#भाषा_और_लिपि #भेदनीति के प्रयोग -6
ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार करने आई थी। व्यापार करने के लिए व्यापारियों से संपर्क की और दोनों को एक दूसरे की भाषा की जानकारी जरूरी होती है। आरंभ में यह इशारों से काम लेती हुई के इक्के दुक्के शब्दों की जानकारी के साथ आगे बढ़ती है। धीरे-धीरे या तो दोनों को समझ में आने वाली एक बनावटी भाषा का निर्माण हो जाता है, या दोनों दलों के बीच, मध्यस्थ अर्थात् दलाल पैदा हो जाते हैं जिनके माध्यम से वे अपना काम आसान कर लेते हैं। यह बहुत पुरानी परिपाटी है। विदेश व्यापार में इसका चलन वैदिक काल मे भी था। तब दलाल को उपवक्ता कहा जाता था।
लंबे संपर्क के बाद वे एक दूसरे की भाषा जान लेते हैं। भाषा के विषय में अलग से किसी नीति की जरूरत नहीं पड़ती। भाषा का जो रूप तैयार होता है वह अपने स्वाभाविक क्रम में होता है। कंपनी का अपना काम इसी तरह चल रहा था। अंग्रेजी जानने वाले बंगाली इस दलाल की भूमिका से ही, मैकाले से पहले, पैदा हो चुके थे और उनके माध्यम से, अपने प्रयत्न से अंग्रेजी सीखने वाले भी बढ रहे थे और कंपनी-तंत्र से जुड़कर लाभान्वित हो रहे थे। इस तरह बंगाल में अंग्रजी के पक्ष में पर्यावरण तैयार हुआ था जिसे औपचारिक रूप मैकाले ने दिया था। हम बहुत पहले यह कह आए हैं कि मैकाले ने संसद में जो ओजस्वी भाषण दिया था उसके सभी बिन्दु राममोहन राय के थे जो उन दिनों दिल्ली के बादशाह की पेंशन बढ़वाने के लिए इंग्लैंड भेजे गए थे और संसद सदस्यों को कंपनी प्रशासन के दोषों से भी परिचित कराना चाहते थे। इसका अवसर नहीं मिला था पर मैकाले सहित कई सांसदों से संपर्क साध चुके थे। इनमें शिक्षा की जिम्मेदारी और भाषा का प्रश्न भी था।
कंपनी कई तरह के जोड़-तोड़ के बाद सत्ता में आ गई थी और अपने प्रतिस्पर्धियों को ठिकाने लगा कर स्थाई आधिपत्य कायम कर चुकी थी, भले नाम से दिल्ली सरकार की मोस्ट ओबिडिएंट सर्वेंट हो, बादशाह को भिखारी की सी स्थिति में पहुँचा कर चिर काल तक शासन के प्रति आश्वस्त थी। प्रशासनिक कारणों से अब उसे पुराने अभिलेखों से परिचय के लिए फारसी भाषा की जरूरत थी तो अपनी प्रजा की शिक्षा की जरूरतें पूरी करने के लिए उनकी शैक्ष भाषाओं की के लिए कुछ करना था। कलकत्ता में मुहम्मडन कालेज और संस्कृत कालेज और बनारस में संस्कृत पीठ (क्वीन्स कालेज) तथा दिल्ली कालेज का पुनर्जीवन इसके लिए पर्याप्त था।
एक तीसरी जरूरत प्रशासित जनों की सोच और मनोबल के स्रोत को जानने के लिए उनके प्राचीन साहित्य से परिचित होने की थी। मुसलमानों की फारसी और हिन्दुओं की संस्कृत का ज्ञान स्वयं अर्जित करना था।For Arabic there seemed to be no demand. To know the Koran by heart was, indeed, as in other parts of India, the beginning of wisdom.In most cases it was also the end. Hunter Commission Report, p. ४०३
ये सारे निर्णय वारेन हेस्टिंग्स के समय में हुए जिसमें एक और तो संस्कृत के अध्ययन को प्रोत्साहन दिया गया दूसरी ओर फारसी और संस्कृत से विधि-विधान का अनुवाद किया गया। उन्हीं के सुझाव पर 1773 में फारसी शिक्षा का पीठ आक्सफोर्ड में स्थापित किया गया, जिससे कंपनी की प्रशासनिक सेवा में आने वाले अधिकारी पहले से फारसी सीख कर आएं।
प्राचीन साहित्य के प्रति प्राच्यवादियों के लगाव और प्रशंसा भाव के पीछे जो कुटिलता थी उस पर हमारा ध्यान नहीं जा पाता। हम सारी बुराइयों की जड़ अंग्रेजी शिक्षा को, और सारा दोष इस शिक्षा के पक्षधरों के मत्थे मढ़कर, चाहे वे भारतीय हों या अंग्रेज, खासकर मैकाले को, कोस कर छुट्टी पा लेते हैं। परंतु यदि हेस्टिंग्स की योजना सफल हो गई होती तो भारत से अंग्रेजी राज्य को विदा न होना पड़ता। हम भुलावे में पड़े रहते। उनकी योजना थी कि भारतवासियों को मध्यकालीन चेतना के दायरे से बाहर आने ही न दिया जाए जिससे उनकी खुली लूट जारी रह सके और हम यह भी न सोच सकें कि इस क्रूर पंजे से बाहर निकलने का कोई उपाय है या नहीं। मध्यकाल में नहीं सोचा तो आगे भी कैसे सोचते। जनता सत्ता छीन सकती है यह कल्पनातीत था। राजा के अनुसार ढल जाने के अतिरिक्त उसके पास बचाव तक का कोई रास्ता नजर न आता था।
फोर्ट विलियम कॉलेज भारतीयों को शिक्षित करने की योजना के साथ नहीं स्थापित किया गया था, न साहित्य को प्रोत्साहन देने के लिए। भले इसकी स्थापना कार्नवालिस ने की हो पर यह सूझ भी वारेन हेस्टिंग्स की थी, जिससे वह पूरी तरह सहमत था। कार्नवालिस अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम में पराजित होने के बाद भारत का गवर्नर जनरल बना था। वह जानता था कि स्वयं यूरोपीय संस्थाओं से परिचित होने के कारण ही अमेरिका के नेताओं ने प्रतिनिधित्व के बिना कर देने से इन्कार किया – no taxation without representation- और फिर युद्ध की नौबत आई और ब्रिटेन को हार का मुंह देखना पड़ा। भारतीयों को वह चार्ल्स ग्रांट जैसे हिमायतियों की दलीले मान कर अंग्रेजी और उसके माध्यम से अंग्रेजों के इतिहास, संस्थाओं और अधिकार ज्ञान से परिचित करा कर दोबारा खतरा नहीं उठाना चाहता था।
चार्ल्स ग्रांट ने धर्म प्रचार के लिए भारतीय भाषाओं से, विशेषत: संस्कृत साहित्य से अंग्रेजों को दूर रखने और स्वयं भारतीयों को अंग्रेजी सिखाने का प्रस्ताव रखते हुए यह आशंका तो जाहिर की थी, पर इसका समाधान भी दिया था, यह हम बहुत पहले कह आए हैं। उसे विश्वास था कि अंग्रेजी के प्रभाव में भारतीय अवसरों की होड़ में धर्मांतरित हो जाएंगे।
भाषा और लिपि के प्रश्न पर वीर भारत तलवार ने रस्साकशी में बहुत विस्तार से सूचनाएं प्रस्तुत की हैं, परंतु जैसा कि नाम से ही प्रकट है विवेचन भी इकहरा बनकर , या कहें दो ध्रुवीय बनकर रह जाता है, जब की समस्या बहुआयामी थी। उस में हिंदू और मुस्लिम, हिंदी और उर्दू, युक्त प्रांत और बंगाल या महाराष्ट्र के या-तो-यह-या-वह वाले विवेचन ही आ पाते हैं, यद्यपि तटस्थ बने रहने की कोशिश की गई है। इससे असली चेहरा जो पीछे से काम कर रहा था, वह दिखाई नहीं देता या दिखाई देता है तो बहुत भोले रूप में। उसकी जटिलता पर प्रकाश नहीं पड़ता क्योंकि यह खेल इतने शातिराना ढंग से खेला जा रहा था कि जंग के लिए मैदान में उतरने वाले असली अखाड़िया की उंगली की ताकत को नहीं समझ पाते थे।
ऐसे सतही आकलनों से ऐसा लगता है कंपनी के नौकरों और प्रशासकों ने जितनी बदकारियां करनी थी उन्हे 1757 या 1857तक जारी रखने के बाद एकाएक संत हो गए। उसमें बंगाल में प्राथमिक पाठशाला की शिक्षा की भाषा बंगाली रखने का सारा श्रेय ईश्वर चंद्र विद्यासागर को दे दिया जाता है*, बिहार में अदालत की लिपि कैथी और नागरी लिपि के प्रवेश का श्रेय बिहारबंधु अखबार को मिल जाता है और इसमें लेफ्टिनेंट जॉर्ज कैंपबेल और एश्ले ईडन की भूमिका भी इस तरह दिखाई देती है जैसे यह फैसले उनके निजी हों। इसी तरह युक्तप्रांत में “हिंदू भद्रवर्ग से सहानुभूतिनुभूति रखने वाले नए लेफ्टिनेंट गवर्नर मैकडॉनल्ड ” की भूमिका और राजा शिव प्रसाद सितारे हिंद, भारतेंदु और मालवीय जी की भूमिका दिखाई देती है। इसके पीछे की कारीगरी लुप्त हो जाती है। यदि ओड़िया को एक स्वतंत्र भाषा के रूप में स्वीकृति दिलाने पर विचार हो रहा होता तो केवल फकीर मोहन सेनापति और उनको उकसाने वाले तथा उनकी मदद करने वाले जॉन बीम्स का चेहरा दिखाई देता और असमिया की बात होती तो उनको असमिया की छात्र साहित्य सभा की भूमिका दिखाई देती जिसने कोलकाता के छात्रों के माध्यम से मई 21, 1871 को वायसराय का कार्यभार ग्रहण करने वाले लॉर्ड नार्थ ब्रुक को असम की दयनीय दशा पर ध्यान देने का याचना पत्र दिया था और जिसने क्रमशः बांग्ला से स्वतंत्र एक भाषा के रूप में असमी की पहचान के आंदोलन का रूप ले लिया।**
{nb, *In fact, a social historian of Bengal has argued that a significant result of the growth of education among Bengali Hindus was their own demand for the replacement of Persian by English or Bengali in the law courts outside Calcutta. They did so on the basis of the assumption that the continued use of Persian as the judicial language in Bengal was a legacy of Muslim rule, and therefore, had to be removed. The Bengal press also questioned the use of Persian. The influential newspaper Samachar Dmpan (which was for the Introduction of the English Language instead of the Persian’, p. 157. 161 Ibid, p. 181. 161 R. K. Das Gupta, ‘Macaulay’s Writings on India’, in, Historians of India, Pakistan, and Ceylon, ed .. C. H. Philips, Oxford University Press, London, Reprinted, 1962. 163 Majumdar, ‘Abolition of Persian as Court Language in British India’. p. 130.
{nb. ** Lakshminath Bezbaruah, Chandra Kumar Agarwala, Padmanath Gohain Barua, Hem Chandra Goswami were instrumental in establishing several literary and cultural organizations. Coupled with these organizations’ literary activities and political consciousness, a new trend in journalism was also noted All these generated an atmosphere of rare ethos and elan for Assanii se literature which led to the formation of the historic ‘Asomiya Bhasar Unnati Sadbmi Sabha’ (ABUSS) at 67, Mirzapur Street over cups of tea on August 25, 1885 at die initiative of the indivisible trinity of Lakshminath.}
यह कहना भी गलत है कि केवल संयुक्त प्रांत में भाषा का आंदोलन कुछ सांप्रदायिक हो गया। सांप्रदायिकता के तत्व आरंभ से ही इस समस्या के साथ जुड़े हुए थे और इसकी शुरुआत भी बंगाल से ही हुई थी***:
{nb.***…missionary journal …argued, in an editorial dated January 26, 1828, that Persian should not be used in law courts as it was not the language of any of the concerned parties. If a foreign language at all had to be used, it was better if that be English. The editor suggested that Bengalis themselves should take the initiative towards making English the official language in the courts by submitting a petition to the Govemment. 164 Another newspaper, The Reformer, in one of its early issue also demanded the abolition of Persian. 165 The underlying assumptions of these demands are interesting. It was argued, for example, that when the Muslims had conquered India, they had abolished the use of Sanskrit language from Indian courts as they did not understand it. Thus, it was not necessary to use a language that was understood neither by subjects nor by their rulers. 166 Another newspaper, the Samachar Chandrika hailed Governor General Bentinck by prognosticating that the haughtiness of these Juvuns [Yavana a term of contempt by which a non-Hindu, particularly a Muslim was designated by orthodox Hindus will be brought low, which will be much service to us … When the Bengalee language is brought into use, all the native, besides Moosoolmans, may be employed in the public service. The Moosoolmans wiii be driven out, and never will be able- to read and write Bengalee. 167 It was not only in newspapers that such campaigns were carried out. In February 1835, a memorial signed by 6,945 Hindu residents of Calkutta, including· the manager of the Hindu College, parents and guardians of the students of English, and the students themselves was presented to Lord William Bentinck. It pointed out that Persian was ‘as foreign to the natives of Bengal as to their rulers’, and referred to the advantages which English language possessed over Persian; The memorialists concluded with a moderate request that they did not seek any preference for English. They only wanted that people
ऐसी चर्चाओं में ध्यान इस बात पर भी जाना चाहिए कि ये सारी घटनाएं एक निश्चित कालसीमा के भीतर घटित हो रही हैं और इनसे वर्चस्व के स्थापित या संभावित रूपों को विघटित करने का प्रयास किया जा रहा है। यह शिक्षा में बोलचाल की भाषा और लिपि के रूप में प्रवेश कराने का भी दौर है जिसमें जन शिक्षा संभव हो सके और वर्चस्व के पुराने रूपों को चुनौती देते हुए आपसी तकरार पैदा किया जा सके। बांटो और राज करो की राजनीति के साथ उन्होंने उत्तर को दक्षिण से बांटा था, आर्य नस्ल की कल्पना करके उतने ही कल्पित द्रविड़ नस्ल से टकराव पैदा किया गया था, मलयालम और तमिल के बीच भेद पैदा करने की कोशिश की गई थी कि श्रीलंका में तमिल हावी हो जा रहे हैं और स्थानीय जनों के हाथ में कारोबार नहीं रह जा रहा है। इसकी आशंका जगाकर तमिलों और सिहलियों के बीच भेद पैदा किया जा रहा था। उत्तर भारत में धार्मिक आधार पर हिंदू और मुसलमान, भाषा के आधार पर हिन्दी और उर्दू भाषाएं, लिपि के आधार पर फारसी-अरबी और नागरी लिपि और कैथी, इतिहास के आधार पर पिछड़े जनो और उनको जंगलों-पहाड़ों में खदेड़ने वाले आर्यों के वंशजों, मुसलमानों में शरीफ और रजील, धर्मांतरित और शुद्ध रक्त विदेशी, सवर्णों में जातियों, गोत्रों, उपनाम के प्रयोग को अनिवार्य बनाते हुए उनके बीच में प्रतिस्पर्धा को प्रखर बनाने के प्रयोग एक साथ ऐसे धैर्य के साथ, उन्हें खिझाने और थकाने के बाद उनकी मांगों को पूरा करने के रूप में किये जा रहे थे कि उन्हें लगे कि यह सारा उनके परिश्रम का फल है इसके पीछे शासकों की कोई योजना नहीं है।