Post – 2019-10-20

जिसे हम आदमी समझे थे
सचमुच आदमी ही था
जहन देकर यकीं ले घर को आया
और क्या होता!

Post – 2019-10-19

प्रूफ देखते हुए
फूलप्रूफ -3

समाज का प्रत्येक व्यक्ति उसका प्रतिनिधि होता है। जिसने उस समाज के केवल एक व्यक्ति को देखा वह अकेले उसके आचरण के माध्यम से ही उस पूरे समाज को देखने को बाध्य होगा। जिस समाज में विरोधी गुणों विचारों और कार्यों वाले लोगों की संख्या अधिक हो वहां तय करना कठिन हो जाता है कि उसका कौन सा तबका उसका सही प्रतिनिधित्व करता है। कोई भी समाज एकपिंडीय नहीं होता। जड़ पदार्थों तक में प्राकृतिक रूप में किसी भी तत्व की प्रधानता हो सकती है परंतु अनेक दूसरे तत्व मिले होते हैं, जिन को अलग करने के बाद उसे शुद्ध रूप में पाया जाता है। इसलिए किसी भी पूरे समाज को उसके किन्हीं तत्वों, या प्रवृत्तियों को आधार बनाकर समग्रतः अच्छा या बुरा सिद्ध करना गलत है।……..

किसी भी समाज को काले या सफेद रंग में रंग कर देखना, उसे फूटी आंख से देखने जैसा है। उसे अच्छा या बुरा कहने की जगह, इस बात पर ध्यान देना अधिक जरूरी है कि वह जो कुछ बना है, किन परिस्थितियों में, किन कारणों से, बना है? उनको सुधरने में कितने प्रयत्न और कितने समय की जरूरत पड़ सकती है? बीमारी दवा से दूर हो सकती है, पर उससे पैदा हुई दुर्बलता दूर होने में समय, सावधानी और संयम तीनों की जरूरत होती है। इनमें से किसी की भी कमी जानलेवा हो सकती है। राजनीतिज्ञों से मुझे इसलिए डर लगता है कि वे, यदि उनका इरादा सही हो तो भी, जल्द से जल्द परिणाम चाहते हैं और इस जल्दबाजी के कारण न्याय के लिए खड़े होने वाले आंदोलनों द्वारा स्वयं जितना अन्याय किया जाता है उसका अनुपात प्रायः अपराधियों द्वारा किए गए समस्त कुकृत्य से अधिक पड़ता है। बीज डालते ही फल की कामना करने वाले अधिक खाद, अधिक पानी देकर बीज को भी सड़ा सकते हैं, परंतु मनचाहा फल नहीं पा सकते। राजनीतिज्ञों की बदहवासी दूर करने के लिए बुद्धिजीवियों की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि वे ही बता सकते हैं कि कितनी खाद, कितना पानी, कितना धैर्य और कितना समय फलागम के लिए जरूरी होता है। राजनीति से जुड़ने वाले बुद्धिजीवियों की दशा राजनीतिज्ञों से भी गर्हित होती है। वे राजनीतिज्ञों के चापलूस बन कर रह जाते हैं, वे अपने क्षेत्र के की मर्यादा में रहकर राजनीतिज्ञों को सही दिशा दिखाने का काम नहीं कर पाते।

इस बात का ध्यान बहुत कम लोग रख पाते हैं कि एक कट्टर मुसलमान, वर्ण की श्रेष्ठता में विश्वास करने वाला ब्राह्मण और एक नस्लवादी गोरे में गहरी समानता होती है फिर भी अपने ही समाज के दूसरे व्यक्तियों की अपेक्षा ये ही एक दूसरे से अधिक नफरत करते हैं। मैं इनमें से किसी को दंड या आतंक से न तो सुधारने का पक्षधर हूं न ही इस तरह किसी को सुधारा जा सकता है।
परंतु इस बोध के अभाव में यदि हम यह न समझ सकें किसके साथ हमें कैसे बर्ताव करना है, तो हम आत्मघाती तो सिद्ध हो सकते हैं, तत्वदर्शी नहीं। 19वीं शताब्दी के इतिहासकार एलफिंस्टन ने राजपूतों और मराठों के बीच अंतर बताते हुए कहा था एक राजपूत योद्धा समर भूमि में उतरने के बाद परिणाम की चिंता नहीं करता, यदि करता है तो कुलकलंक है। एक मराठा परिणाम को छोड़कर किसी बात की चिंता नहीं करता और इसके लिए वह कुछ भी कर सकता है। इस पर अपनी ओर से टिप्पणी करते हुए अब्राहम इराली की टिप्पणी है, राजपूत के लिए युद्ध ही सिद्धि है, मराठे के लिए यह साधन है। राजपूत खेलता था, मराठा जीतने के लिए खेलता था।
….
हमने अपनी बात यहूदियों से इसलिए आरंभ की थी कि भारतीय सन्दर्भ मे, एक हजार साल यातना और अधोगति झेलने के बाद भी, हिंदुओं की भूमिका ठीक वही रही है जो यहूदियों की। ज्ञान, विज्ञान, कर्मठता, उद्योग, व्यापार, जीवनादर्श, सहिष्णुता सभी में अग्रणी रहे। यह मैं अपनी ओर से नहीं कह रहा हूं। यह दो परस्पर उल्टी सोच वाले अग्रणी मुस्लिम नेताओं सर सैयद अहमद और अल्लामा इकबाल का कथन है। आधुनिक शिक्षा आदि के मामले मे हिंदुओं की अग्रता का रोना रोने के बाद सर सैयद कहते है, पूरे राष्ट्र में काम की दक्षता के मामले में कोई भी हिंदुओं के मुकाबले का नहीं है। इसके एक साल बाद उन्होंने इसी को कुछ विस्तार से समझाया था।

उनकी ही स्वीकृति के अनुसार कट्टरता को ढाल बनाने वाले मुसलमानों की उत्पादक क्षमता नगण्य रही है। तलवारबाजी और रंगबाजी के अतिरिक्त उनकी कोई भूमिका नहीं। वे केवल अशांति पैदा कर सकते हैं। उनमें कामकाजी लोग किन्हीं परिस्थितियों में इस्लाम कबूल करने के लिए बाध्य हुए हिन्दू ही रहे हैं।

अल्लामा इकबाल के अनुसार भी हिंदू हर माने में मुसलमानों से आगे है पर उसमें वह एकबद्धता नहीं है जो इस्लाम ने पैदा की। योग्यता के अभाव में एकबद्धता गौरव की चीज है या ग्नानि की इस पर हम कोई टिप्पणी नहीं करना चाहेंगे पर यह पाई पशुओं के झुंड में भी जाती है। इकबाल भी मुसलमानों में मानवसुलभ गुणों की जगह भावुकता, पशुसुलभ गिरोहबद्धता को ही हवा देते रहे।

यदि उक्त कथनों से बात समझ में न आती हो तो इस उदाहरण से समझें कि विभाजन से पहले पूर्वी बंगाल भारत का सबसे समृद्ध प्रदेश माना जाता था। नहरों की सुविधा के बाद पंजाब का भी वही हाल हो गया था। फिर भी बांग्लादेश और पाकिस्तान दोनों की आर्थिक दुर्दशा का कारण यह है कि वहां हिन्दू नहीं रह गया, जो लगभग एक हजार साल तक तरह तरह के जुल्म का शिकार होने के और शिक्षा संस्थाओं की दुर्गति के बाद भी अपने श्रेष्ठ मानवीय गुणों को भी बचाए रहा और योग्यता को भी उसे वहाँ से हटा या निष्क्रिय बना दिया गया। ,,,

यह विचित्र संयोग है कि सभी दृष्टियों से अग्रता और बहुमत के बावजूद हिंदू के साथ भारत में ठीक वैसा ही नजरिया अपनाया जाता रहा जैसा यूरोप में यहूदियों के साथ। हिंदू शब्द, उसके सांस्कृतिक प्रतीक, मूल्य व्यवस्था सभी का उपहास किया जाता रहा। जो अपने खुराफाती होने पर गर्व करते हैं उनकी ऐसी आदतों, विचारों और विश्वासों का पोषण किया गया जिससे उनका भी अहित होना है, और होता रहा है, और दोष उल्टे हिंदू समाज को दिया जाता रहा है।

Post – 2019-10-18

प्रूफ देखते हुए
फूलप्रूफ-2

धर्म कोई भी हो, परलोक के किसी रूप से प्रेरणा ग्रहण करता हो, वह इस लोक में सुख, शांति और विश्वास से जीने के रास्ते में कई तरह की रुकावटें पैदा करता है। समाज की बागडोर बौद्धिक दृष्टि से कुंद, नैतिक दृष्टि से संदेहास्पद, सामाजिक दृष्टि से गैर जिम्मेदार, और देश दुनिया से बेपरवाह पंडों, महंतों, पुरोहितों, मुल्लाओं, पादरियों के हाथ में सौंप दी जाती है, जो सबसे चिंताजनक बात है। मुहावरा मुझे याद नहीं, वाक्य दारा का है, और भाव भाव यह है जहां मुल्ला मुल्ला की चलती है वहाँ इंसान का बसर नहीं ।
यह बात केवल मुल्लों के विषय में सही नहीं है अपने धार्मिक समुदाय पर कब्जा जमाने वाले या जमाने का प्रयत्न करने वाले ऊपर के सभी लोगों के विषय में सही है।

ये समझ की जगह उन्माद पैदा करते हैंं। अपने ही समाज को बांध कर रखना चाहते हैं।

ये दूसरों की कमाई पर पलने वाले घोर आत्मकेंद्रित प्राणी होते हैं जो अपने हित के लिए, अपने ही समाज को पीछे ले जाने के अतिरिक्त कोई काम नहीं करते और अपनी धाक बनाए रखने के लिए उसे आफत में झोंक देते हैं।
इसके बाद भी हमारी सामाजिक पहचान धर्म, पंथ, जाति से इस तरह जुड़ी हुई है कि इन्हें नकारने के बाद भी हम इनसे मुक्त नहीं हो पाते।

हम केवल यह देख सकते हैं कि किसकी पकड़ ढीली है, कौन मुक्त होने की अधिक छूट देता है और इस दृष्टि से संगठित धर्म, एकेश्वरवादी धर्म अपने अनुयायियों को धार्मिक कर्मकांड से बांधकर, बहुदेववादी धर्मों की अपेक्षा अधिक से अधिक गुलाम बनाने का प्रयत्न करते हैं। इसलिए जहां जहाँ, जितने समय तक, इनका जितना अधिक प्रभाव रहा है समाज उतना ही उद्विग्न, बर्बर और पतनोन्मुख रहा है, और इनसे मुक्त होने, या इनका शिकंजा ढीला पड़ने के अनुपात में ही कोई देश या समाज अधिक मानवीय, अधिक समावेशी, अधिक प्रबुद्ध और महत्वाकांक्षी बना है।

यह मात्र इत्तफाक नहीं है कि विश्व की महान सभ्यताएं एकेश्वरवादियों से पहले रही है और इनकी जकड़ से मुक्त होने के बाद ही उन में पुनर्जागरण आया है।

यह दुष्प्रचार कि एकेश्वरवाद अधिक वैज्ञानिक है, बहुदेववाद पिछड़ी मानसिकता की देन है, सर्वेश्वरवाद आदिम चेतना की उपज है़, एकेश्वरवादी सोच का परिणाम जो स्वयं बहुदेववाद का समर्थन करता है।

यह बात चौंकाने वाली लगेगी, परंतु यदि तुम्हारा अल्लाह /गॉड/ यह्व अपने कबीले के लिए ही है, अपनी धर्म सीमा में ही रहता है, तो तुम्हारे अल्लाह के अलावा दूसरे अल्लाह तो तुम्हारी संकीर्णता से ही पैदा हो गए, दुनिया में अपनी अपनी अपनी भाषा के अपने अपने इलाके में रहने वाले बहुत सारे अल्ल्ह और ईश्वर इसी तर्क से पैदा हो जाएंगे।

सैद्धांतिक रूप में सभी एकेश्वरवादी धर्म इतने संकीर्ण हैं, कि अपने अल्लाह के नाम पर कबीले का सरदार तो पैदा कर सकते हैं, समूचे विश्व का, सभी प्राणियों का, हित चाहने वाले परमेश्वर की कल्पना नहीं कर सकते हैं। यह बहुदेववादियों में ही संभव है; तथाकथित जाहिलिया में भी था।

परम शक्ति के विषय में अपने ऊहापोह में वे ‘होते हुए भी न होने जैसे शून्यवत ब्रह्म’ की कल्पना कर सकते हैं, जिसे गॉड पार्टिकल के रूप में पहचानने का भौतिक विज्ञानियों ने आज दावा किया है।

अधिक विवेकसम्मत कौन है यह फैसला हम नहीं करना चाहेंगे। परंतु इसकी वैज्ञानिकता हमारे लिए इसमें नहीं है कि आज की वैज्ञानिक खोज वैदिक अवधारणा से मेल खाती है, बल्कि इसमें है कि किसी ने परम सत्ता के किसी रूप को गढ़कर दूसरों पर लादी की तरह लाद नहीं दिया; उन्हें प्राण का भय दिखाकर उसे ढोने को मजबूर नहीं किया, अपितु संशय का दरवाजा स्वयं खुला रहने दिया:
को अत हा वेद,क इह प्रदेचत, क्त आजाता, कुत इदं विसृष्टिः
अर्वाक्वा देवा अस्य विसर्जनेन अथा को वेद यत् आ्रवभूव।।
इदं विसृष्टिः यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्य अद्यक्षः परमे व्योमन् सो अंग वेद यदि वा न वेद।।ऋ.10.129.6,7
(अनुवाद आप इंटरनेट से तलाश कर सकते हैं)

जहां तक सर्वेश्वरवाद का सवाल है, पर्यावरण की चिंता, समस्त प्राणियों-पादपों को बचाने और समस्त सृष्टि की चिंता, हमारी आज की सबसे बड़ी चिंता है, आर यही सर्वेश्वरवाद का केंद्रीय सरोकार रहा है, इसलिए उसका उपहास नहीं किया जा सकता।

जो सबसे हास्यास्पद है वह है एक सर्वोपरि सत्ता, और उसके प्रतिस्पर्धी शैतान, अल्लाह के नीचे फरिश्तों की फौज, फरिश्तों में भी ऐसे जो अल्लाह को भी कुछ न समझें, अलग से जिन्नों का अस्तित्व और सब कुछ इस अल्लाह को मानने वालों तक सीमित जो उनके कबीले की जबान बोलता है, और अपराध के सभी रूपों का समर्थन करता है, बशर्ते यह उसे सजदा करने वाले, उसकी शान में करें, पर यही काम तो शैतान करता है।

शैतान से अल्लाह को बचाना, और शैतानी से से इंसानियत को बचाना मुसलमानों का पहला दायित्व होना चाहिए।

अल्लाह की अनन्यता में विश्वास, पैगंबर की पैगंबरी में विश्वास और फैसले के दिन और उसके दंड-पुरस्कार – दोजख और जन्नत में विश्वास ये तीन सिद्धांत हैं जिनमें से कोई मुसलमान किसी को नकार नहीं सकता। ट्रिनिटी यहां भी है।
अल्लाह की इच्छा के बिना कुछ हो ही नहीं सकता। अल्लाह की मर्जी के बिना न शैतान हो सकता है, न कुछ बिगाड़ सकता है। इसलिए मानना होगा कि वह भी अल्लाह का ही एक दूसरा रूप है। दोनो रूप कुरान में हैं। स्वस्थ या प्रसन्न अल्ला रहीम और करीम होता है, सबकी सुनता है, दुआएँ देता है, बीमार या कुपित अल्ला शैतान की भूमिका में आ जाता है, धमकियां देता, बर्वाद करता, मनमानी करता और किसी की नहीं सुनता।

स्वस्थ और अच्छे बुरे की समझ रखने वाला रहमदिल पैगंबर पहले के साथ होता है; आपा खोने वाला, सताने मे मजा लेने वाले बीमार पैगंबर दूसरे के चंगुल में आ जाता है।

मुसलमानों को यह सोचना होगा कि वे अपने समाज को स्वस्थ बनाना चाहते हैं आगे ले जाना चाहते हैं या बीमार बनाना चाहते हैं और इसी के अनुसार पैगंबर का, अपने अल्लाह और कुरान की अपनी आयतों का चुनाव करना होगा।

ब्रह्मांड की खोज की जा चुकी है, स्वर्ग नरक नहीं मिले। इसी धरती पर स्वर्ग बनाने या इसे नरक बनाने के बीच भी चुनाव करना होगा, परंतु यह स्वर्ग ऐसा नहीं हो सकता जिसमें इंसान बागड़ा बकरे की भूमिका में अपने जीवन की सार्थकता माने।

यह काम कोई मुल्ला मौलवी नहीं कर सकता जिसकी दिलचस्पी समाज को बीमार बनाए रखने मे होती है। यह काम मुस्लिम बुद्धिजीवी कर सकते हैं, कोई दूसरा बुुद्धिजीवी भी नहीं।

परंतु ईश्वर किसी का हो, विज्ञान ने और कुछ किया हो या नहीं, उन सभी अंधेरे कोनों को रौशन कर दिया है जहां देवता और ईश्वर छिपे रहते थे, इसलिए किसका ईश्वर सच्चा ईश्वर है, इस बहस में आज पड़ना नासमझी के सिवा कुछ नहीं है।

Post – 2019-10-18

भारतीय मुसलमान का प्रूफ देखने के बाद पोस्ट लिखने का समय नहीं रह, गलतिया, दुहराव आदि बने रह जाते हैं, अतः तब तक के लिए कालम बंद।

Post – 2019-10-17

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (13)
क्या मिला खाक छानने के बाद

विलियम जोंस को यह जानते हुए कि उन्हें समस्या की पूरी समझ नहीं है, कुछ भी सुझाने की जगह, साहस पूर्वक समस्या के सभी पहलुओं को सामने रखते हुए उनके समाधान के लिए एशियाटिक सोसाइटी से जुड़ने वाले सभी बुद्धिजीवियों को इसके समाधान के लिए आमंत्रित करना चाहिए था।

वह जो समझते थे वह सही था। जिसे मानते और मनवाना चाहते थे, वह गलत था। यह सही था कि यूरोप के लोग भारतीयों की औलाद न थे। यह भी सही था कि यूरोप पर भारत का लंबे समय तक राज्य नहीं था।

अपने लंबे अनुसंधान में उन्होंने पाया कि यूरोप की लातिन और ग्रीक आदि जातियों का उस काल्पनिक ईरान में कभी निवास नहीं रहा, इसलिए उन्हें मध्य देश ईरान से भी संस्कृत-भाषियों का ही प्रव्रजन कराना पड़ा। यह सोच भी उतनी ही गलत थी। उनकी सोसायटी से जुड़ने वाले अनेक लोग थे जो उनकी तुलना मे बहुत लंबे समय से भारत में थे, पद जो भी रहा हो प्रतिभा में कम न थे। यदि जोंस ने इसके समाधान के बचन के साथ उनको इस दिशा में प्रेरित करते हुए उनसे भी विचार विमर्श किया होता तो इसका अधिक सम्मानजनक हल निकल आया होता।

हम पहले यह समझें कि वे और उनसे पहले के वे यूरोपीय विद्वान जो यह समझ कर चकित थे कि संस्कृत का यूरोप की मानक भाषाओं से साथ समानता है, वे लगभग डेढ़ सौ साल से इसके ऊहापोह में लगे थे।

यह बोध रोबेर्तो द नोबिली ((1577 – 16 January 1656) was an Italian Jesuit missionary to Southern India. He used a novel method of adaptation (accommodation) to preach Christianity, adopting many local customs of India which were, in his view, not contrary to Christianity.) के साथ ही, अर्थात् सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ में पैदा हो गया था और उसने इसका समाधान भी तलाश लिया था। समाधान वह भी गलत था, पर उसे मानने से उसके ईसाइयत के प्रसार के उद्देश्य अवश्य पूरे होते थे ।

वह यदि ईसाइयों के बीच सम्मानजनक स्थान पा सका होता तो आज पूरा भारत वर्ष ईसाई बन चुका होता। उसका सही मूल्यांकन आज तक नहीं हुआ। मानने को उसने भी यही माना कि हिंदू स्वयं मानते हैं कि उनके वेद लुप्त हो गए थे। वे समुद्र पार से जुटाए गए क्या उनका उद्धार किया गया। यह मान्यता उसमें यह विश्वास पैदा करने के लिए पर्याप्त थी कि वेद कहीं समुद्र पार से भारत में लाए गए हैं । भाषा की समस्या उसके लिए नहीं थी। उसने इसी विश्वास का उपयोग करते हुए, उनकी भावना का सम्मान करते हुए, उसका लाभ उठाते हुए, उनके बीच जगह बनाने की कोशिश की।

मुझे लगता है वह पाखंडी नहीं था, उसे सचमुच यह विश्वास था कि वेद ही नहीं ब्राह्मण भी यूरोप से आए हुए हो सकते हैं। उसको बाइबिल के बहुत से उपदेश भारतीय चिंता धारा के अनुरूप प्रतीत हुए। उसने बाइबल के ऐसे ही अंशों को जुटाकर संस्कृत में उनका अनुवाद किया। हिंदुओं को यह समझाया कि तुम्हारे चार वेद तो पाताल लोक से आ गए थे, परंतु एक वेद वही छूट गया था। वह पांचवा वेद लेकर मैं आया हूँ।

यहां जिस सच्चाई की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ वह यह कि उसे लगा वेद और पुराण में आस्था रखने वाले ब्राह्मण भी उसी पाताल देश से आए हो सकते हैं जिससे उनके वेदों का उद्धार हुआ था। यह समुद्र पार का पश्चिम ही था। इसके साथ एक मामूली चालाकी भी जुड़ी हुई थी कि यदि ईसाइयत का प्रचार उसे भारतीय मनोभावनाओं के अनुरूप ढालते हुए किया जाए तो भारतीय समाज में इसे आसानी से स्वीकार्य बनाया जा सकता है।

हम यहां जिस समस्या का समाधान करना चाहते हैं वह इस रूप में नोबिली के सामने थी ही नहीं, इसलिए काले लोगों की भाषा पश्चिम में कैसे फैली यह समस्या उसके सामने थी ही नहीं।

लगता है उसे सचमुच विश्वास था कि वेदों की, वेदों की भाषा की. और वेदों काे अपनी अनन्य संपदा समझने वालों की भी मूल भूमि यूरोप ही थी, और प्राचीन काल में हमारा आचार ब्राह्मणों जैसा रहा होगा, इसके बाद भी वह ईसाइयत को सर्वोपरि मानता और उसका प्रचार करना चाहता था और इसके लिए हिंदू जीवन मूल्यों को आदर्श जीवन मूल्य मानते हुए अपनाने का भी समर्थन कर रहा था और स्वयं अपने जीवन से इसका उदाहरण भी पेश कर रहा था। इसलिए गोरे का काला होना या काले का गोरा होना उसकी समस्या नहीं थी। परंतु ईसाई उसकी प्रचार पद्धति को अपना नहीं सके और कट्टर ईसाई होने के प्रयास में अपने तईं इस बात के कायल होते गए की प्रव्रजन तो भारत से ही हुआ है भारत के लोग ही यूरोप में थे। और हम उन्हें की संतान हैं उन्होंने भारत पर बहुत लंबे समय तक शासन किया होगा जो पश्चिमी नवोदित राष्ट्र भावना के विपरीत था। इसलिए उनकी चेतना में काले ब्राह्मणों की औलाद होने या उनके द्वारा लंबे समय तक शासित होने भावना तेज होती गई।

इस समस्या से जूझते, इसका समाधान करने के प्रयत्न में रंगभूमि में उतरने वाले और संस्कृत की महिमा को स्वीकार करते हुए भी इसे किसी अन्य देश के भीतर से आया हुआ सिद्ध करने का उनका प्रयत्न सफल न हुआ। यह मैं नहीं करता कहता हूँ। इसे उनके सभी यूरोपीय विद्वानों ने मानने से इनकार कर दिया। वे किसी अन्य देश की खोज में लगातार व्यस्त रहे कि अंतर्विरोध कम से कम दिखाई दे।

ईरान के साथ उन्होंने भौगोलिक केंद्रीयता का तर्क पेश किया था, उसके उल्टे परिणाम सामने आए। पडोसी होने के नाते अरबी और उनकी परिभाषा की तातारी को संस्कृत से निकटता रखनी चाहिए थी। यहाँ परिणाम उल्टे निकले। ईरान में लैटिन और ग्रीक जनों की उपस्थिति या संपर्क का कोई प्रमाण नहीं मिला। इसलिए उन्हें यह मानना पड़ा कि ब्राह्मण जो संस्कृत बोलते थे ईरान से पूरब की ओर भारत पहुंचे और पश्चिम की ओर इटली आदि में । प्रकारांतर से यह मानना पड़ा कि यूरोप की इन भाषाओं का प्रसार संस्कृत भाषी ब्राहमणों द्वारा किया गया है। ईरान में वह ब्राह्मणों की उपस्थिति का कोई प्रमाण तलाश कर सके। परिणाम यह संस्कृत का प्रचार करने वाले यह लोग भारत से ही वहाँ पहुंचे हो सकते हैं।
चले जहां से वही आखिरी मुकाम भी है ।
परंतु इसके बाद भी यूरोप में यह प्रचारित करके कि संस्कृत भारत की नहीं कहीं अन्यत्र की भाषा रही है काले लोगों की संतान होने की ग्लानि से बचाकर एक नया विश्वास पैदा कर दिया।

Post – 2019-10-16

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (12)
विलियम जोंस की व्यग्रता

मेरा इरादा विलियम जोंस की आलोचना करने का नहीं है, उनकी मनोदशा को समझने और उनके विचारों को यथासाध्य निःसंगता से प्रस्तुत करने का है। हम उस घबराहट को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं, जो उनके ऊटपटांग बयानों से प्रकट होती है। पिछली पोस्ट के अंतिम उद्धरण की इस पंक्ति पर ध्यान दें Persia seems likely to have sent forth its colonies to all the kingdoms of Asia । इतिहास का इतना बड़ा निर्णय और इसका आधार ‘ऐसा लगता है’ – अंधे को अंधेरे में बहुत दूर की सूझी। इतनी लंबी छानबीन के बाद एक भी प्रमाण नहीं। केवल यह कि यदि किसी क्षेत्र से ये सभी भाषाभाषी समुदाय निकल कर अपने वर्तमान क्षेत्रों में पहुँचे होंगे तो लगता है यह ईरान ही रहा होगा।

मगर क्यों?

क्योंकि यह उन सभी भाषाक्षेत्रों के केंद्र में है। इसी से वे सभी भाषाएँ जातियाँ निकली होंगी जिनमें संस्कृत से निकटता पाई जाती है और इसलिए संस्कृत ईरान में बोली जाती रही होगी। जिस दुखती रग को उन्होंने जाहिर नहीं होने दिया वह यह था, कि यहाँ के लोगों की चमड़ी का रंग ऐसा है जो काला नहीं कहा जा सकता, इसलिए गोरी जातियां भी इससे निकली हो सकती हैं।

परंतु यह भौगोलिक सत्य तो उन्हें इंग्लैंड से रवाना होने से पहले से विदित था। इसकी घोषणा उन्हें पहले ही व्याख्यान में कर देनी चाहिए थी। इसमें उन्होंने इतना समय क्यों लगाया?

अपने सर्वेक्षण के पहले और एशियाटिक सोसाइटी के तीसरे व्याख्यान में उन्होंने ग्रीक लातिन आदि को संस्कृत से सभी दृष्टियों से हीनतर मानते हुए भी संस्कृत की समकक्षता में लाने के लिए और संस्कृत का मूल देश भारत से बाहर कहीं होने और यह जानते हुए कि कोई देश ऐसा तो मिलेगा नहीं, जहां संस्कृत से भी पुरानी भाषा मिल जाए, यह प्रतिपादित किया कि वह भाषा विलुप्त हो चुकी होगी। उसका कोई अवशेष तो लक्ष्य देश में,,और इस लंबी यात्रा के बाद, ईरान में बचा होना ही चाहिए था।

निराश न होइए, विलियम जोंस उसे वहां तलाश तो नहीं कर पाए परंतु इसकी संभावना के लिए एक दलील अवश्य तलाश कर ली। दलील यह थी कि समस्या केवल यूरोप की भाषाओं की नहीं है, वह कोई ऐसी भाषा होनी चाहिए जिससे अरबी, तातारी भाषाएं भी निकली हो। यह संस्कृत से तो नहीं निकल सकती। अपनी खोजबीन में उन्होंने यही सिद्ध किया था कि न तो अरबी का संबंध संस्कृत से है न ही तातारी भाषाओं का, और ईरान की छानबीन करते हुए उन्होंने तुक्के जोड़े कि अरब और तातारी ईरान से ही अपने वर्तमान क्षेत्रों में पहुँचे होंगे। जिस भाषा से भारोपीय मानी जाने वाली भाषाओं के साथ अरबी और तुर्की आदि भाषाएं पैदा हों वह तो संस्कृत से पुरानी रही ही होगी:
The three races whom we have already mentioned (and more than three we have not yet found) migrated from Iran.

बड़ा सीधा वाक्य है, परंतु ऐसे वाक्यों के कितने अर्थ किए जा सकते हैं, इसी पर वकालत का पेशा चलता है। भाषा की बारीकियों को समझने वाले, और अपनी जरूरत के अनुसार भाषा के मर्म को नष्ट करने वाले पेशे का नाम है वकालत, और इस पेशे की रक्षा के लिए बनी संस्था का नाम है न्याय प्रणाली।

भारतीय प्रयोग में मंगली का अर्थ होता है अमंगलकारी। न्याय-प्रणाली का सही नाम अन्याय-प्रणाली, और इसे न्याय के लिए नहीं अन्यायियों की रक्षा के लिए बनाया गया है। इसे मैंने सत्य की रक्षा के कई मुकदमें हारने के बाद समझा।

गांधी इसीलिए इसे जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए जी-जान से तत्पर थे। अच्छा वकील गलत को सही सिद्ध करने के लिए ही इतनी जोरदार दलील दे सकता है, और अच्छा न्यायाधीश सत्य और न्याय की रक्षा का दावा करते हुए कितना अन्याय कर सकता है इसे विलियम जोंस के व्याख्यानों को पढने से पहले समझ नहीं सकता था।

अपराधी कंपनी प्रशासन, अपराधी यूरोपीय श्रेष्ठता बोध, अपराधी रंगभेदी प्रणाली की जमात में शामिल होने के कारण विलियम जोंस अपराध की जड़ों को समझ नहीं पा रहे थे क्योंकि किसी भी व्यक्ति या समुदाय या समाज के लिए अपने अस्तित्व की रक्षा रक्षा पहली जरूरत होती है, न्याय, सत्य और आदर्श की रक्षा इसके बाद आती है । शरीरं आद्यं खलु धर्म साधनं।

यदि कोई ऐसी भाषा हो जिससे वे भाषाएं भी निकली हों जिनका आपस में कोई संबंध नहीं, तो वह संस्कृत तो नहीं हो सकती । जरूर कोई ऐसी भाषा थी जिससे अरबी और तातारी जैसी एक दूसरे से दूर फिर भी शब्दावली आदि के मामले में संस्कृत से आभासिक समानताएं रखने वाली भाषाओं को उससे व्युत्पन्न होना चाहि हो, ‘ शब्एदावली के । यदि आप जानना चाहें कि ऐसा उन्होंने क्यों किया तो इसका जवाब

मैं यह नहीं समझ पाता कि विलियम जॉन्स कितना अपनी समझ से काम ले रहे थे और कितना ईसाई या कहें सामी पुराण कथाओं से प्रेरणा ग्रहण करते हुए एक मूल भाषा के करीब पहुंचने की कोशिश कर रहे थे जिसे कभी आदम बोलते रहे होंगे, यह निश्चित करना कठिन है, परंतु यह समझना आसान है कि ऐसा धर्मांध व्यक्ति वैज्ञानिक विमर्श के लिए भरोसे का नहीं हो सकता।

चलिए आदम के निकट पहुंचने वाली उस पूर्ण भाषा पूर्ण व्यवस्था वाले समाज को कोई नहीं मानेगा, इसके बावजूद यह तो मानना ही होगा कि वह अपनी चेतना के स्तर पर वर्तमान से और विश्वास के स्तर पर सामी पुराण से जुड़े हुए थे, और अपने सिद्धांत निरूपण में वह ठीक उसी का विरोध कर रहे थे जिसे जानते थे कि वह सच है।

उन्होंने कहा था संस्कृत ग्रीक और लातिन आदि की जननी नहीें है और इतने दिन के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संस्कृत बोलने वाले केवल भारत की ओर रवाना नहीं हुए वे पश्चिम की ओर भी गए और उसी संस्कृत से भारत की आधुनिक संस्कृत पैुदा जिए पूर्व रूप पैदा हुआ और उसी से ईरान में वहां की भाषाएँ पैदा हुईं:
We may hold this proposition firmly established, that Iran or Persia in its largest sense was the true centre of population, of knowledge, of languages and of arts, which instead of travelling westward only as it has fancifully been supposed, or eastward, as might be, with equal reason have been asserted, were expanded in all directions, in all the regions of the world, in which the Hindu race had settled under various denominations.
यह तो रही लातिन और ग्रीक की बात जिनका संस्कृत से सीधा जुड़ाव उन्हें पहली नजर में दिखाई दिया था, परंतु उन भाषाओं के विषय में क्या कहा जाएगा जिनमें संस्कृत की दिखाई देती है. अनुवाद नहीं करूंगा इसके कारण अन्याय होने की संभावना है, अंग्रेजी छीड़ तकच मूल यह है:
…as from their common country ; and thus Saxon chronicle , I presume from good authority, brings the first inhabitants of Britain from Armenia; while a late, very learned, writer concludes, after all his laborious researches that the Goths or Scythians came from Persia. And another contends with great force that both the Irish and Great Britons proceeded severally from the borders of the Caspian; a coincidence of conclusions, from different persons wholly unconnected, which could scarce have happened, if they were not grounded on solid principles.

और यह था विलियम जोंस का ठोस सिद्धांत जिस पर ऐतिहासिक और तुलनात्मक भाषा विज्ञान की नींव रखी गई।

Post – 2019-10-15

नहीं यह सच नहीं है सच से कुछ ऊपर, अलग सा है
झुकाया सर तो जाता सच को समझाया नहीं जाता।
कहोगे जिसको कहना चाहता था कह नहीं पाया
कहूंगा राज नादानों को समझाया नहीं जाता।
सुनो कुछ रोज पहले मैं तुम्हें भी चाँद कहता था
पुरानी गल्तियों पर मुड़ के शरमाया नहीं जाता।
सुना भगवान ने भी तुक में बढ़ कर तीर मारे हैं
पता है उसका कद पर उसको बतलाया नहीं जाता।

Post – 2019-10-15

सुनो हम वह नहीं कहते जिसे तुमने सुना होगा
मगर हम जो भी कहते हैं उसे कोई सुनेगा क्या।

Post – 2019-10-15

सितमगर को सितमगर मत कहो
वह रूठ जाएगा
कहो क्या नर्म दिल है और
कहकर खुश रहो प्यारे ।।

Post – 2019-10-14

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (11)
ब्राह्मणों का स्वर्ग से पलायन

विलियम जोंस ने ईरान की महिमा जिस अंधश्रद्धा से गाई है उसका एक नमूना हम पहले देख आए हैं कि यह उनकी नजर में पूरी दुनिया में सबसे विख्यात और सबसे सुंदर देश -The most celebrated and most beautiful countries in the world- था। अफलातून ने जिस कल्पनिक देश या द्वीप अटलांटिस की उद्भावना की थी और जिसे लेकर यूरोपीय भाषाओं में बहुत सारा साहित्य रचा गया है, जिसे इतिहास का सच मानने वाले यह तय करने में परेशान रहे हैं कि यदि यह था तो कहां था, उसकी पहचान भी विलियम जोंस ने ईरान के रूप में कर ली:thus we may look at Iran as the noblest land (for so the Greeks and Arabs would have called it) or at least the noblest peninsula on this habitable globe….if the account, indeed, of Atlantes, be not purely an Egyptian, or Utopian, fable, I should be more inclined to place them in Iran, than in any region with which I am acquainted.

उन्होंने अरब और मध्येशिया की गहराई से छानबीन करते हुए यह नतीजा निकाला था कि संस्कृत भाषा बोलने वाले इन दोनों में से किसी में नहीं रहते थे लेकिन यह आधा सच है। पूरा सच है अरबी भाषा बोलने वाले न तो पहले अरब में रहते थे, न ही तातारी बोलने वाले मद्धेशिया में रहते थे। हिंदू स्वयं हिंदुस्तान में नहीं रहते थे। ये सभी उसी कल्पना के देश या यूटोपिया में रहा करते थे।

इस देश पर कभी हिंदुओं का राज हुआ करता था, परंतु कोई सवाल कर सकता है कियदि उनका राज था तो तख्त-ए-जमशेद के नाम से विख्यात स्थान के मंदिर या महल के भग्नावशेषों से देवनागरी में या कम से कम एलीफैंटा की लिखावट में कोई अभिलेख ही मिलना चाहिए। हमें जोंस के अज्ञान पर हंसी आ सकती है, परंतु वह अपने समय की सर्वोत्तम जानकारी के आधार पर यह विचार व्यक्त कर रहे थे, और इसका समाधान यह था कि यह मंदिर हिंदू सम्राटों के शासनकाल के बाद बना था। इस विषय में उनके पास प्रमाण थे। तख्त-ए-जमशेद कैयूमर (कै उमर?) के शासनकाल में बनाया गया था: If a nation of the Hindus ever possessed and governed the country of Iran, we should find on the very ancient ruins of temple and palace, now called the throne of jamshid, some inscriptions in devanagari, or at least in the characters on the stones of elephanta, …..we shall soon have abundant evidence to prove that the temple was posterior to the reign of Hindu monarchs, … Takht-I Jamshid was erected after the reign of king Cayumers.
थी
ईरान में बहुत पहले हिंदुओं की उपस्थिति थी, वहीं उनके पौराणिक पुरुष शासन करते थे, वही मनु वास्तविक या काल्पनिक स्वर्ग से उतरे थे, वहीं उन्होंने समाज को चार वर्णों में विभाजित किया था। वहीं वह दार्शनिक विचार पैदा हुए थे धर्म और आचार का श्रेष्ठतम प्रतिपादन हुआ जिसका विकृत रूप ब्राह्मणों की मनुस्मृति में मिलता है, और वही वे कथाएं रची गई थी जो हिंदुओं की पुस्तकों में मिलती हैं। इसके बारे में घालमेल ऐसा का एक नमूना वह शेख सादी के बोस्ताँ अंत में दी गई एक कहानी रूप में पेश करते हैं।

यह कहानी सोमनाथ के महादेव लिंग के विषय में है। इसमें शेख सादी ने हिंदुओं के धर्म को गबरों का धर्म मान लिया है और ब्राह्मणों को मोग कहा है। यह तो गनीमत है क्योंकि मसनवी में इस आशय का एक टुकड़ा आया है, परंतु वह उन्हें जेन्द और पाजेन्द ( पहलवी में जेंद की टीका) पढ़ते हुए भी दिखाते हैं। विलियम जोंस को यह तो नहीं मालूम कि उनका यह अज्ञान असावधानी के कारण है या शरारतन, पर इस विषय में कि वह उतने ही आश्वस्त हैं कि जेंद के धार्मिक सिद्धांत वेद से अलग हैं इस विषय में जिन ब्राह्मणों से उनका आए दिन वार्तालाप होता रहता था उनका धर्म एक समय में ईरान में
कैयूमर के सत्ता में आने से पहले प्रचलित था: In a story of Sadi….concerning the idol of Somnath or Mahadev he confounds the religion of the Hindus with that of the Gabrs calling the Brahmanas as Moghs( (which may be justified by a passage of the Masnavi) but even readers of Zend and Pazend; now whether this confusion proceeded from real or pretended ignorance, I can not decide, but am as firmly convinced that the doctrines of the Zend were distinct from those of the Veda, as I am that the religion of the Brahmanas, with whom we converse every day, prevailed in Persia before the accession of Cayumers….

उनके पास यह मानने के बहुत ठोस कारण थे कि असीरियनों से पहले ईरान में एक शक्तिशाली राजवंश लंबे समय तक राज्य करता रहा था solid reason to suppose that a powerful monarchy had been established in Iran, for ages before the Assyrian dynasty.

भारत और ईरान की प्राचीनतम काल से एक ही प्रेरणाभूमि का एक प्रमाण तो वह अध्यात्म चिंतन है जो भारत और फारस के अनेकानेक मतों में पाया जाता है और जो यूनान में पहुंचा था। यह आज भी सुशिक्षित मुसलमानों में प्रचलित है जो इसे बिना खुलेआम इसका दावा करते हैं । इन्हें या तो यूनानी में संत के लिए प्रयुक्त शब्द के आधार पर अथवा ऊनी लबादे के कारण जिसे वे ईरान के कुछ प्रांतों में पहना करते थे, सूफी कहा जाता है। वेदांती चिंतकों का भी दृष्टिकोण यही है और उसके उत्कृष्ट गीतकारों में भी यही पाया जाता है। और यह चिंतन पद्धति बहुत प्राचीन काल से दोनों राष्ट्रों में पाई जाती है। इसे भी इन दोनों राष्ट्रों के बीच अनंत काल से चली आ रही एकात्मता का प्रमाण माना जा सकता है:
…that metaphysical theology, which has been professed immemorially by a numerous sects of Persians and Hindus was carried in part into Greece, and prevailed even now among the learned Musselmans who sometimes avow it without reserve, the modern philosophers of this persuasion are called Sufis, either from the Greek word for a sage, or from the woollen mantle which they used to wear in some provinces of Persia…… such is the system of the Vedanti philosophers and best lyric poets of India; and as it was a system of the highest antiquity in both nations, it may be added to the other proofs of an immemorial affinity between the them.

यदि प्राचीन निर्मितियों की बात की जाए तो पारसी स्थापत्य और वास्तुकृतियों के विषय में अपने विचार वह पहले व्यक्त कर आए हैं। ‘आप अब एलीफेंटा, जो कि जाहिर है हिंदू है, और पर्सपोलिस जो कि मात्र सेबियन हैं को देखकर उस दशा में चकित नहीं होंगे जब आप मेरी तरह यह मानते हों कि तख्ते जमशेद कैयूमर के बाद उस समय बना जब ब्राह्मण ईरान से रवाना हो गए और जब उनके पेचीदा देव समाज का स्थान ग्रहों और अग्नि की उपासना की सीधी-सादी उपासना ने ले लिया था। Of the ancient monuments of Persian sculpture and architecture we have already made such observations…nor will you be surprised at the diversity between figures at Elephanta, which are manifestly Hindu, and those of Persepolis which are merely Sabian, if you concur with me in believing, that the Takhti Jemshid wea erected after the time of Cayumers, when the Brahmans had migrated from Iran, and when their intricate mythology had been superseded by the simpler adoration of the planets and of fire.

पुराने पारसियों के विज्ञान और कला के विषय में विलियम जॉन्स को अपनी ओर से कुछ नहीं कहना था और इसके विषय में वहाँ पक्का प्रमाण भी नहीं मिलता। मोहसन उनसे बार-बार पहलवी की पुरानी कविताओं का राग अवश्य अलापता था
As to the sciences and arts of the old Persians, I have little to say; and no complete evidence of them seems to exist. Mohsan speaks more than once of ancient verses in the Pahlavi language; …

और इस स्वर्गोपम देश को जिस पर उनका युग-युगांतर से आधिपत्य था, और जिसमें उन्हें किसी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा हो इसका कोई प्रमाण ईरानी परंपरा में नहीं है भारतीय परंपरा में उनके ईरान से आने की कोई कहानी तो संभव ही नहीं थी जहां वे सृष्टि के आदिकाल से विराजमान थे। इसलिए हमें विलियम जोंस के इस खयाल को कि कैउमर का आधिपत्य भारी उथल-पुथल का काल रहा होगा, प्रमाण मानना पड़ता है।

ईरान ही वह देश क्यों है जहां से सभी सभ्य या सभ्य होने में सक्षम जनों को बाहर जाना पड़ा इस विषय मे वह जो कुछ कहते हैं उसे नीचे के उद्धरण मैं देख सकते हैं जिसके विस्तार में जाना नहीं चाहूंगा केवल यह बताना चाहूंगा कि भारत में ब्राह्मणों के बाहर से आने के विषय में उनका तर्क है कि भारत के ब्राह्मण तो बाहर जा ही नहीं सकते थे। अन्यथा सारे प्रमाण संकेत कर रहे थे कि यदि ईरान में हिंदू धर्म का आधिपत्य था तो वह भारत से बाहर गए हुए हिंदुओं का ही हो सकता था
Let us observe in the first place the central position of Iran, which is bounded by Arabia, by Tartary, and by India ; while Arabia lies contiguous to Iran only, but is remote from tartary, and divided even from India by a considerable gulf; no country, therefore, but Persia seems likely to have sent forth its colonies to all the kingdoms of Asia: The Brahmans could never have migrated from India to Iran,