Post – 2019-01-22

उत्कर्ष का निष्कर्ष

गालिब के मन में छोटी उम्र में यह सनक सवार हो गई थी कि अमीरों की भाषा वही हो सकती है जो अाम लोगों की हैसियत से परे हो। पर उनकी उपेक्षा जितनी फारसी बोझिल भाषा के कारण हुई, उससे अधिक इस कारण कि दूसरे सभी शायर प्रतिभा में गालिब के सामने बौने सिद्ध होते थे। ग़ालिब की उपस्थिति ने उनकी हैसियत को कम कर दिया था और इस कारण वे सभी उनसे जलते थे। उनकी ताकत अपनी शायरी से अधिक गालिब के महत्व को कम करने पर खर्च होती थी। इस पीड़ा को जितने मार्मिक ढंग से गालिब ने व्यक्त किया है उस पीड़ा को अकेले उन्होंने नहीं सहा, दूसरों की अपेक्षा बहुत आगे बड़ी हुई सभी प्रतिभाओं, अग्रणी देशों और सभ्यताओं को एक नियम की तरह अनिवार्य रूप से सहना पड़ा है।
हसद, सजाए-कमाल-ए-सुखन है क्या कीजे
सितम बहा-ए-मता-ए-हुनर है क्या कहिए।
‘काव्यात्मक उत्कृष्टता का दंड है ईर्ष्या और असाधारण कलात्मक सिद्धि का इनाम है अत्याचार।’ यही है उत्कर्ष का निष्कर्ष। भारत को अपने पूरे इतिहास में इसी का दंड भोगना पड़ा है।

अपने उत्कर्ष के दिनों में भी, पराभव, उत्पीड़न और दमन के दौर में भी, जब उसे परास्त करने वाले अपने अहंकार और दुर्दांतता के बाद भी उसके सामने इसलिए अपने को तुच्छ समझते थे कि इतनी दुर्गति के बाद भी उसने उस मूल्य परंपरा की रक्षा की, या करने का यथासंभव प्रयास किया था जिसके सामने उनके समस्त धर्मोपदेश और सभ्यता के दावे वहशीपन के हाशिए पर दिखाई देते हैं। उसके इतिहास की उपलब्धियों के शिखरों को नष्ट करके बराबरी पर आने की कोशिश के बाद भी उन विकलित उपलब्धियों की ओर और उसके सांस्कृतिक मानकों की ओर नजर उठाने पर गर्दन इतने पीछे मोड़नी पड़ती कि सिर के ताज जमीन पर आ जाएं। इसका प्रमाण तो हम कल देंगे, परन्तु आज दो बातों की ओर ध्यान दिलाते हुए अपनी बात समाप्त करना चाहेंगे।

पहला उत्कर्ष के साथ दूसरे समुदायों की श्रद्धा और ईर्ष्या का एक साथ शिकार होना। आज पश्चिम के उत्कर्ष के कारण शेष दुनिया में उसकी नकल करने की, उसके समकक्ष आने की कोशिश और इसके बावजूद उससे घृणा, वैसा बनने से बचने की लगातार कोशिश, समानांतर चल रही है। ऐसा ही पहले भारत के साथ हुआ था।

दूसरे यदि ऐसा लग रहा हो कि मैं अतीत की स्मृतियों से आत्मश्लाघा पैदा करने का प्रयत्न कर रहा हूं, तो यह सही नहीं है। भारत के संपर्क में आने के बाद से पश्चिम ने लगातार उन मूल्यों को आत्मसात करने का प्रयत्न किया है जिनके लिए हमारे मन में सम्मान तो है परंतु भौतिक कारणों से, और सामंती मूल्यों के बने रह जाने के कारण अधिकांश लोग उसका निर्वाह नहीं कर पाते और इसलिए उन्हें अपने को दोबारा अपने को खोजने की और पाने की कोशिश करनी होगी जिसमें पश्चिम भी हमारी सहायता कर सकता है। कारण जिन मूल्यों कर हमें गर्व है उनको उन्होंने चुपचाप, यथासंभव शिष्यवत आत्मसात किया है और पालन कर रहे हैं जब कि उनके सामने अपने को उनका उत्तराधिकारी होने का दावा करते हुए हम हास्यास्पद सिद्ध होते हैं।

आश्चर्य यह है जो शिक्षा पाश्चात्य जगत ने इतनी अल्प अवधि में ग्रहण की उसे लगभग 900 साल के पड़ोस के बाद भी मुस्लिम समाज क्यों नहीं अपना सका? कारण बहुत स्पष्ट है। पश्चिम वैज्ञानिक सोच से भावुकता पर नियंत्रण करते हुए, धर्म की जकड़ और अतीत की ग्रंथियों से मुक्त होकर, आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा था और मुस्लिम समुदाय वैज्ञानिकता को, विवेकशीलता को, ठुकराते हुए अपने अतीत में धंसने के लिए लगातार प्रयत्न करता रहा।

Post – 2019-01-21

कल्पना और यथार्थ

स्वप्न और दिवास्वप्न के पीछे भी यथार्थ होता है, कल्पना का तो अर्थ ही है गढ़ना। उसके लिए ईंट, पत्थर और गारा तो जरूरी है ही। परंतु कल्पना में जो नहीं है उसे, जो है, उसके नकार से भी गढ़ सकते हैं। भारत को समझने का प्रयत्न करने वालों ने इसकी महिमा से अभिभूत हो कर, यदि अज्ञान वश इसके आकार को शेष एशिया जितना मान लिया तो यह समझा जा सकता है “According to Ktesias, India was not smaller than all the rest of Asia —which is a palpable Exaggeration.” न तो उनमें से किसी ने पूरा एशिया देखा था, न ही उनको भारत के आकार का पता था। समझ में न आने वाली बात तो यह है, कि आज भी भारत को उपमहाद्वीप कहने वालों की कमी नहीं है। अज्ञान और कूटनीतिक धूर्तता में पर्याप्त निकटता है।

पर मैकक्रिडिल का यह कथन सही नहीं है कि तेसियस अतिरंजना कर रहा था, सही यह है कि वह भारत की विशालता को दूसरों के लिए विश्वसनीय बनाने के लिए दो सुनी सुनाई बातों को एक साथ रखते हुए अपने पाठकों को अपने विवरण का कायल बना रहा था। इनमें एक यह थी कि एशिया बहुत बड़ा महाद्वीप है, और फारस में उसे जो सूचनाएं मिली उससे पता चला कि भारत बहुत बड़ा देश है।

मैं उन ज्ञानी जनों को जो मानते हैं कि भारत को पहली बार अंग्रेजों ने एक किया, याद दिलाना चाहता हूं कि आठवीं नवीं शताब्दी के विष्णु पुराण के लेखक को ही नहीं, उनसे बहुत पहले भी दूसरे देशों को भारत की विशालता का पता था। वह देश और राज्य में फर्क करना जानते थे। यह मामूली ज्ञान आपने ज्ञानाधिक्य के चलते खो दिया है।

मैकक्रिडिल का तेसियस के विषय में अगला वाक्य है, Like Herodotus he considered the Indians to be the greatest of nations and the outermost, beyond whom there lived no other. (यूनानी हरिदत्त, हेरोडोटस, की तरह वह भी मानता है कि भारत महानतम राष्ट्र है और उससे आगे कोई इंसान नहीं रहता।)

आप चाहें तो मुझे राष्ट्रवादी करार देकर खारिज कर सकते हैं क्योंकि इसका जो अर्थ मैं ले रहा हूं वह यह है कि पूर्व की तरफ बढ़ते जाओ सभ्यता का महत्तर रूप मिलता जाता है और भारत महानतम देश है, इसलिए इससे आगे न कोई देश हो सकता है, न इंसान। आपने सत्ता के बल पर जबरदस्त के ठेंगेे की तरह, स्टुअर्ट मिल के मूर्खतापूर्ण दावे को मान लिया कि सभी विचारों और सिद्धांतों का जन्म यूरोप में हुआ है और वहीं से यह पूरब की तरफ फैला है – जितना ही पूरब बढ़ते जाओ, सभ्यता का स्तर गिरता जाता है। परंतु तेसियस का विचार सत्ता के बल पर लादा हुआ विचार नहीं है, स्वयं पश्चिम के सबसे प्रबुद्ध देश के दो प्रबुद्ध व्यक्तियों का विचार है कि पूरब की तरफ जितना ही बढ़ते जाते हैं सभ्यता का स्तर उतना ही ऊंचा होता जाता है और भारत इसकी पराकाष्ठा है। इसलिए उससे आगे न कोई देश हो सकता हैस न इंसान होंगे। मैं इसे सच नहीं मानता, पर जानना चाहता हूं कि आप इसे कितना गलत मानते हैं?

मैकक्रिडिल तेसिअस के एक अन्य कथन को कि भारतीय लोगों के वस्त्र पेड़ों द्वारा पैदा किए जाते हैं, निम्न रूप में प्रस्तुत करते हैं, The expression, garments produced by trees, can only mean cotton garments. मैं इसके पीछे सुनी सुनाई बातों के आधार पर भारत के प्राचीन इतिहास में वल्कल के प्रयोग की झांकी देखता हूं। कपास के विषय में उपलब्ध जानकारी का इसमें कुछ घालमेल हुआ हो सकता है परंतु ईरान में भारत को आधा वर्तमान और आधा पुरानी कहानियों के आधार पर जाना जाता था। यही कारण है इतिहास की जानकारियां वर्तमान सूचना में घुल मिल जाती हैं।

कपास की जानकारी दूसरे यूनानियों पर उजागर हुई थी जो मानते थे, भारत में ऊन पेड़ों पर उगता है। उन्हें पता चला यहां शहद वनस्पतियों से निकलता है, परंतु इसकी विचित्रताएं और पश्चिमी जगत को और भी पहले से ज्ञात थी जिनके हवाले देने चलें तो विषयांतर हो जाएगा।

यहां हम मैकक्रिडिल के माध्यम से यूनान के मन में 2500 साल पहले बनी हुई छवि को प्रस्तुत कर रहे हैं। यूरोप को यह पता नहीं था कि अनाज से भी तेल निकल सकता है। उन्हें इसका पता पिगमी जनों के माध्यम से मिला, परंतु भारत में यह कारोबार बहुत पुराना है। मैकक्रिडिल कहते हैं, Ktesias has without doubt stated that the Indians from preference use oil of sesame, and it can only be the fault of the author of the extract if the use of this oil, together with that of the oil expressed from nuts, is ascribed to the pygmies.आज तो पश्चिमी जगत पत्थर से भी तेल निकालना सीख चुका है, इसलिए इसे केवल दर्ज किया जा सकता है, आज के दिन इस पर गर्व नहीं किया जा सकता।

हम यहां होमर के उस कथन को लें जिसे यूरोप में इतिहास के जनक माने जाने वाले हेरोडोटस (हरिदत्त ) ने दोहराया है, और जिसकी व्याख्या मैकक्रिडिल ने विस्तार से करते हुए, विचित्र कल्पनाएं करते हुए, इसे काले रंग से जोड़ने का प्रयत्न किया है। 1200 ईसा पूर्व में होमर का यह कथन भारत कि पूर्व का इथोपिया है, रंग पर आधारित नहीं है, एक गहन ऐतिहासिक सत्य पर आधारित है। इथोपिया मिश्र के बाद अफ्रीका का सबसे सभ्य देश था और था भी इसलिए कि सुमेरिया से व्यापार करने के लिए जिस तरह भारतीय व्यापारियों ने दिलमुन (बहरीन) को अपना अड्डा बनाया था, उसी तरह मिस्र से व्यापार करने के लिए उन्होंने इथोपिया में पुंट (पुंड्र) अपना अड्डा बनाया था। कई बार वे इस अड्डे से सुमेर को भी अपना माल भेजते थे इसलिए वहां के अभिलेखों में जिन देशों से आए हुए जहाजों का उल्लेख मिलता है उनमें दिलमुन और पुंत का नाम विशेष रूप से आता है। मिस्र की एक रानी ने पुंत को अपने जहाज भेज कर वहां से जो माल मंगवाया था वह शुद्ध भारतीय था, साथ ही उसने कारीगर भी मगवाए थे। इन दोनों सभ्य देशों से कुछ अलग हटकर अपने व्यापारिक अड्डे बनाने के कारणों का विवरण देने के लिए यहां अवकाश नहीं है। परंतु यह सूचना देना जरूरी है की इथोपिया के पास किसी छोटे द्वीप पर आज भी गुजराती से मिलने वाले शब्द मिलते हैं। भारत में बाजरा, टांगुन और मडुआ अफ्रीका के साथ इसी संपर्क से पहुंचे थे। यह ईसा ढाई हजार साल पहले के कुछ स्थलों से मिलने लगते हैं। एक दूसरी बात यह कि पुंत के समुद्री क्षेत्र में शंख बहुत बड़े आकार का मिलता था जिस को काटकर पात्र के रूप में भी प्रयोग में लाया जाता था। गीता में जिस असाधारण शंख का उल्लेख “पौंड्रं दध्मौ प्रतापवान्” मैं आया है, वह इसकी याद ताजा कराता है।

अतः होमर जब भारत को पूरब का इथोपिया कहते हैं, तो उसका अर्थ यह है कि इथिओपिया से भारतीय दुर्लभ वस्तुएं प्राप्त की जाती थीं, अर्थात् पूरब में भी कहीं इथिओपिया है न कि इसके निवासियों का रंग काला है और भारत के दक्षिणी भाग के लोग काले रंग के हैं। हेरोडोटस ने क्या सोचकर उस कथन को दोहराया था, यह हमें भी पता नहीं।

अतीत को याद करते हुए अपना महिमा-गान करने से अधिक ग्लानि का कोई विषय नहीं हो सकता, परंतु जब ऐसे व्याख्याएं की जाएं जो यह बताएं कि तुम सदा से यही निखट्टे रहे हो और इससे अधिक का जीवट तुम्हारे भीतर नहीं है तो अपने ऐसे उपेक्षित पक्षों की याद दिलाना प्रतिरोध और आत्मसम्मान की मांग बन जाता है। अतः याद दिला दें कि पश्चिम ने विस्मय के साथ देखा था कि भारतीय द्रव्यों के धुएं से भी सुगंध निकलती है और अगुरु की मांग भी हुई थी। उन्हें पता चला था यहां लकड़ी से भी सुगंध निकलती है। यह उनके लिए आश्चर्य की बात थी जिनके फूलों से भी सुगंध नहीं निकलती। और यदि भारत को लेकर आपके मन में हीन भावना पाश्चात्य शिक्षा के कारण घर कर गई हो तो विदेशों में जाकर उनके फूलों को सूंघे और फिर लौट कर भारत की मिट्टी को सूंघें तब पता चलेगा यहां मिट्टी का तिलक क्यों लगाया जाता है। यहां के रज में भी राम बसे हैं – रामरज ‍ ।

Post – 2019-01-20

अतिरंजना और यथार्थ (1)

इंडिका का लेखक, तेसियस (Ktesias), पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व में, पारसी सम्राट दारा (दारयावहु) के दरबार में संभवतः चिकित्सक के रूप में नियुक्त था। इंडिका के लेखक ने, कुछ अपनी जानकारी और कुछ सुनी सुनाई बातों के आधार पर भारत का चित्रण एक आश्चर्य लोक की तरह किया था। उसके आश्चर्यजनक विवरणों के पीछे की सच्चाई को समझने में लगभग सभी विद्वानों ने गलती की है और जब मैं उनकी गलतियों को उजागर करते हुए कुछ भिन्न बातें सामने ला रहा हूं तो मुझे भी जांचते हुए मेरे निष्कर्षों से सहमत या असहमत होना चाहिए। भारतीय विद्वानों ने मैक्क्रिंडिल और रालिंसन पर भरोसा करते हुए उनके कथन को मान लिया है, जो सही नहीं है।

यहां दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहला, मेगास्थनीज से पहले के सभी यूनानी विद्वानों ने भारत के विषय में अपनी धारणा इंडिका के आधार पर ही बनाई थी। इसकी मूल प्रति दुर्लभ है, इसका जो उपयोग अपनी रचनाओं में दूसरों ने किया है, उसी से इसकी रूप-रेखा तैयार की गई है। दूसरा यह हिंदू शब्द का प्रयोग पहली बार नहीं तो भी सबसे पुराने प्रयोगों में, इसी पुस्तक में हुआ है और यूनानियों द्वारा हिंद के इंड और इंडिया बनाए जाने का तर्क भी यहीं समझ आता है । { सिंधु नदी के लिए हिंदु का प्रयोग अवेस्ता में है पर अवेस्ता में इस्लाम के जन्म के के बाद भी बहुत कुछ जोड़ा जाता रहा है इसलिए इस प्रयोग की कालसीमा तय करना कुछ कठिन है। } अब हम उन विवरणों को लें जो उन टुकड़ों से छन कर आते हैं जिनको इंडिका के लेखक ने दिया हो सकता है।

1. सिंधु नदी के विषय में उसका कहना है कि जहां यह संकरी है इसकी चौड़ाई 40 फर्लांग (स्टैडिया =184 मीटर) और जहां चौड़ी है वहां सौ स्टेडिया है। यदि सिंधु के बाढ़ क्षेत्र को लें और उस काल की सीमा को ध्यान में रखें तो नदी के किनारे से दूसरे तक फैले प्रसार के विषय में यह वर्णन कुछ ही अति रंजित लगेगा। इसका सीधा अर्थ केवल यह है कि इतनी विशाल जलसंपदा और चौड़ाई वाली किसी नदी को उसने, या उन्होंने जिनके ज्ञान पर उसने भरोसा किया था, न देखा था, न इसकी कल्पना कर पाते थे।

2. जब वह कहता है “भारतवर्ष में एक सोता है जिससे हर साल सौ घड़ा पिघला हुआ सोना निकलता है।” तो भारत की अविश्वसनीय समृद्धि पर आश्चर्य करने वालों की कल्पनाओं को मुखर करता है।

पश्चिम के निकट होने के कारण उर्वर चंद्ररेखा वाले क्षेत्र की जितनी भी तारीफ पश्चिमी विद्वानों ने की हो, दुनिया का सबसे उर्वर भूभाग, सिंधु गंगा का विशाल मैदान था, जिसमें अनुकूल परिस्थितियां होने पर तीन फसलें और सामान्य स्थिति में दो फसलें उगाई जा सकती थी और इसके कारण भारत अपनी संपन्नता के लिए पूरी दुनिया में विख्यात था। भारत में सोने और हीरे की खाने भी थीं, परंतु इसकी अपार संपदा का कारण उर्वर क्षेत्र ही था जिसका आज उन लोगों द्वारा उपहास किया जाता है जो इसकी दुर्गति के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं।

यह देश अपने इस वैभव के कारण ही बार बार लुटेरों के द्वारा लूटा जाता रहा और इसके बावजूद कुछ ही समय के भीतर दोबारा संपन्न हो जाता था जबकि वे बार बार लूटने के बाद भी कंगाल हो जाते थे। मध्यकालीन शासक भारतीय राजाओं को लूटने के लिए आक्रमण करते रहे और सैकड़ों गाड़ियों पर लाद कर लाया हुआ धन कुछ ही समय में खत्म हो जाता था, जनता से अधिक से अधिक उगाहने का प्रयत्न किया जाता था, फिर भी सैनिक अभियानों पर उनका धन खर्च हो जाता था, जिस के विषय में हम पहले भी लिख आए हैं । उर्वरता के साथ भारतीय समाज का अध्यवसाय और इसकी दक्षता भी जुड़ी हुई थी जिसके कारण विविध क्षेत्रों में इसने दूसरे देशों की तुलना में आश्चर्यजनक प्रगति की थी और व्यापार और वाणिज्य का इतना मजबूत आधार तैयार किया था जो दूसरों के लिए संभव न हुआ था। इसके सर्वमुखी समृद्धि यही कारण था।

2क. अपने कथन को विश्वसनीय बनाने के लिए वह कुछ जोड़ने तोड़ने का भी प्रयत्न करता है, “ घड़ा मिट्टी का होता है और बाहर निकलने के बाद जब सोना जम जाता है तो घड़े को तोड़ कर अलग कर दिया जाता है।” परंतु संभव है इसके पीछे यह सचाई हो कि लोग अपना सोना चांदी चोरों से बचाने के लिए घड़े में रख कर जमीन में गाड़ दिया करते थे। मिट्टी में दबी हुई इस निधि को निकालने के उल्लेख ऋग्वेद में मिलते हैं (‘हिरण्यस्येव कलशं निखातं’, आदि) और हड़प्पा स्थलों से इसकी पुष्टि हुई । यह परंपरा बाद तक जारी रही है। ऋग्वेद की ऋचा “दश ते कलशानां हिरण्यानां अधामहि, भूरिदा असि वृत्रहन्” भी इस तथ्य को समझने में सहायक हो सकती है। कुछ नदियों के रेत में सोने के कण पाए जाते थे, सोने की खान के अतिरिक्त सोना प्राप्त करने का यह भी एक तरीका था। यही सोने के सोते का आधार बना हो सकता है। इस पर कोई विश्वास नहीं करेगा इसका पता उसे भी था इसलिए प्रत्यक्षदर्शी के रूप में उसका चित्रण करने के लिए वह उसका आकार भी बता देता है, “ सोता आयताकार है जिसकी चारों भुजाओ का योग 11 बालिश्त है और गहराई दो गज (1 फैथम) है।”

3. इस समृद्धि से जुड़ी हुई एक दूसरी अटकलबाजी यह है कि “भारत में एक ऐसा पेड़ होता है जो सोना, चांदी, तांबा, जस्ता और दूसरी धातुओं को अपनी ओर खींच लेता है। अगर आसपास से कोई फरगुद्दी उड़े तो उसे भी खींच लेता है और पेड़ बड़ा हो ता भेड़-बकरी तक को खींच लेता है।” (Ktesias says that in India is found a tree called the parybon. This draws to itself every- thing that comes near, as gold, silver, tin, copper and all other metals. Nay, it even attracts sparrows when they alight in its neighbourhood. Should it be of large size, it would attract even goats and sheep and similar animals.) इस अकूत संपत्ति के किस्से मध्य एशिया और ईरान में भी बहुत प्राचीन काल से गढ़े, सुनाएं, फैलाए और पीढ़ी- दर-पीढ़ी हस्तांतरित होते रहे थे और जान पर खेल कर, किसी तरह इसे हासिल करने के लिए, भारत पर लूटेरे दस्तों के आक्रमण होते रहे, जिनका सामना करने में इसको दो तरह के उपाय करने पड़े, जिनमें नाम मात्र की सफलता मिली। ऋग्वेद के समय से हमें त्रसदस्यु जैसे विरुद और आर्यव्रत का प्रसार अर्थात् उनको सभ्य बनाने का प्रयास बौद्ध काल तक लगातार जारी रहा है।

4. जब वह कहता है, “सोते की तलहटी में लोहा पाया जाता है।” तो यह भारतीय इस्पात जैसी शुद्धता वाले लोहे की प्रशंसा का सूचक है जिसके कारण देश-विदेश में भारतीय तलवारों की बहुत कद्र होती थी। इतना अच्छा लोहा जिसमें जंग तक न लगे, सोने के नजदीक न मिलेगा तो और कहां मिलेगा। इसकी महिमा यह कि This iron, he says, if fixed in the earth, averts clouds and hail and thunderstorms, and he avers that he had himself twice seen the iron do this

5. “कुत्ते इतने विशाल होते है कि शेरों से भिड़ जाते हैं।” यह भारत के विषय में सच नहीं है, परंतु वासुदेव शरण अग्रवाल ने कहीं यह जिक्र किया है कि अफगानिस्तान में शेर और कुत्ते की संकर नस्ल, तैयार की जाती थी, जिसका उपयोग यशपाल जी ने दिव्या उपन्यास में भी किया है।

6. “भारत में सूरज दूसरे देशों की तुलना में दसगुना बड़ा होता है।” भारत की प्रचंड गर्मी और लू लगने से प्रतिवर्ष होने वाली मौतों के समाचार के आधार पर की गई उद्भावना है।

7. “कूर्च (रीड) { यह, बहुत पतली, वेतलता जैसी मजबूत, सरकंडा प्रजाति की घास है जिसमे लोच बहुत होती है। हम इसके लिए किरिच का प्रयोग करते थे।कलम बनाया करते थे। इससे पहले बैठने का मोढ़ा बनाया जाता था, जिसे कूर्चासन कहते थे। हिंदी का कुर्सी शब्द इसी से निकला है और इसी से निकला है संभवत है तेलुगू का क्रियापद कूर्चोंडुट- बैठना। रंगाई के लिए ब्रश (कूची) इसी से बनाया जाता था। इसकी किरिच इतनी पतली हो सकती थी की इस का झाड़ू भी बनाया जा सके। भोजपुरी में झाड़ू के लिए कूचा शब्द का प्रयोग होता है।} इतना मोटा होता है कि उसको दो आदमी हाथ फैला कर अपने घेरे में ले सकते है. और ऊंचाई इतनी कि भारी से भारी जहाज के मस्तूल की बराबरी कर सके। नर किरिच भीतर से ठोस होता है, मादा भीतर से पोला।” कहने की जरूरत नहीं की बांस पश्चिम के लिए भारत का एक अन्य आश्चर्य थाऔर इसे भारतीय रीड समझने के बाद अतिरंजना के दरवाजे खुलने ही थे।

8. “भारत का पनीर और मदिरा इतना स्वादिष्ट होता है जैसा दुनिया में कहीं हो ही नहीं सकता।” इसका विश्वास दिलाने के लिए उसने लिखा कि ‘ इसे उसने चख कर देखा था।’ बात यहां शायद छेने की और गन्ने की शराब की, की जा रही है।

9. पतित पावनी गंगा के विषय में भी कहानियां प्रचलित थीं। आश्चर्य है कि इस विषय में सूचना सत्य के अधिक निकट है, in India is a river, the Hypobaras, and that the meaning of its name is the bearer of all good things. It flows from the north into the Eastern Ocean near a mountain well-wooded with trees that produce amber. गंगा के उद्गम से लेकर सुंदरबन तक की जानकारी इसलिए चकित करती है उसके एक विवरण के अनुसार भारत में वर्षा होती ही नहीं। इसकी जल की जरूरत इसकी नदियां पूरी कर देती हैं। (He states that there are no men who live beyond the Indians, and that no rain falls in India but that the country is watered by its river.)
जो उसके सिंध, पंजाब और राजस्थान की जानकारी पर गढ़ा गया है।
(आगे जारी)

Post – 2019-01-19

सांस्कृतिक प्रज्ञाचक्षुता

क्या आपने कभी प्रज्ञा चक्षु शब्द पर ध्यान दिया है। इसका प्रयोग दृष्टि बाधित व्यक्तियों के लिए किया जाता है। उन्हें सुनकर हमारे जगत के विषय में जो जानकारी मिलती है वही उनकी दृष्टि बन जाती है, उसी से दुनिया को समझते हैं। कभी कभी चर्मचक्षु से देखने वालों की तुलना में उनकी समझ अधिक गहरी और निष्पक्ष होती है । ज्ञान भी आंख बन सकता है, आंख होते हुए ज्ञान का विरोध अंधापन पैदा कर सकता है, इसको समझने के लिए इस शब्द से अच्छा कोई माध्यम नहीं है।

हम केवल अपनी आंख से नहीं देखते, अपने ज्ञान से भी देखते हैं और वह ज्ञान, भ्रामक (प्रतीति) भी हो सकता है। यह ज्ञान या प्रतीति हमारी आंखों पर रंगीन चश्मे की तरह चढ़ कर दृश्य को दृश्यांतर कर कर देता है।

हमें किसी देश, समाज या संस्कृति के विषय में अपनी परंपरा से जो सूचनाएं उपलब्ध होती हैं वे, सही-गलत जो भी क्यों न हों, हमारे वर्तमान ज्ञान को भी प्रभावित करती हैं और तथ्य दर्शन को भी। हमारा भय, हमारी लालसा, हमारा स्वार्थ सभी अलग-अलग तरह के चश्मे हैं जो कभी कभी एक के ऊपर एक चढ़े हुए होते हैं और उसी से हम वस्तु-साक्षात्कार करते हैं । यदि ऐसा न होता तो बहुत सारे रंगीन, चमकीले, फूलों जैसे सुंदर और साफ-सुथरे कीड़े- मकोड़े हमें गंदे और घिनौने दिखाई न देते। जिसने हमें प्यार किया हो, हमारी सेवा की हो, हमारे दुख के दिनों में काम आया हो, उसके सामान्य परिभाषा में असुंदर लक्षण सुंदर न दिखाई देते।

भारत को विदेशियों ने इसी तरह के कई चश्मों के भीतर से देखा और अपने अनुसार गढ़ा। चश्मों की कमी या अधिकता के कारण कई रूपों में गढ़ा। अस्तित्व का तकाजा है कि जो कुछ भी हम हैं उस पर विश्वास करें, उस पर गर्व करें। ऐसी दशा में अपने को भारत की तुलना में पिछड़ा पाकर एक और तो आश्चर्य करते रहे, कुछ चीजों को देखने से इनकार करते रहे, और अपने आत्मरक्षा तंत्र के कारण, इससे घृणा भी करते रहे।

यह कुछ उसी तरह था जैसे अपनी टीम पर गर्व करने वाले, उसे हराने वालों से घृणा करने लगते हैं, उन पर पत्थर फेंकना शुरू कर देते हैं।

भारत को विदेशियों ने इसी तरह देखा। उनकी नजर में उनकी हीनभावना भी शामिल थी, जिसमें भारत एक ओर तो आश्चर्यों का देश प्रतीत होता था, और दूसरी ओर श्रद्धा मिश्रित घृणा का पात्र।

यदि ऐसा न होता तो यूनानी एक ओर भारतीय उपलब्धियों पर आश्चर्य न करते, उन उपलब्धियों में, जो सचमुच मानव अर्जित उपलब्धियां थी, उनकी ओर से नजर न फेर लेते, और उससे घृणा करने का कोई दूसरा तरीका न ढूंढ लेते।

भारत का यूरोप से संपर्क सीधा नहीं था, परंतु उसके सीमावर्ती एशियाई क्षेत्र में हड़प्पा के व्यापार तंत्र के कारण उसका प्रसार था जिसने उनकी भाषा, संस्कृति, पुराकथाओं और चिंतन धारा को प्रभावित किया था। परंतु साथ ही ‘हम भी कुछ हैं, हम झुकने वाले नहीं’, यह अहम् भाव भी पैदा किया था, जिसके चलते यूनानी हरिदत्त अर्थात् हेरोडोटस को भारत के विषय में केवल एक ही सूचना काम की लगी कि भारत पूर्व का इथिओपिया है।

यह सूचना उसने होमर से ली थी और रालिंसन ने इसकी जो विद्वत्पूर्ण व्याख्या की उसमें अफ्रीका के इथिओपिया की एकमात्र विशेषता वहां के लोगों का काला रंग दिखाई दिया और भारत के लिए इसका प्रयोग दक्षिण भारतीयों के रंग के कारण लगा।

हम यहां यह याद दिला दें कि यह वह विडंबना है जिसमें मूल भी गलत मिलता है और उसकी व्याख्या भी, पर निराधार कोई नहीं होता। चर्म चक्षु का अपना अंधापन है, प्रज्ञाचक्षु का अपना। सचाई तक पहुंचने के लिए दोनों का पाठशोध जरूरी होता है। इसे हम कल स्पष्ट करेंगे।

Post – 2019-01-18

भारतवर्ष की सांस्कृतिक एकात्मता

हम भारत की जगह भारतवर्ष का प्रयोग इसलिए कर रहे हैं कि हमारा तात्पर्य केवल भारत से नहीं है, जिसके लिए हमारे संविधान में यह संज्ञा चुनी गई है, अपितु उस पूरे एक भाग के लिए है, जिसे आज साउथ एशिया, या भारतीय उपमहाद्वीप के नाम से अभिहित किया जाता है। इसकी कोई दूसरी संज्ञा जैसे इंडिया, हिंदुस्तान उस पूरे क्षेत्र के लिए प्रयोग में आता भी रहा हो तो भी उस गहनता और व्याप्ति को नहीं प्रकट कर पाता, जो भारतवर्ष से व्यक्त होता है।

अपने ही प्राचीन ग्रंथों में अंकित की गई संघर्ष कथाओं को पढ़ते हुए आश्चर्य इस बात पर होता है कि विरोध की इतनी संभावनाओं और इतने कड़वे अनुभवों के बाद भी भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक पारस्परिकता की भावना कैसे पैदा हुई और टकराव के बीच भी आठ दस हजार साल से बनी रही है। वर्ण व्यवस्था की सामाजिक भेद रेखाओं के बावजूद मूल्यव्यवस्था में इतनी समानता कैसे पैदा हुई? कैसे बहुतों का कुछ न कुछ सबमें इस तरह मिल गया कि निजता के बाद भी समग्र भारतीयता का प्रतिनिधित्व करता है कि भारतवर्ष एक विराट सांस्कृतिक भूभाग लगता है। वे ही मुहावरे भाषाओं की दूरियां पार करते हुए, इतिहास की लंबी यात्रा करते हुए एक सिरे से दूसरे स्थान तक प्रयोग में आते मिल जाएंगे। खानपान की विविधताओं के भीतर ऐसी समानताएं मिल जाएंगी, जिनकी ओर सामान्य का ध्यान नहीं जाता।

विविधता में एकता का मुहावरा इसका सतही आभास ही करा पाता है। यह मुहावरा अनेक देशों के संदर्भ में प्रयोग में आता है जिनमें एकाधिक भाषाओं और संस्कृतियों के लोग बसे हुए हैं, जिनके बीच भौगोलिक, प्रशासनिक, मजहबी, संपर्क भाषा की एकता के कारण राष्ट्रीयता की भावना पैदा हुई है, जिसे अनेकता में एकता की भावना कहते हैं। परंतु भारतवर्ष में यह एकात्मता इन सभी दृष्टियों से अलगाव और यदा कदा विरोध के बाद भी बनी रही है। इसके कारण हमारी विविधताएं, और उनके भीतर प्रवाहित एकप्राणता की प्रकृति दूसरों से भिन्न है और इसके निर्माण में 15,000-20,000 साल का समय लगा है।

इसको समझने में दूसरों को इतनी कठिनाई होती थी कि वे इसे विचित्र मानते रहे और इसकी प्रकृति, समृद्धि और समाज के बारे में ऐसी विचित्र कहानियां गढ़ कर प्रचारित भी करते रहे कि उन्हें पढ़ने पर हम न उन पर विश्वास कर पाते हैं न इस बात पर कि हमारी समृद्धि कभी ऐसी थी कि इसे ले कर दुनिया के लोग अपनी परीकथाएं रचते थे। यहां इसकी मात्र एक झलक हम पारसी दरबार में यूनानी दूत के भारत विषयक विवरणों में से कुछ के माध्यम से समझ सकते हैं।
He reports of the river Indus that, where narrowest, it has a breadth of forty stadia, and where widest of two hundred; and of them Indians themselves that they almost outnumber all other men taken together. …
He notices the fountain which is tilled every year with liquid gold, out of which are annually drawn a hundred earthen pitchers filled with the metal. The pitchers must be earthen since the gold when drawn becomes solid, and to get it out the containing vessel must needs be broken in pieces. The fountain is. of a square shape, eleven cubits in circumference, and a fathom in depth. Each pitcherful of gold weighs a talent. Ho notices also the iron found at the bottom of this fountain, adding that he had in his own possession two swords made from this iron, one given to him by the king of Persia…
He states that the cheese and the wines of the Indians are the sweetest in the world, adding that he knew this from his own experience, since he had tasted both. …
Ktesias says that in India is found a tree called the parybon. This draws to itself every- thing that comes near, as gold, silver, tin, copper and all other metals. Nay, it even attracts sparrows when they alight in its neighbourhood. Should it be of large size, it would attract even goats and sheep and similar animals. (Indica (Indika), India as described By Ktesias by J. W. McKrindle)0
सिकंदर के आक्रमण के समय तक यूनानियों को भारत के विषय में जो भी जानकारी थी वह इस पुस्तक के माध्यम से ही थी।

[मेरे साथ एक विवशता है, जिसके साथ महिमा भी जुड़ी हुई है, इसलिए उस विवशता को भी खुले मन से प्रकट करने में संकोच होता है। मुझे किताबों पर भरोसा न रहा। ऐसा किताबों के प्रति उपेक्षा के कारण नहीं, इस कारण हुआ कि किताबों में मुझे अपनी शंकाओं का उत्तर नहीं मिला और उत्तर पाने के लिए मुझे तरीके खोजने पड़े जिसके बाद नया वस्तु साक्षात्कार भी हुआ। जानता नहीं देखता हूं। देखे हुए को कितनी भी सावधानी से हम दूसरों को बताना चाहें उन्हें समझा नहीं कर सकते। दृश्य के सभी पहलुओं को एक क्रम में पिरो भी नहीं सकते, इसलिए सत्यकथन अधूरा और असंतोषजनक होता है। जो कहा नहीं जा सका, छूट गया, उसे बयान करने के बाद भी, बहुत कुछ ऐसा बचता है जो बताने से रह जाता है। और यदि हम उसे पूरी तरह कहना चाहें, तो यथार्थ के छोटे छोटे टुकड़ों को बयान करने के लिए एक उम्र काफी न होगी, पर जैसे कणों से ब्रह्मांड बनता है उसी तरह क्षुद्रतम के संयोजन से हमारा वस्तुगत यथार्थ बनता है। वस्तु-साक्षात्कार इस कारण भी अनिर्वचनीय होता है क्योंकि उसके सभी पहलू हमारी पकड़ में नहीं आते। यहां तक कि एक शब्द के सभी आशय, सभी प्रयोग, किसी व्यक्ति द्वारा ग्रहण किए जा सकें, तो यह भी परम उपलब्धि होगी। इसका बोध बहुत पुराना है।

जिनकी समस्याओं का समाधान पुस्तकों की इबारतें रटने से हो जाता है उनके मन में कोई दुविधा या द्वंद्व नहीं होता। आत्मविश्वास का स्तर बहुत ऊंचा होता है। मुझे वह कभी नसीब न हुआ। मैं इसे अपना दुर्भाग्य नहीं सौभाग्य मानता हूं, पर दुर्भाग्य और सौभाग्य में दूरी इतनी कम है कि हम एक को दूसरे पर्याय मान सकते हैं। मेरे विषयांतर होने का भी यही कारण है।
बात विषय पर करनी चाहिए, मुझे लगता है विषय की जो समझ है यदि वही गलत है तो विषय पर चर्चा का कोई अर्थ तभी हो सकता है, जब हम उसकी बुनियाद को सही करें। मैं उन पक्षों को समझा नहीं पाता जिन को समझे बिना आप उस विषय को भी नहीं समझ सकते जिस पर जोश और जुनून से चर्चा कर रहे हैं। बात मुझे भारतीय एकात्मता पर करनी थी और विषय पर आने के लिए इतने लंबे पैंतरे की आवश्यकता हुई।}

हमें भारत को ही नहीं, विश्व सभ्यता को भी समझने के लिए उन सूचनाओं का सही उपयोग और विश्लेषण करना चाहिए जो केवल भारत में ही उपलब्ध हैं, या जिस तरह सुरक्षित हैं उस तरह दुनिया के किसी दूसरे देश में नहीं, लेकिन जिसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता और यदि इसे लिख भी दिया जाए तो लंबे अरसे से भारत विमुखता का ऐसा पर्यावरण तैयार किया गया है कि उसकी सार्थकता तक नहीं समझी जाती। राष्ट्रीय हताशा का इससे दुखद प्रमाण नहीं हो सकता कि पहले आपके विचारों को उन देशों के लोग समझें जो ज्ञान को हथियार बनाकर आप पर नियंत्रण करना चाहते हैं और इसलिए लंबे अरसे तक नकारते जाने के बाद निरुत्तर हो जाने की स्थिति में ही किसी बात के कायल होते हैं।

इसके बाद भी इसे भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग के मानस में उतारने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। मुझे यही करना पड़ा।

Post – 2019-01-18

उस शहर में पहुंचा तो सभी लोग थे उदास
पूछी वजह तो बोले, हमें खुद पता नहीं।।

Post – 2019-01-17

जब भी मिलता है मेरे यार भरम होता है।
देखते उम्र गई पर तुझे जाना ही नहीं।।

Post – 2019-01-17

नामवर जी के स्वास्थ्य को ले कर जितने लोग चिंतित होंगे वे सभी पहुंचने लगें तो अस्पताल के लिए समस्या हो जाएगी। क्या निकटस्थ लोग अपने पन्ने पर अद्यतन स्थिति से अवगत कराते रहेंगे?

Post – 2019-01-16

हममें से हिंदू कौन है

नाम नया है, पहचान बदलती रही है। कभी हिंदू के स्थान पर भारती का प्रयोग होता था। यह मौलिक नाम था। यह आटविक अवस्था में उत्तरी अटन क्षेत्र के लिए प्रयोग में आता रहा हो सकता है। भारत का आदिम भाव था, भरण-पोषण का क्षेत्र। बाद में एक राजा ने अपने पुत्र का नाम भरत अर्थात् अपनी प्रजा का भरण-पोषण करने वाला, रखा। परंतु यह उस ऋषि की पुत्री का पुत्र था जो अपने को भरतवंशी कहने पर गर्व करता था। कुछ लोगों ने उसके प्रताप के कारण यह मान लिया कि भारत का नाम उसी के नाम पर पड़ा होगा, जबकि उसका नाम स्वयं एक सदाशयी राजा, अर्थात् प्रजापालक के आशय में, अर्थात् कम से कम लगान वसूल करने वाले शासक के आशय में सोच कर रखा गया था।

आदिम चरण में दक्षिण भारत का एक अलग अटन क्षेत्र था जो मध्य प्रदेश तक फैला था और दूसरा उत्तरी अटन क्षेत्र जो मध्य प्रदेश पर जाकर समाप्त होता था। यह भेद सभ्यता के कई चरणों को झेलता हुआ, संज्ञाएं बदलता हुआ, आज तक जीवित है। इसकी प्रेरणाओं को समझने का कभी प्रयत्न नहीं किया गया। उत्तरी अटन क्षेत्र की संज्ञा जो भी रही हो, इसी के लिए भारत का, आर्यावर्त का, मध्यदेश का, हिंदुस्तान का प्रयोग हुआ। इसे जब भारत कहा जाता था तब इसके निवासियों के लिए भारती का प्रयोग होता था या नहीं यह जानने का हमारे पास कोई उपाय नहीं है। परंतु उत्तर के अटन क्षेत्र के दक्षिण के संपर्क से जो बृहद इकाई बनी थी और जिसे भारतवर्ष कहा जाता था उसके निवासियों के लिए भारती का प्रयोग होता था। अर्थात् भारती अकेला शब्द है जो उत्तर से दक्षिण तक के समूचे भू भाग के निवासियों के लिए प्रयोग में आ सकता था। विष्णु पुराण में भारतवर्ष का सीमांकन था वह भूभाग जो समुद्र से उत्तर की दिशा में और हिमालय से दक्षिण में आता है ।
आजकल हम भारती की जगह भारतीय का प्रयोग करते हैं। परंतु इसमें वह भारतवर्ष नहीं आता क्योंकि आज का भारत सर्वप्रथम इंडिया है, और इसे भारत भी कहा जा सकता है। अपनी मानसिक कुंठा के कारण, न तो हम यह जानते हैं कि हम अपना नाम तक नहीं जानते, न यह जानते हैं कि यह नाम पड़ा क्यों, और यदि सचमुच जानते हैं तो इतने नासमझ हैं कि अपने लिए सही शब्द का चुनाव तक नहीं कर पाते। हमारा संविधान उनके द्वारा लिखा गया जो इंग्लैंड में पढ़े लिखे थे, इंग्लैंड मैं बैठकर भारत को देखते थे, दूसरों से पूछ कर अपने को पहचानते थे। भारत के लिए इंडिया एक अनुचित संज्ञा (मिसनोमर) है, क्योंकि इससे सिंध के उपत्यका क्षेत्र का बोध होता था जो फैल कर सिंधु के पार के उस पूरे उत्तर भारत के लिए प्रयोग में आने लगा जिसे कभी हिंदुस्तान और रामविलास शर्मा के शब्दों में हिंदी प्रदेश और हाल ही में अंग्रेजी के भक्तों द्वारा काउ-बेल्ट कहा जाने लगा है। यह याद दिला दें कि हिंदुस्तान भारतीय चेतना में कभी उस पूरे प्रदेश का द्योतक नहीं रहा जिसे आज के इंडिया या भारत में समाहित किया जाता है। बंगाली आज भी हिंदी भाषी क्षेत्र के लिए हिंदुस्तानी प्रयोग करता है, पंजाबी तक करता है और मध्यकाल में महाराष्ट्र तक पहूंचने वाले मुगल सैनिक भी लंबे समय तक उधर रह जाने के बाद भी हिंदुस्तान लौटने के लिए लालायित रहते थे।
आपको तय करना है कि आप इंडियन हैं या हिंदू है या भारतीय या भारती?