मुमकिन और नामुमकिन के बीच
मानता हूं, और इसे कभी छिपाया नहीं है कि नरेन्द्र मोदी से योग्य और दूरदर्शी प्रधान मंत्री भारत में पहले कोई नहीं हुआ, फिर भी इसे दुहराना पड़े तो जो लोग उन्हें इतना खतरनाक मानते है कि उनसे मुक्ति पाने के लिए शैतान को भी अपना उद्धारक मान सकते हैं, वे हंसेंगे और कहेंगे, ‘कोई नई बात नहीं कह रहे हो। ‘
मैं नहीं चाहता कि वे अपनी राय बदलें। केवल यह चाहता हूं कि वे अपनी घृणा का कारण गिनाएं जिससे मुझे और मुझ जैसे लोगों को अपनी राय बदलने में मदद मिल सके। कारण वे गिना नहीं सकते, क्योंकि घृणा के मूल में अपनी हीन भावना होती है न कि घृणित सिद्ध किए जाने वाले का दोष और इसकी ताकत होती है दुष्प्रचार और प्रचार के साधनों पर एकाधिकार और उस श्रेष्ठतर की दशा गूंगों से भी बुरी हो जाए। वह कुछ कहे तो उसे कोई सुनने को तैयार न हो। वह जितना ही श्रेष्ठ सिद्ध होता जाता है, घृणा उतनी ही प्रचंड होती जाती है।
इसका रहस्य इस शब्द के इतिहास में ही छिपा है। घृणा जल की उसी (गिर/घिर – ‘घृ-क्षरणे’) से निकला है जिससे घृत= जल (घृतं क्षरन्ति सिन्धवः) / रूढार्थ – घी)। घृणि का रूढ़ अर्थ हुआ धूप के असर से निकलने वाला पसीना, बौद्ध साहित्य में इसका प्रयोग पसीजने अर्थात् करुणा के आशय में किया गया। नैतिक फलक पर बौद्ध जीवनमूल्यों के सामने अपने वर्णवादी मूल्यों को हीनतर पाकर ब्राह्मणों ने गालियों को हथियार बनायाः
1. बुद्ध – यदस्ति चोरः स त एव बु्द्धः (जो चोर है वही बुद्ध है)
2. तथागत- तथागतं नास्तिक एव विद्धि (तथागत को नास्तिक समझो)
3. देवानामप्पिय – देवानां प्रिय इति मूर्खः
4. पाखंड – धर्म >ढकोसला
5. घृणा – करुणा> कुष्टगलन
इससे अधिक विस्तार में जाने से भटक जाने का खतरा है।
इसी हथियार का प्रयोग बुद्धिवादी और कलावादी भी करते हैं। आज के ब्राह्मणवादी परंपरावादी ब्राह्मणों में ढूढ़ने पड़ेंगे, विद्रोही तेवर अपनाने वालों में जिसके कंधे पर हाथ डालो, हिंदू है तो घोर ब्राह्मणवादी सिद्ध होगा, मुसलमान हे तो मुल्लों से भी अधिक पिछड़ा सिद्ध होगा।
मैं यह भी चाहूंगा कि मोदी की वे कमियां या अपराध पिछले पांच साल के भीतर के हों। पहले की कमियों के अंधाधुंध प्रचार के बाद विगत चुनाव में उन पर फैसला आया था कि हमें ऐसा ही आदमी चाहिए था, इसलिए भले वे आप को कमियां लगें, वे गुण मानी जा चुकी हैं। कारण यह हो कि जिसे आप सही बता रहे थे उसे जनमानस गलत मान रहा था, या यह, कि जिसे आप प्रमाद मान रहे थे, उसे वह जरूरी उपचार मानता था।
जिस लेख का लिंक मैंने यह जाने बिना कि इसका लेखक कौन है, पहले दिया है, और जिसके विषय में मैं यह मानने को तैयार हूं कि इसके पीछे चुनावी लाभ का इरादा भी हो सकता है, उसके एक एक तार पारस्परिक संगति और बाह्य प्रमाणों, कथनों और कार्यों से इस तरह जुड़ते हैं कि मै प्रयत्न करके भी इसकी किसी कड़ी को गलत नहीं ठहरा पाता।
यदि यह सही है तो यह सोच कर घबराहट होती है कि हमारे पास मोदी का और भाजपा का कोई विकल्प है ही नहीं, बच ही नहीं रहा है, जो लोकतंत्र के लिए सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। कारण ऐसी स्थिति में किसी को तानाशाह बनना नहीं पड़ता, तानाशाही उस पर थोप दी जाती है। वह बचना चाहे भी तो बच नहीं सकता। मोदी में वह सेल्फ राइटियसनेस है जो तानाशाह को तानाशाह बनाए रखती है।
मेरा अपना चुनाव राजनीति नहीं, समाज, बुद्धिजीवियो की भूमिका और भारतीय बुद्धिजीवियों की दशा है, इसलिए कौन जीतता कौन हारता है, इसकी मुझे चिन्ता नहीं रहती। कौन किन तरीकों का इस्तेमाल करता है यह मेरे लिए अधिक महत्व रखता है। कारण, समाज का निजी आचार इसी से प्रभावित होता है।
दूसरों से बीस पड़ने के लिए कोई जो हथकंडे अपनाता है, वह कितना कारगर या वाहियात है यह भी मुझे तब अधिक आकर्षित करता है जब वह मुझे मूर्खतापूर्ण लगता है। मेरे कुछ पूर्वानुमान सही रहे है। वे निम्न कारणों पर आधारित थे:
१. भाजपा के कार्य और अटल जी के नेतृत्व के कारण इसकी जीत के लिए अनुकूल माहौल था, परन्तु जब इन्होंने इंडिया शाइनिंग का नारा दिया तो मैंने नतीजा निकाला कि इन्हें हारने से कोई बचा नहीं सकता। कारण एक ऐसे देश में जिसमें असंख्य समस्यायें और असंतोष हों, वहां अपने काम की सराहना का उल्टा असर होता है। केवल यह नम्र स्वीकार कि हमसे जो संभव है निष्ठा से किया, पर अभी बहुत कुछ करने को बाकी है, उसे हम आगे पूरा करना चाहते हैं, फलदायक होता है।
२. दिल्ली के चुनाव में लोक सभा सदस्यों को प्रचार पर लगाना और हर्षवर्धन जैसे नेता के रहते एक नौकरशाह को नेतृत्व सौंपना तानाशाही और आत्मघाती निर्णय था। मोदी ने अपनी सफलता से अंधे होकर दिल्ली में अपनी दुर्गति कराई थी। जरूरत से अधिक ताकत झोंक देना अपने विरोधी के पक्ष में स्वत: यह प्रचार करना है कि वह वह अजेय है और स्थानीय सुयोग्य नेता और काडर की उपेक्षा करना अपनी जड़ें काटने का पर्याय है। मोदी ने दोनों गलतिया कीं।
अब सोचने के अपने इसी तरीके के बल पर मैं जिन नतीजों पर पहुंच रहा हूं वे इस प्रकार हैंः
1. मोदी को आने से रोकने के लिए जो कुछ कहा और किया जाता रहा, उसे ही पिछले पांच सालों में, संसद में, संसद से बाहर विरोधियों द्वारा – वे दलों के हों, दलों से जुड़े हों या दलों की टांग पकड़ कर घिसटने वाले अपनी नजर में बुद्धिजीवी और हमारी नजर में बुद्धिव्यवसायी हों – वही बातें लगातार दुहराई जाती रहीं जिन पर जनता फैसला दे चुकी थी। इसलिए वह पत्थर पर घिसनी करता रहा जिससे उसकी ही विश्वसनीयता घटती रही।
2. ऐन चुनाव के अवसर पर सभी ने सभी की सहमति से यह घोषणा की कि किसी दल में वह व्यक्ति भी, जो मुहावरे में कही गई, मोदी की छाती की चोड़ाई का मजाक उड़ाता रहा हे, उसका सामना होने पर शिफर में बदल जाता है, इसलिए स्वयं यह तय करता है कि यदि सारे शिफर एक हो जाएं तो मोदी को मात दे सकते हैं। राजनीति में शिफरो का शिखर बनना संभव है, गणित और विज्ञान में नहीं। ज्ञान रहते मैं भी मानने को तैयार नहीं।
3. इंदिरा इंडिया हैं यह नारा कांग्रेस के एक चापलूस ने लगाया था, इसे ‘समरस समर सकोच बस पांव न ठिक ठहराय’ वाली नजाकत से प्रसारित करके अर्थवाद में बदला गया.
4. मोदी भारत है, यह नारा किसी भाजपाई ने नहीं दिया, उन्होंने दिया जो मोदी को हटाने के सभी प्रयोगों में विफल रह जाने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे थे कि इस ‘शैतान’ के प्राण तो भारत में बसते हैं, इसे मिटाना है तो भारत को ही बर्वाद करना होगा। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ देश द्रोही न थे, मैं अदालत के फैसले पर रीझ गया था। वे मोदी के टुकड़े करना चाहते थे क्योंकि मोदी ही भारत है। ‘मोदी को हराना हे तो भारत को मिटाना होगा।’
5. क्या आप को नहीं लगता कि मैं चारणों की भूमिका में उतर चुका हूं? लगता है तो ठीक है, पर साथ ही यह बोध होना चाहिए कि मैंने अपनी ओर सो कुछ कहा ही नहीं। मैं आपकी निन्दास्तुति की व्याख्या कर रहा था।
6. में उन लोगों में हूं जो मानते हैं कि ‘मोदी है तो मुमकिन है’ में अतिरंजना है, परंतु प्रयोगों और परिणामों को देखते हुए इसलिए सबसे उपयुक्त है किः
(क) भगीरथ भले गंगा को धरती पर ले आए हों, गटर बन चुकी नदी को गंगा बनाने के प्रयत्न कब से हो रहो थे और उनकी विफलता के कारण यह सहमति बन चुकी थी कि गटर को गंगा बनाना असंभव है। इस निराशा के बीच गंगा को निर्मल और अविरल बनाने वाला क्या अपने युग का भगीरथ नहीं है?
उदाहरण अनेक हैं, हमारा काम उन्हें गिनाकर मोदी की आत्मश्लाघा का विस्तार करके उन्हें मदान्ध बनाना नहीं है, पर मोदी है तो मुमकिन है, नारा अतिरंजित हो कर भी यथार्थ के कितने करीब है।
समय काफी पड़ा है। कई रंग बदलेंगे इन कुछ दिनों में। कई रंग पीछे से कौंधा करेंगे। वे ही जानते हैं कि वे क्या करेंगे, नहीं जानते हम कि हम क्या करेंगे।