हम सच के साथ ही हैं मगर तब तलक नदीम
जब तक तुम्हारे हुस्न का चर्चा नहीं होता
गर एक बार छिड़ गया तो कुछ न पूछिए
लोगों से पूछ लीजिए फिर क्या नहीं होता।
Month: May 2017
Post – 2017-05-24
आदमी लगने के लिए जैव नियम ही काफी हैं, आदमी बनने के लिए तपस्या करनी होती है। आदमशक्लों के बीच आदमी इतने दुर्लभ हैं, कि हम अपने समाज को आदमशक्लों का समाज तो कह सकते हैं, पर आदिमियों का समाज नहीं कह सकते। आदमशक्लों में कुछ जानवर हैं, कुछ देवता, आदमी कहां बच रहा है इसका अनुसंधान करने की जरूरत है। पसीना आग बन कर रोशनी देता है दुनिया को। अगर जाना नहीं इसको तो अब भी वक्त है यारो।
Post – 2017-05-24
कुछ दिन चलेगी सिर्फ छेड़छाड़ ऐ नदीम
लिखा है उसको पढ़के समझने चले हैं हम।
Post – 2017-05-23
कोई पूछे पता मेरा तो ऐ कासिद बता देना
निकाले हैं गए दिल्ली से गार्डेनिया में रहते हैं ।
कहा गैरों ने जो कुछ उसमें भी कुछ सच मिलेगा ही
मगर हम आप मे बसते हैं और आपे मे रहते हैं ।
Post – 2017-05-23
वह पत्थर जब हिला तो देखिए क्या शोर बरपा था
मगर सदमे में थे हम, हममें जुम्बिश तक नहीं बाकी ।
कहेंगे कुछ, करेंगे कुछ, बहुत कुछ सह लिया हमने
जबां तक खोलने की अपनी ख्वाहिश तक नहीं बाकी।
Post – 2017-05-22
देववाणी (उनतालीस)
शब्दनिर्माण की प्रक्रिया
कल – पत्थर;
स्वर भेद और निपात के योग से:
कल – बटिका, पत्थर;
कल् त.- रोड़ी, रोड़ा, बटिका
लातिन कैलकुलस रोड़ा, बटिका; (Calculus : from Latin calculus, literally “small pebble used for counting on an abacus” यूरोपीय परिदृश्य में यह बोध नदारद है कि इसका सचमुच कल या रोड़ी रोड़े से कोई संबन्ध है और लुप्त है यह बोध भी कि जहां से गिनती का यह तरीका अपनाया गया वहां कल या रोड़ी का कलन या गिनती के लिए प्रयोग में लाया जाता रहा। बाद में अनाज के दानों, खास करके मटर या गुंजा के दानों का प्रयोग किया जाता रहा जिसका ही प्रत्यंकन शलाका गणित में हुआ और फिर अक्षमाल और मनके का नामजप आदि के लिए प्रचलन में आया। अंग्रेजी में इसे अक्षरो के क्रम के अनुसार ऐबेकस अथार्थ एबीसी क्रम की संज्ञा दी जिनका गणना से सीधा संबन्ध ही नहीं है) ।
कली – पत्थर का, जैसे कली चूना
कली – सुनिर्मित, जुड़ी हुई, अविकच
कलित – समग्र, गिना हुआ, जोड़ा हुआ, सुन्दर
कलि – कलह ;
कील – नुकीले सिरे वाली;
कीला / किल्ला -खूंटा, सिवान का पत्थर, और इसके सादृश्य पर दरवाजे की किल्ली
व्यंजनभेद से शब्द निर्माण:
कड़-कड़ – मूर्धन्य प्रेमी समुदाय में पत्थर टूटने का अनुनाद > कंकड़,
कड़ा, कड़ाई, भोज. कड़ेर,
खल/खड़ – टूटने की ध्वनि। वह वस्तु अर्थात पत्थर या कंकड़ जिसके तोड़ने से यह ध्वनि पैदा होती है, अर्थात बटिका, क्योंकि कंकड़ न उनके किसी उपयोग का था न उसे तोड़ने की जरूरत थी। आदिम अवस्था में नदी की धार में उपलब्ध बटिकाएं ही तोड़ी जा सकती थीं और उनसे उनकी संज्ञा, पत्थर की संज्ञा।
खल- मार पीट करने वाला, दुष्ट, 2. वह स्थान जहां डां से दाना अलग करने के लिए उसे दांया और पीटा जाता है (ऋ. खले न पर्षान् प्रति हन्मि भूरि) ।
खड़ – *पहाड़ ।
खड़खड़, खड़खड़ाहट – रोड़ पत्थर गिरने की ध्वनि, इससे मिलती जुलती ध्वनि
खड़ा – पर्वत की तरह सीध उठा हुआ, तना हुआ,
खंड – टुकड़ा
खड्ड – भोज. गड़हा, हि. गड्ढा
गड्ड – जोड़ा हुआ, तु- सं- कर्त, अं- कार्ट, ऋ.- गर्त – गाड़ी, और उसके समूह, ढेर, गडर – जानवरों का झुंड, गडरिया – जानवरों को चराने वाला, गड्डी -ढेरी, पुलिन्दा जैसे नोट का
खलु = अवश्य (ऋ. मित्रं कृणुध्वं खलु मृळता नो)
खाल – *ऊपरी पर्त जिसे तराश और छील कर अलग किया जा सके, छाल, 2. चमड़ी 3. गड्ढा, नीची जमीन,
खाली – जिसके भीतर कुछ न हो, टूटने से खाली हुई जगह,
खिल – टूटा हुआ, फॅला हुआ, छितराया हुआ टुकड़ा
खील – भुने हुए धान का लावा खोलना द्वार बनाना, रोक हटाना, खुला अुआ
निपात युक्त:
खंडन – तोड़ना, खनन, खन्दक
खिल्या – कंकरीली जमीन, ऊसर भूमि (उत खिल्या उर्वराणां भवन्ति)
खिलना – फूलना
खल्वाट – छीला हुआ, मुड़ा हुआ सर,
खडाक या खटाक – टूटने की ध्वनि और विशेषता
खड़खड़, खड़खड़ाहट – रोड़ पत्थर गिरने की ध्वनि, इससे मिलती जुलती ध्वनि
खड़िया – घीया पत्थर
खोंढ़र – कोतड़ा, खोल – आवरण,
(फा. खलल – व्यवधान},
कांकर
कंकरीला
कोड़ना / गोड़ना, गड़ा, गड़ा, भोज- गड़हा हिं- गड्ढा, (तु. सं-कर्त – कृत या जोड़ कर बनाया हुआ, अं- कार्ट, गर्त, – गाड़ी
कंड, कांड, कडिका, प्रकांड, खाड,
उपसर्ग आदि के साथरू
अकाल] अतिकाल दुष्काल कालान्तर, कालजयी, कालोचित, त्रिकालदर्शी,
कंड, कांड, कडिका, प्रकांड,
खाड, खंडनीय, अखडित, आखंडलक,
यही स्थिति दावाग्नि के प्रकोप से पैदा कल की आदिम और हमारी अपनी कड़ तड़ की आवाज की है। सच कहें तो इससे भी बुरी। यदि प्रलयाग्नि की अचधारणा चेतना में कहीं काम न कर रही होती, यदि रुद्र के तांडव नृत्य के समय उनके तीसरे नयन के खुलने की छाप न होती तो मैं अग्नि से कल या काल को जोड़ने की सोचता भी नहीं, क्योंकि यह मेरे मूलभूत सिद्धान्त के विपरीत था कि जिस वस्तु और क्रिया से किन्हीं परिस्थितियों में ध्वनि नहीं पैदा होती उन्हें अपनी संज्ञा उन स्रोतों से मिली है जिनसे ध्वनि उत्पन्न होती है और जिनका अवकर्ष, अपकर्ष, उत्कर्ष अर्थ के लिए संबंध, सायुज्य, सादृश्य, विरोध आदि के नियमों से किया जाता है।
हम विस्तार से बचने और यह याद दिलाने के लिए कि इतना अवश्य कहना चाहेंगे कि दावानल से उत्पन्न ध्वनियां जो तड़तड़ाहट जो हमारी उुपरी व्याख्या के अनुसार कड़कड़ाहट से ले कर गड़गड़ाहट केा छेंक कर फैली हुई है, उनकी ओर हमारा ध्यान ही न जाता। ऐसी घटनाएं कम घटित होती थीं, और वे मनीषियों के विचार का हिस्सा बन कर रह जाती थीं । फिर भी दावाग्नि के अनुभव से विचार क्षेत्र में आए उन विश्वासों के कार्यकारण संबंध को समझने का तो हम प्रयत्न कर ही सकते थे। मुझे ऐसा कोई अध्ययन देखने में न आया। प्रयत्न तक नहीं। इससे निराशा पैदा होती है और अपराधी की तलाश करने की प्रबल इच्छा होती है और जब पता चलता है कि इसके लिए हमारी औपनिवेशिक मानसिकता उत्तरदायी है तो अपराधियों की बिरादरी में अपने को भी पाता हूं ।
यहां हम यही निवेदन कर सकते हैं कि काल, काला, काली, कलंक के विषय में तो हम निश्चिन्त हो सकते हैं कि इनका संबन्ध दावाग्नि से है।
जिस बात को आप तक पहुंचाने के लिए इतनी कवायद की उसके विषय में मैं स्वयं निःशंक नहीं हूं। वह है देववाणी से संस्कृत के यान्त्रिक चरण तक के विकास की अवस्थाएं, जिन्हे मैं एक प्रस्ताव के रूप में रख सकता हूं, स्थापना के रूप में नहीं। वह यह है कि देववाणी अर्थभेद के लिए स्वरभेद का सहारा लेती थी, दूसरे समूहों के साथ मिलन के दौर में उसने उनकी ध्वनियों को अपनाया और उनमें यह सोच कर कि यह भाषा किस क्षेत्र की बोली के उत्कर्ष से पैदा हुई है और हमें इसके जाल में फंसना है या जो इससे हट गए हैं उन्हें कोसना और खारिज करना है मुझे सारी दुनिया के भाषाविज्ञानियों में अकेले राम विलास शर्मा दिखाई देते हैं परन्तु मैं कि उनसे पूरी तरह संतुष्ट नहीं अनुभव करता।
प्रस्ताव मात्र यह है कि देववाणी या आदिम चरण की बोलियां श्रुत ध्वनि में स्वरभेद और बालाघात के माध्यम् से अर्थभेद करती थी और उनका शबद निर्माण उनकी ध्वनिव्यवस्था तक सीमित था। आवश्यमताएं सीमित थीं इसलिए इनसे उनका काम चल जाता था। बाद में दूसरे भाषाभाषियों के संपर्क में आने के बाद उनकी ध्वनिमाला का भी प्रवेश हुआ और उदनके द्वारा इनके अपने या उनके निजी शब्दों को ग्रहण मरने में एक ही अर्थ के श्वनिभेद युक्त शब्द उपस्थिति थे। आगे उन्होंने निपात या अक्षर जोड़ कर अन्तर्वर्ती चरण की एक समृद्धतर भाषा का निर्माण किया और इस या.ा के अन्तिम चरण पर एक तो कौरवी प्रभाव में असवर्ण सुयोग जहां अपेक्षित नहीं था वहां पैदा करके योग करने की प्रवृत्ति बढ़ी और फिद उन्नत चरण के लिए अशिक्षितों के बोधवृत्त से बाहर की दार्शनिक या विशिष्ट शब्दावली जिसे हम जार्गन या तकनीकी शब्दावली कहते हैं, उसकी पूर्ति के निए भाषाई इंजीनियरी का और सही अर्थों सें संस्कूतीकरण की प्रकिया आरंभ हुई। जैसा हम देख आए हैं, यह विकास भारतीय भूभाग में हुआ था। अपने उन्नत चरण पर पहुंच जाने पर किसी बहुत सुव्यवस्थिति और अपने हित में स्वीकार की गई भाषा का वहां के संभ्रान्त जनों का प्रभव बझ़ा है।
Post – 2017-05-21
बहुत दिन बाद देखा तुझको हँसते
बहुत दिन बाद रोना याद आया
हुई मुद्दत कि भूले खुद को थे अब
तेरे होने से होना याद आया
Post – 2017-05-21
देववाणी (अड़तीस)
शब्दनिर्माण की प्रक्रिया (2)
( कल जो कुछ लिख रहा था उसका एक हिस्सा उड़ गया इसलिए बचे हुए अंश को खंडित रूप में पेश किया उसका अगला अंश दुबारा लिखा है जिसे उसी क्रम में पढ़ना ठीक रहेगा।)
(२) व्यंजन भेद से:
यह मुख्य रूप से घोषप्रेमी और महाप्राण प्रेमा समुदायों के मिलने के क्रम में उन्ही अघोष अल्पप्राण ध्वनियों में आए अन्तर का परिणाम है, अलग अलग मामलों में इसे उलट या बदल कर भी पढ़ा और समझा जा सकता है। संस्कृतीकरण या कौरवी प्रभाव में स्वरलोप अथवा अन्तस्थ (य,व,र,ल) और सकार के योग का परिणाम है । इसके करिणाम स्वरूप कल खल, स्खल, गल, घल में बदलते हुए नये विचारों, वस्तुओं और क्रियाओं के लिए शब्द तैयार किए गए है , जैसे पानी के आशय में खल जो पानी के उबाल की धवनि खलबली के पहले पद में है । फिर खल का अर्थ हुआ द्रव का बह या रीत जाना, जो (अरबी) खलास कहने से या खाली से प्रकट होता है प्रकट होता है अथवा द्रव या तेल निकल जाने पर खल या खली में दिखाई देता है, और स्खल और स्खलित में गिरने या च्युत होने से प्रकट होता है । गल, ग्ल- ग्लानि, अं. ग्लू, ग्लास, ग्लो, ग्लैड आदि में पहुंचा लगता है, घल, घाल, घुल, घोल, और फिर हल- पानी में चलना, हल्ला, हलचल, हेला – जिसका अर्थ यदि जल के स्रोत से खेल है तो पत्थर और आग के स्रोत से आयक्रमण और तिरस्कार आदि हो जाता है ।
उपसर्ग, प्रत्यय और निपात, विभक्ति के योग से नई संकल्पनाओं (सं +कल्प+ना+ओं) के लिए शब्दावली अगले चरण पर तैयार होनी होनी आरम्भ होती है । संस्कृतीकरण का यह चरण क्षेत्र, समुदाय या बोली से निरपेक्ष है। इसके सूत्र देववाणी में और दूसरी बोलियों में थे परन्तु संस्कृत ने इसे पूर्णता पर पहुंचा दिया । ये सारी युक्तियां कल के तीनों शब्दों के सन्दर्भ में सही हैं। हम सभी के उदाहरण देने की स्थिति में नहीं हैं। सच कहें तो जैसे हमने काल के मामले मे देखा इसकी गति, विनाशलीला और मूर्तीकरण में क्रमश: तीनों की भूमिका है उसी तरह कुछ दूसरी संकल्पनाओं जैसे कलुष, कल्मष, कलंक में जल और आग अर्थ में प्रयुक्त कल का हाथ है।
अब पहले हम इस बात का संकेत मात्र करेंगे कि कल.पानी में वहीं उपसर्ग और प्रत्यय लगने पर ठीक वही अर्थ नहीं रहता जो कल – पत्थर में लगने पर होता है। अतः कल के समनादी तीन अलग शब्द ही नहीं है, उपसर्ग आदि से युक्त समनादी शब्द भी अलग हैं। कहें जिसे हम इस रूप में समझते हैं कि एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, वह एक भ्रम है वास्तव में वे अलग समनादी शब्द होते हैं। उदाहरण के लिए जलर्थक कल में वि उपसर्ग लगने पर जो विकल बनता है वह है पिपासा जनित विकलता, परन्तु पाषाणार्थी कल में वि उपसर्ग लगने से जो विकल बना उसका अर्थ है छांट या तराश कर अलग करना, किसी राशि या संख्या में से कुछ को अलग करना। इसका एक बोध भारतीय वैयाकरणों को रहा है जो कहते रहे हैं कि एक शब्द का केवल एक ही अर्थ होता है, परन्तु हमारे कोशकार इसका सचुचित निर्वाह नहीं कर पाते अतः व्युत्पत्तियों इसके कारण भी अधूरी और लंगड़ी रह जाती हैं।
इसी तरह सभी उपसर्ग सभी शब्दों के साथ नहीं लगते, और कुछ के कारण एक आशय वाले समनादी शब्द में जो परिवर्तन होते हैं, वे दूसरे में नहीं होते। उदाहरण के लिए सं, आ, प्रा, पाषाणी कलन के साथ – संकलन, आकलन, प्राक्कलन – लगेंगे पर जलर्थक कल के साथ नहीं। चकार प्रेमी समुदाय के संपर्क में कलन का चलन बनने और विचलन प्रवाही आशय स्पष्ट होता है क्योंकि जल के प्रवाही आशय में कल का सीधे प्रयोग नहीं मिलता। इसे चल ने विस्थापित कर दिया। परन्तु पाषाणी कल चवर्गीय समुदाय के उच्चारण से प्रभावित नहीं हुआ।
पत्थर और आग के आशय में विकसित शब्दावली पर आज की पोस्ट में विचार करेंगे.
Post – 2017-05-20
देववाणी (अड़तीस)
शब्दनिर्माण की प्रक्रिया (1)
अब हम उस शब्दभंडार पर ध्यान दें जो इन अनुनादी ध्वनियों से पैदा हुए हैं और फिर उनके पीछे कम करनेवाले तर्क को उलटे सिरे से समझें :
कल = जल, स्वरभेद से:
कल = (१. बीता हुआ दिन, २. आने वाला दिन। इसके पीछे संकल्पना बह गए जल और बहकर आने वाले जल की है ।); कलपना = विलाप करना; कलरव= मधुर ध्वनि; कली – अविकच फूल; कल्क – तेल के वर्तन में जमा गाद, उसका अर्थविस्तार — कान की मैल, कोई अन्य गन्दगी; कल्प – १. विधि-विधान, २. ब्रह्मा का एक दिन=४अरब बत्तीस करोड़ मानव वर्ष; ३. *विचार, ४. संकल्प, विकल्प, ५. कल्पना, ६ (क्रिया) कल्पयाति (ऋ. सो अध्वरान् स ऋतून् कल्पयाति = निर्माण करता है; अन्येन मत् प्रमुद: कल्पयस्व = प्रदान करो); कलाय- मटर; काल = प्रवहमान, गुजरने वाला (काल: कलयति ), किल = निश्चय ही, किलोल – अटखेली करना; ऋ. कीलाप = अन्न, रस; कुल = वंश परम्परा; कुलीन = खानदानी; कुल्ला, कुल्ली, तमिल कुडि = पी, हिं. कुंड, सं. कुलीर – जलकर प्राणी विशेष अर्थात केंकडा; कुलबुलाना, कुल्या= कृत्रिम नदी अर्थात नहर; कुलांचना – तरंगित भाव से या उछाल लेते हुए दौड़ना; कूल = तट (कूल का अर्थ भी पानी, तट का अर्थ भी पानी जिसे हिं. तड़ाग, त. तण+नीर – तन्नी = पानी), केलि = कामक्रीड़ा, कौल / कवल = ग्रास; भोज. कउरा – किसी प्राणी के लिए भोजन से पहले निकल कर रखा गया ग्रास = सं. अग्रासन; सं. कौल = कुलीन, श्रेष्ठ.
Post – 2017-05-19
हम भी देखेंगे तेरा जलवा मगर ऐ सैयाद
तुझको बेपर्दा करेंगे और तुझे देखेंगे
हम नहीं जानते दीखेगा दूसरो को क्या
हम तुझे झेलेंगे और तुझको सह कर देखेंगे !