Post – 2019-04-19

कुछ लोगों को तुलसीदास में ब्राह्मणों के महिमागान, शूद्रों और महिलाओं की निंदा, जप, माला, छापा, तिलक के अतिरिक्त कुछ नहीं दीखता। समझने के लिए जिस तरह पढ़ा जाता है, उस तरह पढ़ना वे जरूरी नहीं मानते।

Post – 2019-04-18

तू जिस जबां में सोचता है उस जबां में लिख।
रौशन हो नजर, धुंध छंटे इस अदा से लिख।।

किसी व्यक्ति, समुदाय, समाज या मजहब का अपमान करने के लिए लिखने वाला, उसका अपमान कर पाए या नहीं, एक व्यक्ति के रूप में, लेखक के रूप में, धर्म और समाज के प्रतिनिधि के रूप में अपना और अपने से जुड़ी हुई हर चीज का अपमान अवश्य करता है। यह एक तरह का आत्मघात है। इस बात को समझाने के प्रयत्न अपने लेखों और टिप्पणियों के माध्यम से मैंने अनेक बार किया है।

ऐसा नहीं लगता मेरे पाठक मुझे समझ पाते हैं अन्यथा उनकी प्रतिक्रियाओं में इसका आभास मिलता। मैं कठोरतम सत्य को निर्ममता पूर्वक कहने का दुस्साहस करता हूं। इसे एक जरूरी लेखकीय कार्यभार मानता हूं। परंतु आहत करने के लिए नहीं, शॉक ट्रीटमेंट देने के लिए।

मेरे अनेक सुधी प्रतीत होने वाले पाठकों का स्तर ऐसा है कि वे निर्मम का अर्थ भी न समझ सकें। निर्मम का अर्थ – निः+मम – अपने पराए के भेदभाव से ऊपर उठकर कोई कार्य या कथन, जिसे हम निःसंगता या वस्तुपरकता कहते हैं। ‘अप्रियस्य च सत्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः’ के नियम से निर्मम का अर्थ कठोर हो गया, जो गलत है फिर भी व्यवहार में आता है।

मैंने अपने कल के लेख में मोहम्मद साहब के नेतृत्व की विफलता का प्रधान कारण यह बताया था अपने समाज में विवेक पैदा करने की जगह, उन्होंने भावावेग के तूफान का सहारा लिया।

यह मेरा गढ़ा हुआ आरोप नहीं है, न ही इसमें मोहम्मद साहब के व्यक्तित्व का अवमूल्यन करने का इरादा है।

मैं जानता था महान लोगों के विषय में आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने पर इस तरह की संभावना पैदा हो सकती है, इसलिए आरंभ में ही कहा था कि आज तक के इतिहास में कभी कोई ऐसा नेतृत्व किसी समाज को नहीं मिला, जिसे निर्दोष कहा जा सके जबकि मैंने विभिन्न धर्मों के प्रवर्तकों को भी अपने समाज का नेता और अपने समाज को एक नई दिशा देने वाला व्यक्तित्व माना था।

मोहम्मद साहब के बारे में मैंने उक्त टिप्पणी इसलिए की थी की अरबी में कुरान का सस्वर पाठ सुनते हुए कोई व्यक्ति भले वह अरबी न जानता हो, भावाकुल हो जाता है (यह मैं अपने अनुभव के आधार पर कहता हूं)। एक काव्य के रूप में कुरान एक अद्भुत रचना है। अपने समाज को सही दिशा देने की दृष्टि से यह बहुत खतरनाक रचना है क्योंकि अपने समाज को सही दिशा और दृष्टि देने की जगह उसे अंधा बना देती, भावाकुल कर देती है।

मेरे इस आरोप को समझने के लिए मैं कुरान के जिस अनुवाद का सहारा लेता हूं, उसकी छोटी सी भूमिका से कुरान का अनुवाद करने वाले विद्वान सैयद अबुल आला मौदूदी की निम्न पंक्तियों की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूंः

“इन पृष्ठों में कुरान के भावानुवाद एवं प्रबोधन की कोशिश की गई है ….

“पहली चीज, जो एक शाब्दिक अनुवाद को पढ़ते समय महसूस होती है, वह इबारत की रवानी, वर्णन-शक्ति, भाषा-लालित्य और वाणी का प्रभाव है। कुरान की पंक्तियों के नीचे आदमी को एक प्राणहीन इबारत मिलती है जिसे पढ़ कर न उसकी आत्मा विभोर होती है, न उसके रोंगटे खड़े होते हैं, न उसके नेत्रों से अश्रुधार बहती है, न उसके भाव लोक में कोई तूफ़ान उठता है, न उसे यह महसूस होता है की कोई चीज बुद्धि एवं विचार वशीभूत करती हुई उतरती चली जा रही है।…

“कुरान की वर्णन शैली लेख की नहीं, भाषण की है।

“कुरान मजीद की हर सूरा वास्तव में एक भाषण थी, जो इस्लामी आह्वान के किसी विशेष चरण अवतरित होती थी। इसकी एक विशेष पृष्ठभूमि होती थी। कुछ विशेष परिस्थितियां उसकी मांग करती थीं और कुछ आवश्यकताएं होती थी जिन्हें पूरा करने के लिए वह उतरती थी।”

अब इसी क्रम में आप पूरे कुरान को पढ़ जाएं, छोटी से छोटी बात में, अल्लाह की नजर आप पर है और वह रहीम और करीम तो इसलिए है क्योंकि उसने यह कायनात बनाकर तुम्हें सौंप दी, परंतु उसके बाद कोई रहम नहीं करता। उसकी नजर तुम्हारे हर छोटे बड़े काम पर है, यहां तक कि इस पर भी अपनी पत्नी के पास कब जाते हो, किस रास्ते जाते हो। वह किसी गुनाह को क्षमा नहीं करता।

यह दहशत कुरान के हर पन्ने पर कई रूपों में कई तरह से लगातार पैदा की जाती है। मुस्लिम समाज की चेतना पर छाया हुआ यह आतंक बना रहे इसके लिए एक ऐसे तंत्र का होना जरूरी था जो इसे बार-बार दोहरा कर अपने समाज को सम्मोहन की ऐसी अवस्था में रखे कि जादू से बेअसर होने का दावा करने वाले भी अपने परिवेश के प्रभाव के कारण इसके असर से बाहर न निकल पाएँ।

मामूली से मामूली एतराज के कारण आप गैर मुसलमानों से ही नहीं मुसलमान होने का दावा करने वालों से भी बैर-विरोध ठान सकें इसी व्यवस्था कुरान में ही है,
[कुछ लोग ऐसे भी हैं क्यों कहते हैं कि हम अल्लाह और अंतिम दिन पर ईमान लाते हैं, हालांकि वास्तव में ईमान वाले नहीं हैं। वे अल्लाह और ईमान वालों के साथ धोखेबाजी कर रहे हैं, मगर वास्तव में वे अपने आप को ही धोखे में डाल रहे हैं और इसे जान नहीं पा रहे हैं। उनके दिलों में एक रोग है जिसे अल्लाह में और अधिक बढ़ा दिया और जो झूठ बोलते हैं उनके फलस्वरूप उनके लिए दुखदाई यातना है। जब कभी उनसे कहा गया धरती में बिगाड़ न पैदा करो तो उन्होंने यही कहा कि “ हम तो सुधार करने वाले हैं” – सावधान, वास्तव में यही लोग बिगाड़ पैदा करते हैं। सूरा अल-बक़रा ]

कोष्ठक में उद्धृत अंश पर ध्यान दें पता चल जाएगा अपनी समझ से काम लेने, मामूली से मामूली असहमति या संशोधन का सुझाव रखने, कठोर पाबंदी से तनिक भी विचलित होने को इतना असंभव बना दिया गया है कि यह फैसला करने वाला भी कोई होना चाहिए कौन सही है कौन गलत।

जो यह कहा जाता है इस्लाम में किसी मध्यस्थ की कोई भूमिका नहीं, वह शायद सही नहीं है। सही गलत का निर्णय करने वाला कोई होना चाहिए। अपने आदेश से खलीफा बैठाने का विधान उसी सूरा में है जिसका हम उल्लेख कर आए हैं।

शिया, सुन्नी, अहमदी, और दूसरे जितने भी संभव मत हो सकते हैं अपने को सही मानते हुए दूसरे को बिगाड़ पैदा करने वाला मानते हुए उसे मिटाने की कोशिश करते रहने वाले क्या कभी चैन से रह सकते हैं? जो स्वयं चैन से नहीं रह सकते उनके कारण जो पर्यावरण निर्मित होगा उसमें कोई चैन से रह पाएगा?

मुसलमानों को एक सामाजिक और राजनीतिक शक्ति बनने के लिए, दूसरों का मोहरा बनने से बचने के लिए, एक दूसरे से जुड़ना होगा , जुड़ने के लिए किताब से बाहर आना होगा, और बाहर आने पर केवल एक ही निकष बचा रहेगा कि आज के समय में, आज की परिस्थितियों में, हमारे समाज को क्या करना चाहिए, कैसे रहना चाहिए, और क्या बनना चाहिए?

इसके अभाव में वे संमोहन से बाहर आ ही नहीं सकते और बाहर आ गए तो उनके दोस्त और दुश्मन की परिभाषा बदल जाएगी।

Post – 2019-04-17

#मुस्लिम_समाज और #नेतृत्व_का_संकट -5

एक समाज जिसे प्राण वायु की आवश्यकता उसे तूफान खड़ा करके बचाने का प्रयत्न सही नहीं माना जा सकता। ऐसा तूफान उठाने वाला पराक्रमी हो सकता है, समाज का सही नेतृत्व नहीं कर सकता। वह समझ नहीं सकता कि उसका समाज क्या है, उसकी अंतर्निहित शक्तियां और संभावनाएं क्या हैं। वह अपने समाज का अपनी झक के लिए इस्तेमाल कर सकता है परंतु उसका नेतृत्व नहीं कर सकता।

मेरी समझ से, ईश्वर करें कि यह गलत हो, मोहम्मद साहब अपने समाज के आदर्श नेता नहीं सिद्ध होते। उनकी सामाजिक और आध्यात्मिक क्रांति ईसाइयत के दबाव में एक पैनिक रिएक्शन थी जो अपने समाज को ही ले डूबी। यह असुरक्षा और दहशत से आरंभ होकर दहशतगर्दी को सम्मानजनक बनाने की विश्वास धारा में परिणत हो जाती है।

हम ‘इस्लाम खतरे में’ का नारा मामूली से मामूली उकसावे पर, यहां तक कि अकारण भी सुनने के आदी हैं।

इसका ही संशोधित संस्करण अपने को शिष्ट और विशिष्ट समझने वाले लोगों में देखने में आता है।

वे खुद खतरे की कल्पना करते हैं और उस कल्पना में ‘असुरक्षित अनुभव करने’ लगते हैं। अनुभूति के स्तर पर मनोव्याधियों में ऐसा सुनने में आता है, इसलिए ऐसा दावा करने वाले आदमी की अनुभूति को भी संभव माना जा सकता है।

केवल एक अंतर है। ये अभिव्यक्ति के माध्यमों से जुड़े हुए विशिष्ट जन हैं और उनके सामने कुछ राजनीतिक योजनाएं भी हैं, इसलिए ये अनुभव से अधिक इसका प्रचार करने में विश्वास करते हैं।

हम यह नतीजा निकाल सकते हैं कि इस्लाम खतरे में है, मुसलमान खतरे में है, सेकुलर होने का दावा करने के बावजूद, मुसलमान होने के कारण, कुछ मुसलमान भी खतरे में है, और उनके साथ अपनी गुणकारी सहानुभूति के कारण अपने को सेकुलर बताने वाले हिंदू अपने को इन दोनों से इतने अधिक खतरे में अनुभव करते हैं, कि उनकी गुहार पर भारतीय मुसलमानों को अपने खतरे में होने की याद आती है। यह एक कुचक्र या दुष्चक्र है (vicious circle) है।

दुनिया के किसी दूसरे धर्म या समाज में यह नारा कभी न लगा कि हम या हमारा धर्म संकट में है। हिंदुओं को मध्यकाल में कितनी यातनाओं से गुजरना पड़ा, हिंदू समाज के विविध मतों और संप्रदायों को, उनके संस्थानों, आस्था के प्रतीकों, शिक्षा के केंद्रों, पुस्तकालयों, विद्वानों, ग्रंथों और उत्सवों-समारोहों को किन अत्याचारों को सहना पड़ा, इसकी याद दिलाने वालों को अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के एकाधिकार के युग में अपमानित होना पड़ता है।

ब्रिटिश शासनकाल में स्थिति उतनी विक्षोभकारी भले न रही हो, ब्रिटिश नीति के कारण हिंदुओं को घोर असुरक्षा के वातावरण में रहना पड़ा, परंतु कभी उन्होंने अपने असुरक्षित होने का नारा नहीं लगाया।

स्वतंत्र भारत में कश्मीरी पंडितों को जिस अपमान और जिन यातनाओं से गुजरना पड़ा उसका इतिहास और भूगोल सबको मालूम है, सिवाय मुसलमानों और निरपेक्षता की चादर ओढ़ने वालों के। बांग्लादेश और पाकिस्तान में उनको जिन यातन ओं का शिकार होते हुए शिफर की ओर जाना पड़ रहा है, उसमें उन्हें कभी किसी ने हिंदुत्व संकट में है, नानक पंथ संकट में है, नारा लगाते हुए न सुना न देखा।

उनके विषय में हमारे जानकारों की जानकारी में कमी नहीं है, वे फासिज्म को आने से रोकने के लिए इतनी ताकत लगा रहे थे कि इस ओर ध्यान देने का अवसर ही नहीं मिला, और उसका खतरा इतना जबरदस्त था कि वह इनके रोकने के कारण ही पैदा हुआ, रोकते-रोकते बढ़ता गया, और इतना बढ़ गया कि पूरी ताकत से
आओ प्यारे भाई आओ
इस संकट को दूर भगाओ
स्वयं बचो
और हमें बचाओ
जुट कर, मिलकर जोर लगाओ
जोर लगाओ हइसा।

को कौमी तराने के रूप में स्वीकार करने के बाववजूद, न ताल मिल रहा है, न लय मिल रही है, न यह विश्वास बचा है कि हमसे कुछ हो सकता है । भाग्यवाद, जो होगा देखा जाएगा, संघबद्ध विसंगत दलों का अंतिम भरोसा रह गया है, जिसमें भाग्यचक्र के फेर से प्रधानमंत्री बनने को तैयार बैठी विभूतियों में से कोई भी प्रधानमंत्री बन सकता है। बिल्लियों का भाग्य छींके के टूटने की प्रतीक्षा में है।

परन्तु मैंने वर्तमान राजनीति पर आने के इरादे से यह आलेख तो आरंभ नहीं किया था। यह तो अपनी विचारप्रक्रिया के सामने मेरी अपनी ही पराजय है। कहना मैं यह चाहता था कि पैनिक रिएक्शन होने के कारण मुहम्मद साहब के मन में, कुरान मजीद में, इस्लामी इतिहास में, मुस्लिम समाज में, मुस्लिम समाज के संपर्क में जीने वालों के मन में एक ही चीज समाई दीखती है- दहशत। इस्लाम अरबी नहीं दहशत की जबान बोलता और समझता है और इसके प्रमाण भी कुरान मजीद में दर्ज हैं, भले बहुत सारी जरूरी बातों की अनदेखी करने के आदी लोगों ने उसे देख कर भी दरगुजर कर दिया हो।

Post – 2019-04-16

#मुस्लिम_समाज और #नेतृत्व_का_संकट – 4

मैं दुनिया के विभिन्न धर्मों के प्रवर्तकों को अपने समाज का नेता मानता हूं और इसी दृष्टि से हमारी चर्चा में मोहम्मद साहब को अरब समाज को नेतृत्व देने वाली एक महान प्रतिभा के रूप में स्थान देते हुए उनका मूल्यांकन करना चाहता हूं।

मोहम्मद साहब उसी जाहिलिया की उपज थे, जैसे ही हमारे सभी उल्लेखनीय आधुनिक नेता अंग्रेजी दासता की उपज थे, जिसके विरुद्ध उन्होंने अपने अपने ढंग से संघर्ष किया। अरबों ने उस दौर को ही अपने इतिहास से निकाल दिया, जैसे कोई पराधीनता की लज्जा को ढकने के लिए अंग्रेजी शासनकाल को अपने इतिहास से निकाल बाहर करे।

हम चाह कर न अपनी पैतृकता बदल सकते हैं, न अपना इतिहास । किसी दौर में अपनी अधोगति पर लज्जित अनुभव करते हुए उसे भुलाने के प्रयत्न, या किसी खब्त के कारण अपने अतीत को नकारने के बाद भी वह होता है। हमारी इच्छा का हमारे इतिहास पर असर नहीं पड़ता।

भुलाने और दबाने के प्रयत्न के कारण वह हमारी मनोग्रंथि का रूप ले लेता है, जिसके बाद उसकी अभिव्यक्ति पर हमारा नियंत्रण नहीं रह जाता, और अक्सर हम उसके चरित्र को पहचान भी नहीं पाते, इसलिए परोक्ष होने के कारण वह अधिक उपद्रवकारी होता है।

दूसरे लोग हमें हमारे इतिहास के माध्यम से ही जानते हैं या हमारे विषय में अपनी जानकारी बढ़ाने के लिए वे हमारे अतीत की टोह लेते हैं। हम अपनी आंखें मूंद सकते हैं पर दूसरों की आंखें बंद नहीं कर सकते।

दुनिया के उन देशों के लोग जिन्होंने इस्लाम कबूल किया, वे सच्चा मुसलमान सिद्ध होने या माने जाने के लिए अपने इतिहास को भुलाकर अरब के इतिहास को जो इल्हाम और कुरान से आरंभ होता है, अपना बनाना चाहते हैं। अरब को अपना देश बनाना चाहते। अरब संस्कृति को अपनी संस्कृति बनाना चाहते हैं। उसके दारिद्र्य और अभाव को अपनी दौलत बनाना चाहते हैं, और अपने जानते हुए, अपनीअसंख्य सच्चाइयों का दमन करते हुए, असंख्य मनोग्रंथियों के पिटारे बन जाते हैं। जानी हुई सच्चाइयों पर पर्दे पर पर्दा डालने की कोशिश के कारण मुस्लिम समाज ने स्वयं ने अपने को एक मनोग्रस्त समाज में ढालने का काम किया।

मजहब का इतिहास नहीं होता । इतिहास का अर्थ है परिवर्तन । मजहब विश्वास है, मान्यता पर टिका होता है, परिवर्तन का निषेध करता है और इसलिए जब भी हम किसी भी धर्म या विश्वास की बात करते हैं, हमें मूल ग्रंथों की ओर लौटना होता है कि उनमें वस्तुतः क्या कहा गया है।

इतिहास समाज का होता है, देश का होता है, और किसी धर्म का प्रवर्तन उस समाज के इतिहास के एक खास चरण पर, पूरे समाज या देश को किन्हीं विकृतियों से बचाते हुए, अधिक कल्याणकारी दिशा में ले जाने का प्रयत्न होता है।

यह देश या समाज के इतिहास में घटित होने वाली एक महत्वपूर्ण घटना है। उसके बाद उस समाज के चरित्र में आने वाला बदलाव, उसके प्रसार और विस्तार तथा इसके लिए अपनाए गए तरीकों का इतिहास होता है। परंतु मजहब का इतिहास नहीं होता, उसकी मान्यताएं होती हैं। इतिहास मनुष्य की, आगे बढ़ने की, महायात्रा का अभिलेख है। मजहब इस यात्रा को उलट देता है, आगे बढ़ने की जगह, प्रामाणिकता की तलाश में प्रस्थान बिंदु की ओर लौटने को बाध्य करता है।

मोहम्मद साहब स्वयं जाहिलिया की उपज हैं। अरब इतिहास को बदलने वाले एक नेता हैं। उनके नेतृत्व में अरबी समाज में जो बदलाव आया वह पहले की तुलना में क्या था, इसे पिछले इतिहास को जाने बिना तय नहीं किया जा सकता।

मैं यह बात निरी कल्पना के आधार पर कह रहा हूं, इसलिए यदि कोई इस पर हंसना चाहे तो उस हंसी में मैं भी साथ दूंगा, परंतु मुझे लगता है जाहिलिया विशेषण भी, मोहम्मद साहब का चुनाव नहीं था। यह ईसाईयों की उस भर्त्सना का अरबी अनुवाद था जिसका प्रयोग ईसाई प्रचारक अरबों की सामाजिक अवस्था के लिए किया करते।

मोहम्मद साहब असाधारण संवेदनशील और प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। जिस तरह हिंदू समाज में, जिन भी कारणों से व्याप्त, सतीप्रथा, बालिकावध, बालविवाह, आदि विकृतियों की ईसाईयों द्वारा आलोचना के औचित्य को स्वीकार करते हुए, और इसके बावजूद ईसाइयत दबाव में आने से बचते हुए भारत के अनेक समाज सुधारकों ने इनके निवारण के प्रयत्न किए और साथ ही सरकार से सहयोग भी प्राप्त किया, उसी तरह मातृप्रधान समाज की उछृंखलता की आलोचना करते हुए, समाज के उद्धार के बहाने उसे ईसाई बनाने के प्रयत्न की चुनौती मोहम्मद साहब के सामने थी।

दुनिया के जितने भी महान नेताओं को, जिनमें नए धर्म की स्थापना करने वाले नेता भी आते हैं, मैं जानता हूं, उनमें से कोई उतना ओजस्वी, उतना क्रांतिकारी, उतना दृढ़ और आत्मविश्वास से भरा हुआ, अपनी योजना को कार्य रूप में परिवर्तित करने की क्षमता रखने वाला. दूसरा कोई नेता दिखाई नहीं देता।

उन्होंने असंभव को संभव कर दिखाया। और यह कारनामा केवल एक क्षेत्र में नहीं किया, तीन क्षेत्रों में किए, जब कि दूसरों के लिए किसी एक क्षेत्र में ऐसा करना संभव नहीं हुआ। मेरी बात पर विश्वास करने के लिए स्वयं अपने आप से प्रश्न करें:
1. विश्व इतिहास में क्या कोई ऐसा नेता है जिसने अकेले दम पर पूरी समाज व्यवस्था को बदल दिया हो? याज्ञवल्क्य के नेतृत्व उत्तर भारत के समस्त गणराज्य के सहयोग से ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने के वेदांत आंदोलन पर और उससे प्रेरित मध्यकाल के संत आंदोलन को याद करें और देखें उनकी सफलता और विफलता, तभी इस असंभव को संभव करने की क्षमता का सही अनुमान हो पाएगा।

2. ईसाइयत के दबाव में हमारे अपने नेताओं की आत्मरक्षावादी युक्तियों और प्रयोगों पर ध्यान दें ईसाइयत के बढ़ते हुए सैलाब को रोकने के लिए उनके मजहब और किताब नए जमाने की चीज सिद्ध करते हुए प्रतिरोध में एक नए धर्म का सूत्रपात जो इससे पहले कहीं दिखाई नहीं देता।

3. अपने मत के प्रचार के लिए एक ऐसी युक्ति का विकास जो दावानल की तरह इतनी तेजी से फैल जाए कि उसका प्रतिरोध करने वाले स्वयं आग बन जाएं। ऐसा भी पहले कभी नहीं हुआ था।

इसके बाद फिर भी यह प्रश्न चा रह जाता है कि क्या अरबी समाज को सही नेतृत्व प्राप्त हुआ? मुहम्मद साहब अपने समाज की चेतना को उसके भौतिक नैतिक और बौद्धिक उत्थान को संभव बना पाए?

इसकी छानबीन हमें कल करनी होगी।

Post – 2019-04-16

Gregorian Etruscan Museum Vatican City.
This has the most important Etruscan collection in Rome, starting with early Iron Age objects from the 9th century BC.
Encyclopedia Britannica mentions under the headings “Etruria” and “Etruscan” that between the 2nd and 7th centuries BC, northern Italy was known as Etruria.
During archaeological excavations many such “meteoric stones mounted on carved pedestals (Siva Lingas on Bases)” are discovered in Italy.
This Siva Lingam was dug-up from Vatica City itself. Many more must be lying buried in the Vatican’s massive walls and numerous cellars.

Post – 2019-04-15

#मुस्लिम_समाज और #नेतृत्व_का_संकट -3

इस्लाम से पहले के अरबी समाज को गर्हित इसलिए दिखाया जाता है की मोहम्मद साहब की और उनके द्वारा संचालित मजहब की क्रांतिकारी बताया जा सके।

इस ज्ञान-व्यवस्था में एक ओर तो इस्लाम से पहले के अरब जगत का विस्तार करते हुए पूरी दुनिया को उसी जाहिलिया का हिस्सा माना जाता है।

फिर इस्लाम से पहले के पूरे अतीत को जहालत में डूबा हुआ मान कर अरब के प्राचीन इतिहास से अपने को अलग कर लिया जाता है
.

दूसरी ओर सच्चे ज्ञान का आरंभ पैगंबर को हुए इलहाम से माना जाता है, और वह ज्ञान कुरान शरीफ में दर्ज है इसलिए कुरान से वंचित समाज भी जिनमें वे विकृतियां नहीं पाई जातीं, जो पहले के अरबी समाज में प्रचलित थीं, वे भी जहालत में पड़े हुए या शैतान के असर में माने जाते हैं।

मातृसत्ताक अरबी समाज ईसिस और मरियम को भी देवी के रूप में पूजता था। इन दोनों की पूजा के दो कारण थे।

पश्चिमी जगत में प्राचीन मातृसत्ताक अथवा स्वेच्छाधारी समाज व्यवस्था थी, ईसिस उसका अवशेष है जो किसी रहस्यमय सूत्र से भारत से लेकर इटली तक फैला था। यह एक अलग प्रसंग है जिसके विस्तार में यहां जाने की गुंजाइश नहीं, परन्तु ईसा के जन्म से 900 साल पहले वेटिकन से मिली लिंग की प्रतिमा उनकी, कलाकृतियों पर मुक्त आचार व्यवहार के अंकन से इसकी पुष्टि होती हैः
The lids of large numbers of sarcophagi are adorned with sculpted couples, smiling, in the prime of life (even if the remains were of persons advanced in age), reclining next to each other or with arms around each other. The bond was obviously a close one by social preference.

मरियम की पूजा ईसाइयत के बढ़ रहे प्रभाव का और ईसाई धर्मान्तरण की गतिविधियों का प्रमाण माना जा सकता है।

यह इसाइयत की धर्मांधता का वह दौर था जिसे यूरोप के इतिहास में अंधकार युग के नाम से जाना जाता है। ईसाईयों के गहरे संपर्क में रहते हुए, उनके वैचारिक दबाव में मोहम्मद साहब को डिफेंस मेकैनिज्म के रूप में तीन काम एक साथ करने थे।

पहला, आदिम पाप की चेतना से ग्रस्त, स्त्रियों और मातृसत्ताक समाजों के प्रति ईसाई धर्मांधों की घृणा के प्रभाव से न बच पाने के कारण प्राचीन मातृसत्ताक व्यवस्था का उन्मूलन।

दूसरा था एक नए मजहब का प्रतिपादन करते हुए यीशु के अनुयायियों के सामने चुनौती पेश करते हुए यह दावा करना कि नया धर्म, ईश्वर का सबसे नया संदेश हमें प्राप्त है। तुम्हारी किताबें पुरानी पड़ गई है। यह एक बहुत बड़ा और साहसिक कदम था।

तीसरा था अपने विचारों को आप्तता देने के लिए यहूदी बाइबिल या ओल्ड टेस्टामेंट की सृष्टि से संबंधित पुराण कथाओं और विश्वासों को बहुत मामूली फेर बदल से यथा तथ्य अपना लेना।

यह संभव है कि सृष्टि की कहानियां कई रूप में पश्चिमी एशिया मे जनविश्वास का हिस्सा बन चुकी रही हों। बाइबिल में जो सांप है वह कुरान
में शैतान बन जाता है। सेव का स्थान गंदुम ले लेता है।

वास्तव में बाइबिल की सृष्टिकथा सृष्टिकथा न हो कर कृषि क्रांति की कथा है। इसका स्रोत भी भारतीय पुराण कथाएं हैं जिनमें देवों के समाज ने स्वयं कृषि का आविष्कार किया था और कृषिकर्म को टैबू और आदिम आहारसंग्रह को जीविका के लिए पर्याप्त मानने वाले असुरों-राक्षसों द्वारा प्रताड़ित होकर स्वयं देवों को इधर उधर भागना पड़ा था और अंततः वे उन पर भारी पड़े थे।

सामी सृष्टकथा में सब कुछ उलट गया। एकेश्वरवादी आग्रह से गॉड्स को बदल कर गॉड कर दिया गया। यह उतनी बडी बात न थी जितनी साहसी, उद्यमी, चिंतनशील देवों (सामी आदम) को दुष्ट शैतान या सांप (अहि) के सिखाने में आया मान कर चिंतन, सूझ और अन्वेषण की वैज्ञानिक प्रवृत्ति को शैतानी दिमाग की उपज मान कर ज्ञान, विज्ञान, वाङ्मय सबको शैतान की कारस्तानी मानते और इस विश्वास को दूसरों पर लादते हुए विद्वानाेे. पुस्तकालयों, शिक्षासंस्थाओं के साथ उनका पागलों जैसा व्यवहार।

हमारे सामने बड़ा सवाल यह है कि यदि मातृसत्ताक व्यवस्था जाहिलिया थी तो क्या अरब में जो सामाजिक क्रांति इस्लाम के साथ हुई वह जाहिलिया का ही दूसरा रूप नहीं थी। ऐसा सोचते समय हमारे मन में जो आशंकाएं पैदा होती हैं वे निम्न प्रकार हैं :

जो बुराइयां – चरित्र की जो शिथिलता,बहुपुरुषगामिता स्त्रियों में थी, उसे ही पुरुषों ने जैसे का तैसा अपना लिया।

मातृ देवियों को निरीह पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। यह रक्तपात मोहम्मद साहब को बीभत्स लगा था, परंतु बकरीद के त्योहार के अवसर पर वैसी ही पशु बलि बहुत बड़े पैमाने पर आज तक की जाती है।

स्त्रियों को पहले जिस तरह की आजादी थी उसे पूरी तरह पलट कर उन्हें हिजाब में बंद पुरुषों की इच्छा पूर्ति के लिए हर दृष्टि से लाचार भेड़ बकरियों में बदल दिया गया। आधी आबादी को इंसानियत के अधिकार वंचित कर दिया गया।

पहले अरब आपस में लड़ते झगड़ते, लूटपाट करते मौज मस्ती करते रहते थे। अब लूटपाट और दूसरों की स्त्रियों व बच्चियों को रखैल बनाने की धार्मिक छूट मिलने के साथ माननीय दुर्बलता के लिए दोनों दरवाजे – दूसरे समुदायो के माल की लूट और व्यभिचार जिनके कारण मनुष्य अपनी जान तक गंवाने को तैयार रहता है- धार्मिक समर्थन पा गए।

इस्लाम का इतनी तेजी से विस्तार का सबसे बड़ा कारण यही है। बल प्रयोग से धर्मांतरण का कारण भी यही है क्योंकि उसके पास विचार जैसी कोई चीज थी ही नहीं और विश्वास तो केवल लादा जा सकता है।

Post – 2019-04-14

#मुस्लिम_समाज और #नेतृत्व_का_संकट -2

नेता, जैसा कि इस शब्द से ही पता है, समाज को आगे ले जाने का काम करता है। पीछे ले जाने वाले को नेता नहीं कहा जा सकता। किसी समाज को पीछे ले जाना संभव ही नहीं है, फिर भी अतीत के किसी चरण को बीमारियों का इलाज बताते हुए समाज में वहीं वापस जाने या उन्हीं प्रवृत्तियों पर टिके रहने के लिए उकसाया जा सकता है।

यह अपने समाज को वर्तमान चुनौतियों का सामना करने की जगह दफ्न करने का सबसे नायाब तरीका है। मुस्लिम समाज में ऐसा ही नेतृत्व क्यों पैदा होता रहा, इस पर यदि किसी ने गंभीर चिंतन किया हो तो उसका मुझे पता नहीं।

इस्लाम के बारे में मेरी जानकारी संतोषजनक नहीं है। अपर्याप्त जानकारी के बावजूद कुछ बातें इतनी स्पष्ट हैं जिन पर बुद्धिजीवियों की निश्चिंतता मुझे चिंतित भी करती है और अपने अधकचरे विचारों को जाहिर करने के लिए बाध्य भी करती है।

आगे ले जाने का अर्थ है यदि समाज में अतीतोन्मुखता आ गई है, ठहराव आ गया है, वह किसी दुर्दांत प्रतिस्पर्धी का सामना करने में अपने को असमर्थ पा कर आत्मरक्षा के लिए शीतनिद्रा में चला गया है, रूढ़िवादी हो गया है, रूढ़िवादिता के कारण, आत्मरक्षा की चिंता में, नई विकृतियो का शिकार हो गया है तो उसमें आत्मविश्वास पैदा करते हुए उससे बाहर निकालना और उसके भौतिक और विकास की नई दिशाओं की ओर ले जाना।

भारतीय मध्यकाल में अपहरण, बलपूर्वक धर्मातरण के अपमान से अपने को बचाने के लिए राजपूतों में बालिका वध, पराजय की संभावना देखकर स्त्रियों का जौहर और पुरुषों का प्राणोत्सर्ग करने के संकल्प के साथ केसरिया बाने में समर में उतरना, जो आज के चालाक लोगों को मूर्खतापूर्ण आत्महत्या प्रतीत होगा, ऐसी ही विकृतियां थीं।

हिंदू समाज को जिन विकृतियों के लिए दोष दिया जाता रहा है वे उसकी विकृतियां नहीं, सही नेतृत्व के अभाव में प्रतिरक्षा तंत्र का हिस्सा रही हैं।

जिस धर्म की रक्षा की उन्हें इतनी चिंता थी, उस पर आए हुए संकट को देखते हुए सभी राजपूत संगठित होकर उनका प्रतिरोध क्यों नहीं कर सके?

उनका अपना अहंकार उनके धर्म से भी अधिक क्यों हो गया कि न तो अहंकार की रक्षा हो सके न धर्म की। उत्तर एक ही है, पराक्रम, शौर्य और सकल साधनों के होते हुए वे अपनी क्षमता का उपयोग नहीं कर सके।

नेतृत्व के अभाव, विफलता के कई उदाहरण हिंदू समाज के विषय में दे सकता हूं परंतु संप्रति मुस्लिम समाज के नेतृत्व संकट की बात कर रहे हैं इसलिए इसे यहीं विराम देते हैं।

नेतृत्व की भूमिका इकहरी नहीं होती। वह वस्तु साक्षात्कार, इतिहास बोध और दूरदृष्टि का एक अद्भुत विपाक होती है, जिसे सही सही विश्लेषित करने का प्रयत्न उसकी सृजनात्मकता को पंगु करने जैसा होगा।

नेता बिखरे हुए समाज को जोड़ने, ‘एकजुट’ समाज की समग्र ऊर्जा को एकदिश करने, उसे आगे ले जाने, भटके हुए समाज को सही रास्ते पर ले जाने के अनेक काम करता है। यदि भटकाव इतिहास के किसी विशेष चरण पर हुआ हो, तो वह समाज को अपने अतीत के उस चरण की और वापस लौटने की सलाह भी दे सकता है जहां से बढ़ने का निर्णय लिया गया
था। इसे ही सैन्य विज्ञान में बीटिंग रिट्रीट का जाता है। पीछे हटना पीछे जाना नहीं होता, आपदा का निवारण होता है। परियात की भाषा में कहें तो, यह खतरनाक विकल्पों को टालने के लिए क्लच, ब्रेक और बैक गियर की व्यवस्था जैसा होता है।

मुस्लिम समाज में संकट कालीन स्थितियों में, जो अक्सर होती नहीं हैं, स्वयं नेता द्वारा पैदा कर दी जाती है, पीछे हटना, पीछे लौटने और लौटकर उस प्राथमिक चरण पर पहुंचने का पर्याय बन जाता है, जिसके बारे में स्वयं नेताओं को पता नहीं होता कि वास्तव में उसका स्वरूप क्या था।

यदि मैं यह कहूं कि मुस्लिम समाज जो दूसरों को डरावना दिखाई देता है, स्वयं ही एक डरा हुआ, असरक्षा-ग्रंथि से ग्रस्त समाज रहा है, तो हमारे मित्रों को इसे ही पचाने के लिए हाजमोला की गोलियां खानी पड़ेगी, परंतु सच्चाई यही है कि मुस्लिम प्रभुत्व के दौर में भी बादशाह तक अपनी ही संतानों, अपने ही ‘वफादारों’ से डरे रहते थे। जनता अमलों से, सुल्तानों की खब्त से डरी रहती थी, मध्यकाल सर्वव्यापी असुरक्षा और भय का काल था।

नेता के लिए जरूरी है कि वह अपने समाज की समझ रखे। समाज की समझ रखने के लिए उस प्रयोगशालाओं की समझ होनी चाहिए जिसे इतिहास कहा जाता है। दुर्भाग्य से मुस्लिम समाज अपने इतिहास से डरता है और विडंबना यह कि उसी के उत्सबिंदु पर लौटना भी चाहता है।

इतिहास को समझे बिना इतिहास से बाहर निकलना संभव नहीं होता।

वे ही समाज इतिहास की पूजा करते हैं जो इतिहास की समझ नहीं रखते।

मुझे स्वयं भी केवल इतनी जानकारी थी कि अरबी समाज मातृसत्ताक था। उसका चित्रण अनुमान के सहारे कर सकता था। इसलिए मैं एक मुस्लिम बुद्धिजीवी द्वारा प्रस्तुत किए गए उस समाज के चित्र को पहले रखना चाहता हूं, और अपनी अल्पज्ञता स्वीकार करते हुए भी उसकी परीक्षा का अधिकार अपने पास रखना चाहता हूं।

“इस्लाम के आने से पहले अरब और उसके आसपास की परिस्थितियां और संस्कृति कैसी थी, ये सवाल अक्सर लोगों को परेशान करता है. ख़ास तौर से उन्हें जो मुसलमानों और इस्लामिक विद्वानों से हमेशा ये सुनते रहते हैं कि अरब में इस्लाम से पहले चारों ओर अज्ञानता फैली हुई थी. त्राहि-त्राहि मची हुई थी. औरतों की कोई इज़्ज़्त नहीं थी. लोग आपस में लड़ मर रहे थे. सब कुछ अस्त-व्यस्त था एक तरह से. आजकल मौजूद इस्लामिक हदीसों में उस दौर को जाहिलियह कहा गया है. क्या सच में वो दौर इतना ही खराब था? और इस्लाम के आने के बाद सब कुछ रामराज्य जैसा हो गया अरब में?

आज के सऊदी अरब के पश्चिमी हिस्से को पहले हिजाज़ के नाम से जाना जाता था. हिजाज़ क्षेत्र में इस्लाम के दो सबसे पवित्र क्षेत्र मक्का और मदीना बसे हुए थे. मक्का में इस्लाम धर्म का प्रतीक काबा है. मदीना में अल-मस्जिद अन-नबवी स्थित है, जो कि पैगंबर मुहम्मद के दफ़न होने की जगह भी है. मदीना उस समय यसरिब के नाम से जाना जाता था. जब हम इस्लाम और उसके आगमन की बात करते हैं, तो हमारा ध्यान पूरी तरह हिजाज़ पर ही रहता है. क्योंकि यही वो क्षेत्र है, जहां से इस्लाम ने सर उठाया और सारी दुनिया में फैल गया.
इस्लाम के आगमन से पहले भी काबा अरबों की आस्था का मुख्य केंद्र बना हुआ था. काबा अपने शुरुआती दिनों में मक्का में निर्जन पहाड़ियों से घिरी हुई धूल भरी तलहटी में बना था. तब के काबा में और आज के काबा में बहुत अंतर है. पहले काबा आयताकार था, जबकि आजकल क्यूब के आकार का है. कहा जाता है कि उस समय काबा की दीवारें आज के मुकाबले इतनी छोटी होती थीं कि एक बकरी भी छलांग मारकर उसे पार कर सकती थी.

काबा बिना किसी छत के, पत्थरों की चार दीवारों से बना हुआ था. जो कि एक दूसरे के ऊपर फंसाकर रखे गए थे. छत की जगह इसे बड़े से कपड़े से ढका जाता था. जैसा कि आज भी है मगर आजकल छत है. इसमें भीतर प्रवेश करने के लिए दो छोटे दरवाज़े थे.

क्या था काबे के अंदर?

भीतर प्रवेश करने पर अंदर देवताओं और देवियों की मूर्तियां थीं. जिनमें प्रमुख थे अरब देवता हबल, सीरियन चंद्र देवी अल-उज्ज़ा, मिस्र की देवी ईसिस जिसे ग्रीस के लोग Aphrodite के नाम से जानते थे. नबाती देवी कुत्बा के साथ-साथ ईसाईयों के ईसा और मरियम की मूर्तियां भी भीतर थीं.
बाहर की तरफ से काबा तीन सौ साठ देवी-देवताओं की मूर्तियों से घिरा हुआ था. वो अरब के विभिन्न क्षेत्रों के देवी देवता थे. हर अरबी कबीले और कुल का अपना अलग देवता या देवी होती थी. काबा के आसपास अरबियों ने लगभग हर उस देवी देवता को जगह दे रखी थी, जो किसी कुल या कबीले के लिए पूजनीय था.
अरब ऐसा इसलिए करते थे ताकि विभिन्न क्षेत्र, कबीले, कुल और भिन्न भावना के लोगों के लिए भी काबा आस्था का केंद्र बना रहे. धार्मिक महत्व से कहीं ज्यादा, इसका राजनैतिक महत्व था. क्योंकि हर साल हज के लिए लोगों का दूर दराज़ के इलाकों से मक्का आना व्यापारिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण था.

क्यों थी इतनी मूर्तियां काबे में?

काबा के आसपास तीन सौ साठ मूर्तियों का होना इस बात की ओर इशारा करता है कि अन्य सभ्यताओं की तरह अरब के लोग भी ग्रहों की पूजा करते थे. कैरेन आर्मस्ट्रॉन्ग अपनी किताब ‘Islaam – a short story’ में इस धारणा की पुष्टि करती है. उनके हिसाब से तीन सौ साठ मूर्तियों का होना साल के तीन सौ साठ दिनों की ओर इशारा करता है. और वहां ग्रहों से सम्बंधित देवी-देवताओं का होना इस बात को और मज़बूत करता है.
कहा जाता है कि पहले के समय में काबा के भीतर बीचो-बीच धरती में एक खूंटी गड़ी हुई थी. इसे लोग धरती का केंद्र समझते थे. पुराने समय में काबा में प्रवेश करने के बाद कुछ धार्मिक लोग जोश में आने पर अपने कपड़े फाड़कर अपनी नाभि को उस खूंटी पर टिकाकर लेट जाते थे. इस कर्मकांड के द्वारा वो समझते थे कि उनके शरीर के केंद्र का संबंध अब पृथ्वी के केंद्र से हो गया है और उनका शरीर पूरे ब्रम्हांड के साथ एक हो गया है.
पवित्र महीनों में हज के लिए मक्का में आना और काबा के सात चक्कर लगाना भी खगोलीय पूजा का हिस्सा माना जाता था. ये परिक्रमा उसी तरह थी, जैसे पृथ्वी और अन्य ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं. ये उसी समझ से उपजा कर्मकांड था.

आब-ए-ज़मज़म की दिलचस्प कहानी

काबा के पास ही ज़मज़म का कुआं है. उस बीहड़ इलाके में इस तरह का कुआं होना अपने आप में एक आश्चर्य था. इसलिए बीहड़ रेगिस्तान के उस इलाके में ऐसे कुएं को पवित्र माना जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. क्योंकि पानी वहां सबसे कीमती चीज़ थी. आज भी है. इसलिए इसके साथ बहुत सारी किवदंतियां जुड़ गईं. इस्लामिक किवदंती कहती है कि एक बार पैगंबर इब्राहिम की पत्नी हाजरा अपने बेटे को इस बीहड़ में छोड़कर पानी की तलाश में इधर उधर दौड़ रही थीं. तभी इस्माईल, जो कि दूध पीते बच्चे थे, के पैरों की रगड़ से धरती से पानी का फव्वारा छूट पड़ा. कुछ किवदंतियां कहती हैं कि एक फ़रिश्ते ने आकर उस कुएं को खोदा. जो कि बाद में ज़मज़म के नाम से जाना गया

इस्लाम के पहले अरब में यौन संबंधों और अभिव्यक्ति की आज़ादी लगभग उसी तरह से थी, जैसे आज विकसित देशों में है. यौन संबंधों के लिए एक से अधिक व्यक्तियों से संबंध की छूट थी. मगर लोग शादीशुदा ज़िंदगी भी उसी तरह जीते थे, जैसे आज जीते हैं. इस्लाम के पहले अरब में वेश्यावृत्ति की आज़ादी थी. इस तरह के यौन संबंधों को किसी पाप की श्रेणी में नहीं रखा जाता था.
इस्लाम के पहले वाले अरब में स्वछन्द और उन्मुक्त वातावरण की बात को हम इस उदाहरण से भी समझ सकते हैं. हज के दौरान लोग काबा की परिक्रमा कम से कम कपड़ों या फिर पूरी तरह से नंगे होकर करते थे. काबा के पवित्र क्षेत्र में प्रवेश से पहले आपको अपनी सभी पुरानी चीज़ों और सामान को बाहर छोड़ना होता था. फिर काबा की परिक्रमा के लिए आपको भीतर ही नया कपड़ा लेना होता था. जो लोग कपड़ा नहीं ले सकते थे, वो नंगे ही काबा की परिक्रमा करते थे. ज़्यादातर लोग नंगे ही परिक्रमा करना पसंद करते थे. हर एक परिक्रमा के बाद स्त्री पुरुष के जोड़े एक दुसरे का चुम्बन लेते थे. ये भी उदाहरण मिलता है कि हज के दौरान लोग यौन संबंध भी स्थापित कर लेते थे. काबा के भीतर भी संभोग करने के इतिहास में उदाहरण मौजूद हैं.

वेश्याएं, जिन्हें अल-बगाया कहा जाता था, अपने टेंट में रहती थीं. जब वो संभोग के लिए तैयार होती थीं, तो अपने टेंट के बाहर एक झंडा लगा देती थीं. जिसे देखकर मर्द उनके पास जाते थे. जब तक झंडा न दिखे, तब तक कोई भी आदमी उनके समीप नहीं जाता था. इसी तरह से शादीशुदा औरतों को भी छूट थी कि वो अपने मर्द के साथ रहना चाहती है या नहीं. कोई शादीशुदा औरत अगर अपने मर्द से तलाक़ लेना चाहती थी तो अपने टेंट का रास्ता बदल देती थी. यानि वो टेंट का मुंह उलटी दिशा में खोल देती थी. जिस से उसका मर्द समझ जाता था कि अब उसकी औरत उसमे उत्सुक नहीं है. ये एक तरह का तलाक़ था, जो औरतें अपने मर्दों को देती थीं. यानि वो टेंट का मुह उलटी दिशा में खोल देती थी. जिस से उसका मर्द समझ जाता था कि अब उसकी औरत उसमे उत्सुक नहीं है. ये एक तरह का तलाक़ था, जो औरतें अपने मर्दों को देती थीं.”

ताबिश सिद्दीकी, ‘इस्लाम का इतिहास’ लल्लन टॉप के लिए

इसकी समीक्षा कल।

Post – 2019-04-14

एक जर्रे सी है ब्रह्मांड में अपनी दुनिया.
फिर भी इस जर्रे से बढ़ कर कहीं कोई भी नहीं।

Post – 2019-04-13

इतना आसां नहीं लिखना ऐ दोस्त
हम बदल जाते हैं लिखते लिखते

Post – 2019-04-12

मुस्लिम समाज और नेतृत्व का संकट

किसी भी समाज को सही नेतृत्व देने वाले युगों के बाद पैदा होते हैं, और वे भी किंचित एकांगी होते हैं, इसलिए मोटे तौर पर नेतृत्व का संकट किसी न किसी रूप में सभी समाजों में और सभी कालों में बना रहता है।

यह संकट ऐसे समाजों में अधिक बढ़ जाता है जिनमें बौद्धिकता की कमी और भावुकता का अतिरेक होता है। ऐसे समाज जिनका आदर्श उनका प्राचीन कबीलाई ढांचा होता है, आत्मरक्षा का उपाय अपने सरदार के इशारे पर बिना आगा-पीछा सोचे, झटपट लामबंद होना होता है।

यह प्रवृत्ति भारतीय गणों में भी रही है, जिनके लिए प्राचीन साहित्य में आशुसेन विशेषण का प्रयोग किया गया है।

यही वह सिरा है जिससे हम मुस्लिम समाज की प्रतिक्रियाओं को समझ सकते हैं जो मजहब के नाम पर उनको एक इशारे पर उत्तेजित करके ऐसी दिशा और दशा में पहुंचा देती हैं जहां से लौटने की संभावना रह नहीं जाती।

इसका दुखद पक्ष यह है कि भावातिरेक के कारण अपने अनुभवों से सीखने का प्रयत्न नहीं किया जाता, किसी गलती के आखिरी मुकाम से सही होने की कोशिश में नई गलतियां करते हुए जहां पहुंच गए उसी पर गर्व और संतोष करने का एकमात्र विकल्प रह जाता है।

मुस्लिम समाज के नेतृत्व की समस्या केवल मुस्लिम समाज के लिए चिंता का कारण नहीं है – वे शायद इसे चिंता की बात मानते भी न हों – अपितु पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की चिंता, और कुछ छूट लेकर कहें तो, विश्व मानवता की चिंता का विषय है।

जो समाज सही नेतृत्व पैदा नहीं कर सकता उसे बहकाने वाले उसके भीतर पैदा हो जाते हैं और उसका इस्तेमाल करके दरगुजर करने वाले – अंग्रेजी इबारत में कहें ताे यूज एंड थ्रो आइटम समझने वाले – एक के बाद एक बाहर पैदा हो जाते हैं।

मैं जिस समय ये पंक्तियां लिख रहा हूं, 2019 के चुनाव का पहला चरण बीत चुका है। आज 12 अप्रैल को सुबह एक चैनल की भिंड-मुरैना के डाकुओं की मतदान को प्रभावित करने वाली भूमिका पर एक कहानी देख रहा था जिसमें किसी जमाने के दुर्दांत दस्युओ का साक्षात्कार किया गया था। उनकी मूंछें, उनके तेवर, और कुछ के लगड़ाते हुए लाठी के सहारे चलने के लिए चित्र तो याद है पर नाम याद नही, जितना याद है उसे भी भूलते हुए बात करना चाहत हूं क्योंकि उन्हें हीरो नहीं बनाना चाहता।

वे बता रहे थे जिन दलों के लोग उनको कुछ रियायतें देने की बात करते हुए उन पर हाथ न डालने का वादा करते हुए उनसे सहायता मांगते थे उनको जिता दिया करते थे।

नाम नहीं लेंगे कि वे किन दलों के नेता होते थे। परंतु यह याद दिलाना चाहेंगे कि समाज और राजनीति का अपराधीकरण करते हुए बाहुबलियों के माध्यम से चुनाव प्रक्रिया को अपने अनुकूल बनाने वाले देश का हित नहीं कर रहे थे। अपनी राजनीतिक जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर रहे थे। ये वे ही दल थे जो ईवीएम के बाद बौखला उठे थे।

ईवीएम वह कसौटी है जिसकी विश्वसनीयता पर संदेह करने वाले स्वयं यह घोषित कर रहे थे ‘हमें सैद्धांतिक राजनीति नहीं, सत्ता हासिल करना है और लोकतंत्र का इस्तेमाल यूज एंड थ्रो के नियम से करना है।

शाम को शायद उसी या किसी अन्य चैनल पर बैनर लाइन थी ‘ देखें इस बार मुसलमान किसे जिताते हैं।’ और तभी मुझे याद आया कि बाहुबलियों का अपने लिए इस्तेमाल करने वाले दल ही मुसलमानों को मुसलमान वोट बैंक बनाकर उनका इस्तेमाल यूज एंड थ्रो नियम से करते रहे हैं ।

यदि एक ही दिन इन दोनों इबारतों से सामना न हो गया होता, तो मैं उस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता जिसको उदाहृत करने के लिए इस दृष्टांत का हवाला दे बैठा। और तभी बकरीद का पर्व याद आ गया, जिसमें जतन से पाले गए बकरे 100 बकरों के बराबर बिकते हैं, उनकी बोली लगाने वाले सिक्कों की भाषा में ऐलान करते हैं, इसकी गर्दन मुझे चाहिए, इसकी गर्दन मुझे चाहिए।

सोचता हूं, मुसलमान, दस्यु, बाहुबली, दूसरों के लिए इस्तेमाल क्यों होते रहे? उनके हित के नाम पर उनके पिछड़ेपन का कारोबार क्यों किया जाता रहा और मैं इसका एक ही कारण मानता हूं, और वह है, योग्य नेतृत्व का अभाव जिसमें असरवादियों की फसल गाजर घास की तरह उगती है और अपनी जमीन को ही खा जाती है।