Post – 2016-10-12

भारतीय राजनीति में मोदी फैक्‍टर – 6

मोदी, सुनते हैं, पढ़ने में औसत थे और वाद प्रतियोगिता में बहुत प्रभावशाली। आज भी बोलते हैं तो लगता है किसी कालेज के डिबेट में हिस्‍सा ले रहे हैं। मुझे यह खटकता है, परन्‍तु मुझे अपने बोलने का तरीका उससे अधिक खटकता है। मुझे केवल नामवर जी की वक्‍तृता शैली सबसे अधिक पसन्‍द आती है। सबसे अधिक पसन्‍द आती है कहते समय मेरे सामने कृपालानी, मेनन, राधाकृष्‍णन, नेहरू, जय प्रकाश नारायण, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रणदिवे, दिग्‍विजयनाथ, अज्ञेय, सभी, जिन्‍हें कभी सुन रखा है आते हैं। सधे हुए वाक्‍य, स्‍पष्‍ट, निरुद्वेग, सुश्रव्‍य उच्‍चारण और विषय का ऐसा विवेचन जिससे वक्‍तृता के स्‍थापत्‍य को समझा जा सके। ये आदर्श मेरे सामने है, परन्‍तु मैं कोशिश करके भी इनमें से कोई गुण अपना नहीं पाया। बोलना आरंभ करूंगा तो बड़ी कोशिश के साथ निरुद्वेग रहने की कोशिश करूंगा, इसमें सबसे अधिक श्रम लगता है, फिर किसी पक्ष को लेकर अपने स्‍वाभाविक दबाव में आया तो रफ्तार तेज हो जाएगी, वाक्‍य संयुक्‍त होते जाएंगे, श्रव्‍यता अस्‍पष्‍ट होती जाएगी, आवेग बढ़ता जाएगा, और यदि इस विषय में सचेत हुआ कि आवेश को नियंत्रित करके सम पर आऊं तो क्‍या कह रहा था, यह भी भूल जाएगा, और आगे क्‍या कहना है यह भी। कई बार यह सोच कर कि लोग निर्धारित समय सीमा से अधिक समय ले लेते हैं, सुनने वाले ऊब जाते हैं, कहीं मैं भी ऐसा न कर रहा होऊं, एक पक्ष का विवेचन करके छुट्टी पा लूंगा।

निष्‍कर्ष यह कि हमारा एक अन्‍त:राग होता है, वह सध जाता है तो वह स्‍वभाव का अंग बन जाता है। यह हमारे सिगनेचर जैसा है। हमारे स्‍व-भाव में हमारा सोचना, बोलना, हंसने का तरीका, उच्‍चारण, लिखने और बोलने की रफ्तार सभी आते हैं। इसलिए हमें जो अपने कल्पित आदर्श के अनुरूप न लगे उसके साथ अपने काे
समायोजित करना चाहिए अन्‍यथा हम सुनते हुए भी कुछ सुन या समझ न पाएंगे।

परन्‍तु उनका असाधारण प्रखर न होना उनको मिला सबसे बड़ा वरदान है। असाधारण प्रखरता के लोग हमें प्रभावित तो करते हैं परन्‍तु उनका सकल योगदान उन लोगों से कम होता है जिन्‍हें हम मीडियाकर कह कर मजाक उड़ाते हैं (देखें, कोसंबी, राजकमल, पृ.14-16, इतिहास का वर्तमान, पृ. 91, इतिहास का वर्तमान खंड – दो, पृ. 236)। गांधी से लेकर आइंस्‍टाइन तक इसी कोटि में आते हैं। हो सकता है यह मैंने अपने बचाव में तैयार किया हो क्‍योंकि मैं पढ़ता बहुत धीरे हूँ और लिखने की रफ्तार इतनी मन्‍द कि कभी किसी परीक्षा में सभी सवाल लिख नहीं पाता था। सन्‍तोष यह कि इसके बाद भी नंबर सबसे अधिक होते थे। लोग पचीस तीस की उम्र में धूम मचा देते हैं मैं पचास की उम्र तक लिखने की तैयारी ही करता रह गया।

सभी मीडियाकर ऊंचाई पर नहीं पहुंच पाते । इसलिए मीडियाकर होना कोई उपलब्धि नहीं है। इनमें से जो पहुंचते हैं वे अपनी सत्‍यनिष्‍ठा और कार्यनिष्‍ठा के कारण, अपनी दृढ़ता और आत्‍मविश्‍वास के बल पर। इनमें खोट हो तो वे महारथियों के कुचक्र में कुचल दिए जाएं। सत्‍यनिष्‍ठा और कर्मनष्ठिा का यह कवच महारथों के पहिए मोड़ देता है। सत्‍यनिष्‍ठा के अभाव में, धूर्तता से अर्जित सफलता चन्‍दरोजा होती है।

यदि आप मोदी और अरविन्‍द केजरीवाल की तुलना करें तो मेरा आकलन समझ में आ जाएगा। मोदी ने अपने और केवल अपने गुणों के आधार पर अपने संगठन के अन्‍दर वरिष्‍ठों का आशीर्वाद लेते या उसकी याचना करते हुए उनके चाहे अनचाहे आगे का रास्‍ता बनाया और उनके सम्‍मान को अपनी ओर से कभी आहत नहीं किया। दूसरी ओर अन्‍ना से ले कर सुशान्‍त भूषण, प्रशान्‍तभूषण, अनन्‍तकुमार, राजमोहन गांधी, योगेन्‍द्र यादव जैसों से अपने को जोड़ते हुए अपने को उनकी कीर्ति का अंशभागी बनते हुए दिल्‍ली का चुनाव पीले जादू से जीता, संदिग्‍ध चरित्र और अज्ञात पूर्ववृत्‍त वाले चापलूसों का जत्‍था बना कर ऐसे चरित्र के लोगों को जिनके विचार सेंसर का काम करते प्रतीत हुए, उन्‍हें अपमानित करते हुए बाहर का रास्‍ता दिखा दिया और उस जमात का अनन्‍य समर्थन हासिल किया जिसके सदस्‍यों पर एक एक करके कोई न कोई केस दर्ज होता चला गया है।

मोदी ने अपने चुनाव अभियान में ऐसा कोई वायदा न किया जिसको पूरा करने के लिए वह निरन्‍तर और अविचलित भाव से काम पर न लगे हो, और अरविन्‍द ने कोई ऐसा वचन नहीं दिया था जिससे मुकर कर दिल्‍ली की उसी जनता को यह न बता दिया हो कि मैंने तुम्‍हें मूर्ख बनाया था और मेरा अटल विश्‍वास है कि मुफ्त बिजली पानी जैसा कोई दूसरा चारा फेंक कर मैं तुम्हें आगे भी बेवकूफ बना सकता हूं क्‍योंकि तुम चरित्रहीन हो और टुकड़ों पर बिकने के लिए तैयार हो जाते हो, हैसियत चाहे जो भी क्‍यों न हो। मुफतखोरों को मुफत का कुछ भी मिले तो वे पूरे देश को बेच सकते हैं और अपनी सफलता का महामन्‍त्र मैं इसे मानता हूं। देखो, कितने लोग मेरी नकल पर क्‍या क्‍या मुफत देने लगे हैं।

अपवाद है तो मोदी । यह आश्‍चर्य है कि इसे देखते हुए भी बुद्धिजीवियों का वाचाल वर्ग मोदी की आलोचना करता रहा है और अरविन्‍द के पीछे खड़ा होता रहा है, क्रमश: कुछ लज्जित और अधिकाधिक लज्‍जामग्‍न भाव से ही सही।

वह समय समय पर चीखता है, देखो, मोदी ने अमुक का भाव बढ़ा दिया, अमुक का पूरा कम नहीं किया, यह जानते हुए कि विकास कार्यों के लिए धन आकाश से नहीं गिरता, जमीन से ही उठाया जाता है और सभी विकास धन पर ही निर्भर करते हैं – कोशपूर्वा समारंभा:! जनता किस अर्थशास्‍त्र को जानती है कि वह बिना बोले कहती है, ठीक ही ता कर रहा है। यह रिश्‍वत दे कर लोकप्रियता पाने वाला बन्‍दा नहीं है जिसके आयोजन पिछले कितने सालों से चलते रहे हैं, हम तुम्‍हें इतने किलो चावल मुफ्त देंगे, इतने कंबल, इतनी साडियां, लैप टाप देंगे, सेलफेान देंगे। सिर्फ बिजली नहीं दे पाएंगे क्‍योंकि उसके लिए बोलना नहीं कुछ करना होता है,जिसकी योग्‍यता मुझमें नहीं और जिसके बिना तुम्‍हें दिया हुआ भी चार्ज न हो पाएगा इसलिए किसी जरूरतमन्‍द को बेचकर कुछ कमा लिया जाएगा ।

जो मुफ्त में दोगे भी वह कहां से दोगे भाई, उस निधि से जो राज्‍य को उन्‍नत बनाने के लिए दिया गया है जिससे लोगों की दीनता कम हो, तुम्‍हें उसका ट्रस्‍टी बनाया गया है कि तुम राज्‍य के सर्वोच्‍च प्रतिनिधि हो और सार्वजनिक हित में उसका विवेकपूर्ण उपयोग करते हुए हालात में सुधार लाओगे। तुम उस धन को बर्वाद कर रहे हो, बर्वाद करते हुए अपनी छवि का निर्माण कर रहे हो, वह छवि जो बनती है और बनने से पहले ही मिट जाती है।

मुफत का खाना और जब जीवन की आधारभूत जरूरत पूरी हो गई तो कितने भी अपमान सहने पड़ें, भिखारियों की कतार में सबसे आगे खड़े होने के संघर्ष के अतिरिक्‍त कोई संघर्ष नहीं। समाज पर बोझ बनने के अतिरिक्‍त कोई अन्‍य दायित्‍व नहीं। मन्दिरों, दरगाहों, मजारों के सामने लगने वाली कतारों को देखें। इतनी दुर्गति में रहते हुए भी, इससे अधिक सुखी कोई जीवन हो सकता है वे जानते ही नहीं। कहो, काम करो तो वे करने को तैयार न होंगे, और सच कहें तो आप भी उपदेश तो दे सकते हैं, उन्‍हें काम नहीं दे सकते। इसलिए जब आप उपदेश देते हैं कि कोई काम क्‍यों नहीं करते तो वे गाली देते हैं, सुना कर नहीं, पीछे मुड़ कर, ”साला, भीख का पैसा बचाने के लिए पैसे की जगह उपदेश दे रहा है।” अगर उसका वाक्‍य आपके कान में पड़ जाय और आप कुछ सोचते समझते हों तो आप कहेंगे कि बात तो यह भी ठीक कह रहा है। क्‍या मैं उसे काम दे सकता हूं।

परन्‍तु यह केवल काम के अवसर के अभाव के कारण नहीं होता, निकम्‍मेपन को स्‍वर्ग कहते हैं। आखिर स्‍वर्ग में भी तो किसी को कोई काम नहीं करना पड़ता और केवल मौज मस्‍ती लेनी होती है। यदि मौजमस्‍ती काल्‍पनिक स्‍वर्ग के अनुरूप न रहा, पेट का इंतजाम होते ही जांघ का इंतजाम ही स्‍वर्गसुख देता है, तो भी यह नसीब तो है।

मुफतखोरी का इतिहास लंबा है। मैं इसके इतिहास में नहीं जाऊंगा, परन्‍तु यह कहना चाहूंगा कि इस नरक के निर्माण का, समाज को कृपाजीवी भाग्‍यशालियों, निकम्‍मों और मुफ्तखोरों के समाज में बदलने का, काम बहुत छोटे छोटे पर जगजाहिर पैमाने पर नेहरू जी के समय से ही आरंभ हो गया था, परन्‍तु यह कालाबाजारियों, और घोटालेबाजों तक सीमित था, आम जनता तक इसका प्रसार नहीं हुआ था। इन्दिरा जी के समय में पहली बार उजागर किया गया कि भ्रष्‍टाचार कहां नहीं है और इसकी कीमत देने के लिए इतना बड़ा वादा – गरीबी हटाआे – आरंभ किया गया। गरीबी मिटाने वालों ने गरीबों को तबाह कर दिया । अब दलालों और मुफ्तखोरों को सम्‍मान मिलना भी आरंभ हाे गया। यह उन भिखारियों से अलग समाज था । इससे पहले यह अपने त्‍याग और आत्‍मसम्‍मान के बल पर अपने को बड़ा समझता था। यह नया तबका सब कुछ गंवा कर भी तुच्‍छतम तक को प्राप्‍त करना चाहता था और किसने कितना खसोट लिया, कितना बीच में खा गया, इस कसौटी पर उसकी हैसियत का मूल्‍यांकन किया जाता था।

मीठा जहर पिला कर पूरे समाज को नपुंसक बनाने वाले इस माहौल में एक ऐसा व्‍यक्ति भारतीय राजनीतिक मंच पर उपस्थित होता है जो कहता है मैं मुफ्त में कुछ नहीं दूंगा। तुम्‍हें इस योग्‍य बनाने के लिए कि तुम अपने पांवों पर खड़े हो सको, मैं तुमसे विनय पूर्वक तुम्‍हारे भाग्‍य निर्माण में अंशदान करने काे बाध्‍य करूंगा। जिन्‍हें अंशदान की सहायता की जरूरत नहीं है उनसे अनुरोध करूंगा कि वे आत्‍मसम्‍मान का परिचय दें और स्‍वत: वे सुविधाएं छोड़ दें। आश्‍चर्य यह कि इसे लोगों ने सुना और अपनी अनुग्रहराशि वापस कर दी जब कि इससे पहले उनका नैतिक क्षरण इस स्‍तर का हो चुका था कि वे टुकड़ों के लिए देश भी बेच सकते थे और अपने आप को भी बेच सकते थे। बेचते भी रहे और प्रतिष्‍ठा भी पाते रहे।

विश्‍व इतिहास में अप्रिय निर्णय लेने वाले ही मूर्धन्‍य नेता बने है। आश्‍चर्य यह कि अखबार वाले उल्‍टा पाठ पढ़ा रहे हैं कि देखो देखो इसने राहत देने की जगह इतना और जड़ दिया, अमुक का पूरा लाभ मिला ही नहीं, इसे जानते हुए भी यह विश्‍वास काम कर रहा है कि यह आदमी हमें पंगुता, अपमान और ग्‍लानि से बाहर निकालने को तत्‍पर है और उसकी लोपप्रियता का आरेख नीचे आने का नाम ही नहीं लेता। जो सब कुछ मुफ्त में देने को तैयार हैं उनका घर ही संभल नहीं पा रहा है। जिस रहस्‍य को हमारे मुखर और अतिमुखर बुद्धिजीवी नहीं समझ पाते उसे अनपढ़ जन कैसे पढ़ लेते हैं और कैसे उसके साथ हो लेते हैं, इसपर खोज हो तो यह भी पता चलेगा कि यह लेखक क्‍यों चाहता है कि इस आदमी के काम मे व्‍यवधान न डाला जाय और रोज मस्‍खरेबाजी करते हुए सोच और समझ का स्‍तर इतना न गिरा दिया जाय कि हम अपने वर्तमान का सामना न कर सकें, भविष्‍य के सपनों तक पहुंचने के रास्‍ते न निकाल सकें और हम जहां हैं वहीं जन्‍नत है गाते हुए नए नरक बनाते चले जाएं।

Post – 2016-10-11

मैं उस जगह नहीं हूं जहां तुम कभी रहे
पर फिर भी उस जगह के आसपास कहीं हूं।
मैं ढूंढ़ रहा हूं तुम्‍हें पर तुम नहीं मिलते
मिलने की लकीरों के आसपास कहीं हूं।
ऐ मेरे सनम पर्दो पर पर्दे हैं किसलिए ।
दिल तक न पहुंच है पर आसपास कहीं हूं।
मिट कर भी बनाने के ईंट गाद बनेंगे
दुनिया को बनाने के आसपास कहीं हूं।
मै खास नहीं हूं मुझे मालूम है लेकिन
यह कहते हुए डरता हूं, ‘कुछ खास नहीं हूं।’

Post – 2016-10-11

अब भी उस बेवफा पर मरते हैं जिसने सारा शहर तबाह किया।
मिट गये सब तो हम कहां बचते, देखिए किस तरह निबाह किया।
उसने जालिम कहा तो यह सोचा, यह अदाओं में है मुद्दत से शुमार।
उस‍की खंजर की चुभन सहते हुए मैंने हर बार वाह वाह किया ।

Post – 2016-10-11

भारतीय रातनीति में मोदी फैक्‍टर – 5

मोदी के संघ से संबंध किसी से छिपे नहीं हैं। परन्‍तु उसमें रहते हुए, आपात काल के दौरान, भूमिगत होकर, आपात काल के विरोध में पत्र निकालने, उसे मुद्रित करा कर दिल्‍ली भेजने और वितरित कराने के अभियान में जो सक्रियता दिखाई वहां से आरंभ होता है नरेन्‍द्र मोदी की असाधारण कार्यक्षमता, रणनीतिक दक्षता और दूरदर्शिता इतिहास।

जो भी हो अपने विशिष्‍ट गुणाें का प्रदर्शन के लिए मोदी के भाग्‍य से अापात काल एक सुयोग बन कर आया। इसके बाद वह अलग से पहचाने जाने लगे। आगे का रास्‍ता उन्‍होंने संगठन के भीतर अन्‍य प्रतिस्‍पर्धियों से विनम्रता और कार्यतत्‍परता के बल पर संघर्ष करते हुए बनाया। उन्‍हें अडवानी और मुरली मनोहर जोशी की यात्राओं का सफल प्रबन्‍धन भी किया। अपनी नितान्‍त साधारण हैसियत, बड़नगर के अपने पिता की चाय की दूकान के बाद भाई के साथ बस अड्डे पर चाय की दकान पर काम करते हुए, भूमिगत हो कर एक अभियान का संचालन और उसके कई स्‍तरों की देखरेख ओर इन यात्राओं के संयोजन के अवसरों ने लोक चित्‍त को समझने का जितना विविधतापूर्ण अवसर मोदी को दिया वह विरल नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को मिलता है और इसीलिए वह जनता की नब्‍ज को जिस तरह समझते हैं, वैसा आज से पहले किसी भारतीय नेता से संभव नहीं हुआ। मोदी की जादूगरी का पूर्वरूप लालबहादुर शास्‍त्री में अवश्‍य मिलता है।

यह एक विचित्र संयोग है कि लालूप्रसाद यादव, नीतीश कुमार और मोदी आपातकाल की उपज हैं। मोदी उस नवनिर्माण आन्‍दोलन के संचालकाेेंं में सबसे तरुण थे जिसने जयप्रकाश नारायण को पूर्ण स्‍वराज्‍य के आन्‍दोलन की प्रेरणा दी थी। बिहार के नेता जयप्रकाश जी के उनकेे आन्‍दोलन से जुड़ कर प्रकाश में आए थे। उस समय इनकी किसी विलक्षण प्रतिभा का सूझ का परिचय नहीं मिला था। यह इनके कद के अन्‍तर को समझने में कुछ सहायक हो सकता है। मुलायम सिंह, पासवान, लालू और नीतीश को मंडल कमीशन की मदद और मायावती को दलित आरक्षण का लाभ मिला जिसे सभी ने अपनी जाति तक पहुंचा दिया, जब कि पिछड़े समुदाय में आते हुए भी मोदी ने उसका कभी लाभ नहीं उठाया और अपनी योग्‍यता के बल पर पटेल बहुल समाज और पटेल नेतृत्‍व के दबदबे के बीच बिना प्रतिरोधी स्‍वर बने, मोदी ने अपने वरिष्‍ठों को सादर किनारे छोडते हुए मुख्‍यमन्‍त्री पद तक पहुंचने की पहली मंजिल तय की।

वह केन्‍द्र में भी कभी पहुंच सकते हैं, यह सपना तो तब देखा ही न होगा जिसके लिए जनता की ओर से पुकार आने लगी और इसे भी अपने बड़ों का आशीर्वाद दीजिए और मुझे काम करने दीजिए और आपके निर्णायक पदों पर रहते मूझे निर्णय लेने में बाधा न हो इसलिए ऐसी नौबत न आने दीजिए का संकेत देते हुए अपने वरिष्‍ठों की लालसा के विरुद्ध अपने फैसले को मानने की स्थितियां अपनी कूटनीतिक चतुराई से पैदा कर लीे जिसमें यह तय करना तक उनके हाथ में आ गया कि वे वरिष्‍ठ चुनाव लड़ेंगे कहां से। यह कौशल साधारण नहीं है और आज वे नेता भी जो तब खिन्‍न अनुभव कर रहे थे ये मानते हैं कि मोदी ने बहुत सही काम किया।

मुकाम आना था देखो मुकाम आया भी।
जब खुदाओं को भी सजदे में सर झुकाना पड़ा।

हम कह आए हैं कि गुजरात का मुख्‍यमन्‍त्री बनने के बाद अपने नवसिखुआपन में मोदी ने एक ही चूक की । वह थी अयोध्‍या में कारसेवकों को मस्जिद गिराए जाने के दस साल पूरे होने पर नारेबाजी के लिए भेजना। बाद में जो कुछ घटा उसका ही परिणाम और प्रतिक्रिया है। कारसेवकों को भेजने की जिम्‍मेदारी मोदी की थी और उनके साथ गोधरा में जो हुआ उसकी ग्‍लानि और क्षोम में गुजरात कांड में मोदी की ओर से भी शिथिलता बरती गई होगी, परन्‍तु स्थिति संभाल से बाहर होते देख कर्फ्यू लगाने और उपद्रवकारियों को देखते ही गोली मारने के भी आदेश दिए थे और केन्‍द्र से सेना की सहायता लेकर शान्ति स्‍थापित करने का जो प्रयत्‍न किया था उसमें बहुत से हिन्‍दू भी मारे गए थे। इसके बाद भी उनके ऊपर सन्‍देह का बादल घुमडते रहे। यद्यपि उन्‍होंने कई भड़कावों के बाद भी असाधारण संयम का परिचय दिया था और उनके शासन के अगले ग्‍यारह सालों में गुजरात में किसी तरह का तनाव तक नहीं पैदा हुआ।

मैं यह जानना चाहता हूं कि आखिर जब कांग्रेस शासन के दौर में सुप्रीम कोर्ट के निदेश पर स्‍थापित विशेष जांच दल ने भी यह पाया कि मोदी कसूरवार नहीं है तो, और कोर्ट ने इसे मान कर अपना फैसला भी दे दिया तो भी इस सन्‍देह को जारी क्‍यों रखा गया।

मुझे दो चीजें एक साथ नजर आती है जब कि दोनों के परिप्रेक्ष्‍य अलग हैं। पहला है जो तर्क, प्रमाण और कम्‍युनिस्‍टों के अपने बयान पर आधारित है कि उसने मुस्लिम लीग के कार्यक्रम को अपने कार्यक्रम का हिसा बना लिया। जिस बात को उन्‍होंने नहीं कबूल किया है वह यह कि उसके बाद मुस्लिम लीग का लक्ष्‍य उसका प्रधान लक्ष्‍य हो गया और कम्‍युनिज्‍म का नारा और परचम उसका ओट बन गया। हम यह भी देख आए हैंं कि जिन लीगियों ने पाकिस्‍तान बनाया था वे स्‍वयं भी पाकिस्‍तान जाने की समस्‍याओं से परिचित नहीं थे और बंटवारे के बाद उनमें से अधिकांश भारत में ही रह गए और कुछ दिनों की झेंप के बाद खादी पोशाक अपना कर, गांधी टोपी लगा कर, रातोंरात कांग्रेस में शामिल हो गए। उनके सरोकार कांग्रेस के सरोकार बनते चले गए, जिसे मुस्लिम वोटबैक की जरूरत थी।
भारत विभाजन के बाद मुसलमानों के लिए अलग बनाए गए देश पाकिस्‍तान पर मुसलमानों का राज्‍य था, पर उस बंटवारे से जो भाग हिन्‍दुओं के हिस्‍से में आया था वह भी मुस्लिम लीग की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए समर्पित रहा जिसमें मुसलमानों की कट्टरता की चिन्‍ता तो थी पर विकास की चिन्‍ता न थी। इसी का परिणाम था, मुस्लिमेतर धर्मों और विश्‍वासों के प्रति जुगुप्‍सा पैदा करने का अभियान जिसमें घृृणा प्रसार की क्षमता को बौद्धिकता का प्रमाण माना जाने लगा। यह घृणा सबसे अधिक हिन्‍दुओं के प्रति थी, परन्‍तु इसे ऐसा मुखौटा दिया जाता रहा कि इसके चरित्र को समझना इस अभियान में सक्रिय लोगों को भी धोखा दे सकता था। इसकी सचाई प्राचीन भारतीय इतिहास को कलुषित करने और मध्‍यकाल को मध्‍यकालीन उत्‍पीड़नों को भी संगीतमय बनाने के रूप में सामने आई।

घृणा प्रेम और दहशत मनुष्‍य के सबसे प्रबल आवेग हैं। ये हमारे विवेक पर इस कदर हावी हो जाते हैं कि दिमाग काम करना बन्‍द कर देता है या उसकी भूमिका घृणा को प्रखर बनाने के तरीके आविष्‍कृत करने तक सीमित रह जाता है। यह बौद्धिक सिस्‍ट फार्मेशन जैसा अभेद्य बन जाता है जिस पर
तर्क और प्रमाण इतना कम असर कर पाते हैं, कि विश्‍वास नहीं हो पाता कि स्थिति में कोई सुधार आ सकता है, फिर भी उपचार तो इन्‍ही के माध्‍यम से हो सकता है।

पहले मैं यह बता दूं कि यह दहशत या घृणा पैदा कैसे होती है। एक छोटा सा बच्‍चा है जो हम न देखें तो वह किसी तिलचट्टे को पकड़ने की भी कोशिश कर सकता है। अर्थात् उसे उस तिलचट्टे के अच्‍छे या बुरे के बारे में उसे कुछ पता नहीं, परन्‍तु आप किसी तिलचट्टे को देख कर उसकी ओर उंगली से संकेत करते हुए एकाएक चौंक कर चीखते हैं, ‘अरे तिलचट्टा।’ बच्‍चा आप की चौंक से जुड़े भय और उस कीड़े की शक्‍ल – व‍ह तिलचट्टा हो छिपकली- काेे अपनी चेतना में उतार लेता है। वह बड़ा हो जाने पर भी इससे मुक्‍त नहीं हो पाता। तिलचट्टा या छिपकली देख कर इनसे दहशत या अन्‍धभीति से ग्रस्‍त महिलाएं न केवल इनसे घ़णा करने लगती हैं अपितु इतना आतंकित हो जाती हैं कि इन्‍हें दूर भगाने तक का सासह नहीं जुटा पातीं। कोई दूसरा उसे भगा दे या मार दे तब उनको सुकून मिलता है।

कहें घृणा का तार्किक आधार नहीं होता, इसलिए यह समझानेे पर भी कि ये इतने खतरनाक या गन्‍दे या डरावने नहीं हैं, दहशत या घृणा दूर नहीं हो पाती। अब यदि आप तिलचट्टे को मारने की जगह उठा कर अपनी हथेली पर रख कर दिखाएं कि देखो, इसमें डरने लायक कुछ नहीं है, तो दहशत तुरत तो समाप्‍त नहीं होगी, पर पहले से कुछ कम होगी और अब तर्क के लिए भी रास्‍ता बनेगा। सोच विचार भी संभव हो पाएगा।

मुस्लिम लीग ने हिन्‍दुओं को कुचलने, दबाने, अपमानित और लांछित करने का काम हिन्‍दू समाज को शत्रु मान कर किया, और इसका मूर्तन उस संगठन में हो गया जो हिन्‍दुओं की सुरक्षा के लिए स्‍थापित हुआ था। ठीक वही काम ईसाई मिशनरियों नेे हिन्‍दुओं को धर्मान्‍तरित करने में बाधक पा कर इस संगठन के विषय घृणा प्रचार में किया। नाम से भारतीय या राष्‍ट्रीय होने के बाद भी हिन्‍दू समुदाय तक ही अपने सरोकार को सीमित रखने के अतिरिक्‍त संघ ने अपने पूरे इतिहास में कभी दंगे भड़काने का काम किया हो तो इसका खुलासा उन कमीशनों की रपटों के माध्‍यम से नहीं किया गया जिन्‍हें कांग्रेस के शासन में ही भड़के दंगों के कारणों की जांच के लिए स्‍थापित किया जाता रहा था। रपटों को दबा दिया गया जो उल्‍टा सन्‍देह पैदा करता है। अर्थात् छोटे या बड़े पैमाने पर दंगे भड्काने का काम दूसरे करते रहे, उनसे हिन्‍दू प्रभावित हों या मुसलमान। परन्‍तु फिर भी बिना कारण बताए, सारी घृणा संघ की ओर मोड़ दी जाती रही।

जहां मुस्लिम सक्रियता के प्रमाण मिलते थे वहां भी कम्‍युनिस्‍ट नेता और बुद्धिजीवी उसका समर्थन करते थे, अल्‍पसंख्‍यक सांप्रदायिकता सांप्रदायिकता नहीं होती, अल्‍पसंख्‍यक उपद्रव किसी न किसी बहुसंख्‍यक उकसावे का परिणाम होता है। संघ शासित किसी प्रदेश में ऐसा कोई दंगा नहीं हुआ था जो कांग्रेस शासन में होता रहता था। मोदी के शासन पहली बार गुजरात कांड हुआ और इसके कारणों की पड़ताल किए बिना ही उस घृणा को एक तार्किक आधार देने का अवसर मिल गया जिसे लेकर जाने कितने आयोजन किए गए, कितनी कविताएं और कहानियां लिखी गई और पत्रों पत्रिकाओं में लगातार ऐसी टिप्‍पणियां की गई जिससे यह ध्‍वनि निकले कि यह सब मोदी की सक्रिय भागीदारी से संभव हुआ। मुस्लिम पक्षधरता का हाल यह कि गोधरा कांड के विषय में भी यह समझाने का प्रयत्‍न किया गया कि इसे किसी ने भड़काया नहीं था, अपितु यात्रियों में से किसी ने स्‍टोव जला कर कुछ पकाने की कोशिश की और उसी से आग लगी और फैलती चली गई और इसकी पराकाष्‍ठा यह कि यह कहने में भी संकाेेच न किया गया कि यह कांड गुजरात कांड कराने के लिए स्‍वयं मोदी ने कराया था। जहां दोषारोपण के प्रयास इतने जोरदार हों वहां कोई भी संस्‍था या व्‍यक्ति सन्‍देह की उस छाया से मोदी को मुक्‍त नहीं कर सकता जो आज भी मुसलमानों के मन में बना रह गया है। इसमें सबसे प्रधान भूमिका मुस्लिम बुद्धिजीवियों की हो सकती थी, परन्‍तु मुस्लिम बुद्धिजीवी भी इस मिथ्‍याप्रचार के इतने शिकार हैं कि वे मोदी को हटाने के प्रयास में छोटे से छोटे बहाने से असुरक्षित अनुभव करने लगते है और इस तरह असुरक्षा के विस्‍तार में स्‍वयं सहयोगी की भूमिका प्रस्‍तुत करते हैं।

जरूरत ईमानदारी से वस्‍तुस्थिति का विश्‍लेषण करने की है जिससे आपको खींचतान करने की जरूरत न पड़े। होता यह है कि अपनी कलाक्षमता या बौद्धिकता पर अधिक विश्‍वास करने के कारण व्‍यक्ति पहले से बनी धारणा को सही सिद्ध करने की ताक में रहता है और घालमेल करता है कि अधिक से अधिक लोगों के मन में दहशत पैदा की जा सके। इसका सबसे ताजा उदाहरण वह था जिसमें एक मुस्लिम कलाकार को जो पहले से रामलीला में भूमिका प्रस्‍तुत करता आया था शिवसेना के किसी स्‍थानीय ‘नेता’ ने मारीचि की भमिका करने से रोक दिया।

शिवसेना हिन्‍दू संगठन नहीं है, मराठा मानुस का हुड़दंगी संगठन है। इसने अपने उदय के साथ मराठियों की बेरोजगारी दूर करने के नाम पर दक्षिण भारत के मजदूरों और कर्मचारियों को भगाया था, बाद में बिहारियों को, और उसके बाद असमियों को। वह भड़काने वाली कोई कार्रवाई करके अपनी पहचान बनाने का आदी है। उसकी भाजपा से तनातनी भी है और मोदी की सफलता उसे सुहाती नहीं। उसने मोदी से अच्‍छा सुषमा स्‍वराज्‍य को बताया था और इधर इस प्रयत्‍न में है कि मोदी को सफलता न मिले। ऐसी स्थिति में यदि उसका कोई नेता ऐसे अवरोध डालता है और बाद में जनमत उसे अपना विचार बदलने को बाध्‍य कर देता है, कलाकार केे मन से भी मलाल इतना तो दूर हो ही जाता है कि वह अगले साल से उसमें भाग लेने को सहमत हो जाता है तो फिर इस घटना को भाजपा के सिर मढ़ने की कारीगरी करते हुए अपने को असुरक्षित अनुभव करने की बात किसी बडे लेखक के द्वारा की जाए तो अटपटी तो लगेगी ही, गैरजिम्‍मेदाराना भी लगेगी। परन्‍तु समस्‍या वही है, लोग मोदी के कार्यों की सफलता के अनुपात में इस बोध से कातर हो कर कि अब तो दूसरे प्रतिस्‍पर्धी नेता भी अस्‍त होते सितारों जैसे होते जा रहे है, इस घृृणा को अधिक प्रखर बनाने के प्रयत्‍न किए जा रहे हैं और इनमें सभी मर्यादाओं का उल्‍लंघन किया जा रहा है। इससे देश का नुकसान तो होता ही है, उन योजनाओं को गति देने में भी अवरोध पैदा होता है जिनकी सफलता हमारी वर्तमान अधो‍गति से उबरने के लिए जरूरी है।

Post – 2016-10-09

(पहले इससे पहले सार्वजनिक किया गया पोस्‍ट देखें तब समझ में आएगी यह तुकबन्‍दी)।

कितनी रातों का अंधेरा है तेरी आंखों में।
सामने आ तो सही, आ नजर मिला तो सही।
कितनी शामों की उदासी है तेरे माथे पर है
कैसी कालिख है, मैं देखू, करीब आ तो सही।
तरस आता है तेरे हाल पर मगर तू भ्‍ाी
न संभलता, न बदलता, न सोचता ही है।
कितने सदमे मिले, मिलने को कितने बाकी हैं
हिसाब गर न लगाया तो अब लगा तो सही।
मैंने समझाया तो इसका भी बुरा मान गया
राह दिखलाई तो वह रास्‍ता जंचा ही नहीं।
मुझसे मत डर तेरा हमदर्द हूं अपने दिल की
सच बता, साफ बता, यार अब बता तो सही।।

Post – 2016-10-09

भारतीय रातनीति में मोदी फैक्‍टर – 4
मोदी के आलोचकों ने उन गालियां से उनका स्‍वागत उनके केन्‍द्रीय मंच पर उपस्थिति की सूचना के साथ देना आरंभ कर दिया था – वह तानाशाह है, हत्‍यारा है, फासिस्‍ट है, हिटलर की तरह खतरनाक है, पर यह उच्‍चाटनपाठ करने वालों में किसी ने सोचा ही नहीं कि इसका उस मतदाता पर क्‍या असर पड़ रहा है जिस तक वह पहुंचना चाहता है फिर भी नहीं पहुंच पा रहा है। बहुत सारे शब्‍दों का मतलब आम लोग जानते नहीं। यदि बताया जाता कि तानाशाही, फासिज्‍म का मतलब यह है तो वे कहते, “इसीलिए तो हम उनके साथ हैं।”
निष्क्रियता और दब्‍बूपन से ऊबा हुआ देश उस खतरनाक कगार पर पहुंच चुका था जिस पर खतरों से खेलना सबसे आकर्षक विकल्‍प बन जाता है। यह दुर्भाग्‍यपूर्ण क्षण था और देश के लिए भी यह दुर्भाग्‍यपूर्ण होता यदि मोदी सचमुच वह होते या इन अपेक्षाओं पर सही सिद्ध होते । हमने कहा, देश ने पहली बार एक तानाशाह को चुना और चुनाव अभियान के दौरान बहुतों को उस शैली से अपना अन्‍देशा पुष्‍ट होता लगा होगा, परन्‍तु मोदी को एक बात बहुत अच्‍छी तरह मालूम थी कि तानाशाह अकेला होता है। अकेला होने के कारण अपनी छाया से भी डरता है । प्रबल दिखाई देते हुए भी वह बहुत कमजोर होता है और उसे आसानी से हटाया जा सकता है। वह उस नव निर्माण आन्‍दोलन के सबसे सक्रिय तरुणों में एक रहे हो सकते हैं जिन्‍होंने अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता और तानाशाही से मुक्ति का ऐसा अभियान चलाया था जिसका उससे पहले या बाद में कोई उदाहरण नहीं मिलता।
मूर्खो में नयी दृष्टि का ही अभाव नहीं होता, वे सही तरीके से पुराने की नकल तक नहीं कर पाते। हैदराबाद और जेएनयू के छात्रों की अराजकता को उन्‍होंने उसी तरह का आन्‍दोलन मान लिया जाे गुजरात में चला था। वे मोदी के हथियार से ही मोदी को मात देना चाहते थे और इस पागलपन में यह भूल गए थे कि बदतमीजी की स्‍वतन्‍त्रता को, अपनी हताशा में, अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता मानने वालों के जत्‍थे खड़े किए जा सकते हैं, पर जनसमर्थन नहीं मिल सकता और उसके बिना कोई आन्‍दोलन किसी भी नारे से आरंभ हो वह हुड़दंग से आगे नहीं बढ़ पाता।
गुजरात का आन्‍दोलन भ्रष्‍टाचार के खिलाफ और एक झटके में इंजीनियरी कालेजो की फीस और मेस चार्ज बढ़़ाने के विरोध में आरंभ हुआ था। मांग सही थी, असन्‍तोष अन्‍य कारणों से भी था, इसलिए पहले इसे वकीलों का समर्थन मिला, फिर गैर कांग्रेसी विधायको का जिन्‍होंने इसकेे समर्थन में त्‍यागपत्र दिए और फिर यह गुजरात के अवाम का आन्‍दोलन बना। चिमन भाई की सरकार के पूर्ण बहुमत में होते हुए भी इन्दिरा जी को उनकी सरकार हटा कर राष्‍ट्रपति शासन लगाना पड़ा।
उसके विपरीत, यहां, गददारी की आवाज को भी आजादी की मांग के रूप में पेश किया जा रहा था और अदालत का भी मानना है कि गद्दा्री करने के बाद ही यह गद्दारी मानी जाएगी। गलत भाषा के लिए दूसरे प्रावधान हैं। परन्‍तु इसे सही मानने का प्रश्‍न ही न था। इसे धन से समर्थन मिल रहा था इसका प्रमाण यह कि अब यह नेता हवाई जहाज से चलने लगा था। जिन वकीलों ने गुजरात के आन्‍दोलन में बढ़ कर हिस्‍सा लिया था, उन्‍होंने ही कोर्ट में उसकी पेशी के दौरान उसकी पिटाई कर दी और बाद की तारीखों पर उसका चलना मुश्किल कर दिया। वकीलों के बीच अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता के इस नवपरिभाषित रूप के कुछ भ्‍ाी समर्थक होते तो बीच बचाव के लिए ही पहुंच जाते। अलोकप्रियता के इस बूते पर कांग्रेस, भाकपा और माकपा गुजरात का सपना पाले मोदी सरकार को गिराने केे अभियान में सहयोग करने लगे थे। खुले मंच पर आ कर। अखबार भी साथ दे रहे थे। आखिर इन सबकी उपेक्षा करके मोदी ने मनकी बात के कार्यक्रम से दूसरे दलालों की तरह प्रचार के इन दलालों को भी रास्‍ते से बाहर कर दिया था। परन्‍तु अपने इस प्रकट रूप से इसे स्‍वतंत्रता का आन्‍दोलन बता कर , उसका साथ देते हुए, अपने दलों के लिए क्‍या अर्जित किया होगा या कितना गंवाया होगा, यह अनुमान आप पर छोड़ा जा सकता है। मोदी ने किसी को मारा नहीं, वे मोदी की उपस्थिति के साथ अपनी ही करनी से बेमौत मारे गए। पुरानी कहावत है, देवता जिसका नाश करना चाहते हैं उस पर प्रहार नहीं करते, उसकी मति ही फेर देते हैं। इस आदमी ने तो वह पाप भी नहीं किया, उनकी मति स्‍वयं फिर गई और फिरी रही।
मैं जिस चकित करने वाले दुर्भाग्‍य की ओर आपका ध्‍यान दिलाना चाहता हूें वह यह कि हमने अपने बुद्धिजीवियों की परजीविता के कारण, उनके लगातार भजन के कारण, जिसे फासिस्‍ट मान रखा था, या हो-न-हो के संशय में इतने दिन गुजारे गए थे, वह अकेला दल है जिसे लोकतांत्रिक कहा जा सकता है। जिसका चरित्र सर्वहितवादी रहा है। कांग्रेस और समाजवादी और समाजवादी से कुछ अधिक अर्थात् कम्‍युनिस्‍ट दलों, जाति-बिरादरी वादी, आंचल-वादी और अंचलवादी दलों में से किसी का व्‍यावहारिक चरित्र न तो समग्र समाज को ले कर चला, न किसी ने संविधान का उल्‍लंघन करने से अपने को रोका, न देश के नियमों का पालन किया न लोकतांत्रिक मर्यादाओं का सम्‍मान किया, न विपक्ष में आने पर देशहित के विरुद्ध कोई आचरण न किया, न अपराधतन्‍त्र और बैलटबाक्‍स-लूट-तन्‍त्र को प्रश्रय देने से बचा।
कहने को भाजपा का पैत्रिक संगठन ही लट्बाजों का था, परन्‍तु उन्‍होंने चुनाव जीतने के लिए लट्ठबल का प्रयोग कभी नहीं किया। जो प्रतीकात्‍मक था वह प्रतीकात्‍मक ही रहा। भारतीय स‍ंविधान के प्रति यदि कोई एक दल मनसा, वाचा (?), कर्मणा समर्पित रहा तो वह जिसे फासिस्‍ट कह कर गालियां दी जाती रहीं। मैं इस उलटबांसी को समझना चाहता हूंं कि यह कैसे हुआ‍ कि लोकतन्‍त्री राजतन्‍त्री हो गए, समाजवादी अराजकतावादी हो गए, दलित उद्धारक स्‍वजातिवादी हो गए, समाजवाद से कुछ अधिकतावादी अर्थात् कम्‍युनिस्‍ट आत्‍मघातवादी हो गए और जिसे ये सभी कोरस गाते हुए फासिस्‍ट कहते रहे वह अवसर मिलने पर लोकतंन्‍त्र और संविधान की सभी कसौटियों पर खरा उतरा। इनमें से एक एक को उदाहृृत करने में इतना समय लगेगा कि यह शृंखला आप को उबाने लगेगी, इसलिए मैंं इसे दावे के रूप में प्रस्‍तुत कर रहा हूं । यदि किसी ने किसी के विषय में प्रश्‍न किया तो उसेे विस्‍तार से प्रमाणित करूंगा।
यदि किसी ने गोल मोल फिकरे कसे तो उसकी उपेक्षा यह सोच कर करूंगा कि यह इतना समझाने के बाद भी आदमी की भाषा नहीं सीख पाया है। आज कल सामाजिक संचार माध्‍यमों पर भाषापूर्व की संकेत भाषा में बहुत सारी बहसेंं होती हैं। जिनका बौद्धिक विकास भाषा के आविष्‍कार के बाद उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हो पाया है वे भाषा को भी संकेत भाषा बना देते हैं और उनके समानधर्मा उसे समझ भी लेते हैं।
‘भारत देश महान’ पुरानी किताबों के दौर में था जब हमारा भूगाेल ज्ञान कुछ सीमित था, और लाठी भांजने पर अधिक तथा पढ़ने लिखने पर कम ध्‍यान देने के कारण, ज्ञान के नाम पर केवल यह वाक्‍य इनकाे अवश्‍य याद रहा है। परन्‍तु वे नासमझ हैं, जो जानते नहीं हैं उसे भी बोल देते हैं, आप पढ़े लिखे नष्‍टचेत हैं, इसलिए उनके इस कथन को आप ने सही सिद्ध किया है और इसे जानते तक नहीं।
जब भारत को स्‍वतंन्‍त्रता मिली थी तब शासन या शासनहीनता के जिन तन्‍त्रों का दुनिया को ज्ञान था और जिनका ध्‍यान रख कर ही हमारा संविधान लिखा गया, वे थे, अराजकतावाद (एनार्की), सर्वनाशवाद (निहिलिज्‍म), गणतन्‍त्र (रिपब्लिक), स्‍वेच्‍छाचार (डेस्‍पाटिज्‍म), अभिजाततन्‍त्र (ऑलीगार्की/ एरिस्‍टोक्रैसी), राजतन्‍त्र (‍किंगशिप या मानर्की), फासीवाद (फासिज्‍म), नात्‍सीवाद (नाजिज्‍म), अधिनायकवाद जिसकी व्‍य‍ाप्ति पिछले दोनों वादों तक थी और समग्रतावाद जो अधिनायकवाद की चरम अवस्‍था के रूप में साम्‍यवाद के लिए पूंजीवादियों का गढ़ा पद था। इन सभी की खूबियों को अपनाते और सभी के दोषो से बचते हुए भारतीय संविधान का निर्माण किया गया था।
आप लोगों की कृपा से (आप जानते हैं यहां तुम और आप या आप लोग का प्रयोग अपने उस मित्र को संबोधित करते हुए कर रहा हूं जिसे विस्‍तारभय से इस बहस में अपने सवाल तक पूछने का अवसर नहीं दिया है, परन्‍तु जिसका एक ही मानदंड है कि जो कुछ संघ और उससे जुड़े किसी संगठन से जुड़ा है उससे वह घृणा करता है और घृणा को कायम रखने के लिए किसी ऐसे व्‍यक्ति, संगठन या धूर्त का नाम जो हिन्‍दू से किसी तरह जोड़ा जा सकता है, उसके अपराधों को भी इस संगठन से जोड़ कर इसकी नैतिक हत्‍या करने को तत्‍पर रहता है।) भारत देश महान का उनका सपना इतने अल्‍प समय में ही पूरा हो गया है। हजारों साल के विविध तन्‍त्रों को अपर्याप्‍त मानते हुए आपने यह सिद्ध किया है कि जो भारत में हो सकता है वह कहीं नहीं हो सकता है, इसलिए यह देश समस्‍त विश्‍व प्‍लस कुछ और है – यदिहास्ति तदन्‍यत्र यन्‍नेहास्ति न तत्क्‍वचित – पर यह जाने बिना ही कि यहां भारत का अर्थ क्‍या है।
पुराने तन्‍त्रों में आपने कितने नए तन्‍त्र जोड़ दिए इतनी अल्‍प अवधि में जिनका ध्‍यान संविधान निर्माताओं ने भी नहीं रखा इसलिए आप संविधान को भी नहीं मानते, क्‍योंकि यह उनके तन्‍त्र के अनुरूप नहीं है। ये तन्‍त्र हैं:
1. भुजंग तन्‍त्र । भुजंग का अर्थ वह जीव होता है जिसका शरीर भुजा की तरह केवल लंबाई में फैला होता है, जो सांप के लिए रूढ़ हो गया, परन्‍तु यहां इसका राजनीतिक भाषा में अर्थ है बाहुबल पर आधारित तन्‍त्र, जिसके कई पर्याय है, जिनमें सबसे सार्थक है अपराध तन्‍त्र या गुंडा तन्‍त्र।
2. कुनबातन्‍त्र जिसके लिए अंग्रेजी वालों ने भी आगे बढ़ कर शब्‍द गढ़ लिया नेपोटिज्‍म ।
3. बिरादरी तन्‍त्र जिसमें बिरादरी देश बन जाती है और बिरादरी से बाहर का देश विदेश बन जाता है जिसे नष्‍ट करना जरूरी हो जाता है।
4. कोणतन्‍त्र । इसमें कोई भी कोना या अंचल अपने को केन्‍द्र मान लेता है और समूचे देश को अपने कोणीय दृष्टि से चलाना चाहता है।
5. सर्वसमावेशतन्‍त्र । इसमें सभी तन्त्रों की विकृतियों काेे तन्‍त्र की अन्‍तरात्‍मा और सभी के मांगलिक पक्षों को मुखौटा बनाया जाता है।
6. होने-को-तो-सब-कुछ-हैं-मगर-कुछ-भी-नहीं-हैं तंंत्र जिसमें सभी तन्‍त्रों के अधिकार स्‍वायत्‍त मान लिए जाते हैं परन्‍तु किसी के कर्तव्‍य के निर्वाह का बोझ उठाया नहीं जाता ।
जब ये सभी तन्‍त्र सक्रिय थे उसी समय भारत की केन्‍द्रीय राजनीति में मोदी का प्रवेश हुआ ।
मुहावरे में तो मैंने यह दिखा दिया कि मोदी का ऐसे निर्णायक मोड़ पर भारतीय मंच पर प्रवेश न होता तो इनमें से छठा तंत्र पांचवे के बल पर हावी होता जा रहा था और वह भारतीय राजनीति का ऐसा स्‍वर बन जाता जिसकी अनैतिकता और भ्रष्‍टता से उसे भीतर से भी ध्‍वस्‍त किया जा सकता था, जो गनीमत था। परन्‍तु यह बाहर को रास आता था और उसके हस्‍तक्षेप का मतलब था एक ऐसी गुलामी जिस से मुक्‍त होने की कोशिश में अपना सर्वनाश किया जा सकता था।
पर बात तो आज भी अधूरी ही रह गई। आप मेरी बातों का भरोसा न करें। मैं उन्‍हें पूरा नहीं कर पाता। सोचा था आज इसे पूरा कर लूंगा, पर लाख कोशिश के बाद भी पूरा नहीं कर पाया। आपकी थकान के कारण। मोदी अपने वादे पूरे करने के लिए जान लड़ाने के बाद भी उन्‍हें पूरा क्‍यों नहीं कर पाता, इसे तो हमें भी समझना होगा।
समझना चाहें तो मेरी उस तुकबन्‍दी को भी समझ सकते हैं जो मेरे अपने मित्रों की समझ पर है, जो मुझसे कई गुना पढ़े, लिखे और दिखे विदंवर हैं। उनका ध्‍यान आने पर गद्य को अपर्याप्‍त मान कर, तुकबन्‍दी जोर मार कर बाहर आ गई। इसे ठीक इसके बाद देना ठीक रहेगा। उसे भी जरूर पढ़ें।

Post – 2016-10-09

भारतीय रातनीति में मोदी फैक्‍टर – 4

मोदी के आलोचकों ने उन गालियां से उनका स्‍वागत उनके केन्‍द्रीय मंच पर उपस्थिति की सूचना के साथ देना आरंभ कर दिया था – वह तानाशाह है, हत्‍यारा है, फासिस्‍ट है, हिटलर की तरह खतरनाक है, पर यह उच्‍चाटनपाठ करने वालों में किसी ने सोचा ही नहीं कि इसका उस मतदाता पर क्‍या असर पड़ रहा है जिस तक वह पहुंचना चाहता है फिर भी नहीं पहुंच पा रहा है। बहुत सारे शब्‍दों का मतलब आम लोग जानते नहीं। यदि बताया जाता कि तानाशाही, फासिज्‍म का मतलब यह है तो वे कहते, इसीलिए तो हम उनके साथ हैं।”

निष्क्रियता और दब्‍बूपन से ऊबा हुआ देश उस खतरनाक कगार पर पहुंच चुका था जिस पर खतरों से खेलना सबसे आकर्षक विकल्‍प बन जाता है। यह दुर्भाग्‍यपूर्ण क्षण था और देश के लिए भी यह दुर्भाग्‍यपूर्ण होता यदि मोदी सचमुच वह होते या इन अपेक्षाओं पर सही सिद्ध होते । हमने कहा, देश ने पहली बार एक तानाशाह को चुना और चुनाव अभियान के दौरान बहुतों को उस शैली से अपना अन्‍देशा पुष्‍ट होता लगा होगा, परन्‍तु मोदी को एक बात बहुत अच्‍छी तरह मालूम थी कि तानाशाह अकेला होता है। अकेला होने के कारण अपनी छाया से भी डरता है । प्रबल दिखाई देते हुए भी वह बहुत कमजोर होता है और उसे आसानी से हटाया जा सकता है। वह उस नव निर्माण आन्‍दोलन के सबसे सक्रिय तरुणों में एक रहे हो सकते हैं जिन्‍होंने अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता और तानाशाही से मुक्ति का ऐसा अभियान चलाया था जिसका उससे पहले या बाद में कोई उदाहरण नहीं मिलता।

मूर्खो में नयी दृष्टि का ही अभाव नहीं होता, वे सही तरीके से पुराने की नकल तक नहीं कर पाते। हैदराबाद और जेएनयू के छात्रों की अराजकता को उन्‍होंने उसी तरह का आन्‍दोलन मान लिया जाे गुजरात में चला था। वे मोदी के हथियार से ही मोदी को मात देना चाहते थे और इस पागलपन में यह भूल गए थे कि बदतमीजी की स्‍वतन्‍त्रता को, अपनी हताशा में, अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता मानने वालों के जत्‍थे खड़े किए जा सकते हैं, पर जनसमर्थन नहीं मिल सकता और उसके बिना कोई आन्‍दोलन किसी भी नारे से आरंभ हो वह हुड़दंग से आगे नहीं बढ़ पाता।

गुजरात का आन्‍दोलन भ्रष्‍टाचार के खिलाफ और एक झटके में इंजीनियरी कालेजो की फीस और मेस चार्ज बढ़़ाने के विरोध में आरंभ हुआ था। मांग सही थी, असन्‍तोष अन्‍य कारणों से भी था, इसलिए पहले इसे वकीलों का समर्थन मिला, फिर गैर कांग्रेसी विधायको का जिन्‍होंने इसकेे समर्थन में त्‍यागपत्र दिए और फिर यह गुजरात के अवाम का आन्‍दोलन बना। चिमन भाई की सरकार के पूर्ण बहुमत में होते हुए भी इन्दिरा जी को उनकी सरकार हटा कर राष्‍ट्रपति शासन लगाना पड़ा।

उसके विपरीत, यहां, गददारी की आवाज को भी आजादी की मांग के रूप में पेश किया जा रहा था और अदालत का भी मानता है कि गददारी करने के बाद ही यह गददारी मानी जाएगी। गलत भाषा के लिए दूसरे प्रावधान हैं। परन्‍तु इसे सही मानने का प्रश्‍न ही न था। इसे धन से समर्थन मिल रहा था इसका प्रमाण यह कि अब यह नेता हवाई जहाज से चलने लगा था। जिन वकीलों ने गुजरात के आन्‍दोलन में बढ़ कर हिस्‍सा लिया था, उन्‍होंने ही कोर्ट में उसकी पेशी के दौरान उसकी पिटाई कर दी और बाद की तारीखों पर उसका चलना मुश्किल कर दिया। वकीलों के बीच अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता के इस नवपरिभाषित रूप के कुछ भ्‍ाी समर्थक होते तो बीच बचाव के लिए ही पहुंच जाते। अलोकप्रियता के इस बूते पर कांग्रेस, भाकपा और माकपा गुजरात का सपना पाले मोदी सरकार को गिराने केे अभियान में सहयोग करने लगे थे। खुले मंच पर आ कर। अखबार भी साथ दे रहे थे। आखिर इन सबकी उपेक्षा करके मोदी ने मनकी बात के कार्यक्रम से दूसरे दलालों की तरह प्रचार के इन दलालों को भी रास्‍ते से बाहर कर दिया था। परन्‍तु अपने इस प्रकट रूप से इसे स्‍वतंत्रता का आन्‍दोलन बता कर , उसका साथ देते हुए, अपने दलों के लिए क्‍या अर्जित किया होगा या कितना गंवाया होगा, यह अनुमान आप पर छोड़ा जा सकता है। मोदी ने किसी को मारा नहीं, वे मोदी की उपस्थिति के साथ अपनी ही करनी से बेमौत मारे गए। पुरानी कहावत है, देवता जिसका नाश करना चाहते हैं उस पर प्रहार नहीं करते, उसकी मति ही फेर देते हैं। इस आदमी ने तो वह पाप भी नहीं किया, उनकी मति स्‍वयं फिर गई और फिरी रही।

मैं जिस चकित करने वाले दुर्भाग्‍य की ओर आपका ध्‍यान दिलाना चाहता हूें वह यह कि हमने अपने बुद्धिजीवियों की परजीविता के कारण, उनके लगातार भजन के कारण जिसे फासिस्‍ट मान रखा था, या हो-न-हो के संशय में इतने दिन गुजारे गए थे, वह अकेला दल है जिसे लोकतांत्रिक कहा जा सकता है। जिसका चरित्र सर्वहितवादी रहा है। कांग्रेस और समाजवादी और समाजवादी से कुछ अधिक अर्थात् कम्‍युनिस्‍ट दलों, जाति-बिरादरी वादी, आंचल-वादी और अंचलवादी दलों में से किसी का व्‍यावहारिक चरित्र न तो समग्र समाज को ले कर चला, न किसी ने संविधान का उल्‍लंघन करने से अपने को रोका, न देश के नियमों का पालन किया न लोकतांत्रिक मर्यादाओं का सम्‍मान किया, न विपक्ष में आने पर देशहित के विरुद्ध कोई आचरण न किया, न अपराधतन्‍त्र और बैलटबाक्‍स-लूट-तन्‍त्र को प्रश्रय देने से बचा।

कहने को भाजपा का पैत्रिक संगठन ही लट्बाजों का था, परन्‍तु न तो उन्‍होंने चुनाव जीतने के लिए लट्ठबल का प्रयोग किया। जो प्रतीकात्‍मक था वह प्रतीकात्‍मक ही रहा। भारतीय स‍ंविधान के प्रति यदि कोई एक दल मनसा, वाचा (?), कर्मणा समर्पित रहा तो वह जिसे फासिस्‍ट कह कर गालियां दी जाती रहीं। मैं इस उलटबांसी को समझना चाहता हूंं कि यह कैसे हुआ‍ कि लोकतन्‍त्री राजतन्‍त्री हो गए, समाजवादी अराजकतावादी हो गए, दलित उद्धारक स्‍वजातिवादी हो गए, समाजवाद से कुछ अधिकतावादी अर्थात् कम्‍युनिस्‍ट आत्‍मघातवादी हो गए और जिसे ये सभी कोरस गाते हुए फासिस्‍ट कहते रहे वह अवसर मिलने पर लोकतंन्‍त्र और संविधान की सभी कसौटियों पर खरा उतरा। इनमें से एक एक को उदाह़त करने में इतना समय लगेगा कि यह शृंखला आप को उबाने लगेगी, इसलिए मैंं इसे दावे के रूप में प्रस्‍तुत कर रहा हूं । यदि किसी ने किसी के विषय में प्रश्‍न किया तो उसेे विस्‍तार से प्रमाणित करूंगा।

यदि किसी ने गोल मोल फिकरे कसे तो उसकी उपेक्षा यह सोच कर करूंगा कि यह इतना समझाने के बाद भी आदमी की भाषा नहीं सीख पाया है। आज कल सामाजिक संचार माध्‍यमों पर भाषापूर्व की संकेत भाषा में बहुत सारी बहसेंं होती हैं। जिनका बौद्धिक विकास भाषा के आविष्‍कार के बाद उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हो पाया है वे भाषा को भी संकेत भाषा बना देते हैं और उनके समानधर्मा उसे समझ भी लेते हैं।

‘भारत देश महान’ पुरानी किताबों के दौर में था जब हमारा भूगाेल ज्ञान कुछ सीमित था, और लाठी भांजने पर अधिक तथा पढ़ने लिखने पर कम ध्‍यान देने के कारण, ज्ञान के नाम पर केवल यह वाक्‍य इनकाे अवश्‍य याद रहा है। परन्‍तु वे नासमझ हैं, जो जानते नहीं हैं उसे भी बोल देते हैं, आप पढ़े लिखे नष्‍टचेत हैं इसलिए उनके इस कथन को आप ने सही सिद्ध किया है और इसे जानते तक नहीं।

जब भारत को स्‍वतंन्‍त्रता मिली थी तब शासन या शासनहीनता के जिन तन्‍त्रों का दुनिया को ज्ञान था और जिनका ध्‍यान रख कर ही हमारा संविधान लिखा गया, वे थे, अराजकतावाद (एनार्की), सर्वनाशवाद (निहिलिज्‍म), गणतन्‍त्र (रिपब्लिक), स्‍वेच्‍छावाद (डेस्‍पाटिज्‍म), अभिजाततन्‍त्र (ऑलीगार्की/ एरिस्‍टोक्रैसी), राजतन्‍त्र (‍किंगशिप या मानर्की), फासीवाद (फासिज्‍म), नात्‍सीवाद (नाजिज्‍म), अधिनायकवाद जिसकी व्‍य‍ाप्ति पिछले दोनों वादों तक थी और समग्रतावाद जो अधिनायकवाद की चरम अवस्‍था के रूप में साम्‍यवाद के लिए पूंजीवादियों का गढ़ा पद था। इन सभी की खूबियों को अपनाते और सभी के दोषो से बचते हुए भारतीय संविधान का निर्माण किया गया था।

आप लोगों की कृपा से (आप जानते हैं यहां तुम और आप या आप लोग का प्रयोग अपने उस मित्र को संबोधित करते हुए कर रहा हूं जिसे विस्‍तारभय से इस बहस में अपने सवाल तक पूछने का अवसर नहीं दिया है, परन्‍तु जिसका एक ही मानदंड है कि जो कुछ संघ और उससे जुड़े किसी संगठन से जुड़ा है उससे वह घृणा करता है और घृणा को कायम रखने के लिए किसी ऐसे व्‍यक्ति, संगठन या धूर्त का नाम हिन्‍दू से किसी तरह जोड़ा जा सकता है, उसके अपराधों को भी इस संगठन से जोड़ कर इसकी नैतिक हत्‍या करने को तत्‍पर रहता है।) भारत देश महान का उनका सपना इतने अल्‍प समय में ही पूरा हो गया है। हजारों साल के विविध तन्‍त्रों को अपर्याप्‍त मानते हुए आपने यह सिद्ध किया है कि जो भारत में हो सकता है वह कहीं नहीं हो सकता है, इसलिए यह देश समस्‍त विश्‍व प्‍लस कुछ और है – यदिहास्ति तदन्‍यत्र यन्‍नेहास्ति न तत्क्‍वचित – पर यह जाने बिना ही कि यहां भारत का अर्थ क्‍या है।

पुराने तन्‍त्रों में आपने कितने नए तन्‍त्र जोड़ दिए इतनी अल्‍प अवधि में जिनका ध्‍यान संविधान निर्माताओं ने भी नहीं रखा इसलिए आप संविधान को भी नहीं मानते क्‍योंकि यह उनके तन्‍त्र के अनुरूप नहीं है। ये तन्‍त्र हैं:

1. भुजंग तन्‍त्र । भुजंग का अर्थ वह जीव होता है जिसका शरीर भुजा की तरह केवल लंबाई में फैला होता है, जो सांप के लिए रूढ़ हो गया, परन्‍तु यहां इसका राजनीतिक भाषा में अर्थ है बाहुबल पर आधारित तन्‍त्र, जिसके कई पर्याय है, जिनमें सबसे सार्थक है अपराध तन्‍त्र या गुंडा तन्‍त्र।
2. कुनबातन्‍त्र जिसके लिए अंग्रेजी वालों ने भी आगे बढ़ कर शब्‍द गढ़ लिया नेपोटिज्‍म ।
3. बिरादरी तन्‍त्र जिसमें बिरादरी देश बन जाती है और बिरादरी से बाहर का देश विदेश बन जाता है जिसे नष्‍ट करना जरूरी हो जाता है।
4. कोणतन्‍त्र । इसमें कोई भी कोना या अंचल अपने को केन्‍द्र मान लेता है और समूचे देश को अपने कोणीय दृष्टि से चलाना चाहता है।
5. सर्वसमावेशतन्‍त्र । इसमें सभी तन्त्रों की विकृतियों काेे तन्‍त्र की अन्‍तरात्‍मा और सभी के मांगलिक पक्षों को मुखौटा बनाया जाता है।
6. होने-को-तो-सब-कुछ-हैं-मगर-कुछ-भी-नहीं-हैं तंंत्र जिसमें सभी तन्‍त्रों के अधिकार स्‍वायत्‍त मान लिए जाते हैं परन्‍तु किसी के कर्तव्‍य के निर्वाह का बोझ उठाया नहीं जाता ।
जब ये सभी तन्‍त्र सक्रिय थे उसी समय भारत की केन्‍द्रीय राजनीति में मोदी का प्रवेश हुआ ।

मुहावरे में तो मैंने यह दिखा दिया कि मोदी का ऐसे निर्णायक मोड़ पर भारतीय मंच पर प्रवेश न होता तो इनमें से छठा तंत्र पांचवे के बल पर हावी होता जा रहा था और वह भारतीय राजनीति का ऐसा स्‍वर बन जाता जिसकी अनैतिकता और भ्रष्‍टता से उसे भीतर से भी ध्‍वस्‍त किया जा सकता था, जो गनीमत था। परन्‍तु यह बाहर को रास आता था और उसके हस्‍तक्षेप का मतलब था एक ऐसी गुलामी जिस से मुक्‍त होने की कोशिश में अपना सर्वनाश किया जा सकता था।

पर बात तो आज भी अधूरी ही रह गई। आप मेरी बातों का भरोसा न करें। मैं उन्‍हें पूरा नहीं कर पाता। सोचा था आज इसे पूरा कर लूंगा, पर लाख कोशिश के बाद भी पूरा नहीं कर पाया। आपकी थकान के कारण। मोदी अपने वादे पूरे करने के लिए जान लड़ाने के बाद भी उन्‍हें पूरा क्‍यों नहीं कर पाता, इसे तो हमें भी समझना होगा।

समझना चाहें तो मेरी उस तुकबन्‍दी को भी समझ सकते हैं जो मेरे अपने मित्रों की समझ पर है, जो मुझसे कई गुना पढ़े, लिखे और दिखे विदंवरों हैं। उनका ध्‍यान आने पर गद्य को अपर्याप्‍त मान कर, तुकबन्‍दी जोर मार कर बाहर आ गई। इसे ठीक इसके बाद देना ठीक रहेगा। उसे भी जरूर पढ़ें।

Post – 2016-10-09

कितनी रातों का अंधेरा है तेरी आंखों में।
सामने आ तो सही, नजर मिला तो सही।
कितनी शामों की उदासी तेरी तेरी पेशानी पर
किन चिमनियों की है कालिख मुझे दिखा तो सही।
तरस आता है तेरे हाल पर मगर तू भ्‍ाी
न संभलता न बदलता न सोचता ही है।
कितने सदमे मिले, मिलने को कितने बाकी हैं
हिसाब गर न लगाया तो अब लगा तो सही।
मैंने समझाया तो इसका भी बुरा मान गया
राह दिखलाई तो वह रास्‍ता जंचा हीभी नहीं।
मुझसे मत डर तेरा हमदर्द हूं अपने दिल की
सच बता, साफ बता, यार अब बता तो सही।।