशेषत: संस्कृत साहित्य से अंग्रेजों को दूर रखने और स्वयं भारतीयों को अंग्रेजी सिखाने का प्रस्ताव रखते हुए यह आशंका तो जाहिर की थी, पर इसका समाधान भी दिया था, यह हम बहुत पहले कह आए हैं। उसे विश्वास था कि अंग्रेजी के प्रभाव में भारतीय अवसरों की होड़ में धर्मांतरित हो जाएंगे।

भाषा और लिपि के प्रश्न पर वीर भारत तलवार ने रस्साकशी में बहुत विस्तार से सूचनाएं प्रस्तुत की हैं, परंतु जैसा कि नाम से ही प्रकट है विवेचन भी इकहरा बनकर , या कहें दो ध्रुवीय बनकर रह जाता है, जब की समस्या बहुआयामी थी। उस में हिंदू और मुस्लिम, हिंदी और उर्दू, युक्त प्रांत और बंगाल या महाराष्ट्र के या-तो-यह-या-वह वाले विवेचन ही आ पाते हैं, यद्यपि तटस्थ बने रहने की कोशिश की गई है। इससे असली चेहरा जो पीछे से काम कर रहा था, वह दिखाई नहीं देता या दिखाई देता है तो बहुत भोले रूप में। उसकी जटिलता पर प्रकाश नहीं पड़ता क्योंकि यह खेल इतने शातिराना ढंग से खेला जा रहा था कि जंग के लिए मैदान में उतरने वाले असली अखाड़िया की उंगली की ताकत को नहीं समझ पाते थे।

ऐसे सतही आकलनों से ऐसा लगता है कंपनी के नौकरों और प्रशासकों ने जितनी बदकारियां करनी थी उन्हे 1757 या 1857तक जारी रखने के बाद एकाएक संत हो गए। उसमें बंगाल में प्राथमिक पाठशाला की शिक्षा की भाषा बंगाली रखने का सारा श्रेय ईश्वर चंद्र विद्यासागर को दे दिया जाता है*, बिहार में अदालत की लिपि कैथी और नागरी लिपि के प्रवेश का श्रेय बिहारबंधु अखबार को मिल जाता है और इसमें लेफ्टिनेंट जॉर्ज कैंपबेल और एश्ले ईडन की भूमिका भी इस तरह दिखाई देती है जैसे यह फैसले उनके निजी हों। इसी तरह युक्तप्रांत में “हिंदू भद्रवर्ग से सहानुभूतिनुभूति रखने वाले नए लेफ्टिनेंट गवर्नर मैकडॉनल्ड ” की भूमिका और राजा शिव प्रसाद सितारे हिंद, भारतेंदु और मालवीय जी की भूमिका दिखाई देती है। इसके पीछे की कारीगरी लुप्त हो जाती है। यदि ओड़िया को एक स्वतंत्र भाषा के रूप में स्वीकृति दिलाने पर विचार हो रहा होता तो केवल फकीर मोहन सेनापति और उनको उकसाने वाले तथा उनकी मदद करने वाले जॉन बीम्स का चेहरा दिखाई देता और असमिया की बात होती तो उनको असमिया की छात्र साहित्य सभा की भूमिका दिखाई देती जिसने कोलकाता के छात्रों के माध्यम से मई 21, 1871 को वायसराय का कार्यभार ग्रहण करने वाले लॉर्ड नार्थ ब्रुक को असम की दयनीय दशा पर ध्यान देने का याचना पत्र दिया था और जिसने क्रमशः बांग्ला से स्वतंत्र एक भाषा के रूप में असमी की पहचान के आंदोलन का रूप ले लिया।**
{nb, *In fact, a social historian of Bengal has argued that a significant result of the growth of education among Bengali Hindus was their own demand for the replacement of Persian by English or Bengali in the law courts outside Calcutta. They did so on the basis of the assumption that the continued use of Persian as the judicial language in Bengal was a legacy of Muslim rule, and therefore, had to be removed. The Bengal press also questioned the use of Persian. The influential newspaper Samachar Dmpan (which was for the Introduction of the English Language instead of the Persian’, p. 157. 161 Ibid, p. 181. 161 R. K. Das Gupta, ‘Macaulay’s Writings on India’, in, Historians of India, Pakistan, and Ceylon, ed .. C. H. Philips, Oxford University Press, London, Reprinted, 1962. 163 Majumdar, ‘Abolition of Persian as Court Language in British India’. p. 130.

{nb. ** Lakshminath Bezbaruah, Chandra Kumar Agarwala, Padmanath Gohain Barua, Hem Chandra Goswami were instrumental in establishing several literary and cultural organizations. Coupled with these organizations’ literary activities and political consciousness, a new trend in journalism was also noted All these generated an atmosphere of rare ethos and elan for Assanii se literature which led to the formation of the historic ‘Asomiya Bhasar Unnati Sadbmi Sabha’ (ABUSS) at 67, Mirzapur Street over cups of tea on August 25, 1885 at die initiative of the indivisible trinity of Lakshminath.}

यह कहना भी गलत है कि केवल संयुक्त प्रांत में भाषा का आंदोलन कुछ सांप्रदायिक हो गया। सांप्रदायिकता के तत्व आरंभ से ही इस समस्या के साथ जुड़े हुए थे और इसकी शुरुआत भी बंगाल से ही हुई थी***:
{nb.***…missionary journal …argued, in an editorial dated January 26, 1828, that Persian should not be used in law courts as it was not the language of any of the concerned parties. If a foreign language at all had to be used, it was better if that be English. The editor suggested that Bengalis themselves should take the initiative towards making English the official language in the courts by submitting a petition to the Govemment. 164 Another newspaper, The Reformer, in one of its early issue also demanded the abolition of Persian. 165 The underlying assumptions of these demands are interesting. It was argued, for example, that when the Muslims had conquered India, they had abolished the use of Sanskrit language from Indian courts as they did not understand it. Thus, it was not necessary to use a language that was understood neither by subjects nor by their rulers. 166 Another newspaper, the Samachar Chandrika hailed Governor General Bentinck by prognosticating that the haughtiness of these Juvuns [Yavana a term of contempt by which a non-Hindu, particularly a Muslim was designated by orthodox Hindus will be brought low, which will be much service to us … When the Bengalee language is brought into use, all the native, besides Moosoolmans, may be employed in the public service. The Moosoolmans wiii be driven out, and never will be able- to read and write Bengalee. 167 It was not only in newspapers that such campaigns were carried out. In February 1835, a memorial signed by 6,945 Hindu residents of Calkutta, including· the manager of the Hindu College, parents and guardians of the students of English, and the students themselves was presented to Lord William Bentinck. It pointed out that Persian was ‘as foreign to the natives of Bengal as to their rulers’, and referred to the advantages which English language possessed over Persian; The memorialists concluded with a moderate request that they did not seek any preference for English. They only wanted that people

ऐसी चर्चाओं में ध्यान इस बात पर भी जाना चाहिए कि ये सारी घटनाएं एक निश्चित कालसीमा के भीतर घटित हो रही हैं और इनसे वर्चस्व के स्थापित या संभावित रूपों को विघटित करने का प्रयास किया जा रहा है। यह शिक्षा में बोलचाल की भाषा और लिपि के रूप में प्रवेश कराने का भी दौर है जिसमें जन शिक्षा संभव हो सके और वर्चस्व के पुराने रूपों को चुनौती देते हुए आपसी तकरार पैदा किया जा सके। बांटो और राज करो की राजनीति के साथ उन्होंने उत्तर को दक्षिण से बांटा था, आर्य नस्ल की कल्पना करके उतने ही कल्पित द्रविड़ नस्ल से टकराव पैदा किया गया था, मलयालम और तमिल के बीच भेद पैदा करने की कोशिश की गई थी कि श्रीलंका में तमिल हावी हो जा रहे हैं और स्थानीय जनों के हाथ में कारोबार नहीं रह जा रहा है। इसकी आशंका जगाकर तमिलों और सिहलियों के बीच भेद पैदा किया जा रहा था। उत्तर भारत में धार्मिक आधार पर हिंदू और मुसलमान, भाषा के आधार पर हिन्दी और उर्दू भाषाएं, लिपि के आधार पर फारसी-अरबी और नागरी लिपि और कैथी, इतिहास के आधार पर पिछड़े जनो और उनको जंगलों-पहाड़ों में खदेड़ने वाले आर्यों के वंशजों, मुसलमानों में शरीफ और रजील, धर्मांतरित और शुद्ध रक्त विदेशी, सवर्णों में जातियों, गोत्रों, उपनाम के प्रयोग को अनिवार्य बनाते हुए उनके बीच में प्रतिस्पर्धा को प्रखर बनाने के प्रयोग एक साथ ऐसे धैर्य के साथ, उन्हें खिझाने और थकाने के बाद उनकी मांगों को पूरा करने के रूप में किये जा रहे थे कि उन्हें लगे कि यह सारा उनके परिश्रम का फल है इसके पीछे शासकों की कोई योजना नहीं है।