Post – 2018-11-06

”Television is by nature the dominator drug par excellence. Control of content, uniformity of content, repeatability of content make it inevitably a tool of coersion, brainwashing, and manipulation. Television induces a trance state in the viewer that is the necessary precondition for brainwashing. As with all other drugs and technologies, television’s basic character cannot be changed; television is no more reformable than is the technology that produces automatic assault rifles.” (Food of the Gods)

Post – 2018-11-04

#भारतीय_मुसलमान: #माइनारिटी_सिंड्रोम (4)

अल्पसंख्यक होते हुए भी हावी होने की लालसा में हिंसात्मक तरीके अपनाने का रास्ता चुनकर सैयद अहमद ने शिक्षा की दिशा में किए जा रहे अपने ही प्रयासों का परिणाम उलट दिया। हिंदुओं से बौद्धिक प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने की चुनौती के लिए प्रेरित करने, एक सुसंस्कृत और आधुनिक चेतना संपन्न समाज के निर्माण के स्थान पर भावुक, अतिसंवेदी ( हाइपरसेंसिटिव) रुझान पैदा करने में इस सोच की बहुत बड़ी भूमिका रही। ऐसा इसलिए हुआ कि उनकी चिंता के केंद्र में रईस थे, जिनके बारे में उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उसकी क्षमता हिंदुओं से बौद्धिक अग्रता पाने की नहो है। यही बहुत है कि वह अंग्रेजी में दक्षता प्राप्त करके जोड़ताड़ से अपने लिए नए अवसर तलाश सके। इसलिए यह अवसर भी वह सेना और पुलिस में ही देख पाते थेः
The time is, however, coming when my brothers, Pathans, Syeds, Hashimi, and Koreishi, whose blood smells of the blood of Abraham, will appear in glittering uniform as Colonels and Majors in the army. But we must wait for that time. Government will most certainly attend to it; provided you do not give rise to suspicions of disloyalty. (1887)
इस मामले में मदरसों से निकलने वाले अंधधार्मिकता वाले युवकों से आधुनिक शिक्षा प्राप्त सांस्कृतिक वर्चस्ववादी युवकों की स्थिति अधिक भिन्न नहीं थी। दोनों में एक जैसा ही दुराग्रह देखने को मिलता है, यद्यपि उनकी जीवनशैली में बहुत अधिक अंतर होता है। पहला घोर परंपरावादी, अपनी किताब को समस्त ज्ञान की कसौटी मानकर ज्ञान विज्ञान का निषेध करने वाला, शून्य काल में जीने वाला, जगत गति से अप्रभावित, नमाज रोजा और दूसरे प्रतिबंधों का पाबंद, सादगी पर गर्व करने वाला और दूसरा आधुनिक ज्ञान से लैस मजहबी पाबंदियों से बरी, मौज मस्ती के नए पुराने सभी तरीकों का कायल, परंतु सांस्कृतिक श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए कुतर्क और फरेब तक से काम लेनेवाला, बल्कि इस चतुराई पर गर्व करने वाला दुराग्रही।
हावी होने की प्रवृत्ति ने पहले के मामले में दुस्साहसिक क्रूरता का और दूसरे मामले में बौद्धिक आतंकवाद का रूप लिया जिसमें वामपंथी सोच के शिक्षाप्रणाली और विचार दृष्टि में प्रवेश कर इतिहासकारों, पत्रकारों लेखकों और पाठकों, यहां तक कि न्यायाधीशों तक को प्रभावित किया।
धाक जमाने या हावी होने की मानसिकता के पीछे सामी विश्व दृष्टि का भी हाथ था। सामी ईश्वर ने ब्रह्मांड के समस्त पदार्थों और जीव-जंतुओं यहां तक कि कबीले से बाहर के मनुष्यों तक की रचना अपने कबीले के आनंद के लिए की। सभी जीवों और पदार्थों की सृष्टि के बाद उसने मनुष्य से कहा अपनी जनसंख्या बढ़ाओ और दुनिया पर धाक जमाओ proliferate and dominate. इसलिए दूसरों को दबाना, झुकाना, मिटाना और अपमानित करना उनकी नैतिक चेतना का अंग बन जाता है। इसका प्रभाव आधुनिक शिक्षा प्राप्त मुसलमानों में भी बहुत गहरे उतरा हुआ दिखाई देता है।
मदरसों की तालीम पाने वाले युवकों से हम अधिक आशा नहीं कर सकते, परंतु पश्चिमी शिक्षा प्राप्त मुसलमानों को यह समझना चाहिए था कि यह उत्तरदायित्व उन पर आता है कि वे पूरे मुस्लिम समाज को मध्यकालीन मानसिकता से बाहर लाएं और आधुनिक चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनाएं। मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी हिंदुस्तान में रहती है और इसे आधुनिक दृष्टि और ज्ञान से समृद्ध होने और हिंदुओं के सानिध्य में रहने का अवसर मिला था, जिनमें सबको अपने ढंग से सम्मान पूर्वक रहने जीने और विश्वास करने का सहज भाव है। सामी मजहबों के सानिध्य में रहकर ऐसा करना संभव नहीं था। इसे हम यहूदियों के साथ ईसाई और इस्लामी देशों के व्यवहार से समझ सकते हैं। उनके साथ परस्पर एक ही संबंध बनता है और वह धर्मयुद्ध का जिसका सारतत्व यह है कि ‘या तो तू रहेगा या मैं’ । हिंदुओं के साथ इतिहास के अनुभव से तथा मध्यकाल में भी हिंदू राज्यों में मुसलमानों के प्रति व्यवहार से, यह समझा जा सकता था कि वह अपने को जिस तरह ढालना चाहे ढाल सकते हैं परंतु उन्हें बदलने और मिटाने का कोई दबाव हिंदुओं की ओर से नहीं आ सकता। आधुनिक युग में आगे बढ़ने के लिए वे अपना नया समायोजन आत्म संस्कार स्वयं कर सकते थे और अपने उदाहरणों से दूसरे मुस्लिम देशों को अपनी अस्मिता की, अपनी संपदा और सांस्कृतिक विरासत की, रक्षा करने का मार्ग सुझा और खिलाफत की भूमिका निभा सकते थे। यहां टकराव की नहीं अनुकूलन की आवश्यकता थी। इसे समझने में सर सैयद अहमद स्वयं चूके और उनको अपना मार्गदर्शक मान लेने के बाद मुसलमानों का अभिजात वर्ग जो ही शिक्षा मैं आगे बढ़ सका था, प्रभावित हुआ और अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा करने से वंचित रह गया ।
इस सच्चाई को मैं लगातार दोहराता और रेखांकित करता चला आया हूं मुस्लिम समाज में सभी विचलनों का कारण अभिजात वर्ग रहा है, जिसने मध्य वर्ग के उदय में भी बाधा डाली, जो ही किसी समाज का सबसे संभावनापूर्ण तबका होता है। समाज का कायापलट इसी के माध्यम से संभव होता है। भारतीय मुसलमानों का सुशिक्षित वर्ग मध्यवर्गीय आभास दे सकता है परंतु इसका चरित्र अभिजीतीय है और इसलिए आज तक सांस्कृतिक पुनरुत्थानवाद और वर्चस्ववाद का वाहक बना रहा है इसकी सोच मुस्लिम लीग की सोच से आगे नहीं बढ़ सकी।
हिंदुओं के संपर्क जो लाभ उठाना था और इसके लाभान्वित होने से हिंदू समाज में जिन शक्तियों को अधिक मजबूत होना था वे न हो पाईं, क्योंकि इसने उसी को मिटाने का, उसे ही अपमानित करने का और इस तरह अपना वर्चस्व स्थापित करने का संकल्प ले लिया। इसे हम चिंतन, लेखन, समाजदृष्टि और इतिहास विवेचन सभी में हिंदुत्व द्रोह के रूप में पाते हैं। जिसके कारण हिंदू समाज में पुरातनपंथी विचारधाराओं को अधिक ताकत मिली।
मध्यवर्ग का उदय आम मुसलमानों के बड़े पैमाने पर शिक्षित होने, और अभिजात मुसलमानों को उनके विचारों से टकराने और बदलने के द्वारा ही संभव संभव था, जिसका अवसर आम मुसलमान नाममात्र को मिला। इसका परिणाम यह कि उसके सुशिक्षित युवाओं ने स्वयं अभिजात वर्ग में शामिल होने और उन्हीं मूल्यों को अपनाने का रास्ता चुना। अतः विज्ञान में शिक्षित मुसलमान भी प्रयोगशाला के भीतर ही वैज्ञानिक रह पाते हैं बाहर निकलते ही मुसलमान हो जाते हैं। और यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि पश्चिमी शिक्षा ने हमें बर्बाद नहीं किया है। हम जस के तस हैं।

मदरसों में पढ़े हुए युवकों को यथास्थितिवादी बनाने में जो भूमिका अलकिताब की रही है, बुद्धिजीवियों के मामले में वही भूमिका स्टूअर्ट मिल के इतिहास की रही है जो तीन नितांत मूर्खतापूर्ण सरलीकरणों पर आधारित है। पहला अतीत से वर्तमान का विकास क्रम सरल रेखा जैसा रहा है इसलिए हम जितने ही पीछे जाते हैं उतना ही पिछड़ापन हमें देखने को मिलता है, दूसरा गोरी जातियां रंगीन जातियों की तुलना में अधिक श्रेष्ठ और ओजस्वी रही हैं, बल्कि इसी रूप में प्रकृति ने उन्हें बनाया और तीसरी किसी भी कृति में जो कुछ लिखा है वास्तविक जीवन में उसी रूप में निर्वाह होता रहा है और इसका सार रहा है कि पश्चिम सभ्यता का जनक रहा है और सभी सिद्धांत ज्ञान, श्रेयस्कर और रक्षणीय मूल्य वहां पैदा हुए हैं और वहां से पूर्व की दिशा में फैले। इस तर्क से अंग्रेजों का शासन मुस्लिम काल से और मुस्लिम काल हिंदू काल से उन्नत रहा है जो देश किसी देश की तुलना में जितना ही पश्चिम है उतना ही अधिक सुसंस्कृत जागरूक और ऊर्जावान है मुसलमान हिंदुओं से यूरोप के लोग मुसलमानों से सभी दृष्टियों से आगे रहे हैं रहेंगे। भारत के हिंदू और मुसलमान भी ईरान मध्य एशिया और अरब की तुलना में अधिक काले हैं और ईरान तथा दूसरे एशियाई देशों के लोग यूरोप के लोगों से अधिक काले हैं इसलिए गोरेपन के अनुपात में श्रेष्ठता बढ़ती चली जाती है। किताबों के मामले में उसे न तो संस्कृत का ज्ञान था, भारत की किसी भाषा का, न ही कभी भारत आने का उसे अवसर मिला था और जो भी सूचनाएं उसके पास थीं वे ईसाई मिशनरियों के माध्यम से प्राप्त हुई थीं जिनकी नजर में ईसाइयों को छोड़कर दूसरे सभी बर्बरता या जहालत की स्थिति में हैं जहां से उनका उद्धार करना है इसलिए उनके माध्यम से किसी का ज्ञान कितना बढ़ सकता है और कितना विकृत हो सकता है इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। यूरोप की तुलना में मुसलमान जो अपने को भारत से बाहर के देशों से आया मानते थे भारतीयों की तुलना में सभी दृष्टि से श्रेष्ठ सिद्ध होते ही थे। जड़ता के अनंत रूप है जैसे जड़ों के होते हैं। मिल के विषय में मैक्समुलर की टिप्पणी ध्यान देने योग्य हैः
Mill in his estimate of the Hindu character is chiefly guided by Dubois, a French missionary, and by Orme and Buchanan, Tennant, and Ward, all of them neither very competent nor very unprejudiced judges. Mill, however, picks out all that is most unfavorable from their works, and omits the qualifications which even these writers felt bound to give to their wholesale condemnation of the Hindus.
और इसलिएः
The book which I consider most mischievous, nay, which I hold responsible for some of the greatest misfortunes that have happened to India, is Mill’s “History of British India,” even with the antidote against its poison, which is supplied by Professor Wilson’s notes.
और इसी मिल को प्रमाण मानकर इन्होंने अपना इतिहास लिखा, लिखवाया और जिस तरह की मूर्खताओं का साहस मिल तक नहीं जुटा सकता था उनसे प्राचीन इतिहास को भर दिया।

Post – 2018-11-04

हम आग से या आग की तस्वीर से गुजरे
जलने के बाद राख दिखाई नहीं देती।

Post – 2018-11-03

#भारतीय_मुसलमान: #माइनारिटी_सिंड्रोम (3)

अल्पसंख्यकता व्याधिचक्र की दूसरी अभिव्यक्ति थी #दहशतगर्दी या उपद्रव। इसके पीछे सोच यह थी कि हिन्दू और मुसलमान एक साथ शान्ति से नहीं रह सकते। शान्ति से रहने की एक ही शर्त है कि दोनों संख्या में बराबर हों। Now just consider the result of election. In no town are Hindus and Mahomedans equal. Can the Mahomedans suppress the Hindus and become the masters of our “Self-Government”? परंतु जहां इरादा दबा कर रखने का हो, सप्रेस करने का हो, सबके साथ परस्पर सम्मान से रहना रईसी मिजाज से मेल न खाता हो, वहां शांति से रहना न तो उनकी योजना में था, न ही संभव था। जिन रईसों की हैसियत का उनको इतना ध्यान और गुमान था उनका हाल उनके ही शब्दों में यह कि वाइसराय की कौंसिल में पहुंच कर भी मिट्टी के माधो बने रहते थे और जाहिर है सरकार के इशारे पर हाथ उठाने से अधिक कुछ कर नहीं सकते थे, अपने समाज का हित भी नहींः
A seat in the Council of the Viceroy is a position of great honour and prestige. None but a man of good breeding can the Viceroy take as his colleague, treat as his brother, and invite to entertainments at which he may have to dine with Dukes and Earls. Hence no blame can be attached to Government for making those great Raïses members of the Council. It is our great misfortune that our Raïses are such that they are unable to devise laws useful for the country.

समस्या उनकी भी जागरूकता और याेग्यता बढ़ाने की थी, अयोग्य फिर भी ग्रेट रईसों को प्रतिनिधि बनाकर भेजने की जगह हिंदुओं की तरह सुयोग्य और अधिक शिक्षित मुसलमानों को प्रतिनिधि बनाने की मांग करने की थी, जो मुस्लिम समाज के हितों की चिंता कर सकें। परंतु वहां बार बार उनकी रईसी आड़े आजाती थीः Men of good family would never like to trust their lives and property to people of low rank with whose humble origin they are well acquainted.(1887) And let us suppose first of all that we have universal sufferage, as in America, and that everybody, chamars and all, have votes.. (1887).

जहां ज्ञान की जरूरत थी वहां छुरा या तलवार उठाने की जरूरत थी ही नहीं। इस समझ की जरूरत थी कि ब्रिटिश कूटनीति उनके आवेश को उभार कर उनकी चेतना को मंद करके उनके हाथ में उन लोगों के विरुद्ध इस्तेमाल के लिए छुरा और तलवार पकड़ा रही थी जो उनके अनुसार ही किसी कीमत पर मुसलमानों को भी साथ ले कर आगे बढ़ना चाहते थे।
I should point out to my nation that the few who went to Madras, went by pressure, or from some temptation, or in order to help their profession, or to gain notoriety; or were bought. No Raïs from here took part in it.(1888)

कहें कांग्रेस से उनको शिकायत यह भी थी इसमें समाज के सभी तबकों को स्थान क्यों दिया गया था, यह केवल रईसों का आंदोलन क्यों न थाः
I am sorry to say that they never said anything to those people who are powerful and are actually Raïses [nobles] and are counted the leaders of the nation. 1887

शिक्षा को लेकर उनकी चिंता कुछ दूर तक जायज थी – have Mahomedans attained to such a position as regards higher English education, which is necessary for higher appointments, as to put them on a level with Hindus or not? Most certainly not. (1887)

परंतु यह केवल मुसलमानों की समस्या न थी। वह सभी मुसलमानों को साथ लेकर चल भी नहीं रहे थे। वह स्वयं मानते थे कि आगरा और अवध के हिंदुओं का भी वही हाल था। सबसे बड़ी बात यह कि, जैसा हम देख आए हैं और आगे भी देखेंगे, बंगाली मुसलमानों को हिंदुओं के आगे बढ़ने से कोई शिकायत नहीं थी।

सर सैयद अहमद का यह सोचना कि दो बादशाह एक ही तख्त पर एक साथ नहीं बैठ सकते, बैठेगा एक ही और केवल उस दशा में जब वह दूसरे को दबा ले, इतना सठिआया हुआ विचार था, जिसे उनकी उम्र से जोड़कर देखना उनके सम्मान की रक्षा के लिए जरूरी हो सकता है। यह विचारशून्यता लीग की थाती बनी और मुस्लिम लीग की चिंताओं से कातर उन्हीं रईस परिवारों के नवशिक्षित कम्युनिस्ट बने युवकों के आग्रह से कम्युनिस्ट पार्टी में घुस कर, आम मुस्लिम समुदाय में प्रवेश कर गया और अंध हिंदूद्रोह में परिणत हो गया।

यह आम मुसलमानों के लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण रहा, हिंदुओं के लिए भी स्थाई चिंता का विषय बन गया, कम्युनिस्ट आंदोलन को भी कई तरह के भटकावों का शिकार बनाता गया, और भारतीय राजनीति और सामाजिक पर्यावरण को विकृत करते हुए प्रगति तथा विकास को भी अवरुद्ध करता रहा।

उपद्रव की धमकी सरसैयद ने ही देना आरंभ कर दिया था और यह विश्वास करना तो कठिन है कि पहले खुले गोकुशी कांडों के पीछे उनका हाथ रहा हो सकता है। मानना यह होगा कि उन्होंने इसमें हस्तक्षेप करके इसे रुकवाया होगा, फिर भी यह धमकी कि अवध के हिन्दू यदि उनके कहने के अनुसार नहीं चलेंगे तो फिर खुली गोकुशी और दंगे आरंभ हो सकते हैं, एक ऐसी चेतावनी है जिसे एक रक्तरंजित अध्याय की पीठिका के रूप में ही समझा जा सकता हैः
There Mahomedans and Hindus are in agreement. The Dasehra/1/ and Moharrum/2/ fell together for three years, and no one knows what took place [that is, things remained quiet]. It is worth notice how, when an agitation was started against cow-killing, the sacrifice of cows increased enormously, and religious animosity grew on both sides, as all who live in India well know. They should understand that those things that can be done by friendship and affection, cannot be done by any pressure or force. 1888

इसके साथ ही इन इबारतों के भी निहितारेथ पर ध्यान दिया जाना चाहिएः
At the same time you must remember that although the number of Mahomedans is less than that of the Hindus, and although they contain far fewer people who have received a high English education, yet they must not be thought insignificant or weak. Probably they would be by themselves enough to maintain their own position. But suppose they were not. Then our Mussalman brothers, the Pathans, would come out as a swarm of locusts from their mountain valleys, and make rivers of blood to flow from their frontier in the north to the extreme end of Bengal.1888

इसकी भाषा शाही इमाम बुखारी के कांग्रेसी दौर में बात बात पर खून की नदियां बहाने की पीठिका ही नहीं कलकता की सुहरावर्दी की सीधी कार्रवाई और मुहम्मद अली जिन्ना की सीधी कार्रवाई की धमकियों की शृंखला में ही आती है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो पागलपन के इन दौरों में बार बार केवल निरीह इंसानों की हत्या और अपमान हुआ और इनको उकसाने वाले, आर्थिक और नैतिक समर्थन देने वाले रईस और राजनेता और मैदान में उतर कर लूटपाट करने वाले लफंगे एक दंगे के बाद दूसरे दंगे की तैयारियां करते रहे हैं क्योंकि मारे हिन्दू जाएं या मुसलमान उनका कद और लाभ हर हाल में बढ़ता ही रहा है। सभी समस्याओं का निदान है पर अकेली यह है जो उग्र होते हुए कई स्तरों पर फैलती गई है जिसका एक कारण यह भी है कि हम इस पर डर कर सोचते, मुकरने की तैयारी करके बोलते और बोलने के बाद अपने कार्य की इतिश्री मान बैठते हैं।

Post – 2018-11-02

#भारतीय_मुसलमान: माइनारिटी सिंड्रोम (२)

माइनारिटी सिंड्रोम की पहली अभिव्यक्ति श्रेष्ठताबोध था ।

यह बताते चलें कि श्रेष्ठताबोध श्रेष्ठता का द्योतक नहीं होता, इसके अभाव का, इसमें विश्वास की कमी का, द्योतक होता है। श्रेष्ठ व्यक्ति को अपनी श्रेष्ठता कह कर बतानी नहीं होती। अपने अतीत की याद करते हुए अपना कीर्तिगान गिरावट के दिनों में ही किया जाता है, यह पीछे हम देख आए हैं। यदि कोई व्यक्ति कद में दूसरों से ऊंचा है तो उसे यह कह कर बताना नहीं होता। होने के बाद कहने की जरूरत नहीं रह जाती, वह सबको दीखता है और सहज भाव से मान्य होता है। हमने देखा इंशाअल्ला से लेकर फैज तक सभी अतीत की जुगाली करते हुए अपनी श्रेष्ठता की बात कर रहे हैं। यह एक तरह की क्षतिपूर्ति है, इसलिए श्रेष्ठताग्रन्थि हीनताग्रन्थि की सहेली है।

पर इसमें इसी कारण अन्तर्विरोध भी होता है। सर सैयद एक ओर तो रईसों की हैसियत की याद दिलाते हुए इस बात से इन्कार कर रहे थे कि वे कभी ऐरों गैरों के ICS होने के कारण उनके हुक्म मानेंगे, दूसरी ओर स्वीकार कर रहे थे कि वे दिन दूर नहीं हैं। ऐसा होने वाला है। एक ओर रईसों की काबिलियत की डींग हांक रहे थे, दूसरी ओर मान रहे थे कि प्रतियोगिता में वे ठहर नहीं सकते। बहुसंख्य हिन्दुओं की तुलना मे अल्पसंख्य मुसलमानों को उनका इतिहास याद दिलाते हुए ढाढस बंधा रहे थे कि कम संख्या के होते हुए भी उन्होंने हिंदुस्तान फतह किया है और योग्यता के मामले में स्वयं स्वीकार कर रहे थे कि कार्यदक्षता में हिन्दुओं का मुकाबला नहीं किया जा सकता।* हम इसको सही या गलत न मानें, केवल दलील तक सीमित रहें तो भी श्रेष्ठता का दावा तो इससे खंडित होता ही था। योग्यता का एक ही तर्क बचता था कि हमने बादशाहत की है, इसका हमें अनुभव है, इसलिए शासन हम ही कर सकते हैं। लेकिन अनुभव बादशाहत खोकर भिखारी बनने का भी था जिसकी दहशत इस दिलासा के पीछे थी।

इस ग्रंथि के कारण ही लोकतंत्र विरोधी, शिक्षा और प्रतियोगिता विरोधी, तानाशाही का स्वर सभी मुस्लिम नेताओं में या ‘विचारकों’ में पाया जाता है। इक़बाल जब कहते है सितारों से आगे जहां और भी हैं तो सितारे दिखाना स्वतंत्रता और लोकतंत्र है और उससे आगे का जहां तानाशाही। वह जमहूरियत को ऐसी व्यवस्था मानते हैं जिसमें बंदों को गिनते हैं, तौलते नहीं। तौल मे भारी पड़ने वाले की हुकूमत का समर्थन करते हैं और यह भारी पड़ना किसी योग्यता या प्रतियोगिता से तय नहीं हो सकता, दुस्साहसिकता या परबाजी से तय होगा (तू बाजी है परवाज है काम तेरा तेरे सामने आसमां और भी हैं) जिसका संदेश बहुत अच्छा नहीं है, न इक़बाल के अपने मिजाज के अनुरूप है, इसलिए इसे घबराहट या बौखलाहट की देन कहा जा सकता है। पर इसने उनकी चेतना को ही बदल दिया था। यह घबराहट सर सैयद के साथ ही आरंभ हो जाती है।** जिन्ना भी इससे मिलते जुलते सुर में लोकतंत्र से असहमति प्रकट करते हैं***। ये सभी इस तरह की बातें यह जानते हुए करते हैं कि स्वयं ब्रिटेन की परंपरा और भावी संभावना इसके विरुद्ध है। वे इसकी व्यर्थता जानते हुए भी आखिरी दाव चलते ही हैं कि ब्रिटेन की बात अलग है और जो कुछ वहां सफलता के साथ अमल में लाया गया है वह यहां संभव नहीं है।****
{nb. *Now, I ask you to pardon me for saying something which I say with a sore heart. In the whole nation there is no person who is equal to the Hindus in fitness for the work. I have worked in the Council for four years, and I have always known well that there can be no man more incompetent or worse fitted for the post than myself.मेरठ

**We do not live on fish, nor are we afraid of using a knife and fork lest we should cut our fingers. Our nation is of the blood of those who made not only Arabia, but Asia and Europe, to tremble. It is our nation which conquered with its sword the whole of India, although its peoples were all of one religion. ….A second error of Government of the greatest magnitude is this: that it does not give appointments in the army to those brave people whose [[21]] ancestors did not use the pen to write with; no, but a different kind of pen — (cheers) — nor did they use black ink, but the ink they dipped their pens in was red, red ink which flows from the bodies of men.मेरठ

***Democracy of the kind with which the Congress High Command is enamoured would mean the complete destruction of what is most precious in Islam. Lahore address, 1940

****I do not think it necessary for me on this occasion to discuss the question why the competitive examination is held in England, and what would [[9]] be the evils arising from its transference to India. But I am going to speak of the evils likely to follow the introduction into India of the competitive principle.मेरठ

यहां हम श्रेष्ठताबोध के साथ जुड़े अन्तर्विरोध, व्यर्थताबोध के साथ एक अन्य विशेषता को भी लक्ष्य कर सकते हैं। यह है आत्मरक्षा की चिंता में जानते हुए भी कि तुम गलत हो, व्यर्थ हो चुके हो, तुम्हारे पास किसी मान्यता, रीति या कार्य के लिए उचित कारण, या नैतिक आधार नहीं है फिर भी तुम उसे गलत नहीं मानोगे, इससे तुम्हारी श्रेष्ठता का दावा कमजोर होगा। अपने समाज की वर्तमान या अतीत की खूबियों को तो गिनाओगे परंतु खामियों को स्वीकार नहीं करोगे। दूसरे इसकी ओर ध्यान दिलाएंगे तो भी उनकी ओर ध्यान नहीं दोगे। इसके विपरीत दूसरों की खूबियों को भी, जो तुममें नहीं हैं, खराबी के रूप में पेश करते हुए उनकी निंदा करोगे जिससे तुम्हारी खराबियां खराबी न लगें बल्कि उपलब्धि प्रतीत हों।

मैं यह समझता था कि अपनी संवेदनशीलता और सर्जनात्मक क्षमता होते हुए भी मुस्लिम लेखक और कलाकार मुस्लिम समाज की विकृतियों पर उंगली इसलिए नहीं उठाते हैं कि ऐसा करते ही मुल्लों के फतवे या भर्त्सना का सामना करना होगा। सेकुलर कहे जाने वाले हिंदू पत्रकारों लेखकों और विचारकों को उन्हीं बुराइयों पर चुप्पी साधते देख कर, लगता था कि वे भी किसी अनिष्ट की चिंता से डर कर इसका साहस नहीं जुटा पाते हैं। परंतु मुल्ले पुरातन पंथी होते हुए भी उतने खतरनाक नहीं है, इसे सानिया मिर्जा ने अपनी दृढता से प्रमाणित कर दिया है। अधिक से अधिक वे अपनी असहमति प्रकट कर सकते, किसी तरह का कठोर कदम नहीं उठाते दिखाई देते।

इसके विपरीत स्वयं बुद्धिजीवियों ने, और इनमें सेकुलर होने का दम भरने वाले ऐसे बुद्धिजीवी भी रहे हैं जो सीता राम की सगी बहन थीं जैसी कहानियों को इतिहास का सच बताते हुए इसे पाठ्यक्रम शामिल करते रहे हैं, जिन्होंने सलमान रश्दी की पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने का अभियान चलाया था, जो तस्लीमा नसरीन को आश्रय देने को तैयार नहीं रहे हैं और उनकी भर्त्सना में व्यक्ति के रूप में, संगठन के रूप में, और सरकार के रूप में कुछ भी उठा नहीं रखा।

मैंने कभी ऐसे प्रश्नों पर भारतीय मुल्लों को पहल करते नहीं देखा, यह दूसरी बात है एक बार इनको मुद्दा बना देने के बाद वे भी कठोर कदम उठाने का समर्थन करने को बाध्य हो जाते हैं।

यह अन्तर इसलिए है कि देवबंद और बरेली दोनों की उस चिंता धारा से आरंभ से ही असहमति रही है जिसका प्रतिनिधित्व सर सैयद अहमद,मुस्लिम लीग, और जिन्ना करते रहे हैं और जिसकी परिणति देश का विभाजन रहा है। दारुल उलूम परंपरा वादी होते हुए भी, अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त श्रेष्ठता ग्रंथि से कातर और इनका ग्रंथि को छिपाने के लिए आतुर बुद्धिजीवी वर्ग से इस माने में प्रगतिशील रहा है उसमें उस तरह की आत्म वंचना नहीं पाई जाती न ही हिंदू समाज के प्रति उस तरह की नफरत देखने में आती है जो मुस्लिम बुद्धिजीवियों और सेकुलर वादियों का चरित्र बन चुका है।

अब हम लौट कर अब तक के सबसे सशक्त संचार माध्यम सिनेमा में मुसलमानों को छोड़कर दूसरे सभी समुदायों के चरित्र, वेश, जीवनशैली और प्रतीकों पर आक्रामक मुद्रा में प्रहार करने वाली स्क्रिप्टों पर ध्यान दें। इनके पीछे वही पराजित मानसिकता काम करती दिखाई दे सकती है। यथार्थ, तर्कसंगत और उचित के विरोध में कोई भी बौद्धिक आयास एक एक कदम पर, पहाड़ की चढ़ाई जैसी अशिथिलता की मांग करता है। कहीं तनिक भी फिसले सारा प्रयत्न व्यर्थ हो जाएगा और आप वहां से गिरे तो रसातल में ही पहुंचेंगे।

इसलिए उन्हें एंग्लो इंडियन परिवार की महिलाओं को शिक्षा, कला, वेशभूषा में प्रतिबंधों की कमी देखकर उनसे डर लगता है और इन्हें चरित्रहीन के रूप में चित्रित किया जाता रहा है, उन लड़कियों को बाजारू, तस्करी आदि में लिप्त दिखाकर उनके वितृष्णा पैदा की जाती रही है तो प्रकारांतर से मुस्लिम पर्दा प्रथा की हिमायत की जाती रही है और सांकेतिक रूप में हिंदू समाज में महिलाओं को मिल रही छूट को भी गर्हित सिद्ध किया जता रहा है। एक पत्थर से दो शिकार। इतना ही नहीं पर्दा प्रथा से बाहर आ चुकी हिंदू बालिकाओं को साफ्ट टार्गेट मानने और उन्हें बहकाने के पीछे भी यही मानसिकता काम करती दिखाई देती है जो निरंतर बढ़ती चली गई है। यदि इससे किसी को फर्क नहीं पड़ता तो वे है अपनी पहचान सेकुलर बताने वाले बुद्धिजीवी, जिनके पास बुद्धि के स्थान पर नारे बचे रह गए हैं और जो धूर्तता को भी राजनीतिक परिपक्वता का प्रमाण मानने लगे हैं।

इस परिरक्षणवाद के चलते तरक्कीपसन्दी का दावा करने वालों ने हिजाब से लेकर हलाला तक का इतनी कलाकारी से बचाव किया कि किसी को इनकी त्रासदी की कानोंकान खबर तक न लगे। तरक्की मुस्लिम कट्टरता की की जा रही थी?

Post – 2018-11-01

#भारतीय_मुसलमानः माइनॉरिटी सिंड्रोम

किसी देश में बसे हुए तरह तरह के लोग, वे वहीं के मूल निवासी हों या कहीं बाहर से आकर बसे हों, संख्या में कम या अधिक होने के कारण कभी अल्पमत या बहुमत की श्रेणियों में रखकर अपने या दूसरों के बारे में नहीं सोचते। कोई नहीं जानता कितने सौ या हजार साल पहले आभीर और गूजर इस देश में आकर पशुचारी जीवन जीते हुए विचरते रहे, आज तक कुछ उसी अवस्था में हैं, जब कि दूसरे अनेक जत्थों ने यहां कई क्षेत्रों में अपनी सत्ता कायम की। हजारों या लाखों यहूदी आकर बसे थे। पश्चिम का कोई देश नहीं जहां वे चैन से रहने पाए हों, जहां उनसे नफरत न का जाती रही हो, भारत में वे ऐसे रहे कि किसी को पता ही न चला कि वे किसी से अलग हैं, जब कि वे अपने धर्म रीति नीति का बेरोक टोक पालन करते रहे। पारसी आकर बसे और अपनी रीति-रिवाज, धर्म का पालन करते रहे उन्हें किसी तरह की असुविधा न हुई, जब कि सिनेमा में, जिसे भारतीय भाषाई यथार्थ को भूलकर उर्दू सिनेमा बनाने की कोशिश की जाती रही और जिसमें कथालेखन का काम मुसलमान लेखकों ने संभाल रखा था, उनका चित्रण कंजूस, धोखेबाज, काइयां रूप में किया जाता रहा। ईसाई या ऐंग्लोइंडियन चरित्रों में महिलाएं ही – सस्ती, बाजारू और तस्करी आदि करने वाली – स्थान पाती रहीं। इनके साथ तो संख्याबल का भी प्रश्न न था। फिर सामान्य भारतीय आचार के विपरीत इन लेखकों ने उन्हें अपमानित करने का लगातार प्रयत्न क्यों किया?

उच्चारण और टीका चंदन को ले कर दक्षिण भारतीयों का उपहास तथा हिंदुत्व सूचक लक्षणों और प्रतीकों – चोटी, चुटिया, चंदन, यज्ञोपवीत को इसी क्रम में रखा जा सकता है परन्तु हिन्दू तो बहुसंख्यक थे। उनके साथ इस तरह की छेड़छाड़ क्यो? किसलिए? माइनारिटी मेजारिटी को तिरस्कृत कर रही है या माइनारिटी का रोना रोने वालों ने अपने से भिन्न किसी समाज और मूल्यव्यवस्था को गर्हित सिद्ध करने की जिद पाल रखी है? इसका संदेश क्या है ? जो कुछ इस्लाम सम्मत नहीं है वह निंदनीय है और अपमान तथा गर्हणा का पात्र है।

ऐसा क्यों है कि हिंदू समाज इस तरह नहीं सोचता यद्यपि वह किसी को अपना बनाता भी नहीं। सबको अपने ढंग से जीने और अपने रीति रिवाज का निर्वाह करने की छूट देता है। भारत का आम मुसलमान भी इन मामलों में हिन्दुओं की तरह ही सोचता है, भिन्नता का आदर करता है, अकारण किसी का अपमान नहीं करता। उसकी प्रतिक्रिया हिंदुओं से अलग नहीं होती इसका कारण यह है कि वह उसी समाज का हिस्सा है। फिल्मी कथा लेखन करने वाले मुसलमान, आम मुसलमानों से ऊंचे दर्जे के हैं या इसका दावा करते हैं। इनकी जड़ें इस देश से बाहर हैं, यहां ये अमरबेल की तरह समाज और मूल्य व्यवस्था पर छा जाने वाले उपजीवी वर्ग का होने पर गर्व करते है। मानसिकता का यह भेद और इसका अंदरूनी टकराव समझे बिना हम भारत की सामाजिक बेचैनी को सही ढंग से नहीं समझ सकते।

हम जिस बात पर बल देना चाहते हैं वह यह कि आक्रमणकारी होकर भारत में आने वाले और यही बस जाने वाले अलग से पहचाने नहीं जा सकते, परंतु आक्रमणकारी हो कर आने वाले, और इस आधार पर अपने को स्थानीय जनों से भिन्न मानते हैं कि उनको उन्होंने परास्त किया और उन पर शासन किया, इसलिए उनको अपनी बराबरी पर नहीं रख सकते। बइस फर्क को बनाए रखने की चिंता जिनमें प्रधान है वे ही अल्पसंख्यता सिंड्रोम के शिकार हैं जो सब कुछ खो जाने के डर से अपना रुतबा, और उस रुतबे से जुड़ी हर चीज को बनाए रखने के लिए तरह-तरह के तरीके अपनाते और समस्याएं खड़ी करते रहे हैं।

18वीं शताब्दी के मध्य तक उनकी मनो रचना ऐसी नहीं थी, उनका कुछ लुटा नहीं था। वह अपनी स्थिति से संतुष्ट थे और अपनी जमीन से जुड़ने के लिए प्रयत्नशील थे। नव्यन्याय के संरक्षण का काम मुख्यतः उन्होंने संभाला था। १७५७वर्ष मुस्लिम इतिहास में एक दुर्भाग्यपूर्ण काल के रूप में उपस्थित हुआ। एक ओर प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला की हार, दूसरी ओर दिल्ली पर अहमद शाह अब्दाली के एक पर एक हमले जिनमें सबसे भयंकर १७५७ का कत्ले आम था । इस दुहरी चोट से मुस्लिम सत्ता अवध से लेकर दिल्ली तक भी खोखली हो गई ।

विनाश का आभास और आत्मरक्षा की चिंता इसी समय से आरंभ हुई। इससे उबारने के नाम पर मुसलमानों को अपना औजार बनाने के लिए उनमें अपने जैसा विदेशी होने का भाव, शासक होने का भाव, शक्ति के बल पर अल्पसंख्यक होते हुए भी सत्ता अपने हाथ में रखने की काबिलियत, क्षति पूर्ति के रूप में मुसलमानों की चेतना में उतारने का काम उन्होंने आरंभ किया जिन्होंने उनका सब कुछ लूट कर उन्हे भिखारी बना दिया था।अन्यथा अपने रीति रिवाज विश्वास और धर्म को लिए वे दूसरों की तरह इस देश के सपूत बन कर किसी भी अलगाववादी भावना से मुक्त होकर रह सकते थे। अपनी इस योजना में उन्होंने किन युक्तियों और संस्थाओं का उपयोग यह हमारी जानकारी में नहीं है । परंतु जो कुछ पहली बार देखने में आया वह कुछ तो हम पहले बयान कर आए हैं और कुछ प्रसंग वश याद कराए जा सकते हैं जिनमें से एक है सबसे प्रबुद्ध वर्ग में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना पैदा करके धार्मिक कट्टरता का प्रकारांतर से समर्थन करते हुए अपने वजूद को बनाए रखने का तरीका।

गालिब को अपनी कविता पर जितना गर्व था उससे अधिक इस बात पर कि सौ पुश्त से उनके पुरखे तलवारबाजी या सिपहगरी करते रहे हैं, कविता की नजाकत पर जितना गर्व था उससे अधिक भाषा को फारसी बनाने पर था। उनके जन्मशती पर उनकी वंश परंपरा की संभवतः अंतिम निशानी एक वृद्धा कह रही थीं कि उनके खानदान में शादी के रिश्ते ईरान से ही किए जाते रहे हैं। फैज प्रगतिशील कवि थे पर गुरूर इस बात पर कि वह सुल्तानी बू सुल्तानी छिन जाने के बाद भी आज तक बची हुई है – सरे खुशरू से ताजे कज कुलाही छिन भी जाती है, कुलाहे खुशरवी से बू-ए-सुल्तानी नहीं जाती। यह बू उन्नीसवी शताब्दी के बाद की उर्दू कविता में ही नहीं तथारचित उर्दू सिनेमा और उसके मुस्लिम अदाकारों में लक्ष्य किया जा सकता है। वे ही अपनी संतान का नाम तैमूर रखने या गजनी की याद ताजा करने पर गर्व कर सकते हैं।

हमने आज तक जो कुछ देखा है उसमें किसी समाज में रहने के दो तरीके हैं एक निबाह का दूसरा टकराव का। पहले से समाज की समझ पैदा होती है या कहें पहला समाज की समझ से पैदा होता है, हम साथ रहते हैं एक दूसरे के गुणों को पहचानते हैं, और उनमें जो सर्वश्रेष्ठ होता है उसका सहज भाव से सम्मान करते हैं। इसमें संख्या से विशेषता का निर्धारण नहीं होता बल्कि दूसरों की अपेक्षा अधिक योग्य सिद्ध होने से ही लोग किसी व्यक्ति को किसी काम के अधिक उपयुक्त मान लेते हैं । कीर्तिमान स्थापित करने वाले खिलाड़ी, साहित्यकार, पत्रकार, चिंतक, वैज्ञानिक, समाजसेवी और राजनेता के सम्मान मे संख्या बल काम नही करता है। राजनीति पर कुछ लोग आशंका कर सकते हैं पर रफी अहमद किदवई का नाम याद आते ही उनका सुर सही हो जाएगा।

सर सैयद अहमद से पहले मुसलमानों की आबादी का अनुपात वही था जो उनके बाद, परंतु इससे पहले अपने कड़वे खट्टे अनुभवों के बावजूद भारतीय समाज में अल्पमत और बहुमत की चेतना नहीं थी। यह संभवत है सर सैयद में भी आरंभ में न रही हो। उनमें पैदा की गई और इसके लिए हम अंग्रेजों की कूटनीतिक दक्षता की सराहना कर सकते हैं। यह बोध उनकी चेतना में इतने गहरे उतार दिया गया कि आगे के सभी निर्णयों में यही केंद्रीय बना रहा।

टकराव का यह रास्ता अनेक विकृतियों में प्रकट हुआ। वास्तव में जो लोग किसी समाज पर आक्रमणकारी बनकर विजयी हुए हों उनकी समझ में निबाह का तरीका आता ही नहीं । वे उन प्राचीनतम अवस्थाओं के बारे में भी आक्रमणकारी और आक्रान्त की सीमा में चीजों को देखना और समझना चाहते हैं जब राज्य संस्था का जन्म ही नहीं हुआ था और मनुष्य स्थाई निवास तक नहीं अपना सका था। जब सारी दुनिया पूरे मानव समाज की थी और उसके जत्थे अपनी सुविधा के अनुसार कहीं भी जा सकते थे। भारत में नीग्रोसम जन बहुत पहले से थे उन पर मध्येशिया से मुंडारी भाषियों ने आक्रमण किया और उन्हें परास्त करके भारत पर अधिकार कर लिया। उसके बाद उसी क्षेत्र से जहां से उन्होंने आक्रमण किया था निकल कर द्रविड़ों ने मुंडारियों पर आक्रमण करके उन्हें परास्त किया और उत्तर भारत से भगाकर स्वयं अधिकार कर लिया। उसके बाद आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया और द्रविड़ों को भगा दिया और उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया।
बदहवासी की हद होती है, सोची समझी बदमाशी की नहीं। ऐसी बदमाशी के शिकार हुए समझदारों ने ऐसा सर्वनाश किया जिसमें जो जहां भी है, दुःस्वप्न जैसे यथार्थ का सामना कर रहा है और अपनी ऊर्जा और संसाधनों का आधा पारस्परिक विनाश करते और विनाश से बचाव के उपाय करते जी रहा है।

Post – 2018-11-01

फिर वही बात कहूंगा जिसे सुनकर साहब
तुम कहोगे कभी ऐसा तो सुना था ही नहीं।

Post – 2018-11-01

यह शमा तुमसे न संभलेगी
हमारी है यह।
धुंआ धुंआ तुम्हें देगा
चिराग मेरा है।।

ये पंक्तियां मेरी जहन में एकाएक तब उभरीं जब मेरे मन में उर्दू भाषा की नियति पर अफसोस हो रहा था। यह खयाल आया कि अहंकारवश इसके संरक्षक होने का दावा करने वालों ने इसे दुरूह और तलफ्फुज को मजहबी पवित्रता तक पहुंचा कर इसके नाम पर देश बांटा फिर भी उसे उसके लिए बने देश की भाषा नहीं बना सके, उसमें इसके बोलने वालों की तुलना में चारगुना लोग उस देश में बोलते है जिसमें तब वे इसे सुरक्षित नहीं मान रहे थे। इसे जन भाषा से मजहबी भाषा बनाते हुए, उनसे भी काट कर अशराफ की भाषा बनाते हुए इसकी हत्या की गई जब कि इसे आज वे हिन्दू जिलाए हुए हें जिनके उर्दू लेखकों और कवियों का तक का यह कह कर मजाक उड़ाते रहे कि वह हिंदू है, वह क्या जाने उर्दू क्या है, जिसकी तल्खी हंसराज रहबर ने झेली थी, या फिराक ने जिनको हिन्दू होने के कारण वह महत्व नहीं दिया जिसके वह हकदार थे। यह पछतावा कैसे अपने आप शेर में ढल गया यह मेरे लिए भी विस्मय की बात है।