हितोपदेश
पंचतंत्र को जिस दूसरे नाम से जाना जाता है वह है हितोपदेश। परंतु उसी हितोपदेश में एक कहानी बया और बंदर की आती है, जिसका सार सत्य है कि हारे हुए व्यक्ति या जुआड़ी को उसके हित के लिए उपदेश या सलाह नहीं देनी चाहिए। इससे वह अपमानित अनुभव करता है। नसीहत बहुत छोटी हैसियत के व्यक्ति द्वारा दी गई हो तो अपमान का यह बोध और अधिक प्रखर हो जाया करता है। सुधरने की जगह वह, अपनी गलती को अधिक हठपूर्वक दुहराता ही नहीं है, नसीहत देने वाले का सर्वनाश करते हुए अपने ‘ स्वाभिमान’ की रक्षा करना चाहता है।
इस शिक्षाप्रद कहानी का सारतत्व यह है कि ऐसे आदमी को उसकी विफलता के बाद सलाह मत दो जो अपने को तुमसे समझदार समझता है और अपनी इज्जत बचाने के लिए अपने को बर्बाद करने का खतरा मोल लेते हुए भी तुम्हें अवश्य बर्बाद कर देगा पर अपने से छोटे से सीखने को तैयार न होगा।
सूक्तियों से कितने लोगों ने सीखा है? वे ज्ञान बघारने के लिए होती हैं, सीखने के लिए नहीं होतीं, इसलिए पंचतंत्र की कहानियों का अनुवाद करने का दावा करते हुए भी मैंने उससे आज तक कुछ नहीं सीखा। अपने को समझा लिया कि जब हमारे देश के किसी आदमी ने पंचतंत्र की कहानियों से कुछ नहीं सीखा, तो मैं उनसे नसीहत लेकर अपनी परंपरा का उल्लंघन नहीं कर सकता।
साथ में यह दुर्बुद्धि पैदा हो जाती है कि तुम्हारा कोई साथी जिसे तुमने बार बार सही रास्ते पर लाने का प्रयत्न किया हो, अपनी आदत के कारण ऐसी अवस्था में पड़ जाए जिसमें उसका सर्वनाश अवश्यंभावी हो तो क्या तुम इस बात का ख्याल करते हुए कि सुरक्षा इसी बात में है कि इसे कोई नसीहत न दी जाए, किनारा कस लोगे? मेरा उत्तर होता है, नहीं। मैं अपने जीते जी उसका सर्वनाश होने नहीं दूंगा, और मैं कहानी की शिक्षा भूल जाता हूं।
मैं अकेला ऐसा नादान नहीं हूं। अपनी जान का खतरा उठाते हुए भी दूसरों को, यहां तक कि अपरिचितों को भी बचाने की कोशिश करने वाले हितोपदेश की चिंता नहीं करते। इसे उनके भीतर काम करने वाली आत्मघाती प्रवृत्ति के अलावा क्या कह सकते हैं।
मैं जानता हूं हिंदी जगत में ही नहीं पूरे भारतवर्ष में बुद्धिजीवियों की जमात हो या ना हो, आत्मघातियों की एक जमात जरूर है जो दूसरों को होश हवास से काम लेने की नसीहत देती रहती है और स्वयं जज्बात से काम लेती है। बुद्धि और आवेग में कौन प्रबल है, कौन अधिक सही है, यह निर्णय करना जिंदगी में आसान नहीं हुआ करता।
मुझे अपनी नसीहत के कारण उसी शत्रु भाव से देखा गया जैसे कहानी के बंदर ने बया को देखा होगा। हर बार मुझे उपेक्षा और तिरस्कार का बोध होता रहा। यह मूल्य देने को तैयार था। परंतु जिन को समझाना चाहता था उनको समझाने में सफल नहीं हुआ। उन्होंने लगातार वही रास्ता अपनाया जिसके विषय में आज से 30 साल पहले मैंने चेतावनी दी थी कि आपका यह रवैया आप को कहीं का न छोड़ेगा। यदि उनका हठ , उनके निर्णय, उनकी प्रगति में सहायक होते, उनकी योजनाओं को सार्थक बनाते तो मैं उनसे सीखने के लिए उपस्थित हो जाता। ऐसा क्या है कि लगातार वे ही गलतियां करते रहे हैं जिनके परिणाम उनको लगातार भोगते रहना पड़ा और मेरी भविष्यवाणियां हर बार सही साबित हुईं?
मैं जानता हूं कि अपने पिछले इतिहास के कुछ दाग होते हैं जिन्हें किसी समाज को अपने अपने हिस्से के अनुसार धोना पड़ता है। जाति धर्म आदि के संकरे दायरे में काम करने वाले समग्र समाज को कितने रूपों में कितनी बार क्षति पहुंचा चुके हैं कि यदि वे उनसे बचना भी चाहें तो उनके लिए इस बात का सबूत दे पाना कठिन होता है कि वे राजनीतिक लाभ के लिए झांसा नहीं दे रहे हैं, सचमुच यह समझ चुके हैं कि उनके पूर्वजों ने गलत रास्ता अपनाया था और अब वे उन्हें दुहराना नहीं चाहते।
इस आश्वासन पर संदेह करने का लाभ उन टिप्पणीकारों को मिल सकता है जो भारतीय जनता पार्टी के सभी दावों, आश्वासनों यहां तक कि कार्यों पर संदेह करते रहे हैं।
परंतु उन्हें घेर घेर कर उसी चारदीवारी में हांक कर कैद करना, सांप्रदायिक भेद रेखा को हर कीमत पर केंद्रीय बनाए रखना अधिक बड़ा अपराध है।
सच तो यह है अपने को उदार, सर्व समावेशी सिद्ध करने का प्रयत्न करने वालों के संसार में उनके लिए भी जगह नहीं है जिन्होंने सबको आज तक अपना बनाकर रखने का प्रयत्न किया है और उनके लिए खुली जगह है जो अपने को अलग रखने के लिए भाषाई, क्षेत्रीय और सांप्रदायिक दीवारें खड़ी करते रहे हैं।
एक दुर्भाग्यपूर्ण सचाई यह है कि जिनको आप संकीर्ण और सांप्रदायिक कहते हैं, उनके पास विकास की योजना है, सबको साथ लेकर चलने का आश्वासन है, उन्होंने बिना किसी भेदभाव के अपनी सभी योजनाओं का लाभ सभी भारतीय नागरिकों को दिया है, वे भारत को राष्ट्र मानते हुए इसके प्रत्येक निवासी को इसका नागरिक मानते हुए उनके हितों के लिए लगातार चिंतित रहे हैं फिर भी उनको लांछित करने के अतिरिक्त आपके पास यदि कोई कार्यक्रम है तो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता की आड़ में सांप्रदायिकता की खेती करना है।
सांप्रदायिक कौन है इसकी पहचान भारतीय नागरिकों को जितनी तेजी से हुई है, उसी अनुपात में आपको अपने अस्तित्व की रक्षा का संकट उग्र से उग्रतर होता दिखाई दे रहा है।
हैरानी इस बात पर भी होती है कि बुद्धिजीवी होने का दावा करने वाले लगातार घृणा प्रचार को अपना सबसे प्रभावशाली हथियार मानते आ रहे हैं, लगातार एक ही बात दुहराते रहने पर लोग किसी भी झूठ को भी सच मान लेते हैं, यह नाजियों का हथियार उनका एकमात्र हथियार बचा रह गया है।
सोचकर पीड़ा होती है। यदि ज्ञान और समझ है तो उसे सामने आना चाहिए। नफरत के लिए ज्ञान की जरूरत नहीं होती और भारत के नागरिकों को इतना ज्ञान अशिक्षित रहने के बाद भी है कि किसी भी बहाने से दूसरों से घृणा करने वाले मनोरोगी होते हैं। इनसे दूर रहना चाहिए। इनकी संगत में यह बीमारी किसी को भी लग सकती है। भारतीय जन ने अपनी रक्षा के लिए ऐसी सोच के लोगों से दूरी बनाकर रहने की समझ पैदा की है, जैसे मच्छरदानी लगा कर लोग मलेरिया के प्रकोप से अपने को बचाने का इंतजाम करते हैं।
जरूरत अफवाहों से बचने और तार्किक आलोचना प्रत्यालोचना की है जिसमें दूसरों को समझाया और अपनी गलतियों से बचा जा सके और देश की जनता से संवाद स्थापित किया जा सके न कि टूटे हुए हथियार संभालते हुए यह दुहराने की कि हम हार कर भागने वाले नहीं हैं। इस इरादे के साथ नए हथियार तो तैयार करें।