क्या तुझको कभी देख न पाएंगे सितमगर?
बस जख्म ही देखेंगे तुझे याद करेंगे?
Month: May 2019
Post – 2019-05-07
जहां मैं था नहीं, देखो, वहीं था।
जहां था मैं, नजर आता नहीं था।
सभी एक दूसरे से पूछते थे
‘कहां है आज, कल तक ताे यहीं था?’
Post – 2019-05-06
मैं सोचने से पहले सोचता हूं कि ऐसी कौन सी आफत आ गई है कि अपने दिमाग को कष्ट दूं। इस नतीजे पर पहुंचता हूं कि आफत नहीं आई है और तान कर साे जाता हूं। आफत मेरे सोने के कारण आती है, पर जब आ जाती है तब सोचने का मौका हाथ से निकल चुका होता है और सामने नींद की झपकी नहीं, मौत की छाया दिखाई देती है।
Post – 2019-05-04
चुप रहो! खुश रहो!!
आत्महत्या के असंख्य तरीके हैं फिर उस सच को कहकर क्या मरना जिसे सुन कर लोगों के मन में दहशत फैल जाए कि इस सच को कहने वाला मारा जाता है और आत्महत्या का ‘गौरव’ भी नहीं पाता, क्योंकि गोली मारने का श्रेय तो कोई दूसरा ले जाता है। आप सिर्फ व्याकरण के वर्तमान काल से भूतकाल में जगह खाली मिली तो पहुंच जाएंगे, खाली न मिली तो प्रेतयोनि में भटकते यमलोक में जगह खाली हुई और वेटिंग-लिस्ट में आपका नंबर कितना पीछे है इसकी पड़ताल करते हुए किसी सच बोलने वाले के सच बोलने के ठीक मौके पर सवार होकर उसकी जीभ ऐंठते रहेंगे। झूठ बोलने के अनेक फायदे हैं, चुप रहने के असंख्य।
Post – 2019-05-03
बहुत दुख झेलकर अपने को जाना
बहुत दुख पाके तुमको पा सका हूं।
Post – 2019-05-03
हरिपाल त्यागी को जो जानता है उसके दिल पर नजर डालो, उसके अपनों की भीड़ मे वह मुस्कराता खड़ा मिलेगा और आप सोचेंगे इस आदमी को इस उम्र तक कायदे से मुस्कराना तो सीख लेना चाहिए था। क्या करें, खरे लोग ऐसे ही होते है, उन्हें किसी चीज का सलीका नही होता। वे ढाल कर सुडौल बनाने वाले सांचो को तोड़ कर अनगढ़ बने रहते हैं। लोग उन पर हंसते हैं और वे विस्मय मे मुंह चियार देते हैं, लोग हंस क्यों रहे है? हरिपाल मेरे समानधर्मा थे। बुढ़ापे में सुनाई कम पड़ता है, पर क्या सूचनाएं भी देर से मिलती हैं क्या? सादातपुर में मेरा कोई अपना नहीं बचा?
कुछ नहीं जिंदगी में है बाकी
होने-जाने की फिक्र भी तो नहीं।।
जो हमें छेड़ते थे छोड़ चले
उन अजीजों का जिक्र भी तो नही।
Post – 2019-05-03
लो आज भी अहले वतन पहुंचे जहां कल था
लो आज भी मंजिल पर साथ कोई नहीं है ।
तुम थे तो कभी, आज पास तुम भी नहीं हो
कितने थे साथ, आज साथ कोई नहीं है ।
है मंजिले मकसूद भी बस इन्तजार में
अब उसको बसाना है साथ कोई नहीं है।।
Post – 2019-05-03
क्रांति का अर्थशास्त्र
क्रांति वह विस्फोट है जो अभाव और दुर्गति की पराकाष्ठा पर पहुंचने के बाद, बहुत सारे लोगों के जीने मरने के विकल्प के बीच घटित होता है। जरूरी था, इसीलिए सर्वहारा का दर्शन। तुम्हारे पास कुछ है ही नहीं, तुम्हें अपनी बेडि़यो के अतिरिक्त कुछ नहीं खोना है और पाने को सब कुछ है।
यह उन मजदूरों को समझाया जा रहा था जिनके पास काम करने का एक ठिकाना था। उनकी दशा अच्छी तो बिल्कुल नहीं थी, पर उन लोगों से अच्छी थी जिनके पास यह काम भी नहीं था। जिन्हें फालतू आबादी – सरप्लस पॉपुलेशन- कहा जाता है, जिनके लिए कहीं कोई काम नहीं होता, जिन्हें अपने को जिंदा रखने के लिए खुद कोई जुगत निकालनी होती है, या जिनका कोई इस्तेमाल कर सकता है पर जिनकी जिम्मेदारी लेने वाला कोई तैयार नहीं होता।
वे जो भी काम करते हैं वह जघन्य, वर्जित या आपराधिक प्रकृति का होता है। मार्क्सवादी पदावली में जिन्हें लुंपन प्रोलेतारिएत कहते हैं वह इसका एक हिस्सा मात्र है। इसकी व्यापकता और विविधता के कारण इसके लिए सटीक शब्द न अंग्रेजी में मिलेगा न हिन्दी में, अतः जिस शब्द का प्रयोग किया जाए, उसे नए सिरे से परिभाषित करना होगा।
इनको संगठित नहीं किया जा सकता था, या यदि ये संगठित होते भी हैं तो बहुत छोटे या ढीले ढाले रूप में संगठित होते हैं। मजदूर को पता होता है, जिस बेड़ी को उतार फेंकने का निमंत्रण दिया जा रहा है उसके उतरते ही वह उस फालतू आबादी का हिस्सा बन जाएगा जिस की दशा उससे भी बुरी है।
मजदूर पहले से ही एकत्र थे, उन्हें एक इरादे से जोड़ने का सवाल था। मजदूर नेताओं को भले यह विश्वास हो गया हो इन्हें केवल बेड़ियां खोनी है, मजदूरों को उन नेताओं से अधिक अच्छी तरह मालूम था उनके पास क्या है और क्या खोना पड़ सकता है इसलिए मजदूरों ने इस तेवर का लाभ उठाकर काम के घंटे काम कराए, सुविधाएं प्राप्त कीं, मजदूरी में कुछ बढ़त हासिल की, परंतु कहीं भी उन्होंने क्रांति नहीं की।
प्राचीन रोम में प्रेलेतारिएत में ऐसे गरीब लोग गिने जाते थे जो गुलाम तो न थे पर जिनके पास भूसंपदा न थी। इसमें वे दस्तकार और छोटे कारोबारी भी आते थे जो गुलामी प्रथा के विस्तार के साथ क्रमशः बदहाली के शिकार हुए थे। प्रोलेतारिएत का शाब्दिक अर्थ था, बच्चे पैदा करने वाले और इस तरह रोमन समाज के सबसे अकिंचन नागरिक। रोमन इतिहास में अभिजातवर्ग और अवाम के बीच हैसियत की होड़ में इनकी उपद्रवकारी राजनीतिक भूमिका ताे हुआ ही करती थी, पोप इन्नोसेंट प्रथम की ईसाइयत से भिन्न सभी विचारों, संस्थाओं, विद्यालयों ,ग्रंथों उपासना गृहों, प्रतिमाओं, और विचारकों कुबूल करने की क्रांति में भी इनकी सबसे प्रभावकारी भूमिका थी।
सच कहें तो यहीं थे जिनके पास अपनी बेड़ियो को गंवाने के अतिरिक्त खोने को कुछ ना था और पाने को सब कुछ था। इनकी नियति को मार्क्स ने औद्योगिक क्रांति के साथ मशीनों के प्रचलन के कारण जीविका के पुराने साधनों से वंचित कर दिए गए स्वतंत्र मजदूरों पर स्थानांतरित कर दिया।
परंतु नई सचाई यह थी कि यूरोपीय फ्यूडल व्यवस्था की अर्ध दासता की बेड़ियां तोड़कर यह पहली बार मुक्त हुए, जिसे गंवाना नहीं चाहते थे, कुछ अधिक पाना अवश्य चाहते थे और इसके लिए मोल भाव की ताकत बढ़ाने के लिए संगठित भी हो सकते थे, छोटे-मोटे खतरे खतरे भी उठा सकते थे और उठाते रहे।
पुस्तकीय ज्ञान नहीं, पूंजीवादी शोषण का सीधा शिकार होने के कारण यह कल्पना की गई अपने अनुभव के बल पर यह समाज का सबसे प्रबुद्ध वर्ग है। हमें सचाई इस रूप में दिखाई देती है कि अपने निजी औजार से एक दस्तकार उत्पादन करते हुए जिस कौशल का प्रयोग करता है, जिस आनंद की अनुभूति करता है, इन्हें दोनों से वंचित करते हुए बड़े यंत्र का मात्र एक नीरस पुर्जा बना कर, इनका अमानुषीकरण कर दिया गया था जिससे किसी की असहमति नहीं हो सकती। ये स्थितियां जिनमें बौद्धिक सक्रियता का ह्रास भी शामिल है चेतना के उत्थान के लिए अनुकूल नहीं कही जा सकती और मजदूर वर्ग को समाज का अग्रणी दस्ता कहना एक मिथक तैयार करना है।
यदि इस बात का प्रमाण न होता कि किसी भी पूंजीवादी देश में, औद्योगिक दृष्टि से आगे बढ़े हुए किसी भी समाज में क्रांति नहीं हुई, मजदूरों ने क्रांति की ही नहीं, उन्होंने केवल सुविधाएं जुटाईं और इसके लिए दबाव तैयार करने में दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों की कारगर भूमिका रही।
समाजवादी क्रांतियां केवल सामंती व्यवस्था वाले समाजों में ही संपन्न हुईं, जिनमें नेतृत्व और संगठन का काम शिक्षित मध्यवर्ग के हाथ में था और उपद्रवकारी भूमिका भूसंपदा से वंचित विपन्न वर्ग की थी जिसके मन में भूस्वामियों के प्रति गहरा आक्रोश भरा हुआ था और जिसके लिए ही रोम में कभी सर्वहारा शब्द का प्रयोग हुआ करता था।
सामंतवादी व्यवस्था के उन्मूलन के बाद, पूंजीवाद की प्रतिस्पर्धा में, बड़े पैमाने के उद्योग और उत्पादन का रास्ता अपनाने के कारण, अपने को समाजवादी कहने वाले देश अपने भीतर पूंजीवादी, उपभोक्तावादी आकांक्षाओं और प्रवृतियाें को पनपने से नहीं रोक सके और समाजवाद में समाजवादी तानाशाही को जारी रखा, परन्तु अपना रास्ता बदलने से अपने को रोक नहीं सके।
हम यहां कुछ सूत्र संकेत देने का प्रलोभन अनुभव कर रहे हैं:
1. सर्वहारा शब्द काव्यात्मक तो है, परंतु सचाई से कुछ दूर है।
सच्चा सर्वहारा वह फालतू आबादी या सरप्लस पापुलेशन है, जो एक और भी विपन्न है, दूसरी ओर उत्पादन के नाम पर प्रजा वृद्धि करने से अपने को रोक नहीं पाता। इसके लिए पूरे इतिहास में सरकारों के पास न कभी कोई योजना थी ना ही कोई ऐसी योजना हो सकती है जो इनको इनकी अधोगति से मुक्ति दे सकें। समाजवाद इन्हें नियंत्रित कर सकता है और इनके लिए अल्पतम सुविधाओं की व्यवस्था भी कर सकता। यदि अन्य किसी कारण नहीं तो इस आधार पर ही समाजवाद के औचित्य से कोई इनकार नहीं कर सकता।
2. भारतीय परिस्थितियों पर ध्यान दें कोई भी ऐसा मध्यवर्गीय शिक्षित आंदोलन दूर दूर तक दिखाई नहीं देता है जो इनकी ऊर्जा को क्रांतिकारी दिशा दे सके। दिशा हीनता के कारण, इनका उपयोग जातिवादी इरादों के लिए किया जा रहा है।
3. मशीनीकरण के विस्तार, स्वचालित यंत्रों की लोकप्रियता, आधुनिक वितरण प्रणालियों से छोटे दुकानदारों और कामकाज में लगे लोगों की आर्थिक दशा क्रमशः खराब होती जाने वाली है।
4. सरकारें किसी भी देश में अपनी पूरी आबादी को रोजगार नहीं दे सकती, मशीनीकरण के साथ पदों में कमी आनी अपरिहार्य है। चुनाव के मौके पर रोजगार की जितनी भी ऊंची बातें की जाएं, संगठित रोजगार घटता जाना है, और अपने को किसी काम के लिए योग्य बनाने और साधन जुटाने का दायित्व युवकों पर पड़ना है।
5. मोदी ने सत्ता संभालने के कुछ समय बाद ही यह घोषणा की थी, व्यापार करना सरकारों का काम नहीं है। व्यापार और उद्योग धंधों के लिए अनुकूल पर्यावरण तैयार करना उनका काम हो सकता है। यह यथार्थवाद घोषणा के स्तर पर भले नया हो, व्यवहार के स्तर पर अनेक विभागों के निजीकरण के साथ और कुछ के बने रहने के बावजूद समानांतर निजी उपक्रमों के सामने उनकी स्थिति दिनों दिन खराब होती देख कर कोई भी इस अर्थवाद को चुनौती नहीं दे सकता।
6. निजी क्षेत्रों के व्यापारिक हितों के विस्तार के साथ निचले स्तर के कर्मचारियों की दशा पहले से अधिक बुरी होती जानी है।
7. शासन किसी का हो, इन अपरिहार्यताओं का सामना हमें करना ही होगा।
मैंने इतने निराशाजनक चित्र के लिए आज की यह पोस्ट शुरू नहीं की थी।
Post – 2019-05-01
जिसे आप भारत की कूटनीतिक सफलता मानते हैं वह भारत की, खासकर मोदी की कूटनीतिक सफलता है, इस पर दो राय नहीं। अमेरिका ने दो टूक शब्दोें सौदेबाजी करते हुए कहा कि हम इस सवाल पर मजबूती से तुम्हारे साथ हैं इसलिए ईरान से तेल खरीदने पर हमारी पाबंदी पर तुम भी मेरा साथ दो। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन के रुख में बदलाव इमरान खान के बीजिंग यात्रा के बाद आया है जो इस बात का पक्का प्रमाण है कि वह सच्चे दिल से आतंकवाद से निजात पाना चाहते हैं जिसकी भारत से अधिक पाकिस्तान को कीमत चुकानी पड़ी है। यह हमारे आपसी रिश्तों में समझदारी के एक नए दौर का आरंभ हो सकता है। हम मोदी और इमरान दोनों को बधाई दे सकते हैं।