Post – 2019-05-24

हितोपदेश

पंचतंत्र को जिस दूसरे नाम से जाना जाता है वह है हितोपदेश। परंतु उसी हितोपदेश में एक कहानी बया और बंदर की आती है, जिसका सार सत्य है कि हारे हुए व्यक्ति या जुआड़ी को उसके हित के लिए उपदेश या सलाह नहीं देनी चाहिए। इससे वह अपमानित अनुभव करता है। नसीहत बहुत छोटी हैसियत के व्यक्ति द्वारा दी गई हो तो अपमान का यह बोध और अधिक प्रखर हो जाया करता है। सुधरने की जगह वह, अपनी गलती को अधिक हठपूर्वक दुहराता ही नहीं है, नसीहत देने वाले का सर्वनाश करते हुए अपने ‘ स्वाभिमान’ की रक्षा करना चाहता है।

इस शिक्षाप्रद कहानी का सारतत्व यह है कि ऐसे आदमी को उसकी विफलता के बाद सलाह मत दो जो अपने को तुमसे समझदार समझता है और अपनी इज्जत बचाने के लिए अपने को बर्बाद करने का खतरा मोल लेते हुए भी तुम्हें अवश्य बर्बाद कर देगा पर अपने से छोटे से सीखने को तैयार न होगा।

सूक्तियों से कितने लोगों ने सीखा है? वे ज्ञान बघारने के लिए होती हैं, सीखने के लिए नहीं होतीं, इसलिए पंचतंत्र की कहानियों का अनुवाद करने का दावा करते हुए भी मैंने उससे आज तक कुछ नहीं सीखा। अपने को समझा लिया कि जब हमारे देश के किसी आदमी ने पंचतंत्र की कहानियों से कुछ नहीं सीखा, तो मैं उनसे नसीहत लेकर अपनी परंपरा का उल्लंघन नहीं कर सकता।

साथ में यह दुर्बुद्धि पैदा हो जाती है कि तुम्हारा कोई साथी जिसे तुमने बार बार सही रास्ते पर लाने का प्रयत्न किया हो, अपनी आदत के कारण ऐसी अवस्था में पड़ जाए जिसमें उसका सर्वनाश अवश्यंभावी हो तो क्या तुम इस बात का ख्याल करते हुए कि सुरक्षा इसी बात में है कि इसे कोई नसीहत न दी जाए, किनारा कस लोगे? मेरा उत्तर होता है, नहीं। मैं अपने जीते जी उसका सर्वनाश होने नहीं दूंगा, और मैं कहानी की शिक्षा भूल जाता हूं।

मैं अकेला ऐसा नादान नहीं हूं। अपनी जान का खतरा उठाते हुए भी दूसरों को, यहां तक कि अपरिचितों को भी बचाने की कोशिश करने वाले हितोपदेश की चिंता नहीं करते। इसे उनके भीतर काम करने वाली आत्मघाती प्रवृत्ति के अलावा क्या कह सकते हैं।

मैं जानता हूं हिंदी जगत में ही नहीं पूरे भारतवर्ष में बुद्धिजीवियों की जमात हो या ना हो, आत्मघातियों की एक जमात जरूर है जो दूसरों को होश हवास से काम लेने की नसीहत देती रहती है और स्वयं जज्बात से काम लेती है। बुद्धि और आवेग में कौन प्रबल है, कौन अधिक सही है, यह निर्णय करना जिंदगी में आसान नहीं हुआ करता।

मुझे अपनी नसीहत के कारण उसी शत्रु भाव से देखा गया जैसे कहानी के बंदर ने बया को देखा होगा। हर बार मुझे उपेक्षा और तिरस्कार का बोध होता रहा। यह मूल्य देने को तैयार था। परंतु जिन को समझाना चाहता था उनको समझाने में सफल नहीं हुआ। उन्होंने लगातार वही रास्ता अपनाया जिसके विषय में आज से 30 साल पहले मैंने चेतावनी दी थी कि आपका यह रवैया आप को कहीं का न छोड़ेगा। यदि उनका हठ , उनके निर्णय, उनकी प्रगति में सहायक होते, उनकी योजनाओं को सार्थक बनाते तो मैं उनसे सीखने के लिए उपस्थित हो जाता। ऐसा क्या है कि लगातार वे ही गलतियां करते रहे हैं जिनके परिणाम उनको लगातार भोगते रहना पड़ा और मेरी भविष्यवाणियां हर बार सही साबित हुईं?

मैं जानता हूं कि अपने पिछले इतिहास के कुछ दाग होते हैं जिन्हें किसी समाज को अपने अपने हिस्से के अनुसार धोना पड़ता है। जाति धर्म आदि के संकरे दायरे में काम करने वाले समग्र समाज को कितने रूपों में कितनी बार क्षति पहुंचा चुके हैं कि यदि वे उनसे बचना भी चाहें तो उनके लिए इस बात का सबूत दे पाना कठिन होता है कि वे राजनीतिक लाभ के लिए झांसा नहीं दे रहे हैं, सचमुच यह समझ चुके हैं कि उनके पूर्वजों ने गलत रास्ता अपनाया था और अब वे उन्हें दुहराना नहीं चाहते।

इस आश्वासन पर संदेह करने का लाभ उन टिप्पणीकारों को मिल सकता है जो भारतीय जनता पार्टी के सभी दावों, आश्वासनों यहां तक कि कार्यों पर संदेह करते रहे हैं।

परंतु उन्हें घेर घेर कर उसी चारदीवारी में हांक कर कैद करना, सांप्रदायिक भेद रेखा को हर कीमत पर केंद्रीय बनाए रखना अधिक बड़ा अपराध है।

सच तो यह है अपने को उदार, सर्व समावेशी सिद्ध करने का प्रयत्न करने वालों के संसार में उनके लिए भी जगह नहीं है जिन्होंने सबको आज तक अपना बनाकर रखने का प्रयत्न किया है और उनके लिए खुली जगह है जो अपने को अलग रखने के लिए भाषाई, क्षेत्रीय और सांप्रदायिक दीवारें खड़ी करते रहे हैं।

एक दुर्भाग्यपूर्ण सचाई यह है कि जिनको आप संकीर्ण और सांप्रदायिक कहते हैं, उनके पास विकास की योजना है, सबको साथ लेकर चलने का आश्वासन है, उन्होंने बिना किसी भेदभाव के अपनी सभी योजनाओं का लाभ सभी भारतीय नागरिकों को दिया है, वे भारत को राष्ट्र मानते हुए इसके प्रत्येक निवासी को इसका नागरिक मानते हुए उनके हितों के लिए लगातार चिंतित रहे हैं फिर भी उनको लांछित करने के अतिरिक्त आपके पास यदि कोई कार्यक्रम है तो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता की आड़ में सांप्रदायिकता की खेती करना है।

सांप्रदायिक कौन है इसकी पहचान भारतीय नागरिकों को जितनी तेजी से हुई है, उसी अनुपात में आपको अपने अस्तित्व की रक्षा का संकट उग्र से उग्रतर होता दिखाई दे रहा है।

हैरानी इस बात पर भी होती है कि बुद्धिजीवी होने का दावा करने वाले लगातार घृणा प्रचार को अपना सबसे प्रभावशाली हथियार मानते आ रहे हैं, लगातार एक ही बात दुहराते रहने पर लोग किसी भी झूठ को भी सच मान लेते हैं, यह नाजियों का हथियार उनका एकमात्र हथियार बचा रह गया है।

सोचकर पीड़ा होती है। यदि ज्ञान और समझ है तो उसे सामने आना चाहिए। नफरत के लिए ज्ञान की जरूरत नहीं होती और भारत के नागरिकों को इतना ज्ञान अशिक्षित रहने के बाद भी है कि किसी भी बहाने से दूसरों से घृणा करने वाले मनोरोगी होते हैं। इनसे दूर रहना चाहिए। इनकी संगत में यह बीमारी किसी को भी लग सकती है। भारतीय जन ने अपनी रक्षा के लिए ऐसी सोच के लोगों से दूरी बनाकर रहने की समझ पैदा की है, जैसे मच्छरदानी लगा कर लोग मलेरिया के प्रकोप से अपने को बचाने का इंतजाम करते हैं।

जरूरत अफवाहों से बचने और तार्किक आलोचना प्रत्यालोचना की है जिसमें दूसरों को समझाया और अपनी गलतियों से बचा जा सके और देश की जनता से संवाद स्थापित किया जा सके न कि टूटे हुए हथियार संभालते हुए यह दुहराने की कि हम हार कर भागने वाले नहीं हैं। इस इरादे के साथ नए हथियार तो तैयार करें।

Post – 2019-05-23

#साहित्यकार_का_स्वाभिमान और इतिहासकार का दायित्व

बुद्धिजीवी की कोई एक भूमिका नहीं होती – शिक्षक और पत्रकार के रूप उसकी एक भूमिका होती है जिसमें उसका काम जानकारी देना होता है। कलाकार के रूप में वह अन्य बातों के साथ अपने समय के चरित्रों को चित्रित, अभिनीत या मूर्ति कर सकता है। संगीतकार और साहित्यकार के रूप में उसके क्षेत्र की स्वायत्तता इतनी पवित्र होती है कि अपनी भावनाओं को छोड़कर किसी के सम्मुख न झुक सकता है न उसकी प्रशस्ति कर सकता है । ऐसा करते ही वह बंदी जनों की कतार में खड़ा हो जाएगा । एक समय था, जब ईश्वर और देवताओं को छोड़कर किसी अन्य का गुणगान किया ही नहीं जा सकता था। देवताओं के समकक्ष इतिहासपुरुष या युग नायक भी हुआ करते थे। उन्हें यह महिमा जनता प्रदान करती थी जिसके गायन, कथन आदि से उसकी छवि उत्तरोत्तर ऊपर उठती हुई देवोपम हो जाया करती थी। सौंदर्य चेतना के विकास के साथ दुखी और अन्याय और अत्याचार के शिकार मनुष्य को वही महत्त्व प्राप्त हो गया जो देवताओं और जननायकों को प्राप्त था।

इतिहासकार की भूमिका और दायित्व इन सभी से अलग है। उसके लिए ऐसी कोई भी परिघटना जो हमारे सामाजिक, आर्थिक और आत्मिक जगत को बड़े पैमाने पर आंदोलित करता या बदलती है, वह भली हो या बुरी, कल्याणकारी हो या अनिष्टकारी; मनुष्य द्वारा, मनुष्यों के दल के द्वारा की गयी हो या प्राकृतिक कारणों से घटित हुई हो, या अकर्मण्यता, भ्रष्टता या विलासिता से उत्पन्न शून्य के कारण अपरिहार्य हो गयी हो। इतिहासकार के लिए घटना या क्रिया, और कारक (जीवन और व्याकरण दोनों में छह कारक होते है) और परिणाम का महत्त्व होता है, नैतिक मूल्यों के लिए उसके क्षेत्र में जगह नहीं होती। वह वर्णन करता है, मूल्यांकन नहीं करता।

मैं फेसबुक पर सामान्यतः इतिहासकार के रूप में उपस्थित रहता हूं । इसके बाद भी मैं जिस बिरादरी का सदस्य हूं वह बुद्धिजीवियों की साझी बिरादरी है, जिसका एक साझा स्वायत्तता का क्षेत्र है, जिसमें वह अपने अधिकारों की मांग करता है और किसी की दखलंदाजी का विरोध करता है, जिसके भीतर स्वायत्तता के कई उपक्षेत्र हैं, जिनकी न तो इन क्षेत्रों के लोगों को स्पष्ट समझ है, न उनका सम्मान करते हैं। समझ के स्तर पर भारतीय बुद्धिजीवियों में गिरावट इतनी जाहिर है कि बुद्धिजीवी अपने को सही साबित करने के लिए अनुभव और दृष्टिकोण की बात नहीं करते, सूक्तियां दोहराते हैं जो यदा कदा देसी पर सामान्यतः विदेशी होती हैं और उन पर सही उतरने का प्रयत्न करते हैं। सोचने समझने से इससे इतना आराम मिल गया है कि हासिल करने को ख्याति ही बची रहती है।

साहित्य क्या है ? समाज का दर्पण है। प्रेमचंद ने कहा था तो गलत कैसे हो सकता है ! साहित्यकार क्या है? राजनीति के आगे चलने वाला मशाल है। साहित्यकार क्या होता है? वह प्रगतिशील होता है।

ये विचार वह कहां प्रकट कर रहे थे? 1936 के पहले प्रगतिशील सम्मेलन के अवसर पर। क्या वह पहले से प्रगतिशील संघ के सदस्य थे? नहीं। प्रगतिशील संघ क्या था, समाजवादी या साम्यवादी सोच के साहित्यकारों का जमघट। अपनी प्रतिष्ठा के लिए प्रगतिशील संघ से जुड़े हुए लोगों के आग्रह पर वह उसमें शामिल होने के लिए तैयार हो गए और वह भाषण दिया। प्रगतिशील लेखक लेखक संघ के संयोजकों का लक्ष्य था प्रेमचंद को समाजवादी और साम्यवादी राजनीति का हिस्सा बनाना। इसका वे लगातार लाभ उठाते रहे और यह सिद्ध करते रहे कि प्रेमचंद ने अपनी बौद्धिक विकास यात्रा के अंतिम चरण पर साम्यवाद को स्वीकार कर लिया था। उनके उक्त कथन को इसका प्रमाण बनाया जाता है।

प्रेमचंद के जुमले हमारी सोच समझ की समस्याओं का बेड़ा पार कर देते हैं। प्रेमचंद के कथन निठल्ले मार्क्सवादियों के लिए नजर का काम नहीं करते, नजीरो का काम करते हैं। ऐसी उक्तियों का संग्रह कर दिया जाए तो वह गुटका प्रगतिशील साहित्यकारों का कुरान बन जाए। दिमागी ठहराव का ऐसा नमूना कहीं नहीं मिलेगा जैसा प्रगतिवादी सोच विचार में देखने में आता है । प्रगतिशील भारतीय लोकतंत्र में व्यक्ति की स्वतंत्रता की बात रखते हैं और अपने संगठनों में सोचने तक की स्वतंत्रता को सहन नहीं कर पाते। हम इसके लिए उनको दोष नहीं देते । संगठनों की मजबूरियां हुआ करती हैं परंतु या तो स्वीकार करना ही होगा कि बौद्धिक मामले में बंदी होते हैं। स्वतंत्रता को किन परिस्थितियों में, किन सीमाओं में, किन जिम्मेदारियों के साथ, किन कुर्बानियों के बाद प्राप्त किया जाता है इसका बोध भी उनके भीतर नहीं पाया जाता।

पहले हमें प्रेमचंद को समझना होगा, और फिर यह समझना होगा प्रेमचंद साहित्य के धर्म शास्त्र नहीं है। उन्होंने जो कुछ कहा उसके पीछे उनका चिंतन था और जिस रूप में कहा वह बिल्कुल सटीक हो पाया हो यह जरूरी नहीं। उदाहरण के लिए जैसे साहित्य से समाज ही गायब हो सामाजिक यथार्थ ही गायब हो तो वह साहित्य नहीं है। उन्होंने इसके लिए दर्पण का प्रयोग किया। दर्पण केवल दिखाता है दृष्टि नहीं देत। साहित्य दृष्टि भी देता है, दृश्य और परिदृश्य को बदलता भी है। वह एक साथ आईना भी होता है, सूक्ष्मदर्शी भी होता है और दूरबीन या दूरदर्शी होता है।

जब वह कह रहे थे साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल होता है तो राजनीतिज्ञों के सामने झुकने या उनके द्वारा सुझाए गए रास्ते पर चलने से इंकार कर रहे थे, जबकि प्रगतिशील लेखक संघ राजनीति के पीछे चलने की बात कर रहा था।

प्रेमचंद ने कहा कि साहित्यकार होता ही प्रगतिशील है तो वह कह रहे थे कि तुम उसकी प्रगतिशीलता को कम करके किसी राजनीति का बंधक बनाना चाहते हो। प्रेमचंद लेखक के लिए विचारधारा से जुड़े हुए बंधन का निषेध कर रहे थे।

भूमिका लंबी हो गई। स्वभाव की विवशता। परंतु इससे यह तो पता चल ही गया ही गया कि बौद्धिक आलस्य के कारण न तो हम सोच पा रहे हैं, न जिसे आप्त मान कर उद्धृत करते हैं, उसे देश काल, परिस्थिति और पृष्ठभूमि के संदर्भ में समझ ही पा रहे हैे। अपना काम करने की जगह जो कुछ दे सकते हैं उनके पीछे लगते हुए नारे लगाते हुए उसे पाने की आकांक्षा में उनके चाकर का काम कर रहे हैं, और इसकी क्षतिपूर्ति करने को मसीहाई अंदाज में बात भी कर रहे हैं ।##

Post – 2019-05-21

जुगाली

1. अजीब बात है, हर आदमी गाली दूसरों को देना चाहता है, किसी से पाना नहीं चाहता। इसमें केवल एक अक्षर के जुड़ जाने के बाद किसी से साझा नहीं करना चाहता, अकेले तब तक चूसता चुभलाता रहता है जब तक वह गायब ही न हो जाए।

2. क्या आपने गौर किया है कि जागते हुए आदमी दुनिया को गाली देता रहता है और बंद या खुली आँखों का सपना देखते हुए जुगाली करता रहता है?

3. क्या आपने इस बात पर गौर किया है कि यह दुनिया जो समस्त ब्रह्मांड के सभी ग्रहों और नक्षत्रों में अनुपम है, उसको ‘समझदार’ लोग कोसते हैं। मानव जीवन जो भाग्यवान लोगों को बड़े भाग्य से मिलता है, अभागे ‘समझदार’ लोग उसे दुखों की खान बताते हुए उससे मुक्ति पाने के लिए जीवन भर साधना करते रहते हैं और इसे पाकर भी व्यर्थ कर देते हैं?

4. बुद्धिमान आदमी वह है जो न जीना चाहता है न किसी को जीने देना चाहता है।

5. बुद्धिमान आदमी स्वयं तो कल्प कोटि वर्ष तक जीना चाहता है। दूसरों का जीना मुश्किल कर देता है।

6. इतनी लंबी आयु पाने के लिए उसको असंख्य लोगों की जिंदगी छीननी पड़ती है – या तो वह जिंदा रहे और उसके अनुयायी मरते रहें. या सभी जिंदा रहे हैं, और उसकी उम्र भी कम हो जाए। उस दशा में वह अपनी जिंदगी के बाद जिंदा रहना चाहे तो तभी रह सकता है, जब जिंदगी को बचाने के सूत्र उसके विचारों में हों।

7. सभी धर्मों, सभी ‘ऊँचे’ विचारों का जन्म निराशा से होता है, आशा के संचार का आश्वासन देते हुए उनका विस्तार होता है, और जीवन विरोधी पागलों की जमात पैदा करने के रूप में उनका तंत्र स्थापित होता है।

8. आप जीना चाहते हैं तो, आपको अपने फैसले स्वयं करने होंगे, जैसे कम पढ़े लिखे लोग करते हैं। मरना चाहते हैं, तो बुद्धिमानों की मदद लेनी होगी।

9. जो लोग मुझे जानते हैं वे मुझे औसत दिमाग का मानते हैं और मैं भी उनके साथ खड़ा रहता हूं, इसलिए वे यह विश्वास नहीं कर सकते कि इतने प्रखर विचार मेरे दिमाग में पैदा कैसे हो गए।

10. यहां भी मैं उनका साथ देना चाहता हूं, ये विचार विचार होकर भी विचार नहीं हैं, आंखों देखे को बयान करने की कोशिश मात्र हैं। हमारे बुद्धिजीवी, पत्रकार, शिक्षाविद, आंदोलनकारी, राजनीतिज्ञ सभी के सभी पिछले 5 सालों से एक ही बात दोहराते हुए, एक ही मुकाम पर टिके रहते हुए, यह क्यों सिद्ध करते रहे कि उनके पास बुद्धि तो है, विचार की कमी है । प्रगति से प्रेम तो है, पर ‘पावों में नहीं जुंबिश आँखों में भी कम है, रहने दो अभी क्रांति का नक्शा मेरे आगे’ की खबीस चाहत सब पर भारी पड़ती है।

11. अब आपकी समझ में यह बात आ गई होगी कि मैं बुद्धिमानों की कोटि में आने से डरता क्यों हूं और औसत दिमाग का कहे जाने पर सुकून क्यों अनुभव करता हूँ।

Post – 2019-05-21

सभ्यता का विकास और जाहिलिया की अवधारणा-2

यदि पाश्चात्य अध्येता अन्य सभ्यताओं के उदात्त पक्षों का सही मूल्यांकन नहीं कर सके तो उनसे शिकायत नहीं। बुद्धिमान से बुद्धिमान मनुष्य पूर्वाग्रहों के कई आवरण में घिरा होता है। उन से मुक्त होने के प्रयत्न के बाद भी वह मुक्त नहीं हो पाता। महान लोग भी अनेक मानदंडों पर पूरे नहीं उतरते। इस दिशा में वे निरंतर सचेत और प्रयत्नशील रहे, यही अपने आप में सराहनीय है। कई बार तो ये अपेक्षाएँ भी अंतर्विरोधी होती हैं। वीरता, मूढ़ता और क्रूरता में अंतर करना कठिन हो जाता है। अनुपात, परंपरा और परिवेश की भिन्नता से गुण दुर्गुण में बदल सकता है।

पश्चिमी जगत ने हाल की सदियों में सभ्याचार की दिशा में भी अभूतपूर्व प्रगति की हैं। इसके बाद भी दबंगई की लालसा उनके विवेक पर भारी पड़ती रही है। इसके कारण जितनी विस्मित करने वाली उसकी उपलब्धियाँ हैं, उतनी ही विस्मयकारी, उन्हीं क्षेत्रों में उसकी विफलताएं भी हैं।

ध्यान दें कि लूटपाट और शोषण के लंबे दौर में हासिल की गई भौतिक संपन्नता के बाद, हाल के दिनों में, जीवों-जंतुओं के प्रति, किसी अन्य समाज की तुलना में अधिक संवेदनशील तथा अभाव और दुर्भिक्ष निवारण के लिए किसी भी देश की सहायता को तत्पर समाज, मनुष्यता का संहार करने वाले हथियारों का उत्पादन करता है। हथियार बेचने के लिए, दुनिया के उन्हीं विपन्न देशों में कूटनीतिक जोड़-तोड़ से फसाद पैदा करते हुए उन्हें आपस में लड़ाने, उन पर स्वयं भी सीधे प्रहार करने, उनकी लोक-कल्याणकारी विरासतों और आधुनिक निर्मितियों को नष्ट करने को अपनी कूटनीतिक और सामरिक उपलब्धि मानता है। उन्हीं को अधिक कंगाल, बीमार और भुखमरी का शिकार बनाने में संकोच नहीं करता, जिन पर तरस खाकर आँसू बहाता है। अन्य प्राणियों की पीड़ा से पसीजने वाले समाज की मनुष्य के प्रति क्रूरता मध्यकाल के दुर्दांत सभ्यता-द्रोहियों से किस मानी में कम है? सभ्यता द्रोही सभ्य और सदाचारी कैसे हो सकता है? प्राणियों पर दया और आहार के लिए उनका वध एक साथ कैसे चल सकता है? ऐसे में चालाक लोग अपने बचाव के लिए परिभाषाएं और जीत के लिए खेल के नियम बदल दिया करते हैं। मनुष्यता को शैतानों से नहीं, गलत परिभाषाओं से लड़ना पड़ता है।

ध्यान दें कि फासिस्ट और नाजी मनुष्य को, एक छलांग में, महामानव की ऊंचाई तक ले जाना चाहते हैं और पैशाचिकता की नई परिभाषा गढ़ देते हैं। तथाकथित सभ्य समाज एक ओर तो उनके पैशाचिक कृत्यों की जोरदार भर्त्सना करते हुए अपने पापों से मुक्त और निष्कलंक सिद्ध करने का प्रयत्न करता है, दूसरी ओर निरूपाय समाजों और देशों के साथ उससे कई गुना जघन्य अपराध करता है और आज भी लगातार करता रहता हैं।

एक दूसरी व्याधि है पश्चिम की आधुनिक सफलता से पैदा हुई उन्मत्तता जिसके चलते वे सभ्यता के चरित्र की समझ ही भुला बैठे और इसे कभी रंग, कभी जाति, कभी देश या दिशा से और कभी एक साथ सभी से जोड़ कर देखने लगे। कोमेगर की पुस्तक ‘ The Empire of Reason[1] न पढ़ रहा होता तो मेरा ध्यान इस ओर न जाता, और इसकी पड़ताल करने की चिंता न करता। हम अपनी जानकारी और कार्य क्षेत्र के कुछ उदाहरणों से इसे स्पष्ट करना चाहेंगे। वे अपने मानदंडों पर भी खरे नहीं उतरते, सभ्यता के अनिवार्य मानदंडों पर भी विफल सिद्ध होते हैं ।
[1] कोमेगर अमेरिका की तुलना में यूरोप की उपलब्धियों को उसी तरह तुच्छ बना देते हैं, जैसे यूरोपीय विद्वान सभ्यता के उत्थान में एशिया के योगदान को तुच्छ सिद्ध करते रहे हैं. ”The Old world imagined, Invented, and formulated the enlightenment, the New World – certainly the Anglo-American part of it – realised it and fulfilled it. (The Empire of Reason – How Europe imagined and America Realised the Enlightenment, Preface, Anchor Pess, New York,1977).

उनकी समझ में यह तक नहीं आया कि कम से कम अपनी साख बचाने के लिए ही असंख्य अंतर्विरोधों से ग्रस्त, आर्यों की जाति, आर्यों के आगमन, आर्यों के आदि देश, आदि के विषय में परस्पर अनमेल दावों को देखते हुए, उल्टी सीधी बातें करना छोड़ देना चाहिए।

कि अकाट्य प्रमाणों से, जिनको नकारना उनके लिए भी संभव न रह गया, यह मान लेने के बाद कि आर्य विशेषण को आधार बनाकर रचा गया साहित्य काल्पनिक था वैदिक सभ्यता के स्तर के विषय में और संस्कृत भाषा के उद्गम क्षेत्र के विषय में भी अपना दृष्टिकोण बदल लेना चाहिए।

वे ऐसा नहीं कर सके क्योंकि वे अपनी धौंस जमाने के लिए लगातार धांधली से काम लेते रहे हैं और इसलिए इस बात की चिंता किए बिना ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें करते, सुझाव देते, और एक झूठ के पकड़े जाने पर अदल-बदल कर दूसरे बहानों से उसे निर्लज्जता पूर्वक दोहराते रहे हैं, जो लाइलाज अपराधियों के मामले में ही देखने में आता है।

हम जाहिलिया पर विचार कर रहे हैंं और इस विस्तार में जाना इसलिए जरूरी हुआ यह स्पष्ट किया जा सके कि बौद्धिक, आत्मिक और भौतिक प्रगति के बाद भी, प्रत्येक समाज अपने ही भीतर के कुछ लोगों के स्वार्थ के कारण अंतर्विरोधों से इतना ग्रस्त रहता है कि एक भिन्न दृष्टि से विचार करने पर उसे जाहिल सिद्ध किया जा सकता है और लगातार किया जाता रहा है। अपनी श्रेष्ठता के लिए दूसरों को जाहिल कहने की जरूरत इब्राहिमी मजहबों को इसलिए हुई कि वे स्वयं जहालत से ग्रस्त थे। आगे बढ़ने के लिए पश्चिम एशियाई भारतीयों से युनानियों की तरह दर्शन, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अनुकरण या शिक्षा ग्रहण करने की जगह धर्म और विश्वास के क्षेत्र में उनके समकक्ष आने की कोशिश की। उन्होंने उनकी प्रेरणा से एक नए मजहब का सूत्रपात किया जो न तो उनकी परिस्थितियों की उपज था, न ही जरूरत, इसलिए किसी भी पक्ष को न तो सलीके से ग्रहण कर सके, न ही जिन्हें ग्रहण किया उनका निर्वाह कर सके। उन्होंने सभ्य होने की जगह एक तरह की जहालत को दूसरे तरह की जहालत से बदल दिया।

भारत में मूल्य व्यवस्था और विश्वास दो स्रोतों पर आधारित था। एक सामाजिक आर्थिक गतिविधियों के क्रम में अनेक आदिम विश्वासों वाले समुदायों का जुड़ाव, जिन्हें अपने विश्वास के अनुसार जीने की छूट थी ।इसके कारण प्रकृतिवाद, बहुदेववाद, पितृपूजा को स्थान मिला। दूसरा था कृषिक्रांति की अपेक्षाओं के अनुसार नए मूल्यों और आदर्शों की स्थापना जिममें कुछ पुराने मूल्यों को भी जगह मिली। इसके साथ ही लेन-देन का चलन (बार्टर या वस्तु विनिमय) के साथ यह समझ पैदा हुई कि कुछ पाने के लिए उसके बदले में कुछ देना होता है। इसमें प्राकृतिक शक्तियों का अनुग्रह पाने के लिए उनको तो तुष्ट करने के लिए देवभाग अर्पित करने की परिपाटी आरंभ हुई जिसने कर्मकोंडीय यज्ञ विधान का रूप लिया।
इस आधारभूमि के ऊपर अमूर्त चिंतन और तत्वदर्शन का आटोप खड़ा हुआ । अब सृष्टि, स्रष्टा, जीवन का रहस्य, मरणोत्तर जीवन आदि के विषय में ऊहापोह आरंभ हुआ जिसमें सामाजिक, न्यायिक, व्यावहारिक समस्याओं के समाधान की भी कड़़ियां जुड़ीं। भारतीय समाज इन सभी अवस्थाओं से गुजर चुका था उसके बाद एशिया में उसकी धाक जमी। भारत में इन सभी पक्षों को देखा, पहचाना और विश्लेषित किया जा सकता है, इब्राहिमी परिवेश और प्रभाव में सब कुछ घालमेल की अवस्था में है।
जाहिलिया की अवधारणा भी यहीं आरंभ हुई जिसमें कृषि उत्पादन न अपनाने वालों को, इसमें बाधा डालने वालोें, खड़ी खेता को नोच खसोट जाने वालों को मूर (मूढ़), अकर्मा, दस्यु, आदि कह कर निंदा की जाती रही और उन्हें धर्म बदलने के लिए नहीं जीविका का साधन बदलने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया जाता रहा।

Post – 2019-05-20

फिर वही बात कहूंगा तुझसे
याद तुझको न किया
फिर तो किसी को भी नहीं।

Post – 2019-05-20

भारतीय बुद्धिजीवी

सोच रहा था
कि कोई सोच रहा है
बस मेरे लिए,
मेरा बना,
मेरी तरह ही।

मैं खुश था कि
यह आखिरी झंझट भी मिट गई
बस मौज है, हर मौज और मेरे लिए ही।।

Post – 2019-05-19

नरेंद्र मोदी की शिव साधना

एग्जिट पोल के अनुमानों से ऐसा लगता है शिव ने नरेंद्र मोदी की प्रार्थना स्वीकार कर ली। अंतिम परिणाम अधिक अनुकूल हो सकते हैं। संभव है, एबीपी के आकलन के अनुसार भी चले जाएं।

मेरे लिए परिणामों का उतना महत्व नहीं है, जितना प्रचार के दौरान आने वाली सांस्कृतिक गिरावट या मूल्यों की रक्षा का। चुनाव के परिणाम जो भी हों, प्रचार अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी के विरोधियों ने परास्त कर दिया। प्रचार में हारे हुए नरेंद्र मोदी प्रचार में जीते हुए विरोधियों को अपनी देशनिष्ठा, कार्यनिष्ठा और लोकनिष्ठा के बल पर उन्हें परास्त करने के विश्वास से भरे थे जिसकी पुष्टि ‘मोदी मोदी’ के नारों और अपनी जनसभाओं में अपार भीड़ से होते हुए देख कर आश्वस्त तो थे, पर परिणाम के प्रति उनके आत्मविश्वास में कमी आती गई थी। उनके कद के राजविद के आत्मविश्वास के स्तर में हो रहे इस क्षरण का मूक दर्शक मैं अकेला था या कुछ लोग और थे, इसका निर्णय जानकारी के अभाव में मैं नहीं कर सकता।

एक धूर्त व्यक्ति, दूसरे पक्ष को संभ्रमित करने के लिए जो हथकंडे अपनाता है, जिस तरह का प्रदर्शन करता है, वैसा मनोयोग से अपना काम करने वाले और अन्य किसी बात पर ध्यान न देने वाले ईमानदार व्यक्तियों के लिए संभव ही नहीं है। कोशिश करने के बाद भी संभव नहीं है।

जो कौशल चाटुकार के पास होता है, वह ईमानदार के पास नहीं होता। जिस व्यक्ति या समाज को किसी धूर्त व्यक्ति ने पहले कई बार ठगा हो, और जो उसके चरित्र को पहचान गया हो, सावधान रहना चाहता हो, उसे वह अपनी कला से उसकी सावधानी के बावजूद ठग लेता है और इसलिए दुबारा ठग सकता है, मानव स्वभाव की इस दुर्बलता के ज्ञान के कारण, मोदी अपने अभियान के क्रम में अपना आत्मविश्वास खोते जा रहे थे।

विरोधियों की भाषा के विषय में मुझे उसकी जघन्यता के बाद भी कोई शिकायत नहीं है, मरता क्या ना करता। मोदी की समझ पर भी मुझको संदेह नहीं है, मामूली प्रलोभन से भूखे और मरणासन्न व्यक्ति से कुछ भी कराया जा सकता है- बुभुक्षितः किं न करोति पापं क्षीणा नराः निष्करुणा भवन्ति – इसलिए नरेंद्र मोदी अपने लोकानुभव के कारण फर्जी प्रलोभनों के सम्मुख उनकी निरुपायता का अनुमान करके उनके द्वारा अपनेे कारनामों के आकलन के प्रति आशंकित अनुभव करने लगे थे।

जनता, अपने अभावों से ग्रस्त जनता, आशा की किरण देखते ही यह विश्वास पाल लेती है कि बदलाव के साथ ही उसकी सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। कुछ का होता है, अधिकांश का नहीं हो पाता। ऐसे लोग घबराहट में सोचते हैं कि यदि नया बदलाव हो तो संभव है उनकी सभी समस्याएं सुलझ जाएं। वे डांवाडोल होते हैं, और छोटे-छोटे प्रलोंभनों से पाला बदल सकते हैं। 1 दिन की मस्ती, 1 दिन की मुफत की मजदूरी भी उन्हें सौभाग्य प्रतीत होती है।

कांग्रेस ने गरीबी को सोच समझ कर बनाए रखने और उसका चुनावी लाभ उठाने का एक तंत्र विकसित कर रखा है जो उसे लाभ भी देता आया है। मैं नहीं जानता नरेंद्र मोदी के दिमाग में सचमुच ये ही ऊहापोह काम कर रहे थे या नहीं । सोचता यह अवश्य रहा कि उनकी भाषा में, विषयों और आश्वासनों के चुनाव में जो स्खलन आया था, उससे बच सके होते तो उनको जो लाभ मिला होता उसका वह अनुमान तक नहीं लगा सके।

काम करने वाला जब अपने काम की प्रशंसा स्वयं करने लगता है तो उससे उसे लाभ नहीं होता, हानि अवश्य होती है। मोदी को भी हुई।

अब लगता है, चार सौ से अधिक की भविष्यवाणी करने वाले गलत नहीं थे। उन्हें स्वयं मोदी ने गलत किया। उनके अनुभव और निर्णय क्षमता पर मुझे खासा विश्वास है। यदि चुनाव के पूर्वानुमान सही सिद्ध होते हैं तो भी वे सही से कुछ कम सही माने जा सकते हैं, क्योंकि मोदी के आरंभिक आत्मविश्वास में आने वाली गिरावट को या तो वह जानते हो सकते हैं या मैं लक्ष्य करने का दावा कर सकता हूं । मोदी अपने विरोधियों से जीत भी जाएं, जो सुनिश्चित लगता है, तो भी वह अपने आप से हारे और ओछी हरकतों से बचने के अपने संघर्ष के कारण परास्त नहीं हुए।

नरेंद्र मोदी के विषय में इतने दुष्प्रचार किए गए हैं कि दूसरा कोई लानतों के दबाव में ही दफन हो जाता । इसलिए यह मानने को कोई ऊंचे तेवर का व्यक्ति तैयार नहीं होगा कि वह पाखंडी नहीं हैं। शिव के प्रति उनकी श्रद्धा राजनीतिक हथकंडा नहीं है। यह उनकी गहन आस्था से जुड़ा हुआ प्रश्न है। इसलिए केदारनाथ का उनका दर्शन दिखावा नहीं था।

परंतु इसके समय को देखते हुए मैं यह कल्पना करता हूं कि उन्होंने शिव के समक्ष प्रार्थना में क्या कहा। कहा यह कि “अंतर्यामी! तुमसे क्या छिपा है? यदि मैंने सच्चे मन से देशहितऔर राजधर्म का पालन किया हो तो मेरे सम्मान की रक्षा करना ।”

और एकांत गुफा में साधना करते हुए उन्होंने अपना समय आत्मनिरीक्षण में बिताया कि अब तक मैंने जो कुछ किया उसमें कहां कोई चूक हुई है।

ये दोनों इस बात के प्रमाण हैं कि वह स्वयं भी भीतर से हिल गए थे।

नहीं जानता मेरा यह कल्पना महल कितना वस्तुपरक है। प्रयत्न इसी का किया है। नौटंकीबाज नेताओं और सिद्धांतहीन राजनीति के बीच मोदी वर्तमान भारत की जरूरत हैं।

Post – 2019-05-18

मुझ पर हंसना है तो कुछ और इंतजार करें।
आप पर रोता रहा, हिचकियां थमें तो मेरी!

Post – 2019-05-17

सुनते हैं रोशनी भी होती है
हम भी कल घर जला के देखेंगे।

Post – 2019-05-17

डर गया देख के आईना सितमगर देखो
सच का साया भी गुणा करके जख्म देता है।।