Post – 2016-10-03

स्‍वच्‍छता अभियान – 2

मैं इस पोस्‍ट के माध्‍यम से आपका परिचय भारतीय यथार्थ और इसमें आ रहे परिवर्तन से कराना चाहता हूं। हमारा यथार्थ इतना जटिल, इतना नीरस, इतना थकाने वाला है कि जो लोग किताबों में यथार्थ और यथार्थवाद की बात करते हैं वे भी जिन्‍दगी में यथार्थ से भागते या बच कर निकलना चाहते हैं, क्‍योंकि अन्‍य वातों के साथ इसमें गन्‍दगी भी है और अपनी समझ से साफ सुथरा रहने वाले उस गन्‍दगी को किसी दूसरे से दूर कराना चाहते हैं। मैं जानता हूं मेरे मित्रों और फेसबुक मित्रों में अधिकांश जरूरत पड़ने पर किसी चोरदरवाजों ( सोर्स, जानपहचान, अप्रोच या आसान उपाय) की बात करते है जिसके माध्‍यम से काम आसानी से हो जाय। एजेंट की या दलाल की बात करते हैं कि झंझट से बचे रह कर अपना जरूरी काम कर सकें। यथार्थ के अपने क्षेत्र से जुड़ी मलिनता से ही पैदा होते हैं ये बिचौलिये और वे केवल अपनी गतिविधि के यथार्थ को जानते हैं और उससे प्‍यार करते हैं इसलिए जो लोग यह कहते हैं कि हाल तो पहले जैसे ही हैं, बदला कुछ नहीं है, वे यह समझ ही नहीं सकते कि चुपचाप कितनी बड़ी क्रान्ति हो रही है और किनके बुरे और किनके अच्‍छे दिन आ चुके हैं और आने वाले हैं। अभी हाल के दिनों में जो कुछ घटित हुआ, उसके बारे में घबराए हुए लोग दुहराते रहे, यह तो पहले भी होता रहा है। होता रहा तो उसकी तिथियां तो देते। जो होता रहा है उसे जानने का साहस तक नहीं जुटा सकते ऐसे लोग। होता यह रहा है कि बीएसएफ की जानकारी या सहमति से ड्रग की तस्‍करी होती रही है। सीमा से सटे क्षेत्रों को नशाखोर जमातों में बदला जाता रहा है। हमारे जवानों के मरने के दर्दनाक दिनों में पाकिस्‍तानी मेहमानों को बिरयानी खिलाई जाती रही है और अब उन्‍हीं के द्वारा भारत को भाजपामुक्‍त कराने के लिए कुछ करने कराने की मांग की जाती रही है, खुले आम , वहां जा कर ऐसी दशा में कश्‍मीर में बिगड़े माहौल में उनकी सीधी और परोक्ष दोनों तरह की भागीदारी मानी जाय तो इसको अकारण नहीं कहा जा सकता। परन्‍तु मैं यहां, आज के राजनीतिक घटनाचक्र पर नहीं स्‍वच्‍छता अभियान पर बात करना चाहूंगा जिसमें ऐसे तत्‍वों से मुक्ति भी शामिल है जो राजनीति को कर्मनाशा में बदल चुके हैं और उसी में मग्‍न हो रहे हैं।

मैं यह भी जानता हूं कि आज की पोस्‍ट, जो हमारे उस यथार्थ जैसी ही अरोचक और बौखलाहट पैदा करने वाले ब्‍यौंरों से आरंभ होती है, जिससे आप बचते हुए अपना समय भी बचाते रहे हैं और ‘इज्‍जत’ भी, और इसके लिए ‘थोड़ा सा पैसा’ जो उस दलाल को और ‘थोड़ी सी रिश्‍वत’ जो उसके माध्‍यम से देनी होती है उसकी चिन्‍ता नहीं करते, क्‍योंकि इससे आपकी जो परेशानी और समय बचता है वह उस पैसे की तुलना में कई गुना अधिक होता है। आपको जिस नैतिक गिरावट से गुजरना होता है, जिन जिन के सामने झुकना पड़ता है, इसका आपके जीवनमूल्‍य में स्‍थान नहीं होता। आप सुविधा और लाभ को इज्‍जत का पर्याय मान लेते हैं, इसलिए आपको अपनेे स्‍वाभिमान की कमी हो अहंकार से पूरा करना पड़ता है जिसे ही सम्‍मान या इज्‍जत मान लेते हैं।

इसके विपरीत मैं आम आदमी की तरह कतार में खड़ा हो कर, अपनी सही बारी आने पर सही और केवल सही मोल दे कर ही जो मेरा प्राप्‍य है उसे पाना चाहता हूं और उसमें बाधक बनने वाले तत्‍वों से तब तक टकराता रहता हूं जब तक मैं उसे हासिल नहीं कर लेता और इसमें कई बार कई साल लग जाते है, इसलिए मैं उसे देख पाता हूं जिसके बारे में आप रस्‍मी तौर पर सुनते रहते हैं, पर जानते नहीं। उस पीड़ा का आप को बोध नहीं हो पाता जो सामान्‍य व्‍यक्ति को झेलना पड़ता है, या कहें, जिनके कारण साधारण आदमी को वह पीड़ा झेलनी पड़ती है उनमें आप भी शरीक होते हैं। कोई मेरी उम्र, इसकी लंबी परेशानी या मेरे लिखन पढ़ने का ध्‍यान करके कहे कि आप क्‍यों कष्‍ट करेंगे, इसे मेरे ऊपर छोडि़ए तो भी मैं यह काम उसके ऊपर नहीं छोड़ता क्‍योंकि इस क्रम में होने वाला अनुभव उसकी सिद्धि से कम मूल्‍यवान नहीं। इसलिए लोग जिसेे सुनते या पढ़ते हैं, उसे मैं देखता और उससे गुजरता हूं। मुझे किसी अधिकारी विद्वान के माध्‍यम से अपनी बात नहीं कहनी पड़ती और फिर भी जब अपने देखे और समझे को बयान करता हूं तो आप अविश्‍वास नहीं कर पाते। मेरे निर्णय प्राय: आम आदमी, अनपढ़ों और गंवारों की भीड़ के निर्णयों के करीब होते हैं जो बुद्धिजीवियों पर भारी पड़ते हैं और उसकी समझ और आपके आकलन के बीच कोई मेल नहीं होता फिर भी परिणाम आते हैं तो वह सही सिद्ध होता है, किताबी विद्वान गलत, क्‍योंकि वे वास्‍तविकता से तिरछा संबंध रखते हैं किताबों से सीधा जब कि वह वास्‍तविकता से सीधा संबंध रखता हैं और किताबों पर हंसता है।

इस पोस्‍ट में मैं अपने को एक व्‍यक्तिगत अनुभवों तक सीमि‍त रखूंगा। अगली पोस्‍ट में एक दूसरा अनुभव और फिर इन पर आधारित विश्‍लेषण। यह इतना थकाने वाला है कि जो लोग सचाई का सामना करने से कतराते हैं वे इसे पढ़ने से भी कतरा सकते हैं। दूसरों को भी ऐसे अनुभव होंगे और उनसे बचने के रास्‍ते भी उन्‍होंने निकाल लिए होंगे।

मैंने 2012-13 में 2013-14 के आयकर में 50 हजार अधिक जमा करा दिए थे। अगले रिटर्न में जब ईमेल से रिटर्न भरा और इसके रिफंड का दावा किया तो वह स्‍वीकार हो गया पर आयकर अधिकारी उसे भेजने को तैयार नहीं। मेरे चार्टर्ड एकाउंटेंट ने बताया उसे रिफंड का 10 प्रतिशत देना होता है। मैंने कहा, ‘मैं इससे स्‍वयं निबट लूंगा। उसने खट्टा सा मुंह बनाया क्‍योंकि उस 10 प्रतिशत में पांच प्रतिशत उसका होता और पांच आगे जाता । मैं लाइब्रेरी की किताबें लौटाने गया तो उधर चला गया। तीन बज रहे थे आैर अफसर लंच से लौटा नहीं था। चपरासी ने बताया पहले वहां जा कर बात कीजिए। यह संभवत: इंस्‍पेक्‍टर था। उसने प्रसन्‍न भाव से स्‍वागत किया और अफसर को बताया कि शिकार आ गया है तो उसने वहां से चलने की सूचना दी। उसने 2010-11 के का कर भुगतान न करने के लिए मेरी आर एक लाख का कर बकाया निकाल रखा था। मैंने करभुगतान का प्रमाण दिखाने को कहा तो उसने अपना कंप्‍यूटर दुबारा खोला। इस बार कर भुगतान के सारे प्रमाण उसी कंप्‍यूटर से निकल आए। पर एक चूक निकली। उससे पिछले साल में घोषित आय और जमा कराए कर में चार हजार छह सौ का अंतर था। वह जोड़ की गलती उस सहायक से हुई थी जिसे आयकर विभाग ने एक नियत फीस के एवज में सुलभ करा रखा था, परन्‍तु उसे दुबारा खोलने में नया झमेला शुरू हो जाता। इस बीच निर्धारण अधिकारी लंच से लौट आए थे। मुझे साथ लिए वह उनके पास पहुंचा। उसने उन्‍हें समझाया । तय हुआ कि मैं एक आवेदन दे दूं जिसमें अपना बैंक खाता संख्‍या और शाखा का नाम दे दूं और यह लिख दूं कि उक्‍त राशि का समायोजन करके बाकी रिफंड मेरे बैंक खाते को भेज दिया जाय। उसने कहा दो चार दिन लगेंगे। मैंने रिसेप्‍शन में उसी आधार पर हाथ से ही आवेदन दिया और उसकी रसीद अपने पास रख ली।

महीन भर बाद फिर किताब वापसी के दिन पहुंचा और जानना चाहा कि जब यह तय हो गया था कि तीन चार दिन बाद आप इसे भेज देंगे तो आपने ऐसा क्‍याे नहीं किया। दोनों एक दूसरे का मुंह देखने लगे । मैंने कहा, हो सकता है आपको दिक्‍कत यह आई हो कि मैंने बैंक, उसकी शाखा और अपना खाता संख्‍या तो लिखा था पर बैंक का कोड नहीं दिया था इसलिए यह कैंसल्‍ड चेक उसके साथ लगा लीजिए।
अफसर केवल हां हूं करता, बोलने का काम इंस्‍पेक्‍टर ही करता। उसे राहत मिली, हां यही बात है, इसे दे जाइये। अब काम हो जाएगा।

एक महीने बाद, फिर किताब लौटाने के दिन रास्‍ता मोड़ा, पहुंच गया। कारण पूछा तो वे बैठ कर कंप्‍यूटर पर फिर जांच करने लगे। फिर वही एक लाख कुछ हजार के बकाया की पर्ची कंप्‍यूटर से निकाली। मैंने फटकार लगाई। इसके सारे कागज मैंने उस दिन दिखा दिये थे। अफसर ने इंस्‍पेक्‍टर से कहा, ‘देखो, जल्‍दी इनका जो कुछ करना हो करके निबटाओ। उसने कहा, इसे सेटल करने में काफी देर लग जाएगी। मैंने कहा, जितनी भी देर लगती है लगाइये मैं यहीं बैठा हूं। मैंने झोले से किताब निकाली और पढ़ने लगा। एक घंटे तक वह फिर कंप्‍यूटर पर जोड़ तोड करता रहा और फिर वह चार हजार छसौ दूसरे वर्ष के हैं उसे समायोजित करने के लिए अमुक से मंजूरी लेनी पड़ेगी। मैं हंसने लगा, कितने समय में मंजूरी मिलेगी। मुझे कोई जल्‍दी नहीं है। बताया आठ दस दिन तो लग ही जाएंगे।

अगले महीने पुस्‍तक लोटाने की तिथि पर मैं फिेर कारण जानने को पहुंच गया। पता चला काम में इतना व्‍यस्‍त रहना पड़ा कि इधर ध्‍यान ही न गया। इस बार आपको आने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आप मुझे फोन से बता दीजिएगा। उस ने अपना संपर्क नम्बबर भी दे दिया। लौट कर आया तो चार दिन बाद मेरे मिलने की तिथि 14 सितंबर से दो दिन पहले की तिथि पड़ा हुआ एक पत्र जिसमें फिर एक लाख कुछ के बकाये के विषय में स्‍वयं या किसी वकील के माध्‍यम से पेश होने की नोटिस थी। मैंने जानना चाहा कि जब इसका निपटारा हो गया था तो यह मांगपत्र फिर क्यों आ गया। उसने फिर क्षमायाचना की कि वह पहले का रहा होगा, चला गया होगा। अब उसको इग्नोर कर दीजिए।

मैं जानता था कि यदि मैंने इसकी उपेक्षा की और उसने इसे आधार बना कर एक लाख का कर निकाल दिया तो उसका निपटान और टेढ़ा हो जाएगा । इसलिए इसके बाद मैंने एक व्यतक्तिगत पत्र यह दुहराते हुए कि उसने एक हफ्ते के भीतर रिफंड मेरे खाते में भेजने का वादा किया था इसलिए अब उस विषय में कुछ कहने की जरूरत नहीं है, परन्‍तु वह अत तक जिस तरह की शरारते करता, एक ही कंप्‍यूटर में दो फाइलें तैयार करके करता रहा है और अपने डेलीगेटेड पावर को इंस्‍पेक्‍टर को सौंप कर काम करता आया है उस के अपराध में उसकी नौकरी भी जा सकती है। उसे यह बताते हुए कि मैं उसके बाप की उम्र का हूं इसके बावजूर लोभ में आकर वह मेरे साथ इस तरह का बर्ताव करता रहा, भविष्‍य में उसे इससे बचना चाहिए । मैं चाहता था इसके माध्‍यम से मैं आवश्‍यकता होने पर इसे साक्ष्‍य के रूप में भी इस्‍तेमाल कर सकूं।

इसके बाद भी उसने रिफंड ऐडवाइस नहीं भेजी तो मैंने सतर्कता अधिकारी को तथ्यों सहित शिकायत की। शिकायत की भनक मिलने पर उसने मेरे पैन में एक डिजिट बदल कर रिफंड एडवाइस कनारा बैंक को भेज दी। मुझ सूचित किया गया कि छियालीस हजार इतने का भुगतान आदेश अमुक तारीख को भेजा जा चुका है, कोई शिकायत होने पर संपर्क करें। मैंने अपने शाखा प्रबन्धक से संपर्क किया तो उन्होंने कम्प्‍यूटर से चेक करके बताया कि यह आंध्रप्रदेश के विशाखापटि्टनम के किसी व्यक्ति का निष्क्रिय खाता है। रकम उस खाते में जमा हो गई थी। मेरे लिखित अनुरोध पर उन्होंने उसे ब्‍लाक करने को कहा। मैंने इस शरारत को भी सतर्कता अधिकारी को भेजी शिकायत का हिस्‍सा बनाया। उन्‍होंने इस गलती को ठीक करने और जल्‍द से जल्‍द मेरे खाते में देय धन भेजने की सलाह देते हुए उसकी प्रति मुझे सुलभ कराई।
परन्‍तु मेरी शिकायत जिस सतर्कता उपनिदेशक को भेजी गई थी उसने मुझे चार साल की रिटर्न संलग्‍न दस्‍तावेजों के साथ दिखाने के लिए पत्र लिखा। मैंने उसे यह सन्‍देह जताते हुए कि वह संबंधित अधिकारी से रिश्‍वत वसूल करने के बाद उसे बचाने का बहाना तलाश रहा है उसकी नादानी को चिन्हित किया कि प्रश्‍न करनिर्धारण का नहीं है, देय धन का है। अन्‍तत: वित्‍तवर्ष की अन्तिम तारीख को ही वह मेरे खाते में जमा हो पाया।

परन्‍तु भाजपा के सत्‍ता में आने के बाद 2014-15 वर्ष में मैंने पांच हजार के रिफंड का क्‍लेम किया था। उसकी सूचना आई कि वह मेरे खाते में भेजा जारहा है और वह सीधे मेरे खाते में पहुंच गया।

पहले भी इमेल से टैक्‍स जमा करने का विधान था अब भी है, उसमें चोर दरवाजा बनाए रखा गया था जिसमें यह लेनदेन चलता था, नई व्‍यवस्‍था में इस चक्‍कर को हटा दिया गया। बस। यह छोटा सा फर्क बाकी सब कुछ वैसा ही जैसा मनमोहन सरकार करती आई थी। (आगे जारी)

Post – 2016-10-02

स्‍वच्‍छता अभियान

क्‍या आप स्‍वच्‍छता का अर्थ जानते हैं। जानते क्‍यों नहीं, आप कहेंगे, ‘सफाई’।
मैं जब शब्‍द का प्रचलित अर्थ जानता हूं तो उसके पर्याय की क्‍या जरूरत। वह तो लंगड़ा होगा। संधिभेद है सु अच्‍छता । अब अर्थ हुआ सभी दृष्टियों से अच्‍छाई । पर अच्‍छाई का अर्थ फिर भी आप शायद न जानते हो । यह वैदिक प्रयोग है। अच्‍छ का अर्थ है अपनी ओर, अपने निकट, अच्‍छा याहि पितरं मातरं च – हमारे पितरों और मात़ृपक्षीय पूर्वजों को हमारे पास ‘याहि’ या लाओ। स्‍वीकार्यता, अनुकूलता और प्रियता के कारण इसने वह अर्थ पाया जो इसके विशेषित रूप अच्‍छा और भाववाचक रूप अच्‍छाई में है। यह मेरी समझ है। तब तक इसे मानिये जब तब अजित वडनेरकर आगे की खोज करने के बाद इसे खारिज न कर दें। तब तक के लिए मानिये कि स्‍वच्‍छता का अर्थ है मन, कर्म, वचन सभी तरह के कल्‍मषों से मुक्ति ।

यदि आप बहुत ध्‍यान से देखें तो मोदी ने एक महान और दूसरों के लिए अकल्‍पनीय लक्ष्‍य को हासिल करने का संकल्‍प लिया। बहुतों को तो स्‍वच्‍छता का अर्थ भी समझ में नहीं आया। यह था मलिनता के सभी रूपों से मुक्ति। जिसे सभी देख्‍ा सकते हैं, उससे आरंभ करके नैतिक, भौतिक और सांस्‍कृतिक सभी तरह के कल्‍मषों से मुक्ति की महायात्रा का आरंभ किया और मैं हैरान रह गया इस व्‍यक्ति के साहस पर। हैरान इस बात पर भी कि इसमें मेरा बचपन आज तक कैसे बचा रह गया है। मेरे बचपन का सार सूत्र था, जो हो सकता है परन्‍तु किसी ने नहीं किया वह मैं करूंगा। कई उदाहरण हैं और कई बेवकूफियां। कभी अपनी कथा लिखने की नौबत आई तो गिनाऊंगा। एक तो ऐसा जिसमें मैं अपनी आंखों की रोशनी गंवाते गंवाते रह गया। उनकी चर्चा में समय नष्‍ट होगा। मैं अपने बचपन से बाहर नहीं निकल पाया। आज भी सोचता हूं जिसे कहने का साहस किसी कारण से, किसी दूसरे में नहीं बचा है, उसे मैं कहूंगा। मेरा पूरा लेखन एक वाक्‍य में यही तो है, और जिस फेसबुक से इसे पोस्‍ट कर रहा हूं, उससे बड़ा गवाह कौन हो सकता है इसका।

आत्‍मचरित लिखने की कई शैलियां हैं, कई बार नाम मोदी का आता है और मैं अपने बारे में लिख रहा होता हूूं। इनके बीच मेरे सिवाय कोई दूसरा फर्क कर ही नहीं सकता, जैसे आज गांधी जी के जन्‍म दिन पर गांधी को मानवता की दुर्लभ ऊंचाई और महानतम शिखर मानते हुए भी मैं मानता हूं कि मैं तो उनके ‘हत्‍यारे’ नाथूराम गोडसे के चरणों पर भी सिर रख सकता हूं जिसे मैं कभी घृणा नहीं कर सका, जब कि दूसरों को यह समझा पाना मेरे लिए असंभव है कि महिमा के कई रूप होते है, कुछ विरोधी भी होते हैं, और इनमें से जो भीे नि:स्‍वार्थभाव से कुछ भी ऐसा कर जाय जो ऐतिहासिक परिस्थितियों में अपरिहार्य था जिसे हम सही नहीं मानते पर वह अपनी समझ से समाज के हित में कर रहा था वह गलत हो कर भी जघन्‍य नहीं था। उसके कृत्‍यों और उनके परिणामों और उनके विषय में बने लोकमत से मैं उनका मूल्‍यांकन नहीं करता। मैं उनका मूल्‍यांकन इस आधार पर करता हूं कि उनमें जो महान गुण थे उनकी समकक्षता में मैं आ सकता हूं या नहीं।

गोडसे ने गांधी जी की हत्‍या की। वह भाग सकता था, भागा नहीं। उसे फांसी होनी तो तय थी। सेशन अदालत से जो फैसला लिया गया था उसमें अपराध सिद्धि और दंडसंहिता के नियमों का पालन किया गया था। गोडसे ने अपनी वकाल स्‍वयं की। अपील में उसके सहअभियुक्‍तों को ले कर जो मुकदमा चला उसमें गोडसे ने अपनी अपील नहीं की। लगभग सभी दंढमुक्‍त हुए जो फांसी की सजा पा कर अपनी बेगुनाही सिद्ध करने की लड़ाई लड़ रहे थे। अकेले गोडसे ने दूसरों के बचाव में वकालत की परन्‍तु अपना प्राण बचाने के लिए तैयार न हुआ। गांधी जी के पुत्र रामदास गांधी ने तत्‍कालीन गवर्नर जनरल को आवेदन दिया था कि वह गोडसे को दंडमुक्ति दे दें। गोडसे ने न्‍यायालय से अनुरोध किया कि यदि कोई मेरे लिए दयायाचिका ले कर आए तो उस पर विचार न किया जाय। गोडसे की इस चुनौती के बाद रामदास गांधी ने गोडसे को सूचित करते हुए नेहरू जी से विनोवा भावे और और एक अन्‍य गांधीवादी को गोडसे से जेल में मुलाकात की अनुमति चाही, वह न मिली और गाडसे बिना अनुताप गर्व से अपने विश्‍वास के साथ फासी पर लटक गया।
गोडसे की मृत्‍युदंड की पुष्टि करने वाले जजों में से एक जस्टिस खाेसला ने गोडसे के बयान के बाद के कोर्ट रूम का अपने संस्‍मरणों में जो विवरण दिया वह इस प्रकार था- The audience was visibly and audibly moved. There was a deep silence when he ceased speaking. Many women in tears and men were coughing and searching for their handkerchieifs. The silence was accentuated and made deeper by the sound of occasional subdued sniff or a muffed cough…
I have however no doubt that had the audience of that day been constituted into a jury and entrusted with the task of deciding the Godse’s appeal they would have brought in a verdict of ‘not guilty, by an overwhelming majority. (Why I assassinated Gandhi, 204-5.)’

मैं तो अपने जीवन के समस्‍त पुण्‍यों के साथ गोडसे के चरण छूने की योग्‍यता ही रखता हूँ , गोडसे गांधी जी के चरण छूने की योग्‍यता से भी वंचित हो गया, परन्‍तु मेरे लिए गोडसे के प्रति उससे अधिक आदर है जितना नेहरू के लिए। उन्‍होंने जो कुछ‍ किया अपनी सत्‍ता, अपने लाभ और अपने वंश के लिए किया। यह कौन कहेगा कि उन दिनों गांधी जी गरिमा को कम करने के अभियान में नेहरू भी नहीं जुटे थे। दबे सुर में, उनके अन्तिम प्रयोगों के विषय में अफसोस जताने की मुद्रा में उनका नैतिक वध करते हुए। गांधी जी की मृत्‍यु के समय मैं सत्रह साल पूरा करने वाला था। शाखा में जाता था। जो लोग कहते है कि उनके वध में संघ की कोई भूमिका नहीं थी उससे मैं कभी सहमत नहीं हुआ। उनके विषय में जिस तरह का विषप्रचार हो रहा था उसमें पिस्‍तौल मेरे हाथ में होती तो अपने कैशोर्यसुलभ उत्‍साह में परिणाम को जाने बिना गांधी जी पर मैं भी गोली चला सकता था। गांधी जी को दुष्‍प्रचार से मारा जा चुका था। उसमें प्रधान भूमिका संघ की थी और गौण भूमिका सत्‍ता और अधिकार का बंदरबांट करने में जुटे कांग्रेसियो की भी थी जिनके रास्‍ते में गांधी और गांधीवादी नैतिकता आती थी और यह संशय भी कि गांधी जी कांग्रेस को खत्‍म करने की घोषणा संभवत: उसी प्रार्थनासभा में करने वाले थे जिसमें भाग लेने से पहले ही वे मारे गए। उनकी मृत्‍यु उनकी मुक्ति थी।

पर आज तक इतनी पुस्‍तकों, इतने ग्रंथों, इतनी प्रस्‍तुतियों के बाद भी क्‍या उस महिमा को समझने की योग्‍यता हममें आ पाई है जिसका एक नाम गांधी है। गांधी की महिमा के लिए गोडसे से घृणा करने की जरूरत नहीं ये महानता की ओर जाने वाली कठिन यात्रा के चरण हैं है जिनका अब तक का मानवतावादी शिखर कैलाश नहीं गांधी है। जो उनकी कमियां तलाशते हैं, वे हिमालय की ऊंचाई को नहीं, उसकी खाइयों और खन्‍दकों, दरारों को ही समझ सकते हैं क्‍योंकि उनमें उतरने के लिए प्रयास करने की जरूरत नहीं होती। अपने को ढीला छोड़ देने से ही काम चल जाता है। बुद्धि से विरत और आवेग से आतुर होना ही काफी होता है।

मैं जिस विषय पर लिखने चला था, वह तो रह ही गया। क्षमा करें। उस पर कल सही।

Post – 2016-10-02

स्‍वच्‍छता अभियान- 3

दूसरा अनुभव दूर संचार विभाग का है। इस साल अप्रैल के अन्‍त में मैंने ब्राडबैंड का सालाना पैक लिया जिसके लिए 9950 रु जमा किए। उसके एक हफ्ता बाद मुझे गाजियाबाद आना पड़ा। मैंने अपना लैंडलाइन का फोन और ब्राडबैंड कटवा कर अपने अग्रिम भुगतान का रिफंड लेना था।
ब्राडबैंड लेने के लिए आपको मात्र एक फोन करना होता है और संबंधित अधिकारी कर्मचारी घर आ कर सारी खानापूरी करके उसे लगा देते हैं। यहां तक की प्रक्रिया वही है जो
दूर संचार निगम के उदय के बाद लोकप्रियता प्राप्‍त करने वाली निजी कंपनियों की है या जरा सा पीछे क्‍योंकि वे स्‍वयं संपर्क करते हैं कि क्‍या अाप हमसे फोन या ब्राडबैंड या हमारी मोबाइल सेवा लेना पसन्‍द करेंगे। यदि आप ने हां कर दिया तो वे आगे का सारा काम बढ़ कर पूरा कर डालते हैं जिसमें सभी तरह के सत्‍यापन भी होते हैं, पुलिस हमेशा चोरों से कुछ कदम पीछे रह जाती है और सरकारी उपक्रम निजी उपक्रमों से, इसलिए इतना पिछड़ापन क्षम्‍य है।

फाेन काटने के लिए आपने इंटरनेट पर ही सूचित कर दिया कि आप अब उसका उपयोग नहीं करना चाहते तो भी वह उस पूरे महीने का बिल भरने के बाद उसे काटने की बात करेगा और इस बीच कई तरह से आपसे संपर्क करके कारण जानने और दूसरी अधिक आकर्षक स्‍कीमों के बारे में समझाते हुए आपके मुंह से कुछ भी ऐसा कहलवाना चाहेगा जिसका अर्थ खींचतान कर यह लगाया जा सके कि आप उसे अच्‍छा समझते हैं और प्रीपेड योजना है तो आपका बिल तैयार होता जाएगा। इसका अपवाद न रिलाएंस है, न एयरटेल । दूसरों का अनुभव नहीं।

मैं जानता हूूं यह आपको बकवास लग रहा होगा, परन्‍तु जैसे गपशप के अवसरों पर कोई अपना दुखड़ा लेकर गले पड़ जाय, उसी अनिच्‍छा से, शिष्‍टाचार का निर्वाह करने के लिए सुनिये कि एक बार मैंने रिलायंस की वाईफाई योजना काे पसन्‍द किया, उसके डेटाकार्ड या जो भी उसका नाम हो, पन्‍द्रह सौ रुपये जमा किए। उसकी जो स्‍कीम चुनी वह अगले दो दिन के बाद खत्‍म हो गई। कार्ड काम करना बन्‍द कर दिया। बच्‍चे आए हुए थे इसलिए समझ में नहीं आता था कि दो जीबी का इस्‍तेमाल कहां हुआ। अपना काम चलाने के लिए मैं आइडिया डेटाकार्ड का उपयोग करता रहा जिसकी 297 या इससे मिलती जुलती राशि में मेरे सारे डाउनलोड, अपलोग और पत्राचार सब चल जाते थे। बच्‍च्‍े चले गए तो भी वही स्थिति। वास्‍तव में इसमें दोष एक तकनीक का था । हमारे तल्‍ले पर रिलायंस का सिग्‍नल नहीं आता था। बाहर जाने पर वह काम करता था। उसे आन करने पर किसी तर्क से उनकेे मीटर पर उपभोग दर्ज होता जाता रहा होगा और मैं उसका उपयोग नहीं कर पाता था। छह महीने के बाद मैंने उसे प्रीपेड में बदलवा लिया। फोन आया कि आपने पहली योजना क्‍यों छोड़ दी। हम आपको उससे भी सस्‍ता आफर दे सकते हैं। इतने की भी हमारे पास योजना है। मैंने कहा उस पर हम बाद में सोचेंगे, अभी तो हमारा प्रीपेड ही चलेगा। हुआ यह कि मैं प्रीपेड चार्च कराता रहा पर समस्‍या तो सिग्‍नल की थी। तीन बार ऐसा किया और कारण समझ में नहीं आया। इस‍ बीच रिलायंस से फोन आनेे लगे कि आपके विरुद्ध इतने की देनदारी है मैं समझाता मैं अमुक तिथि से प्रीपेड सेवा ले रहा हूं, यह आपके यहां की गड़बडी है, इसे सुधारें। नोटिस भेजा, मैंने उस दरबे का बताया कि यह चूक हो रही है। उसने बात की। फिर वे ही फोन। मैं उपेक्षा करता रहा । अंत में वकील की नोटिस। उसमें उसका नंबर भी दिया हुआ था इसलिए फाेन कर उसे समझाया और कहा अपने क्‍लाएंट को समझाइये। उससे गलती हो रही है। दो महीने तक चुप्‍पी रही। सोचा समस्‍या हल हो गई। फिर उसी वकील का परवाना आ गया । इस बार मैंंने उसकी कंपनी के विरुद्ध चीटिंग और फ्राड का आपराधिक मुकदमा दर्ज करने की धमकी दी। उससे इस बात का जवाब तलब किया कि उसी अवधि में उसी डेटाकार्ड पर प्रीपेड और पोस्‍टपेड योजनाएं कैसे चल सकती हैं। इसके बाद सन्‍नाटा छा गया।
प्राइवेट कंपनियों के इन्‍ही खुराफातोंं से तंग आ कर मैंने तीन बार दूरसंचारनिगम की सेवा ली और उसकी भ्रष्‍टता से तंग आ कर उसे कटा कर डेटाकार्ड केे लिए बाध्‍य हुआ और इस मामले में टाटा और आइडिया से मुझे कोई शिकायत न हुई। निजी कंपनियों के इन उत्‍पीड़नो से सुरक्षा प्रदान करने का काम दूरसंचार मंत्रालय का है और दूर संचार निगमों की स्‍थापना के बाद उनके द्वारा कुछ तो ऐसा हुआ हाुेगा कि ऊपर से नीचे तक सभी सरकारी उपक्रमों का विफल बना कर उनकी ओर धकेलने के अभियान में जुड़ेे हुए हैं। इस तरह के ब्‍यौरों के लिए न संचार मंत्री केे पास समय हो सकता था न मैंने इसका उल्‍लेख किया। आप यदि इसे पढ़ने का साहस कर सके तो आपकी शतश: वन्‍दना। परन्‍तु यदि मेरी वन्‍दना के अभाव में या उसकी प्रतीक्षा में इसे देख ही न सकें कि प्रबन्‍ध कुछ ऐसा है कि निजी क‍ंपनियों से सौदेबाजी की जाए और उनके सुझाव के अनुसार सार्वजनिक उपक्रमों को विफल बनाया जाय। मैंने इसका निर्वाह प्रत्‍येक स्‍तर पर देखा।
प्रसंगवश एक निजी अनुभव सुना दूं। मैं दिल्‍ली में आ कर बेकार था और मेरे मित्र मुद्राराक्षस के कहने पर मंगलनाथ सिंह ने हिन्‍दी शिक्षण योजना के प्रभारी बाबूराम सक्‍सेना की मदद से मुझे आठ रुपये रोज की दिहाड़ी पर हिन्‍दी पढ़ाने के लिए रख लिया गया जिसमें छुट्टियों के दिनों से हम नफरत करते थे क्‍योंकि उन दिनों पर काम न मिलनेे से हमारी दिहाड़ी पर असर पड़ता था। यह 1962 का जमाना था।

संचार हाट जाकर फोन और ब्राडबैंड दोनों के लिए अलग फार्म लेने होंगे और पहले अद्यतन भुगतान के लिए वहां से पांच किलोमीटर दूर लेखा अधिकारी के पास से उस तिथि तक का कर भुगतान करके उसके प्रमाण सहित वहां से चार किलोमीटर दूर एक दूसरे एसडीआ के यहां से फोन काटने की मंजूरी लेनी होती है, उसके बाद उपकरण संचार हाट के पास जमा करना होता है। इसकी रसीद वहां से छ: किलोमीटर दूर अपने एसडीओ को देनी होती है फिर इन सभी के प्रमाणों के साथ उन दोनों फार्मों को अपने पहचानपत्र पैनकार्ड के साथ उसकी फोटोप्रतियों के साथ संचार हाट में जमा कराना होता है जो उसे लेखा अधिकारी को रिफंड के लिए फाइल भेजता है और वह आवेदन में दिए नए पते पर उसका चेक भेजता है।

मैंने इस बदहवास करने वाली लालफीताशाही की सारी अपेक्षाएं पूरी करके अपना आवेदन 10 मई को जमा कर दिया। तीन महीने बाद भी जब रिफंड न मिला तो संचार हाट पहुंचा । अधिकारी से नाम पूछा अौर शिकायत की बात की ताेे वह घबराई । लेखा अधिकारी से बात करती रही। उसने कहा, जो आवेदन आपने दिया था उसकी फोटो कापी लेकर आइये तक पता करूंगी। पता बताया, तारीख बताई नाम बताया और कहा आपने किस तारीख को इसे भेजा है यह डिस्‍पैच रजिस्‍टर में देख कर बता दें। उसने लेखा अधिकारी से बात कराई जिसने कहा, मेरा कोई बकाया नहीं है। इस तरह की कोई स्‍कीम ही नहीं है। मैं लौटा तो पता चला कि मेरी गाड़ी के ग्‍लवबाक्‍स में ही उस आवेदन और भुगतान आदि की प्रतियां रखी हैं । मैं सुरेन्‍द्र सिंह नाम के उस लेखा अधिकारी के पास पहुंचा, और उसके सामने वह कागज रखते हुए पूछा, इसका रिफंड क्‍यों नहीं भेजा गया।
उसका चेहरा देखने लायक था। बिना काेई जवाद दिए वह अपने कंप्‍यूटर पर जुट गया। कई तरह से जोड़ लगाता और उसे कामज पर नोट करता रहा । फिर उठा और अपने आफिस की ओर गया। मैंने सोचा चेक बनाने गया है। लौटा तो हाथ में वह फाइल थी जो उसे संचार हाट से भेजी गई थी। हिसाब वह लगा ही चुका था, यदि कुछ लिखना था तो अपना नोट लिखना था, पर वह फिर उसी तरह कई तरह के हिसाब लगाता रहा और अन्‍त में जब नोट पूरा किया तो मैने कहा, अब चेक भी दे दीजिए।
उसने कहा, आठ हजार पांच सौ छब्‍बीस का रिफंड बनता है। मैंने कोई आपत्ति नहीं की। उसने कहा, चेक आपके पते पर भेजा जाएगा। अगस्‍त के दूसरे हफ्ते की कोई तारीख थी। वह चेक जब पन्‍द्रह सितंबर तक नहीं पहुंचा तो इस बार मैंने इस बात की परीक्षा लेनी चाही कि आप सीधे मंंत्री को, यहां तक कि प्रधानमंत्री को ईमेल से अपनी शिकायत भेज सकते हैं यह कहा तो जाता है परन्‍तु अपनी इतनी व्‍यस्‍तता में उनके पास इसके लिए समय भी होता होगा।
मैंने एक शिकायत मुख्‍य सतर्कता अधिकारी को और शिकायत का हवाला देते हुए लालफीताशाही को दूर करने के लिए दूरसंचार मंत्री को लिखा।

क्‍या आप विश्‍वास कर पाएंगे कि इसके सात दिनों के भीतर अर्थात् 22 सितंबर को वह रिफंड मुझे भेज दिया गया। उसके पेआर्डर पर अगस्‍त की वही तिथि थी जिस पर मैं उससे मिला था। अब तक उसे लिए वह इस प्रतीक्षा में बैठा रहा कि उसका हिस्‍सा मिले तो वह रिफंड भेजे। 24 सितंबर को वह मुझे स्‍पीडपोस्‍ट से मिल गया। उसे जमा भी करा दिया।

दूसरा अनुभव दूर संचार विभाग का है। इस साल अप्रैल के अन्‍त में मैंने ब्राडबैंड का सालाना पैक लिया जिसके लिए 9950 रु जमा किए। उसके एक हफ्ता बाद मुझे गाजियाबाद आना पड़ा। मैंने अपना लैंडलाइन का फोन और ब्राडबैंड कटवा कर अपने अग्रिम भुगतान का रिफंड लेना था।
ब्राडबैंड लेने के लिए आपको मात्र एक फोन करना होता है और संबंधित अधिकारी कर्मचारी घर आ कर सारी खानापूरी करके उसे लगा देते हैं। यहां तक की प्रक्रिया वही है जो दूर संचार निगम के उदय के बाद लोकप्रियता प्राप्‍त करने वाली निजी कंपनियों की है या जरा सा पीछे क्‍योंकि वे स्‍वयं संपर्क करते हैं कि क्‍या अाप हमसे फोन या ब्राडबैंड या हमारी मोबाइल सेवा लेना पसन्‍द करेंगे। यदि आप ने हां कर दिया तो वे आगे का सारा काम बढ़ कर पूरा कर डालते हैं जिसमें सभी तरह के सत्‍यापन भी होते हैं, पुलिस हमेशा चोरों से कुछ कदम पीछे रह जाती है और सरकारी उपक्रम निजी उपक्रमों से, इसलिए इतना पिछड़ापन क्षम्‍य है।

फाेन काटने के लिए आपने इंटरनेट पर ही सूचित कर दिया कि आप अब उसका उपयोग नहीं करना चाहते तो भी वह उस पूरे महीने का बिल भरने के बाद उसे काटने की बात करेगा और इस बीच कई तरह से आपसे संपर्क करके कारण जानने और दूसरी अधिक आकर्षक स्‍कीमों के बारे में समझाते हुए आपके मुंह से कुछ भी ऐसा कहलवाना चाहेगा जिसका अर्थ खींचतान कर यह लगाया जा सके कि आप उसे अच्‍छा समझते हैं और प्रीपेड योजना है तो आपका बिल तैयार होता जाएगा। इसका अपवाद न रिलाएंस है, न एयरटेल । दूसरों का अनुभव नहीं।

मैं जानता हूूं यह आपको बकवास लग रहा होगा, परन्‍तु जैसे गपशप के अवसरों पर कोई अपना दुखड़ा लेकर गले पड़ जाय, उसी अनिच्‍छा से, शिष्‍टाचार का निर्वाह करने के लिए सुनिये कि एक बार मैंने रिलायंस की वाईफाई योजना काे पसन्‍द किया, उसके डेटाकार्ड या जो भी उसका नाम हो, पन्‍द्रह सौ रुपये जमा किए। उसकी जो स्‍कीम चुनी वह अगले दो दिन के बाद खत्‍म हो गई। कार्ड काम करना बन्‍द कर दिया। बच्‍चे आए हुए थे इसलिए समझ में नहीं आता था कि दो जीबी का इस्‍तेमाल कहां हुआ। अपना काम चलाने के लिए मैं आइडिया डेटाकार्ड का उपयोग करता रहा जिसकी 297 या इससे मिलती जुलती राशि में मेरे सारे डाउनलोड, अपलोग और पत्राचार सब चल जाते थे।
मैं जो

संचार हाट जाकर फोन और ब्राडबैंड दोनों के लिए अलग फार्म लेने होंगे और पहले अद्यतन भुगतान के लिए वहां से पांच किलोमीटर दूर लेखा अधिकारी के पास से उस तिथि तक का कर भुगतान करके उसके प्रमाण सहित वहां से चार किलोमीटर दूर एक दूसरे एसडीआ के यहां से फोन काटने की मंजूरी लेनी होती है, उसके बाद उपकरण संचार हाट के पास जमा करना होता है। इसकी रसीद वहां से छ: किलोमीटर दूर अपने एसडीओ को देनी होती है फिर इन सभी के प्रमाणों के साथ उन दोनों फार्मों को अपने पहचानपत्र पैनकार्ड के साथ उसकी फोटोप्रतियों के साथ संचार हाट में जमा कराना होता है जो उसे लेखा अधिकारी को रिफंड के लिए फाइल भेजता है और वह आवेदन में दिए नए पते पर उसका चेक भेजता है।

मैंने इस बदहवास करने वाली लालफीताशाही की सारी अपेक्षाएं पूरी करके अपना आवेदन 10 मई को जमा कर दिया। तीन महीने बाद भी जब रिफंड न मिला तो संचार हाट पहुंचा । अधिकारी से नाम पूछा अौर शिकायत की बात की ताेे वह घबराई । लेखा अधिकारी से बात करती रही। उसने कहा, जो आवेदन आपने दिया था उसकी फोटो कापी लेकर आइये तक पता करूंगी। पता बताया, तारीख बताई नाम बताया और कहा आपने किस तारीख को इसे भेजा है यह डिस्‍पैच रजिस्‍टर में देख कर बता दें। उसने लेखा अधिकारी से बात कराई जिसने कहा, मेरा कोई बकाया नहीं है। इस तरह की कोई स्‍कीम ही नहीं है। मैं लौटा तो पता चला कि मेरी गाड़ी के ग्‍लवबाक्‍स में ही उस आवेदन और भुगतान आदि की प्रतियां रखी हैं । मैं सुरेन्‍द्र सिंह नाम के उस लेखा अधिकारी के पास पहुंचा, और उसके सामने वह कागज रखते हुए पूछा, इसका रिफंड क्‍यों नहीं भेजा गया।
उसका चेहरा देखने लायक था। बिना काेई जवाद दिए वह अपने कंप्‍यूटर पर जुट गया। कई तरह से जोड़ लगाता और उसे कामज पर नोट करता रहा । फिर उठा और अपने आफिस की ओर गया। मैंने सोचा चेक बनाने गया है। लौटा तो हाथ में वह फाइल थी जो उसे संचार हाट से भेजी गई थी। हिसाब वह लगा ही चुका था, यदि कुछ लिखना था तो अपना नोट लिखना था, पर वह फिर उसी तरह कई तरह के हिसाब लगाता रहा और अन्‍त में जब नोट पूरा किया तो मैने कहा, अब चेक भी दे दीजिए।
उसने कहा, आठ हजार पांच सौ छब्‍बीस का रिफंड बनता है। मैंने कोई आपत्ति नहीं की। उसने कहा, चेक आपके पते पर भेजा जाएगा। अगस्‍त के दूसरे हफ्ते की कोई तारीख थी। वह चेक जब पन्‍द्रह सितंबर तक नहीं पहुंचा तो इस बार मैंने इस बात की परीक्षा लेनी चाही कि आप सीधे मंंत्री को, यहां तक कि प्रधानमंत्री को ईमेल से अपनी शिकायत भेज सकते हैं यह कहा तो जाता है परन्‍तु अपनी इतनी व्‍यस्‍तता में उनके पास इसके लिए समय भी होता होगा।
मैंने एक शिकायत मुख्‍य सतर्कता अधिकारी को और शिकायत का हवाला देते हुए लालफीताशाही को दूर करने के लिए दूरसंचार मंत्री को लिखा।

क्‍या आप विश्‍वास कर पाएंगे कि इसके सात दिनों के भीतर अर्थात् 22 सितंबर को वह रिफंड मुझे भेज दिया गया। उसके पेआर्डर पर अगस्‍त की वही तिथि थी जिस पर मैं उससे मिला था। अब तक उसे लिए वह इस प्रतीक्षा में बैठा रहा कि उसका हिस्‍सा मिले तो वह रिफंड भेजे। 24 सितंबर को वह मुझे स्‍पीडपोस्‍ट से मिल गया। उसे जमा भी करा दिया।

मेरी शिकायत के केवल एक हफ्ते के भीतर वहां से जो भी कार्रवाई जिन स्‍तरों पर हुई, उसका परिणाम सामने आ गया।

Post – 2016-10-01

दिल काे इतने करीब से देखा
इत्‍तफाकन, नसीब से देखा।
दिल में कितने जहान शामिल हैं
मैंने खुद दूरबीन से देखा ।
तुम न समझोगे दिल जले ‘गर हो
तुम न समझोगे सिरफिरे ‘गर हो
तुम न समझोगे जो नफरत में पले
खुद में जो खुर्दबीन से देखा ।

Post – 2016-10-01

समझदारों के बीच एक सही विचार की तलाश-7

यदि सोचते हो तुम जो कहते हो उसे कोई मान लेगा या उसकी अपनी धारणा बदल जाएगी तो यह मूर्खता है। बहुत कुछ ऐसा जिसे तुम छोड़ कर बात करते हो और काफी कुछ ऐसा जिसे तुम जानते ही नहीं। जो थोड़ी सी जानकारी है उसमें भी जो सिद्ध करना चाहते हो उसके अनुसार कुछ जोड़ते मोड़ते हो। सबसे साथ यही होता है इसलिए सारी बहस का जवाब यह कि लोग अपनी बात पर अधिक मुस्‍तैदी से डटे रहते हैं। आंधियां आती हैं, यदि अधिक प्रबल हुईं तो घास, मोथे ही नहीं, पेड़ भी उनके दबाव में जगह बनाते हुए झुक जाते हैं और उसके गुजर जाने के बाद फिर तन करखड़े हो जाते हैं। विचारधाराओं से, विश्‍वासों से जुड़े लोगों के साथ भी यही होता है। यदि उसकी जड़ें गहरी हैं पर तुम्हारे तर्क और प्रमाण इतने प्रबल सिद्ध हुए कि वे उसका प्रतिवाद न कर सकें तो वे तत्‍काल हार नहीं मान लेंगे। अपने को बचाने का प्रयत्‍न करेंगे, तुम्‍हें बदनाम करेंगे। यह ध्‍यान रखना कि ये सभी धर्म से जुड़े प्रश्‍न नहीं हैं, अपितु देश से जुड़े प्रश्‍न हैं।

तुम्‍हारे भी प्रबल क्‍यों न हों, वे

Post – 2016-10-01

क्रान्ति

हम हथेली पर आसमान लिए खो गए थे तेरे खयालों में।
क्‍या हुआ उन शिगुफ्ता ख्‍वाबों का बन्‍द थे जो कई सवालों में।।
हम कहां थे मुकाम याद नहीं, कितनी गलियाें के पार पहुंचे थे।
बचना चाहा था और बच न सके आ गिरे फिर उन्‍हीं बवालों में ।।