Post – 2019-04-10

हमें अपनों ने भी कुछ दूर से देखा होगा

धर्म मूल्य व्यवस्था है।

मजहब विश्वास-पद्धति है जो लोक से लेकर परलोक या मरने के बाद की संभावनाओं को अपनी परिधि में समेट लेता है।

इन दोनों मे से किसी के निर्वाह के लिए, मनुष्य का होना जरूरी है।
मनुष्य के मनुष्य बने रहने के लिए जीवन की अल्पतम आवश्यकताओं की पूर्ति अपरिहार्य है।

धर्म का आर्थिक आधार है।

भूखा आदमी धर्म का पालन नहीं कर सकता। भौतिक निर्वाह में अक्षम व्यक्ति बौद्धिक और आध्यात्मिक उत्थान नहीं कर सकता। यह चेतना भारतीय मनीषा में शास्त्रों से लेकर जन विश्वास तक में फैली है। हम इसे कुछ उदाहरणों से स्पष्ट करना चाहेंगे।

न सोमं अप्रता पपे = निर्धन व्यक्ति सोमपान नहीं कर सकता। सोमपान मेरी समझ से मधुविद्या का वह तत्वबोध है जिसमें स्व-पर भेद मिट जाता है। निर्धन व्यक्ति चिंतन और तत्व बोध के इस आधारभूत सत्य से भी वंचित कर दिया जाता है।

क्षीणाः नराः निष्करुणा भवन्ति = जीवन निर्वाह के साधनों से वंचित, मरणासन्न व्यक्ति या समाज निष्करुण होता है।

भूखे भजन न होय गोपाला।

अन्न वै ब्रह्म।

महाभारत के शांतिपर्व में दंड की अनिवार्यता के सन्दर्भ मे ब्राह्मण के लिए दंड स्वरूप फटकार (वाग्दंड), क्षत्रिय के लिए समर्पण, वैश्य के लिए अर्थदंड का विधान है। परंतु शूद्र को निर्दंड कहा गया है (वाचि दंडं ब्राह्मणानां, क्षत्रियस्य भुजीर्पणम्। दानदंडज्ञ स्मृतो वैश्यो निर्दंडो शूद्र उच्यते, महा. 12. 15.9. वह यदि इस स्थिति में ही नहीं है कि कर्तव्य अकर्तव्य का विचार कर सके, फिर उससे अपराध कैसे हो सकता है। वह अपने को जिंदा रखने के लिए कुछ भी कर सकता था।

जिस मनुस्मृति के कतिपय विधानों को लेकर सामाजिक न्याय की राजनीति की जाती है, उसी मे यह विधान है कि जिन अपराधों के लिए ब्राह्मण को सबसे अधिक दंड दिया जाना चाहिए, क्षत्रिय को उससे कम, वैश्य को उससे कम, उसके उसके लिए शुद्र को सबसे कम दंड दिया जाना चाहिए।

मैं इन उदाहरणों को प्रस्तुत करते हुए यह प्रश्न करना चाहता हूं कि इस देश का चिंतन शास्त्र से लेकर लोक व्यवहार तक इतना वस्तुपरक, इतना तर्कसंगत, इतना आधुनिक लगता है कि आधुनिकतम विधान तक उसकी अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं करते, उसे अध्यात्मवादी कहने वाले क्या भारतीय संस्कृति के सार तत्व को समझ सके थे। दुनिया का कोई दूसरा देश इतना वैज्ञानिक, इतना भौतिकवादी, सामाजिक न्याय के प्रति इतना समर्पित दिखाई देता है क्या?

Post – 2019-04-10

यह दर्द किसे होगा, यह दर्द कहां होगा
रोते हुए सहते हैं, हंसते हुए कहते हैं ।
यह अपना घर शहर है इसको न मिटा देना
आदत सी पड़ गई है, हम चैन से रहते हैं।।

Post – 2019-04-09

यह पैरडी अभिनंदन की वापसी के निहित संदेश के बावजूद सीमा पर गोलाबारी जारी रहने के यथार्थ से खिन्न होकर की तो थी, पर सार्वजनिक नहीं की थी। आज दूसरे काम में लगा हूं, सो अकाले शालिचूर्णम्ः

हसरत ही सही हँसने हँसाने के लिए आ।
अपना नया भूगोल पढ़ाने के लिए आ।
हसरत ही सही।।

कहने को तो इस्लाम का मकसद है सलामत।
कायल नहीं जो उनको मिटाने के लिए आ ।
हसरत ही सही।।

लब इतने हैं शीरीं कि उलट जाता है मानी
तू क्या है, क्यों ऐसा है बताने के लिए आ।
हसरत ही सही।।

बन्दों को गुलामी के हैं कुछ फायदे मालूम।
खुद्दार हैं जो उनको सताने के लिए आ।
हसरत ही सही।।

मुझको अमन पसंद है तुझको कफन पसंद
मेरा अमन सुकून मिटाने के लिए आ ।
हसरत ही सही।।

फसले बहार रंगों का सैलाब है गुलशन।
हर रंग को बदरंग बनाने के लिए आ ।
हसरत ही सही।।

गोलों के बीच मीठी गोलियों की पेशकश।
शक्कर का ग्राफ और उठाने के लिए आ।
हसरत ही सही।।

आजाद नहीं तू है जमाने को है मालूम।
पर ख्वाब हैं आजाद, दिखाने के लिए आ।
हसरत ही सही।।

तोपों के रुख को देख बमों के असर को देख
दुनिया के रुख को देख, जमाने के लिए आ।
हसरत ही सही।।

Post – 2019-04-08

I do not agree with what you have to say, but I’ll defend to the death your right to say it.
Voltaire
क्या अपने को बुद्धिजीवी कहने वाले ऐसे मित्र जो बोलना जानते हैं पर सुनना नहीं, जो केवल अपनी हुंकार की प्रतिध्वनि सुनना पसंद करते हैं, विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की इस पूर्वापेक्षा का सम्मान करते हैं? यदि नहीं तो जिसके हाथ में दूसरे तरह की शक्तियां हैं, वह उनका प्रयोग करते हुए उनको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मर्यादा सिखाएं तो, उसकी निंदा करने का अधिकार हमारे पास नहीं रह जाता।

Post – 2019-04-07

झूठ का सच

यशपाल जी ने भारत विभाजन पर लिखे अपने उपन्यास को झूठा सच का शीर्षक दिया था। भारत स्वतंत्र हुआ या टुकड़े टुकड़े हुआ? जो लोग यातना, अपमान, हिंसा के शिकार हुए, या अपना घर छोड़ने को मजबूर हुए उनके लिए, स्वतंत्रता का क्या अर्थ था? देश स्वतंत्र हुआ या सत्ता एक से दूसरे को मिली?

फिर भी कुछ ऐसा तो था ही जिसका जश्न मनाया जा रहा था, और जिसके होने से बहुत कुछ हुआ जिस पर हम गर्व कर सकते हैं।

कुछ चीजें गलत होकर इसलिए भी सही होती हैं क्योंकि उनके हो जाने के बाद विकल्प रह ही नहीं जाता। जो हुआ वही हो सकता था, और जो है वही सच है।

स्वतंत्रता के बाद कांग्रसी होने का तमगा खादी कपड़ा, गांधी टोपी रातों रात कितने लोगों ने पहली बार पहने थे, यह इतिहास का सबसे उल्लेखनीय कार्य व्यापार था जो इतिहास में कहीं दर्ज नहीं है। कांग्रेस की सदस्यता की चवन्नी की पर्ची किन किन दरों पर बिकी थी यह कहीं दर्ज नहीं हैं

चोला बदलने वाले ये लोग आजादी के संग्राम में शामिल होने के सबूत जुटा कर, देश शिकारी के पंजे से मुक्त हुए देश की अपने हिस्से की बोटी की मांग करने वाले लोग थे। आजादी की रक्षा करने वाले लोग नहीं।

जो जितना ही नकली था वह उतनी ही अकड़ से अपने को गांधीवादी सिद्ध करने के तेवर दिखा रहा था।

उसके बाद भ्रष्टाचार का, काला बाजार का, कामचोरी का, रिश्तवखोरी का, बिना टिकट यात्रा का, मिलावट का और सब से ऊपर भाई-भतीजा-वाद का मिलाजुला जो सैलाब आया था, उसका जिक्र इतिहास की किताबों में नहीं मिलेगा। दुर्भाग्य से इसमें देश के प्रथम कर्णधार भी शामिल थे।

गांधी जी के, कांग्रेस को समाप्त करने के विचार के पीछे, यही यथार्थ था जिसमें स्वतंत्रता का अर्थ मनचलापन, और कांग्रेस का अर्थ भ्रष्टाचार की भागीरथी हो गया था।

यूं तो गांधी जी के इस इरादे का भी उल्लेख इतिहास के विरल प्रसंगों में ही मिलेगा, परंतु उसकी पृष्ठभूमि का जिक्र उन प्रसंगों और व्याख्याओं में भी नहीं मिलेगा।

मैंने इसे अपने जीवन के सबसे संवेदनशील दौर – किशोरावस्था – में न देखा होता, तो इतने विश्वास के साथ, इतिहास की किताबों को रौंदते हुए, अपना सच कहने का साहस न जुटा पाता और उससे उत्पन्न वितृष्णा को अपनी पूँजी बनाकर अपने जीवन की अपनी शर्तें न तय की होतीं तो अपने बुद्धिजीवी बंधुओं के अवसर वादी मिजाज को, उसे छुपाने की सात परतों के बाद भी पहचान कर उससे विद्रोह न कर पाता।

जिन्हें अपनी बोटी चाहिए थी, वे गांधीवादी बनकर, गांधीवाद से आगे का रास्ता चुनकर, खादी को भी धता बताकर, गांधी का उपनाम अपने खाते में डाल कर, अपने जैसों के सहयोग से स्वतंत्र भारत के एकाधिकारी बने रहे। लोकतंत्रिक मुखोटे की बाध्यता के कारण दूसरे दलों को अवसर मिला तो षडयंत्र, उपद्रव, देशद्रोह, सभी तरीकों का इस्तेमाल करते हुए उन्हें विफल करने में सफल रहे।

इतिहास में कभी सत्य की जीत नहीं हुई फिर भी सत्य कभी हारता नहीं है। कभी, कहीं निखोट मिलता नहीं है। सच कहें तो, झूठ का भी अपना सच होता है। सच की भाषा अभिधा है, झूठ की अपह्नुति। सत्य की गति ऋजु होती है, झूठ के विषय में तुलसीदास ने कहा था, “चलइ जोंक जिमि वक्र गति”। सत्य का आधार है, स्वधा, आत्मबल, अपने पसीने की कमाई से संतोष और उससे अधिक की कामना तक न करना है। झूठ का स्रोत है परदोहन, श्रम और योग्यता से अधिक पाने की आकांक्षा और उसे पाने के लिए अपनाए जाने वाले गलत तरीके और परिणति है उन गर्हित तरीकों से उत्पन्न ग्लानि से बचने के लिए उन्हें महिमामंडित करने के प्रयत्न।

विधि है सच को छिपाने का प्रयत्न है, और इस प्रयत्न से इस बात की पुष्टि होती है कि जो दीखता है वह दिखावा है, सच कुछ और है, और पुष्टि होती है उस व्यक्ति के चरित्र की भी जो झूठ का सहारा लेता है। झूठ और सच अंधेरे और प्रकाश की तरह हैं ।

पुराने लोग झूठ को पाप, और इसके कारण को लोभ मानते थेः
एको लोभो महाग्राहो, लोभात् पापं प्रवर्तते। शांति पर्व 152.2

और अपने ढंग से समझाते थेः
नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातको परं। वही, 156-24

झूठ को, यह जानते हुए भी, कि यह झूठ है, सच मान लेने, या इस दुविधा में पड़ जाने की विवशता को क्या कहेंगे कि संभव है यह सच हो जाए? लोभ का चश्मा – ‘दिए लोभ चसमा चखनि लघु पुनि बड़ो दिखाय।’ युगानुभव के साथ सत्यबोध भी बदलता है और उसे व्यक्त करने से मुहावरे भी। हम रहीम को सुधारते हुए कह सकते हैंः ‘दिए लोभ चसमा चखनि गर्हित खरो दिखाय।’

Post – 2019-04-06

एकता में बल हैः गांठ में छल है

बचपन से लेकर आज तक ऐसी कहानियां और ऐसे उपदेश सुनते और पढ़ते आए हैं जिनमें यह समझाया गया है कि एक होकर रहना, मिल जुल कर रहना, ऐसा करने वाली भंगुर इकाइयों को बहुत शक्तिशाली बना देता है- संघे शक्तिः। यूनाइटेड वी विन; डिवाइडेड वी फाल, आदि।

यह जैव अस्तित्व से जुड़ी समस्या है और इसका पालन सभी प्राणी करते हैं। सभी झुंड बना कर रहते हैं। सभी प्राणों को संकट में डाल पर अपने समूह के प्रत्येक इकाई को बचाने का प्रयत्न करते हैं। इसके सबसे रोचक नमूने चींटियों, ततैयों, मक्खियों और मधुमक्खियों मे देखे जा सकते हैं।

कुलपति या किसी एक प्रशासक का होना भी समूह की शक्ति को एकदिश करने की नैसर्गिक आवश्यकता थी और इसे भी चींटियों, मधुमक्खियों आदि में देखा जा सकता है। वहां इसे उस पराकाष्ठा पर पहुंचा हुआ पाया जा सकता है जिसमें राजा या रानी को बचाने के लिए पूरा जत्था अपने प्राणों को उत्सर्ग कर सकता है।

अब इस यथार्थ को सामने रखते हुए हाब्स, लॉक, रूसो के द्वारा प्रतिपादित राज्य संस्था के उदय के सिद्धांत को रखें, तो वे कितने गलत और बचकाने सिद्ध होंगे? वे गलत नहीं थे। गलती तो हमारी थी। उन्होंने हो सकता है मनु की नकल की हो। ऐंगेल्स भी फैमिली, स्टेट एंड प्राइवेट प्रॉपर्टी में इस नैसर्गिक व्यवस्था की ओर ध्यान नहीं देते।

समस्या यह है कि जिसे भाषा से अपरिचित प्राणी, और आदिम समाज जानता था, और जिसका पालन करता था, वह मनुष्य को भूल कैसे गया कि उसे पहचानने और कहने वाले तत्वदर्शी प्रतीत होने लगे?

यह आर्थिक विषमता का परिणाम है, और यह विषमता पहल, अध्यवसाय और जोखिम उठाने के लिए कुछ लोगों के कृत संकल्प होने और दूसरों के अविश्वास. आलस्य, और मौजमस्ती से प्रेम के कारण उनसे सहयौग न करने से पैदा हुईं।

जो कहना है उसकी भूमिका बनाते हुए मैं विषय से इतनी दूर और इतने नए क्षेत्र में पहुंच जाता हूं, जिसका उससे पहले मुझे भी ज्ञान नहीं होता। हमारी सामाजिक आर्थिक विषमता की समस्याएं उधार ली गई शोषक और शोषित की कोटियों में रख कर नहीं समझी जा सकती। परंतु मैं तो विचार करने चला था गठबंधन की राजनीति पर। उसकी भूमिका तैयार करते हुए मैं विषय से इतना हट गया हूं कि आज उस पर बात हो ही नहीं सकती।

इसके बाद भी यह तो याद दिलाया ही जा सकता है कि संघबद्धता समरूपों के बीच ही संभव है। दो भिन्न गुण, प्रकृति या उपादानों के बीच सहकारिता का ढोंग संभव है, संगठन – सं-ग्रथन= एक साथ गुंथना, मिलना संभव नहीं हैं। सन के रेसों को एकजुट करके रस्सी और रस्सा बनाया जा सकता है, कपास के रेसों से धागे और रस्से बनाए जा सकते है। परन्तु कपास और जूट के रेसों को एक साथ बटा गया तो किसी एक से बने रज्जु की तुलना में ताकत कम होगी।

विसदृश के योग से – सन का रस्सा, तार का रस्सा. कपास के धागे का रस्सा तो आप आए दिन देखते हैं पर इनका मिलाजुला रस्सा आप ने इसलिए नहीं देखा क्योंकि यह संभव ही नहीं।

हम कल कह रहे थे कि मोदी है तो मुमकिन है। राजनीति में तो वह भी मुमकिन है जो न प्रकृति में संभव है न प्रयोग में।

परंतु अभी तो हुम संगठन (सं-ग्रथन) की बात कर रहे थे, गठबंधन की नियति ‘जुरे गांठ परि जाय’ से समझा जा सकता है। इसमें विसदृश एक दूसरे से मिलना भी चाहें तो दोनों से अलग सचाई सामने आ जाएगी जिसमें दोनों गायब मिलेंगे। प्राथमिक रंगों को मिलाकर देखें जिनसे सेकंडरी रंग बनते हैं और सभी को मिला दें तो कोई रंग रह ही नहीं जाता। उनकी रंगत वढ़ती नहीं खत्म हो जाती है।

Post – 2019-04-05

मुमकिन और नामुमकिन के बीच

मानता हूं, और इसे कभी छिपाया नहीं है कि नरेन्द्र मोदी से योग्य और दूरदर्शी प्रधान मंत्री भारत में पहले कोई नहीं हुआ, फिर भी इसे दुहराना पड़े तो जो लोग उन्हें इतना खतरनाक मानते है कि उनसे मुक्ति पाने के लिए शैतान को भी अपना उद्धारक मान सकते हैं, वे हंसेंगे और कहेंगे, ‘कोई नई बात नहीं कह रहे हो। ‘

मैं नहीं चाहता कि वे अपनी राय बदलें। केवल यह चाहता हूं कि वे अपनी घृणा का कारण गिनाएं जिससे मुझे और मुझ जैसे लोगों को अपनी राय बदलने में मदद मिल सके। कारण वे गिना नहीं सकते, क्योंकि घृणा के मूल में अपनी हीन भावना होती है न कि घृणित सिद्ध किए जाने वाले का दोष और इसकी ताकत होती है दुष्प्रचार और प्रचार के साधनों पर एकाधिकार और उस श्रेष्ठतर की दशा गूंगों से भी बुरी हो जाए। वह कुछ कहे तो उसे कोई सुनने को तैयार न हो। वह जितना ही श्रेष्ठ सिद्ध होता जाता है, घृणा उतनी ही प्रचंड होती जाती है।

इसका रहस्य इस शब्द के इतिहास में ही छिपा है। घृणा जल की उसी (गिर/घिर – ‘घृ-क्षरणे’) से निकला है जिससे घृत= जल (घृतं क्षरन्ति सिन्धवः) / रूढार्थ – घी)। घृणि का रूढ़ अर्थ हुआ धूप के असर से निकलने वाला पसीना, बौद्ध साहित्य में इसका प्रयोग पसीजने अर्थात् करुणा के आशय में किया गया। नैतिक फलक पर बौद्ध जीवनमूल्यों के सामने अपने वर्णवादी मूल्यों को हीनतर पाकर ब्राह्मणों ने गालियों को हथियार बनायाः
1. बुद्ध – यदस्ति चोरः स त एव बु्द्धः (जो चोर है वही बुद्ध है)
2. तथागत- तथागतं नास्तिक एव विद्धि (तथागत को नास्तिक समझो)
3. देवानामप्पिय – देवानां प्रिय इति मूर्खः
4. पाखंड – धर्म >ढकोसला
5. घृणा – करुणा> कुष्टगलन
इससे अधिक विस्तार में जाने से भटक जाने का खतरा है।

इसी हथियार का प्रयोग बुद्धिवादी और कलावादी भी करते हैं। आज के ब्राह्मणवादी परंपरावादी ब्राह्मणों में ढूढ़ने पड़ेंगे, विद्रोही तेवर अपनाने वालों में जिसके कंधे पर हाथ डालो, हिंदू है तो घोर ब्राह्मणवादी सिद्ध होगा, मुसलमान हे तो मुल्लों से भी अधिक पिछड़ा सिद्ध होगा।

मैं यह भी चाहूंगा कि मोदी की वे कमियां या अपराध पिछले पांच साल के भीतर के हों। पहले की कमियों के अंधाधुंध प्रचार के बाद विगत चुनाव में उन पर फैसला आया था कि हमें ऐसा ही आदमी चाहिए था, इसलिए भले वे आप को कमियां लगें, वे गुण मानी जा चुकी हैं। कारण यह हो कि जिसे आप सही बता रहे थे उसे जनमानस गलत मान रहा था, या यह, कि जिसे आप प्रमाद मान रहे थे, उसे वह जरूरी उपचार मानता था।

जिस लेख का लिंक मैंने यह जाने बिना कि इसका लेखक कौन है, पहले दिया है, और जिसके विषय में मैं यह मानने को तैयार हूं कि इसके पीछे चुनावी लाभ का इरादा भी हो सकता है, उसके एक एक तार पारस्परिक संगति और बाह्य प्रमाणों, कथनों और कार्यों से इस तरह जुड़ते हैं कि मै प्रयत्न करके भी इसकी किसी कड़ी को गलत नहीं ठहरा पाता।

यदि यह सही है तो यह सोच कर घबराहट होती है कि हमारे पास मोदी का और भाजपा का कोई विकल्प है ही नहीं, बच ही नहीं रहा है, जो लोकतंत्र के लिए सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। कारण ऐसी स्थिति में किसी को तानाशाह बनना नहीं पड़ता, तानाशाही उस पर थोप दी जाती है। वह बचना चाहे भी तो बच नहीं सकता। मोदी में वह सेल्फ राइटियसनेस है जो तानाशाह को तानाशाह बनाए रखती है।

मेरा अपना चुनाव राजनीति नहीं, समाज, बुद्धिजीवियो की भूमिका और भारतीय बुद्धिजीवियों की दशा है, इसलिए कौन जीतता कौन हारता है, इसकी मुझे चिन्ता नहीं रहती। कौन किन तरीकों का इस्तेमाल करता है यह मेरे लिए अधिक महत्व रखता है। कारण, समाज का निजी आचार इसी से प्रभावित होता है।

दूसरों से बीस पड़ने के लिए कोई जो हथकंडे अपनाता है, वह कितना कारगर या वाहियात है यह भी मुझे तब अधिक आकर्षित करता है जब वह मुझे मूर्खतापूर्ण लगता है। मेरे कुछ पूर्वानुमान सही रहे है। वे निम्न कारणों पर आधारित थे:
१. भाजपा के कार्य और अटल जी के नेतृत्व के कारण इसकी जीत के लिए अनुकूल माहौल था, परन्तु जब इन्होंने इंडिया शाइनिंग का नारा दिया तो मैंने नतीजा निकाला कि इन्हें हारने से कोई बचा नहीं सकता। कारण एक ऐसे देश में जिसमें असंख्य समस्यायें और असंतोष हों, वहां अपने काम की सराहना का उल्टा असर होता है। केवल यह नम्र स्वीकार कि हमसे जो संभव है निष्ठा से किया, पर अभी बहुत कुछ करने को बाकी है, उसे हम आगे पूरा करना चाहते हैं, फलदायक होता है।

२. दिल्ली के चुनाव में लोक सभा सदस्यों को प्रचार पर लगाना और हर्षवर्धन जैसे नेता के रहते एक नौकरशाह को नेतृत्व सौंपना तानाशाही और आत्मघाती निर्णय था। मोदी ने अपनी सफलता से अंधे होकर दिल्ली में अपनी दुर्गति कराई थी। जरूरत से अधिक ताकत झोंक देना अपने विरोधी के पक्ष में स्वत: यह प्रचार करना है कि वह वह अजेय है और स्थानीय सुयोग्य नेता और काडर की उपेक्षा करना अपनी जड़ें काटने का पर्याय है। मोदी ने दोनों गलतिया कीं।

अब सोचने के अपने इसी तरीके के बल पर मैं जिन नतीजों पर पहुंच रहा हूं वे इस प्रकार हैंः
1. मोदी को आने से रोकने के लिए जो कुछ कहा और किया जाता रहा, उसे ही पिछले पांच सालों में, संसद में, संसद से बाहर विरोधियों द्वारा – वे दलों के हों, दलों से जुड़े हों या दलों की टांग पकड़ कर घिसटने वाले अपनी नजर में बुद्धिजीवी और हमारी नजर में बुद्धिव्यवसायी हों – वही बातें लगातार दुहराई जाती रहीं जिन पर जनता फैसला दे चुकी थी। इसलिए वह पत्थर पर घिसनी करता रहा जिससे उसकी ही विश्वसनीयता घटती रही।

2. ऐन चुनाव के अवसर पर सभी ने सभी की सहमति से यह घोषणा की कि किसी दल में वह व्यक्ति भी, जो मुहावरे में कही गई, मोदी की छाती की चोड़ाई का मजाक उड़ाता रहा हे, उसका सामना होने पर शिफर में बदल जाता है, इसलिए स्वयं यह तय करता है कि यदि सारे शिफर एक हो जाएं तो मोदी को मात दे सकते हैं। राजनीति में शिफरो का शिखर बनना संभव है, गणित और विज्ञान में नहीं। ज्ञान रहते मैं भी मानने को तैयार नहीं।

3. इंदिरा इंडिया हैं यह नारा कांग्रेस के एक चापलूस ने लगाया था, इसे ‘समरस समर सकोच बस पांव न ठिक ठहराय’ वाली नजाकत से प्रसारित करके अर्थवाद में बदला गया.

4. मोदी भारत है, यह नारा किसी भाजपाई ने नहीं दिया, उन्होंने दिया जो मोदी को हटाने के सभी प्रयोगों में विफल रह जाने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे थे कि इस ‘शैतान’ के प्राण तो भारत में बसते हैं, इसे मिटाना है तो भारत को ही बर्वाद करना होगा। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ देश द्रोही न थे, मैं अदालत के फैसले पर रीझ गया था। वे मोदी के टुकड़े करना चाहते थे क्योंकि मोदी ही भारत है। ‘मोदी को हराना हे तो भारत को मिटाना होगा।’

5. क्या आप को नहीं लगता कि मैं चारणों की भूमिका में उतर चुका हूं? लगता है तो ठीक है, पर साथ ही यह बोध होना चाहिए कि मैंने अपनी ओर सो कुछ कहा ही नहीं। मैं आपकी निन्दास्तुति की व्याख्या कर रहा था।

6. में उन लोगों में हूं जो मानते हैं कि ‘मोदी है तो मुमकिन है’ में अतिरंजना है, परंतु प्रयोगों और परिणामों को देखते हुए इसलिए सबसे उपयुक्त है किः
(क) भगीरथ भले गंगा को धरती पर ले आए हों, गटर बन चुकी नदी को गंगा बनाने के प्रयत्न कब से हो रहो थे और उनकी विफलता के कारण यह सहमति बन चुकी थी कि गटर को गंगा बनाना असंभव है। इस निराशा के बीच गंगा को निर्मल और अविरल बनाने वाला क्या अपने युग का भगीरथ नहीं है?
उदाहरण अनेक हैं, हमारा काम उन्हें गिनाकर मोदी की आत्मश्लाघा का विस्तार करके उन्हें मदान्ध बनाना नहीं है, पर मोदी है तो मुमकिन है, नारा अतिरंजित हो कर भी यथार्थ के कितने करीब है।

समय काफी पड़ा है। कई रंग बदलेंगे इन कुछ दिनों में। कई रंग पीछे से कौंधा करेंगे। वे ही जानते हैं कि वे क्या करेंगे, नहीं जानते हम कि हम क्या करेंगे।

Post – 2019-04-05

तुक ताल तो मिलता है पर ऐसे उद्घाटन चुनाव के पहले ही क्यों उजागर होते है? लेखक कौन है?

#कश्मीर_की_सौदेबाज़ी-4

अध्याय 4 – #माईनो_परिवार_और_ISI!!!

Post – 2019-04-04

बुद्धिजीवी की भूमिका (2)

जब हम बुद्धिजीवी शब्द का प्रयोग करते हैं, तब इस बात को अक्सर दरकिनार कर देते हैं कि यह एक कामचलाऊ वर्गीकरण है जिसमें ऐसे सभी अनुशासनों को समेट लिया गया है, जिनमें शारीरिक परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती और जिन पर मोटे तौर पर ब्राह्मणों का एकाधिकार रहा है – साहित्य, दर्शन, धर्मशास्त्र या न्याय विचार, राजविद्या, अर्थशास्त्र, आन्वाक्षिकी, चिकित्सा, मनोविज्ञान, गणित, ज्योतिर्विज्ञान, आदि । इन्हें सामान्यतः वांग्मय अर्थात वाणी में निबंध क्रिया व्यापार कहा जा सकता है। ब्राह्मणों को प्राचीन भारत का बुद्धिजीवी वर्ग कहा जाता जा सकता है।

परंतु यहां एक मुश्किल खड़ी हो जाती है। बुद्धिजीवी वर्ग अंग्रेजी के इंटेलिजेंसिया का हिंदी अनुवाद है। समझने वालों ने पश्चिमी अवधारणाओं को आंख मूंदकर स्वीकार कर लिया है। वे सीधे बुद्धिजीवी वर्ग को नहीं समझते, यह याद करते हैं कि यह किस अंग्रेजी शब्द का अनुवाद है, अंग्रेजी के कोश में उसकी परिभाषा देखते हैं, परिभाषा का हिंदी में अनुवाद करते हैं, और फिर हिंदी के लोगों को बताते हैं कि इसका अर्थ यह है। हमारी आलोचना, हमारा चिंतन, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, पश्चिमी देशों के बराबर आने की आकांक्षा में, उनकी भड़ैती करने का पर्याय बनता चला गया है। हमारा बौद्धिक स्खलन हुआ है, या बौद्धिक उत्कर्ष?

किसी की परछाई बनना अपने को मिटा देने का पर्याय है। पराधीन भारत में एक बुद्धिजीवी भारतीय वर्ग था जो अपनी सीमाओं, असुविधाओं और प्रतिबंधों के कारण पश्चिमी विद्वानों की समकक्षता में नहीं आ पाता था, और उनके प्रभाव से बच नहीं पाता था, परंतु उनकी निष्पत्तियों पर संदेह करता था, विरोध करता था, अपने निजी निष्कर्ष निकालता था, भले उसके विचारों में, तथ्य संकलन में, प्रतिपादन में कुछ अनगढ़ता बनी रह जाय। परंतु वे थे। हमारे समाज में एक बुद्धिजीवी वर्ग बचा रह गया था।

स्वतंत्रता के बाद हमने घुटने टेक दिए। पश्चिम में बुद्धिजीवी वर्ग है, हमारे यहां नहीं है। हमारे यहां पश्चिम की परछाइयां यथार्थ का भ्रम पैदा करती हैं।

अफसोस परछाइयों के पास भी आज इतनी ताकत आ गई है कि उनके बीच में यदि कोई सोचने समझने वाला व्यक्ति चला जाए तो वे उसे रौंद कर रख देंगी।

हमारे बुद्धिजीवियों ने कोई नया सिद्धांत नहीं दिया है, अपनी किसी समस्या का समाधान नहीं किया है। नई समस्याएं खड़ी की हैं, जिसे ही वे अपना योगदान मानते हैं।

जिन लोगों ने एक बुद्धिजीवी की गरिमा के साथ अपने तर्कों, प्रमाणों और निष्कर्षों से पश्चिमी अध्येताओं की वर्चस्ववादी जालसाजी को तार-तार कर के रख दिया, उनको उचित सम्मान देने की जगह, परछाइयों ने उन्हें रौंदकर मिटाने का प्रयास किया और नाकाम रहे। क्यों, आप जानना चाहेंगे?

इसलिए कि वे तथाकथित बुद्धिजीवियों के बीच प्रतिष्ठा पाने के लिए नहीं, बुद्धिजीवी की भूमिका का निर्वाह करते हुए अपने समाज को शिक्षित कर रह रहे थे। परछाइयों से समाज नहीं बनता। सारी कमजोरियों और अनगढ़ताओं के बावजूद, समाज एक जीवंत उपस्थिति होता है। बुद्धिजीवी होने का दावा करने वाले पश्चिमी जगत की परछाइयों ने अनर्गल आलोचनाओं और आक्षेपों से जिसे रौंदना चाहा, उनके पाठकों ने उन्हें शिरोधार्य कर लिया ।

क्या आपने रामविलास शर्मा का नाम सुना है? क्या उन्हें अपने जीवन काल में जितनी यातनाओं के बीच अविचलित अपना काम करना पड़ा उसका कोई अनुमान है?

दुर्भाग्य से हिंदी के इतिहास में दो रामविलास शर्मा पैदा नहीं हुए, परंतु वह अकेला उन सभी विभूतियों की प्रतिमा खड़ी करते हुए, उनके सामने नतमस्तक होता रहा जिन्हें हमारे समाज ने उससे पहले या तो कम समझा था या गलत समझा था। आज के समय में बुद्धिजीवी की भूमिका क्या होती है इसे रामविलास शर्मा से ही जाना जा सकता है।

Post – 2019-04-03

बुद्धिजीवी की भूमिका

किसी भी विषय में हमारी अधिकतम जानकारी भी अनेक दृष्टियों से अधूरी और कुछ मामलों में दूषित होती है। जानकारी का यह अधूरापन अलग अलग व्यक्तियों के मामले में अलग अलग हुआ करता है। हमारे देखने के अलग अलग कोण होते हैं, अलग अलग दूरियां होती हैं। ये दूरियां उस समस्या से हमारे प्रभावित या अप्रभावित होने के अनुपात में होती हैं। देखने और सोचने के कोण हमारी शिक्षा, संस्कार, विश्वास और इतिहास से निर्धारित होते हैं।

इसलिए हम जो कुछ लिखते या कहते हैं वह सत्य नहीं होता, हमारी सर्वोत्तम जानकारी और सद्विश्वास के अनुसार सच होता। यदि हम यह दुराग्रह करें कि हम जिस नतीजे पर पहुंचे हैं, वही सही है और जो इसे नहीं मानता वह गलत है, तो इससे वैचारिक तानाशाही पैदा होती है जो विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का निषेध करती है।

तानाशाही के दो रूप हैं । पहला, शासन द्वारा आरोपित, दूसरा बुद्धिजीवियों के बीच किसी एक विचार दृष्टि के प्रभुत्व के कारण उससे अनमेल विचारदृष्टियों का निषेध। दोनों में समानता यह है कि अपने को अंतिम सत्य का एकाधिकारी मानकर उससे असहमत जनों को दुष्ट मान लिया जाता है।

पुराने समय में दुष्ट के लिए राक्षस, असुर, पिशाच, शैतान शब्दों का प्रयोग किया जाता था। आप इन शब्दों का अर्थ जानते हैं? नहीं जानते। हमारे बुद्धिबली भी नहीं जानते जिनका विचारजगत पर वैसा ही तानाशाही अधिकार रहा है जैसा राज सत्ता में कभी कभी पैदा होने वाले तानाशाहों का होता है।

दोहराना पड़ रहा है। राक्षस का अर्थ होता है रक्षा करने वाला। जिन लोगों ने इसे इतना घृणित शब्द बना दिया, इस दाग के लग जाने के बाद सोचे विचारे बिना सीधे उनका संहार करना एक जरूरी और पवित्र कार्य बन जाए, वे उस चीज को नष्ट करना चाहते थे जिसे वे अपनी जान देकर और दूसरों की जान लेकर भी बनाना चाहते थे जिसे नष्ट करके उनसे शत्रुता करने वाले खुशहाल होना चाहते थे।

यहीं से आरंभ हुई थी कृषि क्रांति। प्रगतिशील, प्रकृति के नियमों को जानते हुए उसे बदलने को नए नए प्रयोग करते हुए अग्रसर होने वाले कृषि-कर्मियों और यथास्थितिवादियों, आज के पर्यावरणवादियों के पूर्वजों के बीच टकराव और एक दूसरे के लिए इतनी घृणा कि एक दूसरे को मिटाने को, उसकी हत्या करने को एक जरूरी और पवित्र कर्म मानते रहेे।

असुर प्रकृति पर निर्भर इन्हीं यथास्थितिवादियों का दूसरा नाम था। वे स्थाई बस्ती बसाकर नहीं रहते थे इसलिए उनका एक नाम अहि भी था। आप में से कुछ लोगों ने धातुपाठ में ‘अहि गतौ’ पढ़ा होगा। रेंगने या कहीं स्थायी निवास बना कर न रहने वाले जीवों के लिए प्रयुक्त यह शब्द कब सरकने वाले जीवों में सांप के लिए, मनुष्यों में पर्वतीय क्षेत्रों के लुटेरे गिरोहों के लिए और आकाश में उड़ने वाले बादलों के लिए रूढ़ हो गया इसका हमें भी पता नहीं है।

परंतु हमें यह पता है कि मानव गरिमा के लिए अकिंचन होते हुए भी, यथास्थितिवादियों का दमन, उत्पीड़न सहते हुए, प्रकृति की बाधाओं को झेलते हुए, अध्यवसाय करते हुए, जागते सोते असुरक्षित रहते हुए, जो कुछ सुलभ हुआ उसी पर जीने मरने और मौज मस्ती करने वालों और विकास में बाधक ही नहीं, इसके लिए कृत संकल्प लोगों के प्रति निर्दय लोगों के प्रति प्रगतिशीलों की घृणा का अपना कारण था परंतु उनसे असहमत यथास्थितिवादियों का एक वैचारिक आधार था।

उस समय में जब राजसत्ता का उदय नहीं हुआ था, विचारधारा का टकराव, और अपनी विचार दृष्टि के प्रसार में बाधक तत्वों का विनाश सामाजिक चेतना का हिस्सा बनाया जा चुका था। इससे हम यह तो कह ही सकते हैं कि विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को केवल राजसत्ता ही सीमित, अनुकूलित, और बाधित नहीं करती है। विचार दृष्टि भिन्नता उससे अधिक निर्मम होती है।

शैतान का मूल सत है। यह पश्चिमी जगत में भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की नासमझी का परिणाम है। इसलिए भारतीय परिप्रेक्ष्य में जहां ‘अहि’ अज्ञानी, विचरणशील और यथास्थितिवादी समुदायों के लिए प्रयोग में आता था, उसके ठीक विपरीत सत्यान्वेषी, वैज्ञानिक सोच रखने वाले के लिए प्रयोग में आया। आपका अमृत लेकर जहर का आदी अमृत को जहर बनाकर सेवन करेगा। पश्चिमी समुदायों ने प्रेरणा तो भारत से ली, परंतु अपने सांस्कृतिक उपापचय के अनुरूप उलटे अर्थ में ग्रहण किया। देव भारत में कृषि क्रांति के जनक थे, पश्चिमी पुराण कथा में आदिम वन संपदा के संरक्षक बन गए। उनके प्राकृत उद्यान में विचरने वाला असुर आदम बन गया और उसकी आंख की पट्टी खोलने वाला वैज्ञानिक सांप बना दिया गया जिसे देखते ही मिटा दिया जाना चाहिए। पुराण कथा का यह विरोध सांस्कृतिक विरोध की धाराओं के रूप में आज तक प्रवाहित है।

बुद्धिजीवी का सबसे पहला कर्तव्य विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना है और इसके कारण ही उसका सबसे बड़ा दायित्व है दूसरों के विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करना।और इसका उपाय है जहां तक संभव है अभियोग, आरोप और भर्त्सना से बचते हुए, आत्मप्रमाणता ग्रंथि से बचते हुए, अपनी असहमति को अपने तर्क और प्रमाण देते हुए प्रतिवाद करना, और जहां ऐसा संभव न हो वहां नम्रता पूर्वक सहमत होना। ऐसा हो नहीं रहा है।

बुद्धिजीवी अपनी भूमिका भूल गया है, क्या इसके बाद भी उसे वुद्धिजीवी कहा जा सकता है? कोई गेरुआ पहन कर, साधुओं की जमात में होने का दम भरे और लंपटता करे उसे साधु कहेंगे या लंपट?
(आगे जारी)