Post – 2018-10-18

#सर_सैयद_अहमद #भेदनीति के प्रयोग -5

हमारे सामने अब चार समस्याएं हैं। इनमें से एक को छोड़कर सभी कांग्रेस की स्थापना के बाद आरंभ होती है।
पहली, भाषा और लिपि की समस्या से जुड़ी हुई है ।
दूसरी, सांप्रदायिकता से जुड़ी हुई है।
तीसरी वर्ग संघर्ष की समस्या है।
चौथी, लोकतंत्र और तानाशाही के बीच चुनाव की समस्या है।
इन सभी का संबंध सर सैयद से जुड़ता है। इनके साथ न्याय करने के लिए इन्हें एक-एक करके विचार करना होगा।

भाषा और लिपि

यह एक ऐसा विषय है जिसके संबंध में आप सभी के पास काफी जानकारियां हैं। हम उन सवालों को भी यदि उठाना चाहते हैं तो इसलिए कि जिसे हम सही मानते हैं, उसे व्यवहार में गलत क्यों मान लेते हैं। अन्यथा हम केवल उन प्रश्नों को यहां रखना चाहते हैं जिन की ओर पहले ध्यान न दिया गया।

भाषा के अनेकानेक पक्ष हैं और सभी के कई आयाम हैं। उदाहरण के लिए व्याकरण की दृष्टि से सही होना व्यवहार की दृष्टि से गलत भी हो सकता है । यदि आप व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध परंतु ऐसी शब्दावली से भरी हुई भाषा बोलते हैं जिसे सुनने वाला समझ नहीं पाता तो यह सही होकर भी गलत भाषा है । यदि आप किसी भाषा का अच्छा ज्ञान नहीं रखते हैं परंतु टूटे-फूटे ढंग से, व्याकरण की गलतियां करते हुए,अपनी बात सही सही समझा लेते हैं तो यह सही बात है, यद्यपि व्याकरण की दृष्टि से सही नहीं।

हम जानते हैं कि भाषा लिपि नहीं है, उसे अनेक लिपियों में लिखा जा सकता है परंतु उसके लिए उनमें से कोई एक अधिक उपयुक्त हो सकती है।

दुनिया की कोई लिपि इतनी विकसित नहीं है कि वह किसी भाषा को बिल्कुल सही सही अंकित कर सके और उसके उच्चारण का कोई भी ऐसा मान्य रूप नहीं है जिसे सभी बोलते हों। इसका एक प्रयत्न संस्कृत के आचार्यों ने किया था, पर वह भी इतना अधूरा था कि उसके लिए सही उच्चारण की शिक्षा के लिए ग्रंथ लिखने पड़े। प्रातिशाख्य रचे गए और फिर भी गुरुजनों की सहायता की जरूरत पड़ती रही।

यदि संस्कृत बोलचाल की भाषा होती तो इसकी कोई जरूरत नहीं पड़ती। एक ही भाषा में अलग लोगों की अलग जरूरतें अलग अलग होती हैं। एक व्यक्ति चाहता है कि उसका कथन अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे। सरल भाषा में अपनी बात कहता है और भाषा को यथासंभव सरल बनाने की कोशिश करता है, दूसरा उसे कठिन बनाना चाहता है जिससे उसकी बात कम लोगों की समझ में आए, और भाषा पर उसके अधिकार के कारण दूसरों पर उसकी धाक जम सके।

भाषा को कठिन बनाने वाले उच्चारण की शुद्धता पर आवश्यकता से अधिक बल देते हैं और भाषा को अधिकतम लोगों के लिए बोधगम्य बनाने वाले इस मामले में अधिक आग्रही नहीं होते।

केवल भाषा ज्ञान के आधार पर बौद्धिक श्रेष्ठता की कामना करने वाले, या दूसरे लोगों को अवसरों से वंचित करने की चिंता में रहने वाले ऐतिहासिक अथवा भौगोलिक दृष्टि से दूर की, और शिक्षा के माध्यम से ग्रहण की जा सकने वाली भाषा के पक्षधर होते हैं।

सरल भाषा में बहुत सूक्ष्म या अमूर्त विचार नहीं रखे जा सकते, इसलिए विज्ञान, दर्शन, कलासमीक्षा इत्यादि के क्षेत्र में अधिक सटीक और कृत्रिम अर्थात् तकनीकी शब्दावली की जरूरत पड़ती है। इसका स्कूली शिक्षा से संबंध नहीं है, विशेषज्ञता से है। इसलिए अनपढ़ लोग भी अपनी विशेषज्ञता के क्षेत्र की तकनीकी शब्दावली का प्रयोग करते हैं जिन की जरूरत दूसरे क्षेत्रों के लोगों को नहीं पड़ती। इसे सामान्य भाषा से अलग जार्गन या कृत्रिम भाषा कहते हैं।

इन विविध कारणों से भाषा के साथ लगाव और स्वार्थों के टकराव होते हैं जिनसे सामाजिक टकराव आरंभ हो जाते हैं और उस दशा में ये और हिंसक रूप ले लेते हैं जब भाषा का संबंध प्राचीन साहित्य, संस्कृति और धर्म से हो।

एक ही राज्य में कई भाषाएं प्रयोग में आती हैं। उनके साहित्य या जातीय एकात्मता से संबंधित भाषाओं में से एक में ही राजकाज चलाया जा सकता है। वह भाषा कौन सी हो, इसका निर्णय व्यापक हितों के आधार पर होना चाहिए, परंतु अक्सर प्रभावशाली लोग अपनी भाषा को चुनने का दबाव पैदा करते हैं और निर्णायक नेतृत्व के अभाव में वे इसमें सफल भी हो जाते हैं।

यहां भाषा का गुण या दोष महत्त्व नहीं रखता। सबसे अधिक वैमनस्य यहीं पर आ कर पैदा होता है,क्योंकि इनसे अवसरों की उपलब्धता या अनुपलब्धता जुड़ी होती है। इसका निर्णय जनसाधारण के हाथ में नहीं अपितु सरकार के हाथ में होता है। यदि वह जनता के हित में नहीं होता तो इसके लिए आंदोलन करने की जरूरत होती है।

मध्यकाल में राजकाज की भाषा फारसी हो गई थी, जो अरबी लिपि में कुछ सुधार करके लिखी जाती थी। कंपनी के हाथ में सत्ता आने के बाद फारसी को हटा कर जनभाषा अर्थात बोलचाल की भाषा या वर्नाक्यूलर करना जरूरी समझा गया, परंतु इसे क्रियान्वित करने में किस तरह की चालाकियां की गईं और उनसे हमारा इतिहास, समाज और वर्तमान किस तरह प्रभावित हुआ, इस पर हम कल विचार करेंगे।

Post – 2018-10-18

ये भी कम नहीं है ऐ हमनशीं तेरे दिल में मेरा है कुछ बचा
वो गुलाल हो कि मलाल हो, अभी लाल से तो है वासता।

Post – 2018-10-17

अन्तर्विरोध

मैंने ‘Me Too के संदर्भ में जो टिप्पणी लिखी उस पर आई प्रतिक्रियाओं से ऐसा लगता है कि मेरे मंतव्य को सही संदर्भ में समझा नहीं गया, इसलिए इसको कुछ स्पष्ट करना जरूरी है। दूसरे पक्षों पर मुझे कुछ नहीं कहना।

हम सभी किसी अन्याय को देखते जानते और यहां तक कि सहते हुए भी चुप लगा जाते हैं क्योंकि प्रत्येक समाज में अनीति और कदाचार के इतने रूप घर परिवार से लेकर शीर्ष पदों और संस्थाओं तक में चलते रहते हैं कि गहन समीक्षा करने पर कोई व्यक्ति बेदाग सिद्ध ही नहीं हो सकता। इसलिए हमें कदम कदम पर संभल कर चलना और बच कर रहना होता है।

परन्तु किसी भी कारण से यदि कोई व्यक्ति इनमें से किसी के विरोध में उठ खड़ा हो तो दूसरे उसका समर्थन करना अपना नैतिक दायित्व मान कर उसके साथ खड़े हो जाते हैं। विरोध करने का किसी को साहस इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि उस दशा में वह उस कदाचार का समर्थक, या स्वयं लिप्त मान लिया जाएगा। इस तरह यह एक ऐसे विराट आंदोलन का रूप ले लेता है कि लगे (1) यही आज की सबसे ज्वलंत समस्या है, (2) कि इससे पहले यह थी ही नहीं, (3) कि जिस देश में आन्दोलन चल रहा है उसके अतिरिक्त अन्य किसी देश में यह विकृति है ही नहीं, और इसलिए (4) वह दुनिया का सबसे गिरा हुआ देश या समाज है। मैं पिछले कुछ वर्षों से दुनिया के सबसे बुरे देश को देखने का आदी हो चुका हूं, फिर भी अन्याय के सभी रूपों के साथ खड़ा रहना चाहता हूं, जैसे मैं छोटे बड़े सभी अपराधों का विरोध करता हूं।

परन्तु मैं कई बार लिख चुका हूं कि किसी घटना, क्रिया या कथन (अभिव्यक्ति के किसी भी रूप का) अर्थ उससे अधिक उसके सन्दर्भ – कब? किसने? किससे? कैसे? क्यों? आदि – में निहित होता है।

मैं इस अवसर पर उन लोगों का नाम न लूंगा जिनकी सूची से अपराधियों को मदद मिले। पर यह सवाल अवश्य करूंगा कि क्या आप ने ननों को संस्थाबद्ध रूप में खुलकर उत्पीड़ित और वहशियाना ढंग से उनसे पेश आने और इसे उचित ठहराए जाने के ठीक मौके पर इसे मुद्दा बनाए जाने के पहलू पर विचार करते हुए ठीक इसी अवसर को चुना? यदि हां तो आप स्वयं एक अति जघन्य अपराध का समर्थन कर रहे हैं और ऐसी दशा में अन्याय कथा सुनाने के बहाने अपराधियों के साथ हैं, संभव है लाभ, दबाव या ख्याति के लिए ऐसा करते हुए अपराध कर रहे हैं। यदि नहीं सोचा तो आपका इस्तेमाल कर लिया गया और आप भरोसे के काबिल नहीं।

क्या आपने ध्यान दिया कि रेप के मामले मे लांछना सिद्ध व्यक्ति को जमानत नहीं मिलती, पर नन के मामले में मिल गई। हमारी न्यायपालिका भी सांप्रदायिक चंगुल में है, यही उसका सोविधान संकट था।

Post – 2018-10-17

मेरी पूरी सहानुभूति उन महिलाओ के साथ है जो मी टू का दर्द बयान करने का साहस जुटा पाईं, पर यह समझ में नहीं आता कि यह बरास्ता अमेरिका भारत क्यों पहुंचा जहा के कानून हमसे अलग हैं।

जिस अवसर पर इसे उठाया गया उससे भ्रम होता है कि यह ननों की त्रासदी से ध्यान हटाने के लिए प्रायोजित किया गया।

इसका फिर भी यह मतलम नहीं कि उनका बयान गलत है। यह इरादतन मानहानि का मामला नहीं हेै। इसके लिए अलग व्यवस्था होनी चाहिए। इसे महिला आयोगको पहल करनी चाहिए।

कानूनी कार्रवाई करने वाले संतोषजनकसफाई न देकर कानून की धौंस दे कर यह प्रमाणित कर चुके हैं कि वे अपराधी हैं. मान सम्मान अदालत से नहीं समाज में व्यक्ति की छवि से संबंध रखता है और इसलिए मुकदमा जीत कर भी वे समाज की नजर मे उठ नहीं सकते। यह बता कर कि किस असंतोष का इस रूप में लिया जा रहा है, वे ऐसा कर सकते थे।

जो भी हो यदि शिकायत करने वाली महिलाओं को किसी रूप में परेशानी झेलनी पड़ती है तो हमारा हाल उन देशों जैसा हो जाएगा जहां रेप सिद्ध करने के लिए पुरुष गवाहों की अपेक्षा की जाती है जो दुर्भाग्य की बात होगी।

प्रस्तुत मामलोे सें विलंब का लाभ देते हुए अपराधियों को प्रमाण के अभाव मे मुक्त और मुकदमों के आरोपियों को क्षमायाचना तक के लिए विवश न करते हुए उनकी असावधाना के लिए अदालत को स्वय झिड़क कर मुकदमे को खत्म करना चाहिए।

Post – 2018-10-17

न तो प्यार था न गुनाह था
यह लहू था आतशी देखिए
जो बहा तो लफ्जों में ढल गया
जो मचल उठा तो बिखर गया

Post – 2018-10-17

कुछ सोच कर कहते तो पहले से पता होता
हम कह कर सोचते हैं, ‘यह किसने कहा होगा?’
ऐ हसरते बर्वादी बस तू ही समझती है
हर दर्द मेरा कितने पर्दों मे छिपा होगा ।।

Post – 2018-10-16

#भेदनीति के प्रयोग -4

क्या इस रहस्य को हम समझ पाते हैं कि क्यों गिलक्रिस्ट से लेकर हंटर और जॉन बीम्स तक सभी रईस मुसलमानों को ही हिंदुओं से अलगाने की योजना बना रहे थे ? जहां तक मेरी समझ है इसका प्रधान कारण यह था कि आम मुसलमान उनसे जितना आर्थिक कारणों से उत्पीड़ित था (the Muhammadans have suffered most severely under British Rule, Hunter, 92) उतना ही धार्मिक कारणों से उनसे नफरत करता था?

यदि सभी मुसलमानों को नहीं तो कुछ लोगों को ईसाइयत के साथ इस्लाम के धर्मयुद्धों का पता अवश्य रहा होगा अतः इससे समस्या का समाधान नहीं हो रहा था। इसे सीधे हिंदू मुसलमान का सवाल बनाते हुए उन्हें स्वयं की चिंता हो रही थी क्योकि
, they fired on our own pickets upon the banks of the Indus,38 and in a formal manifesto declared war against the English Infidels, and summoned all good Musalmans to the Crescentade.
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Their fanaticism, for which ample warrant can always be found in the Kuran, has been hotly excited, until at last there is danger that the entire Muhammadan community will rapidly be transformed into a mass of disloyal ignorant fanatics on the one hand, with a small class of men highly educated in a narrow fashion on the other, highly fanatic, and not unwarrantably discontented, exercising an enormous influence over their ignorant fellow-Muhammadans.
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When such a people have co-religionists in India numbering
thirty millions of men, it becomes a question of not less importance to their rulers than to themselves to know what to do with them.
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They hate the sight of an Englishman. When the scandal had grown so public as to render imperative a resident English Professor in the College, he had to be smuggled into it by night. During more than ninety years the Chapters on Holy War against the Infidel have been the favourite studies of the place; and up to 1868 or 1869*, I forget the exact date, examination questions were regularly given in this Doctrine of Rebellion. A mosque of fanaticism flourishes almost within the shadow of the College,228 and the students frequent the Rebel places of worship throughout all Calcutta. Hunter, p.123-24

{nb. *ध्यान रहे कि यही 1869 का वर्ष है जब सैयद अहमद ने इंग्लैंड की यात्रा की थी। अंग्रेजों को वह कितने उपयोगी लगे होंगे यह कल्पना की जा सकती है।}
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the English are Infidels, and will find themselves in a very hot place in the next world. To this vast accumulation of wisdom what more could be added? p.124

इसलिए उनको एक ऐसे वर्ग की जरूरत थी जो अपनी असुरक्षा से कातर हो अथवा इसकी आशंका से ग्नस्त होने के कारण उनके साथ आ सके और जिसकी संख्या कितनी भी कम क्यों न हो, जिसमें उसके गिरते हुए मनोबल की क्षति पूर्ति के लिए उनमें यह विश्वास भरा जा सके कि वे हिंदुओं से श्रेष्ठ है परन्तु उनकी गिरावट को उचित बताते हुए यह भी जताया जा सके कि यदि ऐसा होगा तो हमारी मर्जी से ही होगो। इस दृष्टि से ओडिशा के बदहाल रईसों के एक याजनापत्र पर टिप्पणीः
Their stilted phraseology may perhaps raise a smile; but the permanent impression produced by the spectacle of the ancient conquerors of the Province begging in broken English for bare bread, is, I think, one of sorrowful silence:—’As loyal subjects of Her Most Gracious Majesty the Queen, we have, we believe, an equal claim to all appointments in the administration of the country. Truly speaking, the Orissa Muhammadans have been levelled down and down, with no hopes of rising again born of noble parentage, poor by profession, and destitute of patrons, we find ourselves in the position of a fish out of water.

पर पुराने गौरव की याद दिला कर इस तरह का श्रेष्ठताबोध गिरे और मरे हुए अमीरजादों में भी पैदा किया जा सकता थाः.
During the last seventy-five years the Musalman Houses of Bengal have either disappeared from the earth, or are at this moment being submerged beneath the new strata of society which our Rule has developed—haughty, insolent, indolent, but still the descendants of nobles and conquerors to the last.

धार्मिकता से के साथ हैसियत में आ रही गिरावट से चिंतित मुसलमानों में यह भावना भरना कि वे हिन्दुओं से श्रेष्ठ रहे है, उनके लिए नई ऊर्जा का संचार करने के लिए जितना जरूरी था उससे अधिक यह शासकों के लिए अचूक बाण। हंटर इसका दोधारा प्रयोग करते हैंः
As haughty and careless conquerors of India, they managed the subordinate administration by Hindus, but they kept all the higher appointments in their own hands. 90

विजेता वाला यही मुहावरा सर सैयद भी दुहराते हैंः
When you conquered India, what did you yourself do? (मेरठ तकरीर)

हंटर विजेता के रूप में उनके कारनामों की याद दिलाने की आड़ में स्वयं अपने अत्याचारों को जायज भी ठहराता हैः
The payment of taxes was a badge of conquest; and to the conquerors accrued not only the revenue, but also the profitable duty of collecting it. It can never be too often insisted upon, however, that in India the relation of the conquerors to the native population was regulated rather by political necessity than by the Muhammadan Code. The haughty foreigners despised the details of collection, and left it to their Hindu bailiffs to deal directly with the peasantry. So universal was this system, that Akbar successfully defended the selection of a Hindu for his Minister of Finance by referring to it.

अमीर व्यक्ति चापलूस तो हो सकता है पर योद्धा नहीं हो सकता । राजा की शक्ति का रहस्य उसके कोषागार में होता है जिसके बल पर वह दूसरों को आश्रय देकर उनसे सामरिक काम कराता हैः आकर प्रभवो कोषः कोषात् दंडः प्रजायते। पृथिवीं कोषदंडाभ्यां प्राप्यते कोषभूषणाः। (कौटल्य)।
इसलिए यह पतनोन्मुख रईस वर्ग अपनी जरूरत से मुसलमानों में अंग्रेजों के प्रति विद्वेष को हिंदुओं की ओर मोड़ने की दिशा में निरंतर प्रयत्नशील रहा, और पर्दे के पीछे से धार्मिक उत्तेजना पैदा करता रहा जिससे उन्हें अपने साथ ले कर अपनी शक्ति बढ़ा सके। सर सैयद जैसा व्यक्ति भी मुसलमानों में यह दहशत पैदा कर रहा था कि कांग्रेस का समर्नेथन करने वाले हिंदू आगे चलकर मुसलमानों को अपने धार्मिक रीति रिवाज का पालन नहीं करने देंगे।
think that by joining the Congress and by increasing the power of the Hindus, they will perhaps be able to suppress those Mahomedan religious rites which are opposed to their own, and, by all uniting, annihilate them. But I frankly advise my Hindu friends that if they wish to cherish their religious rites, they can never be successful in this way. If they are to be successful, it can only be by friendship and agreement. The business cannot be done by force; and the greater the enmity and animosity, the greater will be their loss.

एक रोचक बात यह है कि अपनी पुस्तक में हंटर प्रशासनिक कार्यों से फारसी को हटाने को उचित मानता हैः और अपनी भाषा से वंचित किए गए हिंदुओं को इससे होने वाले लाभ को उचित ठहराता है
. During its second half century of power the tide turned, at first slowly, but with a constantly accelerating pace, as the imperative duty of conducting public business in the vernacular of the people, and not in the foreign patois of its former Muhammadan conquerors, became recognised. Then the Hindus poured into, and have since completely filled, every grade of official life.

Post – 2018-10-16

हम भी झुलसे हैं उसी आग से जिससे तुम
पर
तुम लगाते थे उसे
हम बुझाते थे उसे।।

Post – 2018-10-15

#सर_सेयदः #भेदनीति के प्रयोग -3

किसी व्यक्ति या समाज को हिंसक बनाना या कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार करना हो तो उसमें असुरक्षा की भावना पैदा करें। मरता क्या न करता। मेरे बचपन और किशोरावस्था में #“इस्लाम_खतरे_में है’ के नारों और सांप्रदायिक उपद्रवों के बीच चोली दामन का साथ था । वही नारा इक़बाल की बाद की शायरी में भी है, ‘न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदोस्तां वालो, तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में‘ । भारतीय मुसलमानों के दिमाग में जहर भरने में आतंकित रईसों औरमुहम्मद इकबाल सरीखे बुद्धिजीवियों भी भूमिका प्रधान है। मुस्लिम उनकी ऐसी ही कविताओं के कारण उनको दार्शनिक कवि कहते रहे हैं और आज भी कहते हैं। इस काल्पनिक भीति के कारण इस्लाम पर खतरा अनुभव करने वाले हिंदुओं के लिए खतरा बन जाया करते थे। साल दो साल पहले जब पदमुक्त उपराष्ट्रपति से लेकर सिनेस्टार तक असुरक्षित अनुभव करने लगे तो मुझे वे दिन याद आने लगे। जितना वे अपने को डरा बता रहे थे उससे अधिक घबराहट मुझे हो रही थी कि वह प्रवृत्ति आज भी कम न हुई है, अपितु बढ़ी है या, कहें, वोटबैंक की राजनीति के चलते लगातार बढ़ाई गई है जिसमें असुरक्षित लोग किसी को सुरक्षित नहीं रहने देते।

हम यह भी याद दिलाना चाहते हैं कि इतने सारे आघात सहने के बाद भी इस त्रिधा विभाजित देश के किसी भी क्षेत्र के हिंदुओं ने, अपनी यातना और पलायन की त्रासदियां दुहराते हुए भी, कभी हिंदुत्व खतरे में का नारा नहीं लगाया न ही पहले सैयद अहमद के समय तक कभी मुसलमानों ने यह नारा लगाया था। यह नारा कि “मुस्लिम रईस खतरे में हैं” दूसरे सैयद अहमद के साथ 1880 के बाद आरंभ हुआ ।

इससे पहले उनको उत्तर प्रदेश के बंगाल, मद्रास और महाराष्ट्र की तुलना में शिक्षा की दृष्टि से तब के आगरा और अवध प्रांत के पिछड़ जाने का बोध था। उनको 1857 में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह के आरोप से केवल मुसलमानों को दोषमुक्त कराने की विशेष चिंता थी। शिक्षा के मामले में मुसलमानों के पिछड़ जाने की चिंता थी, और इंग्लैंड से वापस आने पर सभी मुसलमानों के लिए शिक्षा की व्यवस्था करने और मुसलमानों के लिए एक विश्वविद्यालय स्थापित करने और भविष्य में उसे आक्सफोर्ड और कैंब्रिज के स्तर तक पहुंचाने की कामना थी। 1872 में उन्होंने अपनी कल्पना के विश्वविद्यालय के विषय में एक लेख लिखा था जो अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गजट 5 अप्रैल 1911 में दोबारा छपा था जिसमें इसे निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया थाः
I may appear to be dreaming and talking like Shaikh Chilli, but we aim to turn this MAO College into a University similar to that of Oxford or Cambridge. Like the churches of Oxford and Cambridge, there will be mosques attached to each College… The College will have a dispensary with a Doctor and a compounder, besides a Unani Hakim. It will be mandatory on boys in residence to join the congregational prayers (namaz) at all the five times. Students of other religions will be exempted from this religious observance. Muslim students will have a uniform consisting of a black alpaca, half-sleeved chugha and a red Fez cap… Bad and abusive words which boys generally pick up and get used to, will be strictly prohibited. Even such a word as a “liar” will be treated as an abuse to be prohibited. They will have food either on tables of European style or on chaukis in the manner of the Arabs… Smoking of cigarette or huqqa and the chewing of betels shall be strictly prohibited. No corporal punishment or any such punishment as is likely to injure a student’s self-respect will be permissible… It will be strictly enforced that Shia and Sunni boys shall not discuss their religious differences in the College or in the boarding house. At present it is like a day dream. I pray to God that this dream may come true. (विकीपीडिया)

पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि अभी तक उनकी चिंता पूरे मुस्लिम समुदाय को लेकर थी। उनके पास इसकी एक योजना थी। इसमें किसी तरह की घबराहट या असुरक्षा की भावना नहीं थी। एकाएक यह चिंता, असुरक्षा की यह भावना, अस्तित्व के संकट का रूप लेते हुए सिमट कर केवल रईसों तक सीमित रह गई, यह एक असाधारण परिवर्तन था।

1880 के कुछ बाद ही भारतीय पाठकों का ध्यान हंटर की पुस्तक THE INDIAN MUSALAMAN 1971 की ओर गया। इस पुस्तक में उसने यह दिखाया था कि सरकारी नौकरियों में कोपनी की नीतियों और अपनी अशिक्षा के कारण मुसलमान पिछड़ गए हैं और हिंदू सभी पदों पर छा गए हैं। जफरुल इस्लाम और रेमंड जेन्सन “Indian Muslims and Public Service, Jornal of Asiatic Society, Pakistan, 9.1.1964 pp 86ff में उत्तरदायित्व के पदों पर दोनों समुदायों के लोगों की प्रत्येक दशक की तालिकाएं देते हुए सिद्ध किया कि हंटर द्वारा नौकरियों में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भेदभाव की बात निराधार है। कि पूरे देश में विभिन्न प्रांतों में यह अनुपात अलग अलग पाया जाता है और पूरी तस्वीर सामने आने पर अनुपात में कोई न अंतर दिखाई देता है न ही 1871 के बाद कोई सुधार दिखाई देता है।

इसका अर्थ यह है की हंटर ने जानबूझकर आंकड़ों को केवल बंगाल तक सीमित रख कर आपसी टकराव पैदा करने का प्रयत्न किया था और सैयद अहमद इसके शिकार हो गए थे। उनकी दृष्टि केवल मुसलमान अमीरों तक सिमटकर रह गई।

1880 के दशक से पहले तक भारत सरकार को किसी संगठित राजनीतिक विरोध का सामना नहीं करना पड़ा था। उसकी जरूरत मुस्लिम समाज के धार्मिक आक्रोश को कम करना या उसकी दिशा को हिंदुओं की ओर मोड़ना मात्र था। समस्या उपद्रव रोकने या कम करने की थी। इस दिशा में उसके प्रयत्न विफल हो जाने के बाद मुस्लिम समाज के महत्वाकांक्षी और प्रभावशाली छोटे से वर्ग की जरूरत थी जो अपने समाज के पिछड़ जाने की चिंता से कातर हों और जो मजहबी कट्टरता को या तो शिक्षा और आधुनिकता की ओर मोड़ सकें। यह प्रश्न कि मुसलमानों का मजहब क्या महारानी से विद्रोह करने की शिक्षा देता है, लॉर्ड मेयो ने हंटर के सम्मुख रखा था और उसी का परिणाम था यह नया तेवर। उस पुस्तक में ही मुस्लिम रईसों की बदहाली और हिंदुओं के आगे बढ़ने की कहानी को एक दूसरे का कारण बताते हुए उसने बंगाल के अमीरों की दुर्दशा का मार्मिक चित्रण किया था और यह भी स्केवीकार किया था कि इसके लिए कंपनी के शासक स्वयं भी जिम्मेदार थे।
‘If any statesman wishes to make a sensation in the House of Commons, he has only to truly narrate the history of one of these Muhammadan families of Bengal. He would first depict the ancient venerable Prince ruling over a wide territory at the head of his own army, waited on through life by a numerous household, with all the stately formality of an Eastern Court, and his death-bed soothed by founding mosques and devising religious trusts.

अब इस पृष्ठभूमि में उसकी आज की दशा कैसी है इसका चित्रण करना बाकी रह जाता है
He would then portray the half-idiot descendant of the present time, who hides away when he hears of an English shooting party in his jungles, and when at length dragged forth by his servants to pay the courtesy due to the strangers, lapses into a monotonous whimper about some tradesman’s execution for a few hundred rupees which has just taken place in his palace.

उनकी दशा कितनी दयनीय है यह दिखाते हुए वह लिखता हैः
From the roofless walls of the mosque the last stucco ornament has long since tumbled down. The broad gardens with their trim canals have returned to jungle or been converted into rice-fields. Their well-stocked fish ponds are dank, filthy hollows. The sites of the summer pavilions are marked by mounds of brick dust, with here and there a fragmentary wall, whose slightly arched Moorish window looks down desolately upon the scene. But most melancholy of all is the, ancient Royal Lake. The palace rises from its margin, not, as of old, a fairy pillared edifice, but a dungeon-looking building, whose weather-stained walls form a fitting continuation to the green scum which putrefies on the water below.181 The gallery is a tottering deserted place. The wretched women who bedeck themselves with the title of princesses no more go forth in the covered barge at evening. Their luxurious zenana is roofless, and its inhabitants have been removed to a mean tenement overlooking a decayed stable yard.

इसके साथ है यह नकली सहानुभूति जो सहलाती कम है, चोट अधिक गहरी करती है और यह इंगित करती है कि उनके पुराने अत्याचारों और उनकी दुर्गति से हिंदुओं को कितनी राहत और प्रगति के अवसर मिले हैंः
If ever a people stood in need of a career, it is the Musalman aristocracy of Lower Bengal. Their old sources of wealth have run dry. They can no longer sack the stronghold of a neighbouring Hindu nobleman; send out a score of troopers to pillage the peasantry; levy tolls upon travelling merchants; purchase exemption through a friend at Court from their land-tax; raise a revenue by local cesses on marriages, births, harvest-homes, and every other incident of rural life; collect the excise on their own behalf, with further gratifications for winking at the sale of forbidden liquors during the sacred month of Ramazan.

इसके कारणों की विस्तार से जांच करते हुए हंटर दो काम एक साथ करते हैं एक अपने संभावित हिंदू पाठकों के मन में पुराने अपमान और दुर्दशा की याद ताजा कराना और मुसलमान अमीरों को यह समझाना कि उनकी व्यवस्था मुस्केलिम काल के अधिक अच्छी है और इसके आने के साथ यह तो होना ही था। यह तो मुसलमानों की गलती है कि उन्होंने अपने को समय के अनुसार नहीं कर ढालाः
The administration of the Imperial Taxes was ‘the first great source of income in Bengal, and the Musalman aristocracy monopolized it. The Police was another great source of income, and the Police was officered by Muhammadans. The Courts of Law were a third great source of income, and the Musalmans monopolized them. Above all, there was the army, an army not officered by gentlemen who make little more than bank interest on the price of their commissions, but a great confederation of conquerors who enrolled their peasantry into troops, and drew pay from the State for them as soldiers. . A hundred and seventy years ago it was almost impossible for a well-born Musalman in Bengal to become poor at present it is almost impossible for him to continue rich. 93- 94.

इस चित्रण मे सैयद आहमद को मुस्लिम रईसों की भावी तस्वीर दिखाई देने लगी। धर्मांतिरत मुसलमानोे के पास अपने पेशे थे। उनके बिना हिंदुओं का भी काम नहीं चल सकता इसलिए उन पर कोई खास असर नहीं होने वाला। यही वह कारण है जिसमे धर्मान्ततरित मुसलमान भी कुछ अलग दिखाई देने लगे और सारी जिंता केवल रईसों की गिरती हुई हैसियत और आसन्न भविष्य को लेकर होने लगी। यहीं अपने मजहब के भारतीय मूल के लोगों की तुलना में अंग्रेज सगे लगने लगे। या तो अंग्रेजों को बचाओ और बचे रहो या हिंदुओं की गुलामी करो।

Post – 2018-10-14

#भेदनीति के प्रयोग -2

एक पराजित देश और समाज का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह नहीं होता कि वह सत्ता से वंचित हो जाता है। उससे बड़ा दुर्भाग्य यह होता है कि वह अपना आत्मविश्वास खो बैठता है। वह मान बैठता है की विजेता की हर चीज उसके अपने प्रतिरूप से श्रेष्ठ है। वह अपने हीरे की पहचान भूलकर उसे फेंकने और विजेता के कांच को भी हीरा समझकर जुटाने और गले लगाने लगता है।

हमारे समाज में ऐसे शिक्षित और संभ्रांत माने जाने वाले लोगों की कमी नहीं है जो यह मानते हैं कि अंग्रेजों ने भेदनीति का बहुत सफलता पूर्वक प्रयोग किया और हमें हमेशा के लिए बांटने में सफल हो गए। कुछ तो यह भी मानने को तैयार हो जाएंगे कि यह नीति मूलतः उनका ही आविष्कार थी।

इस नीति का सफल प्रयोग तब माना जाता जब वे अपनी सत्ता को इस प्रयोग के द्वारा अधिक सुदृढ़ कर पाते, और हम आज भी उनके अधीन बने रहते। भले आपस में लड़ते हुए ही क्यों नहीं। परंतु हुआ इसके विपरीत। इसका अर्थ यह है, नीति उन्होंने अपनाई, परंतु इसका पालन कैसे किया जाता है इसका पता उनको न था। इसमें विफल हुए। लाभ की अपेक्षा सब की हानि हुई और जो कुछ वे हासिल करना चाहते थे उसे हासिल न कर सके। इससे केवल सर्वनाश हुआ और जिनको इसका सबसे अधिक मूल्य चुकाना पड़ा उनको यह भ्रम तक हो सकता है कि वे हर तरह से लाभ में रहे।

नीति के साथ नैतिकता का प्रश्न जुड़ा हुआ है। दंड विधान के साथ भी उसके प्रयोग की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि दंडित व्यक्ति यह अनुभव करे कि उसने गलत काम किया था और इसलिए दंड तो उसे मिलना ही चाहिए था। दंड का एक पर्याय है, शिक्षा। यदि शिक्षा न मिली तो दंड परपीड़न में बदल जाता है। यदि दंड अपेक्षा से अधिक हुआ उत्तेजना पैदा करता है, यदि कम हुआ तो उस प्रवृत्ति को रोकने की अपेक्षा बढ़ाता है। तुल्य दंड अपराधी को शिक्षित करता है और समाज अपराधियों को रोकने में समर्थ होता है। तीक्ष् दंडो हि भूतानां उद्वेजनीयः, मृदुदंडः परिभूयते, यथार्ह दंडः पूज्यः।

कोई किताब हाथ लग जाने से आप उसका सही अर्थ ग्रहण कर लें यह भाषाज्ञान से अधिक मनोवृति पर निर्भर करता है। भारतीय मूल्य प्रणाली का निर्वाह पश्चिमी जगत वहां भी नहीं कर पा रहा है जहां इसका दावा करता है, उदाहरण के लिए, राष्ट्रसंघ।

हम यह कह सकते हैं कि इसके तरह तरह के प्रयोग करने में उन्होंने असाधारण धैर्य का परिचय दिया, परंतु विफलता मिली क्यों? इस पर ध्यान नहीं दिया या यदि दिया तो उस मनोवृत्ति को रोक नहीं सके जिसके कारण विफलता मिली। विफलता के बावजूद अंग्रेजों ने मुहम्मडन कॉलेज में नए प्रयोग करने की लगातार कोशिश की और यह कोशिश 1857 के बाद भी जारी रही, यद्यपि सफलता कभी न मिली। इसको हम हंटर के शब्दों में ही रखना चाहेंगेः
But on the more general and less tangible accusation of neglect I must say a few words. If we analyse this charge, we shall find that our unsympathetic system of Public Instruction lies at the root of the matter. The Bengal Musalmans can never hope to succeed in life, or to obtain a fair share of the State patronage, until they fit themselves for it, and they will never thus fit themselves until provision is made for their education in our schools….I propose to relate the one great effort we have made in this direction. The English in India have failed in their duty towards the Musalmans, but it is only fair to narrate the difficulties and discouragements which they have met with in trying to do it. … As the wealth of the great Muhammadan Houses decayed, their power of giving their sons an education which should fit them for the higher offices in the State declined pari passu. To restore the chances in their favour, Warren Hastings established a Muhammadan College in …1819 it was found necessary to appoint an European Secretary. In 1826 a further effort was made to adapt the Institution to the altered necessities of the times; an English class was formed, but unhappily soon afterwards broken up. Three years afterwards, another and a more permanent effort was made, but with inadequate results. During the next quarter of a century, the Muhammadan College shared the fate of the Muhammadan community. It was allowed to drop out of sight; and when the Local Government made any sign on the subject, it was some expression of impatience at its continuing to exist at all. (पृ.118-19)

इस नकली सहानुभूति के पीछे जिस सचाई पर परदा डाला गया वह हैंः
The neglect and contempt, with which, for half a century, the Muhammadan population of Lower Bengal has thus been treated, have left their marks deep in recent Indian literature.

यह भी इसका एक पक्ष है। उपेक्षा की बात की गई, अमानवीय उत्पीड़न और खुली लूट को ओझल कर दिया गया। यह छिपा लिया गया कि कोई न कोई बहाना बनाकर कंपनी किसी भी तरह की संपत्ति को लूटने की कोशिश करती रही, चाहे वह शिक्षा और धर्म के लिए ही क्यों न होः
For it is no use concealing the fact that the Muhammadans believe that, if we had only honestly applied the property entrusted to us for that purpose, they would at this moment possess one of the noblest and most efficient educational establishments in Bengal. In 1806 a wealthy, Muhammadan gentleman of Hugli District died, leaving a vast estate in pious uses. Presently his two trustees began to quarrel. In 1810 the dispute deepened into a charge of malversation, and the English Collector of the District attached the property, pending the decision of the Courts. Litigation continued till 1816, when the Government dismissed both the trustees, and assumed the management of the estate, appointing itself in the place of one trustee, and nominating a second one. Next year it let out the estate in perpetuity, taking a suitable payment from each of the permanent leaseholders. These payments, with the arrears which had accumulated during the litigation, now amount to £105,700,211 besides over £12,000 which has since been saved from the annual proceeds of the estate.

The Trust had, as I have said, been left for pious uses. These uses had been defined by the will, such as the maintenance of certain religious rites and ceremonies, the repair of the Imambadah, or great mosque at Hugli, a burial ground, certain pensions, and various religious establishments. An educational foundation came strictly within the purposes of the Trust, but an educational establishment on the Muhammadan plan, such as the founder would have himself approved. A College for poor scholars has always been considered ‘a pious use‘ in Musalman countries. But any attempt to divert the funds to a non Muhammadan College would have been deemed an act of impiety by the testator, and could only be regarded as a gross malversation on the part of the trustees. Indeed, so inseparable is the religious element from a Muhammadan endowment, that the Government had to carefully investigate the legality of applying a Trust, made by a gentleman of the Shiah sect, to the education of the Sunni Musalmans.

We may imagine, then, the burst of indignation with which the Muhammadans learned that the English Government was about to misappropriate the funds to the erection of an English College. This, however, it did. It devoted an estate left expressly for the pious uses of Islam, to founding an institution subversive in its very nature of the principles of Islam, and from which the Muhammadans were practically excluded. 112-13

इससे ही प्रकट है, तथ्यों की जानकारी के बाद भी हंटर उस घृणा के लिए केवल मुसलमानों को दोष देकर और कंपनी को बहुत उदार दिखाकर, वस्तुस्थिति का एकपक्षीय चित्र प्रस्तुत कर रहे थे। ईमानदारी के बिना नकली सद्भावना घृणा तो पैदा करेगी ही, उसकी व्याख्या भी प्रदर्शन बन कर रह जाने को बाध्य है।

अब इसके साथ भारतीय इतिहास के उस सच को देखें जिसमें भेदनीति का अनुप्रयोग करने वाला (वस्सकार) एक अपराजेय गणसंघ (लिच्छवि) पर विजय के लिए अपने राजा (अजातशत्रु) से अपमानित और निर्वासित किए जाने के बाद उसकी शरण में जाता है। धीरे धीरे अनेक परीक्षाओं से गुजर कर विश्वास अर्जित करता है। उस संघ की गोष्ठी के एक सदस्य को आवश्यक कार्य के नाम पर अलग ले जा कर कानाफूसी वाली आवाज में उसके घर परिवार का कुशल पूछता है और फिर दोनों सभा में लौट आते हैं। बाद में जब उसकी अनुपस्थिति में दूसरे सदस्य जानना चाहते हैं कि उसने क्या कहा था, तो सच बताने के बाद भी कोई विश्वास नहीं करता और इस तरु संदेह का आरंभ हो कर फूट कलह का रूप ले लेती है और उसके बाद के आक्रमण में वह गणसंघ पराजित हो कर उस राज्य का करद हो जाता है। इसी पर आधारित है पंचतंत्र की काकोलूकीय कहानी। यह बुद्ध के अपने जीवनकाल की घटना है। भेदनीति की कसौटी कार्यसिद्धि है, न कि विनाश।