Post – 2017-10-10

Manoj Kumarjha आप मार्क्सवादी नहीं थे, बुद्धिवादी थे। दुख की बात है कि आप संघवादी हो गए।

Bhagwan Singh आपने मेरी पोस्टों को ध्यान से पढ़ा नही, मैंने आधुनिक समस्याओं पर लिखना ही इस खेद के साथ आरम्भ किया था कि लेखक और बुद्धिजीवी महलों के ख्वाब का पीछा करते अपने झोपड़े की ताकत और गरिमा भूल गया है. सक्रिय राजनीती का हिस्सा बन कर रावण के घर पानी भर रहा है और उस महिमा को भूल गया है जिसमे सम्राट भी उसके चरणों की धूलि को माथे लगाते थे। उसके बाद की कुछ पोस्टों में समझाया था कि लेखक की राजनीति नहीं होती, समाजनीति होती है, राजनीति समाजनीति का हिस्सा है इसलिए वह चाहे तो भी उससे बच नहीो सकता, फर्क छोटा सा है। राजनीति के पीछे भागने वाले साहित्यकार , पत्रकार और कलाकार जुज को कुल समझ लेते हैं और टुकडों के पीछे भागने लगते हैं, मै फटकार लगाता हूं, तुम कुल के मालिक हो, अपनी गरिमा की रक्षा करो, तुम्हारी ओछी समझ और कारगुजारी से मेरी महिमा कम होती है।
लेखक की भूमिका समझाते हुए कहा था, यह शिक्षक की भूमिका के साथ ही रोग नैदानिक और चिकित्सक की भूमिका है जिसमें शल्यचिकित्सक की भूमिका शामिल है जिनके शब्दकोश में दो शब्द नहीं हैं, एक घृणा और दूसरा पराया। मैंने तीन पोस्ट एक पर एक डाली थीं, एक संघियों को लक्ष्य करके, दूसरा भारतीय कम्युनिस्टों को लक्ष्य करके और तीसरा अतिसंवेदनशील तथाकथित मानवतावादियों और उनके द्वारा सहकाए मुसलिमों को लक्ष्य करके. मैं सबको सही करना और स्वस्थ देखना चोहता हूं – मनसा, वाचा, कर्मणा। संघियों को टिप्पणी चुभी, नश्तर लगा तो तिलमिलाए तो, दूसरे तो जड़ सिद्ध हुए। दुर्भाग्य कि किसी में मुझे समझने तक की योग्यता नहीं।

Post – 2017-10-09

मेरे प्रश्नों से खिन्न होकर, उद्वेलित होकर कोई मुझे गालियां देने लगे, लेखन की इससे बड़ी सार्थकता क्या हो सकती है। उनकी अभद्रता आप तक पहुंचेगी नहीं, उन पर ही बरसेगी – लोग समझेगे कि यह आदमी असभ्य है। इससे यह भी सिद्ध होगा कि आप के विचार उस तक पहुंच चुके हैं, पर उसके पास सवालों का जवाब नहीं है, इसलिए बौखलाया हुआ है। बौखलाँहट और विक्षोभ आत्मममन्थन का प्रमाण है। शुद्धता बाहरी छिडकाब से नहीं आती. आत्ममंथन से आती है. यह आत्ममंथन आरम्भ हो चुका है. इससे अधिक कृतकार्यता क्या होगी। मै आर एस एस के भविष. के प्रति आशावान हूं।

Post – 2017-10-09

यदि आपके कथन की केवल तारीफ होती है तो आप ने कुछ कहा ही नहीं। जो बात लोगों को पसन्द आती है उसे कह दिया । विरोध ही इस बात की कसौटी है कि आप ने कोई नई बात कही है। यदि आपके विचारों से तिलमिलाहट पैदा होती है तो आप के विचार ने गहरा असर किया है। उपेक्षा से बड़ा अपमान और विरोध और तिलमिलाहट से बड़ा सम्मान किसी लेखक का हो नहीं सकता, हां उसके अपने कथन में शालीनता अवश्य होनी चाहिए।

Post – 2017-10-09

मैने 6 अक्तूबर को एक प्रश्न किया था:
क्या आप मान सकते हैं कि संघ के लोग दहाड़ते हुए बोलते, बौखलाये हुए सोचते और सहमते हुए काम करते हैं ।
इस पर आई एक प्रतिक्रिया पर मैने एक टिप्पणी की थी जो आनन्द राज्याध्यक्ष, पुष्कर अवस्थी और अवनीश पी एन शर्मा को पसन्द आयी और उन्होने मेरे ही वाल पर इसे बारी बारी से टैग कर दिया। इन पर इतनी मुखर प्रतिक्रियाएं आईं कि लिखना सार्थक हो गया। अंग्रेजी का एक मुहावरा है – फ्राम हार्सेज माउथ। इन प्रतिक्रियाओं को जितने लोग पढ़ सकें, अवश्य पढ़ें, इससे यह समझने में मदद मिलेगी कि संघ क्या है, इससे जुड़े लोगों के ज्ञान का स्तर क्या हैं, इनकी संस्कृति क्या है, और सबसे बड़ी बात कि वे अटल जी और मोदी जैसे कद्दावर और खुली सोच के लोगों को झेल क्यों नहीं पाते हैं।

Post – 2017-10-08

अपने ही घर में अछूत

माई और बाबू जी शाकाहारी थे। जिस बर्तन में आमिष भोजन बना है, वह माजने धोने के बाद भी यदि उस बर्तन से छू गया जिसमें शाकाहारी खाते पीते हैं, तो वह बर्तन अपवित्र हो जाएगा। अपवित्र हो चुके बर्तन को पवित्र करने का उपाय भी था। उसमें जव रख कर गधे को खिलाना। वैसे तो वह न भी खाए केवल उस पात्र को सूंघ भी ले तो बर्तन शुद्ध हो गया, पर हमारे गांव में गधे केवल धोबी पालते थे। धोबी टोला और धोबहिया (धोबी घाट) हमारे मुहल्ले से एक किलोमीटर से अधिक की दूरी पर पड़ता था। हमारे आस पास के झुंगे में वह हमारी किस्मत से ही चरता हुआ मिल सकता था।

आप की इस हैरानी का जवाब कि गधा जिसका स्पर्श होने से ही लोग अपवित्र हो जाते हैं, जो न नहाता है न जिसका घोड़े की तरह खरहरा किया जाता है, उसके सूंघने से कोई अपवित्र बर्तन शुद्ध कैसे हो सकता है, न हमारे पुरखे जानते थे, न पुरोहित। यदि बनारस के किसी पंडित से पूछें तो उसको भी जवाब देते न बनेगा ।

आप की किस्मत अच्छी है कि आप को मेरे जैसा ज्ञानी मिल गया है जो जिसे जानता है उसे भले झिझकते हुए प्रकट करे, जिसे कम जानता है उस पर पूरे विश्वास से बात करता है। सो इसका रहस्य यह है कि ये देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार, अर्थात् गधी के पुत्र हैं, गर्दभी-विपीत। मुझे यह रहस्य तो कभी भारतीय पुरातत्व में महानिदेशक रहे मधुसूदन नरहरि देशपांडे ने बताया कि महाराष्ट्र में बच्चे को बुद्धिमान बनाने के लिए एक बार को गधी का दूध पिलाया जाता है ।

कितने सुदूर प्राचीन काल का इतिहास हमने आज अनर्गल प्रतीत होने वाले विश्वासों और रीतियों में बचाए रखा है, इसे समझे बिना सुधार के नाम पर जो अतार्किक लगे उसे मिटाने से अच्छा है कि जब तक वे हमारी प्रगति में ही बाधक न बने उन्हें चलने दो।

देवताओं का गुरु बनने की कहानी और टेढ़ी है पर यह समझना आसान है कि अज और अश्व अर्थात् बकरा और गधा उस देव समाज के सबसे पहले पालतू बनाए गए पशु हैं जिन्होने कृषि का आरम्भ किया था, इतने पुराने कि इन्हें सृष्टि के आदि से जोड़ लिया गया।

मांस भक्षण से अपवित्र हो चुके बर्तन की शुद्धि के लिए इतनी झंझट मोल लेने से अच्छा था ऐसी नौबत ही न आने दो कि उस पात्र से शाकाहारियों के बर्तन का स्पर्र्श हो जिनका संपर्क मांस-मछली से हुआ हो। इसका सीधा तरीका यह कि जिस थाली में रख कर मांस धोया गया हो, या जिस बटुली या कड़ाही में इन्हें पकाया गया हो, उन्हें बिना धोए पखारे आंगन में एक कोने में पड़े रहने दो। जो मांसाहार नहीं करता वह इनको धोकर अपने को अपवित्र क्यों करता। यह काम सीताराम बारी का था। वह मुझसे बारह तेरह साल बड़े रहे होंगे। वह इस काम में बाबा के अनन्य सहयोगी थे। वही खाने के लिए पत्तल, दोने का प्रबन्ध करते, धोने-पकाने के लिए बरतन साफ करते, दूर दराज के हाट से बाजार करके आते, चिड़िया या मछली हुई तो उसकी सफाई कटाई करते, और इस तर्क से खानपान में साझेदारी करते, बाजार के लिए कुछ अलग से पा जाते।

रसोई का बंटवारा तो इस आधार पर हुआ था कि छोटे बाबा के बस की यह शाहखर्ची नहीं, हालांकि अलग होने के लिए भी, आशय यही रहते हुए भी, इतने कठोर शब्द का प्रयोग उन्होंने न किया होगा, पर अभी लौट कर बाबा खाने के लिए पीढ़े पर बैठते कि अवसर की प्रतीक्षा कर रहे छोटे बाबा के तीनों छोटे लड़के – झीनक का, चन्नर का और जगदीश का – लगभग हमलावर के अन्दाज में आ धमकते । उनकी अफरा तफरी से बाबा को कभी कभी थोड़ी झुंझलाहट होती, पर प्रबन्ध यह सोच कर करते थे इसलिए कोई समस्या न आती। छोटे बाबा, बड़े काका, काकी अवश्य मांसभिक्षा में शरीक न होते।

यह तो याद ही नहीं आ रहा कि हम पानी कैसे पीते थे, क्या इसके लिए मिट्टी का सकोरा होता था? हाथ धुलाने की अवश्य याद है कि हमारा हाथ ऊपर से पानी की धार गिराकर धुलवाया जाता, मिट्टी से हाथ धुलने के बाद मुंह कड़वे तेल से रगड़ने के बाद शुद्ध होने पर पानी के गिलास को मुंह लगा सकते थे।

जब हम अस्पृश्यता की समस्या पर विचार करते हैं तो इसकी जटिलता के अनगिनत पहलुओं की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता, और हमारे तर्कवादी भाई लोग तो सुधार भी विचारों से नहीं गालियों से करना चाहते हैं। वे बौद्धिक शिक्षक या चिकित्स्क के रुप साेवते तो सुधार करने से पहले वे स्वयं सुधरते और इतिहास का गहराई से अध्ययन करते। ये अध्ययन भी दोष दर्शन के लिए करते हैं और समझ की जगह बौखलाहट पैदा करते हैं।

Post – 2017-10-07

यूँ ही आँखों में आगये आंसू

हमारा गांव ठाकुरों का था जिनके सामूहिक अधिकार क्षेत्र में चौरासी गांव थे। दारू कोई नहीं पीता था। सात आठ साल की उम्र तक बच्चे जब तब गेड़ुए की शक्ल के मिट्टी के टोंइए में ताड़ी पी लेते थे और उनकी मस्ती से बड़ों का भी मनोरंजन हो जाता, पर उसके बाद ताड़ी तो दूर, पके तरकुल को भी हाथ न लगाते। मांसाहार को अच्छा नहीं समझा जाता था, फिर भी कुछ लोग मांस मछली का सेवन करतेथे। कुछ कायस्थ और मुस्लिम परिवार दूसरे उपजीवी जनों के साथ बसे थे और उनमें मांसाहार चलता था, लेकिन मद्यपान उनमें भी वर्जित था। मुसलमान मुर्गा मुर्गी पालते थे, पर हिंदू मुर्गे का मांस नहीं खाते थे। अंडा खाना तो महापातक था, वह किसी भी प्राणी का क्यों न हो। वह भ्रूण था।

सप्ताह में दो दिनों पर हाट अपने गांव में लगता। एक मंगलवार को जिस दिन मछली और मांस का चलन न था। दूसरा इतवार का हाट, उससे एक किलोमीटर दूर बस्ती के निकट सड़क के साथ लगता, जिस दिन बकरा कटता और मछली भी मिलती। मांसाहारी लोग इसी दिन का लाभ उठाते।

नित्य आमिष आहार कुछ खर्चीला और श्रमसाध्य था। मझगांव में शक्रवार को हाट लगती जो पांच किलोमीटर पड़ता और बृहस्पतिवार को कौडीराम जो दस किलोमीटर था, फिर भी तीन दिन बच रहते। इन पर मछली से लेकर ताल की चिड़िया का प्रबंध जिसमें बाबू जी को भी कुछ प्रयत्न करना पडता, जब कि वह शाकाहारी थे। जब तब एक चिक आकर भी गाहक पट जाने पर बकरा काटता। चिक का काम मुसलमान ही करते इसलिए जिबह करते और यह खुले आम होता. मुझे नाम याद नहीं आ रहा है, कायथ टोली का कौन सा व्यक्ति था, जो गला रेतते समय कटोरा लेकर हाज़िर हो जाता था और बहते हुए लहू को उसमें रोप कर पी जाता था। मुफ्त का माल।

एक ही दृश्य बिम्ब है. परन्तु उस दृश्य बिम्ब के साथ जुड़ा मनोभाव यह है कि मै उसे हैरानी से, बाद में सीखे गए शब्दों में कहें तो वितृष्णा से, पर घृणा से नहीं, देख रहा था।

एक दूसरा भावबिम्ब यह कि मै बकरे का गला रेते जाते समय उसकी छटपटाहट से व्यग्र अनुभव कर रहा था और इसके बाद भी मैं उस स्थान से हटा नही और मुझे यह याद नहीं कि मैंने उस दिन मांसाहार से परहेज किया था। वैसे मांसाहार में बाबा का बनाया कलिया तो उस उम्र में खा नही सकता था, इसलिए वह मेरे लिए, और सिर्फ मेरे लिए, कलेजी रखवाते और उसे अलग से भूनते थे । उसका स्वाद मैं भूल नहीं सकता और उसे पाने के लिए स्वयं जितने प्रयोग किए वे सब उस स्वाद से इतने नीचे रहे कि फिर पेय के साथ चिखना के रूप में भी इसका प्रयोग जंचा नहीं। यह मेरे स्वादेंद्रिय की स्मृति-व्यवस्था की चूक हो सकती है या आपकी सोच को सही नाम देने में संभव अपमान से से आपको बचाने की चिंता हो सकती है। मैं आपकी समझ का अपमान नहीं करना चाहता पर अपनी सोच में बदलाव कर नही सकता।

हिंसा से पहली बार घोर वितृष्णा मुझे तब हुई थी जब बहेलिये द्वारा पकडे गए एक साइबेरियाई पक्षी की बेबस आँखों को देख कर व्यग्र होकर कहा था. “बाबा, उसकी आँखों को तो देखिये!” बाबा ने किसी को झिड़कते हुए कहा था, “इसे ले जाओ यहाँ से!” और किसी ने, हो सकता है दीदी ने, मुझे पूरे बल से पकड़ कर अलग कर दिया था। मुझे बिलकुल याद नहीं कि मैंने उस पक्षी की आँखों में माँ की आँखों का बिम्ब देखा था । ऐसा दावा करूं तो यह गलत है। यह अवश्य सही है कि मै वेदना की सभी अभिव्यक्तियों में आँखों में उभरने वाली पीड़ा को झेल नही पाता। यदि आप समझते है कि मैं इन पंक्तियों को लिखते हुए रो रहा तो यह गलत है। पर बुढापे की कमजोर आँखें हैं. इनका क्या भरोसा, बहती हैं तो तड़प भी पैदा होती है जैसे नदी प्रखर वेग मेंअपने ही कगारों को तोड़े। मैंने उस दिन मांसाहार छोड़ दिया था। दीदी ने नहीं। अगले दिन मैंने कहा था, “दीदी तुम कितनी गिद्धिन हो, और उसके बाद दीदी ने मांसाहार छोड़ दिया था और मैंने कुछ समय बाद शुरू कर दिया था।

Post – 2017-10-07

राष्ट्रगान को लेकर अदालत में जाने की नौबत न आनी चाहिए थी। रोहिंग्या समस्या को लेकर अदालत जाने की जरूरत न होनी चाहिए थी। सेकुलर ऐक्टिविज्म मुस्लिम कम्युनलिज्म का दूसरा नाम है जो सरकार के सही कूटनीतिक फैसले लेने में बाधक तो है ही, मुसलमानों के अपने हित में भी नहीं है। इससे जिस मनोवृत्ति का पोषण हुआ उसमें दरबाबंद मानसिकता और उखड़ापन बढ़ा है जो असुरक्षा की प्रतीति में जब तब मुखर होती है। मुसलमानों को राष्ट्रगान गाने से ही नहीं, भारतमाता, मातृभूमि या पितृभूमि, या भारत को भारत कहने से भी गुरेज रहता है। ऐसा कहने और मानने से जुड़ाव पैदा होता है, सेंस आफ बिलांगिंग पैदा होती है और कतराने से उसकी हानि होती है, खानाबदोशी या उचक्कापन की भावना पैदा होती है, जिसका प्रभाव मनोबल पर भी पड़ता है, मन की शान्ति पर भी, जिसे असुरक्षा की भावना कहते हैं, याने, कारण आप के भीतर है और दोष दूसरों को देते हैं। नो दाई सेल्फ, टु क्योर योरसेल्फ।

Post – 2017-10-06

क्या आप बता सकते हैं कि भारतीय कम्युनिस्टों ने इतने बुद्धिजीवियों का जमावड़ा करने के बाद भी कौन सा काम किया है जिसे देश हित में गिना जा सके और देश घात का कौन सा मौका छोड़ा है ?

Post – 2017-10-06

क्या आप मान सकते हैं कि संघ के लोग दहाड़ते हुए बोलते, बौखलाये हुए सोचते और सहमते हुए काम करते हैं ।

Post – 2017-10-05

दरिद्रता और स्वराज्य

दरिद्रता किसी तंगी या अभाव से पैदा नहीं होती। अपनी आधी रोटी को किसी भूखे के साथ बांट कर खाने वाला दरिद्र नहीं होता, वह अपनी आधी रोटी का बादशाह होता है। यह बादशाहत या स्वराज्य भारतीयता की रीढ़ रही है और इस पर प्रहार मध्य एशिया के उन लुटेरे और अधातुर दरिंदों द्वारा आरंभ हुआ जो अपने लिए सब कुछ किसी भी कीमत पर हासिल कर लेना चाहते थे और उसके बाद आज तक इसे लगातार नष्ट किया जाता रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ भी हमने सत्ता पाई, स्वराज्य खो दिया और निरंतर खोते ही चले गए।

दरिद्रता का गरीबी से संबंध नहीं है, यह वहां से आरंभ होती है जहां बहुत कुछ होते हुए भी आप अधिक से अधिक जुटाने की चिंता में दूसरों का छीनने, झपटने, चुराने लगते हैं और इस अकेली मनोविकृति से दूसरी असंख्य विकृतियाँ स्वतः पैदा होती रहती हैं। यह अपनी पराकाष्ठा पर वहां पहुंचती है जहां बहुत जल्द अधिक से अधिक जोड़ने की हवस में आप अपनी जरूरतों तक की बलि देने लगते हैं।

छोटे बाबा के साथ यही हुआ था। परंतु इसके साथ कुछ और पहलू जुड़े थे जिनकी ओर इन पंक्तियों को लिखने के साथ अभी मेरा ध्यान जा सका।

हमारा परिवार धनी न था, पर संपन्न था। अपनी जरूरतें पूरी करने के बाद भी काफी कुछ बच जाता था जिससे दूसरों की जरूरतें पूरी कर सकता था, और करता था। खेती से इतना पैदा हो जाता था कि अपने खाने खर्चने के बाद जो अनाज बिकता था उसे जमा करने को बैंक न था इसलिए वे स्वयं महाजन बन कर व्याज पर पैसा देने लगते और उगाही सुनिश्चित करने के लिए कागज-पत्र लिखवा लेते थे, या फालतू अनाज बीज के लिए व्याज पर देने लगते थे। अनाज बेचने के लिए भी रोक कर रखते थे और जब भाव चढ़ जाता तब सौदा करते। खाने के काम में नई फसल का अनाज काम में नहीं आता. माना जाता था कि नया अनाज सुपाच्य नहीं होता। एक बरसात झेल लेने के बाद लस कम होती है। इसका एक लाभ यह तो था ही कि अकाल दुकाल की स्थिति में एक साल का सुरक्षित भंडार सुलभ रहता।

बटवारे के पीछे सदस्य संख्या न होकर वास्तविक कारण दो प्रतीत होते हैं । एक तो वही जिसके चलते मध्यकालीन भारत का इतिहास भाइयों और बेटों के विद्रोह का इतिहास बना रहा। अर्थात् सत्तासुख। संयुक्त परिवार में बड़ा भाई मालिक होता। घर के सभी स्रोतों की आय उसके हाथ में आएगी और वह सबकी जरूरतों का ध्यान रखते हुए उनकी पूर्ति करेगा। शादी-व्याह, रिश्ते-नाते, कपड़े-जेवर, लगान, मुकदमा सबके बाद बचे हुए धन और अन्न को कहां लगाना है, सारे फैसले वही करता और मर्यादा का ध्यान रखते दूसरा कोई आपत्ति न कर सकता था। कहें, पारिवारिक स्तर पर वह एक लोक हितकारी तानाशाह की तरह काम करता था और दूसरे सभी समूहवाद्य में सम्मिलित वादकों की तरह सधे रहते।

यहां आकर जो नया तत्व जुड़ा वह था छोटे बाबा के बड़े पुत्र अर्थात् बड़के भैया का पुलिस का सिपाही बन जाना। जो लोग छोटे सपनों के कैलाश शिखर से परिचित नहीं हैं वे नहीं समझ सकते कि सिपाही हो जाने का मतलब क्या होता है। इसका मतलब है चउकीदार से ऊपर, और तनखाह का तनखाह और उप्पर की आमदनी भी, रोब-रुतबा अलग से।

अब संयुक्त परिवार के नियम से किसी का किसी विधि से अर्जित धन गृहपति, अर्थात् बौद्धकालीन गहपति को सौंप देिया जाता था और वह सभी सदस्यों को उनकी जरूरत के अनुसार आपूर्ति करता था (गहपति के आधार पर यह न समझें कि यह व्यवस्था बौद्धकाल से आरंभ हुई। इसके संकेत ऋग्वेद में कई स्थलों पर है, परन्तु यह उससे भी दसेक हजार साल पहले से, कहें आहारसंग्रह के चरण से चली आ रही व्यवस्था थी, जिसे मार्क्स ने आदिम साम्यवाद कहा था और यह मान लिया था कि उस चरण से हम आगे बढ़ आए हैं। हमारे पुराण मानते रहे कि उस सतयुग से, आदर्श समाज व्यवस्था से, निजी संपत्तिसंग्रह के कारण, निजी संपत्ति की वृद्धि के विषमानुपातिक क्रम में मानवीयता का ह्रास हुआ है और सार्विक विनाश में तेजी आई है, और हम सर्वनाश (प्रलय) की दिशा में, तेजी से बढ़ रहे हैं।

कौन थे वे समाजद्रष्टा (समाजविज्ञानी) जिनकी स्थापनाएं इतनी अचूक थीं कि मार्क्स सहित पश्चिम के सभी समाजविज्ञानी उनके सामने बौने सिद्ध होते हैं और फिर भी हम उनका नाम तक नहीं जानते और न जानते हैं उसका नाम जो मार्क्स के ओरिएंटल डेस्पाटिज्म का सही प्रतिवाद तक कर सका हो। जो यह समझ पाया हो कि भारतीय संयुक्त परिवार निजी संपदा और सामाजिक-आर्थिक विषमता के विरुद्ध संघर्षरत संस्था रही है।

ओम् नमो ऋषिभ्यः पूर्वेभ्यः पूर्वजेभ्यः पथिकृद्भ्यः।

परिवार में जो कुछ है, सबका है। इसमें सब कुछ सबका है। स्त्रीधन या पुरुषधन जैसा कुछ नहीं होता। निजी धन को कोलवाई कहा जाता था। स्त्रियां नेग, उपहार आदि के रूप में मिले धन को सवेच्छा से उचित माध्यम से गृहपति को अग्रेषित कर देती थीं।

छोटे बाबा ने संयुक्त परिवार के इस आर्ष नियम को तोड़ा था और जरूरत से अधिक संग्रह के बाद भी दरिद्रता का जीवन जिया था और इसे ही उत्तराधिकार में सौंप कर मरे थे।