Post – 2017-12-10

हम अपना काम समझे हैं, वे अपना काम करते है

भारत में ऐसे दस पांच पश्चिमी विद्वान कई रूपों में सक्रिय मिल जाएंगे जो हिन्दुत्व से इतना अधिक प्यार करते हैं कि हिन्दुत्व प्रेमी संगठन तक उनसे मार्गदर्शन लेते हैं। इनमें से एक को वाजपेयी दौर में पद्मभूषित किया गया था और वर्तमान मोदी सरकार में इतिहास अनुसंधान परिषद की सलाहकार समिति में भी स्थान दिया गया ? ये विद्वान प्रतिवर्ष भारत में लंबा समय बिताते हैं। हिन्दुत्व की महिमा से भी परिचित हैं और समय समय पर हिन्दुओं को उनके इतिहास का ज्ञान भी कराते रहते हैं। डालर/ पौड/ यूरो और रुपये की विनिमय दर इतनी पश्चिममोदी हैं कि भारत में निवास काफी सस्ता पड़ता है। भारतीय विषयों पर उनकी पुस्तकें हैं, पर उनसे मिलने वाले मानदेय से उनका गुजर नहीं हो सकता इसको हम अपने अनुभव से जानते हैं? भारत में इनके प्रवास का और स्वयं अपने देश में निवास का खर्च कौन उठाता ? वह हमारा काम करने के लिए उनको आर्थिक संबल देता है, या अपना काम कराने के लिए?

वह भारतप्रेम के दिखावे से हिन्दू समाज में गहरी पैठ बनाता है ताकि वह हमारा विश्वास जीत कर भितरघात कर सके, या वह सचमुच भारत का, या हिन्दू समाज का भला करना चाहता है? उसके लिए साधन वे देश जुटाते हैं जिनकी रुचि भारत को मुट्ठी में रखने की है ? अब इस दृष्टि से विचार करते हुए उनकी लिखित पुस्तकों, वक्तव्यों और टिप्पणयों का ध्यान से पाठ करें तो पाएंगे, वे बहुत सावधानी से, कि उनके इरादे लोगों पर जाहिर न हो जांय हमें भड़काने का, हमारे सद्विश्वास का लाभ उठा कर, हमारे मनोबल को तोड़ने और आन्तरिक कलह पैदा करने का काम करते हैं।

मैं इन विद्वानों में से जिनको व्यक्तिगत रूप से जानता हूं उनसे मेरे अच्छे संबंध हैं। जिनसे नाम मात्र को परिचित हूं उनका सम्मान करता हूं। जिनके विषय में सुना है या जिन्हें पढ़ा है उनके लिए भी गहरा सम्मान है। उनका ऋणी भी हूं, क्योंकि आज यदि हमारा प्राचीन साहित्य सर्वसुलभ है तो उनके कारण।

पर इस कृतज्ञता के बाद भी मैं यह जिज्ञासा करना नहीं भूलता कि वे हमारी सेवा कर रहे थे, या अपना काम कर रहे थे? उनका काम उनके कितने काम का था, और हमारे कुछ काम का हुआ जरूर, पर जितना उनके काम का था वह किस सीमा तक हमारे लिए हानिकर था, इसे मैं भूल नहीं पाता, दूसरे कृतज्ञ होने की जगह कृतार्थ अनुभव करते हैं।

समझ के दोनों रूपों में अन्तर यह है कि मैं कहता हूं, हमें उनके काम का उतना अंश छांट लेना चाहिए जो हमारे उपयोग का है, और उसे रोकने का प्रयत्न करना चाहिए जो उन्हें लाभ और हमें हानि पहुंचाता है। पर यह चाहने से न होगा। इसके लिए हमें उनके द्वारा लिखित साहित्य का उसी तरह आलोचनात्मक पाठ करते हुए एक नई ज्ञान व्यवस्था करनी होगी और इसकी कमियों के दूर करने के लिए स्वयं जमीनी काम करने होंगे। इसके लिए समर्पणभाव, अध्यवसाय और श्रम की आवश्यकता होगी। इसका नाम कृतज्ञता है।

इसके ठीक विपरीत जो कुछ हमारे दुश्मनों ने अपने लाभ के लिए किया पर जिससे हमारा भी कुछ लाभ होता है, वही हमारे लिए काफी है। हमारा सारा बौद्धिक काम उन्होंने किया है, करते जा रहे हैं, उसी से हमारा काम चल जाता है। हमें उनके किए को जानते और मानते रहना चाहिए। इससे आगे का क्षेत्र खतरों से भरा है और फिर जब दूसरे हमारा काम कर रहे हैं तो हमें जान आफत में डालने की जरूरत क्या। मेहनत अलग से करनी होगी। बौद्धिक आलसियों की इसी सोच का दूसरा नाम है कृतार्थता।

जो लोग ‘कर कंकण न्याय’ मुहाविरे का अर्थ न जानते हों, और यह भी न समझ पाते हों कि विरोधों की समीपता का अर्थ क्या है वे अब समझ सकते हैं कि क्यों संघियों में एक कारण से, उनके धुर विरोधी मार्क्सवादियों, सेकुलरिस्टों में अन्य कारणों से अकर्मण्यता, पश्चिमपरस्ती उससे भी अधिक क्यों है?

ऐसे लोग यह भी नहीं समझ सकते हैं कि यदि विधाता की भूमिका के साथ जुड़ी कर्मठता से हम बचना चाहें तो भी हमारी अकर्मण्यता के चलते भाग्यवाद के कितने संस्करण हो जाते हैं ?

मैं इतिहास की बात अतीत के दिवास्वप्न देखने के लिए नहीं करता, वर्तमान को समझने के लिए करता हूं और तब अतीत व्यतीत नहीं रहता वर्तमान के सामने उपस्थित आंईना बन जाता है।

आइने ऐसे मिले हैं कि बोलते ही नहीं
टूट जाते हैं अगर गौर से देखो उनको।।

Post – 2017-12-10

मैं चुनाव के नतीजों से अधिक चुनाव के मुद्दों और प्रचार के स्तर को महत्व देता हूं। गुजरात चुनाव ने दोनों मामलों में निराश किया। मेरे आकलन मे जीत भाजपा की होगी। पाटीदार आन्दोलन का उल्टा असर होगा। ईवीएम का रोना बताता है कि कांग्रेस को अपना भाग्य पता चल गया है।

Post – 2017-12-09

लोरियों से खुश थे हम, बस लोरियां सुनते रहे
(असंपादित)

इस बात को समझने में कठिनाई होगी कि जिन्हें हम प्राच्यवादी कहते हैं वे भारत को समझना नहीं चाहते थे, भारत की टोह लेना चाहते थे। यह टोह कुछ वैसी थी जैसे सेना शत्रुपक्ष की टोह लेती है। इरादा बचाने और बढ़ाने का नहीं होता, तोड़ने और मिटाने का, लूटने और अधिक से अधिक समेटने और लेकर भागने का रहता है।
प्राच्यवादियों का तरीका पुचकारते हुए फंसाने और मिटाने का था, साम्राज्यवादियों का तरीका भाषा और व्यवहार दोनों मामलों मे सीधी चोट तोड़फोड़ का। पहला विश्वास जीत कर भितरघात करने का था, जब कि दूसरे का दबाने और रौंद कर विवश करने का। पहला प्राचीन भारतीय दाय था तो दूसरा मध्यकालीन विरासत जो पश्चिम का सबसे प्रिय तरीका रहा है।

तुलसीदास अपने समय के विषय में शिकायत करते हैं:
गोंड़ गंवार नृपाल कलि यवन महामहिपाल।
साम न दाम न भेद कछु, केवल दंड कराल ।।

शत्रु को अनुकूल या वश में करने के लिए इन तरीकों का प्रयोग सदा से होता आया है। अनुपात के भेद और किसी एक पर अधिक भरोसे के कारण वह पक्ष इतना प्रधान हो जाता रहा है कि दूसरे उपायों पर ध्यान नहीं जाता रहा है। सत्ता का चरित्र ही ऐसा है कि किसी एक उपाय से सभी काम नहीं सध सकते।
कराल दंड का विकल्प अंग्रेजों को सुलभ नहीं था अन्यथा उनका आचरण मध्यकाल से भिन्न न होता। इसके कई नमूने उन्होंने पेश भी किए। इतने दूर से, इतने बड़े देश को इतने थोड़े लोगों के बल पर कब्जे में रखना असंभव था। इसलिए ‘कालों को ही हमें, उनके रंग के बाद भी, अंग्रेज बनाना होगा’, यही थी मैकाले की दलील।

इसी जरूरत से भेदनीति का सहारा उन्होंने बहुत पहले से लेना आरंभ किया था, जिसके लिए हम उन्हें दोष नहीं दे सकते। हमें स्वयं इसे समझते हुए बचना चाहिए था, जो हम न कर सकेक्योंकि अपनी जड़ें मुस्लिम देशों में तराशने वाले जमींदारों और ताल्लुकेदारों के श्रेष्ठताबोध का टकराव ब्राह्मणवादी श्रेष्ठतावाद से ही नहीं था, पूरा हिन्दू समाज, इसके शूद्र तक मुसलमानों से परहेज करते थे।

हमने अपने घर की कमियों को दूर करने की जगह अपना उपयोग करने वालों के सिर मढ़ कर छुट्टी पानी चाही, पर यह काम भी सलीके से नहीं किया। जिन्हें राष्ट्रवादी कह खारिज करते हुए मार्क्सवादी इतिहास लिखने की भूमिका रची गई, उन्होंने उपनिवेशवादियों के पूरे लेखन के प्रति सन्दह प्रकट करते हुए नये सिरे से इतिहास की खोज की आवश्यकता समझी और नया इतिहास लिखा भी। वह इतिहास पुरानी सोच और जानकारी पर ही लिखा गया था इसलिए दोषमुक्त न था।

मार्क्सवादी लेखन में प्राचीन भारत के विषय में समझ यह बनी, कि उन्होंने उसकी उतनी बुरी तस्वीर पेश नहीं की जितना बुरा यह था, और मुस्लिम काल में बुराइयां तलाशते रहे जब कि यह भारतीय इतिहास की प्रगति और उन्नति का काल था इसलिए इसकी बुराइयों को भुलाने और अच्छाइयों को उभारने की जरूरत समझी।

उपनिवेशवादियों की प्राचीन भारत की निराधार स्थापनाओं को वज्रलेख की तरह अकाट्य माना जाता रहा और जब प्रमाण देते हुए उनका खंडन किया गया तो इसे संशोधनवाद कह कर नकारने के प्रयत्न किए जाते रहे, और मध्यकाल के प्रामाणिक तथ्यों को छिपाते हुए उसके महिमा मंडन को, जिसे ही संशोधनवाद कहा जाता है, मार्क्सवादी समझ से लिखा गया इतिहास बताया जाता रहा। संशोधनवाद मार्क्सवादी इतिहास हो गया और अनुसंधान संशोधनवाद हो गया, इसे उल्टी खोपड़ी का कमाल न भी कहा जाये तो उल्टी समझ का महिमामंडन तो कहना ही होगा।

तथाकथित प्राच्यवादी लेखकों के इतिहास को इसलिए कम भरोसे का बताया जाता रहा कि उन्होंने प्राचीन भारत की उपलब्धियों से पूरी तरह आंख बन्द न की। ये उनकी स्वीकृति को महिमामंडन बताते हुए इसलिए खतरनाक बताते रहे कि इससे पश्चगामिता पैदा होने का डर था। मोटी समझ यह थी कि इससे हिन्दुत्ववादी ताकतों को बल मिल सकता था।

यदि यह समझ ठीक थी तो मध्यकाल के योजनाबद्ध महिमामंडन से मुस्लिम समाज में पश्चगामिता पैदा हुई, या कहें इसे इतिहासकारों के सहयोग से पैदा किया गया।

बाबरी मस्जिद कांड में मुल्लों से अधिक उत्साह से तथाकथित मार्क्सवादी इतिहासकारों की भागीदारी को इसका प्रमाण माना जा सकता है ।

यहां मैं यह नहीं कहता कि इतिहासकारों को इस पर चुप रहना चाहिए था, अपितु यह कि इसे इतिहासकारों द्वारा एक पुरातात्विक अवशेष की रक्षा का मुद्दा बनाया बनाया जाना चाहिए था, न कि बाबरी एक्शन कमेटी का रूप देकर उसमें शामिल होना चाहिए था, अत: इस आशय के मेरे सुझाव पर बया बन्दर की कहानी वाली प्रतिक्रिया हुई और इससे हुए मोहभंग में मुझे पहली बार उनके लीगी चरित्र का आभास मिला और उनकी बंदर बुद्धि का प्रमाण इस नामकरण में भी मिला।

बाबरी ऐक्शन कमेटी! प्रोटेक्शन कमेटी ऐक्शन में आ रही है तो ऐक्शन वाले तो प्रोटेक्शन करेंगे नहीं और उनके ऐक्शन को मजहबी रंग देकर रोका भी नहीं जा सकेगा, इसकी भविष्यवाणी भी मैंने उन लेखों में कर दिया था और तीन साल बाद वही हुआ।

आदतन फिर बहक गया पर मैं इसे सामने रखे बिना उस बौद्धिक दरिद्रता का चरित्र उजागर नहीं कर सकता जिसका ही सामूहिक नाम भारतीय बुद्धिजीवी हो गया। बुदिधजीवी से पूरा संतोष नहीं हो पाता इसलिए पिछले दो एक साल से तर्कवादी कहा जाने लगा है जब कि इसके प्रधान लक्षण है वाचालता और कामनसेंस या मोटी समझ का अभाव।

Post – 2017-12-09

अभी इस आग को कुछ और गलने दो।
लवा बन जाय तो बाहर निकलने दो।।
दरकने दो उपेक्षा की शिलाओं को
हवा गुम हो गई है, रुख बदलने दो ।।

Post – 2017-12-08

क्या हम कर रहे हैं
और क्या चाहते हैं।

मैं आज भी अपनी पोस्ट पूरी नहीं कर पाऊंगा इसलिए आज जो इधर उधर नजर आया उस पर मेरे मन में जो चिंता उभरी उसे साझा करना चाहता हूं। मेरी चिंता शीर्षक में व्यक्त है।

ऊल जलूल बकने वालों से निपटने के लिए तो उनके स्तर पर आना पड़ता है, जिससे बचने के लिए हारना भी जीत और जीतना भी हार है।

समाज को राह दिखाने का गुरु भार वहन करने वाले ज्ञानजीवी इस बात का ध्यान न रखें कि वे जो कह या कर रहे हैं उससे किन प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलेगा और वे देश, समाज, या विश्व मानवता के लिए हितकर हैं या नहीं तो क्षोभ होता है।

आज दो टिप्पणियों पर प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं।

एक, एक जघन्य और निन्दनीय, फिर भी मानवीय अंत:प्रकृति और गौरव परंरा की अति संवेदनशीलता के प्रभाव से जुड़ी विकृति है। दुर्भाग्य की बात है कि किसी व्यक्तिगत विश्वासघात के कारण ऐसी उग्रता मिली हो कि क्रोधविक्षिप्त व्यक्ति अपराध करते उसके सबूत पेश करते हुए कहता है मुझे फांसी दे दो, पर मैं इसे सहन न कर सका, न कर सकता हूं, न किसी को करना चाहिए। उसके या उसके परिवार को किस आजिजी से गुजरना पड़ा था उसका हम अनुमान नहीं कर सकते।

आहत दर्प, प्रेम या विश्वासघात या निजी असंतुष्टि के कारण पत्नी द्वारा पति को मारने, काट कर टुकड़े करने, या पति द्वारा वैसा ही जघन्य कृत्य करने के समाचार हंफ्ते पखवारे पढ़ने को मिलते रहते हैं । फिर इस एक व्यक्ति के गर्हित कार्य को सांप्रदायिक रंगत दे कर किस मनोवृत्ति के विस्तार में आप सहयोग कर रहे है?

यदि कर ही रहे हैं तो इसका लाभ क्या आप को मिलेगा? यह किसी योजना का अंग न था, पर जब विपरीत स्थितियों में फतवे दे कर या सांप्रदायिक अनुमोदन की प्रतीक चुप्पी ऐसे ही जुनूनी कामों पर साधी गई उसका लाभ किसे मिला होगा या मिल रहा है। आप की उस चुप्पी को मैं सही मानता हूं , पर तत्समय चुप्पी के बाद भी आज की वाचालता को सबके लिए अनिष्टकर पाता हूं। ये गंभीर मसले हैं। इन पर बहस होनी चाहिेए। संभव है मैं गलत होऊं। उसकी प्रतीक्षा की जा सकती है।

दूसरा प्रश्न कच्छे की पवित्रता से जुड़ा है। अब तक इस कसौटी पर महिलाओं की परख होती थी। इससे मुक्ति का संघर्ष महिलाएं कर रही थीं, विदुषी महिलाएं तय करें कि इसे चरित्र की कसौटी बनाया जाना चाहिए या नहीं। मैं न मार्क्स को इस पर खरा पाता हूं न गांधी को न नेहरू को, न इन्दिरा जी को , न वाजपेयी को , न असंख्य दूसरे लोगों को, जिनका मै सम्मान करता हूं, न स्वयं इस कसौटी का सामना कर सकता हूं।

Post – 2017-12-07

मलबे के मालिक

शीर्षक तो मोहन राकेश की कहानी का है और मालिक के रूप में उस पर बैठे प्राणी से अधिक भिन्न दशा मानविकी के क्षेत्र में हमारी नहीं है। ,

हमारा प्राचीन ज्ञान नष्ट करके मलबे में बदला जा चुका है और नया ज्ञान उन्ही से प्राप्त होने के कारण जिन्होंने पुराने ज्ञान को मलबे में बदला, विषाक्त है, जिसने राष्ट्रीय स्तर पर बौद्धिक पंगुता पैदा की है। इसके कारण वैश्विक स्तर पर हमारा अपना योगदान नगण्य है और जिसे सचमुच मौलिक कहा जा सकता है उसका हमें पता ही नहीं, या पता चले तो उधर से मुंह फेर लेते हैं, क्योंकि वह भारतीय भाषाओं में है जिसके बारे में हमने यह धारणा बना रखी है कि उसमें स्तरीय काम हो ही नहीं सकता।

यह दुभाग्यपूर्ण बात है कि इसकी गंभीरता को समझने की योग्यता तक हम खो चुके हैं, अतः इसे
कुछ उदाहरणों से समझाना जरूरी लगता है।

यह सच है कि हमारा प्राचीन ज्ञान गोदामों जैसा था जिनमें जो कुछ हमारे पास था कसा पड़ा था, न कि दूकानों की तरह जिनमें सब कुछ सजा कर और इतने तरतीब से रखा रहता है कि पलक भांजते ही हाजिर किया जा सके। पर अव्यवस्थित होते हुए भी वह इतना संभाल कर रखा गया था कि कई मामलों में एक एक अक्षर और मात्रा का हिसाब किया जा सके।

उसे क्रमबद्ध करने के नाम पर तोड़ मरोड़ कर मलबे में बदल दिया गया और हम खुश होकर तालियां बजाते रहे । लो, अभी तक तो हम शारीरिक श्रम को दूसरों पर छोड़ कर मौज मस्ती करते थे अब हमें बौद्धिक श्रम से भी मुक्ति मिल गई। अब सिर्फ छांटना और हांकना है।

पहले हम उन अध्येताओं को लें जिनको प्राच्यवादी मान कर मार्क्सवादी या तथाकथित सेकुलर लोग इसलिए अविश्वसनीय बताते रहे हैं कि उन्होंने प्राचीन भारतीय सभ्यता का ‘गुणगान’ किया है, और उनकी कटु आलोचना करते हुए प्राचीन भारत को सभी दृष्टियों से गया बीता और मुस्लिम काल (उन्होंने यही नाम दिया था जो उपनिवेसी काल के अन्त के बाद भी कुछ समय तक चलता रहा) को उससे हर दृष्टि से उन्नत बताया था, एकमात्र भरोसे का इतिहासकार मानते रहे।

यह याद दिला दें कि मुस्लिम काल की श्रेष्ठता का सबसे बड़ा कारण यह था कि वे पश्चिम से आए थे और सभ्यता का और सभी सिद्धान्तों का उत्स पश्चिम अर्थात यूरोप है, इसलिए जो भारत से जितना ही पश्चिम है वह अपने पूर्ववर्ती से उतना ही श्रेष्ठ है।

अत: हिंदुओं से मुसलमान, हिन्दुस्तानियों से ईरानी, ईरानियों से अरब श्रेष्ठतर हैं और यूरोप इन सभी से श्रेष्ठतर तो है ही।

सेकुलर बुद्धिजीवी इसी इतिहासदर्शन को आदर्श मान कर आज तक काम करते आए हैं, क्योंकि यह मुस्लिम बुद्धिजीवियों के श्रेष्ठताबोध की तुष्टि उसी तरह करता है, जैसे आर्यजाति और उसके आक्रमणकारियों की वंशधरता का भ्रम ब्राहमणों और सवर्णों के इस श्रेष्ठताबोध की तुष्टि करता था कि वे अपने शासकों से दूर का रक्त संबंध रखते हैं।

श्रेषठता बोध के ये दोनों गुमान सांप्रदायिक टकराव का भी कारण रहे हैं, और इसमें यूरोप के श्रेष्ठताबोध को भी जोड़ लें तो यह वेस्ट एंड द रेस्ट के बीच भी संघर्ष का कारण रहा है। जहां ग्रन्थियां प्रबल हों (वे हीनता की हों या श्रेष्ठता की) वहां बुद्धि ग्रंथियों की चेरी बन जाती है, वास्तविकता के केवल उसी अंश को देख पाती है जो इन ग्रंथियों की तुष्टि कर सके ।

इसका सबसे दुखद परिणाम यह है कि हमारे ऊपर इतिहास की लादी तो है, इतिहास की समझ नहीं है। यह बात केवल भारत के विषय में सच नहीं है, इन ग्रन्थियों के कारण पूरी दुनिया के विषय में सच है।

हम कह आए हैं कि इतिहास की गलत व्याख्या से वर्तमान को नष्ट किया जा सकता है । इतिहास की समझ को दुरुस्त करके हम वर्तमान की व्याधियों से मुक्त न भी हों तो उनकी उग्रता को कम कर सकते हैं। इतिहास की समझ मानव चेतना के माध्यम से हमारी मनोरचना को प्रभावित करती है। जड़ प्रकृति की व्याख्या (विज्ञान) और इसे नियंत्रित करने वाली विद्या (तकनीकी या प्रौद्योगिकी) में इतनी प्रगति के बाद भी मानवीय सरोकारों में इतना पिछड़ापन इसलिए बचा रह गया है कि जो समाज इतिहासविमुख और वर्तमान तक सीमित है, जो अपनी परिभाषा से ही हो कर भी नहीं है, उस मानवता का इतिहास होता नहीं, वर्तमान होकर भी नहीं होता और भविष्य विनाश के विकल्पों के बीच किसी के चुनाव तक सीमित रह जाता है।

बात भारतीय इतिहास पर करने चले थे, कहां पहुंच गए। धन्य हो भगवान तुम। पर हो सकता है कल सचमुच अपने विषय पर ही बात करें। भरोसा तो नहीं उम्मीद रखिए!

देखिए कहता है क्या भगवान कल
आज की बातें तो बीती हो गई ।।

Post – 2017-12-07

जब साहित्यकार एक स्वर से मोदी के नेतृत्व में भाजपा की जीत से आतंकित हो कर मातम मना रहे थे, मैं उनका उपहास कर रहा था। जब पुरस्कार वापसी का हंगामा किया गया तो मैंने, इसे मूर्खतापूर्ण कदम मानते हुए इसे बन्द करने का सुझाव यह कहते हुए दिया था कि इससे सरकार का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, एक संस्था की कीर्ति नष्ट होगी। आन्दोलन करने वाले थकान और व्यर्थताबोध के शिकार होंगे और उनकी हैसियत पहले से घट जाएगी।
अब जब सुना सरकार ने अशोक वाजपेयी पर सीबीआई जांच आरंभ की है, निवेदन करता हूं कि इससे अशोक वाजपेयी का उतना नुकसान नहीं होगा जितना सरकार की साख का। अशोक वाजपेयी में दूसरी अनेक कमियां हो सकती हैं पर मेरा विश्वास है, वह आर्थिक हेराफेरी नहीं कर सकते। आज से १६ -१७ साल पहले एक अखबार ने उन पर कुलपति के पद पर रहते करोड़ों के घोटाले का आरोप लगाया था। पत्रकार ने मुझसे फोन पर पूछा उस रपट पर क्या राय है? मैने कहा, ‘मैं वह अकबार नहीं मंगाता। कल देख कर अपनी राय दूंगा।’ उसने मेरी प्रतिक्रिया देते हुए प्रकाशित किया कि मैं उसकी खोज का समर्थन कर रहा था। मैंने संपादक से इसकी शिकायत की और अपेक्षा की कि वह इसे प्रकाशित करते हुए खेद प्रकट करें। उन्होंने ऐसा नहीं किया। उसके बाद से मंगलेश डबराल मेरी निगाहों में गिर गए। वह मेरे सामने पड़ने पर झेंप जाते हैं। मैने कभी अशोक वाजपेयी को सफाई देना जरूरी नहीं समझा। उसके बाद भी हमारे संबंध सामान्य रहे। मैं जिन कसौटियों पर व्यक्ति को परखता हूं वे बहुत सीधी होती हैं। यदि अशोक वाजपेयी ने किसी तरह की हेराफेरी की होती तो या यदि उनको मेरे व्यवहार में कोई दुर्भाव झलका होता तो हमारे व्यहार सामान्य नहीं रहते।पुरस्कार वापसी की कटु आलोचना के बाद भी हमारे व्यवहार में कोई तिक्तता नहीं है। वर्तमान सरकार यदि असहमति और विरोध का सम्मान न भी कर पाए उपेक्षा करने की नीति अपनाए तो मेरे मन में इसके प्रति आदर बना रहेगा ।

Post – 2017-12-06

ज़िंदगी पुरनम थीं, आंखें खुश्क, दिल बेजार था।
जब तलक तुझ पर फिदा था, जब तलक तू यार था।
————————————–

कहना चाहा उसे कहा ही नहीं
इतना गाफिल कभी रहा ही नहीं।
किस तरह तूने बचा कर रक्खा
दिल किसी को कभी दिया ही नहीं।
—————————————-

दिल की बीरानियों का क्या कहना
उजड़ चुके तो बसे लगते हैं ।।

Post – 2017-12-06

आंत सी टेढ़ी है, छोटी सी है यह बन्द गली।
‘तर्कवादी’ सभी इसमें समा गए कैसे?
धर्म की राजनीति जिसका कोई धर्म नहीं
अपना घर छोड़ गलत घर में आ गए कैसे ?
कोई बतलाए किसी को तो राज होगा पता
किससे खाया था और कितना खा गए कैसे?
दर्द उठता तो तड़पते भी हैं ललकारते भी
बनाने वालों को कोई बना गया कैसे ?

Post – 2017-12-06

ज़िंदगी पुरनम थीं, आंखें खुश्क, दिल बेजार था।
जब तलक तुझ पर फिदा था, जब तलक तू यार था।
————————————–

कहना चाहा उसे कहा ही नहीं
इतना गाफिल कभी रहा ही नहीोृं।
किस तरह इसको बचा कर रक्खा
दिल किसी को कभी दिया ही नहीं।
—————————————-

दिल की बीरानियों का क्या कहना
उजड़ चुके तो बसे लगते हैं ।।