Post – 2016-11-22

हिटलर की वापसी (2)

हिटलर सबसे बुरा आदमी नहीं था, वह बहुत सारे बुरे लोगों में से एक था, परन्‍तु उन्‍हें बचाने के लिए संचारमाध्‍यमों और प्रचारमाध्‍यमों का उपयाेग करके सारी घृणा हिटलर पर केन्द्रित कर दी गई । हत्‍याओं, विनाशलीलाओं की तालिका तैयार करें और तब तय करें कि हिटलर, ट्रूमैन, आइजन आवर, केनेडी, निक्‍सन, जानसन, लेनिन, स्‍तालिन आदि की निष्‍ठुर परपीड़कों की जघन्‍य गोष्‍ठी में उसकी जगह कहां हो सकती है।

वियतनाम युद्ध 1955-75 में किस तरह की नृशंसता बरती गई, इसकी कहानियों को कभी उस तरह प्रचारित ही नहीं किया गया जिस तरह हिटलर के द्वारा यहूदियों के उत्‍पीड़न की कहानियाें को या कुछ दूर तक साेवियत यातनाशिविरों की कहानियों को। युद्ध अपराधियों और मानवद्रोहियों की तालिका और भी लंबी है। ईराक की त्रासदी की ओर तो ध्‍यान कुछ इ‍सलिए जा भी सका कि उसे अमेरिका जो अमानवीय कृत्‍य करता उसका पूर्वाभास वह स्‍वयं यह कह कर दे देता था कि कल सद्दाम वऐसा करेगा। मगर अमेरिकी साजिश के कारण अफ्रीका के कुछ देशों की यातना की ओर तो हमारा ध्‍यान ही नहीं जाता। हम गोएबेल्‍स को उसकी झूठ की फिलासफी के लिए कोसते हैं परन्‍तु प्रचारमाध्‍यमों और मानवाधिकार के नाम पर फैलाए गए अमेरिकी जाल के द्वारा आज तक लगातार सचाई को दबाया, कहानियों को सचाई बना कर पेश किया जाता रहा है और उसी की सफलता है कि सारी घृणा अकेले हिटलर पर थोप कर दूसरों को बचा ही नहीं लिया जाता, अपितु उनको इतना भोला बना दिया जाता है मानो वे मानवीय संवेदना से ओतप्रोत थे। सभी से हमारे राजनयिक संबंध बहुत सुथरे रहे हैं, और जब तक हिटलर ब्रिटेन और सोवियत संघ के लिए खतरा नहीं बन गया, तब तक उसके साथ इनके भी संबंध बुरे नहीं थे । लाओस जैसे छोटे से देश के साथ अमेरिका ने क्‍या किया इसकी भयावहता को निम्‍न तथ्‍यों से समझा जा सकता है। ध्‍यान रहे कि इस बीच अमेरिका मे तीन राष्‍ट्रपतियों का शासन रहा। सभी एक जैसे क्रूर।

”लाओस में वर्ष 1964 से लेकर 1973 तक पूरे नौ साल अमेरिकी वायुसेना ने हर आठ मिनट में बम गिराए। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार नौ सालों में अमेरिका ने लगभग 260 मिलयन क्लस्टर बम वियतनाम पर दागे हैं जो कि इराक के ऊपर दागे गए कुल बमों से 210 मिलियन अधिक हैं। लाओस में अमेरिका ने इतने क्लस्टर बम दागे थे कि दुनिया भर में इन बमों से शिकार हुए कुल लोगों में से आधे लोग लाओस के ही हैं।”

सुभाष चन्‍द्र बोस हिटलर से मिलने गए थे और उनको यह खुशफहमी थी कि वह अंग्रेजी शासन से मुक्ति दिलाने में मददगार हो सकता है । होता तो उतना बुरा नहीं रह जाता, यद्यपि जर्मन यातनाशिविरों की कहानियां जर्मनी के पतने के बाद ही प्रकाश में आ सकीं। भारत में अशिक्षित और अल्‍पचेत लोगों को हिटलर की बढ़त अग्रेंजों की पराजय और अपनी मुक्ति का उपाय प्रतीत हो रहा था और यह भावना खासी व्‍यापक थी। मेरे गांव का इक्‍केवाला, विलायत, इक्‍के को तेज भगाने के आवेश में ‘चल बेटा हिटलर की चाल’ कहता जा रहा था। पुलिस वाले ने रोक लिया, माफी मांग कर किसी तरह बचा ।

हम यहां दो बातों की ओर ध्‍यान दिलाना चाहते हैं जिनका विवेचन हम पहले कर आए हैं। पहला यह कि मनुष्‍य एक व्‍यक्ति के रूप में स्‍वतन्‍त्र होता नहीं, अपितु असंख्‍य बन्‍धनों या सीमाओं के साथ पैदा होता और बढ़ता है। उसे अपनी स्‍वतन्‍त्रता स्‍वयं उन सीमाओं से ऊपर उठते हुए हासिल करनी होती है। यह एक तरह का आत्‍मविजय है।

दूसरे मनुष्‍य में गर्हित से गर्हित आचरण करने की शिथिलता होती है और इसके विपरीत महान से महान बलिदान देने और अकल्‍पनीय ऊंचाइयों तक पहुंचने की क्षमता होती है, और परिस्थितियों के दबाव में वह एक अदृश्‍य योजना का निमित्‍त मात्र बन कर रह जाता है। इसका विवेचन करते हुए तोल्‍स्‍तोय ने युद्ध और शान्ति में नैपोलियन को काल के हाथ ही एक कठपुतली मात्र सिद्ध किया था और ऐसी ही कठपुतलियां वे सभी नाम हैं जिन्हें हमने ऊपर गिनाया है जिनमें से हिटलर एक है, एकमात्र नहीं।

ऐतिहासिक परिस्थितियां उस व्‍यक्ति को अपने दबाव से पैदा करती हैं और इस्‍तेमाल करती हैं, और फिर किनारे फेंक देती हैं। मुख्‍य प्रश्‍न परिस्थितियों का है। क्‍या वे ऐसी हैं जिनमें कोई खलनायक पुन: पैदा हो जाय, जिनमें हिटलर पैदा हुआ था ? उत्‍तर नहीं में मिलेगा, कारण कोई दो परिस्थितियां समान नहीं होतीं। भारतीय संविधान ने तीनों अंगों की सीमा आैर सेनाध्‍यक्ष का अधिकार कार्यकारी शक्ति से युक्‍त प्रधानमंत्री की जगह सर्वाधिकार मुक्‍त राष्‍ट्रपति को सौंप कर तानाशाही का रास्‍ता बन्‍द कर रखा है, फिर भी आपात काल लगा, इसलिए सतर्क रहने की आवश्‍यकता बनी रहती है।

वह जातीय अपमान बोध जो जर्मनी में पहले महायुद्ध के बाद पैदा हुआ था, जिसमें अन्याय का गहरा पुट था, उसने एक मामूली हैसियत के परन्‍तु दूसरों की अपेक्षा अधिक संवेदनशील और इसलिए तिलमिलाहट से भरे और कृतसंकल्‍प ठिगने से आदमी को केन्‍द्र में ला दिया। उसने लीग आफ नेशन में अपना जूता मेज पर रख कर बता दिया था कि उसके निर्णय पक्षपात पूर्ण हैं और वह उन्‍हें नहीं मानता। हिटलर इतिहास का चुना, भवितव्‍य का निमित्‍त था, जिसके साथ उसकी मूर्खताओं के योग ने उसे उस स्थिति में पहुंचा दिया । परन्‍तु मान लें, जैसा कि अन्‍देशा था, उसने एटम बम बना लिया होता और उसका प्रयोग अमेरिका को उसके गुर मिलने से पहले कर बैठा होता तो ? मान लें वह विजयी हो चुका होता तो? तो उन कुकृत्‍यों का पता तक नहीं चलता, चलता भी तो उन्‍हें मामूली दंड मान लिया जाता और हिटलर का मूल्‍यांकन बदल जाता । तब वह डरावना नहीं रह जाता।

कहते हैं जब जर्मनी ने समर्पण कर दिया था, सभी जनरल सम्‍मानजनक मौत मरने के लिए आत्‍मघात कर रहे थे, तब एक जनरल ने कहा था, ‘अलविदा। फिर मिलेंगे ‘। अर्थात् हिटलर भले न पैदा हो, वे नाजी प्रवृत्तियां पैदा हो सकती हैं।

जर्मनी में शरण लेने वाले मुसलमानों की करतूतों, और खास तौर से इस्‍लाम में धर्मान्‍तरित हाेने वाले जर्मनों ने जैसे कारनामे किए उससे जर्मनी में हिटलर की लोकप्रियता बढी है। यह बढ़त मामूली है, फिर भी हिटलर का मजाक उड़ाते हुए
एक हास्‍य कथा रची गई जिसका नाम था ‘वह फिर आ गया’ आगे का परिचय विकीपीडिया की निम्‍न पंक्तियों से प्राप्‍त करें:

Look Who’s Back (German: Er ist wieder da, pronounced ; translation: “He is there again”) is a bestselling German satirical novel about Adolf Hitler by Timur Vermes, published in 2012 by Eichborn Verlag.
In The Jewish Daily Forward, Gavriel Rosenfeld described the novel as “slapstick”, but with a “moral message.” However, while acknowledging that Vermes’s portrayal of Hitler as human rather than monster is intended to better explain Germany’s embrace of Nazism, Rosenfeld also states that the novel risks “glamorizing what it means to condemn”: readers can “laugh not merely at Hitler, but also with him.”
In The Sydney Morning Herald, reviewer Jason Steger, “Most people wouldn’t think it possible that if they would have lived back then they would have thought he was in some way attractive too”, he said.

There is a really weird group in Germany called Pegida. They are against muslims and islamisation of Germany and other countries.
One of the major reasons for that paradoxically are not immigrants. But a group of German extremist salafists, who were founded and consist mainly of German converts to Islam. So it’s not the immigrants, but the Germans themselves. Their leader is Pierre Vogelwikipedia.org. A German national, who says he is against Germany. Many other European countries have put him on a travel ban as a danger. But since he is German, the Germans have to keep him…

Herbert W. Armstrong was among the select few who escaped this deception. As early as spring 1945, he began warning that although Nazism had been disfigured and dismembered, its heart was still beating—slowly, quietly, undetected—in dark crevices across the planet.

क्‍या आपको धर्मान्‍तरित पियरे के कथन कि वह जर्मनी विराेधी है और जेएनयू में ऐसे ही एक तत्‍व द्वारा भारत की बर्वादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी में कोई समानता दिखाई देती है ? ऐसे ही जुमले, जिनका समर्थन तुम भी करते हो और जो जेएनयू की परिभाषा में अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता है, हिटलर बनने का रास्‍ता तैयार करते हैं । यह अपने को सेक्‍युलर कहने वालों की जिम्‍मेदारी है कि वे ऐसी परिस्थितियां न पैदा होने दें जो खाक से भी हिटलर गढ़ कर तैयार कर देती हैं। मोदी लोकतन्‍त्रवादी है और उसे यह बोध है कि उसे अपनी ऊंचाई तक लोकतन्‍त्र ने पहुंचाया है और इन्दिरा जी की तानाशाही ने उनको उस अधोगति में पहुंचाया था और उसी ने मोदी को अपना कद हासिल करने का अवसर दिया था।
वह सच्‍चे मन से सबका साथ सबका विकास का आदर्श ले कर चला था। सभी पड़ोसी देशों और विशेषत: पाकिस्‍तान के दरवाजे तक जा कर दस्‍तक देने से परहेज नहीं किया। उसके आलोचक उस नरमी का मजाक उड़ाते रहे। मोदी का प्रयास विफल हुआ, अपितु नरमी का उत्‍तर उद्दंडता से दिया जाता रहा जिसके परिणाम हमारे सामने हैं।

ठीक यही वाक्‍य घरेलू स्‍तर पर भी है, परन्‍तु सेक्‍युलरिस्ट समझदारी के तहत बिलगाव और छिटकाव, बिखराव और उत्‍तेजना की अनर्गल गतिविधियां जारी हैं और इन्‍होंने मुस्लिम समुदाय को इस अवसर का महत्‍व समझने में बाधा डाली है। आज तक मुझे ऐसा कोई मुस्लिम मित्र या तथाकथित सेक्‍युलरिस्‍ट नहीं मिला जो मोदी का आंख मूंद कर विरोध नहीं करता। जो लोग चाहते हैं, और यह देख रहे हैं कि उनके विचारों, फिकरेबाजियों, कारगुजारियों के कारण जनता में उनका भाव गिरता चला गया है और मोदी की लोकप्रियता उसकी कार्यनिष्‍ठा, सत्‍यनिष्‍ठा और लोकनिष्‍ठा के कारण बढ़ती चली गई है, यह उनकी जिम्‍मेदारी है कि वे अात्‍मनिरीक्षण करें और गुणदोषपरक आलोचना करें। मोदी को आलोचकों की जरूरत है, परन्‍तु निन्‍दापाठ की नहीं। हिटलर की वापसी हिटलर की इच्‍छा पर नहीं, उन परिस्थितियों के दबाव पर निर्भर करती है जिसमें किसी को हिटलर बनने को बाध्‍य किया जा सकता है।

परन्‍तु हिटलर, फासिज्‍म, तानाशाही आदि की अास जो लोग इस बिना पर बनाए हुए हैं कि उसके अंत के साथ उस पूरी सोच का अन्‍त हो जाता है इसलिए स्‍वयं अपनी ओर से प्रयास कर रहे हैं कि मोदी की लोकप्रियता नाजिज्‍म का रूप ले और उससे उसका खात्‍मा और उनका अपना भाग्‍योदय हो, वे अनर्थ कर रहे हैं, और अपने प्रयास में व्‍यर्थ भी होंगे, क्‍योंकि उनका पाला एक ऐसे व्‍यक्ति से पड़ा है जो उनके सभी आकलनों को गलत हो जाने देता है, गलत सिद्ध करने का प्रयत्‍न तक नहीं करता ।

Post – 2016-11-21

हिटलर की वापसी (1)

”तुम्‍हारी सारी बातें सही हैं । इस आदमी की बढ़ती लाे‍कप्रियता डरावनी है। कतारों में लगे जिन लोगों का दुख दिखा कर हम मोदी को कठघरे में खड़ा करना चाहते हैं, वे हमारे क्‍या, सीजेअाई के भड़काने पर भी सीजेआई की ओर कुछ इस नजर से देखते हैं कि ‘सर आप भी वही निकले !’ और उत्‍तेजित होने की जगह मुस्‍कराने लगते हैं । न्‍याय क्‍यों इतना मंहगा हो गया है कि गरीब आदमी को मिल ही नहीं सकता, यह अब तक राज़ था, अब फाश कर दिया आपने।’

मैं हैरान ! इसमें इतनी जल्‍द इतना हृदय परिवर्तन कैसे घटित हो गया । तभी उसने अपना तेवर बदला, ”पर यह तो मानोगे कि यह देश के हित में नहीं है।”

कुछ देर तक मैं कुछ समझ नहीं पाया, सहमते हुए कहा, ”हां, सीजेआई काे राजनीतिक बयान देने से पहले सोचना चाहिए था कि इसका लोग क्‍या आशय निकालेंगे और…”

उसने बीच ही में टोक दिया, ”मैं उसकी बात नहीं कर रहा हूं । उस लोकप्रियता की बात कर रहा हूं जो मोदी को मिल रही है। यह ठीक उसी पैटर्न पर है जिससे हिटलर को लोकप्रियता मिली थी। हम पहले कहते थे कि फासिज्‍म आ रहा है, भाजपा का राष्‍ट्रवाद जर्मनों के राष्‍ट्रवाद की ही नकल है तब तुम्‍हारी समझ में नहीं आ रहा था। अब वह सामने खड़ा है और एक बार आ गया तो …।” उसने अपना वाक्‍य अधूरा छोड़ दिया, फिर कुछ सूझा तो मैं कुछ कहूं इससे पहले ही बोल पड़ा, ”तुमने तो सारे बुद्धिजीवियों को पता नहीं किसके साथ खड़ा कर दिया, वे उस खतरे को बहुत पहले से देख रहे हैं और इसलिए विरोध करते आ रहे हैं। सिर्फ तुम इतने मूर्ख हो जो इस बात को आज तक समझ नहीं पाए ।”

मैंने चुटकी ली, ”तुम लोग इतना बोलते हो फिर भी बाेलना क्‍यों नहीं आता । तुम लोगों को डराने के लिए कहते हो, भाजपा का राष्‍ट्रवाद जर्मनों के राष्‍ट्रवाद की ही नकल है।’ लोग सोचते हैं जब नकल है तो उससे क्‍या डरना। असल होता तो फिक्र की बात भी थी। असल सिद्ध करने के लिए तुम्‍हें उन कार्यों और परिणामों का विवेचन करते हुए उसे देश और समाज के लिए खतरनाक सिद्ध कर देने से ही काम चल जाता। जर्मनों और उनके राष्‍ट्रवाद का नाम लेने की जरूरत न पड़ती। नब्‍बे प्रतिशत लोग तो मात्र साक्षर या निरक्षर हैं, उनको जब यह सुनने को मिलता है कि यह खरोखर इंपोर्टेड चीज है तो उनकी नजर में उसके प्रति आकर्षण बढ़ जाता है। तुम देश और समाज को जानने के औजारों तक से दूर रहे, इसलिए यह भी नहीं समझ पाते कि तुम्‍हारे किए के परिणाम उल्‍टे जा रहे हैं।”

”मैं कहूं कि तुमने कमाल का तर्क दिया तो खुश हो जाओगे ? पर तुम नहीं मानते कि लोकतन्‍त्र का खत्‍म हो जाना, किसी एक व्‍यक्ति का अपने दल से, दूसरे सभी दलों से, इतना बड़ा हो जाना कि विकल्‍प की संभावना ही न रह जाय, चिन्‍ता की बात नहीं ?”

बात चिन्‍ता की तो थी । किसी एक व्‍यक्ति की ऐसी लोकप्रियता कि विकल्‍प समाप्‍त होते चले जाएं, चिन्‍ता की बात तो थी ही। परन्‍तु जितनी चिन्‍ता जताई जा रही थी उतनी चिन्‍ता की नहीं। सच कहें तो विकल्‍पों को समाप्‍त कर देने का प्रयोग तो कांग्रेस ने नेहरू काल से ही आरंभ कर दिया था। केवल केन्‍द्र में ही नहीं, राज्‍यों तक में कांग्रेस छोड़ अन्‍य किसी का शासन रहने ही न पाए। और कांग्रेस का मतलब नेहरू के शासन काल में नेहरू था और इन्दिरा जी और उनके वंश के शासन में इन्दिरा जी और उनका वंश । इसके लिए गर्हित से गर्हित तरीका, अमानवीय से अमानवीय तरीका अपनाने में उन्‍हें संकोच न था। गुलजारी लाल नन्‍दा को जल्‍द से जल्‍द ठिकाने लगाने के लिए गोरक्षा आन्‍दोलन की भीड़ का सीधे गोलियों से भूनते हुए उन्‍हें अक्षम सिद्ध करके सत्‍ता हाथ में लेने की जल्‍दी हो, या बंगाल की 1967 में अजय बाबू की गैर कांग्रेस सरकार को गिराने के लिए बीएसएफ की टुकड़ी लगाकर बालीगंज का नृशंस कांड जो उस उत्‍सव में ऐसी हुड़दंग कि न जाने कितने लोग मारे गए, महिलाओं का बलात्‍कार हुआ, और इस आधार पर सरकार गिराकर नये चुनाव की तैयारी। परिणाम उल्‍टे हुए, पहली बार ज्‍योति बाबू के नेतृत्‍व में पूर्ण बहुमत से ऐसी सीपीएम सरकार बनी जो ज्‍योतिबाबू के हटने के बाद तक चलती रही । मैं उन सभी बदकारियों और उनसे पैदा हुई विकृतियों को यहां दुहराना नहीं चाहूंगा, तुम उन्‍हें स्‍वयं याद कर सकते हो। न ही मैं यह तर्क दूंगा कि कांग्रेस ने लगातार यही किया, फिर भी कभी तुमने उसकी ऐसी आलोचना नहीं की कि वह अभियान का रूप ले सके।

”मैं तुम्‍हें अपने एक शेर की याद दिलाना चाहूंगा जो मैंने बेहिश नामक एक पात्र के लिए लिखा था :

तेरी आंखों में ही कुछ बल है आ गया बेहिश ।
आईने टूटते जाते हैं जिधर देखता है ।

मोदी के साथ स्थिति बिल्‍कुल उलट है । वैकल्पिक दल भीतर से इतने सड़ चुके हैं कि इस व्‍यक्ति को किसी को गिराने का खयाल तक नहीं आया। वे पार्टियां गिर नहीं रही है, सड़ाध से धसक रही है और धसक इसलिए रही हैं कि जब लोग, जितने भी लोग, मोदी को सन्‍दर्भबिन्‍दु मान कर दूसरों का आकलन करते हैं तो वे नि:सत्‍व ही नहीं हीनचेत भी प्रतीत होते हैं। समर्थन का सहज प्रवाह भाजपा की ओर होने लगता है। यही निर्णायक बिन्‍दु पर पहुंच कर पूर्ण बहुमत में बदल जाता है। इसमें जीत हार का प्रश्‍न ही नहीं है, प्रश्‍न समर्थन के प्रवाह की दिशा का है, परिणाम आज नहीं तो कल सही। इसीलिए बिहार चुनाव के बाद मैंने कहा था, नैतिक विजय भाजपा की हुई है जिसने हारने का रास्‍ता चुना पर गलत प्रलोभन या सिद्धान्‍तहीन जोड़-तोड़ का सहारा नहीं लिया। हार नीतीश की हुई क्‍योंकि उन्‍हें नाक रगड़ने वाले गलत समझौते करने पड़े फिर भी र्वाधिक वोट न मिले और विजय लालू की हुई जो वास्‍तविक शासक बने रहेंगे और उस व्‍यक्ति को अपने गलत निर्णयों को लागू करने काे बाध्‍य करते रहेंगे जो अपने को लोकतांत्रिक आदर्शों का मूर्त रूप मानता था।

”अब इसमें देखो, नीतीश के पास विकल्‍प था कि सबका साथ सबका विकास के नारे को सम्‍मान देते हुए उस भाजपा से सहयोग लेते जिसके समर्थन से उन्‍होंने
स्‍वच्‍छ शासन का इतिहास रचा था। नहीं, किया। एक व्‍यक्ति के रूप में एक समय जहां उन्‍हें भले मोदी के नीचे, पर लोकप्रियता और पात्रता में कुछ आसपास ही माना जाता था, वह केवल अपने निर्णयों और कार्यों से कितने नीचे चले गए हैं। मोदी को इस विकल्‍प को मिटाने के लिए कुछ नहीं करना पड़ा।

”हिटलर की वापसी पर तो आज बात हो नहीं सकती। कल करेंगे, परन्‍तु तुम इस बीच इस प्रश्‍न पर विचार करना कि एक ऐसे नेतृत्‍व के सत्‍ता पर कब्‍जा जमाने के बाद, जिसे तुम अपनी समझ से शुभ नहीं मानते रहे, अपने कार्यों, उक्तियों, हंगामों से ठीक वही काम नहीं करते रहे जिसके प्रमाण हमने कांग्रेस शासन से दिए और जिनके परिणाम कांग्रेस के लिए और उससे अधिक पूरे देश्‍ा के लिए घातक रहे। लोकतान्त्रिक निर्णय प्रक्रिया को हुड़दंग से उलट कर तुम किसका भला करते रहे। हिटलर की वापसी का रास्‍ता तैयार करते रहे या लोकतान्त्रिक विकल्‍पों की रक्षा का प्रयत्‍न।”

Post – 2016-11-20

नोट की चोट (असंपादित)

‘यार सुना पुराने नोट बन्‍द होने से तुम्‍हें इतना सदमा पहुंचा कि तुम बीमार पड़ गए और अस्‍पताल में भर्ती होना पड़ा ।’
‘पता तो चला कि तुम कल्‍पनाशील भी हो। पर यह तो बताओ तुम किसके साथ हो, जमाखोरों, कालाबाजारियों के या इसे खत्‍म करने वालों के । कोई भी बात, कोई भी तर्क, कोई भी आंकड़ेबाजी, यह फैसला हो जाने के बाद ही सार्थकता रखती है ।

वह हंसने लगा, ‘जानता था, तुमको वह तकलीफ दिखाई नहीं देगी जो दिन के दिन खड़े लोग लाइन में लगा रहे हैं। पचास लोग प्राण गंवा चुके हैं। समाचार चैनल उनकी पीड़ा की कहानियां दिखा रहे हैं। तुम्‍हें कुछ नहीं दीखता क्‍योंकि तुमने आंखों के ठीक आगे मोदी का चेहरा लगा रखा है।

‘तुमसे कुछ पूछा है । उसका सीधा, सटीक जवाब दो । किसके साथ हो ?’

‘प्रश्‍न साथ होने का नहीं है, उसकी सही तैयारी और सही तरीके का है । यदि कुछ और समय लगाया गया होता तो…’

‘युद्ध छिड़ने के बाद तैयारी वगैरह विचार-बाह्य हो जाते हैं। अब जो भी है, जैसा भी है, उसी से संघर्ष किया जाता है। तुमको चीन-भारत युद्ध का पता है ? हमारे सैनिकों के पास पहाड़ी सर्दी के बचाव के लिए कपड़े तक नहीं थे, बरफ पर चलने के लिए जूते तक नहीं थे। हरबा-हथियार पुराने थे। नेहरू और तत्‍कालीन रक्षामंत्री सैन्‍य आयुधागार में सोलर कुकर बनवा रहे थे । खुफिया तन्‍त्र इतना निकम्‍मा कि भारत के प्रधानमंत्री को भी चीनी अफीमची बुजदिल दिखाई दे रहे थे। सीमा रेखा पर जैसा आज भी होता है बीच बीच में चीनी दस्‍ते भीतर घुस आते हैं और उन पर दबाव डाल कर पीछे हटने पर विवश किया जाता है, ऐसा ही तब भी था। यह रगड़ा नेहरू की अदूरदर्शिता का परिणाम था। तिब्‍बत के बफर राज्‍य की रक्षा की जिम्‍मेदारी भारत की थी और तिब्‍बत पर चीनी आक्रमण के समय ही भारत को तिब्‍बत का साथ देते हुए वह जंग लड़ना जरूरी था, वह खतरा लेने का साहस नेहरू का नहीं हुआ। उल्‍टे दलाई लांबा को सलाह दी कि जितना सोना हीरा हो लाद कर आक्रमण से पहले ही भारत भाग आओ और यहां से अपने का तिब्‍बत का प्रधान बन कर कूटनीति करो। भारत में चीन की संवेदनशीलता के विरुद्ध भारतीय भूभाग में तिब्‍बत का निर्वासित प्रधान अपनी गतिविधि चला रहा था, यह चीन की खुन्‍दक थी। सीमारेखा के अति‍क्रमण का मामला इस कारण भी कूटनीतिक स्‍तर पर न चल कर सैन्‍य टुकडि़यों के भारत की सीमा में प्रवेश के रूप में सामने आता था। ऐसे ही एक कुयोग के उत्‍तर में नेहरू को जब सूचना मिली कि चीनी दस्‍तों ने भारतीय सीमा में प्रवेश कर लिया है, तो युद्ध का आरंभ नेहरू ने यह कहते हुए किया था कि मार कर भगा दो। भारत के जनरलों का हाल यह कि वे अग्रिम मोर्चे पर जा ही नहीं सकते थे क्‍योंकि उनको यूरोपियन कमोड की आदत पड़ चुकी थी। बी के कौल को नेहरू से पारिवारिक निकटता के कारण पूर्वी कमांड के जनरल का पद नियम का उल्‍लंघन करते हुए मिला था। वह मोर्चे के लिए तैयार नहीं थे और जान बचा कर भाग आए थे। इस पूरी परिघटना की प्रत्‍येक कड़ी त्रासद है, परन्‍तु एक बार युद्ध छिड़ जाने के बाद पूरे राष्‍ट्र ने, विरोधी दलों तक ने युद्धपर्यन्‍त एकजुट हो कर सरकार का समर्थन किया। हारना तो था ही, पर हारने के बाद नेहरू ने अपनी राष्‍ट्रनिष्‍ठा का जो नमूना पेश किया वह था उन पहाडि़यों के हाथ से चले जाने का क्‍या मलाल जिन पर धास की एक पत्‍ती तक नहीं उगती। यह सब मैं याद के बल पर ही कह रहा हूं, सूचनाएं तो इंटरनेट पर भी मिल सकती हैं।
तुम्‍हें पता है कितने हजार सैनिक सर्द रातों में उचित वस्‍त्र के अभाव में मारे गए थे, लश्‍कर का लश्‍कर साफ हो गया था। युद्ध जिन भी स्थितियों में एक बार छिड़ जाने के बाद पुनर्विचार करने वाले शत्रु को मदद पहुंचाते हैं।”

‘अजीब कूड़मग्‍ज हो यार, अरे वह दूसरे देश के साथ युद्ध था, पूरे देश को एकजुट होना ही था।’

‘यह देश के उन दुश्‍मनों के विरुद्ध युद्ध है जिनके कारण इस देश में निकम्‍मापन नीचे से ऊपर तक फैल चुका है। कुछ पाए बिना कोई कुछ काम नहीं करता। वह काम करता नहीं है, आपको यदि काम करवाना हो तो करवा लीजिए।

यह उन दुश्‍मनों के विरुद्ध संग्राम है जो अधिक से अधिक कमाने के लिए मिलावट करते हैं। उनके खिलाफ जो गुंडों का एक समानान्‍तर प्रशासन चला रहे हैं और हत्‍यायें, लूट और फिरौती जैसी व्‍याधिया देश व्‍यापी होती जा रही हैं। यह उनके खिलाफ युद्ध है जिनके कारण धनी अधिक धनी और गरीब अधिक गरीब होते चले गए हैं।

यह युद्ध उस कर्मनाशा के विरुद्ध है जिसमें आज भी जनकल्‍याण की निधि बिचौलियों द्वारा हज्‍म कर ली जाती है।

यह उस न्‍याय प्रबन्‍धन के विरुद्ध है जिसमें न्‍याय बिकता रहा है और और अन्‍यायी छूटते रहे हैं। उस माफियातन्‍त्र, आतंकवाद, नक्‍सलवाद के विरुद्ध है। अपहरण और भयदोहन के विरुद्ध है। यह भ्रष्‍ट राजनीति के विरुद्ध है, रुग्‍णतन्‍त्र के विरुद्ध है, असुरक्षा के विरुद्ध है। उस दिशाहारा स्थिति के विरुद्ध है जिसमें हजारों किसान कर्जमाफिया के शिकार हो कर आत्‍महत्‍या करने को विवश होते थे।

यह सूचना और मतामत का वातावरण तैयार करने के पक्ष में जिसमें पैसे के लोभ में फर्जी विचारों और विकलांग सूचनाओं का कारोबार करने वाले मालामाल हो रहे थे और इसलिए इसे लांछित करने के लिए उन्‍होंने अपनी पूरी प्रचार शक्ति लगा दी है।

और एक लेखक के रूप में मेरे उन प्रकाशकों के भी विरुद्ध है जो बिक्री का सही हिसाब नहीं देते और लेखकों की रायल्‍टी के पैसे से बेनामी संपत्तियां खरीदते हैं।
बेनामी संपत्तियों की बारी आने दो, फर्क दिखाई देगा।

इसलिए तुम्‍हें तय करना है कि तुम किसके साथ हो। अब किसी को चोर कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी, इस मुश्किल सवाल का जवाब वह स्‍वयं अपनी पक्षधरता से देगा। हमें केवल उसकी पहचान करनी है।

आज की बौखलाहट मोदी की विफलता के कारण नहीं है, अपितु इस आशंका के कारण है कि इस व्‍यक्ति की लोकप्रियता रोड रोलर की तरह दूसरी सभी भ्रष्‍ट पार्टियों का सफाया न कर दे । इस भय की उपज कि यदि ऐसा हुआ तो पता नहीं क्‍या देखना पड़े।

वह चुपचाप सुनता रहा, उठते हुए बोला, इसका जवाब तुम्‍हें कल मिलेगा।

Post – 2016-11-20

‘यार सुना पुराने नोट बन्‍द होने से तुम्‍हें इतना सदमा पहुंचा कि तुम बीमार पड़ गए और अस्‍पताल में भर्ती होना पड़ा ।’
‘पता तो चला कि तुम कल्‍पनाशील भी हो। पर यह तो बताओ तुम किसके साथ हो, जमाखोरों, कालाबाजारियों के या इसे खत्‍म करने वालों के । कोई भी बात, कोई भी तर्क, कोई भी आंकड़ेबाजी, यह फैसला हो जाने के बाद ही सार्थकता रखती है ।

वह हंसने लगा, ‘जानता था, तुमको वह तकलीफ दिखाई नहीं देगी जो दिन के दिन खड़े लोग लाइन में लगा रहे हैं। पचास लोग प्राण गंवा चुके हैं। समाचार चैनल उनकी पीड़ा की कहानियां दिखा रहे हैं। तुम्‍हें कुछ नहीं दीखता क्‍योंकि तुमने आंखों के ठीक आगे मोदी का चेहरा लगा रखा है।

‘तुमसे कुछ पूछा है । उसका सीधा, सटीक जवाब दो । किसके साथ हो ?’

‘प्रश्‍न साथ होने का नहीं है, उसकी सही तैयारी और सही तरीके का है । यदि कुछ और समय लगाया गया होता तो…’

‘युद्ध छिड़ने के बाद तैयारी वगैरह विचार-बाह्य हो जाते हैं। अब जो भी है, जैसा भी है, उसी से संघर्ष किया जाता है। तुमको चीन-भारत युद्ध का पता है ? हमारे सैनिकों के पास पहाड़ी सर्दी के बचाव के लिए कपड़े तक नहीं थे, बरफ पर चलने के लिए जूते तक नहीं थे। हरबा-हथियार पुराने थे। नेहरू और तत्‍कालीन रक्षामंत्री सैन्‍य आयुधागार में सोलर कुकर बनवा रहे थे । खुफिया तन्‍त्र इतना निकम्‍मा कि भारत के प्रधानमंत्री को भी चीनी अफीमची बुजदिल दिखाई दे रहे थे। सीमा रेखा पर जैसा आज भी होता है बीच बीच में चीनी दस्‍ते भीतर घुस आते हैं और उन पर दबाव डाल कर पीछे हटने पर विवश किया जाता है, ऐसा ही तब भी था। यह रगड़ा नेहरू की अदूरदर्शिता का परिणाम था। तिब्‍बत के बफर राज्‍य की रक्षा की जिम्‍मेदारी भारत की थी और तिब्‍बत पर चीनी आक्रमण के समय ही भारत को तिब्‍बत का साथ देते हुए वह जंग लड़ना जरूरी था, वह खतरा लेने का साहस नेहरू का नहीं हुआ। उल्‍टे दलाई लांबा को सलाह दी कि जितना सोना हीरा हो लाद कर आक्रमण से पहले ही भारत भाग आओ और यहां से अपने का तिब्‍बत का प्रधान बन कर कूटनीति करो। भारत में चीन की संवेदनशीलता के विरुद्ध भारतीय भूभाग में तिब्‍बत का निर्वासित प्रधान अपनी गतिविधि चला रहा था, यह चीन की खुन्‍दक थी। सीमारेखा के अति‍क्रमण का मामला इस कारण भी कूटनीतिक स्‍तर पर न चल कर सैन्‍य टुकडि़यों के भारत की सीमा में प्रवेश के रूप में सामने आता था। ऐसे ही एक कुयोग के उत्‍तर में नेहरू को जब सूचना मिली कि चीनी दस्‍तों ने भारतीय सीमा में प्रवेश कर लिया है, तो युद्ध का आरंभ नेहरू ने यह कहते हुए किया था कि मार कर भगा दो। भारत के जनरलों का हाल यह कि वे अग्रिम मोर्चे पर जा ही नहीं सकते थे क्‍योंकि उनको यूरोपियन कमोड की आदत पड़ चुकी थी। बी के कौल को नेहरू से पारिवारिक निकटता के कारण पूर्वी कमांड के जनरल का पद नियम का उल्‍लंघन करते हुए मिला था। वह मोर्चे के लिए तैयार नहीं थे और जान बचा कर भाग आए थे। इस पूरी परिघटना की प्रत्‍येक कड़ी त्रासद है, परन्‍तु एक बार युद्ध छिड़ जाने के बाद पूरे राष्‍ट्र ने, विरोधी दलों तक ने युद्धपर्यन्‍त एकजुट हो कर सरकार का समर्थन किया। हारना तो था ही, पर हारने के बाद नेहरू ने अपनी राष्‍ट्रनिष्‍ठा का जो नमूना पेश किया वह था उन पहाडि़यों के हाथ से चले जाने का क्‍या मलाल जिन पर धास की एक पत्‍ती तक नहीं उगती। यह सब मैं याद के बल पर ही कह रहा हूं, सूचनाएं तो इंटरनेट पर भी मिल सकती हैं। तुम्‍हें पता है कितने हजार सैनिक सर्द रातों में उचित वस्‍त्र के अभाव में मारे गए थे, लश्‍कर का लश्‍कर साफ हो गया था। युद्ध जिन भी स्थितियों में एक बार छिड़ जाने के बाद पुनर्विचार करने वाले शत्रु को मदद पहुंचाते हैं।”

‘अजीब कूड़मग्‍ज हो यार, अरे वह दूसरे देश के साथ युद्ध था, पूरे देश को एकजुट होना ही था।’

‘यह देश के उन दुश्‍मनों के विरुद्ध युद्ध है जिनके कारण इस देश में निकम्‍मापन नीचे से ऊपर तक फैल चुका है। कुछ पाए बिना कोई कुछ काम नहीं करता। वह काम करता नहीं है, आपको यदि काम करवाना हो तो करवा लीजिए।

यह उन दुश्‍मनों के विरुद्ध संग्राम है जो अधिक से अधिक कमाने के लिए मिलावट करते हैं। उनके खिलाफ जो गुंडों का एक समानान्‍तर प्रशासन चला रहे हैं और हत्‍यायें, लूट और फिरौती जैसी व्‍याधिया देश व्‍यापी होती जा रही हैं। यह उनके खिलाफ युद्ध है जिनके कारण धनी अधिक धनी और गरीब अधिक गरीब होते चले गए हैं।

यह युद्ध उस कर्मनाशा के विरुद्ध है जिसमें आज भी जनकल्‍याण की निधि बिचौलियों द्वारा हज्‍म कर ली जाती है।

यह उस न्‍याय प्रबन्‍धन के विरुद्ध है जिसमें न्‍याय बिकता रहा है और और अन्‍यायी छूटते रहे हैं। उस माफियातन्‍त्र, आतंकवाद, नक्‍सलवाद के विरुद्ध है। अपहरण और भयदोहन के विरुद्ध है। यह भ्रष्‍ट राजनीति के विरुद्ध है, रुग्‍णतन्‍त्र के विरुद्ध है, असुरक्षा के विरुद्ध है। उस दिशाहारा स्थिति के विरुद्ध है जिसमें हजारों किसान कर्जमाफिया के शिकार हो कर आत्‍महत्‍या करने को विवश होते थे।

यह सूचना और मतामत का वातावरण तैयार करने के पक्ष में जिसमें पैसे के लोभ में फर्जी विचारों और विकलांग सूचनाओं का कारोबार करने वाले मालामाल हो रहे थे और इसलिए इसे लांछित करने के लिए उन्‍होंने अपनी पूरी प्रचार शक्ति लगा दी है।

और एक लेखक के रूप में मेरे उन प्रकाशकों के भी विरुद्ध है जो बिक्री का सही हिसाब नहीं देते और लेखकों की रायल्‍टी के पैसे से बेनामी संपत्तियां खरीदते हैं।
बेनामी संपत्तियों की बारी आने दो, फर्क दिखाई देगा।

इसलिए तुम्‍हें तय करना है कि तुम किसके साथ हो। अब किसी को चोर कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी, इस मुश्किल सवाल का जवाब वह स्‍वयं अपनी पक्षधरता से देगा।

Post – 2016-11-20

वह क्‍या देखते हैं, किधर देखते है ।
जिधर कुछ नहीं, क्‍यों उधर देखते हैं।
मना है जिधर देखना मुद्दतों से
उधर छिप छिपा कर मगर देखते हैं ।
हर एक रंग में उनको देखा है लेकिन
वह बेनूर हैं, आंख भर देखते हैं।
बुढ़ापे में भी वह जवानी के सपने
खुली आंख से रात भर देखते हैं।

Post – 2016-11-19

मुझसे सहानुभूति रखने वालों में मेरे आसपास के लोग ही नहींं है, जिन मशीनों से काम लेता हूं वे भी हैं। मैं बीमार पड़ा, अस्‍पताल गया, लौटा ताे पाया मेरा मॉनीटर भी बीमार पड़ गया है। आईपैड या डेस्‍कटॉप पर सर्वर रोते हुए काम करता। आज नया मानीटर मंगवाया और उससे पहला समाचार आप सबको दे रहा हूंं। कल से काम शुरू।

Post – 2016-11-19

मैं अपने वाल पर किसी का टैग करना पसन्द नहीं करता । ऐसा करने वालों को को ब्लाक न करना पड़े ।

Post – 2016-11-17

हम चांद नहीं अपनी ज़मीं मांग रहे हैं ।
हम अपने घर की राजी खुशी मांग रहे है ।
ऐंठे हुए लगते हैं जो नफरत से तेरे होंठ
उन होठों पर मुस्कान हँसी माँग रहे हैं ।
खुद गर्द में दफना िदए पाले हुए सपने
आँखों में तेरे फिर से नमी मांग रहे हैं ।
हम प्यार तुझे करते हैं और करते रहेंगे ।
हम तेरे लिए चारागरी मांग रहे हैं ।
अहसासे कमतरी से उबर आ तो भला हो।
हम तेरी बुलन्दी की घड़़ी मांग रहे हैं ।
मुंह फेर कर बैठे हैं जो छत्तीस बने से
हम उनकी खुशी अपनी खुशी मांग रहे हैं ।।
१७-११-२०१६

Post – 2016-11-16

पाखंड और सद्भाव का सहअस्तित्‍व नहीं हो सकता

मित्रो,

मैं साहित्‍य से कम और उस संस्‍कृति से अधिक लगाव रखता हूं जिसकी एक विशिष्‍ट क्रिया साहित्‍य, कला, दर्शन, मानवविज्ञान आदि की गतिविधियां में व्‍यक्‍त होती है। परन्‍तु इसका प्रसार इनसे अधिक व्‍यापक है। सांस्‍कृतिक चेतना से संपन्‍न हुए बिना श्रेष्‍ठ रचना संभ नहीं। ऐसी रचना संभव नहीं जिसका प्रसार और स्‍वीकार्यता सुशिक्षित समाज से अशिक्षित समाज तक हो सके। हम उस सांस्‍कृतिक परिदृश्‍य से वंचित कर दिए गए हैं, क्‍योंकि इसे योजनाबद्ध रूप में नष्‍ट किया गया। इस‍के उद्धार के लिए हमें स्‍वयं इसका पुनराविष्‍कार करना था, परन्‍तु हम अपना काम न करके राजनीति करते रहे । नियति स्‍पष्‍ट है, नामी गरामी साहित्‍यकारों का राजनीतिज्ञों का कृपापात्र बन कर रह जाना और अपनी सेवा के लिए पद, प्रतिष्‍ठा आदि पर गर्व अनुभव करना।

आज हम एक ऐसे निर्णायक दौर से गुजर रहे हैं जैसा दौर इतिहास में पहले कभी नहीं आया था। मैं जब निर्णायक दौर कहता हूं तो मेरा तात्‍पर्य है वह दौर जिसमें आपको फैसले करने होंगे। ढीले ढाले ढंग से यह भी ठीक है और उसमें भी बहुत सी अच्‍छी बातें हैं इसलिए हम दोनों के साथ है, यह शिथिलता उसके पक्ष में स्‍वत: चली जाती है जिसे आप बुरा या खतरनाक मानते हैं। चुनाव तो दोनों स्थितियों में होता है, अविचारित या शिथिलता वश टाला गया निर्णय गलत के पक्ष में जाता है।

पहले एक बौद्धिक या बुद्धिजीवी समाज होता था, वह अपनी रुचि के क्षेत्र में अपनी समझ और प्रेरणा से अपना काम करता रहता था। फिर मार्क्‍सवाद का सान्निपातिक चरण आया। हमारा दुर्भाग्‍य की मार्क्‍सवाद भी यहां सन्निपात और उन्‍माद बन कर ही आया। इसके बाद लेखकों की लेखकीय स्‍वतन्‍त्रता को छीन लिया गया । बुद्धिजीवी एक खतरनाम, ढुलमुल, मौकापरस्‍त और इसलिए सबसे कम भरोसे का प्राणी रह गया, क्‍योंकि वह पार्टी के निर्णय और आदेश मानता नहीं था । स्‍वयं सोचता और विषय से ले कर सौन्‍दर्य विधान’ सभी के फैसले स्‍वयं लेता था। इस पार्टी का प्रभाव इतना अधिक बढ़ा कि पहले के क्षणमेरु बुद्धिजीवियों को आवेश वश या अपमान से बचने के लिए उत्‍साह से पार्टी से जुड़े साहित्यिक तानाशाहों की सेवा में स्‍वयं को अर्पित करने के अतिरिक्‍त कोई चारा नही रह गया ।

यह पर आदिष्‍ट, अपनी बुद्धि और विवेक को समर्पित अपने को प्रगतिशील मानता था, और जो उससे सहमत न हो, उसे प्रतिगामी आदि विशेषणो से लांक्षित कर देता था ।। अपने वैचारिक समर्पण को गौरवशाली बनाने के लिए यह अपने को प्रतिबद्ध और अपने लेखन को प्रतिबद्ध लेखन करार देता था । बंधुआ बौद्धिकों की, जिन्‍हें अपनी बुद्धि से भी परहेज हो, कोई काम सुविचारित नहीं हो सकता, यह स्‍वत: सिद्ध है । इतिहास ने इसके नमूने असंख्‍य रूपों में दिए हैंं ।

अभिव्‍यक्ति शैली और कार्यशैली में यह उजडड जत्‍था कितनी चीजों का संहार कर चुका है, इस‍की गणना कराने चलें तो समय का अपव्‍यय होगा । पर, यह बताए बिना काम नहीं चल सकता कि इसने अपने इतिहास और संस्‍कृति का योजनाबद्ध रूप में विनाश कर डाला और उसे अपनी उपलब्धि गिनाता रहा । । इस सचाइयों के प्रति हम असावधान ही नहीं बने रहे अपितु इस कार्य में स्‍वयं सम्मिलित होने को अपने लिए गर्व का विषय मानते रहे। हममें से अधिकांश को किसी न किसी समय पर अपने निर्णय करने पड़े हैं और मुझे भी यह निर्णय करना पड़ा ।

यहसंगठन ने देशविभाजन के लीगी योजना का हिस्‍सा ही नहीं बना, अपितु इसने लीग के कार्यक्रमों को सदा के लिए अपना बना लिया । यह स्‍वीकार करने के बाद भी कि वह इसकी भूल थी, उस भूल को ही अपनी कार्यनीति बना कर उस पर अमल करता रहा । जैसे अपराधी अपना चरित्र छिपाने के लिए अपना अच्‍छा सा नाम रख लेते हैं, उसी तरह इसने लीग की कार्ययोजना को स्‍वायत्‍त करने के बाद उसे सेक्‍युलरिज्‍म नाम दे लिया, जिसकी भारतीय परिदृश्‍य में उपस्थिति को इतिहास में लौट कर ही समझा जा सकता है ।

आपको जिन्‍ना के उस भाषण या भाषणों को दुबारा पढ़ना होगा जो उन्‍होंने सभी मान्‍य आदर्शो और व्‍यावहारिकता की कठिनाइयों को नजर अन्‍दाज करते हुए सिद्ध किया था कि हम दो धर्मों के लोग नहीं हैं, दो राष्‍ट्र हैं और हमारा सब कुछ अलग ही नहीं है बल्कि हिन्‍दुओं से ठीक उल्‍टा है। हम एक दूसरे से के इतिहास से, एक दूसरे के नायकों से नफरत करते हैं। हम एक साथ रह ही नहीं सकते, इसलिए पाकिस्‍तान का बनाया जाना एकमात्र उपाय हैा

अब आप देखें तो जिन्‍ना ने जो कहा था उसे वाम ने सेक्‍युलरिज्‍म के नाम की आड़ में पूरा किया और आज भी हिन्‍दू संस्‍कृति, विश्‍वास, और रीतियों पर लगातार अपमानजनक ढंग से प्रहार किए ही नहीं जाते रहे हैं, इन्‍हें पाठ्यक्रमों में डाल कर सामान्‍य चेतना और विश्‍वास का हिस्‍सा बनाया जाता रहा है। इसके विपरीत मुस्लिम या ईसाई समाज की गर्हित, नारीद्रोही रीतियों पर इस सेक्‍युनरिज्‍म में सुहानुभूति या समर्थन का एक सुझाव या उस पीड़ा का किसी कृति में चित्रण तक नहीं मिलता। हिन्‍दू संगठनों के प्रति इसमें बिना सटीक कारण या प्रमाण दिए इतनी घृणा का प्रसार किया गया कि उनका नाम आते ही घृणा का वह ज्‍वार उभर कर चेतना को इतना विकृत कर देता है कि उसके सद्प्रयास भी दु़ष्‍प्रयास या योजनाबद्ध षड्यन्‍त्र दिखाई देता है। अपनी शिक्षा पर आत्‍मस्‍फीति का हाल यह कि यह अपने अज्ञान को भी ज्ञान से श्रेष्‍ठतर मानता है। भारतीय परंपरा, इतिहास, संस्‍कृति से अनभिज्ञ रह गया तो तेजस्विता बढ़ गई। इस अनभिज्ञता के कारण वह अपने समाज को भी नहीं समझ सकता, क्‍योंकि सारा समाज उन्‍हीं पुरातन दायों को अपनी पूंजी मान कर जीता और व्‍यवहार करता है।

समाज को न समझने के बाद भी यह इस विषय में दृढ़ संकल्‍प है कि वह इसे बदल कर दम लेगा। समाज से नासमझ होते हुए भी यह अधिकार और जिम्‍मेदारी अपने ऊपर लेता ही नहीं है, इस पर सामरिक तैयारी के साथ प्रहार करता है। इस दुराग्रह के कारण कई मेधावी प्रतिभाओं को अपने प्राण गंवाने पड़े जो अत्‍यन्‍त दुर्भाग्‍यपूर्ण है, परन्‍तु इससे भी अधिक दुर्भाग्‍यपूर्ण है, इन मौतों के अपराधियों की ओर से ध्‍यान हटा कर एक ऐसे दल के सिर इस अभियोग को मढ़ने का प्रयत्‍न और इसको पश्चिमी ऐशिया के अनुरुप अराजक बना कर उन रहस्‍यमय शक्तियों के हस्‍तक्षेप की परिस्थितियां तैयार करना ।

अपने से,और साथ ही अपने समाज से विमुख कोई व्‍यक्ति या व्‍यक्तियों का समूह ही ऐसी जघन्‍य योजनाओं का अंग बन सकता है जिसकाे तोड़ना उसके घोषित लक्ष्‍यों का रूप ले ले, जिसकी एकता के लिए आदि काल से ही सतत प्रयत्‍न होते रहे हैं।

वे अपने इतिहास को नहीं जानते । आपने अपना इतिहास ज्ञान उन्‍हीं के द्वारा नष्‍ट और विकृत की गई इतिहास की पोथियों से अर्जित किया है जिसमें आर्यों का एक सभ्‍यताद्रोही जत्‍था भारत में प्रवेश करता है, इसकी नगर सभ्‍यता को नष्‍ट करता है, कुछ पीढियों के लिए उन्‍हीं जीते हुए नगरों पर पुराने नागरिकों की शैली में जीता है और फिर उसे चरवाही सवार हो जाती है। उन नगरों को लूटता, पुराने संपन्‍न जनों के घोड़-गोरू चुराता, उनकी हत्‍या करता, स्वस्तिपाट और शान्तिपाठ करता रहता है।

आप अपने भाषाविज्ञान को नहीं जानते, संस्‍कृत के वे आचार्य जिन्‍होंने पाणिनि को कंठस्‍थ कर रखा है, संस्‍कृत की प्रकृति, विकास और इसमें साहित्‍य सृजन के प्रयोगों को नहीं जानते। आप अपनी पुराणकथाओं के मर्म को नहीं जानते और इस चतुर्दिक व्‍यापी अज्ञान के बीच जिस किशाेरसुलभ आत्‍मविश्‍वास से दहाड़ते हुए, हल्‍ला बोलते हुए सोचते और गर्व से अभिभूत हो कर दर्प प्रकाशन करते हैं उससे मुझे लज्‍जा अनुभव होती है, साथ ही ग्‍लानि भी होती है कि मैंने स्‍वय अपना काम उस अकादमिक श्रेष्‍ठता का निर्वाह करते हुए नहीं किया।

इसलिए मैं हड्प्‍पा के समय से तीन गुने समय पीछे ले जा कर भारतीय इतिहास,और समाजरचना,रचना को और साथ ही इसकी मूल्यप्रणाली को समझने का प्रयत्‍न करूंगा और फिर हमारे साहित्‍य में, यह जितनी कलात्‍मक भंगियां लेते हुए प्रवाहित हुआ है उसकी चर्चा करेंगे और चर्चा करेंगे उस माधुर्य और क्षेत्र भाषा की सीमाओं को तोड़ता प्रवहमान रहा है और किस तरह उसमें उन विघातक तत्‍वों का समावेश हुआ कि पुराने प्रेम ने द्वेष का रूप ले लिया।

हमारी समाज रचना, इतिहास और संस्‍कृति की जड़ें विगत हिमयुग तक जाती हैं जब उत्‍तर से असंंख्‍य जनसमुदाय दक्षिण की दिशा में,पलायन करने और भारतीय भूभाग में शरण लेने को बाध्‍य हुए थे। नाममात्र की बरसात औ इतने भारी दबाव के चलते बचे रह गए खाद्यसंसाधनों की कमी के चलते जो भीषण नरसंहार हुआ, उसकी कहानियां प्रतीकात्‍मक रूप में कपालकंडला, रक्त से भरे खप्‍पर पीने वाली काली का जो स्‍थानीय प्रतीत होता है और कपाली, मानुषघ्‍न, रुद्र की प्रतीकात्‍मकता में देखा जा सकता है। इन जनों ने संस्‍कृति के अनेकानेक घटकों और कौशलों के विकास में, हमारी पुराकथाओं और देवकथाओं के विकास में अपनी भूमिका निभाई जिससे राहत का दौर या ऊष्‍म काल आने के बाद खेती का विकास हुआ और उसका विरोध करने वालों से बार बार टकराव हुआ। हालत यह कि कृषिकर्मी इधर उधर चारों ओर पलायन करते रहे। इन्‍हीं पलायन करने वालों ने पश्चिम एशिया में पहुंच कर स्‍थानीय धान्‍यों का संग्रह और उत्‍पादन आरंभ किया। हमारी शान्ति की वह कामना टकराव और विनाश के असंख्‍य अनुभवों का सार तत्‍व है।

साहित्‍य रचना भी उस प्राथमिक चरण पर ही आरंभ हो गई थी और इसका उत्‍तराधिकार वैदिक कवियों और बाद के कथाकारों और चिन्‍तकों को मिला।

वैदिक काल का साहित्‍य उस कोटि का है जिसे हम साधुओं सन्‍तों की भाषा में और अलंकार विधान में पाते हैं।

मोटे तौर पर समस्‍त भारतीय साहित्‍य उन कल्‍पनाओं, युक्तियों और छन्‍दयाेजना का दाय प्राप्‍त हुआ और यह हमारे साहित्‍य का प्राण है। यह मध्‍यकाल तक अबाध प्रवाहित होता रहा। भाषाओं की सीमाओं को पार करके, वही भावधारा एक सिरं से दूसरे सिरे से प्रवाहित होता रहा जिसे पहली बार अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई मूल्‍यों के दबाव ने नष्‍ट कर दिया, उस दिशा से अरुचि पैदा कर दी, हम विश्‍व की सबसे समृद्ध साहित्यिक परंपरा के स्‍वाभी अकिंचनों में बदल और आंख मूंद कर वैसे विचार, संस्‍कार, और आत्‍मघृणा तक का आयात करने लगे और बौद्धिक रूप में दिशाहारा या दिग्‍भ्रति और स्‍मृतिलोप के शिकार बनते चले गए। हमारे पास अपना कोई विचार नहीं है, कुछ भी ऐसा नहीं जिसे ले कर हम विश्‍व समाज के सम्‍मुख स्‍वाभिमान के साथ खड़े हो सकें।

हालत यह कि हम उन शब्‍दों का अर्थ तक नहीं जानते जिनका प्रयोग आए दिन करते हैं। यह आयोजन नेशनल इंटीग्रेशन के उद्देश्‍य से किया गया है। दोष आयोजकों का नहीं, सभी इसका धड़ल्‍ले से प्रयोग कर रहे हैं। अब आप साेचिए कि इंटीग्रेशन का अर्थ क्‍या होता है। जो अपनी स्‍वायत्‍ता बनाए हुए हैं, जिनके कारण हम बहुलता में एकता आदि की बात करते हैं उन सभी विचारों और मूल्‍यों को कूट पाीस कर, एक आदर्श के अनुरूप ढालना। इसे आप धर्मान्‍तरण की अनिवार्य शर्त मान सकते हैं और वह भी ऐसा जिसमें इस बात की अपेक्षा की जाती है कि यदि कहीं भी कोई कमी रह गई है तो आत्‍मनिरीक्षण हमारी कसौटी पर पूरे उतरो। यह एक तबलीगी मुहिम है जिसे आपातकाल के बाद इतिहास, समाजविज्ञान और साहित्‍य की सभी पुस्‍तकों का लेखन का आधिकार राज्‍यों से छीन कर केन्‍द्र द्वारा, एनसीईआरटी के माध्‍यम से ले लिया गया और जो पोथियां लिखवाई गई वे केवल प्राचीन इतिहास, हिन्‍दू मूल्‍यों आदि का विरूपण था जिसके परिणाम अच्‍छे नहीं रहे और उसी के विरोध से वह चिनगारी पैदा हुई जो तेजी से बढ़ते हुए अखिल भारतीय वर्चस्‍व का दल बन गया। इससे होने वाले सांस्‍कृतिक प्रदूषण पर चर्चा का यहां समय नहीं है।

अन्‍तत: हम यह दिखाना चाहते हैं कि राष्‍ट्रीय एकजुटता के लिए हमने जो प्रयास किस वे ढोग थे और य‍ह ढोंग अपने को उदार हिन्‍दू कहने वालों ने किए जिनमें गाधी जी तक का नाम आता है। अल्‍ला ईश्‍वर तेरे नाम, यह हिन्‍दू गाना या हिन्‍दू ढोंग है क्‍योंकि कोई मुसलमान किसी और को अल्‍लाह की बराबरी पर नहीं रख सकता। यह उस कलमे की भावना से अनमेल है जिसमें ला इलाह इन अल्‍लाह का सिद्धान्‍त है। यह मुसलमानों के लिए अपमानजनक है। इसी से क्षुब्‍ध हो कर मोहम्‍मद अली ने जो गांध्‍ाी जी के घुटने चूमते थे, कांगेस के भरे मंच से कहा था कि गिरा से गिरा मुसलमान गांधी से अच्‍छा है। दूसरे क्षुब्‍ध हुए तो गांधी जी ने उन्‍हें चुप करा दिया, परन्‍तु अच्‍छा होता कि आगे से उन्‍होंने इस धुन का भी त्‍याग कर दिया होता और वैष्‍णवजन ते तेणे कहिए तक सीमित कर लिया होता।

ठीक इसी तरह एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति एक मुसलमान के लिए अपमान जनक है क्‍योंकि इस्‍लाम जिन्‍होंने कबूल नहीं किया वे जाहिलिया की अवस्‍था में जी रहे हैं। केवल इस्‍लाम ही है, जो अल्‍ला से सीधा रिश्‍ता रखता है।

मैं यह जोर देकर कहना चाहता हूं कि इस्‍लाम मानने वाले अपने लिए जो सही मानते हैं उस पर आपत्ति करने या अपने आदर्श थोपने का अधिकार हमने राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन के जोम में ले लिया वह गलत था। पारसी, यहूदी सभी इस देश में अपने विश्‍वास और विचार के साथ जीवित रहे हा और राष्‍ट्रीय एकजुटता नहीं सौमनस्‍यता के विकास के लिए हमें उसमें बाधा डालने का तो अधिकार है नहीं, सरकार को जहां उसकी कोई बुराई दंडनीय अपराध प्रतीत हो वहीं हस्‍तक्षेप करना चाहिए ।

मुझे हिन्‍दू मुसलिम एकता नहीं चाहिए, हिन्‍दुओं और मुसलमानों में सहयोग और स‍हभागिता चाहिए जो आर्थिक हितों की समानता होने पर सहज स्‍थापित हो जाती है। मेरे जितने निकट के मित्र हिन्‍दू हैं उससे कम मुसलमान नहीं हैं। हम अपनी सीमाओं की स्‍पायत्‍तता और सामान्‍य सरोकारों में एकजुटता का परिचय दे चुके हैं और मैंने मुस्लिम मित्रों के सहयोग से उन मुस्लिम गुट काे सत्‍ता से बाहर किया है और दोनों मेरा सम्‍मान करते हैं। अहस्‍तक्षेप हमारी नीति होनी चाहिए एक नागरिक के रूप में उनकी धार्मिक स्‍वायत्‍तता के हित में।

मैं राजनीतिक दलों और साम्‍प्रदायिक संगठनों से परहेज रखता हूं और वर्तमान सरकार की संस्‍कृति और इतिहास से जुड़ी अधकचरी समझ को संस्‍कृति के लिए दुर्भाग्‍यपूर्ण मानता हूं परन्‍तु पूरे भारतीय समुदाय को आत्‍मीयता के तार में बांधने का जो प्रयोग नरेन्‍द्र भाई मोदी ने किया उसे लंबे समय से चली आरही बदहवासी का एकमात्र इलाज मानता हूं।

Post – 2016-11-15

” तुम उस दिन नमक की काला बाजारी और उसकी आड़ में हंगामा मचाने के समाचार के सन्दर्भ मेे टाटा का नाम लिया तो कहीं इनमें संबन्ध तो नहीं तलाश रहे थे ?”
यदि तुम्हें ऐसा लगा तो मुझे अपनी बात कहने मे में चूक हुई । पर चूक का भी अपना मनोविज्ञान होता है । टाटा के लिए मेरे मन में बहुत गहरा सम्मान है । पूरे टाटा परिवार के लिए । जितनी महान सेवा इस देश की टाटा परिवार ने की है जतने जितने समर्पित भाव से उन्होंने स्वयं सन्तों सी सादगी से जीते हुए देश के आर्थिक उत्थान के सपने देखे और उन्हें पूरा करने के लिए काम करते रहे, वह अनन्य रहा है। भारत पर और भारतीयता पर जितना गहन अभिमान उस परिवार को रहा है,, उतना कितनों को होगा ? वे भारत के पहले उद्योगपति हैं, पहले माडर्न उद्योगपति हैं जिन्होंने सोचा कि उनके मजदूरों को भी स्वस्थ वातावरण, शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य की सुविधा और मानवीय गरिमा से जीने का अधिकार है ।कालानियों में अपने अधिकारियों और कर्मचारियों को देंगे। अंग्रेज अपनी कालोनियों और छावनियों में जिनमें सिर्फ अंग्रेज अधिकारी रहते थे जैसी इस्तियां बसाते थेए उनका अनकहा संकल्‍प क़्ति बन कर बाहर आया कि हम उससे भी सुन्‍दर आंर सुव्‍यवस्थित । उनके हर काम में हम हैं हिन्‍दुस्‍तानी का गर्व रहा है।

जिन दिनों यूनियनें खड़ी करना, हड़ताल कराना और उन्हीं मजदूरों से तोड़ फोड़ कर अपनी पार्टी की ताकत बढ़ाना निठल्ले कम्युनिस्टों का शौक हुआ करता उन दिनों भी किसी की हिम्मत नहीं हुई होगी कि किसी टाटा कंपनी में यूनियन बनाने ल का प्रस्ताव तक रखने में सफलता पाई हो । मैंने गोरखपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस और कलकत्ता शहर ही तब तक देखे थे । पहली बार जब जमशेदपुर देखा तो चकित । स्मार्ट सिटी की पूरी परिकलपना साकार ।

फिर भी जब कहा िक चूक का भी अपना मनोविज्ञान होता है तो इसिलए कि जब टाटा ने भी एक आयोजन में ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ मंच से असुरक्षा की भावना की बात की तो मैं घबरा गया । यह एकमात्र बयान था जो कहीं कुछ हो रहा है जो टाटा को अशोभन लग रहा है और इसमें प्रधान मंन्त्री की भूिमका भी लगती है ।

दो दिन बाद मिस्त्री की बरखास्तगी का एक पूरा नाटक िजसमें गुण-दोष का निर्णय करना मेरी समझ से बाहर हैं । समझ में इतना ही आसकता है कि मिस्त्री ने प्रधान मंत्री से समय मागा था । वह मिल भी चुके थे । उनके बाद टाटा ने अपना पक्ष रखने के लिए समय मांगा । तब तक प्रधानमंत्री विदेश यात्रा के लिए तैयार थे । उसी बीच राडिया टेप की बात भी आई थी।

ये ज्ञान और व्यवहार के ऐसे स्तरों की बातें हैं जिनकी गहराई से हम परिचित नहीं हैं, पर मन पर यह असर था कि यदि खीझ में टाटा भी नमक की आपूर्ति में थोड़ी सी शिथिलता बरत दी हो तो ? पर विचार के साथ ही इसका उससे अधिक जोर दार तमाचे की तरह लगा था, टाटा जैसा देशाभिमानी देश की जनता के साथ ऐसी गर्हित चाल नहीं चल सकता ।

वादी ने हार नहीं मानी, कहा वह तो सही है पर किसी वस्तु के पणन, प्रसाधन और वितरण के एकाधिकार की नीति सही नहीं है । इससे प्रतिस्पर्धा में कमी आती है, मुनाफाखोरी को बढ़ावा मिलता है और किन्ही स्थितियों में उसके न चाहते भी उसके वितरकों में से कोई वह शरारत कर सकता है जो इस बार किसी ने कर दिखाया था ।

जहां तक साख का प्रश्‍न है, मैं टाटा को मोदी से एक जौ उूपर मानता हूं, राजा के बारे में पहले भी कहा जाता रहा है कि राजकुल पर वियवास नहीं किया जाना चाहिए। बनिया सब कुछ छाव पर लगा देगा, साख को नहीं। वह बची रही तो वह लुट कर भी कंगाल नहीं होगा। पर जिस मत्‍स्यन्‍याय की समस्‍याओं ने राजसंत्‍ता को जन्‍म दिया था वह गलाकाट प्रतिस्‍पर्धा भी आ‍थिक सामाज्‍य स्‍थापित करने वालों के बीच ही होती है 1 ओर एक बात और व्‍यापारी का हथियार तलवार नहींं हेरा फंरी है जिसक कारण सत्‍यानृते वाणिज्‍यम् । राजकीय हस्‍तक्षेप की स्थितियां आती हैं ।

वह हंसने लगा, ” पर इस देश की जनता के लिए क्या कहोगे ?”

बात अपने देश या पराए देश की नहीं है । मानव दुर्वलता की है । वह चाहता है कि अच्‍छी चीज उसे ही मिले, जिस भी जुगत से मिले। यदि किसी चीज की कमी होने वाली है ताे दूसरे सभी को होजाय मुझे न हो । यदि कोइ खतरा दिखाई देता हो तो वह बच जाय दूसाों का जो होना हो सो हो । आपूर्ति में कमी या विलंब की नौबत आने पर जरूरत न होते भी उसे जरूर लेना हैए कल तो मिलनी नहीं । लोग बिना जरूरत जमाखोरी पर आ जाते हैं और सारी चीजें बाजार से गायब हो जाती है और अकाल आरंभ हो जाता है । अब रसद के लूटपाट का आलम यह कि वह पुलिस की संभाल से बाहर चला जाता है ।

तुम्हें एक किस्सा सुनाता हूं । चीन की क्रांति हुई थी तब िवश्व मंदी के दौर से गुजर रहा था । नई व्यवस्था किसी को शासन का तजुर्बा न था । हर चीज का अभाव और हर चीज के लिए लम्बी क्यू । लोग यह जाने बिना कि जो चीज मिल रही है उसकी उन्हें जरूरत है या नहीं, क्यू मेंलग जाते ।

ऐसे ही में एक आदमी क्यूलगी देख कर खुश हो गया । चलो कुछ मिल तो रहा है । तीन चार घंटे बाद उसका नम्बर आया । खिड़की के परे बैठे क्लर्क ने पूछा, साइज ?

उसकी समझ में नहीं आया इसका क्या जवाब दे । उसकी परेशानी भांप कर क्लर्क ने कहा, यहां ताबूत बनाने के नम्बर िलखे चा रहें हैं । आप के मुर्दे का साइज कया है । उसकी पहली प्रतिक्रिया लौट चलने की हुई पर जब याद आया कि जरूरत पड़ने पर दुबारा इतनी लंबी क्यू में लगना होगा, उसने अपना साइज दे कर कर ताबूत बुक करा दी ।

हां तुम्‍हारी बात भी ठीक है । हमारे यहां य‍ह चरम पर है।लोग अनुपात का ध्‍यान नहीं रखते, जुटान को भीड़ बना देते हैं, और तनिक सी सुगबुगाहट होते ही भीड़ भगदड़ में बइल जाती है अनगिनत लोग मक्खियों की तारह कुचल कर मारे जाते हैं। यह अक्‍सर होता है, धर्मयात्राओं में, देवदर्शन में, राजनीतिक भीडृ मे, जो इस बात को रेखांकित करता है कि भारतीय समाज मरना जानता है, जीना नहीं जानता, जिसके लिए सलीकेे और आत्‍मसंयम की आवश्‍यकता होती है। इतनी भारी कीमत दंकर कुछ सीख कर नहीं देते। फिरभी ऐसे लोग हैं जो यह मान कर नहीं देते कि भारत देश महान है।