जिन दुखद घटनाओं पर मनुष्य को स्तब्ध रह जाना चाहिए उन पर लोग बोलने की होड़ लगा देते हैं और उकसाते हैं बोलो बोलो जल्दी बोलो नहीं तो मौक़ा हाथ से निकल जाएगा. रघुवीर सहाय की कविता “हंसो हंसो जल्दी हंसो” याद आती है. अवसरवाद के कितने रूप होते है. संवेदनहीनता की कितनी ज़बानें. नौहाख्वाँ संतप्त नही होते, अभिनेता होते हैं.
Month: October 2015
Post – 2015-10-07
यह कविता पसंद नापसंद के लिए नहीं कुछ लमहों के लिए स्तब्ध होकर सोचने के लिए है
आइये फिर से वही खेल दिखाया जाए
अमन का राग नए जोश से गाया जाये
‘सिवाय मेरे कोई चाहता अमन न सुकून
‘मुझसे आबाद चमन है यह जनाया जाये’
चमन हमारा है गुलज़ार और रंग-आमेज़
कहीं ऐसा नहीं, दुनिया को बताया जाए.
हमसे बढ़कर न कोई है, न कभी होगा ही
यह बताने के लिए गीत बनाया जाए.
गीत ऐसा हो कि सुर-ताल में पक्का निकले
गीत परियों को परिंदों को सिखाया जाए.
कोई मौक़ा हो, कोई वक़्त, जगह कोई हो
बस यही गीत गला फाड़ कर गाया जाए .
झूमने लोग लगें “वाह रे वाः” करते हुए
ठीक उस मोड़ पर दीवानों को लाया जाए
“खून का रंग है हर रंग से प्यारा’’ कह कर
खून के रंग में क्योंकर न नहाया जाए.
काटते, मारते, सर तोड़ते, इतराते हुए
ठहाके भरते हुए सबको हँसाया जाए.
वक़्त डिजिटल का है तो एक डिजिट और जुड़े.
फिर नया एक कीर्तिमान बनाया जाये.
“तुम भी भगवान तो शामिल थे इस फसाद में क्या”
कहा मैंने, तो कहा, “मुझको मिटाया जाए”.
Post – 2015-10-06
मनोरंजन
आइये फिर से वही खेल दिखाया जाए
अमन का राग नए जोश से गाया जाये
‘सिवाय मेरे कोई चाहता अमन न सुकून
‘मुझसे आबाद चमन है यह जनाया जाये’
चमन हमारा है गुलज़ार और रंग-आमेज़
कहीं ऐसा नहीं, दुनिया को बताया जाए.
हमसे बढ़कर न कोई है, न कभी होगा ही
यह बताने के लिए गीत बनाया जाए.
गीत ऐसा हो कि सुर-ताल में पक्का निकले
गीत परियों को परिंदों को सिखाया जाए.
कोई मौक़ा हो, कोई वक़्त, जगह कोई हो
बस यही गीत गला फाड़ कर गाया जाए .
झूमने लोग लगें “वाह रे वाः” करते हुए
ठीक उस मोड़ पर दीवानों को लाया जाए
“खून का रंग है हर रंग से प्यारा’’ कह कर
खून के रंग में क्योंकर न नहाया जाए.
काटते, मारते, सर तोड़ते, इतराते हुए
ठहाके भरते हुए सबको हँसाया जाए.
वक़्त डिजिटल का है तो एक डिजिट और जुड़े.
फिर नया एक कीर्तमान बनाया जाये.
“तुम भी भगवान तो शामिल थे इस फसाद में भी”
कहा मैंने, तो कहा, “मुझको मिटाया जाए”.
16-02-2008 08:24:50 / 10/6/2015 6:40:30 PM
Post – 2015-10-06
उसने कहा, “तुम मूर्ख हो या पागल?”
मैंने कहा “क्या दोनों एकसाथ नहीं हो सकता?”
“नहीं. क्योंकि कई पागल बहुत प्रतिभाशाली होते हैं और कई बार तो नए विचारो के कारण दार्शनिकों तक को पागल करार दे दिया जाता है.”
“परन्तु शेक्सपिअर के मुर्ख ही बेलौस दार्शनिक बातें करते हैं.”
वह हँसने लगा, “तुम मूर्ख तो नहीं हो यह मान लिया, पर तुम ऎसी बातें क्यों कह जाते हो जिससे तुम्हारा ही नुक्सान हो?
मैंने कहा, “जो नफ़ा नुक्सान की चिन्ता करते हैं उनके पास कहने को कुछ नहीं होता. वे बाज़ारभाव पर नज़र रखते हैं. कुछ कहते नहीं हैं. जल्दी जल्दी बोली लगाते हैं कि कहीं मौक़ा हाथ से निकल न जाए. तुम भी उन्ही में हो.”
वह चिढ गया, “कैसी मूर्खों जैसी बात करते हो!”
मैंने मज़ा लेते हुए कहा, ‘और तुम होश हवास भी खो बैठते हो.”
वह हैरान होकर मुझे देखने लगा, पर उस देखने में यह सवाल भी था कि मैं कह क्या रहा हूँ .
मैंने मज़ा लेते हुए कहा, “तुम अभी सनद दे चुके हो कि मैं मूर्ख नहीं हूँ और उसके ठीक बाद कह बैठे मैं मूर्खों जैसी बात करता हूँ. होश में होते तो इतनी जल्द अपने फैसले से मुकर जाते?
यह उन बिरल मौकों में एक था जब हम दोनों एक साथ हॅंस रहे थे.
हाथ मिलाते हुए उसने कहा, “जो बात कहना चाहता था वह बात तो हो ही नहीं पाई. चलो कल सही.”
मैंने हँसते हुए कहा, “पूरी कल भी नही होगी और सही तो हो ही नही सकती. ज़िंदगी अधूरेपन का दूसरा नाम है.”
10/6/2015 9:45:12 AM
Post – 2015-10-04
तुम्ही को प्यार करते हैं तुम्हीं पर जां लुटा देंगे.
मगर इतना समझ लें, और इसके बाद क्या देंगे?
न तुमको कोस सकते हैं दुआ तक दे न पाएँगे
बहुत मुमकिन है साकिन अपने जमकर गालियाँ देंगे.
मुझे तो फ़र्क़ पड़ना ही नही, तुम पर ही गुजरेगी
बचाने को तुम्हे अब सोचते हैं जां बचा लेंगे.
फजीहत थोड़ी होगी अपने वादे से मुकरने पर
मगर उसके लिए कोई बहाना हम बना लेंगे.
हमारे जितने दर्शन हैं इसी के काम आते हैं
है धोखा ज़िंदगी, उसको दिया तो तुमको क्या देंगे?
अगर धोखा ही देना है तो जीकर ज़िंदगी भर दें
मज़ा आएगा हमको गैर भी अपने मज़ा लेंगे.
कहाँ तो हमको लफ़्फ़ाज़ी से खूनी क्रांति करनी थी
कहाँ यह खेल लफ़्ज़ों का क़दरदाँ झिड़कियाँ देंगे.
उन्हें समझाना होगा खेल भी जीने का हिस्सा है
सुलाकर हम थकों को, सोये बन्दों को जगा देंगे.
यह सच है खून लफ्जों से न होता है न होगा ही
गलत था, यह गलत, इसकी बज़ाहिर इत्तला देंगे.
दिलों में फ़र्क़ हम लाते रहे, आगे न हो मुमकिन
उजाड़े बिन भी दुनिया है बदल सकती दिखा देंगे
समझ सकते थे इसको मार्क्स तुमको भी समझना है
समझ पाओ तो तुमको तुमसे ऊंचा मर्तबा देंगे.
कहाँ से बात निकली थी और अब जाकर कहाँ पंहुची
रही भगवान की वह खुद ही देता, उसको क्या देंगे .
कई बदनामियों के बाद उसने सर उठाया था
उसे सर तानने देंगे कि फन कहकर दबा देंगे
10/3/2015 7:59:13 PM
Post – 2015-10-03
क्या ज़माना था लोग हँसते थे
देखकर उनको हम भी हँसते थे
हँसाने को नहीं मिलता जब कुछ
हम एक दूसरे पर हँसते थे.
सोचते थे कि सोचना होगा
न सोचने की लत पर हँसते थे
बहुत कम था हमारे पास मगर
मुफलिसी में भी खुलकर हँसते थे
आप की तोंद यूँ ही भारी है
तोंद आगे है आप हैं पीछे
तोंद से पूछते कि था यह कभी
लोग रोते हुए भी हँसते थे
तड़पते थे तो गीत गाते हुए
दर्द की आबरू बचाये हुए
गालियाँ मिलती थीं तो ‘दौर चले’
कहते थे लोग और हँसते थे.
हँसो हँसो और हँसो जल्दी तुम
पढ़ते थे और पढ़ के हँसते थे
आप हँसते हैं यह नहीं मालूम
सुना है आप कभी हँसते थे.
10/2/2015 9:31:20 PM
Post – 2015-10-02
वक़्त उसका ही है पर ढूंढिए वहाँ भी नही
छोड़ कर इसको वह बाहर कभी गया भी नहीं
सोचता सा लगा जब भी उसे देखा मैंने
कहना भी चाहा था कुछ सोच कर कहा भी नहीं
बचपना तो बना रहेगा उम्र ही क्या है
अभी गुज़ारे हैं उसने तो दस दहा भी नहीं
चिराग़ जलने दो पर नीम अन्धेरा भी रहे
वर्ना तारों की मिचौली हो कहकशां भी नहीं
अपने कमरे में वह कुछ बन्द बन्द रहता है
कल उधर देखा तो पाया कि था वहाँ भी नही
पता लगाओ तो भगवान से चलकर मिल लें
कोई कहे न कि कल तक था अब रहा ही नही.
10/2/2015 7:34:09 PM
Post – 2015-10-01
मैं इतिहास के भीतर चल रहा था वह इतिहास के बाहर. हम दोनों घडी-वक़्त के साथ थे इसलिए मेरा बायाँ हाथ उस अदृश्य, पर चnबकीय रेखा, से सटा था और उसका दायाँ. हम अपने समय को और आने वाले समय को समझना चाहते थे, इसलिए, एक दूसरे से बहस करना चाहते थे. मैंने कहा भीतर आ जाओ.
उसने कहा तंग दायरे में मेरा दम घुटता है. बाहर इतना खुलापन है. आना तुम्हे होगा.
मैंने कहा खुलापन तो है पर बाहर अन्धेरा है. अँधेरे में शक पैदा होता है. लोग समझने से पहले गला काट लेते हैं.
उसने कहा इतिहास में तो यही होता रहा है. मुझे उससे डर लगता है.
मैंने कहा यहाँ नया कुछ नहीं होगा. जो होना था हो चुका. बची उसकी रोशनी है.
उसने कहा तुम केवल रोशनी को देख रहे हो, उस काठ को नहीं जिसके जलने से रोशनी पैदा हो रही है और साथ ही धुँआ भी जो तुम्हें दीखता ही नहीं.
मैंने कहा धुँआ हो या रोशनी, भण्डार यही है. यहीं से बाहर जाता है धुँआ और प्रकाश, लुकाठा और मशाल. भीतर आकर ही चुनाव किया जा सकता है कि हमें क्या चाहिए. जो नहीं चाहिए उसे रोका कैसे जाय. फैसला भीतर पहुँच कर ही हो सकता है, बाहर रहकर नहीं.
उसको बात जँची. बोला, रुको. पार्टी से पूछ कर आता हूँ.
लौटा तो बोला, मैं तुम्हारे वाम हूँ, तुम तुम मेरे दक्खिन. जब दिशाएँ ही अलग हैं तो तुमसे बात कैसे हो सकती है. हो तभी सकती है जब मैं दक्षिणपंथी होने का खतरा उठाऊँ. मुझे पार्टी के साथ रहना है अपने साथ नहीं.