#सर_सैयद_अहमद #भेदनीति के प्रयोग -5
हमारे सामने अब चार समस्याएं हैं। इनमें से एक को छोड़कर सभी कांग्रेस की स्थापना के बाद आरंभ होती है।
पहली, भाषा और लिपि की समस्या से जुड़ी हुई है ।
दूसरी, सांप्रदायिकता से जुड़ी हुई है।
तीसरी वर्ग संघर्ष की समस्या है।
चौथी, लोकतंत्र और तानाशाही के बीच चुनाव की समस्या है।
इन सभी का संबंध सर सैयद से जुड़ता है। इनके साथ न्याय करने के लिए इन्हें एक-एक करके विचार करना होगा।
भाषा और लिपि
यह एक ऐसा विषय है जिसके संबंध में आप सभी के पास काफी जानकारियां हैं। हम उन सवालों को भी यदि उठाना चाहते हैं तो इसलिए कि जिसे हम सही मानते हैं, उसे व्यवहार में गलत क्यों मान लेते हैं। अन्यथा हम केवल उन प्रश्नों को यहां रखना चाहते हैं जिन की ओर पहले ध्यान न दिया गया।
भाषा के अनेकानेक पक्ष हैं और सभी के कई आयाम हैं। उदाहरण के लिए व्याकरण की दृष्टि से सही होना व्यवहार की दृष्टि से गलत भी हो सकता है । यदि आप व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध परंतु ऐसी शब्दावली से भरी हुई भाषा बोलते हैं जिसे सुनने वाला समझ नहीं पाता तो यह सही होकर भी गलत भाषा है । यदि आप किसी भाषा का अच्छा ज्ञान नहीं रखते हैं परंतु टूटे-फूटे ढंग से, व्याकरण की गलतियां करते हुए,अपनी बात सही सही समझा लेते हैं तो यह सही बात है, यद्यपि व्याकरण की दृष्टि से सही नहीं।
हम जानते हैं कि भाषा लिपि नहीं है, उसे अनेक लिपियों में लिखा जा सकता है परंतु उसके लिए उनमें से कोई एक अधिक उपयुक्त हो सकती है।
दुनिया की कोई लिपि इतनी विकसित नहीं है कि वह किसी भाषा को बिल्कुल सही सही अंकित कर सके और उसके उच्चारण का कोई भी ऐसा मान्य रूप नहीं है जिसे सभी बोलते हों। इसका एक प्रयत्न संस्कृत के आचार्यों ने किया था, पर वह भी इतना अधूरा था कि उसके लिए सही उच्चारण की शिक्षा के लिए ग्रंथ लिखने पड़े। प्रातिशाख्य रचे गए और फिर भी गुरुजनों की सहायता की जरूरत पड़ती रही।
यदि संस्कृत बोलचाल की भाषा होती तो इसकी कोई जरूरत नहीं पड़ती। एक ही भाषा में अलग लोगों की अलग जरूरतें अलग अलग होती हैं। एक व्यक्ति चाहता है कि उसका कथन अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे। सरल भाषा में अपनी बात कहता है और भाषा को यथासंभव सरल बनाने की कोशिश करता है, दूसरा उसे कठिन बनाना चाहता है जिससे उसकी बात कम लोगों की समझ में आए, और भाषा पर उसके अधिकार के कारण दूसरों पर उसकी धाक जम सके।
भाषा को कठिन बनाने वाले उच्चारण की शुद्धता पर आवश्यकता से अधिक बल देते हैं और भाषा को अधिकतम लोगों के लिए बोधगम्य बनाने वाले इस मामले में अधिक आग्रही नहीं होते।
केवल भाषा ज्ञान के आधार पर बौद्धिक श्रेष्ठता की कामना करने वाले, या दूसरे लोगों को अवसरों से वंचित करने की चिंता में रहने वाले ऐतिहासिक अथवा भौगोलिक दृष्टि से दूर की, और शिक्षा के माध्यम से ग्रहण की जा सकने वाली भाषा के पक्षधर होते हैं।
सरल भाषा में बहुत सूक्ष्म या अमूर्त विचार नहीं रखे जा सकते, इसलिए विज्ञान, दर्शन, कलासमीक्षा इत्यादि के क्षेत्र में अधिक सटीक और कृत्रिम अर्थात् तकनीकी शब्दावली की जरूरत पड़ती है। इसका स्कूली शिक्षा से संबंध नहीं है, विशेषज्ञता से है। इसलिए अनपढ़ लोग भी अपनी विशेषज्ञता के क्षेत्र की तकनीकी शब्दावली का प्रयोग करते हैं जिन की जरूरत दूसरे क्षेत्रों के लोगों को नहीं पड़ती। इसे सामान्य भाषा से अलग जार्गन या कृत्रिम भाषा कहते हैं।
इन विविध कारणों से भाषा के साथ लगाव और स्वार्थों के टकराव होते हैं जिनसे सामाजिक टकराव आरंभ हो जाते हैं और उस दशा में ये और हिंसक रूप ले लेते हैं जब भाषा का संबंध प्राचीन साहित्य, संस्कृति और धर्म से हो।
एक ही राज्य में कई भाषाएं प्रयोग में आती हैं। उनके साहित्य या जातीय एकात्मता से संबंधित भाषाओं में से एक में ही राजकाज चलाया जा सकता है। वह भाषा कौन सी हो, इसका निर्णय व्यापक हितों के आधार पर होना चाहिए, परंतु अक्सर प्रभावशाली लोग अपनी भाषा को चुनने का दबाव पैदा करते हैं और निर्णायक नेतृत्व के अभाव में वे इसमें सफल भी हो जाते हैं।
यहां भाषा का गुण या दोष महत्त्व नहीं रखता। सबसे अधिक वैमनस्य यहीं पर आ कर पैदा होता है,क्योंकि इनसे अवसरों की उपलब्धता या अनुपलब्धता जुड़ी होती है। इसका निर्णय जनसाधारण के हाथ में नहीं अपितु सरकार के हाथ में होता है। यदि वह जनता के हित में नहीं होता तो इसके लिए आंदोलन करने की जरूरत होती है।
मध्यकाल में राजकाज की भाषा फारसी हो गई थी, जो अरबी लिपि में कुछ सुधार करके लिखी जाती थी। कंपनी के हाथ में सत्ता आने के बाद फारसी को हटा कर जनभाषा अर्थात बोलचाल की भाषा या वर्नाक्यूलर करना जरूरी समझा गया, परंतु इसे क्रियान्वित करने में किस तरह की चालाकियां की गईं और उनसे हमारा इतिहास, समाज और वर्तमान किस तरह प्रभावित हुआ, इस पर हम कल विचार करेंगे।