Post – 2019-07-08

रीतियां, रूढ़ियां और विश्वास (5)

हलाला

तलाक और तिहरे तलाक पर पिछले कुछ सालों में इतनी बहस होती रही है कि सामान्य शिक्षित व्यक्ति यह जानता है कि तलाक बहुत गंभीर निर्णय है इसलिए यह क्षणिक आवेश में नहीं लिया जा सकता। कुरान के अनुसार तलाक शब्द का प्रयोग दो बार किया जा सकता है। इसके बाद अनुकंपा दिखाते हुए, मेलजोल से रहने का प्रयत्न करना चाहिए, और उसके बाद भी यदि दोनों को इस बात का अंदेशा बना रहे वे मर्यादा के भीतर नहीं रह सकते वी संबंध विच्छेद का निर्णय ले सकते हैं और ऐसा करने पर उन्हें कोई आंच नहीं आएगी। यदि ऐसा नहीं करते हैं तो गुनाहगार होंगे:
[2.229] Divorce may be (pronounced) twice, then keep (them) in good fellowship or let (them) go with kindness; and it is not lawful for you to take any part of what you have given them, unless both fear that they cannot keep within the limits of Allah; then if you fear that they cannot keep within the limits of Allah, there is no blame on them for what she gives up to become free thereby. These are the limits of Allah, so do not exceed them and whoever exceeds the limits of Allah these it is that are the unjust.

यदि मुसलमान कुरान का पालन करते हैं तो एक झटके में दिया गया तिहरा तलाक स्वयं इस बात का प्रमाण है कि यह निर्णय आवेश में लिया गया था इसलिए तलाक है ही नहीं। इसके साथ संबंध खत्म होता ही नहीं।

संबंध विच्छेद के बाद भी, तलाकशुदा दंपति को यदि बाद में अपनी भूल समझ में आए तो वे आपसी समझ से अपनी समस्या का समाधान कर सकते हैं। यह नैसर्गिक न्याय के अनुरूप भी हैं। उनके इस निर्णय को नाजायज ठहराना और निकाह हलाला की अपमानजनक शर्त पूरा करने के बाद ही स्वीकार्य बनाना किसी मनोरोगी के दिमाग में तो आ सकता है, सुलझे दिमाग के व्यक्ति की समझ से परे है?
[2.230] So if he divorces her she shall not be lawful to him afterwards until she marries another husband; then if he divorces her there is no blame on them both if they return to each other (by marriage), if they think that they can keep within the limits of Allah, and these are the limits of Allah which He makes clear for a people who know.

यह शर्त न केवल नैसर्गिक न्याय के विरुद्ध थी, दंपति के आत्मसम्मान के विरुद्ध थी, बाद के जीवन में पारस्परिक सद्भाव के विरुद्ध थी, पुरानी परंपरा के भी विरुद्ध थी और स्वयं मुहम्मद साहब के आचरण के विरुद्ध थी। इंजील के पुराने विधान के अनुसार परित्याग के बाद दूसरे से विवाह कर लेने वाली स्त्री से पुनर्विवाह संभव ही नहीं था, क्योंकि दूसरे व्यक्ति के संपर्क में आने के बाद वह दूषित हो जाती थी:
When a man takes a wife and marries her, if she finds no favor in his eyes because of ervat davar (some fault or indecency) and he writes her a bill of divorce and puts it in her hand and sends her out of his house–and she marries another man, and the latter… writes her a bill of divorce… or dies–then her former husband cannot marry her again because she has been defiled… (Deuteronomy 24:1-4).

स्वयं मुहम्मद के जीवन में ऐसी तीन परिस्थितियां पैदा हुईं जब तलाक की नौबत आई। पहली बार आयशा से निकाह करने के बाद जब मुहम्मद उसके साथ अधिक रातें बिताने लगे तो गृह कलह। हमेशा की तरह इस बार भी अल्लाह ने उनकी समस्या का हल निकाला। उन्हें इलहाम हुआ कि भले दूसरे मुसलमानों के लिए बीवियो के साथ बराबरी का बर्ताव जरूरी हो परंतु पैगंबर होने के नाते वह जिसके साथ अधिक समय गुजारना चाहें गुजार सकते हैे:-
[33.51] You may put off any of your wives you please and take to your bed any of them you please. Nor is it unlawful for you to receive any of those whom you have temporarily set aside. That is more proper, so that they may be contented and not vexed, and may all be pleased with what you give them.

अल्लाह के जो पैगाम आम आदमी की समझ में आ जाते हैं, वे भी सौतों की समझ में नहीं आते, इसलिए सौदा की समझ में भी नहीं आ सकते थे। कलह जारी रहा तो मुहम्मद साहब ने उसे दो बार तलाक कह दिया। (यह मेरी समझ है। वैसे पैगंबर पर आम मुसलमानों के लिए बने नियम लागू ही नहीं होते थे)। मुल्ले इसे तलाक नहीं तलाक की धमकी कहते हुए बहस करते रहे हैं कि उसी कुरान में अगले ही आयत में हलाला की अनिवार्यता है, इसलिए इससे गुजरने के बाद ही वह सौदा को दुबारा अपनी पत्नी बनाकर नहीं रख सकते थे।

हम नहीं जानते कि दो बार तलाक कहने के बाद शारीरिक संबंध जारी रख सकते हैं या नहीं, परंतु जो बात खुदाई पैगाम से भी सौदा की समझ में न आई थी, तलाक कहने के बाद पूरी तरह समझ में आ गई और उसने अनुनय किया कि भले मुहम्मद उसके हिस्से की रातें भी आयशा के साथ गुजारें, परंतु उसका परित्याग न करें। और मुहम्मद ने न केवल ऐसा किया बल्कि बाद में भी वह उसकी पूरी खोज खबर लेते और उसके साथ कभी कभी रातें भी गुजारते रहे। हम इसके विस्तार में न जाएंगे।

दूसरी घटना तब की है जब तक उनके सात विवाह हो चुके थे। सभी पत्नियों के साथ समानता के व्यवहार की कोशिश मुहम्मद भी करते थे। वह रोज सभी का हाल-चाल लेने उनके पास जाते थे उन्हें चूमते थे, परंतु रातें उसी के साथ गुजारते थे जिसकी बारी होती थी। यदि कभी किसी अभियान पर बाहर जाना होता था तो लॉटरी से तै किया जाता था उनके साथ कौन जाएगी।

बानू मुस्तलिक कबीले के सरदार ने कुछ दूसरे कबीलों को उकसा कर मदीना पर चढ़ाई की तैयारी की। मुहम्मद को पता चला तो वह एक बड़ी फौज लेकर उसको सबक सिखाने के लिए निकले, इस बार लूट के माल के प्रलोभन में मुनाफिकून (पाखंडी मुसलमान) भी साथ हो लिए थे । बीवियों में साथ जाने की बारी आयशा की निकली।
[ यदि आपको अभी तक यह समझ में नहीं आता था कि मुगल बादशाह अपने साथ अपना हरम भी क्यों ले जाते थे तो उसका रहस्य इसी से खुल जाएगा। वे अय्याशी के कारण नहीं, पैगंबर के आदर्शों पर चलने के कारण ऐसा करते थे।]

मुसलमानों ने उसे परास्त कर दिया। बहुतों को बंदी बना लिया। लूट में बहुत सारा माल मिला, और मिली हैरिस की बहुत सुंदर और नफीस पुत्री, जुवैरा, जिसकी फिरौती की रकम बहुत ऊंची लगाई गई थी। वह अपनी शिकायत लेकर मुहम्मद साहब के पास पहुंची तो उन्होंने उसे अपनी आठवीं पत्नी बना लिया। इसके बाद उन्होंने बानू मुस्तलिक को अपना ससुर मानते हुए सभी युद्ध बंदियों को आजाद कर दिया। उसकी सुंदरता से, और संभवतः उस पर मुहम्मद की विशेष कृपा दृष्टि से आयशा को जलन अनुभव हुई।[]
[‘Ayisha describes her as very beautiful and graceful. Muhammad listened to her story, proposed marriage to her and was accepted. She thus became his eighth wife. The people then looked upon the Bani Mustaliq as relatives, and set all the prisoners free, on which ‘Ayisha declared that no woman was ever such a blessing to her people as
Juwaira…. ]

वापसी के समय वह अपने ऊँट के हौदे में नहीं बैठी, ऊंट हांकने वाले गुलामों को भी इसका भान नहीं हुआ, वे ऊँट लेकर आगे बढ़ गए। वह पीछे रह गई। उनके ही कहने के अनुसार उनका कंगन (या एक दूसरी कथा के अनुसार हार) खो गया था और वह उसे ही खोजने में लगी रहीं । उन्होंने अपनी ही कुर्ती में अपने को ढक लिया और बैठ गईं। कुछ देर बाद मुहम्मद की लश्कर के एक जवान सफवान ने उन्हें पहचान लिया कि यह तो पैगंबर की बीवी हैं और उनके पास आकर उन्हें अपने ऊंट पर बैठाया और उसकी बाग पकड़े वापस लाया और इस घटना ने प्रवाद का रूप ले लिया।
[ the fact that ‘Ayisha had stated that on seeing Juwaira the ‘fire of envy arose in her heart’ may have given rise to suspicion about her conduct. ]
इसके बाद आयशा बीमार पड़ गई और अपने पिता अबू बक्र के घर चली गईं। [After her return ‘Ayisha fell sick and retired to her father’s house.]

अफवाहों का बाजार गर्म था। मुहम्मद ने ओसामा बिन जैद और अली से मशवरा किया। ओसामा आयशा के पक्ष में तरह-तरह की दलीलें देता रहा, और अली की सलाह थी कि मुहम्मद को लड़कियों की कमी न थी इसलिए उन्हें आयशा को तलाक दे देना चाहिए। मुहम्मद आयशा को छोड़ना नहीं चाहते थे, इसलिए अल्लाह ने कुछ दिन बाद उन्हें इल्हाम भेजकर बचा लिया। मुहम्मद उनके पास गए और कहा, आयशा, खुश हो जा। अल्लाह ने जाहिर कर दिया कि तू निष्कलंक है। [ ‘O ‘Ayisha rejoice, Verily the Lord hath revealed thine innocence.’ ] और जनप्रवाद को रोकने के लिए सूरा नूर की आयद हुआ [The
opening verses of the Suratu’n-Nur (xxiv) were then delivered to the people.] Sell, p.159

[This is] a surah which We have sent down and made [that within it] obligatory and revealed therein verses of clear evidence that you might remember.
The [unmarried] woman or [unmarried] man found guilty of sexual intercourse – lash each one of them with a hundred lashes, and do not be taken by pity for them in the religion of Allah, if you should believe in Allah and the Last Day. And let a group of the believers witness their punishment.
And those who accuse chaste women and then do not produce four witnesses – lash them with eighty lashes and do not accept from them testimony ever after. And those are the defiantly disobedient,
The fornicator does not marry except a [female] fornicator or polytheist, and none marries her except a fornicator or a polytheist, and that has been made unlawful to the believers.
Except for those who repent thereafter and reform, for indeed, Allah is Forgiving and Merciful. Suratu’n-Nur 24.1-5.
दुष्प्रचार करने वालों को कोड़े लगे और दुष्प्रचार बंद हो गया और प्रशस्तिगान आरंभ हो गया।

मौका एक तीसरा भी आया था, जब जैनब से निकाह करने के बाद दावत पर आए मेहमान विदा होने का नाम ही नहीं लेते थे, जिसका कुछ विस्तार से उल्लेख हम पहले कर आए हैं, इसलिए उसकी आवृत्ति करने की जरूरत नहीं.

मुसलमान मुहम्मद से शिक्षा ग्रहण नहीं करते, अरबी की जानकारी न होने और आयतों की व्याख्या में कुछ हेरफेर करने की गुंजाइश होने के कारण मुल्लों और काजियों के मोहताज बने रहते हैं, जिनमें से कुछ को हलाला के नाम पर धार्मिक व्यभिचार और आर्थिक लाभ दोनों मिलता है।

Post – 2019-07-06

रीतियां, रूढ़ियां और विश्वास (4)

मनचलापन
हिंदू मूल्य-प्रणाली में देवता और ईश्वर भी नैतिक मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं कर सकते। यदि करते हैं तो पूज्य होते हुए भी, उस आचरण के लिए निंदा के पात्र रहेंगे। उनका उपहास किया जाएगा। महापुरुषों या देवताओं का अमर्यादित आचरण समाज के लिए अनुकरणीय नहीं हो सकता।

सामाजिक आचरण का आदर्श क्या है यह विवाद का विषय हो सकता है। अलग-अलग कालों, समाजों में अनेक कारणों से, सामाजिक रीतियां और आचार बदल जाते हैं। इसे प्राचीन विचारकों ने युग-धर्म की संज्ञा दी। जिस युग में दी उसमें उनका भूगोल का ज्ञान बहुत कमजोर था। जहां बाहर की यात्राओं पर ही रोक लग जाए, बाहर का ज्ञान अज्ञान से मिलता जुलता ही होगा। यदि ज्ञान होता तो वे देश-काल-सापेक्ष धर्म की बात करते। अपने समय की सीमाओं में उनका यह विवेक भी कम सराहनीय नहीं है।

किसी काल में, समाज विशेष में जो भी नियम हैं सभी पर लागू होते हैं। केवल इस्लाम है जिसमें न तो अल्लाह न्याय और नियम पर टिका रहता है, न पैगंबर, न ही उस रीति नीति को अपनाने वाले समाज के लोग। उन्हीं वाक्यों का अपनी जरूरत के अनुसार अलग अलग पाठ करते हैं। इस पर किसी मुसलमान को कोई हैरानी नहीं होगी, क्योंकि इससे उसकी इस धारणा की पुष्टि ही होगी क इस्लाम जैसा दूसरा कोई धर्म नहीं है और मुसलमानों जैसा कोई इंसान नहीं है। समस्या दूसरों की है कि वे इस्लाम की खूबियों को समझें और तय करें कि इंसानियत को इस्लामियत से कैसे बचाया जा सकता है।

मोहम्मद अरब समाज की सामाजिक मर्यादाओं का निर्वाह करते थे, परंतु जहां उनको कोई लाभ दिखाई देता था, उनको अल्लाह के आदेश के बहाने तोड़ने में देर नहीं लगाते थे। हमें इस बात की पक्की जानकारी नहीं है कि इस्लाम से पहले अरब समाज में बहुविवाह का चलन था या नहीं, विधवा और विधुर पुनर्विवाह अवश्य र सकते थे। महिलाओं को आजादी थी, इसका उल्लेख हम पीछे कर आए हैं। चौथे सूरा की जिस आयत में मुसलमानों को 4 पत्नियां रखने का विधान है, वह उनके चौथे विवाह के बचाव में उतरा था।

उन्हें स्वयं इस मर्यादा का सम्मान करना चाहिए था, लेकिन संभवतः जेनब को देखने के बाद यह मर्यादा उन्होंने तोड़ दी, पहली लोक में प्रचारित हो चुकी थी इसलिए उसका निषेध नहीं हो सकता था। उन्होंने एक नया तरीका निकाला कि पैगंबरों के लिए अल्लाह ने पहले से ही खुली छूट दे रखी है कि जितनी शादियां चाहे कर सकते हैं :
“it seems a very great pity that the Prophet not only did not himself follow it, but even exceeded the liberty given to his followers, for at a time when he had nine wives, a revelation was produced to sanction this excess over the legal four. See Suratu’l-Ahzab (xxxiii) 49, 52”.(Canon Sell, 203)

बात यहीं खत्म नहीं हुई। प्राचीन अरब समाज से लेकर मुस्लिम समाज तक में महिलाओं को विधवा हो जाने के बाद दूसरा विवाह करने की छूट थी। उन्होंने अपनी पत्नियों से मरने के बाद किसी दूसरे से विवाह करने का अधिकार भी छीन लिया। “And you should never cause the Messenger of God hurt, in any way; nor ever marry his wives after him.” Sura 33.53

हमें अक्सर पढ़ने को मिलता है कि मुसलमान पैगंबर की बीवियो को मां के समान समझते हैं। पर उनके पास कोई विकल्प ही नहीं है, क्योंकि इसका विधान स्वयं पैगंबर कर गए थे। जो कुरान में यकीन करते हैं उन्हें उनको माता मानना ही होगा।

मानवीय दृष्टि से देखने पर यह उन महिलाओं पर अत्याचार था, क्योंकि तत्कालीन आयुष्य को देखते हुए उन्होंने बाद के लगभग सभी विवाह बुढ़ापे में किए थे। इनमें से सभी महिलाएं उम्र में उनसे कम थींं। अकेली सौदा थी जिसके विषय में अलग अलग लेखक अलग अलग तरह की कहानियां गढ़ते हुए सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि वह बूढ़ी थीं पर वह भी मोहम्मद साहब से 10 साल छोटी थीं। विवाह के समय उनकी उम्र 50 साल थी। इसका मतलब है सौदा की उम्र 40 वर्ष थी। यह वही उम्र है जिसमें खदीजा से उनका विवाह हुआ था। विवाह की रस्म खदीजा के मरने के बाद शोक की अवधि पूरा होते ही आरंभ हो गई थी। पहले छह या सात साल की आयशा से सगाई और फिर सौदा से विवाह।[]

[] इसके विषय में भी 4-5 तरह की किस्से मिलते हैं। एक के अनुसार: According to the Raudatu’l-Ahbab he was now much dejected, when a friend said: ‘Why do you not marry again?’ He replied: ‘Who is there that I could take?’ ‘If thou wishest for a virgin there is ‘Ayisha, the daughter of thy friend Abu Bakr; and if thou wishest for a woman there is Sauda, who believes in thee.’
He solved the dilemma by saying, ‘Then ask for both.’ (Canon Sell)

दूसरे के अनुसार, यह प्रस्ताव रिश्ते की एक महिला ने रखा था: They waited till the mourning period of Khadeejah, was over and Khawlah bint Hakeem, the wife of `Uthmaan ibn Math’oon, went to him, and said: “O Prophet of Allah! I see you feel the loss of Khadeejah.”; “Yes,” he said. “She was both mother and housewife”. Khawlah suggested that he, should marry and she offered to find him a bride. Muhammad said, “Who could be that bride?” Khawlah suggested `Aa’ishah bint Abu Bakr, the daughter of the first man to believe in Muhammad’s Message, and also his best friend. But `Aa’ishah was very young so he engaged her and left her in her parents’ house till she matured. But Khawlah and the other Companions didn’t want a delayed marriage, and wanted someone to comfort him and assist him in taking care of his children, especially at that time when his days were burdened with heavy struggle and toil.

She mentioned Sawdah bint Zam’ah, the widow of as-Sakran ibn `Amr with him.

इस पाठ में उसे एक ओर तो बूढ़ी और कुरूप बताया गया है, “She was old and lacked beauty and wealth, moreover her father and brother were pagans so it was very difficult for her to survive and retain her faith in this environment.” और दूसरी ओर मुहम्मद की कामनाएं पूरी करने वाली।
एक अन्य कहानी में विवाह का प्रस्ताव मोहम्मद ने सौदा के पिता के पास भेजा था और उन्होंने खानदान को देखते रजामंदी जताते हुए सौदा की भी राय लेने का सुझाव दिया।

एक अन्य पाठ में प्रस्ताव मुहम्मद ने सौदा के सामने रखा था जिसके पहले से पांच छह बच्चे थे, उसने कहा मेरे लिए तो यह खुशी की बात होगी पर ये बच्चे ऊधम मचाएंगे जिससे आप को परेशानी होगी जिसके जवाब में मोहम्मद ने कहा था, मुसलमानों के बच्चे तहजीबवाले होते हैं। उनसे हमें कोई परेशानी नहीं होगी।

एक अन्य के अनुसार मोहम्मद से उनकी कोई संतान नहीं, पहले पति से केवल एक पुत्र था।
Hazrat Sawdah (Radhiyallahu-Anha) had no children from the Prophet (Sallallahu-Alayhi-Wasallam ) However, from her first husband (Hazrat Sakran ) she had a son named Hazrat Abdur-Rahmaan (Radhiyallahu-Anhu). He fell a martyr fighting in the battle of Jalula.UMMAHATUL MUMINEEN.

एक ही घटना को लेकर इतने तरह की कहानियों का आधार हदीस ही हो सकता है, जिससे दो बातों का पता चलता है। पहला यह कि इनका मोहम्मद के जीवन से सीधा संबंध नहीं है। उनकी और इस्लाम की और स्वयं अपनी जरूरतों के अनुसार लोगों ने कहानियां गढ़ कर हदीस में भर दीं। सबसे अधिक कहानियां आयशा की गढ़ी हुई हैं, और वे कितनी भरोसे की हैं इसका एक उदाहरण यह है:
It is recorded, on the authority of ‘Ayisha, that a brightness like the brightness of the morning came upon the Prophet. According to some commentators this brightness remained six months, and in some strange way Gabriel through this brightness made known the will of God.

परन्तु आयशा उस नूर या आभा मंडल की गवाह बन ही नहीं सकतीं, क्योंकि वह अभी पैदा ही नहीं हुई थीं। हदीस की कहानियों की काल्पनिकता पर, इससे अच्छी टिप्पणी नहीं हो सकती।

सौदा की आयु के विषय में केवल इतना ही कि आयशा की साथ 3 साल बाद निकाह होने से पहले उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखद। आयशा के आने के बाद, मोहम्मद उनकी उपेक्षा करने लगे, इससे गृह कलह पैदा हुआ और मोहम्मद ने उन्हें तलाक तक दे दिया। इस पर दो मत हैं- 1. दे दिया; 2.[] देने का इरादा जताया, जिसके बाद उन्होंने कहा अपने हिस्से की रात में भी मैं आयशा को दे देती हूं, परंतु मुझे बेसहारा न छोड़िए अपने आप पे मेरे पल

[]वकार अकबर चीमा (The Prophet’s conduct with his wife Sawdah: The issue of divorce) ने अनेकानेक क्यों का हवाला देते हुए, इस पर विचार किया है।

ऐसी टिप्पणियों का लक्ष्य केवल यह दिखाना होता है कि मोहम्मद साहब ने इतने सारे विवाह कामुकता के वशीभूत होकर नहीं किए थे, अपितु निराश्रितों को सहारा देने के लिए किया था। परंतु आयशा के प्रति आसक्ति के कारण सौदा को तलाक देने की नौबत आना, इनकी सच्चाई खोल कर रख देता है। जो कमी रह जाती है उसे जैनब का प्रकरण पूरा कर देता है।
आयु
सबसे दुखद पक्ष यह है कि मोहम्मद साहब की चौथी शादी के बाद के सारे विवाह 55 की उम्र के बाद हुए। सभी में महिलाओं की आयु काफी कम थी। एक मामला मिस्र का है। अरब पर कब्जा कर लेने के बाद उन्होंने फारस, बाइजेटाइन ( Byzantines)और मिस्र को संदेश भेजा कि वे इस्लाम कबूल कर लें। ़
दूसरों ने क्या किया इसे छोड़ दें, मिस्र की बात लें जिस के गवर्नर ने जो कदम उठाया वह निम्न प्रकार है: Then followed a letter to the Maquqas, the governor of Egypt, who returned a courteous reply and sent as a present two Coptic damsels, Mary and her sister Sherin,1 and a white mule for the Prophet’s use. Mary was the fairer of the two sisters and was kept by Muhammad for his own harem. Sherin was bestowed on the poet Hasan.
fn. The Raudatu’l-Ahbab, quoted in the Mudariju’n-Nabuwat {vol. ii, p. 699) says: ‘The gifts of the Maquqas were four damsels, one of them was Mary and another her sister Sherin’ Sell, p. 184
खास बात यह कि किसी दूसरी पत्नी से उन्हें कोई संतान न हुई, मेरी से 60 साल की उम्र में उन्हें एक पुत्र की भी प्राप्ति हुई जिसका नाम इब्राहिम रखा गया । []
[] Towards the end of the eighth year of the Hijra, Mary the Copt bore a son to the Prophet.
Tabari (series 1, vol. iii, p. 1561) says: ‘The Maquqas gave the Prophet four damsels, amongst whom was Mary, mother of Ibrahim.’ Sell, p. 184

हम यह दिखाने के प्रयत्न में अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए मोहम्मद ने पहली बार बहुविवाह का समर्थन किया, और सभी मुसलमानों के लिए 4 विवाह जायज ठहराया। परंतु सीमा पर टिके ना रखिए अपने को सभी सीमाओं से ऊपर रख कर सेक्स मेनियाक की तरह आचरण करते रहे। इसका लाभ उठा मुसलमानों में जो शक्तिशाली थे, कुरान की पाबंदियों की आज्ञा करते हुए मनमानी करते रहे। भारतीय इतिहास में इसका सबसे नंगा रूप मुगल काल में दिखाई देता है।

सल्तनत काल में किसी सुल्तान ने उस तरह के हरम नहीं बसाए जैसे मुगलों ने। सैकड़ों की संख्या में पत्नियों के अतिरिक्त रखैलों का मजमा और उनके ऊपर से तवायफों की ललक। इसके संदर्भ में याद दिला दें कि वैध पत्नियों के अतिरिक्त रखैलों की परंपरा मोहम्मद ने ही आरंभ की थी। मिस्र के गवर्नर द्वारा भेजी गई युवतियों के अतिरिक्त, पहले से उनकी दो रखैलें थीं अल जरिया और तुकाना।
परंतु मोहम्मद साहब के चरित्र के मामले में, मैं इसका अलग से मूल्यांकन जरूरी मानता हूं। यह उनका वह व्यवहार था जिसके लिए अंग्रेजी में cumpulsive behaviour का प्रयोग होता है, जिसके लिए व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जाता। मोहम्मद के व्यक्तित्व का मूल्यांकन समय रहा तो हम करेंगे।

यह उनकी मनोव्याधि रही हो या हार्मोनों का उपग्रह रहा हो, इसके साथ न तो शैतानी आयतों के माध्यम से न्याय किया जा सकता है न ही रंगीले रसूल के रूप में पेश करके।

यह जो कुछ भी था, हम इसके समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को समझना चाहते हैं। सल्तनत काल का कोई बादशाह चार की सीमाओं को पार कर चुका हो, इसकी जानकारी हमें नहीं है। सल्तनत काल में मुगल काल की तुलना में हिंदुओं पर कुछ अधिक अत्याचार किए गए, परंतु हिंदू समाज की मानसिकता पर उनका कोई गोचर प्रभाव नहीं पड़ा।

सल्तनत काल के सुल्तान मुसलमान थे, मुगल काल के शासक पैगंबर थे जिन पर कोई नियम लागू नहीं होता था। उन्हीं की विरासत को हिंदुस्तान ने अपनाया है, जिसमें शक्तिशाली पर कोई भी अंकुश लागू नहीं होता। समरथ को नहिं दोष गुसाईं, लिखने वाला मुगल काल में ही पैदा हो सकता था।

एक बात गौर करने की है। मोहम्मद की इतनी बीवियों के होते हुए भी, उनके द्वारा उनका अपमान किए जाने के बाद भी, मोहम्मद ने किसी को तलाक नहीं दिया। जिस एक को तलाक देने की कहानी कही जाती है, उसको भी तलाक नहीं दिया या देकर रफा दफा कर दिया, जबकि वह उनको नई पत्नी के आ जाने के बाद कम पसंद या नापसंद करने लगे थे। मुगल बादशाहों की बीवियों और रखैलों में भी कभी किसी को न तो तलाक दिया गया, न ही किसी ने विधवा होने के बाद इस्लाम में उपलब्ध विधवा विवाह के अधिकारों का प्रयोग किया। वे पैगंबर की विधवाओं की तरह मुसलमानों कीअघोषित माताएं बन चुकी थीं या बना दी गई थीं।
मोहम्मद के जीवन काल में, मदीना में उनके पहुंचने के बाद, युद्ध और बल-प्रयोग के एकमात्र हथियार को छोड़कर दूसरे कूटनीतिक हथियारों का प्रयोग बहुत कम देखता हूं।
यही भारतीय परंपरा में मुगलकालीन धरोहर के रूप में हिंदू और मुसलमान दोनों में छन कर आया है और इसी के कारण नियम और आचरण की मर्यादा की शक्ति संपन्न लोगों द्वारा अवहेलना हमारे सामाजिक और राजनीतिक व्यवहार का अंग बन चुकी है।

Post – 2019-07-05

अनुरोधः
कृपया मेरी पोस्ट पर केवल लिखित बातों में कहीं कमी दिखाई दे तो उसे बताएँ।
चटखारे लेने वाली टिप्पणियां न करें, ऐसा करने वालों को अमित्र करना होगा।और टिप्पणी हटाने की बाध्यता होगी।
नये विवाद न खड़ा करे, उनके समाधान की योग्यता और समय नहीं है।
सुझाव न दें। उसके अनुसार अपना लेखन करें।
यह मुस्लिम मनोरचना के समझने का प्रयास है, किसी की निंदा या स्तुति करने का प्रयास नहीं।

Post – 2019-07-04

रीतियां, रूढ़ियां और विश्वास (3)

असली और नकली का भेद
इस्लाम से पहले किसी अन्य समाज की ही तरह अरब समाज में भी किसी बच्चे को पुत्र बना लेने के बाद उसके साथ किसी तरह का भेद नहीं किया जाता था। मोहम्मद ने उसी का निर्वाह करते हुए, अपने पुत्रों के इंतकाल के बाद जईद काे गोद लेते हुए, अपनी वल्दियत प्रदान करते हुए उसका नाम जईद बिन मोहम्मद कर दिया था। अब इस नई जरूरत के कारण उससे न केवल तलाक दिलवाया गया, बल्कि उसके रक्त संबंध वाले पिता का नाम उसके साथ जोड़ा गया। अब वह दुबारा हरिस के पुत्र हो गए (Zaid was no longer spoken of as the son of Muhammad, but as Zaid ibn Haritha.)

कारण, पैगंबर होने के बाद मोहम्मद किसी के पिता नहीं रह गए। ”Muhammad is not the father of any of your men, but (he is) the Messenger of Allah, and the Seal of the Prophets: and Allah has full knowledge of all things.— Sura al-Ahzab Quran 33:40 (Translated by Yusuf Ali)

परंतु नकली मुसलमान, मुनाफिकून, पीठ पीछे इस घटना को लेकर एक दूसरे से शिकायत करने लगे।
[Al-Tabari states that Q33:40 was revealed because “the Munafiqun made this a topic of their conversation and reviled the Prophet, saying ‘Muhammad prohibits [marriage] with the [former] wives of one’s own sons, but he married the [former] wife of his son Zayd.'”]

अब पुत्र और पुत्री की परिभाषाएं भी बदलनी जरूरी हुईं। अब जो विधान हुए निम्न प्रकार थे :
1. पुत्र और पुत्री केवल अपनी विवाहिता से उत्पन्न संतान को माना जाएगा।
2. गुलाम की हर चीज पर मालिक का अधिकार होता है इसलिए उसकी पुत्री, पुत्र के साथ, जो चाहे कर सकता है।
3. रखैल, या गुलाम की पत्नी, पुत्री से संबंध रखने पर उससे उत्पन्न पुत्री से कोई आदमी सहवास कर सकता है। दूसरे सभी समाजों में इसे वर्जित माना जाता है। इनसेस्ट या पाप कर्म माना जाता है। केवल इस्लाम में ऐसा संबंध वैध माना जाने लगा। इसका एक परिणाम यह कि यदि कोई मुसलमान ऐसी विधवा से शादी करता है जिसकी पुत्री भी साथ में है, तो उससे यह दूसरा पिता सहवास कर सकता है, और कभी कभी जब इस तरह की घटनाएं सुनने में आती हैं तो हिंदुओं की समझ में नहीं आता, परंतु इस्लाम में ऐसा करना गुनाह नहीं है।
4. कोई मुसलमान किसी लड़के या लड़की को गोद ले सकता है परंतु इसके बाद इसे गोद लेना नहीं माना जा सकता। अब इनको दत्तक पुत्र की जगह पालित बालक या बालिका ही माना जा सकता है। इनके बड़े होने पर इनके साथ यौन संबंध को अनैतिक नहीं माना जा सकता।
5. इनको पालक पिता की संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मिलेगा। इसका हिस्साअपने जायज पिता की संपत्ति में ही मिलेगा।

विचित्र और दूसरों के लिए वर्जित और अनैतिक लगने वाले इंतजामों को कोई चुनौती नहीं दे सकता क्योंकि ऐसा अल्लाह के हुक्म से हो रहा हैः It is not fitting for a Believer, man or woman, when a matter has been decided by Allah and His Messenger to have any option about their decision: if any one disobeys Allah and His Messenger, he is indeed on a clearly wrong Path,
— Sura al-Ahzab Quran 33:36 (Translated by Yusuf Ali)

हिजाब
सामान्य व्यवहार में एक पुरुष और एक स्त्री का संबंध ही पारस्परिक विश्वास की रक्षा कर सकता है। किसी अन्य की उपस्थिति के साथ, वह वास्तविक हो या संदिग्ध, कलह और अपराध आरंभ हो जाते हैं। अनेक पत्नियों का हरम बसाने पर जो भीतरी कलह और भटकाव आरंभ होता है उसकी कहानियां किसी को पता नहीं चल सकती। मोहम्मद साहब के हरम में संख्या एक समय में नव-दस तक पहुंच चुकी थी। जिस मामले में स्वयं पैगंबर संयम नहीं बरत सकते थे उसमे उनके अनुयाई भी उन्हीं की राह पर चलें, यह स्वाभाविक था और इसलिए मोहम्मद साहब के हरम के लिए खतरा था।

उमर बिन खत्ताब ने शिकायत की, अल्लाह के पैगंबर, आपके घर में चरित्रवान इंसानों के अलावा चरित्रहीन लोग भी आपकी बीवियों से रब्त-जप्त रखते हैं। आप किसी तरह की रोक टोक क्यों नहीं रखते। [Umar bin Al-Khattab said: `O Messenger of Allah, both righteous and immoral people enter upon you, so why not instruct the Mothers of the believers to observe Hijab’ Then Allah revealed the Ayah of Hijab.” 2:125 And I said, `O Messenger of Allah, both righteous and immoral people enter upon your wives, so why do you not screen them’ Then Allah revealed the Ayah of Hijab.]

यहीं से आरंभ होती हैं पाबंदियां और बंधन। ऐसे मामलों में सहारा भी अल्लाह का ही रह जाता था:
O wives of the Prophet, you are not like anyone among women. If you fear Allah, then do not be soft in speech [to men], lest he in whose heart is disease should covet, but speak with appropriate speech. 33:32.God desires only to put away from you filth, O Folk of the House, and to make you completely pure.33.33

पता नहीं उन कालों में यह अर्थ विस्तार हुआ था या नहीं, कि असाधारण होने के कारण वे सभी मुसलमानों की माताएं हैं। परंतु यह बंधन भी किस काम का था जब रक्त संबंध वाली मां, और दूसरी माताओं में भी भेद किया जा सकता था, जैसे गोद लिए पुत्र और रक्त संबंध वाले पुत्र में किया जाता था।

जैनब के साथ विवाह के बाद इसके नमूने भी सामने आने लगे थे। यदि वह स्वयं उसकी सूरत देखकर होश गवां बैठे थे तो दूसरे तो उस जमाने से लेकर आज के जमाने तक उन्हीं के नक्शे कदम पर चल रहे हैं। उनको तो ऐसा करना ही था। मैं नीचे की टिप्पणी का अनुवाद नहीं करना चाहता। व्याख्या व्याख्या होती है। उसमें थोड़ा बहुत हेरफेर विचारक की अपनी समझ के अनुसार हो सकता है परंतु किसी को प्रमाण बनाकर उसका अनुवाद करने चलें तो अपराध दूना हो जाता है:
Al-Bukhari recorded that Anas bin Malik, may Allah be pleased with him, said: “When the Messenger of Allah married Zaynab bint Jahsh, he invited the people to eat, then they sat talking. When he wanted to get up, they did not get up. When he saw that, he got up anyway, and some of them got up, but three people remained sitting. The Prophet wanted to go in, but these people were sitting, then they got up and went away. I came and told the Prophet that they had left, then he came and entered. I wanted to follow him, but he put the screen between me and him. Then Allah revealed,

(O you who believe! Enter not the Prophet’s houses, unless permission is given to you for a meal, (and then) not (so early as) to wait for its preparation. But when you are invited, enter, and when you have taken your meal, disperse…)” Al-Bukhari also recorded this elsewhere. It was also recorded by Muslim and An-Nasa’i. Then Al-Bukhari recorded that Anas bin Malik said: “The Prophet married Zaynab bint Jahsh with (a wedding feast of) meat and bread. I sent someone to invite people to the feast, and some people came and ate, then left. Then another group came and ate, and left. I invited people until there was no one left to invite. I said, `O Messenger of Allah, I cannot find anyone else to invite.’ He said,
«ارْفَعُوا طَعَامَكُم»
(Take away the food.) There were three people left who were talking in the house. The Prophet went out until he came to the apartment of `A’ishah, may Allah be pleased with her, and he said,
«السَّلَامُ عَلَيْكُمْ أَهْلَ الْبَيْتِ وَرَحْمَةُ اللهِ وَبَرَكَاتُه»
(May peace be upon you, members of the household, and the mercy and blessings of Allah.) She said, `And upon you be peace and the mercy of Allah. How did you find your (new) wife, O Messenger of Allah May Allah bless you.’ He went round to the apartments of all his wives, and spoke with them as he had spoken with `A’ishah, and they spoke as `A’ishah had spoken. Then the Prophet came back, and those three people were still talking in the house. The Prophet was extremely shy, so he went out and headed towards `A’ishah’s apartment. I do not know whether I told him or someone else told him when the people had left, so he came back, and when he was standing with one foot over the threshold and the other foot outside, he placed the curtain between me and him, and the Ayah of Hijab was revealed.” This was recorded only by Al-Bukhari among the authors of the Six Books, apart from An-Nasa’i, in Al-Yaum wal-Laylah.[The Quran: Commentaries for 33.53, Al Ahzab (The allies)]

औरतों के लिए भी तीन किलेबंदियां, एक दीवार की, न वे बाहर निकल सकती थीं, न कोई दूसरा पति की इजाजत के बिना घर में घुस सकता था। दूसरी खुदाई आदेश की। तीसरी शोभा और प्रतिष्ठा के लिए अपनाए गए नकाब की। इस्लाम में औरत बहुत आजाद है। वह अपनी बेड़़ियां खुद चुन सकती है। यदि इतना छोटा सा काम भी वह न संभाल पाई तो उसके लिए बेड़ियों का चुनाव पुरुषों को करना ही होगा।

Post – 2019-07-03

रीतियां, रूढ़ियां और विश्वास (2)

सजदा

इब्रानी परंपरा में सजदा या झुक कर जमीन से माथा लगाकर बंदगी करने का चलन नहीं था। प्राचीन काल में यहूदी आसनी जमीन पर बैठकर प्रार्थना करते थे। उसका स्थान कुर्सियों ने लिया है। प्रार्थना के लिए खड़ा होना पड़ता है। इसका निकटतम आदर्श भारतीय प्रार्थना और प्रणिपात प्रतीत होता है।

परंतु पहले के अरब समाज में इस तरह का कोई चलन रहा नहीं लगता।

इस्लामी मान्यता के अनुसार जब मुहम्मद को इल्हाम हुआ और उसके सम्मोहन से बाहर निकले तो वह घबराए और डरे हुए थे।

उनको भले पता न चला हो कि उन्हें क्या हुआ है, परंतु खदीजा को जिन्होंने उन्हें प्रेरित किया था उन्हें इसका रहस्य पता था । वह उनको लेकर, उनकी बुआ वरक्का के पास गईं और कहा सुनो तो मोहम्मद क्या कह रहे हैं।

वरक्काेन इसी मुद्रा में झुक कर उनसे पूछा, “तुमको क्या दिखाई पड़ा कि तुम्हारा यह हाल हो गया? तभी से ही इस मुद्रा को अल्ला के हुक्म जैसी मान्यता मिल गई।

जाहिर है, यह एक गढ़ी हुई कहानी है जिसके इतिहास का या तो मुस्लिम विद्वानों को पता नहीं, या यदि पता है तो इसे शुद्ध इस्लामी सिद्ध करने के लिए वे इस पर परदा डालते हैं।

‘जैसा कि उसके फारसी प्रतिरूप ‘नमाज’ से प्रकट होता है, यह नमन है, इसकी मुद्रा योग की एक विशिष्ट मुद्रा (वीरासन) है, जिसे भोजन के बाद भी किया जा सकता है। दरबार के समय लगभग सभी मुसलमान बादशाह तख्त पर इसी मुद्रा में बैठते रहे हैं ।

आज जब योग के विषय में कठमुल्लों द्वारा अनावश्यक हठधर्मिता दिखाई जा रही है, यह याद दिलाना जरूरी हो जाता है कि ऐसे मुसलमान जो बात बात पर मोहम्मद साहब की जीवन को आदर्श बनाकर उस पर चलने की कवायद करते हैं, यह भी नहीं जानते कि मोहम्मद के प्रेरणास्रोत क्या थे और किस साधना के द्वारा वह अलौकिक शक्ति पाना चाहते थे और क्या पाया था।

कालदेव के दिव्य रूप का दर्शन करने के बाद घबराए हुए अर्जुन की जो दशा होती है “दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि | दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥11.25॥” कुछ ऐसी ही दशा मोहम्मद साहब की लगती है । कहते हैं लोटे पर मक्खी को बैठा देखकर, उसे इंगित करते हुए नास्तिक नरेंद्र दत्त ने जब रामकृष्ण परमहंस की क्षणिक अनुपस्थिति में उनका उपहास करते हुए कहा था, ब्रह्म ब्रह्म पर बैठा और ठीक उसी समय उपस्थित हुए परमहंस ने शिर-स्पर्श करते हुए, हामी भरी थी और उन्हें जो कुछ दिखाई पड़ा था उसके बाद ऐसी ही घबराहट उनको भी हुई थी।

तलाक

पश्चिमी समाज में जीवनसंगिनी की अवधारणा नहीं थी, जनम जनम का साथ है हमारा तुम्हारा जैसा गीत वहां कोई गाए भी तो लोगों की समझ में नहीं आ सकता था। भारत में यह था। किसी अकल्पनीय परिस्थिति में परित्याग संभव तो था परंतु, उसके बाद भी स्त्री उसी की पत्नी कहलाती थी। परित्याग के बाद पति पत्नी को उन सभी सुविधाओं से वंचित कर देता था, जिसका पत्नी के रूप में उसे अधिकार था, परंतु वैवाहिक बंधन से मुक्त नहीं करता था, इसलिए मानना होगा कि संबंध विच्छेद भारतीय जन्म जन्मांतर के बंधन से अधिक मानवीय है।

पश्चिम में संबंध विच्छेद का चलन बहुत पुराना है। इसका जिक्र और विधान हामू रब्बी की संहिता ( 1795-1750 ई.पू.) में है। इसके अनुसार एक आदमी अपनी पत्नी को केवल यह कह कर कि “तुम मेरी पत्नी नहीं रहीं” मेहर की रकम, और एक निश्चित जुर्माना चुका कर तलाक दे सकता था।
A man could divorce his wife by saying, “You are not my wife,” paying a fine and returning her dowry.

इसलिए मुसलमानों का यह दावा कि इस्लाम ने महिलाओं को अधिक आर्थिक सुरक्षा दी गलत लगता है। महिलाओं के अधिकार कम हुए, इसका प्रमाण यह है कि हामू रब्बी की संहिता में औरत को भी संबंध विच्छेद का अधिकार, कुछ टेढ़ा तो था, परंतु था। उसे कानूनी रास्ता अपनाना पड़ता था। विच्छेद मनमर्जी से नहीं हो सकते थे। यह व्यभिचार, बंध्यापन, दुर्व्यवहार, उपेक्षा, गाली गलौज के आधार पर ही हुआ करता था। A wife had to file a lawsuit to obtain a divorce. Babylonian couples sought divorces for reasons such as adultery, infertility, desertion, abusive treatment and neglect. A wife could divorce a husband for adultery. A husband could ask a court to execute his adulterous wife”. (according to Rev. Claude H.W. Johns’ book, “Babylonian and Assyrian Laws, Contracts and Letters).

हम नहीं जानते कि इस्लाम पूर्व अरब में तलाक का चलन था या नहीं; था तो उसका रूप क्या था? मोहम्मद साहब के जीवन काल में तलाक की दो घटनाएं और एक विधान हमें विचलित करता है। इनका जिक्र जरूरी है।

मोहम्मद ने जैनब नाम की दो महिलाओं से विवाह किया था। एक ऐसे पति की विधवा थी जो अबीसीनिया में निर्वासित हुए थे। उनको संरक्षण की जरूरत थी, पत्नी बनाने का तरीका छोड़कर संरक्षण का कोई दूसरा तरीका उन्हें मालूम नहीं था, इसलिए 53 साल की उम्र में किया गया विवाह ‘आ गले लग जा’ से प्रेरित था। अर्थात वैवाहिक संबंध, और तर्क संरक्षण का।

ये तर्क मोहम्मद साहब की महिमा को गिरने से बचाने के लिए गढ़े जाते हैं। मेरे लिए इस कारण वह न तुच्छ हो जाते हैं, न महान। दूसरे संदर्भ में, कहे तो गांधी के संदर्भ में, मैं यह कह चुका हूं कि महान विकृतियां महान पुरुषों में ही पाई जाती है, सबसे गहरी दरारें भी सबसे ऊंचे पर्वतों में पाई जाती हैं। इसलिए मोहम्मद साहब का यह पक्ष मेरी नजर में उन्हें गिराता नहीं है, उठा तो सकता ही नहीं।

इसे खुले मन से स्वीकार किया जाना चाहिए कि यह बुढ़भसता या खबीसपन (इंबेसिलिटी) की व्याधि थी जिसका माध्यम वे लोग बनते हैं जो जवानी के दिनों में ही कठोर आत्म संयम का सहारा लेते हैं और ढलती उम्र में उन्हीं वासनाओं के खिलौने बन जाते है। वे उनकी पूर्ति के कई बहाने तलाशते हैं पर चाहें तो भी उससे न तो मुक्त हो सकते हैं न ही उस ऊर्जा को किसी नई दिशा में ढाल सकते थे । उनसे अपने ज़मीर और मिजाज पर कायम रहने का संकल्प तक नहीं निभ पाता।

मोहम्मद में यदि या विकृति आई तो इसे इसका ही परिणाम मानना होगा कि साहचर्य के बावजूद ढलती उम्र में खदीजा से न उनका शारीरिक संबंध संभव था, न उनके नियंत्रण से मुक्त हो पाना, जिसने नियंत्रण हटने के साथ उद्दाम क्षति पूर्ति का रूप लिया, इसलिए इस विफलता के आधार पर उनका मूल्यांकन करना गलत है, परंतु महिमा का गान करना उससे भी गलत है। व्याधि के लिए व्यक्ति को दोष देना समझदारी नहीं।

कामुकता का उस आयु में जो तब की आयु सीमा में बुढ़ापा था, इतना प्रबल हो जाना कि वह विवेक खो बैठें, इसी रूप में समझी जा सकती है। जैसा हमने कहा, जेनब नाम की दूसरी युवती रिश्ते में उनकी दूर की बहन लगती थी। यह अबू तालिब के छोटे भाई अब्दुल मुत्तलिब की बेटी थी। ऐसा विवाह अरब समाज में वर्जित था।

इससे भी बड़ी बात यह कि वह उनके दत्तक पुत्र जईद/ज़ैद की पत्नी थी। उसे देखते ही मोहम्मद साहब अपने पर काबू न रख सके। उनका मनोभाव पता चलने पर पुत्र ने पत्नी को तलाक देने का सुझाव रखा। तलाक का एक मार्मिक संदर्भ यही आता है। तलाक के प्रस्ताव को मोहम्मद ने ठुकरा दिया।
A little later on, in the beginning of the fifth year of the Hijra, a marriage was arranged with Zainab bint Jahsh, the wife of Muhammad’s adopted son Zaid. The story goes that, on visiting the house of Zaid, Muhammad was struck with the beauty of his wife. Zaid offered to divorce her, but Muhammad said to him, ‘Keep thy wife to thyself and fear God.’ Zaid now proceeded with the divorce, though from the implied rebuke in the thirty-sixth verse of Suratu’l-Ahzab (xxxiii) he seems to have doubted the propriety of his action. In ordinary cases this would have removed any difficulty as regards the marriage of Zainab and Muhammad, पर उन् परंतु प्रकृति के आगे उनकी क्या चलती। इसके लिए एक नया इल्हाम तो होना ही था।

अब नया ज्ञान प्राप्त हुआ, कि दत्तक पुत्र तो पुत्र होता ही नहीे। और फिर वह तो पहले गुलाम रह चुका था। गुलाम का सब कुछ स्वामी का होता हे। फिर उसने तो तलाक भी दे दिया था, इसके बाद भी तू अल्लाह से छिपने का प्रयत्न करता है। अल्लाह के हुक्म के आगे पुरानी सामाजिक वर्जनको कैसे जगह मिल सकती है: A little later on, in the beginning of the fifth year of the Hijra, a marriage was arranged with Zainab bint Jahsh, the wife of Muhammad’s adopted son Zaid. The story goes that, on visiting the house of Zaid, Muhammad was struck with the beauty of his wife. Zaid offered to divorce her, but Muhammad said to him, ‘Keep thy wife to thyself and fear God.’ Zaid now proceeded with the divorce, though from the implied rebuke in
the thirty-sixth verse of Suratu’l-Ahzab (xxxiii) …’It is not for a believer, man or woman, to have any choice in their affairs, when God and His Apostle have decreed a matter.’ Suratu’l-Ahzab (xxxiii).
(जारी)

Post – 2019-07-01

रीतियां, रूढ़ियां और विश्वास

बीच वाला आदमी
मुझे जीविका के लिए सरकारी नौकरी करनी पड़ी। मैं भारत के राष्ट्रपति के नाम पर नियुक्त हुआ, संविधान और सेवा शर्तों के अनुसार, मैं उनके अधीन काम करता था जिसके अधीन उन्हीं सेवा शर्तों को मानते हुए तीनों अंगों के उच्चतम पदों पर काम करने वाले। परंतु जिससे मेरा पाला पड़ता था वह बीच वाला आदमी या मेरे ठीक ऊपरी पद पर काम करने वाला आदमी, मेरे लिए, जितना ताकतवर था उतना राष्ट्रपति, चाह कर भी नहीं हो सकते थे। अपने अनुभवों से जानता हूं यह बीच वाला आदमी राष्ट्रपति से अधिक ताकतवर होता है। भगवान के नाम पर पेश किया जाने वाला भोग और चढ़ावा पुजारी भोगता और सहेजता है। जहां चढ़ावा नहीं है, वहां की स्थिति इससे अच्छी नहीं है।

इस्लाम की ओर से किया जाने वाला यह दावा कि अल्लाह और बंदे के बीच कोई मध्यस्थ नहीं है, सही नहीं लगता।

ईसा मसीह ने अपने बारह अनुयाई चुने और उन्हें अपने मत का प्रचार करने का उत्तरदायित्व सौंपा था और उसी की तर्ज पर मोहम्मद ने भी करार को प्रामाणिक रूप देने के लिए अपने-अपने कबीलों के ठीक बारह सरदारों को आमंत्रित किया था (कबीले न सही, कुनबे ही सही) और उनको अपने प्रभाव क्षेत्र में इस्लाम के प्रचार करने का उत्तरदायित्व दिया ऐर यह प्रचारित करने का जिम्मा दिया था कि मुहम्मद अल्लाह के पैगंबर हैं और जो कोई उनका कहा नहीं मानता है वह भारी गुनाह करता है जिसकी सजा उसे मिल कर रहेगी और उनके साथ सबका दायित्व अपने ऊपर लिया था। खुदा और बंदों के बीच मध्यस्थता का काम कयामत के दिन भी बना रहता है।

पदक्रम
हम देख खाए हैं कि ईसाइयत का नाम लेते हुए उन्होंने अपनी व्यवस्था आरंभ की थी। ईसाइयत में इससे पोप, बिशप और पादरी का पद क्रम तैयार हुआ था। इस्लाम में इसने खलीफा, इमाम और मुल्ला के पदक्रम का रूप लिया। ईसाई तंत्र में कम से कम ईसाइयों के भीतर इस क्रम का सम्मान किया गया। इस्लाम में इसका निर्वाह नहीं हो सका। इसका विस्तार से अध्ययन किया जाना चाहिए।

महिलाओं का दर्जा
बौद्ध ढांचे में भिक्षुओं के साथ भिक्षुणियों को स्थान मिला था, ईसाई ढाँचे में ननों को प्रवेश मिला, इस्लाम में इसके लिए संभावना अधिक थी । मदीना से मुहम्मद को मना कर ले जाने वाले 73 पुरुषों के साथ मदीना से दो महिलाएं भी आई थीं। इस्लाम में इस ढांचे का आरंभ, ( जैसा हम देख आए हैं), अकवा के दूसरे करार के साथ ही हो गया था। इस्लाम में यकीन रखने वाले, उनके ऊपर उनके सरगना और सबसे ऊपर स्वयं मोहम्मद जो कयामत के दिन भी मध्यस्थ के रूप में बने रहेंगे। बात चढ़ावे की नहीं है, उसमें दमड़ी जाती है पर चमढ़ी बची रहती है। दूसरे विकल्प में दमड़ी बचा ली जाती है चमड़ी चली जाती है। कहां जाता है इस्लाम में महिलाओं को सबसे अधिक आर्थिक सुरक्षा प्रदान की गई है, परंतु किस कीमत पर? आत्मसम्मान और सुरक्षा की कीमत पर? इस्लाम के आने से पहले महिलाओं को जितनी सुरक्षा और स्वतंत्रता प्राप्त थी उसमें इतनी कमी आई कि विवाहिता स्त्री भी सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती।

जुमे की नमाज
मोहम्मद साहब हिजरत के दौरान जिन अनुभवों से गुजरे उनका एक परिचय संक्षेप में दे आए हैं। एक ढांचा तैयार करने की दृष्टि से उन्होंने इस दौरान क्या किया इसका उल्लेख रह गया। आठवें दिन वह हिजरी 1 के पहले महीने (रबीउल औवल) के आठवें दिन कूबा पहुंचे और सार्वजनिक इबादत के लिए एक मस्जिद का शिलान्यास किया। यहां से मस्जिदों का आरंभ होता है। इसे पहली मस्जिद के रूप में याद किया जाए यह स्वाभाविक ही है। इसी दिन अली उनसे आ मिले थे। सभी आगे बढ़े तो बानी सलीम जिस घाटी में रहते थे, उसमें रुके। यह शुक्रवार था। यहां उन्होंने जहां सजदा किया, वहां मस्जिद बनाई गई। इसे शुक्रवार की मस्जिद या जुम्मे की मस्जिद कहा जाता है। इस अवसर पर उन्होंने एक तकरीर भी दी थी। तभी से जुम्मे की नमाज को विशेष महत्त्व दिया जाता है, जिस पर एक तकरीर दे कर मुसलमानों की मानसिकता को नियंत्रित किया जाता है।

मस्जिद की जमीन
कहते हैं, जब वह रवाना हुए तो अपने अपने इलाके में उन्हेंअपनी ऊंटनी से नीचे उतरने का आग्रह करने लगे। वह किसकी बात मानते किसकी नहीं, उन्होंने कहा इसका फैसला ऊंटनी ही करेगी। वह जहां जाकर बैठ जाएगी वहीं पर उतरूंगा। ऊंटनी मदीना से पूरब की तरफ एक खुली जगह में बैठ गई। मोहम्मद साहब ने वहां मस्जिद बनाने का इरादा किया। जमीन दो अनाथों की थी । इसे उन से खरीदा गया। इसी के आधार पर यह कहा जाता है कि मस्जिद किसी जमीन या मकान पर जबरदस्ती कब्जा करके नहीं बनाई जा सकती। यह शरीयत के अनुरूप नहीं है।

यह एक तरह का झांसा है, क्योंकि यदि यह सच है तो मध्यकाल में जितनी भी मस्जिदें भारत में बनी उनमें उन मस्जिदों को छोड़कर जो इस नियम के अनुसार नहीं बनी है शरीयत के खिलाफ मानकर हिंदुओं को सौप देना चाहिए, उन मस्जिदों को तो हर हाल में जिनके बारे में पुरातात्विक या अभिलेखीय प्रमाण है कि उन्हें मंदिरों को तोड़ कर बनाया गया है। कम से कम ऐसे मुस्लिम विद्वानों को मौखिक रूप में इस बात का समर्थन करना चाहिए कि ऐसी सभी मस्जिदें शरीयत के खिलाफ हैं और उन्हें हिंदुओं को लौटा देना चाहिए क्योंकि इसके अनुसार वे नापाक जगहें हैं।

ऐसा करने की जगह वे इतिहास को कयास से उलट देंगे और यह समझाएंगे कि यदि मस्जिद बनी है तो किसी तरह की जोर जबरदस्ती की ही नहीं गई होगी। भारत में शरीयत की दुहाई आज तक किसी आदर्श के निर्वाह के लिए नहीं किया गया, कट्टरता को जायज सिद्ध करने के लिए किया जाता है।

सच्चाई यह है कि ऐसे लोगों को मालूम है अभी तक मोहम्मद साहब ने हिंसा का सहारा नहीं लिया था, लूटपाट आरंभ नहीं किया था। एक बार जब उस रास्ते पर चल पड़े तो उनके लिए कोई भी कुकर्म कुकर्म नहीं था क्योंकि अल्लाह उन्हें ऐसा करने का संदेश भेज देता था जिसकी अवज्ञा वह कर नहीं सकते थे।

मुसलमानों का कहना है, अल्लाह एक है, सर्वोपरि है, उसके अलावा कोई दूसरा अल्लाह नहीं। परंतु असलियत यह है कुरान शरीफ के अनुसार ही दो अल्लाह है। एक मक्का का, दूसरा मदीने का। एक की बात दूसरा उलट-पुलट देता है। पहला इंसान को किसी को भी सजा देने की इजाजत नहीं देता, गुनाहगारों को स्वयं सजा देता है और नेक बंदों के लिए जन्नत का इंतजाम करता है। दूसरा अल्लाह हर तरह के गुनाह का समर्थन करता है, गुनाह करने में कोई झिझक हो तो उस पर फटकार लगाता है और करने को मजबूर कर देता है। सभी मुसलमान इस सचाई को जानते हैं, और इसलिए दूसरे मजहब के लोगों को समझाने के लिए वे मक्का के अल्लाह की बात करते हैं, और तहे दिल से उन सभी गलत कारनामों का समर्थन करते हैं, जिनको पहला अल्लाह और पहले का पैगंबर गलत मानता था।
(जारी)