Post – 2020-01-26

‘क्यों कहा? किसने कहा?’
‘कल वो संसार में थे’
बता रहें हैं कई
‘आज अखबार में थे।।’

Post – 2020-01-26

दरो दीवार वही
घर का आकार वही
कल तलक हम थे यहीं
ढूँढ़िए होंगे कहीं।।

Post – 2020-01-25

बात अपनी भी कहो, अहले वतन चाहते हैं (2 ्आगे)

जो संस्कार मिले थे, उसमें छोटे लोग बड़े लोगों से मुंह नहीं लगते, उन्हें जवाब नहीं देते।

मुझे किसी ने कभी यह सीख नहीं दी, कि बड़ों से जबान नहीं लड़ाया जाता है, पर कई संदर्भों में लोगों को दूसरों को इस ढिंठाई पर फटकारते सुनकर, मैंने चुपचाप, शैशव और बचपन के बीच की क्रांति रेखा पार करते ही या हो सकता है, उससे पहले ही, यह ठान लिया था, मैं यह नौबत ही न आने दूंगा कि कोई मुझे जबान चलाने का दोषी पा सके। इस आदर्श पर डटे रहने के कारण, पिट रहे हैं, पर मजाल क्या कि इसकी भनक तक बाबा को लगी हो। मेरे विषय में वह निश्चिंत थे कि मुझे पूरा दुलार मिल रहा है, क्योंकि सभी के पूछने पर मैं हँस कर बताता कि मुझे बहुत प्यार करती है।

बड़ी उम्र का हो जाने पर जिन बातों को भूल जाते हैं उनमें सबसे नासमझी भरी है यह भूल कि बच्चे कितनी कम उम्र में बड़े लोगों को बेवकूफ समझना और बेवकूफ बनाना, अपने फैसले उन पर लादना, सीख जाते हैं और उनकी हर माँग पूरी करते चले जायँ तो ऊपर से बढ़ते दिखाई देते हैं, भीतर से सड़ते चले जाते हैं – निकम्मे, परजीवी, स्वार्थी और निर्मम और खतरनाक।

दो दशक पहले यमन के एक बच्चे की कहानी आप ने पढ़ी होगी। पिता से कोई चीज लाने को कहा था। पिता से चूक हो गई, माँग होने पर बताया, भूल गया, कल ला देगा। लड़के ने पिस्तौल तानी और गोली मार दी।

उसने गलत नहीं किया, इस अनिवार्य परिणति में पिता बच्चे की तुलना में अधिक जिम्मेदार था, यद्यपि दोषी लड़का ही दिखाई देगा। हमारे आसपास यमन का वह बच्चा आए दिन दिखाई देने लगा है, एक छात्र ने नकल करने पर रोकने पर रोकने वाले को गोली मारी, एक आदमी ने टोलटैक्स मांगने पर, किसी दूसरे ने गाड़ी से खरोंच लगने पर, अपने से आगे निकलने पर, चाय या खाने की कीमत माँगने पर गोली मार दी। अमेरिका जैसे देशों में अकारण या रहस्यमय कारणों से एक लड़का पूरी तैयारी से अपनी क्लास में आता है तब तक अंधाधुंध गोलियाँ चलाता और लाशें बिछाता चला जाता है जब तक उसे मार नहीं किया जाता है या उसकी गोलियां खत्म नहीं हो जाती हैं ।

मै यह गलत तार छेड़ बैठा।, इसकी तस्वीर पेश करने के लिए जितनी बड़ी पड़ताल, जितना बड़ा आंकड़ा एकत्र करने वाला दल और इसकी रिपोर्ट तैयार करने वाला जितना कागज चाहिए, वह तो मेरे पास है नहीं।

कहना यह चाहता हूं इन बेचारों का कोई दोष नहीं, यह तो उस खेती की उपज है जो हो अधिकारों के विस्तार और कर्तव्य निर्वाह के संकोच के कारण हमारे समाज के खेत में पैदा किया जा रहा है और जो केवल हमारे देश तक सीमित नहीं है। दुनिया में ऐसे मजहब है, जिनमें अधिकार बोध है, कर्तव्य बोध है ही नहीं. व्यवस्थाएं जिनमें अधिकारों का विस्तार करते हुए समाज का विध्वंस करने का. करते रहने का राजनीतिक लाभ के लिए संकल्प दिखाइए और समाज के प्रति कर्तव्य बोध तक समाप्त हो गया है। अधिकारों का बढ़ना, यमन की बच्चे का समाज पैदा करना है, अधिकारों का समग्र हनन और केवल कर्तव्य की मांग तानाशाही, फॉसिज्म और नात्सीवाद एवन का सूचक है। इनके बीच संतुलन आदर्श व्यवस्था आदर्श नागरिक आदर्श विकास और आदर्श मानसिकता पैदा करने के लिए जरूरी है।

भाई साहब जो बने, उसके लिए मैं अपनी सौतेली मां, माई, को अपराधी नहीं मानता, उसने मेरे साथ जैसा व्यवहार किया उससे बहुत दुख होता था, परंतु विचित्र बात यह है कि सारा दुख सहने के बाद मैं उसे दोष नहीं दे पाता था।

नहीं, न्याय का तराजू लेकर बैठता नहीं था, सिर्फ यह सोचता था कि भाई ने यह काम किया नहीं, दीदी यह करती नहीं और माई कर नहीं सकती, फिर मेरे सिवा और कौन है जो करेगा।

माई के पक्ष में एक बात और थी। ऐसा नहीं होता कि वह काम न कर रही हो और किसी दूसरे से काम करा रही हो। काम करते हुए उसे ऐसी मदद की जरूरत थी, जिसे वह कर नहीं सकती थी। जैसे ऐसा कोई छोटा मोटा काम जिसके लिए घर से बाहर जाना जरूरी हो। सुबह से शाम तक, उसे मैंने आराम से बैठते नहीं देता।

एक बड़े से घर के लिए, एक अकेली औरत के लिए, झाड़ू लगाने, घर- बर्तन करने, सूप, ओखली, चक्की, जाँत, झरना, चलनी, रसोई के महाचक्र में घिरे रहना। यहां तक कि खाने के लिए अलग-अलग आने वालों को खिलाना भी एक लंबा काम होता था। उसकी अय्याशी का हाल यह, दोपहरी तिपहरी में कभी फुर्सत निकालकर अपनी कमर भी सीधी कर लेती थी।

माई घर में अकेली थी। दीदी इतनी सयानी तो हो ही गई थी कि कामकाज में हाथ बँटा सके और इस तरह वह बुनियादी शिक्षा ग्रहण कर सकें इसके अलावा दूसरी कोई शिक्षा सुलभ भी नहीं थी। भाई और दीदी की जड़ों में पड़ने वाले अतिरिक्त स्नेह ने उनके और माई की पहली दो सन्तानों का जीवन उसी सिंचाई ने सड़ा दिया और मेरी यातना ने मुझे अष्टधातु की प्रतिमा बनाया जिसे जंग न लगे, द्वेष न माई के प्रति, न दीदी और भैया के उसकी संतानों के प्रति।

यातना यह नहीं थी कि मुझे काम करना पड़ता। यातना यह कि जब दूसरे भाग जाते हैं तो काम मैं करता हूँ, वे शिकायत करते,हैं मैं बड़ाई करता हूँ, फिर भी वह मुझे ही क्यों दंडित करती है।

दार्शनिक चिंताएं किन यातनाओं से जुड़ी होती हैं, इसे पहले बुद्ध ने समझा होगा और फिर मैंने। बुद्ध को तप साधना से गुजरना पड़ा और मुझे सौतेली माताओं के अत्याचार के विषय में अमर लोककथाओं, सीत-वसंत, रानी केतकी आदि की कहानियों के माध्यम से आर्यसत्य तक पहुँचना पड़ा
जिनमें से सबसे हृदयविदारक कहानी माई ने ही सुनाई थी।

पुत्र के शत्रुओं से मुठभेड़ में शत्रु को मार कर आने, स्वयं मारे न जाने का जिउतिया (जिवितपुत्रिका) व्रत जो क्षत्राणियों का विशेष व्रत है। इसमें शाम को जहाँ कहीं बरियार का पौधा मिल जाए उसकी पूजा करके वे गाते हुए अपनी कामना जताती हैं,
‘ए अरियार/ का बरिआर/ राम जी से कहि दीहा अमुक के माई जिउतिया भुक्खल बाटी। हमार पूत/ मारि आवें / मरा न आवैं।’

इसमें यदि रास्ते में खेत पड़े और उसमें हराई का निशान दिखाई दे तो वह आघात का प्रतीक होता है इसलिए वह इसे लाँघ कर जाए तो अपशकुन होगा। सौतेली माँ सौतेले बच्चे के साथ, जिस के लिए उसने व्रत रखा था, बरियार पूजने निकली थी। रास्ते में हराई पड़ गई। और कोई चारा न देखकर उसने हराई पर बच्चे को सुलाया और उसकी छाती पर पैर रख कर उसे पार कर गई।

कहानी इतनी बिदारक है कि यदि यह याद दिलाए बिना आगे बढ़ूू तो भारी अन्याय होगा कि यह कहानी उसने स्वयं व्यथित भाव से सुनाया था। इसमें शायद विमाता होने के दुर्भाग्य की व्यथा भी रही हो।

परंतु इसका मेरे मन पर एक तो यह असर पड़ता कि दूसरी विमाताओं की तुलना में वह कितनी दयालु है जो उस तरह की माँग नहीं करती, दूसरे जब धमकाने के लिए जहर दे कर मारने की बात करती तो लगता वह सचमुच ऐसा कर भी सकती है। लेकिन जो सबसे आकुल करने वाला प्रश्न था वह यह कि जो स्त्री अपनी संतान को इतना प्यार करती है वह सौतेली संतान के प्रति ही क्रूर क्यों होती है? सभी स्त्रियाँ भली होती हैं तो सौतेली माताएँ ही क्यों बुरी होती हैं? क्या वे स्वयं चाहती हैं कि उसको सौतेली संतान मिले?

बुद्ध के आर्यप्रश्नों से कुछ अलग थे मेरे आर्य प्रश्न जो ऊपर के प्रश्न से कि जब उसकी सारी सेवा मैं करता हूँ, शिकायत भी नहीं करता, तारीफ भी करता हूँ फिर यह मुझे ही यातना क्यों देती है?

तारीफ!
सच कहें तो मैं तारीफ करता ही नहीं था। चार साल की उस छोटी उम्र में मैने बिना किसी के सिखाए यह समझ लिया था कि यदि किसी से शिकायत करूँगा तो वह किसी बहाने से आकर समझाएगी और यह जान कर कि मैने किसी से शिकायत की है, वह और सताएगी। भैया और दीदी तो भाग कर निकल जाते थे, मैं इतनी तेजी से भाग ही नहीं पाता हूँ, इसलिए यातना बढ़ जाएगी।

आप कहेंगे बकवास। इतनी छोटी उम्र में यह सूझ। मैं कल्पना से गढ़ रहा हूँ। स्वयं मुझे भी हैरानी होती उस पहली बार मगरू तेली की बीवी के पूछे सवाल की शब्द चित्रमय स्मृ्ति पियारे बाबा के घर के सामने पतरकुइयाँ की टूटी फूटी जगत से पास झुक कर मुझे दुलार से बेचारा टूअर कहते हुए, माई के लिए मयभा (मातृवत) शब्द का प्रयोग करते हुए पूछा था यह सवाल।

मेरा सोचना गलत भी नहीं था। सचमुच अपने बारे में मेरे बयान की खबर किसी तरह उसे मिलती थी। वैसे व्यवहार पर प्रशंसा? विश्वास नहीं कर पाती। मुझपर व्यंग्य करते हुए मुझे गबड़घूइस कहती, मुहावरे के साथ, “चरहा भरहा कै अन्त मिलैला, गबड़घुइसे कै नाहीं।” इसकी व्याख्या में न जाऊँगा पर रिश्वत के लिए घूस के प्रयोग की व्युत्पत्ति पर ध्यान दें। आप इसे “छिपे रुस्तम” भी कह सकते हैं। पर कहती हँसते हुए, एक दबे संतोष के साथ।

Post – 2020-01-24

बात अपनी भी कहो, अहले वतन चाहते हैं (2)

मुझे बोलना भी नहीं आता। इसमें तो किसी का दोष नहीं, माई की भी नहीं। गो जब वह कान उमेठती तो इस चेतावनी के साथ कि रोया तो फिर मारूँगी। वह यह धमकी न देती तो भी मैं रोता नहीं। किसी के सामने रोना, मुझे अपना अपमान लगता था। मैं दुर्दिन में भी किसी के सामने राेया नहीं। झुक कर किसी चीज की याचना न की, झुक कर कुछ भी ग्रहण न किया । मैं एकान्त में, सबकी नजरें बचा कर रोता था और उसी बीच यदि पुकार हो गई ताे झटपट आँसू पोंछ कर, जैसे पानी से नहीं, आँसुओं से मुँह धोया हो, प्रफुल्लित, हुक्म बजाने के लिए हाजिर हो जाता था। हो सकता है जीवन में जिस ऋजु दृढ़ता को अपना स्वभाव बनाए रहा, वह मेरे उसी प्रतिरोध की देन हो, पर तो भी उसकी जननी तो माई ही हुई।
पर यहाँ मनोभावों की अभिव्यक्ति की अश्रुधारा पर नहीं, वाचिक अभिव्यक्ति की बात कर रहा हूँ।

कुछ दोष मेरे संस्कारों का हो सकता है, जिसके कारण मैं अपना सुख-दुख किसी से बाँट न पाता था, और कुछ मेरे अहंकार का, कुछ संयोग का, परन्तु इसमें जो अंतिम तत्व सबसे बाद में जुड़ा, वह यह, कि केवल हिंदी जगत का नहीं, पूरे जगत का ज्ञान, कुछ क्षेत्रों में इस तरह नष्ट किया गया है कि अचलज्ञान संपदा के अधिकारियों के समक्ष, उनके ही ज्ञात सत्य की आलोचना किए बिना, अपनी बात करें तो वे अपनी ज्ञान सीमा में आपको मूर्ख मानकर, आपकी बात को समझने से इनकार कर देंगे।

यह स्वयं, उनके ज्ञात और मान्य विचार को पेश करके, उसका खंडन करने के बाद, अपनी बात समझाते हुए, आगे बढ़ने की ऐसी बाधा दौड़ थी कि खेल के मामले में जो देखते ही समझ में आ जाती है, वह वाचिक अभिव्यक्ति के मामले में उल्टी समझी जा सकती है। आप सही नहीं, एक गलत मानसिकता से ग्रस्त सिद्ध किए जा सकते हैं। एक गलत मान्यता की गाँठें लेखन में खोलते हुए आगे बढ़ना उतना कठिन काम नहीं है, जहाँ सब कुछ आपके नियंत्रण में होता है और पाठक सामने नही, केवल कल्पना में होता है, पर मंच से, या अन्यथा भी, बोलते हुए, समय से ले कर श्रेता तक के धैर्य की सीमा होती है।

बात-चीत तक में कई बार दूसरे व्यक्ति को अल्पज्ञता की झेंप से बचाने के लिए, विशेषतः यदि वह समादृत हो, उसके मंतव्य को जानने के बाद, मुस्कुरा कर बात खत्म कर देनी होती है।

यह रही उस पहले वाक्य की भूमिका जिसमें मैने कहा था कि मैं बोलना तक नहीं जानता। कुछ तो मैं खराब बोलता हूं, और कुछ मेरे आदर्श ऐसे हैं जिनके समकक्ष बन पाने की क्षमता के अभाव के बोध से कविता छोड़ दी और मंच से बोलने के प्रति उदासीन होता गया। कविता में यह नाम केदारनाथ सिंह का है, और बोलने में नामवर जी, जो इतनी स्पष्टता, इतने तारतम्य से, किसी विषय पर इतने अधिकार से बोलते कि श्रोता सम्मोहन की अवस्था में आ जाए।

यह जानने में समय लगा कि प्रभावशाली प्रस्तुति एक कला है, जिससे प्रतीति होती है, कलात्मक सम्मोहन पैदा होता है, वस्तुबोध नहीं। यह खतरनाक भी हैं।

जो सही तरीके से बोलना तक नहीं जानते उनका शिरोमणि मैं नहीं हूं। नागार्जुन हैं। न सिलसिले से बोल पाते थे, न कविता पढ़ पाते थे। श्रोता मुग्ध हो उससे पहले, अपनी ही रचना पर ताली बजाते हुए, लगभग नाचने लगते थे। उनसे भी आगे शमशेर, बात करो तो दिल में घर कर जाएं, मंच से बोलें तो कोई प्रभाव न पड़ें और फिर भी लगे कि कुछ तो था जो लड़खड़ाते हुए शब्दों के भीतर से चमक रहा था। और सबके उस्ताद, त्रिलोचन शास्त्री। बोलते कहीं थे, और बोलते कहीं का थे। और फिर भी जिन्होंने उन से अंतरंग बात की है, उनकी बहकी बहकी बातों के बीच से एक आतंककारी आवेश उन पर ताउम्र छाया रहा था।

खराब बोलने वालों के दो सिरों पर रामविलास शर्मा और अज्ञेय। और खराब कविता पढ़ने वालों के दो सिरों पर एक ओर अज्ञेय आते थे, दूसरी ओर उर्दू में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, और हिंदी में त्रिलोचन शास्त्री। अज्ञेय संचार के दूसरे अंतरंग स्तरों पर उतार कर कविता के मर्म को संचारित करना चाहते थे। वह पूरी आत्मीयता के साथ धीमी आवाज में बोलते थे कि आप की गरज हो तो ध्यान और प्रयत्न से सुनें। परंतु अहमद फ़ैज़ और त्रिलोचन शास्त्री पढ़ते तो उसी इरादे से थे, पर अपनी कविता इस तरह पढ़ते थे जैसे किसी दुश्मन की कविता पढ़ और उससे दुश्मनी निकाल रहे हों।

परंतु यह न समझें कि मैं अपनी कमजोरी छिपाने के लिए बड़े बड़ों का नाम ले रहा हूं, और ताना भी न दें कि मुझे अपनी विफलता पर शर्म आनी चाहिए। सच्चाई यह है कि इन उदाहरणों के बाद भी मुझे शर्म तो आती है। हां अपने बारे में मेरी राय इतनी खराब नहीं है, जितनी मेरी इस कमजोरी को जानने के बाद, आप बनाना चाहेंगे।

मैं जिस वजह से कह रहा हूं कि मुझे बात करनी नहीं आती वह यह कि यदि आती होती तो जिन मुद्दों का, शुरू में, सूत्र रूप में, संकेत दिया था उन्हीं पर तरतीब से और कुछ विस्तार से बात करता। हुआ यह कि लड़खड़ाते हुए, धीरे-धीरे आगे बढ़ते जहां पहुंचे, वहीं तंबू गाड़ दिया, पीछे का पूरा इलाका साफ। अपनी बात सिलसिलेवार तो कहता। अब यह कोशिश कल।

Post – 2020-01-23

बात अपनी भी कहो, अहले वतन चाहते हैं

कल अपनी पोस्ट पूरी न कर सका। जो लिखा वह जिस व्यग्रता और भरे कंठ और भरी आँखों से था उसकी शब्दसंख्या जाँचने के लिए हाइलाइट किया था और खाने की घंटी बजी तो उठ कर जल दिया। ळौट कर देखा वह गायब। जल्दी में कट भी गया और सेव भी हो गया। सुबस उसका कश्चात्ताप तुकबंदी में फूटा। शीर्षक रख दिया परिचय। मित्रों ने औरशोध करने वालों ने कई बार दबाव बनाया कि अपना परिचय लिखूँ, लिखना भी चाहा, पर कैसे लिखा जाता है, या कैसे लिखना चाहिए सूझा ही नहीं। आच शार्षक सूझ गया तो सोचा इसके पहले आत्म लगाने कर देखते हैं:

मुझे कोई खेल नहीं आता। यहाँ तक कि ढेला तक निशाने पर नहीं मार सकता। परंतु मुझे खेल देखना बहुत पसंद है। तन्मयता से देखता हूँ, जैसे मैं देख नहीं रहा हूँ, खेलने वाले की जगह खुद ही खेल रहा हूँ। क्रिकेट मुझे सबसे अधिक पसंद है, क्योंकि सौ तक की गिनती उल्टी-सीधी दोनों गिन लेता हूं। चौके, छक्के में, फर्क कर लेता हूं, एक दिन ऐसा भी आएगा गूगली, यॉर्कर, बाउंसर का फर्क भी समझ कर रहूँगा। इस खेल पर इतना अधिकार कर चुका हूं कि जब किसी अच्छी गेंद पर किसी को आउट होते देखता हूं तो मेरे मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ता है, अरे, इसे तो मैं भी नहीं खेल सकता था।

अपनी अयोग्यताओं के लिए अपनी विमाता (माई) को दोष देता हूँ, और योग्यताओं के लिए, यदि वे तलाशने पर मिल सकें तो, उन परिस्थितियों को जिनमें मैंने अपनी वेदना के माध्यम से दूसरों की वेदना तक पहुंचने का प्रयास किया।

5 साल की उम्र से मुझे घरेलू काम करने पड़ते थे। शिकायत नहीं कर पाता था। भैया और दीदी, विद्रोही थे। वे मां को कितना प्यार करते थे यह कभी न जान पाया, परंतु माई को कितनी घृणा करते थे, इसे मां के प्रति उनके प्रेम का पैमाना मान सकता था। दोनो कोई भी ऐसा कोई काम करने को तैयार रहते, जिससे उसे पीड़ा हो। उनको दोष नहीं देता। इसके बाद भी पिता जी या बाबा जो उन्हें प्यार करते और मेरी उपेक्षा, उनको भी दोष नहीं दे पाता।

जिस मां के लिए सबसे अधिक मैं तड़पता रहा, उसके विषय में भी किसी ने बताया, वह भी मुझे नहीं प्यार करती थी, दीदी और भैया भी करती थी। और कुछ समय के लिए, मैंने, इसे सच मान भी लिया। मां के लिए इस आपराधिक सूचना के बाद भी, तड़प कभी कम न हुई। सूचना के साथ ‘आपराधिक’ विशेषण को सूचना देने वाले की परिस्थिति में प्रक्षेपित करके, हटा अवश्य लिया। पर सोचिए, क्या कोई मां अपनी गोद के, 3 साल के बच्चे को कितना प्यार करती है या करती थी, इसका भी पैमाना हो सकता है ?

इसीलिए मैं ज्ञानियों से डरता हूं। संदर्भ और सूचनाओं को आधार पर अधिक करीने से रखे गए विचारों पर भरोसा नहीं कर पाता। सूचना-समृद्ध ज्ञान भय पैदा करता है। सूचना वेदना की आंच में पक कर ही ज्ञान बनती है। विचार परीक्षा से गुजर कर ही वैज्ञानिक सत्य बन पाता है, ये मेरी परिभाषाएं हैं। परीक्षित सिद्धांत और सूचना विज्ञान है, यह बाद में पढ़ा। जिसे पढ़कर बहुत बाद में जाना, उसे अपने जीवन अनुभवों से मैंने इतनी कम उम्र में जान लिया था, कि कई बार, आईने के सामने खड़ा होकर, अपने को नमस्कार करने का मन हो उठता है। अभी तक किया नहीं, दुर्बलता के किसी क्षण करूंगा भी नहीं. इसका विश्वास नहीं। परंतु कोई विचार, कोई सिद्धांत मुझे इतना आतंकित नहीं कर सकता कि मुझे झुका सके। मेरे विचार अनुभव-संवेद्य, या परानुभूति-तप्त होते हैं। उस उम्र से ही जब इन भारी-भरकम शब्दों काे नहीं जानता था, और यह जानता था, कि दूसरे मुझे तुच्छ समझते हैं, मैं उन्हें कभी मड़ा न मान पाटा पर तुच्छ नहीं समझता था।

वे जो कुछ अपने को मानते हैं, उसे मैं भी मान लेता हूं। हो सकता है, वे वैसे ही हों। पर उनके द्वारा अपने को अगण्य समझे जाने उनकी अज्ञता मान लेता हूँ। बस। वे जितना जानते हैं वह इस स्तर का नहीं है कि मझे समझ सकें। उनसे मिलते हुए मैं अपने को भी उनकी नजर से देखने का प्रयत्न करता हूं, और उनसे अलग हो जाने के बाद मैं उनको तीसरी नजर से देखता हूं। यह नजर भी उसी यातना की उपज है, जिसमें तिलमिलाते हुए,मैंने भोगा था। यह निरी वेदना नहीं थी, संचार की भाषा थी। पता नहीं क्यों दूसरे मामलों में काफी समझदार हो जाने के बाद, भी इस विश्वास को पाले रहा कि मेरी तड़प, माँ वह जहाँ भी हो, देख रही है और मुझ तक पहुुँच न पाने के कारणवह विगलित हो रही। मेरे अपने दुख पर उसके विगलित होने का विश्वास ऐसे आनंद का रूप ले लेता, जिसके लिए, आज तक, किसी भाषा में, कोई सटीक शब्द नहीं गढ़ा गया है।

दीदी और भैया की शिकायतें सुन कर बाबा बौखला उठते। कमर सीधी करते हुए, लाठी के सहारे ठेंगते उठते,घर के भीतर जाते, फटकार लगाते। उनका आधा गुस्सा शिकायतों पर रहता रहा होगा और आधा सौतेली माता उनके व्यवहार की कहानियों और सुनी सुनाई बातों पर। फटकार की इबारतें आज तक कानों में गूँजती हैं। दूसरे के बच्चे हैं, सता रही हो, अपनी होगी तू बंदरिया की तरह चिपकाए रहोगी।

गलत कुछ नहीं था। मां के जिस व्यवहार की बाबा याद दिलाया करते थे, वह तो होना ही था। वह नौबत आई तो मेरी दूसरी यातनाओं में एक नई यातना जुड़ गई। वह जितने समय तक उसे बंदरिया की तरह सीने से चिपकाए रखती, उससे अधिक समय जो यातना के कारण काल का अनंत विस्तार लगता था, मेरी गोद में, मेरी बगल में, मेरे कंधे पर, सवार रहती। 5 साल का बच्चा एक बच्चे को बगल में दबाए हुए, लगातार इधर उधर चल रहा है। खड़ा हो जाए तो भी रोने लगती। बैठाएँ या , सुला दें,तो रोना शुरू। चेतावनी यह कि यह कि बच्ची रोई तो तुझे जहर देकर मार दूंगी।

आप जानते हैं इसका मतलब क्या होता है? नहीं। मुझे यह भ्रम है इस दुनिया की कुछ बातें हैं जिन्हें मेरे सिवा कोई नहीं जानता और जब तक मैं न बताऊं तब तक दूसरा कोई समझ नहीं सकता। इसे अंग्रेजी में डॉमेस्टिकेशन कहते हैं। पोसे जाने वाले जानवरों (pet animals) और पाले और ढाले जाने वाले जानवरों (domesticated animals) के बीच फर्क होता है। पहला अपने स्वभाव को बनाए रखते हुए हमारे ऊपर अपनी निर्भरता के कारण हमारी इच्छा के अनुरूप हमारी रक्लिाया मनोरंजन करता है । इसमें मनोवैज्ञानिक परिवर्तन होता है, आकारगत या कायिक परिवर्तन मामूली होता है, बंधन में रखने के तरीकों के कारण।

दूसरे कुछ ऐसे होते हैं जिनसे हम श्रम या भारवहन का काम लेते हैं इसके कारण इनकी शरीर रचना, व्यवहार और स्वभाव सभी में परिवर्तन होता है। तोते की शरीर रचना में कोई परिवर्तन नहीं होता, उड़ने की छूट न होने के कारण उसकी उड़ान की क्षमता का ह्रास हो जाता है, स्वभाव बदल जाता है, वह अपनी बोली भूल कर चारा परोसने वाले की बोली बोली बोलने की आदत डाल लेता है, परन्तु काम के लिए पालतू बनाए जाने वाले जानवर के मनोविज्ञान में उतना परिवर्तन नहीं होता जितना कायिक रचना में होता है। उसे अपने कार्य के अनुरूप अपनी काया में परिवर्तन करना होता है जिसके प्रति वह सचेत नहीं होता।

लंबे समय तक एक के बाद एक 3 बच्चों को बगल में लादकर चलते हुए मुझे जिस समायोजन की जरूरत पड़ी, उसका ही असर था मेरी चाल बदल गई। मैं झूम कर चलता था, बिना भार के भी अदृश्य भार की चेतना के साथ समायोजन करते हुए हाथों को सामान्य से अधिक हिलाते हुए चलने की आदत हो गई । इसी को ध्यान में रखते हुए मैंने कहा मुझे चलना तक नहीं आता।

दूसरे बच्चे खेलते रहते, मैं एक बच्चे या बच्ची को काँख में संभाले किनारे खड़ा उन्हें खेलते देखता रहता। जो सही चाल से चल न सके, जिसके पाँव ही सीधे न पडें, जिसका दाहिना हाथ घेरा बनाकर कमर पर रखे हुए बोझ को संभाले, लगातार मुड़ा रहता हो, और वायाँ इसे ताकत देने के लिए इससे जुडा रहता हो वह क्या उसी तरह गतिशील रह सकता था जैसे खुले हुए हाथ। खेलना तो हाथ और पांव की की सक्रियता पर निर्भर करता है।

मेरी तकलीफ यह है जब मैं अपने बारे में, अपनी सीमाओं के बारे में, इतने विस्तार में गए बिना कुछ कहूँ तो लोगों को विश्वास नहीं होता। सोचते हैं नम्रता बस अपनी सीमा बता रहे हैं।

और जब उन्हीं अनुभवों आवेदनों से गुजरने के बाद जो आलोक और आत्मविश्वास पैदा हुआ, उसे बयान करूं, तो लगता है, अहंकारवश डींग हाँक रहा हूँ। दोनों स्थितियों में मैं सिर्फ सच बोलता हूं।

अन्य अयोग्यताओं में अगली अयोग्यता यह कि मैं झूठ नहीं बोल पाता। इसलिए कि इससे आदमी दूसरों की नहीं, खुद अपनी नजर में गिर जाता है। एक आध बार इसका कमाल दिखाया है। अत्यंत विषम परिस्थितियों में जिसमें इज्जत भी जा सकती थी और चाकरी भी। जांच हो रही है, जांच अधिकारी सवाल कर रहा है। मैं उसे बता रहा हूं, इस बात की जांच इस तरीके से की जा सकती है, उसे चेक करें। वह बताता है चेक कर लिया।क्या पता चला ? कुछ नहीं। दूसरे सवाल का इस तरह पता लगाओ। सचाई तक कैसे पहुंचा जा सकता है, इसके सारे तरीके बताते हुए जब वह मान गया कि इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है, तो मैंने कहा मैं भी झूठ बोल रहा था। आप लिख कर पूछें तो मैं वह जवाब दूंगा, जो आपको दे रहा था। परंतु संकट में भी झूठ नहीं बोल सकता, इसलिए एक पत्र की मदद करने के लिए मैंने कहा तो था परंतु किसी लाभ के लिए नहीं, गत्रिका का नाम यह है, यहाँ से निकलती है। इसका परिणाम, वह जांच अधिकारी, आगे से मेरा मुरीद हो गया। खतरनाक स्थितियों में भी, सच से बड़ा कोई हथियार नहीं होता, परंतु अक्सर लोग सच को सच नहीं मान पाते। अपनी ओर से उसका अनुपात बदल कर समझते हैं।

Post – 2020-01-23

परिचय

दीखता कुछ नहीं, थर्राई हुई है आवाज ।
डबडबाई हुई आँखें हैं झेंपता अन्दाज ।
उल्टा चश्मा है, देखता है तो क्या देखता है?
पूछ बैठा तो वह घबरा सा गया था सच, आज।।

रो के लिखता तो आग घोल के क्यों लिखता है?
डरा सहमा है तो दिल खोल के क्यों लिखता है?
किससे डरता है, कोई है भी डराने वाला ?
गलत लिखता है, तो यूँ तोल के क्यों लिखता है?

न कुछ कहा न तो कह पाएगा आगे भी कभी।
है कोई राज, मगर क्या ? न बताएगा कभी ।।
कहना चाहेगा तो फिर आँखों में बादल होगा।
शर्त बदता हूँ, ये मगरूर भी पागल होगा।।

नहीं गलियों में, दिलों में ही फिरेगा शायद।
कहूँ तो शर्म से वह डूब मरेगा शायद ।।
न करो याद, तुम्हें याद करेगा हरदम ।
खाक हो कर भी यह उड़ता ही रहेगा शायद।।

Post – 2020-01-21

फिर वही रोना अँधेरे में गुम चिरागों का
वही कालिख का है दावा कि रोशनाई है ।।
(लिखते लिखते थक गया, आप पढ़ कर बेहोश होने से बचें)

यह जो पूरे देश में मुस्लिम बहुल इलाकों में और संस्थाओं में आंदोलन चल रहा है वह पार्टीशन के पहले के उपद्रवों से अधिक व्यापक है। मैंने उसे भी देखा था, इसे भी देख रहा हूँ। पहले मुसलमानों की अतिभावुकता के कारण देश बँटा था। अब उसी के कारण दिल और दिमाग बँटने जा रहा है। पहले से किसी का लाभ नहीं हुआ समस्याएं अधिक बढ़ीं, दूसरे से वे महामारी का रूप ले जा रही हैं

बँटवारा जल्दबाजी में, बिना अग्रिम तैयारी के, इतने दबाव में किया गया था, कि किसी विफलता के लिए किसी किसी त्रासदी के लिए किसी को दोष नहीं दिया जा सकता। ऐसी स्थितियों में भाग्य को दोष देने की इस देश में लंबी परंपरा है। उसे ही दोष देना होगा। भाग्य से ऐसा वाइसराय मिला जिसने फौजी होने के कारण फौजी ढंग से, आनन-फानन में फैसले लिए। भाग्य की बात है, उसी अवसर पर उसने अपनी इज्जत परोसते हुए किसी को विधुरता की पीड़ा से बचा लिया और भारत की स्वाधीनता के लिए 15 अगस्त की वही तिथि तय की जिस दिन उसने जापानियों पर विजय प्राप्त की थी, पहली अंग्रेजों से लड़ने वालों पर विजय। दूसरी ब्रिटिश राज्य से द्रोह करके स्वतंत्र होने वालों को टुकडे टुकड़े करने की विजय। भाग्य में यह भी बदा था कि स्वाधीन पहले पाकिस्तान हुआ था, भारत को प्रतीकात्मक रूप से ही सही, उसके बाद स्वाधीनता मिली थी साथ ही भारत को स्वाधीनता कुछ शर्तों के साथ मिली थी जिन को मानने से पाकिस्तान जिन्ना ने इन्कार कर दिया था जिनमें से एक महारानी की अधीनता अर्थात् कॉमनवेल्थ का हिस्सा बनना और अंतिम वायसराय को प्रथम गवर्नर जनरल बनाकर समय भारत को कुछ और बर्बाद करने के लिए रखना था। 1 दिन पहले पाकिस्तान पूरा स्वाधीन हुआ था, भारत में अधूरा सत्ता परिवर्तन हुआ था। चर्चिल ने कहा था माउंटबेटन वह कुशल कूटविद है जो शिकार पर चोंच मारने वाले बाज को भी पीछे हटा सकता है असंभव को संभव बनाने की योग्यता वाले माउंटबेटन ने भारत का गवर्नर जनरल रहते हुए यथाशक्ति पाकिस्तान के हितों की रक्षा की और भारतीय समस्याओं के हल में रुकावट डालता रहा। भाग्य मे बदा था तो किया क्या जा सकता।

बदा जो भी रहो हो, समुचित प्रबंध किए बिना, जो कुछ हुआ था वह मैदानी युद्धों से अधिक भयानक, अधिक बीभत्स, अधिक हाहाकारी, अधिक संहारकारी था।

हिंदुओं ने इसकी मांग नहीं की थी। नहीं कहा था कि मुसलमानों के साथ शांति से नहीं रहा जा सकता। एक हिंदू संगठन ने आसन्न बँटवारे को देख कर पृथकतावादी घोषणाएँ की थीं। परंतु उस समय उसकी औकात क्या थी। पटेल ने इसी संदर्भ में कहा था, किसके लिए, याद नहीं, कि गाड़ी के नीचे चलने वाला कुत्ता समझता है सारा बोझ वही ढो रहा है। टिप्पणी कम्युनिस्ट पार्टी के विषय में रही हो या संघ के विषय में, यह उनकी औकात सिद्ध करता है इसलिए जिस कथन को बार-बार उद्धृत किया जाता है, वह आर्तनाद से अधिक कुछ नहीं था। जो लोग अपनी जिम्मेदारी से भागने के लिए सारा इल्जाम उस वाक्य पर थोपना चाहते हैं, वे अनर्थ को घटित होने की जिम्मेदारी से नहीं बच सकते, न ही संघ या उससे समर्थित दल यह दावा कर सकते हैं, कि उनका संगठन जिस के आदर्शों पर चला था, उसके दुष्कृत्यों के सामने आने के बाद उसने अपना चरित्र बदल लिया।

परंतु सत्ता में पहुँचने वालों ने कभी नैतिकता का निर्वाह नहीं किया है। इसलिए आप उसे कोस सकते हैं, परंतु जो रूपक पटेल ने खड़ा करते हुए किसी को गाड़ी के नीचे चलने वाला कुत्ता कहा था, उसके विषय में आज सोचने का दिन आ गया है कि की गाड़ी कौन खींच रहा है और गाड़ी के नीचे कितने कुत्ते चल रहे हैं और दावा करते हैं कि गाड़ी चला रहे हैं। इस परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कौन है।

प्राचीन भारत का वह कलुषित इतिहास, वह वंशाधिकार जिसके विरुद्ध, सुगबुगाहट आरंभ हुई थी, उसके लिए जिम्मेदार कौन है, जिसने महाज्वाला का रूप ले कर उन्हें राख कर दिया। समय होश में आने का है, होश खोने का नहीं, इसलिए मैं यह भी याद नहीं दिलाऊंगा किआजादी मिलने के बाद देश को बांटने वाले देश के भीतर ही क्यों रह गए, क्यों जिस तरह राष्ट्रवादी हिंदुओं ने संकीर्णता वादी राजनीति करने वाले हिंदुओं को लगातार अलग-अलग मौकों पर याद दिला कर नंगा करने का लगातार प्रयत्न किया वैसे ही उंगली पर गिने जाने वाले राष्ट्रवादी मुसलमानों ने उनके ऊपर उँगली कभी भी क्यों नहीं उठाई जिन्होंने देश को बांटा भी था और यही रह गए और रातों-रात लिबास बदल दिया कुर्बानी देने वालों से अधिक ऊंची आवाज में इस बात का डंका पीटते रहे कि बलिदान उन्होने दिया है और साथ ही परदे के पीछे से ही लड़के लिया है पाकिस्तान हँस कर लेंगे हिंदुस्तान, उसी नेहरू के शासनकाल में नारे भी लगवाते रहे, भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट मैचों में पाकिस्तान की जीत पर जलसे मनाते रहे और नेहरू को यह पता चला भी हो कि उन पर छींटाकशी की जा रही है, तो भी उन्हें इस कड़वे घूँट पीते हुए भी उन सभी के प्रवेश से फुल कर अंतर व्याधि से ग्रस्त कांग्रेस का हिस्सा बनाना ही था।

आदर्शों की दुनिया में आदर्शों का मोल होता है। ऐसी दुनिया आपके ख्यालों में और किताबों में होती है जमीन पर नहीं। यथार्थ की दुनिया में उसके नियमों के अनुसार चला जाता है खयालों के अनुसार यथार्थ को ढालने का प्रयत्न अवश्य किया जाता है, पर ख्वाब से नहीं, यथार्थ के नियम से।

पहले जो कुछ मुसलमानों की असहिष्णुता और कम्युनिस्टों के अदूरदर्शी सहयोग से हुआ था, इस बार भी दोनों के सहयोग से हो रहा है, जिसमें अंगरेजों की भूमिका में ईसायत-नियंत्रित कोंग्रेस है। जै इस नंगी सच्चाई को नहीं जानता या जानते हुए नहीं मानना चाहता उससे मेरी कोई बहस नहीं।

आज जब सत्ता और विपक्ष एक दूसरे को देश को बाँटने वाला बता रहे हैं, दोनों में कौन सही है कौन गलत इसके निर्णय की योग्यता मेरे पास नहीं है। एक आशंका अवश्य है कि एक बार यह वादा करने के बाद कि राष्ट्रीय नागरिकता सूची अभी नहीं लाई जाएगी, और संसद से पास नागरिकता संशोधन कानून नागरिकता देने के लिए है, किसी की नागरिकता लेने के लिए नहीं , यह यदि चालाकी से भी कहा जा रहा हो तो भी यह राजनीति करने वालों के लिए नई बात नहीं है। न तो चालाकी से पहले कोई न बाज आया है न आएगा न किसी को रामनामी देकर राजनीति करने का उपदेश दिया जा सकता है, इसलिए ध्यान इस पर दिया जाना चाहिए कि समाज में इसका संदेश क्या जा रहा है। और उसका फायदा किसको मिलने जा रहा है, विरोध जरूरी है तो भी संवैधानिक तरीके उपलब्ध होते हुए रास्तारोकू आंदोलन का रूप देने से लाभ किसे हो रहा है? जिसके विरुद्ध आंदोलन किया जा रहा है इसका पता जरूर होना चाहिए।
बयान कोई कुछ भी दे, आंदोलन में भाग मुख्यत: मुस्लिम महिलाओं को इस योजना के तहत खड़ा किया गया है कि उनके सामने पुलिस को पसीने आ जाएँगे। अर्थात् यह इंजीनियर्ड आन्दोलन है जिसमें सबको अपना डायलाग ही याद नहीं है, सभी अपना चेहरा दिखाने के लिए बेताब भी हैं। याद किसी को सिर्फ यह नहीं है कि इसके परिणाम क्या होने वाले और समाज में किन प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने वाले हैं।

पढ़े लिखे लोग जितने अधिक प्रचंड ज्ञानी होते हैं उतनी ही प्रचंड मूर्खताएँ करते हैं और इसका दुहरा नुकसान होता है क्योंकि कम पढ़े लिखे लोग गलत को गलत मानने में बहुत लंबा समय लगा देते हैं, वे सोच ही नहीं पाते कि इतना बढ़ा विद्वान भी गलती कर सकता है जबकि वह विद्वान आदमी सामान्य व्यवहार के मामले में अनपढ़ व्यक्ति की अपेक्षा कम समझदार होता है।. उसे किताबी जुमलों, किसी अन्य देश-काल में एक भिन्न समाज द्वारा आजमाए गए तरीकों का पता होता है और उन्हें वह अपनी वर्तमान समस्या पर लागू करके सुलझाने का प्रयत्न करता है। इतिहास लौटता नहीं है, प्रत्येक देश और काल की परिस्थितियां अलग होती हैं, एक के औजार दूसरे के काम नहीं आते। विद्वान को अपने विषय की बातों के अलावा दूसरी चीजों का – यहां तक कि जिस चावल दाल सब्जी को रोज खाता है उसके भाव तक का तब तक पता नहीं होता जब तक वह छप न जाए। वह अपनी रोटी तक नहीं सेंक सकता, अपने विषय को छोड़कर लगातार गफलत में रहता है. और इसी मामले में जीवन व्यवहार की समस्याओं के समाधान में प्रतिभा में समान पर कम पढ़े लिखे लोग उससे अधिक सही और दूरदर्शी निर्णय कर लिया करते हैं। इस दुर्भाग्य को समझना चाहिए। मीडिया के व्यावसायिक हितों और सदिच्छा के बीच के संतुलन – असंतुलन पर भी, विद्वानों की हितबद्धद्ता और विवेक, राजनीतिज्ञों के सिद्धान्त और सत्तालोभ और बुद्धिजीवियों के व्यावहारिक ज्ञान और दंभ के भीतरी तारों की बनावट को भी समझा जाना चाहिए। भरोसा इनमें से किसी पर नहीं किया जा सकता पर सारा खेल राजनीतिक दलों की घबराहट और इनकी सहभागिता से चल रहा है।

अपने को ज्ञानी समझने वालों और किताबों की सड़ी जानकारी पर भारोसा करने वालों के कारण बार-बार धोखा खाने के बाद भी उनके अड़िलपन का दुष्परिणाम पूरे देश को भोगना पड़ा है। इसके बाद भी उनकी महानता के गीत गाते हुए गलतियों को सुधारने का प्रयत्न नहीं किया गया है। उनसे छोटी हैसियत के लोग उनकी गलतियों को दुरुस्त कैसे कर सकते हैं, उसके लिए उससे भी बड़े विद्वान, अधिक अव्यावहारिक व्यक्ति की तलाश करनी होगी जो उन गलतियों को दूना कर सके, परंतु किसी एक का भी समाधान न कर सके। ऐसे लोगों के दुर्भाग्य से लोगों को विश्वास है कि कई गलतियों का इलाज हुआ है।

दुनिया के योग्यतम शासक जमीनी यथार्थ से परिचित होने के कारण अपेक्षाकृत कम शिक्षित होने पर भी अधिक सफल शासक सिद्ध हुए हैं। नामावली आप तैयार कर सकते हैं। मध्यकाल में मोहम्मद बिन तुगलक [1] दाराशुकोह और बहादुरशाह जफर सबसे अधिक विद्वान थे, अपने आदर्शों के कारण सत्ता के मामले में सबसे असफल। अलाउद्दीन, शेरशाह, अकबर, गुरिल्ला युद्ध के जनक राणाप्रता, शिवाजी और हैदर अली के बारे में कुछ नहीं कहना। औरंगजेब भी खासा पढ़ा लिखा था, लिखा था। उसने सत्ता सँभालने पर उस्ताद का वजीफा कम कर दिया। उस्ताद को लगा कहीं चूक हुुई हुई है, तलब तो अब दूनी होनी चाहिए। मिलने पहुंचे तो लंबी इंतजार के बाद बड़ी मुश्किल से मुलाकात के बाद औरंगजेब की फटकार कि तुमने हमारा जीवन खराब कर दिया, बेकार की चीजे सिखाने पर समय बर्बाद कर दिया, जिनका एक बादशाह के लिए कोई उपयोग नहीं। एक बादशाह को देश दुनिया की जो चीज है जाननी चाहिए उसका कुछ जानने नहीं दिया। रहा सहा वजीफा भी बन्द।

दो बातें और । औरंगजेब को सिपहसालार बना कर युद्ध पर भेजते हुए शाहजहां ने उसके दो बेटों को बंधक बनाकर रखा कि वह किसी तरह की शरारत न करने पाए। औरंगजेब ने अपने विद्रोही बेटे को लम्बी तलाश के बाद मरवा दिया । नेहरू की जगह दूसरा कोई नेता होता तो अपनी और अपने निर्णयों के शिकार लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सही तरीका अपनाता। दोनों देशों में या कहें तीनों देशों में किसी को कोई नुकसान नहीं होता। सभी आराम से रहते। कोई समस्या नहीं खड़ी होती। लड़ाई झगड़े नहीं होते। लगातार तनाव और युद्ध की तैयारी पर आज खर्च ्की जाने वाली दौलत शिक्षा और आर्थिक विकास पर खर्च होती। प्रतिस्पर्धा युद्ध की नहीं आर्थिक दृष्टि से एक दूसरे से आगे बढ़ने की होती। पूरा भारत बँटने के बाद भी आज की अपेक्षा बहुत तेजी से विकसित हो रहा होता और दूसरे देशों का नेतृत्व करता, जिनमें इस्लामी देश ही नहीं, दक्षिण पूर्वी एशिया के भी देश आते हैं। एक नया जागरण देश से परे पूरे क्षेत्र का होता जहां भारतीय संस्कृति का कभी प्रवेश था पूरी तरह सुरक्षित रहते, हवाई आदर्श से समाधान तलाशने के कारण नेहरू ने, अधिक गलतियां की, गलत परंपराएँ डालीं । लाल बहादुर शास्त्री के दौर का ढाई साल के भीतर लोग नेहरू को भूल गए।

तुलनात्मक रूप में देखें तो नेहरू के समय में देश पीएल480 का जानवरों के चारे जैसा गेहूँ खाता रहा, और अमेरिका की इस सलाह को सत्य मानता रहा कि उसकी सहायता के बिना भारत भूखों मर जाएगा। ढाई साल में देश खाद्य के मामले मे आत्मनिर्भर हो गया, सीमाएं सुरक्षित हो गई। जीत दर्ज की गई और इसके बदले में जहर देकर उनकी हत्या कर दी गई। उनके नीले चेहरे को मैंने देखा था और आशंकित हुआ था।

यहां में किसी की बड़ाई नहीं कर रहा हूं । किताबी आदमी और व्यावहारिक आदमी के अंतर की बात कर रहा हूं। उस जमाने से कुछ लेना-देना नहीं। उसके अनुभव से आज की परिस्थितियों में निर्णय लेने की शक्ति जिनके पास है उनके इरादे जानने की योग्यता नहीं,. पर दक्षता में उन्होंने अधिक परिपक्वता दिखाई है। वे सारे आप्शन खत्म करते हुए लोगों को इस बात के लिए बेसब्र कर देते हैं कि अब तो कोई कठोर कदम उठाना ही चाहिए।

आज दावा किया जा रहा है समाज को संप्रदायिक आधार पर बांटा जा रहा है। इनके शासन में क्या अब तक भारत के नागरिक किसी भी हिंदू या मुसलमान या ईसाई के प्रति भेदभाव से व्यवहार किया गया है? 2014 से पहले भारत की परिसंपत्तियों पर अल्पसंख्यकों का अधिकार था। वह अधिकार अवश्य समाप्त हुआ है। केवल मुसलमान गरीबों को 5 या 15 लाख तक का ऋण मिल सकता था, अब जो भी मिलना है सबको मिलेगा। कर्ज का एकाधिकार अवश्य कम हो गया। बहुसंख्यक (हिंदू) और अल्पसंखयक (मुसलमान और ईसाई) के बीच में यदि किसी तरह का फसाद हुआ हिंदू को अपराधी मानकर उसके विरुद्ध कार्यवाही की जाएगी, यह कानून आते आते रह गया। ये अन्याय तो हुए जिससे दोनों असुरक्षित अनुभव करने लगे, और इस नए कानून से अल्पसंख्यकों को कोई नुकसान नहीं, पर मुस्लिम देशों से प्रताड़ित या भयभीत हो कर आए और नरक की जिंदगी जीने वाले हिंदुओं को राहत मिल सकती है, इससे आतंकित हो कर इतने बड़े पैमाने पर यातायात को अवरुद्ध करके आम हिंदुओं के भीतर आतंक और उपद्रव से सरकार बदलने का प्रयत्न कर रहे हैं तो समाज को यदि वे बाँटना चाहते हैं तो उन्हें आप जैसे सहायकों की जरूरत है जो जनता के धैर्य को चुका कर उसके मन में यह विश्वास पक्का कर दें कि दूसरे सभी दल उपद्रवियों के साथ हैं, हमारी रक्षा केवल भाजपा ही कर सकती है। उसका संभावित नारा अबकी बार 400 पार।

मैंने कहा था परिभाषाएं सही कर देने से ही बहुत सी समस्याओं का जवाब तैयार हो जाता है। मैंने एक तुकबंदी जड़ी, कहा आप को इस देश ने जो दिया है वह कोई मुस्लिम देश भी अपने नागरिकों को नहीं दे सकता। ऊपर की फेपरिश्त के अलावा वोट के लिए मुल्ला बनने वाले और निहत्थों पर गोली चलाने वाले समाजवादी, गाडृी के आगे चटाई बिछाकर नमाज पूरी होने से पहले गाड़ी सहित इंतजार करने वाले यात्री और ड्राइवर, रस्सी से घेर कर नमाज के लिए सुरक्षित प्लेटफार्म, सड़क रोक कर नमाज अदायगी की जगह, अब लोगों गुजरने का अधिकार छीन कर अनन्त काल तक चलने वाला प्रदर्शन, तुमने समस्याये दी हैं, समाधान नहीं। पहला मौका है अनाथ की जिन्दगी वर्षों से जी रहे लोगों को नागरिक बन कर जीने के अधिकार में तो बाधक न बनो तो इसका इशारा तक लोगों की समझ में नहीं आया। कहने लगे अभी तो कुछ दिया नहीं, अभी बहुत कुछ देना होगा।

देश को बाँटने वाले यदि वे हैं जो इतना सहते हैं जो कोई मुस्लिम देश नहीं झेल सकता और जोड़ने वाले आप हैं तो बाँटने वालों के सबसे बड़े मददगार कौन हैं? और जिस फासिज्म का खतरा बता कर कल तक लोगों को डराने का प्रयत्न किया जा रहा था उसका रास्ता कौन तैयार कर रहा है, हिंदुत्व को अजेय कौन बना रहा है ,इसका निर्णय मैं नहीं करना चाहता। अगले चुनाव तक पता नहीं क्या क्या देखना बदा है।

Post – 2020-01-20

तुम्हें अपना बनाया, घर में रक्खा और इज्जत दी।
बताओ हमको भी तुमने कभी कुछ भी दिया है क्या?

Post – 2020-01-20

मैंने ये इबारतें एक समुदाय में शामिल होने के अनुरोध से अलग रहने की सफाई देते हुए लिखीं और उनकी कापी तो कर ली, वहाँ अपनी समझ से पोस्ट भी कीं पर किसी चूक से पोस्ट न हुआ। इसे मैं काफी पहले कर चुका हूँ, पर उनकी तरह अपने दल में शामिल करने का प्रस्ताव भेजने वालों की मेरी नम्रता, मेरा अहंकार, मेरी विवशता समझ आनी चाहिए, इसलिए:

[[ मैं राष्ट्र निष्ठा, देशानुराग/भक्ति का सम्मान करता हूँ, व्यक्तिगत जीवन में ऐसा हूँ भी, हिन्दू भी हूँ, परन्तु मैं यह पहले लिख चुका हूँ कि जैसे एक केमिस्ट का, पैथालजिस्ट, डॉ. का, शल्यचिकित्सक का जब वह अपने काम पर होता है. उसे अपने सभी रागबंधनों से मुक्त साधक या निर्वेदावस्था में होना होता है, उसी तरह एक विचारक। यदि इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता तो उसी अनुपात में गलत और निंदनीय और त्याज्य होता है। विचारक अपना भी सगा नहीं होता न कोई उसका सगा होता है। वह निपट अकेला और बाहर से नितांत असुरक्षित पर अपने सत्य के कवच के कारण उतना ही अजेय होता है। इस भूमिका में रह कर ही मैं टॉयन्बी से भिन्न कारणों से आज यह लिख सकता हूँ कि हिंदू समाज संकटग्रस्त है , ऐंटी सेमिटिज्म से भी गर्हित ऐंटी हिंदुइज्म का शिकार है, क्योंकि ऐंटी सेमिटिज्म के साथ पूरी दुनिया का कोई यहूदी नहीं था, जब कि ऐंटी हिंदुइज्म में सबसे आगे अपने को सेकुलर कहने वाले हिंदू हैं और नाम हिन्दू आदर्शों की रक्षा का लेते हैं क्योंकि अन्यत्र उन्हें वे आदर्श नहीं मिलते और खड़े उनके साथ और उनका मुखौटा बन कर होते है। इसके बाद भी मुझे हिन्दुत्व संकटग्रस्त न दिखाई देता यदि हिंदुत्व के सार तत्व के रक्षक दिखाई देते। मैं दो बुराइयों में एक को जघन्य और दूसरे को सह्य बुराई मान कर भाजपा से अपने को दूर नहीं रख पाता। पर भाजपा से मेरी असहमतियाँ अनेक हैं लिखने चलूँ तो लेखमाला सँभाल न पाऊँगा। दूसरे जरूरी काम रह जाएँगे ]]

सच मानिए कांग्रेस ने जितने विध्वंशक काम किए हैं उसका शतांश भी संघ के विरुद्ध नहीं है, फिर भी उसका कटु विरोधी उसके बौद्धिक शून्य और आज भी लाठी डंडा के नात्सी तरीकों और भीरतीयता के सार सूत्र ‘बुद्धिः यस्य बलंं तस्य’ से भटकने के कारण करता हूँ, वह मेरे अनुकुल पड़ने वाले विचारों का उपयोग कर सकता है, मेरे साथ खड़ा नहीं हो सकता, वह वाजपेयी तक के साथ न हुआ। मैं अपने को भारत का अकेला मार्क्सवादी मानता हूँ, जनसंघी मेरे इस कथन का उपयोग कर सकते है, जि्नका मार्क्सवादी खेमा है, वे मुझे न अपने साथ रख पाएंगे, न उनका होकर मैंने मार्क्सवादी रहना पसंद किया। यह पहचान कि मेरे साथ, मेरी समझ और शक्ति की सीमा में जो सत्य है वही मेरा कवच है और वह मेरे मिटाए जाने के बाद भी नहीं मिटेगा, यही मेरी शक्ति है।
[[]] से पहले का अंश ही उत्तर में लिखा था, बाद का अंश बाद में जोड़ा है।

Post – 2020-01-20

इतिहास के खुले खेत में साँड़ (5)
जो डर गया वह मर गया

इतिहास गाली गलौज के लिए नहीं होता, यदि कोई ऐसा करता है तो वह बदहवास है और यह बदहवासी इस बात का प्रमाण कि उसे कितनी गहरी चोट पहुँची है।

चोट किस आघात से पहुँची है यह भी उसकी आलोचना और स्थापना से ही प्रकट हो जाती है। यह आघात कितना व्यापक था, और कितना दीर्घजीवी यह चार्ल्स ग्रांट से ले कर दूसरे सभी मिशनरी, उन पर भरोसा करने वाले मिल, स्टीवर्ट, हेगेल और मार्क्स तक ही नहीं सीमित रहा, जिन्होंने परुष मुहावरों का प्रयोग किया, यह उनमें भी पाया जा सकता है जो अपने जुमले कुछ सावधानी से गढ़ते हैं, जिनमें स्वयं जोन्स, कोलब्रुक, बेंटली, पार्रे, मैक्समुलर आदि आते हैं। यह उन सभी विद्वानों में भी तलाशा जा सकता है जिन्होंने असंभव को जानते हुए भी ‘असंभव-दर-असंभव-दर-असंभव’ को स्वीकार करते रहे हैं।

मैने जिस बात को स्पष्ट करने के लिए इस मुहावरे का इस्तेमाल किया है उसे समझने के लिए आर्यों के आक्रमण पर और उसकी कसौटियों पर ध्यान देना उपयोगी होगा:

क्या भाषा, साहित्य, पुरातत्व, नृतत्व, किसी भी स्रोत से इसका एक भी निर्णायक प्रमाण मिला है? (इसका उत्तर सभी स्रोतों से नहीं में मिलेगा।)
फिर यह क्यों कहा जाता है कि संस्कृत-भाषी भारत में बाहर से आए ? (उत्तर, इसलिए कि भारत में ब्राह्मणों के अतिरिक्त कोई संस्कृत बोलता ही नहीं, इसलिए इस भाषा का आगमन भारत में कहीं अन्यत्र से हुआ होगा। भाषा के पाँव नही होते, बोलने वालों के पास होते हैं इसलिए भाषा संस्कृत बोलने वाले ब्राह्मणों के साथ आई होगी।)

क्या कहीं ऐसी भाषा मिली है जिसे संस्कृत, संस्कृतसम या संस्कृत का पूर्व रूप कहा जा सके और संस्कृत भाषियों को वहाँ से आया सिद्ध किया जा सके? (उत्तर, नहीं में मिलेगा।)

फिर संस्कृत भाषियों को बाहर से आया क्यों मान लिया गया ? (इसलिए कि सभी देशों – सुमेर, ईरान, यूनान, रोम, जर्मन, केल्टिक, गॉथ, स्लाव, लिथुआनियन, सभी की पुराणकथाओं में यह पाया जाता है कि वहाँ सभ्यता का सूत्रपात करने वाले कहीं अन्यत्र से आए थे। इससे सिद्ध हुआ कि जो लोग आज जिस देश में मिलते हैं वे सदा से वहीं नहीं रहे हैं, इसलिए भारत के संस्कृत भाषी बाहर से आए होंगे।

बात तो जँचती है, भारत की अपनी परंपरा क्या कहती है? (भारत की परंपरा कहती है कि इसके पूर्वजों ने ही विश्व में सभ्यता का प्रसार किया था। उन्होंने ही शेष जगत को आबाद किया था। यह विश्वास साहित्यिक परंपरा में भी है और आसुरी -असुर कहानी – दोनों में है।)

इसका मतलब क्या है, इसे समझते हैं आप? जहाँ इतिहास के फटे हुए पन्ने के दोनों सिरे मिल कर एक हो जाते हों, इसका मतलब समझते हैं आप? (जवाब हैरानी की मुद्रा से मिलेगा, क्या आप इतने भारत प्रेमी हो गए हैं कि आप भारत को विश्व सभ्यता का जनक सिद्ध करना चाहते हैं ?)

कहना होगा कि मैं कुछ नहीं सिद्ध करना चाहता । स्वयंसिद्धियाँ सिद्ध नहीं की जाती हैं। परन्तु आप जो अपने को सिद्ध कर रहे हैं उसका सही नाम लूँ तो आप मानहानि का दावा कर देंगे।

आप समझ सकते हैं कि देश-देशांतर में विख्यात और इतिहास का निर्माता होने का दावा करने वालों को सही विशेषण से पुकारने की जगह जोगाड़िया कह कर ही संतोष क्यों कर लेता हूँ।

मैं अपने को इतिहासकार जिन कारणों से नहीं मानता उनमें से एक है कि इतिहासकार तो ऐसे ही होते हैं जिनमें विशेष ज्ञान होता हैं, सामान्य ज्ञान नहीं होता। ऊपर मैंने कोई बात ऐसी नहीं कही है जिससे ज्ञान प्रकट होता हो। ये वे प्रश्न हैं जो कोई बच्चा कर सकता है। वही कह सकता है कि राजा नंगा है, दूसरे ज्ञानियों का हाल राजा के दरबारियों जैसा है जिन्हें ठगों ने समझा दिया था कि जो वर्णसंकर होंगे उन्हें यह वस्त्र दिखाई न देगा। यहाँ वर्णसंकर कहाने का डर नहीं तो राष्ट्रवादी, हिंदी-हिदू-हिंदुस्थानवादी, भगवावादी, पुनरुत्थानवादी, भाजपाई, संघी जैसी गालियों का डर तो होगा ही। सेकुलरिज्म की सनद छिन जाने का भी डर रहेगा। मैंने केवल इस भय पर आज से पचास साल पहले पाया। यही था अपने विरुद्ध समर में उतरना और परिभाषाएं सुधारना। जानकारी में तो मेरे पाठकों में अनेक मुझसे अधिक जानते हैं।

जारी