Post – 2017-08-22

टकावादी मार्क्सवाद (११)

‘‘तुमने तो मुझे सचमुच डरा दिया यार, मैं रात में बुरे सपने देखता और नीद टूट जाती, फिर सोता तो वही सपना।’’

‘‘तुम अपनी औकात को कम करके आंक रहे हो। तुम सिर्फ रात में ही नहीं, दिन में भी बुरे सपने ही देखते आ रहे हो। कई साल से केवल बुरे सपने। और मुहावरा तो केवल नींद टूटने का है, तुमने जाग टूटने और फिर फिर जागने की कोशिश में ही पिछले चार साल बिताए हैं क्योंकि यह बीमारी चुनाव से पहले ही आरम्भ हो गई थी। फिर भी रात कुछ ऐसा तो हुआ ही कि तुम्हें खुद भी इसका अहसास हुआ। बताओ, मैं भी तो सुनूँ।’’

“यह ठिठोली का समय नहीं है, समस्या सचमुच गंभीर है। तुम बताओ एक तानाशाह को सबसे अधिक खतरा किससे होता है? बुद्धिजीवियों से ही न, वह अपने आलोचकों को या तो गायब कर देता है या जेल में दाल देता है। सूचना के स्रोतों को अपनी मुट्ठी में कर लेता है और जो झुकने से इनकार करते हैं की उन्हें उत्पीडित करके या तो तबाह कर देता है या झुकने पर मजबूर कर देता है। यह आदमी यही कर रहा है, कहो कर चुका है और तुम फिर भी कहते हो यह लोकतंत्रवादी है। खुली सचाई यह है कि तानाशाही आ चुकी है। हम आपातकालीन परिस्थितियों में आपात काल की घोषणा के बिना ही डाल दिए गए है।

“तुम ठीक कह रहे हो। मैंने पहले ही कहा था कि यदि तानाशाही आई तो मोदी के कारण नहीं आएगी, तुम्हारे कारण आएगी। गौर करो, तानाशाह लोगों के अधिकारों का हनन करते हुए, कानून का उल्लंघन करते हुए, शक्ति का प्रयोग करते हुए ऐसा करता है। इसने किसी नियम का उल्लंघन नहीं किया, उलटे तुम आजादी आजादी चिल्लाते हुए नियमों और मर्यादाओं का उल्लंघन करते रहे। तुम उसे फासिस्ट बताते रहे और फासिस्ट भाषा और हथकंडों का प्रयोग करते रहे और उसने दिखा दिया कि फासिस्ट प्रवृत्तियों को भी जनतान्त्रिक तरीके से विफल किया जा सकता है। तुम्हे याद है उसने minimum government and maximum governance का नारा देते हुए चनाव जीता था और यह उसी का अमली रूप है।

“लोकतंत्रवादी हुआ करे, पर विरोध को कुचल देना, कोई रोक टोक करनेवाला न रह जाना, जो जी में आया करते जाना, यही तो करता है तानाशाह। वही हो रहा है।”

“कुचल देना न कहो, कहो विपक्ष की अपनी करनी से उसका डूबते जाना, बुद्धिजीवियों का अपने अहंकार में, शोर मचाते हुए सन्नाटे का हिस्सा बन जाना, कहो। खैर, प्रक्रिया जो भी हो, शक्ति का एक व्यक्ति में के्द्रित हो जाना मुझे भी डरावना लगता है। तुम लोग मेरी बात पर ध्यान तो देते नहीं, मैंने पहले ही कहा था यदि तानाशाही आई भी तो इसके जिम्मेदार तुम लोग होगे। और आज तो एक और गजब हो गया, तुम्हारा सौ साल पुराना नुस्खा अपने आप फट गया। तुम लोग वोट बैंक की राजनीति के चलते मुसलमानों में हिंदुत्व के प्रति नफ़रत फैला कर उसे उनके वोट से वंचित करते रहे। उसने नफ़रत की दीवार को ढहाते हुए मुस्लिम महिलाओं को सीधे अपने पक्ष में कर लिया और मुस्लिम पुरुषों की आवाज में जो फर्क नजर आया वह यह कि वे जिस आदमी से इतना परहेज करते रहे हैं, वह सचमच सबको साथ लेकर सच्चे दिल से चलना चाहता है। नफ़रत का विस्तार करते हुए अपने को जिलाए रखने का तुम्हारा सबसे कारगर औजार बेकार हो रहा है। शिया समुदाय में उसकी पैठ पहले हो चुकी है.। अब तो कोई नया हथियार तलाशो।

Post – 2017-08-21

खुश हूँ मैं आज की महफ़िल में जानकर यह राज
मुझे नहीं मेरी गर्दन को सभी देखते हैं.

Post – 2017-08-21

टकावादी मार्क्सवाद (१०+)
सेल्फी का मतलब

“यार, तुम यह क्यों न समझते कि मोदी सबको साथ लेकर नहीं चल सकता । सबका वोट बटोरने की कोशिश अवश्य कर सकता हैं। वह एक नंबर का लफ्फाज है, एक नंबर का नाटकबाज, एक नंबर का शातिर और और..” और के आगे क्या कहना था यह उसे भूल गया।

‘यह तुम्हे कब पता चला, यह बता सकते हो?”

“पहले दिन से। सच कहो तो उससे भी पहले से । गुजरात कांड से।”

“कुछ लोगों को उससे भी पहले का इतिहास पता है। वे गोधरा तक और उससे पीछे तक की कहानी जानते है। गोधरा जानने वाले भी इसे तीन तरह से जानते है। ज्ञान की एक शाखा के अनुसार मोदी ने ही गुजरात कराने के लिए गोधरा कराया था । दूसरे के अनुसार जलने वाले जलने का इंतजाम करके निकले थे. तीसरी में गाड़ी जंजीर खींच कर उस जगह रोकी गई थी जहां भीड़ ईंट पत्थर और पेट्रोल के कनस्तर लिए खडी थी और इसके पीछे एक कांग्रेसी नेता था। एक समझ से जब गोधरा कर ही लिया था तो गुजरात की क्या जरूरत थी, दूसरी के अनुसार गुजरात न होता तो गोधरा होता रहता। और एक तीसरी समझ से गोघरा होने के बाद गुजरात को रोका ही नहीं जा सकता था। लगता है तुम भी इसी ख़याल के हो इसलिए गुजरात पहुँच कर गोधरा भूल जाते हो, क्योंकि उसकी याद आते ही अपराधी हाथ से निकल जाएगा। राजनीति करने वाले इतिहास से लुकाठे निकालते हैं और सत्ता के लिए आगजनी तक के लिए तैयार रहते है। जिस इतिहास में तुम ले जाना चाहते हो उसके असल अपराधी भाजपा और मोदी नहीं, कांग्रेसी ठहरते हैं। मोदी ने उसके भीतर से वह रोशनी ली जिसके कारण उसके बाद ग्यारह साल तक गुजरात में शान्ति रही।”

उसने सर पीट लिया, “कमाल है भई। कमाल है। तुम तो यह भी भूल गए कि इसी के कारण अटल जी ने मोदी की भरी सभा में खिंचाई करते हुए राजधर्म के पालन की नसीहत दी थी।”

“भूल तुम जाते हो कि यदि उस समय मोदी से कुछ प्रमाद हुआ भी था तो उसके बाद से उसने लगातार राजधर्म का निर्वाह किया है और संघ के भीतर भी अटल जी की तुलना में अपनी साख अधिक मजबूती से बचाए रखी है। तुम इसके पीछे फरेब देखते हो, मैं इसके पीछे इस व्यक्ति का कौशल देखता हूँ। तुम संदेह छोड़ना नही चाहते, मैं संदेह का कोई कारण नही देखता.”

“मुझमें थोड़ी अक्ल बची रह गई है, तुमने अंध श्रद्धा में उसे खो दिया है।”

“काल्पनिक आरोप और फिक्सेसन का न कोई इलाज है न अंत, िइसलिए मैं कहता हूँ प्रमाणों के आधार पर इस व्यक्ति को समझो.

“यदि तुम यही चाहते हो कि मोदी को हटाया जाय तो भी तुम्हें मोदी को बहुत धैर्य और शान्त मन से समझना होगा । उसे भयानक बताओगे तो डर पैदा होगा। घबराहट बढ़ेगी। डरा और घबराया हुआ आदमी अपनी पैंट गीली कर सकता है, अपने दुश्मन का बाल बांका नहीं कर सकता। तुम जैसा प्रचार करते हो, जैसी प्रतिक्रियाएं करते हो वह मोदी को रास आता है। तुम्हारे भोथरे तीरों से उसे गुदगुदी होती है। सही हथियार के चुनाव के लिए भी, उसे घातक बनाने के लिए भी, शत्रु की बहुत अच्छी समझ होनी चाहिए।”

“यार तुझसे तो अच्छी तरह समझते ही हैं। तू ही आंख बन्द करके ध्यानस्थ हो कर जो सोचता है,उसे देखता है।”

“कहावत है घोड़ को खींच कर पानी तक लाया जा सकता है, पर यदि वह पीने से इन्कार करे तो पानी पिलाया नहीं जा सकता। फिर भी तुम घोड़े नहीं हो, उसके बड़े भाई हो, इसलिए यह बताओ सेल्फी का मतलब जानते हो?”

“सेल्फी का मतलब है आत्मरति। प्रदर्शनप्रियता। वही जो तरह तरह के कपड़े बदलने में दिखाई देती है। पर इसका शौक जानलेवा भी हो सकता है, इसकी खबरें आए दिन अखबारों में आती रहती हैं।” उसका चेहरा गर्व से चमक रहा था।

“तुम्हारी नजर तो सचमुच बड़ी पैनी है , यार। मैं इसकी उम्मीद तुमसे नहीं करता था। लेकिन पैनी आंखों से भी कुछ देखने से रह जाता है।”

वह चौंक उठा, “तुम्हारा मतलब?”

“साहित्यकार होकर भी इसकी प्रतीकात्मकता को नहीं समझ सके। यह मोदी का प्रेस और मीडिया पर पहला सर्जिकल स्ट्राइक था। इसका सार्वजनिक प्रदर्शन करते हुए उसने कहा था,
‘मुझे तुम्हारे कैमरे की जरूरत नहीं। मैं अपना विज्ञापन स्वयं कर सकता हूं। अपनी आवाज जनता तक सीधे, पूरी सचाई के साथ पहुंचा सकता हूं। जिससे तुम्हारे काट छांट से सहम कर ‘प्रसीद देवो प्रसादग्राही’ कहते हुए करबद्ध खड़ा न होना पड़े, न जनधन को अपने चापलूसों पर बर्वाद करके अपनी छवि बचाने की जरूरत पड़े। उसने पूरे प्रचार तन्त्र को दिखाते हुए कहा कि मैं अपनी छवि का निर्माण स्वयं अपने काम और कौशल से कर सकता हूं। यह निरी डींग नहीं थी, यह उसने मन की बात कार्यक्रम से उस अन्तिम आदमी तक सीधे पहुंचने का रास्ता निकाल कर दिखा दिया, जिस तक न अखबार पहुंच सकते न टीवी चैनल।

“अब तुम याद करो, इन्दिरा युग से कल तक चली आई टुकड़खोर पत्रकारिता के चलते कल का छोकरा पत्रकार भी इस परितोषवाद से इतना अघाया हुआ था कि बड़े से बड़े साहित्यकार को अपनी कृपादृष्टि का पात्र समझने और अपने को लोकतन्त्र का सूत्रधार और चौथा खंभा मानने लगा था। इस खंभे को खड़ा रखने, इसका जी खुश रखने पर कितना खर्च आता था, यह मुझसे अधिक तुम्हें पता होगा। उसने पहले ही सर्जिकल स्ट्राइक में इसे जमीन पर ला दिया। उसने अपने प्रचार पर खर्च करने की जगह अपने प्रचार कौशल से पता नहीं कितने हजार करोड़ की कमाई शुरू कर दी। अब तुम देखो, सारे पत्रकार, सारे ऐंकर एक तरफ और मोदी अकेला एक तरफ। तौल कर बताना कौन किस पर भारी है? कौन किससे सीख सकता है? इसमें मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि तुम जोड़ने घटाने में मुझसे आगे हो।”

वह कुछ कहने को हुआ, पर मैं अभी अपनी रौ में था, “और देखो, यह सूझ और प्रयोग भारत के किसी अन्य नेता ने तो इससे पहले किया नहीं, दुनिया के किसी अन्य नेता ने किया हो तो मुझे नाम बताना, क्योंकि तुम्हारा सामान्य ज्ञान भी असामान्य है। हां, अब बताओ बीच में तुम कुछ कहने जा रहे थे।”

“तुम समझते हो प्रेस की आजादी छीन कर उसने कोई अच्छा काम किया है?”

“टुकड़ों पर पलने वाले टुकड़े फेंकने वालों के सेवक होते हैं, आजाद नहीं होते। टुकड़े परोसना बन्द करके उसने पहली बार पत्रकारिता को उसकी आजादी लौटाई है। यह दूसरी बात है कि अखबारों के मालिकों से उसे अपनी आजादी की दूसरी जंग लड़नी है परन्तु पालतू होने की सुविधाओं का आदी हो जाने के कारण इसमें न इसकी इच्छा है, न शक्ति। कल बरखा दत्त बता रही थी कि उसे पहले गुप्त तरीके से ले कर खुले तरीके तक क्या क्या मिलता था और अब कुछ भी नहीं मिलता। उसे आजादी शब्द तक भूल गया हैं, नहीं तो यह तो कहती कि सब कुछ खोकर हमने अपनी आजादी हासिल की है।”

Post – 2017-08-20

टकावादी मार्क्सवाद (१०)

“तुम जब वस्तुपरकता की बात करते हो तो क्या उसी सचाई के उन पहलुओं को देख पाते हो जिन्हें हम देखते हैं?”
“सचाई जैसी कोई चीज नहीं होती. वस्तुए होती हैं, उनकी विशेष स्थितियां होती हैं, और इस स्थिति के कारण उनके बीच सम्बन्ध होते हैं जिन्हें देखने वाले की अपनी भी विशेष स्थिति होती है. इसके कारण एक ही वस्तुस्थिति को कोई दो व्यक्ति एक तरह नहीं देख पाते. जब तुम कहते हो हम लोग देखते हैं तो तुम स्वीकार करते हो कि तुम उसे देख ही नहीं पाते.उसके किसी उपयोगी प्रतीत होने वाले पक्ष को उसकी सचाई मान कर उस पर आरोपित कर लेते हो.

“तुमने ठीक कहा कि तुम लोग जिसे देस्खते हो उसे मैं नहीं देख पाता. सच कहो तो मैं उस योजना से इतना आतंकित हुआ जिसमें इतने अत्याचार और उत्पीडन के मोल पर उनके अपने हिस्से में आए देश के सनसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला अधिकार जताया जा रहा था और इस योजना पर काम भी आरम्भ हो गया था जिस पर अपनी स्थिति के कारण तुम्हारी न तो नज़र गई न ज़बान खुली, कि मुझे इस देश के संसाधनों पर पहला अधिकार हिन्दुओं का है का नारा देते कोई आता तो भी वह अल्पतम बुराई के रूप में स्वीकार था. मेरे लिए सचाई का केवल इतना ही अर्थ है कि जो तुम्हारी जानकारी में है उसे जाहिर करने के खतरे भी हों तो उन्हें स्वीकार करते हुए अपनी बात कहो जिससे दूसरे व्यक्ति को तुम्हारी सीमाओं का ध्यान रखते हुए वस्तुस्थिति को समझने में मदद मिले. जानते हो इसके कारण मैं जो गंवाता हूँ वह उसकी तुलना में नितांत तुच्छ है जो मुझे मिलता है.”

“यही तो सुनना चाहता था तुमसे. जो कुछ लिखते हो उसके बदले में क्या मिलता है और कितना? देखो, अब फिर मुकर न जाना.”

“विश्वसनीयता का साम्राज्य. जिसे तुमने सफलता की होड़ में खो दिया है और इसी का परिणाम है, तुम चीखते हो, मिल कर शोर मचाते हो तो भी तुम्हारी आवाज तुम्हारी कीर्तन मंडली की परिधि को भेद नही पाती. जिस दिन तुम अपनी कमियों को बेझिझक प्रकट करने की इस सादगी को सीख जाओगे, तुम्हारी आवाज जाँच, रोक और दमन के सभी प्रयासों को चीरती हुई सीधे जनता तक पहुँचने लगेगी.

“परन्तु इसका साहस तुममे है क्या? जब पाले इतने साफ़ बंटे है तब क्या कह सकते हो कि तुम उस पाले में हो जिसमें भारत के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्प संख्यकों का माना जाना है?”

“परन्तु तुम तो मानते हो न कि इस देश के संसाधनों पर केवल हिन्दुओं का अधिकार है.”

“मैंने कहा यदि इस तरह के विभाजनकारी विकल्पों के ही बीच चुनाव होता तो अल्पतम बुराई मान कर मैं इसी के साथ होता. संघ में आज भी ऐसे लोग हो सकते हैं जो मन से यही मानते हों. परन्तु उनमें भी किसी ने यह दावा इतनी निर्लज्जता से नहीं किया जितनी निर्लज्जता से पिछले शासन ने किया और फिर इसे अमल में लाते हुए एंटोनी, जोजफ और थामस भरना आरम्भ किया. संघ के सर फिरे भी यही कहते हैं कि यह देश उन सबका है जो इसे अपना मानते है. इसके इतिहास और परम्परा का सम्मान करते हैं. यद्यपि उनका वन्दे मातरम कहना होगा उनकी भीतरी खलबली को जाहिर कर देता है. वन्दे मातरम कहने और कहना होगा में फर्क है. पर इसमें भी जिद और अकड के दो सिरे हैं जिनसे एक दूसरे को बल मिलता है.

“मोदी को व्यक्ति रूप में इसलिए अलग करना पड़ता है कि इस व्यक्ति की महत्वाकांक्षा अपार है और इसी के कारण यह धर्म और जाति और अंचल की उपराष्ट्रीयताओं से ऊपर उठ कर भारतीय राष्ट्रीयता का प्रवर्तक और विश्व फलक पर एक महत्वपूर्ण उपस्थिति बनना चाहता है. उसकी इस आकांक्षा में ही एक सर्वसमावेशी अवसर है. इस व्यक्ति को समझो तभी इससे होने वाले खतरों को समझ पाओगे.”

Post – 2017-08-19

हंसने से पहले सोचो
किस पर हंस रहे हो
हंसने से पहले समझो
क्या सही वक्त है हँसने का
हंसने से पहले पूछो
हुजूर क्या मैं हंस सकता हूँ
अनुमति मिलने के बाद
कोशिश करोगे हंसने की
हंस न पाओगे.
लोग तुम पर हँसेंगे –
इतनी शर्तों के बाद भी
हंस रहा है यह आदमी ?
पता लगाओ
रोबोट तो नहीं !

Post – 2017-08-19

हम हँसेंगे नही
पता करेंगे क्या अब भी दुनिया में हँसी बची है?
हम कोशिश करेंगे
उस पवित्रता को उतारने की
जिसमें गंदगी का यह निशान मिट जाय.
हम कोशिश करेंगे उस निज़ाम की’
जिसमे मोतियों जैसे आंसू ढलेंगे
पर कोई हंसेगा नहीं
हमारे संकल्प में विकल्प के लिए जगह नहीं है

Post – 2017-08-19

अब सोचता नहीं हूँ कि दिल है कि नहीं है
वह दर्द जो होता था कहीं है कि नहीं है
तुम हो जहां खुश हो मुझे इतना ही बताओ
पूछूँगा न दिल था वहाँ, अब है कि नहीं है .

Post – 2017-08-19

मैं खुद भी परेशान हूँ और इतना परेशान
तुम मुझको नज़र आते हो अक्सर जुदा जुदा.
मैं पूछता हूँ तुमसे ‘आप खुश तो हैं जनाब?’
कहते हो तुम कि ‘आपको यह रोग कब हुआ?’

Post – 2017-08-19

“हाँ, अब बताओ उस आसन्न खतरे की बात। हम तो पहले दिन से समझ गए थे कि अब फासिज्म आरहा है और इसे रोकना होगा। तुमने ऐसी उलटी खोपड़ी पाई है कि इसे लोकतंत्र की जीत और नए युग का आरम्भ बता कर लोगों को भ्रमित कर रहे थे। देर से ही सही दिमाग में हमारी बात दाखिल तो हुई।”

“तुम कोई काम सही कर ही नहीं पाते और गलत हो नहीं सकते, इसलिए ला-इलाज हो। पहले ही दिन से फासिज्म का हौआ खडा करके उसका रास्ता तैयार कर रहे थे, फिर भी वह नहीं आया। कोशिश बेकार गई, पर जिद बनी हुई है और खबर यह आ रही है कि अगला चुनाव भी हार चुके हो। जल्दी का काम शैतान का। तुम्हारे साथ तो शैतानों की लश्कर है। बटन दबाते ही एक्शन में आ ज्जाते हैं और उसके बाद सोचते हैं कि कर क्या रहे हैं। पूरी बात जाने-सुने बिना उतावले होकर अपने लिए ही एक डरावने भविष्य की कल्पना कर लेते हो और उसमें जीना भी शुरू कर देते हो। पहले यह तो समझते कि मैं किस खतरे की सम्भावना देखता हूँ और क्यों। लेकिन उससे पहले तुम्हें यह बता दूँ कि आज तक लगातार गलतियाँ करने और उनके परिणाम देखने के बाद भी यदि तुम यह नहीं समझ सके कि तुमसे गलती हो रही है, तो क्या मैं केवल तर्क से तुम्हें कोई बात समझा पाऊंगा?

“मैं आज भी मानता हूँ कि मोदी स्वतन्त्र भारत का सबसे योग्य, दूरदर्शी, परिश्रमी और अपनी कथनी को करनी में बदलने के लिए प्रयत्नशील प्रधानमंत्री है। परन्तु मैं यह भी जानता हूँ कि सत्ता प्राप्त करने के तरीके और सत्ता में बने रहने के हथकंडे नैतिक आदर्शों के अनुरूप वहाँ भी नहीं रह पाते जहां कोई पूरे अन्तःकरण से उनका निर्वाह करना चाहता है। गांधी जी पर भी ऐसी विचलन के आरोप लगते रहे हैं और उन आरोपों को सही मानते हुए भी मेरे मन में गाँधी की महिमा के विषय में कभी संदेह नहीं पैदा हुआ। हम यहाँ इस बहस में न पड़ेंगे कि क्यों।

“मोदी ने आरम्भ से ही अपनी कूटनीतिक दक्षता का परिचय देते हुए अपनी राह अकेले दम पर बनाई है – जातीय समीकरणों को तोड़ते हुए, अपने संगठन के महारथियों को सादर हाशिये पर डालते हुए, न कि किताबी नैतिक आदर्शो का पालन करते हुए। यह एक योग्य प्रशासक का अनिवार्य गुण है। इस दक्षता का प्रमाण उसने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी दिया है। खीझे हुए लोग, हारे हुए या घबराए हुए लोग, मोदी को अपनी दुर्दशा का कारण मान कर उसकी खिल्ली उड़ाते रहते हैं, पर वे उसका मूल्यांकन नहीं कर सकते। केवल उसके दुर्गुणों की तलाश और और काल्पनिक दोषों का अविष्कार कर सकते है। तिल का ताड़ बना सकते हैं। उसकी सफलताओं से उनकी घबराहट बढ़ जाती है, इसलिए उनका प्रयत्न होता है कि सफलताओं पर नजर ही न डालें, यदि किन्हीं परिस्थितियों में उनकी उपेक्षा संभव ही न हो तो सफलता को विफलता के रूप में चित्रित करें। शब्दों के बाजीगर दुर्गुण को सद्गुण और सद्गुण को दुर्गुण सिद्ध कर सकते है। यदि कोई देदाग सफ़ेद हो तो कह सकते है इसका कोई रंग ही नहीं, या कफन जैसा सफ़ेद है, रंग और धब्बे मिल गए तब तो कुछ पूछो मत।

“इसका यह मतलब नही कि मोदी में कमियाँ नहीं तलाशी जा सकतीं। मसखरेपन की लत के कारण वास्तविक कमियों पर ध्यान ही नहीं जाता। जिन कमियों को हम दूसरों के मामले में नजरअंदाज करते रहे है, जिनका बहुत सीमित या नगण्य महत्त्व है या जिनकी प्रकृति नितांत निजी है और जिनसे देश को कोई क्षति नहीं पहुंचती, उनकी उपेक्षा की जानी चाहिए, अन्यथा एक और तो खरी आलोचना करने के हमारे अधिकार का क्षरण होता है, दूसरी ओर जिसकी तुम निन्दा करते हुए जनता की नजर में उसे नीचा दिखाना चाहते हो वही उस व्यक्ति का स्तुति गान बन जाता है ।“

“समझ में नही आई बात।“

“इसके तो असंख्य नमूने मिलेंगे। मोतीलाल, जवाहर, इंदिरा के निजी जीवन की कहानियों से परिचित समाज को उनसे बड़े कौन से किस्से सुना सकते हो मोदी के बारे में? तुम्हारे याद दिलाने पर मन ही मन उनसे तुलना करने पर उनकी अपेक्षा किस ऊचाई पर पाते है मोदी को? तुम सोचते हो जो तुम कहते हो उसे तुम्हारा श्रोता उसी तरह सुनता है। नही, ऐसा नही होता, लोग संपादित करके उसका अक्षर पाठ नही करते, आशय पाठ करते हैं। हमारे एक प्रिय कवि ने बड़ी जोरदार कविता लिखी :

आपके कपड़ों पर बात हुयी
आपके झूठों पर बात हुयी
आपकी अदाओं पर बात हुयी
विदेश यात्राओं पर बात हुयी
आपमें कुछ होता तो
आप पर भी बात होती!

एक आदमी इसका पाठ कर रहा था : ‘आपके कपड़ों में कमी पाई, उस पर चर्चा होती रही, आप के झूठ में कमी पाई गई उस पर चर्चा होती रही गरज कि आप कायदे का झूठ भी नहीं बोल पाते, आपकी अदाओं में कमी तलाशी गई, उन पर मुग्ध होकर निंदक भी मोदी मोदी क्यों गाने लगते हैं, इस पर चर्चा गर्म रही, विदेश यात्राओं में कमी पाई गई पत्रकारों को ले ही नहीं जाते उस पर चर्चा गर्म रही, यदि आप में भी कोई कमी पाई गई होती तो आप के भी चर्चे गर्म रहते पर कोई मिली ही नहीं. चुप रहना पडा.’ तुम्हारा निंदा कथन स्तुति पाठ बन गया.

“एक दूसरे मित्र ने चित्र बनाया, नीचे गधा, उसपर सवार कुत्ता, उसके ऊपर बिल्ली, और सबसे ऊपर मुर्गा साथ में कैपसन: गधे के मुंह से ‘थक गया, अच्छे दिन नज़र आए थे’, सबसे ऊपर मुर्गे के मुंह से, ‘अच्छे दिन नज़र नही आते.’ वही आदमी उसे भी पढ़ रहा था ‘पालतू जानवरों के अच्छे दिन कभी थे, अब न रहे।“

खाने इतने साफ़ बंटे हुए है कि एक ही इबारत के अर्थ बदल जाते हैं, एक ही परिघटना को देखने के नज़रिए बदल जाते है. इसलिए पहले तुम संचार भेद को तोड़ने वाली दृष्टि पैदा करो उसके बाद ही मैं उन खतरों को समझा पाऊँगा अन्यथा मैं कहूँगा कुछ तुम सुनोगे कुछ। और सुनो, यह काम बहुत मुश्किल नही है। इसकी पहली शर्त है वस्तुपरकता।

“मैं यह नहीं कहता कि तुम वर्तमान व्यवस्था के समर्थक बन जाओ, या भाजपा या मोदी की निन्दा न करो। करो परन्तु जिस इरादे से कोई काम करते हो उसकी पूरी तैयारी कर के इस तरह तो करो कि परिणाम वैसे आएं तो सही। हो उल्टा रहा है। इसे समझना भी कठिन नहीं है। इसकी पहली शर्त है देश, काल, और बलाबल का ज्ञान।

वह हंसने लगा, ‘‘यार मैंने गलत छेड़ दिया। तुम किसी आसन्न खतरे की बात करने वाले थे। गलती से मुंह से निकल गया होगा। बाद में सोचा फस गए और खतरों की जानकारी देने की जगह अपनी आदत के अनुसार फिर कीर्तन आरंभ कर दिया और चाहते हो हम तुम्हारे कीर्तन और आरती में बाधा न डालें ।’’

‘‘’तुम्हारी मति मारी गई है’, यह वाक्य मैने उस हल्के अन्दाज में नहीं कहा था, जिसमें तुमको गधा कहता रहता हूँ, जो तुम हो नहीं पर कभी कभी लगते हो, जैसे अब। तुम्हें यह तक समझ में नहीं आया कि मैं उन खतरों को ही बयान कर रहा हूँ जिनका तुम्हे सामना करना है। यह है संचार भ्रंश का वह खतरा जिसमे तुम्हें मिटाएगा कोई नहीं, पर तुम दिखाई न दोगे। इससे बचने का एक ही तरीका है। जिम्मेदारी से, पूरे देश के हित में सोचो और बोलो। लोग तुम्हें सुनने लगेंगे। हेड हंटिंग करोगे तो लोग तुम्हें सुनने की जगह तुम्हारे सर के पीछे पड जायेंगे।

Post – 2017-08-18

चुप होने से पहले उसने कहा
कुछ सुना तूने
सच उसके मौन से पहजे का कुछ भी न सुना था
पर
उसके मौन में
गूंजते हैं
कितने युग एक साथ
अंधेरे में
जगमगाती हैं
कितनी रोशनियां एक दूसरे में घुलती
धरती से आकाश तक ।