Post – 2019-04-24

#मुस्लिम_समाज और #नेतृत्व_का_संकट- 9

अब हम विहंगम दृष्टि डालते हुए यह देखने का प्रयास करेंगे कि जिन समस्याओं से ग्रस्त और पिछड़े समाज को उबारने के लिए एक नए धर्म का प्रवर्तन मुहम्मद साहब ने किया था उसमें बदलाव तो आया परंतु उन प्रवृत्तियों को क्या रोका जा सका जिनको रोकने का संकल्प लिया गया था?

यहां हम अपने इस मंतव्य को दुहराना चाहेंगे कि क्रांतियों से विस्फोट होता है, मानव ऊर्जा का सही दिशा में उपयोग नहीं हो पाता। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण इस्लाम के इतिहास में ही मिलता है।

व्यक्तिगत रूप में मैं मानता हूं कि कुरान शरीफ के सूरे मोहम्मद साहब के इलहाम के तुरंत बाद अंकित नहीं किए गए थे, कुरान शरीफ संभवतः उनके जीवन काल में लिखा ही नहीं गया। इसे विजेताओं के दस्तावेज के रूप में वर्तमान रूप दिया गया, परंतु इस चर्चा में हम यह मानकर चलेंगे कि आगे जो कुछ भी घटित हुआ उसका सूत्रपात उनके आंदोलन से हुआ था, इसलिए लिखित रूप में जो कुछ उपलब्ध है वह प्रामाणिक है।

जाहिलिया
हम जाहिलिया का अर्थ दुर्दशा करना चाहेंगे। अरब प्रायद्वीप अपनी भौगोलिक सीमाओं के कारण सभ्यता का केंद्र भले न बन पाया हो, यह प्राचीनतम सभ्यताओं की गतिविधियों के परिमंडल के बीच में स्थित रहा है। ईस्वी सन से 3000 साल पहले आरंभ होने वाली ये गतिविधियां विभिन्न चरणों से होती हुई रोमन साम्राज्य के पतन तक चलती रहती है।

यदि इस्लामी धर्मोन्मादियों ने पहले के समस्त वाङ्मय को जाहिलिया की विरासत मानकर उसे नष्ट न कर दिया होता तो हमें उन गतिविधियों का कुछ पता चल पाता जिनमें अरब कबीलों की भागीदारी थी।

सभी धर्म अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए अपने से पहले की अवस्थाओं का ह्रदय विदारक चित्र प्रस्तुत करते हैं, जिसका अपवाद बौद्ध धर्म भी नहीं है। जाहिया शब्द के प्रयोग से हम किसी सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते। सच तो यह है पहले के साहित्य का विनाश कर के इस्लाम द्वारा एक नई तरह की जहिलिया का सूत्रपात किया गया, और हमारे पास इस्लामी जगत के इतिहास को जानने के लिए पुरातत्व को छोड़कर दूसरा कोई स्रोत बाकी ही नहीं बचा।

पुरातत्व गूंगा होता है और अपने समय के समस्त वैभव का क्षुद्र अंश होता है जिसकी जबान बनने वाले व्याख्याता अपनी जरूरत के अनुसार बयान तैयार करके उनके मुंह में डाल देते हैं।

समाज को समझने के लिए पुरातत्व की अपेक्षा साहित्य अधिक भरोसे का है, और भौतिक जीवन का आभास पाने के लिए पुरातत्व साहित्य से अधिक भरोसे का है। मिलावट दोनों की दूर करनी होती है तभी सच्चाई सामने आ पाती है। यूरोपीय विद्वानों के पास यूरोप का इतना पुराना साहित्य उपलब्ध नहीं था इसलिए उन्होंने एक स्रोत के रूप में साहित्य की साख ही नष्ट कर दी, परंतु एशिया की कृपा से ग्रीक साहित्य की जितनी चिंदियां मिलीं उनका अभिभूत हो कर प्रयोग करते रहे।

यह ध्यान रहे कि जब हम परिमंडल की गतिविधियों की बात करते हैं तो केवल सभ्यता के केंद्रों बात नहीं करते। उससे अधिक बड़ी भूमिका यातायात की रही है। अरब के इन यायावर कबीलों का इस गतिविधि में कितना उपयोग किया जाता था इसका पता साहित्य से ही चल सकता था।

जो भी हो जिस भाषा में कुरान शरीफ लिखी गई वह एक उन्नत, परिष्कृत समृद्ध भाषा है, और ऐसी भाषा सांस्कृतिक अन्तर्क्रिया के दौरान ही निर्मित होती है। अतः हम पाते हैं कि इस्लाम ने जाहिलिया का दौर समाप्त नहीं किया, बल्कि उसका आरंभ किया।

जाहिलिया का दूसरा पक्ष समृद्धि-जनित भोग विलास, या अय्याशी से जुड़ा हुआ था। अय्याशी भूखे पेट नहीं होती। यह अरबों की आर्थिक खुशहाली का प्रमाण है। यह सच लगता है कि आपसी प्रतिस्पर्धा में वे प्रायः लड़ते झगड़ते रहते थे।

इस्लाम के माध्यम से मोहम्मद साहब ने इनके बीच आपसी भाईचारा और वैर-विरोध के परित्याग का, और इस जीवन में सादगी लाने का संदेश तो दिया ही, सादगी को उसकी पराकाष्ठा पर पहुंचते हुए कलाओं तक का निषेध कर दिया।

इस तरह का निषेधवादी दृष्टिकोण कैथोलिकों ने भी नहीं अपनाया, जिन्होंने मूर्तियां तो तोड़ीं, परंतु अन्य कलाओं के माध्यम से छवि निर्माण को संरक्षण देकर प्रोत्साहित किया। इस्लाम में छवि निर्माण को पूरी तरह समाप्त करने का प्रयत्न किया गया, और और मोहम्मद साहब की एक ऐसी छवि निर्मित हो गई जो बाद की पीढ़ियों के लिए सबसे बड़ा बंधन बनी। उन्होंने कब, क्या, कैसे किया, मुसलमानों को वही करना है भले जमाना बदल जाए, जो नहीं किया वह नहीं करना है। आत्मरति का इससे बड़ा उदाहरण चिकित्सा शास्त्र के इतिहास में भी नहीं मिलेगा।

जहां तक अय्याशी का प्रश्न है, ऊपरी सादगी के दिखावे की नीचे, अय्याशी को बढ़ावा दिया गया। सृष्टि का सब कुछ मुसलमानों की मौज मस्ती के लिए बनाया गया है और उन्हें जिस चीज से आनंद मिलता है उस पर कोई रोक नहीं।

यह अजीब बात है कि इस्लाम से पहले अनेक कबीलों में निर्णय शक्ति स्त्री के पास के पास थी, समाज मातृसत्ताक था परंतु स्त्री और पुरुष दोनों एक ही मत के हुआ करते थे, इस्लाम के बाद पुरुष मुसलमान हो गया, स्त्री पुरुषों के उपभोग की की दूसरी वस्तुओं की तरह एक वस्तु बन गई।

यदि वह भी मुसलमानों होती तो मनचाही मौज मस्ती का जो विधान पुरुषों के लिए था वह उसके लिए भी होता। पुरुषों के लिए उनके नेक काम के बदले में जिस जन्नत का विधान किया गया वैसी ही जन्नत का विधान पाक दामन औरतों के लिए भी किया गया होता।

खैर जन्नत की कल्पना इस्लाम से बहुत पुरानी है और इसकी कल्रपना करने वालों ने, उनका धर्म कोई भी क्यों न हो, स्त्रियों के प्रति कभी सम्मान का भाव रखा ही नहीं।

यदि विलासिता को जाहिलिया का दोष माना जाए, तो मात्र सिक्का उल्टा, विलासिता को कई गुना बढ़ा दिया गया। यह विचित्र बात है कि इस्लाम आज भी सादगी का आदर्श कायम करने की कोशिश में जाहिलिया के दौरों से लगातार जूझता रहा है।

मुहम्मद साहब ने अरब कबीलों को उस कमजोर, फिर भी अनेक व्यापार मार्गों मे से एक मार्ग के छोटे से हिस्से पर आंशिक – क्योंकि अरबों का अधिकार या उपयोग लाल सागर से सटे पूर्वी हिस्से के लिए था, इसी में समृद्धि और पिछड़े समाजों की मौज मस्ती का दौर आया था। इसी में वह शिश्नोदर-परायणता आई थी जिसके विरुद्ध मोहम्मद साहब ने आंदोलन किया था।

सच कहें तो चिरकालिक विपन्नता के बीच दूसरे प्रततिस्पर्धियों के कमजोर पड़ने के कारण अरबों को यह नायाब अवसर मिला था, जिसके वैभव के अपव्यय को रोकते हुए, विलासिता विरोधी, कलह-विरोधी, हिंसा विरोधी पर्यावरण तैयार करने का, विलासिता की अपेक्षा संयम सादगी अपनाने का क्रांतिकारी प्रयत्न मोहम्मद साहब ने किया था, वह विफल हो गया।

हम मानते हैं यथार्थ की जटिलताओं को समझना तक किसी एक व्यक्ति के लिए असंभव है। क्रांतिकारी एक झटके में उसके चरित्र को समझे बिना बदल देना चाहता है इसलिए किसी एक मामले में उसे आश्चर्यजनक सफलता मिल जाती है इसके बाद भी यथार्थ के दूसरे पहलुओं को समझे बिना पूरे यथार्थ को बदलने वाले उसी महासमुंद्र में कलैया खाकर आ गिरते हैं।

इस्लाम में आई गिरावट को दूर करने के लिए जो प्रयत्न किया गया था, उसका एक रूप वहाबी आंदोलन हैं। मैं वहाबी आंदोलन का एक संक्षिप्त परिचय विलियम विल्सन हंटर के शब्दों में रखना चाहूंगा। इसका व्यंग्य यह है कि सुना वहाब अल्लाह के नामों में से एक है। जिस व्यक्ति ने यह आंदोलन चलाया उसका नाम भी मोहम्मद था और उसके पिता का नाम वहाब था । जिन परिस्थितियों में यह आंदोलन शुरू हुआ उसका परिचय इन इबारतों में मिल सकता है जिनको कुछ सोच समझ कर पढ़ना होगाः
About a hundred and fifty years ago, a young Arab pilgrim, by name Abd-ul-Wahhab, the son of a petty Nezd chief, was deeply struck with the profilgacy of his fellow-pilgrims, and with the endless mummeries which profaned the Holy Cities. For three years he pondered over the corruptions of Mohammadanism in Damascus, and then stepped forth as their denouncer. He rendered himself peculiarly hateful to thr creatures of Constantinople court, accusing the Turkish Doctors of making the written word of no effect by their traditions (Sunnat), and Turkish people of being worse than the infields by reason of their vices. Driven from city to city, he at least took refuge with the chief of Deraiyeh, Muhammad Ibn Saud, into whom he instilled his religious views and a sense of his great wrongs. ….With the aid of his new convert, who married his daughter, he formed a small Arab leagu ee and raised the standard of revolt against the Government of CONSTANTINOPLE, and of protest against her corrupted creed. Victory crowded upon victory. The Bedouins, who had never adored Muhammad as quite a divine person, nor accepted Kuran, as an altogether inspired book, flocked to the army of reformation…W.W.Hunter, Indian Mussalamaan, 57-58

मोहम्मद साहब के समय में यथार्थ और उसके चित्रण का रूप क्या था यह निश्चय करना हमारे बस का नहीं है, परंतु वहाबी आंदोलन जिससे सऊदी अरब का प्राधान्य स्थापित हुआ उसका इतिहास हमारे सामने है और दुर्भाग्य से उसका वर्तमान भी हमारे सामने है जिसने पेट्रो डॉलर से उत्पन्न अपार समृद्धि को जाहिलिया का नया अध्याय लिखने पर बर्वाद कर दिया। इस्लाम ने जाहिलिया को दूर नहीं किया, रूपांतरित किया और नेतृत्व की कमी, इतिहास के नकार, उससे उत्पन्न नासमझी को विश्वास और अंधविश्वास का सहारा लेते हुए दूर करने के प्रयास में आज तक यह दूसरों के उपयोग मैं आता रहा और अपने पांव पर खड़ा होने में असमर्थ रहा।
शिशनोदरपरायणता का सबसे आधुनिक रूप सऊदी अमीरों के आचार में, और जिहादी मानव बम बनकर हूरों और गिल्मों और कामवासना के सभी साधनों से संपन्न जन्नत में जाने की बेताबी मैं देखने में आती है। मुझे पुलवामा के बाद की खबरों से यह जानकारी मिलने पर हैरानी हुई कि मानव बम बनने के लिए तत्पर एक व्यक्ति की कामनाएं अधूरी रह गई, क्योंकि उसको इसके लिए अभी और इंतजार करना था।

मैं जानता हूं मैं जो कुछ लिख रहा हूं उसे कोई मुसलमान नहीं पढ़ेगा । यदि पढ़ें तो यह इतना दरबाबंद समाज है, कि बाहर का कुछ भी ग्रहण करने में असमर्थ हो चुका है, कि बाहर का ज्ञान ही नहीं अपनी मान्यताओं पर पुनर्विचार भी आघात जैसा प्रतीत होता है। फिर भी हम जिनके साथ रहते हैं, उनके चरित्र को समझना और यथासंभव राग द्वेष से मुक्त होकर समझना हमारे दूरगामी हित में

Post – 2019-04-24

अब क्या बचा है जिंदगी में देखिए साहब!
बस आप हैं, और मैं हूं, और कोई नहीं है।

Post – 2019-04-23

#मुस्लिम_समाज में नेतृत्व का संकट
(समाहार)

दुनिया का कोई व्यक्ति अपने वस्तुगत यथार्थ की जटिलता के कारण उसका बहुत सही आकलन नहीं कर पाता। चिकित्सक की तरह वह सबसे उग्र व्याधि को ही एकमात्र व्याधि समझकर उसको निर्मूल करना चाहता है, जबकि उसी के साथ हमारे शरीर में उससे भी अधिक खतरनाक दूसरे रोग हो सकते हैं। जिस एक को निर्मूल करना चाहता है उसका भी पूरा उपचार प्रायः नहीं हो पाता। कई बार, अधिक प्रभावकारी दवा के दुष्परिणाम उस व्याधि से भी अधिक कष्टकर होते है। अदूरदर्शी झटपट नीरोग होना चाहते हैं, उग्र तरीके अपनाते हैं, पहली व्याधि को दबाते हुए, दूसरी अनेक व्याधियां पैदा कर लेते हैं। अधिक दूरदर्शी व्यक्ति आरोग्य पर ध्यान देता है, दवा के परहेज करता है। उपचार भी यथासंभव प्रकृति के अनुरूप करता है। पेशीयबल की अपेक्षा आत्मबल पर भरोसा करता है। उसकी दृष्टि किसी एक बिंदु पर केंद्रित नहीं होती, समग्र पर ध्यान देती है।

गांधी और दूसरे नेताओं में यह बुनियादी अंतर है। गांधी किसी तरह के बल प्रयोग पर, भले उसके परिणाम अच्छे हों, विश्वास नहीं करते। खिलाफत के बदले में जब मुसलमानों के एक समुदाय ने प्रस्ताव रखा कि वे गो वध नहीं करेंगे, तो उन्होंने इससे इंकार कर दिया। यदि आप हमारे सहयोग के बदले में ऐसा करना चाहते हैं तो न करें, स्वयं ऐसा अनुभव करें तो करें।

यह मामूली सी बात इतनी मुश्किल है कि हममें से अधिकांश की समझ में नहीं आती, पर यही गांधी को गांधी बनाती है। बाहरी बल प्रयोग से लाए जाने वाले परिवर्तन पर वह विश्वास नहीं करते। वह सफलता में विश्वास नहीं करते अपनी सर्वोत्तम बुद्धि के अनुसार सही रास्ते पर चलते रहना उनकी दृष्टि में सबसे बड़ी उपलब्धि है। हमारे पैमाने से अक्सर विफल होने के बाद भी अकेले गांधी हैं जो विफल होकर भी गलत नहीं होते और पूरी मानवता के लिए दीपस्तंभ बने रहते हैं।

क्रांति करने वाले तात्कालिक सफलता में विश्वास करते हैं। उसके लिए गर्हित तरीके अपनाने के लिए तैयार रहते हैं।

सामान्यतः लोग मुकदमा जीतने के लिए झूठ बोलने, झूठे गवाह खड़े करने के लिए तैयार रहते हैं। गांधी नहीं। वह अपने मुवक्किल को भारी नुकसान का खतरा उठाते हुए भी सच बोलने के लिए तैयार कर लेते हैं, और इसके बाद भी उसे जीत का आनंद अनुभव होता है वह इसके लिए कृतज्ञ अनुभव करता है।

पोप इनोसेंट प्रथम, मोहम्मद साहब, कार्ल मार्क्स क्रांति करते हैं क्रांति का दर्शन देते हैं और और मानवता का जितना कल्याण करते हैं या करना चाहते हैं उससे अधिक क्षति पहुंचाते हैं। वे सत्ता का चरित्र बदलते हैं समाज का चरित्र पहले से अधिक विकृत कर देते हैं परंतु तात्कालिक सफलता की चकाचौंध में उनकी विफलता आंखों से ओझल रह जाती है।

जब हम मोहम्मद साहब की, एक नेता के रूप में, विफलता की बात करते हैं, तो चेतना की पृष्ठभूमि में गांधीजी रहते हैं। यही कारण है कि मोहम्मद साहब पर बात करते हुए मुझे गांधी की याद आ गई थी।

हमने जिन तीन नेताओं को क्रांतिकारी बताया है उन सभी पर एक साथ चर्चा करना संभव नहीं है। संक्षेप में या अवश्य बता सकते हैं की क्रांतियों से लाभ की अपेक्षा हानि इसलिए अधिक होती है कि इतने बड़े पैमाने पर ऊर्जा के उन्मोचन को नियंत्रित करने का हमारे पास कोई तंत्र नहीं होता। क्रांति की कामना के साथ मनुष्य का स्वभाव नहीं बदल जाता।

पोप इनोसेंट ने पुराने विचारों, विश्वासों, संस्थानों, आराधना स्थलों, साधना और उपासना पद्धतियों, कलाकृतियों, ग्रंथागारों, विद्यालयों, और विद्वानों को नष्ट करने का, मनुष्य जाति के हजारों साल की संचित संपदा को नष्ट करने का और ज्ञान विज्ञान को निर्मूल करते हुए विश्वास और अंधविश्वास की जो पृष्ठभूमि तैयार की उस पर कुछ कहने को नहीं रह जाता।

इस्लाम में यदि पोपतांत्रिक ईसाइयत की इन सभी बुराइयों का प्रवेश हुआ, उसमें मोहम्मद साहब की कितनी भूमिका थी यह तय करना हमारे लिए कठिन है, परंतु इतना तो तय है ही कि यूरोप इनोसेंट की धार्मिक क्रांति के साथ अंधकार युग में चला गया, जिसमें साहित्य, कला, आदर्श सभी धार्मिक अंधविश्वास की परिधि में काम कर सकते थे।

मोहम्मद साहब द्वारा लाई गई कांति से अरब जगत का अंधकार युग में प्रवेश हुआ, उसके बाद, इस्लाम जहां-जहां फैला वहां वहां उसी अनुपात में प्राचीन ज्ञान संपदा और कलाकृतियों को नष्ट करते हुए अंधकार युग का प्रवेश हुआ, जिस अनुपात में वहां की सत्ता पर हावी होने वाले सच्चा मुसलमान सिद्ध होने के लिए सभ्यता द्रोहियों की तरह काम करते रहे।

मार्क्सवाद एक ऐसे युग का क्रांतिदर्शन है जिसमें सीधे बल प्रयोग के द्वारा ऊपर की किसी चीज को मिटाया नहीं जा सकता था, परंतु केवल मार्क्सवादी कलाकारों, दार्शनिकों, साहित्यकारों को श्लाघ्य बनाना, प्राचीन ज्ञान, विश्वास, इतिहास, सब की अवहेलना क्या उसी विनाश लीला का नया संस्करण नहीं है। जाे हमारे साथ नहीं है वह हमारा शत्रु है, क्या ईसाइयत के उसी विश्वास का अनुवाद नहीं है कि जो ‘सद्धर्म’ नहीं अपना सके हैं, वे जहालत में हैं? क्या यह इस्लाम के, ‘जो मुसलमान नहीं है वह शैतान की जद में है, काफिर हैं’, से मेल नहीं खाता? केवल एक दर्शन मार्क्सवाद। दूसरे दर्शन कुफ्र हैं।

जिस तथ्य पर इन तीनों को एक ही कोटि में रखते हुए बल देना चाहता हूं वह यह कि इनोसेंट प्रथम ने जीसस को सूली पर लटकाया था, रोमनों ने नहीं। उन्होंने ईशा के संदेश को उलट दिया, और एक नया धर्म ईसा के नाम का इस्तेमाल करते हुए चलाया जो ईसा-द्रोही, मानव-द्रोही, ज्ञान-विज्ञान द्रोही, पाशविक है, धर्म की आड़ में अधर्म का तंत्र है।

ठीक इसी नतीजे पर मार्क्स और एंगेल्स को पढ़ने और उनके दर्शन के नाम पर सत्ता हासिल करने वालों के आचरण को देखने पर पहुंचते हैं।

लेनिन बहुत बड़े थे। उनकी सत्ता की भूख उससे भी बड़ी। उनके द्वारा अपनाया तरीका और दी गई छूट तो उससे भी बड़ी थी। आप जानते हैं यह कैसे पैदा हुआ?

यह मध्य एशिया की बर्बर जातियों के स्वभाव से पैदा हुई थी इसके भुक्तभोगी दुनिया के सर्वाधिक सभ्य देश – भारत और चीन – रहे हैं। जारशाही जिसकी अपराध कथाओं को सुनते हुए हम सोवियत सोवियत क्रांति से जुड़ी अपराध कथाओं को भूल जाते हैं, उसी जमीन से पैदा हुई थी, और उसी में साम्यवाद का सबसे पहला प्रयोग हुआ था। दोष लेनिन का नहीं था, उस प्राकृतिक परिवेश का था, जिसमें जीवन निर्वाह मानवतावादी अपेक्षाओं का निर्वाह करते हुए हो ही नहीं सकता था।

यदि आपको यह कथन याद न हो कि क्रांति डॉल्फिन के उस छलांग जैसी है जिसमें एक क्षण को हमें विस्मय में डालती हुई वह हवा में रहती है पानी की सतह से ऊपर दिखती है और फिर उसी में आ गिरती है।

इन दोनों उदाहरणों से, और मोहम्मद साहब के विषय में जो कुछ सुनने को मिलता है उसके आधार पर यह मानने का प्रलोभन होता है कि मोहम्मद साहब ने जो वैचारिक क्रांति की थी वह सत्ता पर हावी होने वालों के प्रभाव में आकर उनके अपने उद्देश्यों के विपरीत चली गई। तभी याद आता है कि कुरान शरीफ मोहम्मद साहब के विचारों का सही प्रतिनिधित्व नहीं करता। वह सचमुच शांति के देवदूत थे। कुरान को उल्टा पल्टा, पर हदीस पढ़ने का अवसर ही नहीं मिला। सुनी सुनाई बातें उस व्यवहार से मेल नहीं खाती जिनको इस्लाम का अचार दर्शन बना लिया गया।

इसलिए इन तीनों दर्शनों के मामले में, उनका सैद्धांतिक पक्ष सत्ता पर अधिकार करने वालों के आचार व्यवहार से उल्टा दिखाई देता है। कामचलाऊ जानकारी का लाभ उठाते हुए मैं केवल यही अपेक्षा करूंगा कि इस्लाम के पंडितों द्वारा इस्लाम का इतिहास खोजने और लिखने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। मेरी योग्यता आशंकाएं प्रस्तुत करने की है, समाधान करने की नहीं।

एक छोटे से अंतर को रेखांकित करना चाहूंगा। इन तीनों महर्षियों ने प्रकृति की कृपणता के कारण, या व्यवस्थाजन्य अपमानवीकरण से अपने और अपनी दृष्टि से मानव समाज का उद्धार करना चाहा और सत्तालोलुप नेताओं ने उस परिस्थितिजन्य गिरावट को औजार बना कर अपने दार्शनिक अग्रदूतों की हत्या कर दी। ईसा पहले और अन्तिम ईसाई थे। मुहम्मद पहले और अंतिम मुसलमान थे। मार्क्स पहले मार्क्सवादी भी नहीं थे, और अंतिम मार्क्सवादी भी नहीं हैं। गांधी ने अपने सारे औजार पहले के विचारकों से लिये थे। उनसे अधिक मौलिक तो भारतेंदु और दयानंद सरस्वती सिद्ध होते हैं, परंतु गांधी में अपनी परंपरा का सारसत्य है, इसलिए गांधी विफल होने पर भी पूरी मानवता ही नहीं सृष्टि की रक्षा के लिए भी सबसे प्रासंगिक है और गोली खाकर ढेर हो जाने के बाद भी नहीं मरता। वह विफल होता है, निष्फल नहीं होता।

Post – 2019-04-22

अब कुछ नहीं बचा है आज रात के लिए
बस एक नाम, एक जाम, वह भी नहीं है।

Post – 2019-04-22

इतना दगाबाज कोई हो सकता है?
मैं सोच रहा था उसको अपनी तुकबंदियों की भूमिका लिखने को कहूंगा। किसने खबर कर दी कि उसने ठान ली कि मर जाऊंगा पर इतना गलत काम न करूंगा।
शेरजंग! भूमिका लिखने से पहले तुमको मरने नहीं दूंगा।

Post – 2019-04-21

#मुस्लिम_समाज और #नेतृत्व_का_संकट -7

हमने बहुत सलीके से तो नहीं, फिर भी अब तक जो चर्चा की है उसका सार यह है नेतृत्व का एक पर्यावरण होता है जिससे उसकी शक्यताएं जुड़ी होती है। इसका एक पक्ष है समाज की समझ और उस की बाध्यकारी अपेक्षाओं की पहचान।

समाज एक जटिल संरचना है जिसकी पूरी समझ किसी को नहीं हो सकती। इसके बावजूद अपने परिवेश की जानकारी के बल पर हम यह भ्रम पाल लेते हैं कि हम अपने समाज को तो जानते ही हैं ।

यहां मैं उन लोगों की बात कर रहा हूं, जो अपने समाज का अंग बन कर रहते हैं, उनकी नहीं जो सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और पदीय दृष्टि से ऊंचे दर्जों पर होने के कारण, न केवल अपने को शेष समाज से काट कर रखते हैं, अपितु आपसी स्पर्धा के कारण एक दूसरे से भी बिना दुराव के मिल नहीं पाते फिर भी दूसरों से बढ़कर दावा करते हैं कि वे सुशिक्षित होने के कारण अपने समाज को अधिक अच्छी तरह जानते हैं जबकि । वे अपने ही समाज के अजनबी होते और अजनबी बने रहने पर गर्व भी करते है।

कुछ और आगे बढ़ें तो पाएंगे, वे अपने लिए भी अजनबी बने रहते हैं, और आत्मनिर्वासन की अनुभूति से ग्रस्त रहते हैं । ऐसे लोग अपने किताबी पांडित्य के कारण आतंकित भले करें, वस्तुतः सूचनाओं का गोदाम होने के बावजूद वे कुछ नहीं जानते। उन्हें अपने देश की, अपने समाज की, और उस समाज में अपनी भूमिका की खोज करनी पड़ती है, परंतु उनके चरित्रगत आभिजात्य के कारण यह खोज भी, इकहरी और अधूरी रह जाती है। वे अपनी सारी कोशिशों के बावजूद अपने समाज से एकात्म्य स्थापित नहीं कर पाते। प्रकृतिस्थ नहीं हो पाते। उनकी जानकारी हमारे काम की नहीं होती; हमारी जानकारी को वे तुच्छ समझते हैं। समाज का सबसे अनिष्ट ऐसे ही लोगों के द्वारा होता है।

समाज को समझने के लिए, सच कहें तो किसी को समझने के लिए, हमें अपने मन को उसके अनुसार ढालना होता है। हम हठ और अहंकार के साथ अपने स्वजनों को भी नहीं समझ सकते, समाज और दुनिया को समझना दूर की बात है। समाज में सहज भाव से मिलना, समझदार लोगों को अपनी तौहीन प्रतीत होती है। उनके प्रति आदर रखना, उनको समझने का प्रयत्न करना, और इसके लिए उनकी जड़ों की खोज करना, उस महा-प्रयोगशाला में उतरने की मांग करता है जिसे इतिहास कहते हैं। परंतु इस प्रयोगशाला में पहुंचने की इस प्राथमिक योग्यता के बिना, अपने ज्ञानदंभ के कारण वे बौद्धिक आतताई की तरह प्रवेश कर सकते हैं, उसमें मनचाही उलट फेर कर सकते हैं, परंतु उनको वह त्रिकालभेदी दृष्टि मिल सकती है जो समर्पित भाव से इतिहास में प्रवेश करने वाले को मिलती है।

मोहम्मद साहब ने अपने इतिहास को समझने की जगह उसे नष्ट करने का प्रयत्न किया। यह एक ऐसी चूक थी जिसके लिए हम उनको दोष नहीं दे सकते क्योंकि आज से डेढ़ हजार साल पहले उनसे जो भूल हुई वह भूल तो मार्क्सवादी इतिहासकार आज भी लगातार करते हैं। इसे आप एक अच्छा सा नाम देते हुए चाहें तो क्रान्ति कह सकते हैं। इस्लामी और मार्क्सवादी इतिहास दर्शन में काफी समानता है। कौन किसका ऋणी है यह
बताने की जरूरत नही

शिंशुमार (डॉल्फिन) पानी से छलांग लगाता है, और कुछ समय तक आसमान में रह कर, कलैया मार कर फिर उसी पानी में गिरता है। हम इतिहास को उलट कर, अपने को समझा लेते हैं, कि पुराने इतिहास से मुक्त हो गए परंतु अंततः पाते हैं कि मात्र लिफाफा बदला है अंतर्वस्तु में अधिक अंतर नहीं आया।

विकास, प्रगति, छलांग, और क्रांति यह इतिहास के औजार हैं। छोटे पैमाने से लेकर बड़े पैमाने तक, सचेत और अचेत रूप में, ये सक्रिय रहते हैं। हम इतिहास को मनुष्य की जय यात्रा के रूप में देखते हैं, इसलिए यह याद रखना चाहते हैं कि सत्य के साथ असत्य की सत्ता की तरह, इतिहास के साथ अनितिहास के भी दौर आते हैं जिनमें ठहराव, पिछड़ापन, या पुनरुत्थान वाद को औजार बनाया जाता है। यह किसी समाज के पराजयबोध जनित आत्मरक्षा के उपाय होते हैं, जिनके महत्त्व को, पराजित समाजों के संदर्भ में, कम करके नहीं आंका जा सकता, परंतु ये तरीके उसे मिटने से भले बचा लें, पिछड़ने से नहीं बचा पाते। पहले की अपेक्षा अधिक निरूपाय होने से नहीं बचा पाते।

रोचक बात यह है कि कई बार इतिहास और अनितिहास एक ही समाज में, या कहें सभी समाजों में, किसी न किसी रूप में सत्य में मिले झूठ और झूठ में मिले सच की तरह एक साथ विद्यमान होते हैं । क्या आपने इस बात पर ध्यान दिया कि ब्रिटेन और अमेरिका अधिकांश दृष्टियों से अग्रणी होने के बाद भी माप और तौल में दाशमिक प्रणाली नहीं अपना सके क्योंकि इसका आरंभ फ्रांस ने किया था जिससे ब्रिटेन की शत्रुता थी और अमेरिका कनाडा ऑस्ट्रेलिया आबादी के मामूली हेरफेर के बावजूद ब्रिटेन की परंपरा से जुड़े हुए हैं। स्वाभिमान की रक्षा इतनी बड़ी कीमत देकर वैज्ञानिक युग में यदि की जाती है, तो जो समाज वैज्ञानिक युग में प्रवेश न कर सके उन्हें कैसे दोष दे सकते हैं?

छोटे पैमाने की क्रांतियां अक्सर क्रांति मानी ही नहीं जातीं, जबकि पैमाना छोटा होने के कारण उन को नियंत्रित करने के औजार हमारे पास होते हैं इसलिए वे हमेशा अपने प्रयोजन में सफल होती है। स्वतंत्र भारत में आपने कितनी क्रांतियां की हैं और किनको कांति की संज्ञा दे पाए हैं? गांधी ने मशीनीकरण के विरुद्ध एक सुविचारित क्रांति की थी जो प्रतिक्रांति जैसी प्रतीत हो सकती है। इसके बीज हमारे इतिहास में थे। इसके जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र थे, वाहक बंगाल के विप्लववादी थे, परंतु मैं इसे गांधी के साथ इसलिए जोड़ना चाहता हूं कि गांधी के पास इसका पूरा दर्शन था। लेने को तो उन्होंने अपने सारे औजार, अपनी परंपरा से ही लिए थे और मौलिक होने का कोई प्रलोभन उनके मन में कहीं नहीं था।

गांधी का दर्शन स्पष्ट था। जब तक मनुष्य का पेशीय बल प्रयोग में नहीं आता है, और इसके कारण उसे अभाव से गुजरना पड़ता है, तब तक मनुष्य की रोटी छीन कर मशीन को खिलाने, और मनुष्य को भूखा रखने वाली व्यवस्था मानववादी हो ही नहीं सकती। यह कुछ लोगों के कभी तृप्त न होने वाले लोभ को उत्तेजित करके कुछ लोगों के लिए वैभव तो ला सकती है, वंचित समाज का और प्रचुरता से अघाए हुए लोगों का अपमानवीकरण तो करेगी ही।

गांधी आज की सभी समस्याओं का समाधान स्वावलंबन से करना चाहते थे। प्रयोग के बिना उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता, परंतु पूंजीवादी विकास के, जिसकी जड़ें भारी उद्योग में हैं, परिणामों को देखने के बाद
यह मानने का प्रलोभन पैदा होता है कि गांधी सही थे। छुआछूत की समस्या का गहरा संबंध क्या उन समुदायों से नहीं है जो श्रम से बचने का प्रयत्न करते रहे हैं और उसके कई तरह के बहाने निकालते रहे। पर्यावरण की समस्या हो, या विश्वशांति की, या पूंजीवादी विस्तार को नियंत्रित करने की, या प्राकृतिक संसाधनों का संयम के साथ उपयोग करने की, जिससे वे बहुत लंबे समय तक हमारे हित में प्रयोग में आ सकें हैं, और सब से ऊपर श्रम के सर्जनात्मक आनंद और आत्मिक उत्फुल्लता का जिसे हम उसी तरह भूल गए हैं जैसे नाव का सहारा लेने वाला तैराकी के आनंद को नहीं समझ पाता। मार्क्स और गांधी में कितनी गहरी
समानता है, मशीनीकरण से उत्पन्न अमानवीकरण के विरुद्ध दोनों कैसे एक ही भाषा में बात करते हैं यह सोच कर आश्चर्य होता है। मार्क्स का दुर्भाग्य है कि वह गांधी से पहले पैदा हो गए । गांधी का दुर्भाग्य है कि विश्व इतिहास में उनको समझने की मेरा रखने वाला अकेला व्यक्ति उनके बाद पैदा नहीं हुआ ।

आत्मावलंबन जनसंख्या के अनियंत्रित विस्फोट का भी उत्तर था। तुम अपनी कमाई से जानो कि तुम कितने बच्चों को पाल सकते हो, उसी के अनुरूप अपनी संतानों की संख्या निश्चित करो।

गांधी मोहम्मद साहब के विलोम हैं। उनसे अधिक जटिल। अधिक दूरदर्शी। मानवतावादी तो अधिक हैं ही। परंतु इतिहास की विडंबना है अपनी सीमित समझ के कारण लोग दूरदर्शी महान नेताओं को समझ नहीं पाते, और तात्कालिक समस्याओं का जज्बाती हल निकालने वाले समाज को कहां से कहां बहा ले जाते हैं ।

हमारी इस चर्चा में गांधी के लिए तो कोई जगह नहीं थी। विचार शृखला में कहां से कहां पहुंच गए और बीच की कई स्थापनाओं को, स्पष्ट करने से रह गए। क्या विडंबना है, इस उम्र तक लिखना नहीं आया और लिखने से बाज नहीं आता। क्षमहिं जे सहहिं प्रवाद।

Post – 2019-04-21

मैने 19 अप्रैल को तुलसी पर एक लाइन लिखी थी, उसे बहुत से मित्रों ने पसन्द किया पर टिप्पणियों से पता चला कि वे तुलसी में कमियां तलाशने वालों को दुष्ट समझते हैं।

मैने यह वाक्य यह याद दिलाने के लिए लिखा था कि उसी तुलसी में उन्हें जो दिखाई देता है, वह आप को दिखाई नहीं देता, जो आप को दिखाई देता है उस पर उनकी नजर नहीं जाती। यह टिप्पणी मैंने अपने पिछले कथन के दृष्टांत के रूप में लिखी थी। तटस्थता की उस मांग को उदाहृत करने के लिए कि दूसरों को कभी उनकी नजर से भी देखें तभी उनके साथ न्याय कर पाएंगे।

जब सरल हिंदी में लिखे वाक्य का अभिप्राय समझने में पूर्वाग्रह के कारण इतनी कठिनाई पैदा होती है तो दूसरों के शास्त्र और धर्मग्रंथ समझने में कितनी कठिनाई होगी?

आप को वह कैसा दिखता है इसे बेझिझक कहें जिससे वे भी चाहें तो अपने को आपकी नजर से देख सकें, (लोग क्या सोचते होंगे इसका ध्यान तो हम रखते ही हैं) पर अपना मन्तव्य कुछ रियायत देते हुए और सम्मान के साथ प्रस्तुत करें। खाट खड़ी करने के इरादे से नहीं।

Post – 2019-04-21

खयालों से आगे खयालों की दुनिया।
मिली भी तो बस आसमानों की दुनिया।।
जमीं पांव रखने को भी मिल न पाई
मिली तोहमतों की बवालों की दुनिया।।
जिसे हम समझते थे अपनी, नहीं है
है जिनकी वे परचम हैं, इंसां नहीं हैं
छिदरते गुजिस्ता जमानों की दुनिया
यही बच रही है बचाने को दुुनिया।।
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
यह दुनिया अगर मिट भी जाए तो क्या है।

इसे गर्क होने दो, खुद को बचाओ
जलालत से शर्मिंदगी से बचाओ
यही है हमारे ठिकानों की दुनिया
यही रह गई नौनिहालों की दुनिया।
मेरे पास आओ, मेरे साथ आओ।
यही बस है अगले जमानों की दुनिया

Post – 2019-04-21

हम जिन्दगी के साथ थे, पर जिन्दगी को क्या कहें।
हँसते रहे हर चोट पर, इस सादगी को क्या कहें ।।
प्यासे तो सहरा सामने, सपनों तलक में गर्द थी
वह आँच जैसी आँच थी, उस तिश्नगी को क्या कहें ।।
हीरा बनाता पत्थरों को ताप-अन्तर्दाह से
सोचा तो आंखें भर गईं इस बन्दगी को क्या कहें।।
दुख में कमी कुछ रह गई, कुछ और दे, कुछ और दे
मांगा तो कांटे बिछ गए, अपनी खुशी को क्या कहें ।।

Post – 2019-04-19

वस्तुपरकता की अपेक्षा

वस्तुपरकता आत्मासक्ति से मुक्त होकर किसी घटना, क्रिया व्यापार, या वस्तु को देखने और समझने ही जरूरी मांग है। इसका आसान तरीका है अपने को दूसरों की नजर से देखना, और दूसरों को उनकी नजर से देखना। कहने में यह जितना आसान है, व्यवहार में उतना ही कठिन। ऐसा दावा करने वाले, प्रयत्न के बाद भी, इसे पूरी तरह प्राप्त नहीं कर पाते। परंतु वह सीमित लाभ उन्हें दूसरों से बहुत अलग और कुछ हद तक ऊपर उठा हुआ सिद्ध करता है। अपर के विचारों को अपनाकर हम इनके उन पहलुओं को देखने में समर्थ होते हैं जो हमारी नज़र से ओझल रह जाते हैं, कभी तो बार-बार देखते हुए उनको सामान्य रूप में देखने की आदत पड़ जाती है इसलिए, और कभी इसलिए कि अपने राग द्वेष के कारण उन्हें देखने का साहस नहीं जुटा पाते। इन दोनों के मेल से हम यथार्थ को पहले से अधिक अच्छी तरह समझ पाते हैं यद्यपि पूरी तरह समझने के लिए तो युगों का समय भी पर्याप्त नहीं होता असंख्य लोगों की दृष्टि भी पर्याप्त नहीं होती। यथार्थ बहुत जटिल है और इसकी जटिलता इस कारण भी दुर्बोध हो जाती है कि यह स्वयं भी लगातार बदलता रहता है और पहले के अनुभवों से तैयार किए गए हमारे औजारों को व्यर्थ करता रहता है।
यह इतनी घिसी हुई बात है कि इसे पढ़ते हुए आपको ऊब अवश्य हुई होगी, परंतु इसकी याद दिलाना किस लिए जरूरी हुआ, इसे भी आप जानते हैं।

एक व्यक्ति के रूप में मोहम्मद साहब की अनन्यता की स्वीकृति के बाद मेरी यह आलोचना कि वह अरब समाज को सही नेतृत्व प्रदान नहीं कर सके मेरे उस समय के अरब जगत के आकलन और उसकी मुख्य समस्या की मेरी समझ पर निर्भर करता है। अपने समय के दबाव में जो सबसे बड़ी समस्या प्रतीत हुई उसे हम बयान कर आए हैं फिर भी अपने पाठकों को समझाने में संभवत सफल नहीं हुए। अरब जगत में अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति प्रदत्त साधनों का घोर अभाव था। उसकी अपनी सुगबुगाहट दूसरों की गतिविधियों से पैदा हुई थी जिनमें रोमनों की भूमिका सबसे प्रधान थी जिनका यूरोप के बाजार पर नियंत्रण था। उनकी अपनी गतिविधियां फीनीशियनों को निष्क्रिय बनाने के बाद तेज हुई थी। भारत के व्यापार की इसमें सबसे निर्णायक भूमिका थी, जिसके चार मार्ग थे दो स्थलमार्,. दो जल और स्थल मार्ग। प्रधान भूमिका फारस की खाड़ी और दजला फरात मार्ग की थी। नाम मात्र का व्यापार उस लंबे मार्ग से होता था जो लाल सागर के द्वारा स्वेज को पार करके भूमध्य सागर से जुड़ता था।

यह मार्ग भी बहुत पुराना था और लाल सागर के दोनों तटों पर कई जनों का दावा था। रोमन साम्राज्य के प्रभुत्वकाल में रोमन ओं का सीधा अधिकार उत्तरी लाल सागर तक ही था। रोमन साम्राज्य के कमजोर पड़ने और पतन के बाद भी रो मनो का हस्तक्षेप किसी न किसी रूप में पश्चिमी अरब की पट्टी पर बना हुआ था। ईसाइयत की प्रचंडता के दौर में यह परोक्ष नियंत्रण ईसाइयों के माध्यम से हुआ करता था। अरब कबीलों की आपसी प्रतिस्पर्धा को पारस्परिक कलह मैं बदलते हुए ईसाई पश्चिमी अरब पर एक प्रबल शक्ति बन चुके थे। ईसाइयत के दबाव की जो बात मैने की थी वह इसी संदर्भ में।

यदि मोहम्मद साहब को यह खतरा सबसे प्रधान मालूम हुआ और उन्होंने एक सिपहसालार की भूमिका अपनाते हुए अरबों को कठोर अनुशासन में संगठित करते हुए एक युगांतरकारी शक्ति में परिवर्तित किया तो यह मामूली उपलब्ध नहीं थी। संभव है जिस तरह के नेतृत्व को मैं आदर्श मानता हूं, उस समय उसकी इतनी अधिक आवश्यकता न रही हो।

मेरी समस्या यह है किसी देश का कोई भी एक नेता अपने समाज को पूरी तरह सही रास्ते पर नहीं ले जाता और उसे कुछ दूर तक ही आगे बढ़ा पाता है। बाद के नेताओं को उन कमियों को दूर करना चाहिए था जो उनमें से प्रत्येक से पैदा होती जाती। विज्ञान की तरह सामाजिक नेतृत्व एक एक कदम आगे बढ़ता है तभी कोई समाज उन्नति के शिखर पर पहुंच पाता है। इसका प्रयास आरंभिक खलीफों ने किया, और इसमें भारत की बहुत सक्रिय भूमिका थी इसका उल्लेख कर आए हैं। वह आगे नहीं चल पाया, और मोहम्मद साहब और कुरान शरीफ को प्रस्थान बिंदु बनाने की जगह, अंतिम उपलब्धि मानकर बार-बार वही लौटा जाता रहा। इसकी सही मीमांसा मुस्लिम बुद्धिजीवी कर सकते हैं, परंतु उनका पराजयबोध मुस्लिम समाज की एक त्रासद समस्या है।