#मुस्लिम_समाज और #नेतृत्व_का_संकट- 9
अब हम विहंगम दृष्टि डालते हुए यह देखने का प्रयास करेंगे कि जिन समस्याओं से ग्रस्त और पिछड़े समाज को उबारने के लिए एक नए धर्म का प्रवर्तन मुहम्मद साहब ने किया था उसमें बदलाव तो आया परंतु उन प्रवृत्तियों को क्या रोका जा सका जिनको रोकने का संकल्प लिया गया था?
यहां हम अपने इस मंतव्य को दुहराना चाहेंगे कि क्रांतियों से विस्फोट होता है, मानव ऊर्जा का सही दिशा में उपयोग नहीं हो पाता। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण इस्लाम के इतिहास में ही मिलता है।
व्यक्तिगत रूप में मैं मानता हूं कि कुरान शरीफ के सूरे मोहम्मद साहब के इलहाम के तुरंत बाद अंकित नहीं किए गए थे, कुरान शरीफ संभवतः उनके जीवन काल में लिखा ही नहीं गया। इसे विजेताओं के दस्तावेज के रूप में वर्तमान रूप दिया गया, परंतु इस चर्चा में हम यह मानकर चलेंगे कि आगे जो कुछ भी घटित हुआ उसका सूत्रपात उनके आंदोलन से हुआ था, इसलिए लिखित रूप में जो कुछ उपलब्ध है वह प्रामाणिक है।
जाहिलिया
हम जाहिलिया का अर्थ दुर्दशा करना चाहेंगे। अरब प्रायद्वीप अपनी भौगोलिक सीमाओं के कारण सभ्यता का केंद्र भले न बन पाया हो, यह प्राचीनतम सभ्यताओं की गतिविधियों के परिमंडल के बीच में स्थित रहा है। ईस्वी सन से 3000 साल पहले आरंभ होने वाली ये गतिविधियां विभिन्न चरणों से होती हुई रोमन साम्राज्य के पतन तक चलती रहती है।
यदि इस्लामी धर्मोन्मादियों ने पहले के समस्त वाङ्मय को जाहिलिया की विरासत मानकर उसे नष्ट न कर दिया होता तो हमें उन गतिविधियों का कुछ पता चल पाता जिनमें अरब कबीलों की भागीदारी थी।
सभी धर्म अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए अपने से पहले की अवस्थाओं का ह्रदय विदारक चित्र प्रस्तुत करते हैं, जिसका अपवाद बौद्ध धर्म भी नहीं है। जाहिया शब्द के प्रयोग से हम किसी सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते। सच तो यह है पहले के साहित्य का विनाश कर के इस्लाम द्वारा एक नई तरह की जहिलिया का सूत्रपात किया गया, और हमारे पास इस्लामी जगत के इतिहास को जानने के लिए पुरातत्व को छोड़कर दूसरा कोई स्रोत बाकी ही नहीं बचा।
पुरातत्व गूंगा होता है और अपने समय के समस्त वैभव का क्षुद्र अंश होता है जिसकी जबान बनने वाले व्याख्याता अपनी जरूरत के अनुसार बयान तैयार करके उनके मुंह में डाल देते हैं।
समाज को समझने के लिए पुरातत्व की अपेक्षा साहित्य अधिक भरोसे का है, और भौतिक जीवन का आभास पाने के लिए पुरातत्व साहित्य से अधिक भरोसे का है। मिलावट दोनों की दूर करनी होती है तभी सच्चाई सामने आ पाती है। यूरोपीय विद्वानों के पास यूरोप का इतना पुराना साहित्य उपलब्ध नहीं था इसलिए उन्होंने एक स्रोत के रूप में साहित्य की साख ही नष्ट कर दी, परंतु एशिया की कृपा से ग्रीक साहित्य की जितनी चिंदियां मिलीं उनका अभिभूत हो कर प्रयोग करते रहे।
यह ध्यान रहे कि जब हम परिमंडल की गतिविधियों की बात करते हैं तो केवल सभ्यता के केंद्रों बात नहीं करते। उससे अधिक बड़ी भूमिका यातायात की रही है। अरब के इन यायावर कबीलों का इस गतिविधि में कितना उपयोग किया जाता था इसका पता साहित्य से ही चल सकता था।
जो भी हो जिस भाषा में कुरान शरीफ लिखी गई वह एक उन्नत, परिष्कृत समृद्ध भाषा है, और ऐसी भाषा सांस्कृतिक अन्तर्क्रिया के दौरान ही निर्मित होती है। अतः हम पाते हैं कि इस्लाम ने जाहिलिया का दौर समाप्त नहीं किया, बल्कि उसका आरंभ किया।
जाहिलिया का दूसरा पक्ष समृद्धि-जनित भोग विलास, या अय्याशी से जुड़ा हुआ था। अय्याशी भूखे पेट नहीं होती। यह अरबों की आर्थिक खुशहाली का प्रमाण है। यह सच लगता है कि आपसी प्रतिस्पर्धा में वे प्रायः लड़ते झगड़ते रहते थे।
इस्लाम के माध्यम से मोहम्मद साहब ने इनके बीच आपसी भाईचारा और वैर-विरोध के परित्याग का, और इस जीवन में सादगी लाने का संदेश तो दिया ही, सादगी को उसकी पराकाष्ठा पर पहुंचते हुए कलाओं तक का निषेध कर दिया।
इस तरह का निषेधवादी दृष्टिकोण कैथोलिकों ने भी नहीं अपनाया, जिन्होंने मूर्तियां तो तोड़ीं, परंतु अन्य कलाओं के माध्यम से छवि निर्माण को संरक्षण देकर प्रोत्साहित किया। इस्लाम में छवि निर्माण को पूरी तरह समाप्त करने का प्रयत्न किया गया, और और मोहम्मद साहब की एक ऐसी छवि निर्मित हो गई जो बाद की पीढ़ियों के लिए सबसे बड़ा बंधन बनी। उन्होंने कब, क्या, कैसे किया, मुसलमानों को वही करना है भले जमाना बदल जाए, जो नहीं किया वह नहीं करना है। आत्मरति का इससे बड़ा उदाहरण चिकित्सा शास्त्र के इतिहास में भी नहीं मिलेगा।
जहां तक अय्याशी का प्रश्न है, ऊपरी सादगी के दिखावे की नीचे, अय्याशी को बढ़ावा दिया गया। सृष्टि का सब कुछ मुसलमानों की मौज मस्ती के लिए बनाया गया है और उन्हें जिस चीज से आनंद मिलता है उस पर कोई रोक नहीं।
यह अजीब बात है कि इस्लाम से पहले अनेक कबीलों में निर्णय शक्ति स्त्री के पास के पास थी, समाज मातृसत्ताक था परंतु स्त्री और पुरुष दोनों एक ही मत के हुआ करते थे, इस्लाम के बाद पुरुष मुसलमान हो गया, स्त्री पुरुषों के उपभोग की की दूसरी वस्तुओं की तरह एक वस्तु बन गई।
यदि वह भी मुसलमानों होती तो मनचाही मौज मस्ती का जो विधान पुरुषों के लिए था वह उसके लिए भी होता। पुरुषों के लिए उनके नेक काम के बदले में जिस जन्नत का विधान किया गया वैसी ही जन्नत का विधान पाक दामन औरतों के लिए भी किया गया होता।
खैर जन्नत की कल्पना इस्लाम से बहुत पुरानी है और इसकी कल्रपना करने वालों ने, उनका धर्म कोई भी क्यों न हो, स्त्रियों के प्रति कभी सम्मान का भाव रखा ही नहीं।
यदि विलासिता को जाहिलिया का दोष माना जाए, तो मात्र सिक्का उल्टा, विलासिता को कई गुना बढ़ा दिया गया। यह विचित्र बात है कि इस्लाम आज भी सादगी का आदर्श कायम करने की कोशिश में जाहिलिया के दौरों से लगातार जूझता रहा है।
मुहम्मद साहब ने अरब कबीलों को उस कमजोर, फिर भी अनेक व्यापार मार्गों मे से एक मार्ग के छोटे से हिस्से पर आंशिक – क्योंकि अरबों का अधिकार या उपयोग लाल सागर से सटे पूर्वी हिस्से के लिए था, इसी में समृद्धि और पिछड़े समाजों की मौज मस्ती का दौर आया था। इसी में वह शिश्नोदर-परायणता आई थी जिसके विरुद्ध मोहम्मद साहब ने आंदोलन किया था।
सच कहें तो चिरकालिक विपन्नता के बीच दूसरे प्रततिस्पर्धियों के कमजोर पड़ने के कारण अरबों को यह नायाब अवसर मिला था, जिसके वैभव के अपव्यय को रोकते हुए, विलासिता विरोधी, कलह-विरोधी, हिंसा विरोधी पर्यावरण तैयार करने का, विलासिता की अपेक्षा संयम सादगी अपनाने का क्रांतिकारी प्रयत्न मोहम्मद साहब ने किया था, वह विफल हो गया।
हम मानते हैं यथार्थ की जटिलताओं को समझना तक किसी एक व्यक्ति के लिए असंभव है। क्रांतिकारी एक झटके में उसके चरित्र को समझे बिना बदल देना चाहता है इसलिए किसी एक मामले में उसे आश्चर्यजनक सफलता मिल जाती है इसके बाद भी यथार्थ के दूसरे पहलुओं को समझे बिना पूरे यथार्थ को बदलने वाले उसी महासमुंद्र में कलैया खाकर आ गिरते हैं।
इस्लाम में आई गिरावट को दूर करने के लिए जो प्रयत्न किया गया था, उसका एक रूप वहाबी आंदोलन हैं। मैं वहाबी आंदोलन का एक संक्षिप्त परिचय विलियम विल्सन हंटर के शब्दों में रखना चाहूंगा। इसका व्यंग्य यह है कि सुना वहाब अल्लाह के नामों में से एक है। जिस व्यक्ति ने यह आंदोलन चलाया उसका नाम भी मोहम्मद था और उसके पिता का नाम वहाब था । जिन परिस्थितियों में यह आंदोलन शुरू हुआ उसका परिचय इन इबारतों में मिल सकता है जिनको कुछ सोच समझ कर पढ़ना होगाः
About a hundred and fifty years ago, a young Arab pilgrim, by name Abd-ul-Wahhab, the son of a petty Nezd chief, was deeply struck with the profilgacy of his fellow-pilgrims, and with the endless mummeries which profaned the Holy Cities. For three years he pondered over the corruptions of Mohammadanism in Damascus, and then stepped forth as their denouncer. He rendered himself peculiarly hateful to thr creatures of Constantinople court, accusing the Turkish Doctors of making the written word of no effect by their traditions (Sunnat), and Turkish people of being worse than the infields by reason of their vices. Driven from city to city, he at least took refuge with the chief of Deraiyeh, Muhammad Ibn Saud, into whom he instilled his religious views and a sense of his great wrongs. ….With the aid of his new convert, who married his daughter, he formed a small Arab leagu ee and raised the standard of revolt against the Government of CONSTANTINOPLE, and of protest against her corrupted creed. Victory crowded upon victory. The Bedouins, who had never adored Muhammad as quite a divine person, nor accepted Kuran, as an altogether inspired book, flocked to the army of reformation…W.W.Hunter, Indian Mussalamaan, 57-58
मोहम्मद साहब के समय में यथार्थ और उसके चित्रण का रूप क्या था यह निश्चय करना हमारे बस का नहीं है, परंतु वहाबी आंदोलन जिससे सऊदी अरब का प्राधान्य स्थापित हुआ उसका इतिहास हमारे सामने है और दुर्भाग्य से उसका वर्तमान भी हमारे सामने है जिसने पेट्रो डॉलर से उत्पन्न अपार समृद्धि को जाहिलिया का नया अध्याय लिखने पर बर्वाद कर दिया। इस्लाम ने जाहिलिया को दूर नहीं किया, रूपांतरित किया और नेतृत्व की कमी, इतिहास के नकार, उससे उत्पन्न नासमझी को विश्वास और अंधविश्वास का सहारा लेते हुए दूर करने के प्रयास में आज तक यह दूसरों के उपयोग मैं आता रहा और अपने पांव पर खड़ा होने में असमर्थ रहा।
शिशनोदरपरायणता का सबसे आधुनिक रूप सऊदी अमीरों के आचार में, और जिहादी मानव बम बनकर हूरों और गिल्मों और कामवासना के सभी साधनों से संपन्न जन्नत में जाने की बेताबी मैं देखने में आती है। मुझे पुलवामा के बाद की खबरों से यह जानकारी मिलने पर हैरानी हुई कि मानव बम बनने के लिए तत्पर एक व्यक्ति की कामनाएं अधूरी रह गई, क्योंकि उसको इसके लिए अभी और इंतजार करना था।
मैं जानता हूं मैं जो कुछ लिख रहा हूं उसे कोई मुसलमान नहीं पढ़ेगा । यदि पढ़ें तो यह इतना दरबाबंद समाज है, कि बाहर का कुछ भी ग्रहण करने में असमर्थ हो चुका है, कि बाहर का ज्ञान ही नहीं अपनी मान्यताओं पर पुनर्विचार भी आघात जैसा प्रतीत होता है। फिर भी हम जिनके साथ रहते हैं, उनके चरित्र को समझना और यथासंभव राग द्वेष से मुक्त होकर समझना हमारे दूरगामी हित में