दरिद्रता और स्वराज्य
दरिद्रता किसी तंगी या अभाव से पैदा नहीं होती। अपनी आधी रोटी को किसी भूखे के साथ बांट कर खाने वाला दरिद्र नहीं होता, वह अपनी आधी रोटी का बादशाह होता है। यह बादशाहत या स्वराज्य भारतीयता की रीढ़ रही है और इस पर प्रहार मध्य एशिया के उन लुटेरे और अधातुर दरिंदों द्वारा आरंभ हुआ जो अपने लिए सब कुछ किसी भी कीमत पर हासिल कर लेना चाहते थे और उसके बाद आज तक इसे लगातार नष्ट किया जाता रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ भी हमने सत्ता पाई, स्वराज्य खो दिया और निरंतर खोते ही चले गए।
दरिद्रता का गरीबी से संबंध नहीं है, यह वहां से आरंभ होती है जहां बहुत कुछ होते हुए भी आप अधिक से अधिक जुटाने की चिंता में दूसरों का छीनने, झपटने, चुराने लगते हैं और इस अकेली मनोविकृति से दूसरी असंख्य विकृतियाँ स्वतः पैदा होती रहती हैं। यह अपनी पराकाष्ठा पर वहां पहुंचती है जहां बहुत जल्द अधिक से अधिक जोड़ने की हवस में आप अपनी जरूरतों तक की बलि देने लगते हैं।
छोटे बाबा के साथ यही हुआ था। परंतु इसके साथ कुछ और पहलू जुड़े थे जिनकी ओर इन पंक्तियों को लिखने के साथ अभी मेरा ध्यान जा सका।
हमारा परिवार धनी न था, पर संपन्न था। अपनी जरूरतें पूरी करने के बाद भी काफी कुछ बच जाता था जिससे दूसरों की जरूरतें पूरी कर सकता था, और करता था। खेती से इतना पैदा हो जाता था कि अपने खाने खर्चने के बाद जो अनाज बिकता था उसे जमा करने को बैंक न था इसलिए वे स्वयं महाजन बन कर व्याज पर पैसा देने लगते और उगाही सुनिश्चित करने के लिए कागज-पत्र लिखवा लेते थे, या फालतू अनाज बीज के लिए व्याज पर देने लगते थे। अनाज बेचने के लिए भी रोक कर रखते थे और जब भाव चढ़ जाता तब सौदा करते। खाने के काम में नई फसल का अनाज काम में नहीं आता. माना जाता था कि नया अनाज सुपाच्य नहीं होता। एक बरसात झेल लेने के बाद लस कम होती है। इसका एक लाभ यह तो था ही कि अकाल दुकाल की स्थिति में एक साल का सुरक्षित भंडार सुलभ रहता।
बटवारे के पीछे सदस्य संख्या न होकर वास्तविक कारण दो प्रतीत होते हैं । एक तो वही जिसके चलते मध्यकालीन भारत का इतिहास भाइयों और बेटों के विद्रोह का इतिहास बना रहा। अर्थात् सत्तासुख। संयुक्त परिवार में बड़ा भाई मालिक होता। घर के सभी स्रोतों की आय उसके हाथ में आएगी और वह सबकी जरूरतों का ध्यान रखते हुए उनकी पूर्ति करेगा। शादी-व्याह, रिश्ते-नाते, कपड़े-जेवर, लगान, मुकदमा सबके बाद बचे हुए धन और अन्न को कहां लगाना है, सारे फैसले वही करता और मर्यादा का ध्यान रखते दूसरा कोई आपत्ति न कर सकता था। कहें, पारिवारिक स्तर पर वह एक लोक हितकारी तानाशाह की तरह काम करता था और दूसरे सभी समूहवाद्य में सम्मिलित वादकों की तरह सधे रहते।
यहां आकर जो नया तत्व जुड़ा वह था छोटे बाबा के बड़े पुत्र अर्थात् बड़के भैया का पुलिस का सिपाही बन जाना। जो लोग छोटे सपनों के कैलाश शिखर से परिचित नहीं हैं वे नहीं समझ सकते कि सिपाही हो जाने का मतलब क्या होता है। इसका मतलब है चउकीदार से ऊपर, और तनखाह का तनखाह और उप्पर की आमदनी भी, रोब-रुतबा अलग से।
अब संयुक्त परिवार के नियम से किसी का किसी विधि से अर्जित धन गृहपति, अर्थात् बौद्धकालीन गहपति को सौंप देिया जाता था और वह सभी सदस्यों को उनकी जरूरत के अनुसार आपूर्ति करता था (गहपति के आधार पर यह न समझें कि यह व्यवस्था बौद्धकाल से आरंभ हुई। इसके संकेत ऋग्वेद में कई स्थलों पर है, परन्तु यह उससे भी दसेक हजार साल पहले से, कहें आहारसंग्रह के चरण से चली आ रही व्यवस्था थी, जिसे मार्क्स ने आदिम साम्यवाद कहा था और यह मान लिया था कि उस चरण से हम आगे बढ़ आए हैं। हमारे पुराण मानते रहे कि उस सतयुग से, आदर्श समाज व्यवस्था से, निजी संपत्तिसंग्रह के कारण, निजी संपत्ति की वृद्धि के विषमानुपातिक क्रम में मानवीयता का ह्रास हुआ है और सार्विक विनाश में तेजी आई है, और हम सर्वनाश (प्रलय) की दिशा में, तेजी से बढ़ रहे हैं।
कौन थे वे समाजद्रष्टा (समाजविज्ञानी) जिनकी स्थापनाएं इतनी अचूक थीं कि मार्क्स सहित पश्चिम के सभी समाजविज्ञानी उनके सामने बौने सिद्ध होते हैं और फिर भी हम उनका नाम तक नहीं जानते और न जानते हैं उसका नाम जो मार्क्स के ओरिएंटल डेस्पाटिज्म का सही प्रतिवाद तक कर सका हो। जो यह समझ पाया हो कि भारतीय संयुक्त परिवार निजी संपदा और सामाजिक-आर्थिक विषमता के विरुद्ध संघर्षरत संस्था रही है।
ओम् नमो ऋषिभ्यः पूर्वेभ्यः पूर्वजेभ्यः पथिकृद्भ्यः।
परिवार में जो कुछ है, सबका है। इसमें सब कुछ सबका है। स्त्रीधन या पुरुषधन जैसा कुछ नहीं होता। निजी धन को कोलवाई कहा जाता था। स्त्रियां नेग, उपहार आदि के रूप में मिले धन को सवेच्छा से उचित माध्यम से गृहपति को अग्रेषित कर देती थीं।
छोटे बाबा ने संयुक्त परिवार के इस आर्ष नियम को तोड़ा था और जरूरत से अधिक संग्रह के बाद भी दरिद्रता का जीवन जिया था और इसे ही उत्तराधिकार में सौंप कर मरे थे।