Post – 2019-08-31

#रामकथा_की_परंपरा (6)

सीता यदि हराई का मानवीकरण हैं तो उसका एक बार स्थापित हो जाने के बाद अपहरण नहीं हो सकता। उस पर अधिकार किसी का हो क्रमशः उसका विस्तार ही होता गया है और जैसा कि हम पीछे देख आए हैं अपनी संगिठत शक्ति के बल पर देव समाज ने जिन वनांचलों को कृषि भूमि और चरागाह में बदल दिया था उन पर निर्भर करने वालों को बाध्य हो कर अन्न के बदले उनको अपनी सेवाएं अर्पित करनी पड़ीं। इसका लाभ उठाकर देव समाज भूमि पर अपना अपरिवर्तनीय अधिकार जमा कर स्वयं श्रमभार से मुक्त हो गया और अब श्रमिक वर्ग (शूद्र वर्ण ) को नियंत्रित करने की व्यवस्था करके खेती का अधिकतम लाभ भी उठाता रहा। उनसे से कुछ वाणिज्य और सुदूर व्यापार में भी सक्रिय हुए। वैदिक काल में व्यापारिक गतिविधियां अपने चरम पर थीं, इंद्र क्षेत्रपति के साथ वणिक बन चुके हैं। उर्वरा भूमि का भले ही अपहरण न हो सके, माल असबाब का अपहरण भी हो सकता था, आहरण भी हो सकता था, उद्धार भी हो सकता था। सीता का नहीं परंतु
श्री या लक्ष्मी का हरण, आहरण और उद्धार तीनों संभव था। रामायण में सीता का अपहरण करने वाला सुदूर देश में, दूसरों के लिए अगम्य प्रदेश में रहता है।
रामायण में यह अगम्यता समुद्री बाधा के कारण है, परंतु लंका की भारत से दूरी को देखते हुए यह बौनी कल्पना हुई । वैदिक कालीन समुद्री व्यापारियों की पहुंच समुद्र पार स्थित रेगिस्तान से भी पार तक थी – समुद्रस्य आर्द्रस्य धन्वस्य पारे । वही सुमेर था, मालामाल होने का अवसर था , इसलिए सुमेरगिरि को स्वर्ण गिरी के रूप में कल्पित किया जाता रहा। हम इसी से तत्कालीन समुद्री व्यापारिक गतिविधियों को. सुमेर के जिगुरातों को, उनके क्रूर शासक पूरोधाओं को समझ सकते हैं। अपने अपने राम लिखने और चर्चा में आने के बाद भी मैं प्रशंसाओं से प्रसन्न नहीं होता था। हर बार यह पीड़ा होती कि मैं लंका के लिए सही सेटिंग न दे पाया। यदि आज लिखता तो लंका सुमेरिया होता, दशानन या दशकंधर उसके नगर – ऊर, ऊरुक, लगाश, निप्पूर, सुप्पारक, गिर्शू, अक्कद, देर, किसुन्ना, मरद को ध्यान में रखता। गल्प और विश्वास में कुछ भी सही नहीं होता, परन्तु जब तक लोग प्रेरित और प्रभावित होते हैं, सत्य की कसौटी वही होता है।
भारत में दो द्वारका थे । एक से आप परिचित हैं, और उसमें समुद्र में डूबा हुआ नगर भी आता है और बेट द्वारका भी आता है। द्वारका यह इसलिए कहा जाता था कि यह निर्यात और आयात का समुद्री व्यापार का द्वार हुआ करता था जिसका सौभाग्य इसके नष्ट हो जाने के बाद शायद भृगुकक्ष को मिल गया। पश्चिमोत्तर में एक दूसरा द्वारका थी जिसकी तलाश इंटरनेट से करने चला, सफलता न मिली। जो भी हो उत्तर से दक्षिण तक हड़प्पा के नगरों का विदेशों से संबंध किसी एक रास्ते से उनके हित के अनुकूल नहीं था। इतना याद रखना उपयोगी होगा कि समुद्रस्य पारे के पूरक रूप में पर्वतों के पार (पर्वतस्य पारे) का भी उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।

रामायण में समुद्र पार के ठिकाने की बात सबसे अंत में आती है, उससे पहले उन दर्रों की बात आती है जिनके पार जाकर सीता को प्राप्त किया जा सकता है । राम सीता की खोज में किष्किंधा पहुंचते हैं तो सुग्रीव के मुख से वलासुर या बोलन का महत्व मिथकीय कलेवर में सामने आता है। वानरगण को समझाते हुए सुग्रीव दो दुर्गम सँकरे मार्गों का परिचय देते हैं। इनका वर्णन करने से अधिक सुविधाजनक है रामायण में इनका हवाला दे कर अपना काम आसान बनाऊँ:
तत्र पांडुर मेघाभं जांबूनद परिष्कृतम्। कुबेर भवनं रम्यं निर्मिचं विश्वकर्मणा।। तत्र वैश्रवणो राजा सर्वलोकनमस्कृतः। धीमान् रमते श्रीमान् गुह्यकैः सह यक्षराट्।।
क्रौंचं च गिरिमासाद्य बिलं तस्य सुदुर्गमम्। अप्रमत्तैः प्रवेष्टव्यं दुष्प्रवेश्यं हि तत्स्मृतम्।।क्रौंचस्य तु गुहाश्चान्याः सानूनि शिखराणि च। दर्दराश्च नितंबाश्च विचेतव्याः ततस्ततः ।। 4.43.21, 23, ….नील वैदूर्यपत्राख्या नद्यस्तत्र सहस्रशः। 39

साथ ही एक सलाह उत्तर कुरु के विषय में है:
न कथंचन गंतव्यं कुरूणां उत्तरेण वै । अन्येषांमिति भूतानां नानुक्रामति वै गतिः।।56
कहें यहां गोबी के रेगिस्तान के खतरे की ओर संकेत करता है और इससे हम मध्येशिया के एक प्रधान भारतीय उपनिवेश की भौगोलिक स्थिति को समझ सकते हैं। इसके बाद वानर यूथ का भी एक सुरंग से पाला पड़ता है:
तथा च इमे बिलद्वारे स्निग्धाः तिष्ठन्ति पादपाः। इत्युक्तास्तद्बिलं सर्वे विविशुः तिमिरावृतम् ।।4-50-17, 19
प्रविष्टा हरिशार्दूला बिलं तिमिरसंवृतम्। न तेषां सज्जते दृष्टिः न तेजो न पराक्रमः ।।

रामायण का भूगोल सुनी सुनाई बातों पर आधारित होने के कारण काफी गड़बड़ है। हमारे लिए महत्वपूर्ण इनमें आए हुए संकेत हैं। वैदिक काल में भारत का देशांतर का स्थल व्यापार तीन प्रमुख दरों से हुआ करता था। इनमें सबसे पुराना बोलन था, और सबसे नया और सबसे खतरनाक खैबर था, परंतु गंतव्य स्थलों की दृष्टि से सबसे छोटा रास्ता यही था। ऋग्वेद में इनका किस रूप में उल्लेख है इसे हम कल देखेंगे।

Post – 2019-08-31

सीता यदि हराई का मानवीकरण हैं तो उसका एक बार स्थापित हो जाने के बाद अपहरण नहीं हो सकता। उस पर अधिकार किसी का हो क्रमशः उसका विस्तार ही होता गया है और जैसा कि हम पीछे देख आए हैं अपनी संगिठत शक्ति के बल पर देव समाज ने जिन वनांचलों को कृषि भूमि और चरागाह में बदल दिया था उन पर निर्भर करने वालों को बाध्य हो कर अन्न के बदले उनको अपनी सेवाएं अर्पित करनी पड़ीं। इसका लाभ उठाकर देव समाज भूमि पर अपना अपरिवर्तनीय अधिकार जमा कर स्वयं श्रमभार से मुक्त हो गया और अब श्रमिक वर्ग (शूद्र वर्ण ) को नियंत्रित करने की व्यवस्था करके खेती का अधिकतम लाभ भी उठाते रहे। उनसे से कुछ वाणिज्य और सुदूर व्यापार में भी सक्रिय हुए। वैदिक काल में व्यापारिक गतिविधियां अपने चरम पर थीं, इंद्र क्षेत्रपति के साथ वणिक बन चुके हैं। उर्वरा भूमि का भले ही अपहरण ना हो सके, माल असबाब का अपहरण भी हो सकता था, आहरण भी हो सकता था, उद्धार भी हो सकता था। सीता का नहीं परंतु
श्री या लक्ष्मी का हरण, आहरण और उद्धार तीनों संभव था। रामायण में सीता का अपहरण करने वाला सुदूर देश में, दूसरों के लिए अगम्य प्रदेश में रहता है।
रामायण में यह अगम्यता समुद्री बाधा के कारण है, परंतु लंका की भारत से दूरी को देखते हुए यह बौनी कल्पना हुई । वैदिक कालीन समुद्री व्यापारियों की पहुंच समुद्र पार स्थित रेगिस्तान से भी पार तक थी – समुद्रस्य आर्द्रस्य धन्वस्य पारे । वही सुमेर था, मालामाल होने का अवसर था , इसलिए सुमेरगिरि को स्वर्ण गिरी के रूप में कल्पित किया जाता रहा। हम इसी से तत्कालीन समुद्री व्यापारिक गतिविधियों को. सुमेर के जिगुरातों को, उनके क्रूर शासक पूरोधाओं को समझ सकते हैं। अपने अपने राम लिखने और चर्चा में आने के बाद भी मैं प्रशंसाओं से प्रसन्न नहीं होता था। हर बार यह पीड़ा होती कि मैं लंका के लिए सही सेटिंग न दे पाया। यदि आज लिखता तो लंका सुमेरिया होता, दशानन या दशकंधर उसके नगर – ऊर, ऊरुक, लगाश, निप्पूर, सुप्पारक, गिर्शू, अक्कद, देर, किसुन्ना, मरद को ध्यान में रखता। गल्प और विश्वास में कुछ भी सही नहीं होता, परन्तु जब तक लोग प्रेरित और प्रभावित होते हैं, सत्य की कसौटी वही होता है।
भारत में दो द्वारका थे । एक से आप परिचित हैं, और उसमें समुद्र में डूबा हुआ नगर भी आता है और बेट द्वारका भी आता है। द्वारका यह इसलिए कहा जाता था कि यह निर्यात और आयात का उतरी व्यापार का द्वार हुआ करता था जिसका सौभाग्य इसके नष्ट हो जाने के बाद शायद भृगुकक्ष को मिल गया। पश्चिमोत्तर में एक दूसरा द्वारका गीता तलाश इंटरनेट से करने चला सफलता न मिली। जो भी हो उत्तर से दक्षिण तक हड़प्पा के नगरों का विदेशों से संबंध किसी एक रास्ते से उनके हित के अनुकूल नहीं था। इतना याद रखना उपयोगी होगा कि समुद्रस्य पारे के पूरक रूप में पर्वतों के पार (पर्वतस्य पारे) का भी उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।

रामायण में समुद्र पार के ठिकाने की बात सबसे अंत में आती है, उससे पहले उन दर्रों की बात आती है जिनके पार जाकर सीता को प्राप्त किया जा सकता है । राम सीता की खोज में किष्किंधा पहुंचते हैं तो सुग्रीव के मुख से वलासुर या बोलन का महत्व मिथकीय कलेवर में सामने आता है। वानरगण को समझाते हुए सुग्रीव दो दुर्गम सँकरे मार्गों का परिचय देते हैं। इनका वर्णन करने से अधिक सुविधाजनक है रामायण में इनका हवाला दे कर अपना काम आसान बनाऊँ:
तत्र पांडुर मेघाभं जांबूनद परिष्कृतम्। कुबेर भवनं रम्यं निर्मिचं विश्वकर्मणा।। तत्र वैश्रवणो राजा सर्वलोकनमस्कृतः। धीमान् रमते श्रीमान् गुह्यकैः सह यक्षराट्।।
क्रौंचं च गिरिमासाद्य बिलं तस्य सुदुर्गमम्। अप्रमत्तैः प्रवेष्टव्यं दुष्प्रवेश्यं हि तत्स्मृतम्।।क्रौंचस्य तु गुहाश्चान्याः सानूनि शिखराणि च। दर्दराश्च नितंबाश्च दिचेतव्याः ततस्ततः ।। 4.43.21, 23, ….नील वैदूर्यपत्राख्या नद्यस्तत्र सहस्रशः। 39

साथ ही एक सलाह उत्तर कुरु के विषय में है:
न कथंचन गंतव्यं कुरूणां उत्तरेण वै । अन्येषांमिति भूतानां नानुक्रामति वै गतिः।।56
कहें यहां गोबी के रेगिस्तान के खतरे की ओर संकेत करता है और इससे हम मध्येशिया के एक प्रधान भारतीय उपनिवेश की भौगोलिक स्थिति को समझ सकते हैं। इसके बाद वानर यूथ का भी एक सुरंग से पाला पड़ता है:
तथा चेमे बिलद्वारे स्निग्धाः तिष्ठन्ति पादपाः। इत्युक्तास्तद्बिलं सर्वे विविशुः तिमिरावृतम् ।।4-50-17, 19
प्रविष्टा हरिशार्दूला बिलं तिमिरसंवृतम्। न तेषां सज्जते दृष्टिः न तेजो न पराक्रमः ।।

रामायण का भूगोल सुनी सुनाई बातों पर आधारित होने के कारण काफी गड़बड़ है। हमारे लिए महत्वपूर्ण इनमें आए हुए संकेत हैं। वैदिक काल में भारत का देशांतर का स्थल व्यापार तीन प्रमुख दरों से हुआ करता था। इनमें सबसे पुराना बोलन था, और सबसे नया और सबसे खतरनाक खैबर था, परंतु ल गंतव्य स्थलों की दृष्टि से सबसे छोटा रास्ता यही था। ऋग्वेद में इनका किस रूप में उल्लेख है इसे हम कल देखेंगे।

Post – 2019-08-30

#रामकथा_की_परंपरा (5)
#बालि_और_वलासुर

इतिहास से आसक्ति का एक नुकसान यह है इतिहास को नए नए रूप में दुहराते रहते हैं। कई बार इस बात का भी ध्यान नहीं रखते उसकी रक्षा कर रहे हैं, या उसे विकृत कर रहे हैं।

हमने अपने एक लेख में और कद्रू (पृथ्वी) और सुपर्णी (वाणी/ गायत्री छंद) के बीच प्रतिस्पर्धा की चर्चा की थी । यह कथा शतपथ की है। महाभारत तक आकर कद्रू दक्ष की पुत्री, कश्यप की पत्नी सांपों की माता हो जाती है। सुपर्णी का स्थान विनता ले लेती है। यह भी दक्ष की पुत्री, कश्यप की पत्नी है, कद्रू की सौत और गरुड़ सहित पांच पुत्रों की माता है । कद्रू और विनता के बीच वही पहेली बुझाई जाती है जो उस कहानी में सुपर्णी से बुझाई गई थी। विनता के बाजी हारने के बाद कद्रू इसे अपनी दासी बना लेती है। दासता से मुक्ति का पहले में यह उपाय था कि सुपर्णी आकाश से सोम को धरती पर लाए और यह शर्त सोम के रक्षक गंधर्वों के बाण से उसका एक पंख कट कर नीचे गिर जाता है, यही कारण है, गायत्री डेढ़ चरण का छंद है। महाभारत की कथा में स्वर्ग से अमृत लाने की शर्त है जो इसके पुत्र गरुड़ को स्वर्ग से लाना पड़ता है, इसके बाद उसे कद्रू की दासता से मुक्ति मिलती है। इस कहानी में व्याज रूप से यह संकेत भी आ गया है की गरुड़ की सांपों से क्यों शत्रुता है।

इन कथाओं के संकेत ऋग्वेद में हैं, परंतु कथा नहीं है। इसका इतिहास ऋग्वेद से बहुत पुराना है यह तो इससे ही पता चल जाता है कि ऋग्वेद में सोम रस घर-घर (गृहे गृहे) निकाला जाता था। मूल कल्पना यह कि सोमलता जिसमें अमृत जैसा मधुर रस भरा है, धरती की चीज तो हो नहीं सकती। यह तो स्वर्ग से ही आई होगी। किसी की असाधारण गुणवत्ता को रेखांकित करने का भारतीय तरीका है इसलिए प्याज और लहसन के भी स्वर्ग से, पर किसी गंदी जगह पर गिरे अमृत से उत्पन्न बताया जाता है।

समस्या यह कि यह स्वर्ग से धरती पर आया कैसे? उसी के विषय में संभवतः पहले भी कई उद्भावनाएँ की गईं। ऋग्वेद की एक ऋचा के अनुसार स्वर्ग से इसे श्येन ले आया था (आदाय श्येनो अभरत् सोमं सहस्र सवाँ अयुतं च साकम् । 4.26.7) दूसरी में उसका पुत्र (यं सुपर्णः परावतो श्येनस्य पुत्र आभरत्,10.144.4)ले आया था। किन परिस्थितियों में किसे श्येन बनना पड़ा। इसी को लेकर यह कहानियां कहीं गई हैं।

यह अकेली ऐसी कथा नही। बहुत सी घटनाएं हैं जिनको लेकर बाद में तरह-तरह की अटकलबाजियाँ की गई हैं। कुछ में दुराग्रह के कारण अनर्थ कर दिया गया है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद की एक ऋचा (3.53.24) में विश्वामित्र यह दावा करते हैं कि वह भरत वंश के हैं। शतपथ ब्राह्मण में केवल यह उल्लेख है कि कभी दुष्यंत के पुत्र भरत ने प्रयाग तक अपने राज्य का विस्तार किया था और वहां पर एक अशवमेध यज्ञ किया था। महाभारत तक आते-आते भरत को उसी विश्वामित्र की पुत्री शकुंतला का पुत्र ही नहीं बना दिया जाता इसे लेकर आगे पीछे कहानियाँ गढ़ ली जाती हैं जिनसे सभी परिचित हैं।

हमने इन परिवर्तनों का उल्लेख इसलिए किया कि यह बात समझ में आ सके की बलि की कथा का ऋग्वेद के वल के प्रसंग से गहरा संबंध है, यद्यपि रामायण में कहानी को इतना बदल दिया गया है कि एक के सहारे दूसरे को समझना आसान नहीं है, यूँ तो वल के रूपक को ही, मेरी जानकारी का कोई इसके लिए हमें उल्टी यात्रा करनी होगी। रामायण में वर्णित कथा के अनुसार बाली की दुंदुभी के पुत्र मायावी से किसी स्त्री के कारण शत्रुता हो जाती है। वह आकर बालि को युद्ध के लिए ललकारता है और इससे क्रुद्ध होकर बालि जब उसका सामना करने को बढ़ता है को मायावी भाग खड़ा होता है। बालि उसका पीछा करता है। सुग्रीव भाई का साथ देने के लिए उसके साथ जाता है। मायावी अपनी प्राण रक्षा के लिए एक बिल में प्रवेश कर जाता है, बालि सुग्रीव को बाहर रहने की हिदायत देकर अकेले उस बिल में प्रवेश कर जाता है। पूरा साल बीत जाता है पर उसका अतापता नहीं चलता (तस्य प्रविष्ठस्य बिलं साग्रः संवत्सरो गतः, स्थितस्य च बिलद्वारि स कालो व्यत्यवर्तत, रा.4.9.15)। फिर किसी के मारे जाने का चीत्कार सुनाई पड़ता है और बिल से फेन सहित रक्त निकलता हुआ दिखाई देता है। सुग्रीव समझता है उसका भाई मारा गया और अपनी रक्षा के लिए भारी चट्टान बिल को बंद करके (पिधाय च बिलद्वारं शिलया गिरिमात्रया, वही, 18) लौट आता है, इसके बाद बालि को मृत मान कर सुग्रीव का राज्याभिषेक कर दिया जाता है। बालि उस चट्टान को हटा कर बाहर आता है और सुग्रीव को परास्त करके उसकी पत्नी को रख लेता है, सुग्रीव जान बचा कर ऋष्यमूक पर रहने लगता है।

यह कथा अपने वर्तमान रूप में कई तरह के घालमेल का परिणाम है जिसके ताने-बाने के कई धागे ऋगवेदिक काल से ही नहीं, कृषि के आरंभ से भी बहुत पुराने हैं और इतिहास की कई असाध्य गुत्थयों का समाधान कर सकते हैं, परंतु उन पर विचार करने का यहाँ अवकाश नहीं। परंतु इसकी मुख्य प्रेरणा ऋग्वेद की वल की रूपकथा है। ऋग्वेद में इंद्र स्वयं वल का भेदन करते हैं, रामायण में राम बालि का वध करते हैं केवल यह समानता है, परंतु भेदन वध नहीं है। जैसे कुबेर खैबर, गोमती गोमल दर्रे का द्योतक है, उसी तरह वल= बोलन दर्रे का। परंतु बोलन दर्रा बहुत पुराना है। हम नहीं जानते कि ऋग्वेद के रचना काल में इसकी किन्हीं बाधाओं को दूर करने में वैदिक व्यापारियों की कोई भूमिका थी या नहीं, परन्तु इन्द्र की महिमा में जिन कारनामों का उल्लेख है वे सभी पुराने हैं, वे जिन विपत्तियों में याद किए जाते हैं वे सभी उस समय की है। इसके कारण वैदिक कालीन खनिज भोडारों की तलाश की गतिविधियों का इन पर आरोपण हो गया। उन गतिविधियों का सीधा संबंध पणियों की कथा से है जिनको आर्यों के विषय में सर्वमान्य बना दिए गए ढाँचे में समझने के प्रयत्न में हमारे पूर्ववर्ती विद्वान तरह तरह की अटकलबाजियाँ करते रहे हैं पर समझ नहीं पाते रहे हैं। बालि की कथा में जिस बिल का जिक्र है, वह खनिज भंडारों के दोपन के लिए बनाई गई सुरंगे हैं। एक स्थल पर स्पष्ट रूप से इसके बिल को खोलने की बात की गई है (त्वं वलस्य गोमतोऽपावरद्रिवो बिलम् । 1.11.5)।
पणियों की कथा सीताहरण और लंकाविजय से है अतः इस पर आज विचार करना संभव नहीं।

आज हम इतना संकेत अवश्य कर सकते हैं कि खनन का काम पूरे साल नहीं चलता था। पुरातत्व के उत्खनन का काम भी नहीं चलता। इसका मौसम होता है। पुरातत्वविद भी सीजन के अंत में खुदे हुए भाग को ढक और पाट देते हैं कि अगले सीजन तक के अंतराल में कोई आदमी या जानवर उसे किसी तरह की क्षति न पहुँचा सके। वेदिक खनिकर्मी भी सुरंग के द्वार को ऐसी शिलाओं, मिट्टी, खर-पतवार से इस तरह बंद कर देते थे कि इसमें कोई जानवर या साँप आदि न घुसने पाए, यहाँ तक कि किसी को इस बात का संदेह तक न हो सके कि यहाँ सुरंग खोदी गई है। अगले मौसम में सबसे पहला काम सुरंग का द्वार खोलना ही होता था। जैसा कि स्वाभाविक है, इसके साथ कोई अनुष्ठान भी होता था। इसका बहुत सुंदर चित्रण ऋग्वेद में मिलता है जिसकी चर्चा भी कल ही करेंगे। इस तरह सुग्रीव द्वारा पर्वतोपम शिला द्वारा बिल का द्वारा बंद करना सार्थकता रखता है।

Post – 2019-08-28

#रामकथा_की_परंपरा (4)
#हनुमान

रामायण के अधिकांश चरित्रों के नाम ऋग्वेद से लिए गए हैं । उनमें ऐसे नामों की संख्या काफी है जो इंद्र की किसी विशेषता को ध्यान में रखकर गए गए हैं। असुरों के नामकरण में इंद्र के शत्रुओं की छाया है:
हनुमान
हनुमान का अर्थ है मजबूत जबड़ों वाला। अक्सर इसका आज ठुड्डी कर लिया जाता है। इंद्र स्वयं भी अपने मजबूत हनुओं के लिए विख्यात हैं (आ ते हनू हरिवः शूर शिप्रे रुहत्सोमो न पर्वतस्य पृष्ठे । 5.36.2)।

मरुद्गण इंद्र के सहायक हैं, उनके भाई हैं (किं न इन्द्र जिघांससि भ्रातरो मरुतस्तव ।) हनुमान मारुति हैं, मरुत के पुत्र और इसलिए उनके सभी गुण इनमें है (गतिः वेगश्च तेजश्च लाघवं च महाकपे। पितुः ते सदृशं वीर मारुतस्य महौजसः)। राम के सेवक और सहायक हैं।

मरुद्गण अंजि धारण करते है (शुभ्रासो अञ्जिषु प्रिया उत, 2.36.2; गोमातरो यच्छुभयन्ते अंजिभिस्तनूषु शुभ्रा दधिरे विरुक्मतः, 1.85.3), हनुमान अंजनी के पुत्र हैं। अंजि और ऋष्टि का ठीक ठीक रूप और अर्थ क्या है, इसे लेकर कुछ भ्रम है। नीचे हमने उस शब्द शृंखला के माध्यम से एक निश्चित अर्थ पहुंचने का प्रयास किया है । अंजि शब्द को ही लें :
अंजन् (2.3.2) व्यक्तीकुर्वन्,lighting up (7.2.5) समंजन् आज्येन समंजन्ति, adorn them
अंजन्ति (1.56.6; 95.6) आद्र्रीकुर्वन्ति, anoint (3.14.6) सिंचन्ति, adorn, अञ्जन्ति (5.3.2) they balm; (6.11.4) सिंचन्ति, तर्पयन्ति,adorn
अंजयः (1.166.10) व्यक्तानि, ornaments
अंजसा (1.139.4) मुख्यत्वेन प्रकृष्टेन; (6.16.3) आर्जवेन, straight on
अंजसि (1.132.2) अभिव्यक्तिमति कपटादिरहिते, straight on
अंजसी (1.104.4) आंजस्योपेताः, Anjasi
अंजि (4.58.9; 7.57.3) आभरणं, adornment
अंजिभिः (1.64.4) रूपाभिव्यंजकैराभरणैः, With glittering ornaments (5.53.4) आभरणेषु,with ornaments
अंजिमन्तः (5.57.5) आभरणवन्तः, Rich in adornment.
इसके साथ हम ध्वनियों के नासिक्य उच्चारण ध्यान में रखते हुए, इनके अननुनासिक उच्चारण को भी लें। एक ही शब्द ध्यान में आता है, वह है अजिर जिसका अर्थ होता है खुली जगह, जहां प्रकाश और हवा मिलती है। इसका प्रयोग आंगन और प्रांगण , घर के भीतर और बाहर की खुली जगह के लिए किया जाता है।

ऊपर के सभी शब्दों पर ध्यान देने के बाद हमारे लिए यह मानना आसान लगता है कि अंज का अर्थ प्रकाश, आलोक और बहुवचन मे प्रकाशरश्मियाँ सकता है। अंजनी का अर्थ हुआ आलोक की जननी, अर्थात् उषा की लालिमा और इसी कारण हनुमान का रूप है – लाल देह लाली लसै अरुधरि लाल लँगूर ।

यही आलोक, यही अरुणिमा, हनुमान या उनके पिता मरुत की विशेषता है और लोक व्यवहार में हनुमान की प्रतिमा को सिंदूर से रंग कर दिखाने की परंपरा अधिक विश्वसनीय है जबकि नाना अलंकारों से भूषित दिखाने की वैदिक परंपरा मूल कल्पना का भोंड़ा चित्रण है। आवेश में नहीं लंबे सोच विचार के बाद आंकड़ों की छानबीन करने पर हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि विरोध उत्पन्न होने पर लोक, वेद और शास्त्र से अधिक प्रमाणिक होता है, परंतु शास्त्र के दबाव में वह भी आ जाता है।

वायु में या उसके किसी रूप में नैसर्गिक गुणों की तलाश तो की जा सकती है, मानव निर्मित आभूषणों की नही। यह अनुवादों की गलती नहीं है कि वे अंजि का अर्थ आभूषण करते हैं, ऋग्वेद में उनका ऐसा ही वर्णन मिलता है।
यही दशा उनके आयुध की है, जिसे ऋष्टि कहा गया है। ऋष्टि के अर्थ निम्न प्रकार हैं:
ऋष्टिभिः (2.36.2) स्वकीयैरायुधैः, with spears
ऋष्टिमद्भिः (1.88.1) शक्तिरूपाण्यायुधानि स्थूणाः इत्यन्यैः armed with lances;
ऋष्टिविद्युतः (1.168.5) मेघभेदनायुधेविशेषेण विद्योतमानाः, armed with lightning-spears; ऋष्टिविद्युतः (5.52.13) आयूधैर्विद्योतमानाः, with lightnings for their spears
सायण की समझ में नहीं आता कि इसका रूप क्या था। ग्रिफिथ, मोनियर विलियम्स, आप्टे बर्छी या दोधारी तलवार मानते हैं। यहां पुनः रीतिनिर्वाह पर ध्यान दें रुद्र का बाण और शिव का त्रिशूल जब कि हनुमान का आयुध गदा है जिसे ऋग्वेद में वज्र (वज्रेण शतपर्वणा), द्रुण ( अर्थात् काष्ठनिर्मित मुग्दर)। के रूप में पहचाना जा सकता है।

यह अंतर वैदिक काल के बाद में इसलिए आया लगता है कि वजन में भारी और घुमाने में दुष्कर होने के कारण केवल असाधारण शक्ति के योद्धा ही इसका उपयोग कर सकते थे। अतः यह असाधारण पराक्रम का प्रतीक बन गया। बाद के विष्णु, परशुराम, भीम, सुयोधन, युधिष्ठिर सभी गदाधारी हैं। द्रोणाचार्य का तो शाब्दिक अर्थ ही है द्रोण या गदा का आचार्य।

यह झक कुछ सौ वर्षों की अल्प अवधि में ही रही अन्यथा युद्ध और शिकार के लिए पहले भी और बाद में भी धनुष-बाण, भाला-बरछा और तलवार ही रहा है। फरसा/ गड़ासा तक नहीं, मुग्दर, वाशी और परशु तोड़ने गढ़ने और काटने के औजार के रूप में पाषाण काल से ही काम ही आते रहे हैं।

यह धारणा कि हनुमान इन्द्र से भी प्राचीन चरित्र हैे सभी कसौटियों पर गलत सिद्ध होती है। वह कपि जो इन्द्र, पूषा और विष्णु से भी प्राचीन है, वृषाकपि है जो उस सामाजिक अवस्था का द्योतक है जब समाज सभी प्रकार के प्रतिबंधों से मुक्त था, परवर्ती काल की मर्यादाएँ आरंभ नहीं हुई थीं।

ऋग्वेद का 10 वें मंडल के सूक्त 86 में जिसमें ही वृषा कपि का उल्लेख है, अनेक बातें सामाजिक वर्जनाओं के दबाव के कारण, शब्दार्थ का पता चलने पर भी हमारी समझ में नहीं आती । इसकी कुछ ऋचाएँ इतनी अश्लील है कि ग्रिफिथ इनका अनुवाद करने का साहस नहीं जुटा सके ‘I pass over stanza 16 and 17 which I can not translate into decent English.

परंतु इसमें कुछ सूचनाएँ ऐसी हैं जो हमारे काम की हैं। 1. इसके रचनाकाल में ऐसे लोगों की संख्या पर्याप्त थी जो इंद्र के अपना आराध्य और उपास्य नहीं मानते थे (नेन्द्रं देवममंसत) । 2. उनके बीच वृषाकपि की पूरी आवभगत की गई है (यत्र अमदत् वृषाकपिः अर्यः पुष्टेषु मत्सखा), और यहां, हमने देखा, इंद्राणी उसे अपना सखा कह कर संबोधित करती है। 3. वह उसे अपनी सभी प्रिय वस्तुओं को नष्ट करने का आरोप लगाती है (प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत्)। 4. इंद्राणी को मां का कर भी संबोधित करता है और अश्लील संकेत भी करता है (उवे अम्ब सुलाभिके यथेवांग भविष्यति ।
भसन्मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वी इव हृष्यति)। 5. जहां मरुद्गण गाय को और धरती को अपनी मां समझते हैं, वृषाकपि उनके भक्षण की बात करता है (उक्ष्णोहि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम् । उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे)। यहाँ यह स्पष्ट कर दें कि ऊक्षण उन बछड़ों को कहा जाता था जिनका समय से बधियाकरण नहीं हो सका था और जो साँड़ बनने के ऊपयुक्त नहीं होते थे अतः इनके और वशा या बन्ध्या गाय के विषय में वह वर्जना न थी जो शेष गोधन के विषय में रही लगती है।

इसमें संदेह नहीं रह जाता कि यह हनुमान से भिन्न, बहुत प्राचीन अवस्था का वर्षा का देवता है और इंद्राणी उर्वरा भूमि का मानवीकरण है। परंतु यह कृषि से पहले का देवता है। वर्षा का देव धरती को सींचने के कर्म के कारण उसमें रेतःसेक करता हुआ दिखाया जाता है। अश्लील संकेतों के पीछे का यथार्थ यही है।

यह फर्क न कर पाने के कारण, रामायण की ऐसी कथाएँ भी हैं, जिनमें लंका में सीता से हनुमान के संवाद में कुछ अश्लीलता बरती गई है।

संक्षेप में कहें तो वृषाकपि उसी इंद्र विरोधी, यज्ञ विरोधी, कृषिविरोधी, मुक्त कामाचार वाले समाज का प्रतिनिधित्व करता है, जिसका उत्तराधिकार सिद्धों, नाथों और हठयोगियों को मिला, और जिनका प्रभाव कबीरदास जैसे संत पर भी पड़ा।

हनुमान इंद्र के सहायक मरुद्गणों के उत्तराधिकारी हैं और उनकी भूमिका के लिए ही वह सबसे अधिक विख्यात हैं (आरुजन् पर्वताग्राणि हुताशन समो/निलः। बलवान् अप्रमेयश्च वायुः आकाशगोचरा । रामा. 4.67.9), मरुद्गणों की ख्याति इसलिए है कि वह पर्वतों (बादलों) को छिन्न भिन्न कर देते हैं और समुद्रों के पार कर जाते है -य ईंखयन्ति पर्वतान् तिरः समुद्रमर्णवम् । ऋ.1.19.7

हनुमान सीधे पहाड़ को ही उखाड़ लेते हैं और उसको लिए दिए उड़ जलते हैं। मरुदगण समुद्र की बाधा को कुछ नहीं समझते हैं, सागर पार करने का काम हनुमान भी करते हैं । मरुद्गण आभूषणों के शौकीन है, देवताओं में अकेले हनुमान हैं जो सभी तरह के आभूषण पहने दिखाई देते हैं। मरुदगण का एक शौक मधुपान का भी है। यह कमजोरी अकेले हनुमान की नहीं सभी उनके दल के सभी वानरों की है (अव्यग्रमनसो यूयं मधु सेवत वानराः, रामा. 5.62.1; पपुः सर्वे मधु तदा रसवत् फलमाददुः, रामा. 5.62.7) ।
मरुद्गण जहां भी रहें पूरी प्रकृति नाचती और गाती प्रतीत होती है, इसलिए वे नाच गाने के शौकीन न होते तो ही विस्मय होता। हनुमान उनसे कुछ बढ़कर हैं, (त्वयि एव हनुमन् अस्ति बलं, बुद्धि पराक्रमः। देशकालानुवृत्तिश्च नयश्च नय पंडित। 4.44.7)।

Post – 2019-08-26

#रामकथा_की_परंपरा (3)

हम पहले किसी अन्य प्रसंग में अरा के लांगल में बदलने की यात्रा के माध्यम से उस लंबे अंतराल का संकेत करने के बाद ऋग्वेद में रामायण के चरित्रों और अंतर्वस्तु पर विचार करेंगे। जिस अरे से जमीन में रेखा खींच कर उसमें बीज डालकर खेती आरंभ हुई थी, उसे पत्थर की उसी वाशी से तैयार किया गया था जिसे पूषा का आयुध बताया गया है। इस अरा की एक कमी यह थी कि यह आसानी से टूट जाता था मोटा रहने पर लकीर गहरी नहीं की जा सकती थी। इसलिए इस अंतराल में कई तरह के सुधार और बदलाव किए गए। इनमें से एक था लकड़ी की जगह सींग का प्रयोग करना। इसके बाद एक प्रयोग सींग के खोंखले सिरे में नुकीला पत्थर फँसाकर लकीर बनाना। फिर लकड़ी का धारदार तलवार नुमा यंत्र बनाया गया जो पतला और नुकीला होने के कारण गहराई में उतर सकता था और अपनी चौड़ाई के कारण पतले डंडे की तुलना में अधिक मजबूत था। इसे ‘स्फ्य’ की संज्ञा मिली। इसका शाब्दिक अर्थ समझने में हमें कठिनाई होती है। यदि ‘स्फ’ वही मबल हो जिसे हम स्फटिक और फा. सफ/सफाई मे पाते हैे तो इसकी उपयोगिता गहराई मे घास पतवार की जड़ें साफ करने में रही हो सकती है। संभवतः इसी चरण पर यह सूझ पैदा हुई कि यदि लकीर या अराई खींचने में दो लोग साथ काम करें तो काम अधिक, पहले से अधिक अच्छा और अधिक आसानी से होगा।

यह सूझ रस्सी बटने की कला के विकास के कुछ समय बाद ही संभव थी। कौशल और ज्ञान-विज्ञान के किसी क्षेत्र का विकास दूसरे क्षेत्र की समस्याओं के समाधान में प्रेरक और मार्गदर्शक दोनों की भूमिका निभाता है। फिर उन्हें यह सूझा कि सीधे नीचे दबाने की जगह नोक को कुछ तिरछा रखा जाय तो अधिक सुभीता हो। इसी का परिणाम था, वृक (यवं वृकेण अश्विना वपन्ता’)। संभव है यह वैसा ही यंत्र रहा हो जिसका नमूना हड़प्पा के खिलौनों के अवशेषों में मिला है। इसके पक्ष और विरोध में ऐसी दलीलें दी जा सकती हैं जिनसे मदद मिलने की जगह उलझन और बढ़ जाए। कर्मकांड की तरह बच्चों के खिलौनों में भी बहुत पुरानी चीजें बची रहती हैं। ऋग्वेद के समय तक उस हल (लांगल) का आविष्कार हो चुका था, उसके बाद आगे कोई सुधार भारतीय मेधा के द्वारा नहीं हुआ। यह ठहराव सभी क्षेत्रों में देखने में आता है। इसीलिए मैं मानता हूँ कि ऋग्वेद भारतीय सर्जनात्मकता का शिखर है और इसे समझे बिना न हम बाद के इतिहास को समझ सकते हैं न बाद की बौद्धिक व भौतिक उपलब्धियों को।

ऋग्वेद का रामायण इन्द्रायण है। ऋग्वेद के लंबे रचना काल से पहले ही इन्द्र के अग्रज पूषा अनुज या अनुचर की भूमिका में आ चुके हैं। उपेन्द्र का प्रयोग ऋग्वेद में नहीं हुआ है, परन्तु विष्णु को उसी दौर में पदावनत किया जा सकता था जब यज्ञ कृत्रिम वर्षा कराने की युक्ति के रूप में काम में लाया जा रहा था। तर्क यह कि यदि यज्ञ विष्णु हैं और अब उनकी मुख्य भूमिका इन्द्र और वायु (वायु आ याहि वीतये) आदि को तुष्ट करने, उन तक जाने और लेकर आने आदि की ही है तो विष्णु इन्द्र से छोटे तो हुए ही। इन्द्र सर्वोपरि हैं (विश्वस्मात् इन्द्र उत्तरः)। यह बात अलग है कि कृषि की तुलना में व्यापारिक गतिविधियों का आकर्षण बढ़ जाने के कारण, वह महाधन बनते हैं। कृषिकर्मी से वणिक बनते हैं, सार्थवाह के नेता बनते हैं (इन्द्रं अहं वणिजं चोदयामि स नो एतु पुर एता नो अस्तु), और विदेशी अड्डों प्राकारवेष्ठित स्वर्गों (काइजिल कुम, डैश्ली, सपल्ली, वसुकनि आदि) में मौजमस्ती करते हुए, इस अंदेशे से चिन्तित रहते हैं कि कहीं कोई दूसरा उनके स्वर्ग पर अधिकार न कर ले।

इन स्वर्गों पर भी असुरों का प्रहार होता रहता है और संकट बढ़ जाने पर भारतीय राजाओं और पराक्रमी लोगों से सहायता के लिए गुहार लगाते हैं और सहायता के लिए जाने वाले राजा पुरस्कार से मालामाल हो कर लौटते हैं। ऐसे राजाओं में ही दो नाम हमारे लिए खास महत्व के हैं। एक रघु, जिनके कुल में राम जन्म लेते हैं और दूसरे दुष्यन्त जो स्वर्ग से वापस लौटते समय मैनाक गिरि को पार करते हैं और वहाँ मेनका के पुत्र को शेर से खेलते देखकर उस पर मुग्ध हो जाते हैं, और अंत में पता चलता है कि उन्हीं का पुत्र है। इसी पुत्र भरत के नाम पर कहते हैं इस देश का नाम भारत पड़ा था। भरत नाम के भाई भी राम कथा में स्थान पा जाते हैं।

कुबेर के खजाने का पता न हो तो खैबर के पार खोकचा (कोकनद) से सटे बदख्शाँ की संगमर्मरी चट्टानों के भीतर तान हजार साल पुरानी सुरंगों का पता करें जिनसे लाजवर्द की मणियाँ निकाली जाती थीं।

व्यापारिक गतिविधियों में संलग्नता के बाद भी, कृषि उत्पाद पर उनका परोक्ष अधिकार बना रहता है (परोक्षा, परोक्षप्रिय हि देवाः)। पशु व्यापार तो वाणिज्य में भी शामिल था। इस तरह वैश्य के कार्यभार में कृषि, वाणिज्य और गोरक्षा तीनों शामिल हो जाते हैं।

इन विविध गतिविधियों के कारण इंद्र के युद्ध के चार रूप हो जाते हैं- एक वर्षा के लिए, जल चुराकर भागने वाले बादलों के विरुद्ध, दूसरा, लुटेरों और सार्थवाहों को बाधा पहुंचाने वाले जनों के विरुद्ध, तीसरा खनिज भंडार का कोई उपयोग न करते हुए हुए भी, उसका खनन करने का विरोध करने वाले स्थानीय कबीलों के विरुद्ध, और चौथा विदेशी अड्डों पर उनके कार्य- व्यापार में बाधा पहुंचाने वाले अंचलों के उपद्रवकारियों के विरुद्ध।

इन युद्धों के वर्णन में इस तरह का स्पष्ट भेद नहीं किया जाता इसलिए वृत्र का प्रयोग बादलों के लिए भी होता है, रहजनों के लिए भी होता है, घेरने या अवरोध पैदा करने वाली किसी अन्य परिघटना के लिए भी और व्यंजना में ऐसी वस्तु के लिए जो जल या रस से भरा हुआ है। इस तरह सोम भी वृत्र है (वृत्रो वै सोम आसीत्, श. 3.4.3.13) , चंद्रमा (अथ एत एव वृत्र यच्चन्द्रमा, श. 1.6.4.13) भी वृत्र है।

व्यापार की गतिविधियों के कारण इंद्र की भूमिका तो बदलती ही है, साथ ही वरुण, पूषा, अश्विनीकुमार सबकी भूमिका बदलती है। वरुण समुद्र नौचालन में कप्तान हो जाते हैं, जलोदर रोग उनके प्रकोप से ही होता है। वह हवा (trade wind) का रुख पहचानते हैं (वेद वातस्य वर्तनिं), अंतरिक्ष में दिशाबोध के लिए छोडे़ जाने वाले पक्षियों (कबूतर और कौआ) की उड़ान को जानते हैे (वेद यो वीनां पदं अंतरिक्षेण पतताम् ), हल में जुतने वाले अश्विनीकुमार भोर होते ही, माल से भरा हुआ रथ लेकर चलने लगते हैे या समुद्री जहाज चलाने लगते हैं उनका मानवीकरण और अतिमानवीकारण हो जाता है, जानवर से मनुष्य ही नहीं मनुष्यों में सबसे प्रबुद्ध, देवताओं के चिकित्सक बन जाते हैं।

वर्षा के पुराने देव, रूद्र की महिमा को आंच नहीं आती, परंतु उनके पुत्र मरुद्गण इन्द्र के सहायक बन जाते हैं (इन्द्र ज्येष्ठा मरुद्गणा देवासः पूषरातयः)। ये स्वयं भी इंद्र की सहायता से वृत्रों का विनाश करते हैं (हत वृत्रं सुदानव इन्द्रेण सहसा युजा)।

Post – 2019-08-24

#रामकथा_की_परंपरा(2)

श्रुति शब्द से ही यह ध्वनित है कि ऋग्वेद का रचना काल उसमें वर्णित अनेक कथाओं के घटना काल से बहुत बाद का है। कुछ मामलों में यह अंतराल 5-6 हजार साल का है। इतिहास के प्रति इतना गहरा लगाव कि कहते -सुनते इतने लंबे समय तक महत्वपूर्ण उपलब्धियों को सुरक्षित रखा गया, इसका प्रमाण मिलने के बाद भी विश्वास करना कठिन होता है, और इसी समाज को सिरफिरे इतिहास विमुख सिद्ध करते रहे। इस स्मृति में रीतिनिर्वाह और भाषा की बहुत बड़ी भूमिका थी।

भाषा के कुछ बहुत रोचक नमूने मुझे उस क्षेत्र के स्थान नामों में मिले जिसे भारोपीय भाषा का आदिम क्षेत्र मानता हूँ । अपने एक लेख में हम यह स्पष्ट कर आए हैं कि नून, तिल/तेल, पय, घी/ घृत, बिस/विष, मूत, लार/लाल/ लाला, पुरीष सभी का पुराना अर्थ पानी था। आज इनका पुराना अर्थ विस्मृत है, ये उन विशेष पदार्थों के लिए रूढ़ हो चुके हैं। परंतु पूर्वी उत्तर प्रदेश के तटीय स्थान नामों में इनमें से अधिकांश का प्रयोग आज तक बचा हुआ है, नून (नूनखार), तिल(तिलसर)/तेल(तेलगगरा), पय(पैना), घी(घेवरपार)/ घृत, बिस(बिसौली/ बिस्टौली)/विष, मूत, लार(लार, लाररोड)/लाल(लालकुआँ)/ लाला, पुरीष(पुरिसौली) जिससे पता चलता है बहुत मामूली बस्तियां भी कितने हजार साल पहले अस्तित्व में आ चुकी थी।

यही हाल वैदिक नाम विशेषण और उपकरणों के साथ देखने में आता है। हमने कहा पूषा कृषि के बहुत पुराने देवता हैं। उनके दो हथियार हैं। एक है वाशी जो पहले पैनी धार वाला पत्थर (अश्मन्मयी वाशी) होता था। यह बाद में धातु का बनने लगा (हिरण्मयी वाशी) तो इसकी शक्ल बदल कर हस्तकुठार या बसूले जैसी हो गई। [हिरण्य = आहृत, extracted (from ore) अर्थात् कोई धातु, जब कि यह सोने के लिए रूढ़ हो चुका है] लकड़ी, बाँस आदि काटने चीरने का औजार यही था। इसके सही उपयोग के संबंध में पुरातत्वविदों में काफी गलत धारणा है जो उनके द्वारा इसके नामकरण -स्क्रैपर – से पता चलता है।

हलाई=हल से पड़ी लकीर का पुराना नाम अराई मान सकते हैं, क्योंकि आरंभ में जमीन में लकीर लकड़ी के नुकीले डंडे (पैने) से खींची जाती थी। इसका मूल ची/सी है। इससे ही चीर, चीरनी, सी, सीर-हल (सीरं युंजंति), सी-मंत आदि की व्युत्पत्ति है। इस अराई या हराई का सीता नामकरण इसी कारण पड़ा। अरा/आरा- से ही आर्य – अरा/आरा चलाने वाला, ‘खेती करने वाला’, निकला है। आर्य श्रेष्ठता का द्योतक इसलिए बन गया क्योंकि खेती को श्रेष्ठतम कर्म माना जाता था – यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म । उत्तम खेती मध्यम बान। अनाज का अभाव हो जाए तो आपको भी विश्वास हो जाएगा की खेती श्रेष्ठतम कर्म है।

आर्य और अर्य पूज्य हो गए इसका लकीर खींचने की ध्वनि जिसके कारण अर को अपनी संज्ञा मिली, से कोई संबंध नहीं है, परंतु, अरि, अरा (पहिए का), आरा (लकड़ी चीरने का यंत्र). आला (मुँह में डाता जाने वाला ) थर्मामीटर, आंड़-डंक से हो सकता है। अर/आर की ध्वनि जल के प्रवाह से भी उत्पन्न होती है, इसलिए अर-जल, अर्ण, अर्घ, अर्घ्य, आर्द्र आदि उसी से निकले हैं और अर्य/आर्य शब्द के साथ पूज्य का भाव उससे निकला है। जल की गति के कारण आर्य चलने वाला (अर-गतौ) का इसी स्रोत से संबंध है। परंतु इन सब का विवेक न होने के कारण सभी का घालमेल आर्य शब्द में हो गया।

ऋग्वेद में पूषा से हमारा सामना उस चरण पर होता है जब लांगल या उस यंत्र का विकास हो चुका है जिसमें हरीस, जुआठ, बरही, पुठ, और फाल का प्रयोग हो रहा है और इस तरह एक संयंत्र (combine) अस्तित्व में आ चुका है। इसके परिणाम स्वरूप पूषा भी एक बार हल चलाते हैं या चलाते दिखाई देते हैं यद्यपि यह किसी ऐसे चरण का यंत्र है जिसके लिए छह बैलों की जरूरत होती थी । एक का रूप क्या था इसका सही अनुमान नहीं हो पाता : उतो स मह्यमिन्दुभिः षड् युक्ताँ अनुसेषिधत् । गोभिर्यवं न चर्कृषत् ।। 1.23.15

हम कल्पना करते रह जाते हैं कि इसके पीछे कारण क्या रहा हो सकता है। क्या यह उस चरण की याद है, जब बधियाकरण से साँड़़ को बैल नहीं बनाया जा सका था, और किसी युक्ति से बछिया और बछड़े को ही जोत दिया जाता था? हम इस ऊहापोह मे न पड़ कर इतना ही कहना चाहेंगे कि सीता का जन्म अर/ अरा/ आरा या hoe, (पैना, जिसका बाद में अष्ट्रा या पशु साधनी के रूप में होने लगा) ‘या ते अष्ट्रा गोओपशा ऽऽघृणे पशुसाधनी’ के लिए प्रयोग में आने लगा। जो भी हो, इस अष्ट्रा का प्रयोग करने वाले भी पूषा ही हैं।

पूषा रक्षा के देवता के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके हैं। वही संकटाकीर्ण यात्राओं में, रक्षा का भार संभालते हैं, भटके हुए लोगों को रास्ता दिखाते हैं, खोए हुए पशुओं को तलाशने में मदद करते हैं, परंतु इससे भी अधिक यह कि ये पोषण के देवता है। इसी से निर्धारित होती है विष्णु की रक्षक और पालक की भूमिका। त्रिदेवों में वही हैं जिनकी भूमिका पालन और रक्षण की है।

परंतु इस चरण पर भी वह जिस यंत्र से काम लेते हैं वह है आरा। इस पहले ही चरण से उनसे निवेदन किया गया है कि तुम जैसे आरा से भूमि को चीर कर उस की कठोरता को कम करते हुए मुलायम बना देते हो, उसी तरह पणियों के बंजर हृदय को चीर कर उसे मुलायम बनाओ: आ रिख किकिरा कृणु पणीनां हृदया कवे । अथ ईं अस्मभ्यं रन्धय । यां पूषन् ब्रह्मचोदनीं आरां बिभर्ष्याघृणे। तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ।। 6.53.7-8

जमीन को चीरने वाली आरा से इस आरा की भूमिका बदल चुकी है, यह ब्रह्मचोदनी है, हृदय बदलने के लिए प्रेमपाती या ‘विनयपत्रिका’ लिखने के लिए अनुरोध किया जा रहा है। यहां दो बातें स्पष्ट हैं। एक यह कि केवल लांगल का विकास नहीं हो चुका है, लेखन कला का विकास हो चुका है। दूसरा यह कि वेदिक आर्य अपनी सत्ता बाहुबल से नहीं बुद्धि बल और आर्थिक प्रगति से की थी।

अब हम पूषा के माध्यम से कृषि कथा के ऋग्वेद तक की विकास की यात्रा को संक्षेप में रखना चाहेंगे। सीता के आविष्कारक, जनक या पति पूषा है। ऋग्वेद तक आते-आते भूमिका बदल जाती है। कारण, इस बीच उत्पादन करने वाला (कीनाश) कोई दूसरा है। उत्पाद पर अधिकार करने वाला क्षेत्रपति पैदा हो चुका है। असली स्वामी वह है। इसलिए सीता का पाणिग्रहण वह करता है, पहले का उत्पादक और सीता का स्वामी उसके पीछे चलता है, उत्पादन से अधिक जोर अधिक से अधिक क्षेत्र पर अपना अधिकार जमाने पर है:
क्षेत्रस्य पतिना वयं हितेनेव जयामसि । गामश्वं पोषयित्न्वा स नो मृळातीदृशे ।
क्षेत्रस्य पते मधुमन्तमूर्मिं धेनुरिव पयः अस्मासु धुक्ष्व । मधुश्चुतं घृतमिव सुषूतमृतस्य नः पतयो मृळयन्तु । शुनं वाहा शुनं नरः शुनं कृषतु लांगलम् ।शुनं वरत्रा वघ्यन्तां शुनमष्ट्रामुदिङ्गय ।… इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु तां पूषानु यच्छतु । सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् । शुनं नः फाला वि कृषन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अभि यन्तु वाहैः । शुनं पर्जन्यः मधुना पयोभिः शुनासीरा शुनमस्मासु धत्तम् ।4.57.1,2,4, 6-8

भू स्वामित्व कृषिकार्य से विरत लोगों के हाथ में चला गया है। अब उत्पादक भूस्वामी के सहयोगी बन जाते हैं, इंद्र सीता के पति बनते हैं तो पूषा उनके अनुगामी बन जाते हैं और यहां से एक नया चरित्र पैदा होता है जो पहले कृषिलक्ष्मी का स्वामी था, अब वह सीता के पति का अनुचर, लक्ष्मण बन जाता है और राम कथा में एक नए चरित्र की उद्भावना होती है। परंतु आगे चलकर पूषा के पोषक पक्ष को अलग करके भरत का चरित्र का आना कम रोचक नहीं है ।
मैं जो लिख रहा हूं वह सही नहीं है। हमारे दुर्भाग्य से वह गलत भी नहीं है। इसलिए जिसे यथालिखित को पढ़कर हम सही मानते आए थे, उस पर भी पुनर्विचार करने की जरूरत है कि वह सही है या नहीं।

Post – 2019-08-23

#रामकथा_की_परंपरा (1)

फादर कामिल बुल्के को ऋग्वेद में राम कथा नहीं मिली। यदि राम के नाना अवतार थे तो उन अवतारों में इनके नाना नाम भी रहे होंगे। इसलिए ऋग्वेद में रामकथा इंद्रकथा और रावणवध वृत्रवध के रूप में चित्रित है।

यदि रामायण का नाम सीतायन रहा होता तो इतनी असुविधा न होती। यदि पीछे जाएं तो संभव है यह पूषा की कथा रही हो। वह पोषण के देवता हैं। कहा तो यह जाता है कि पोषण का संबंध पशुओं से है, परंतु यह व्याख्या या तो खींचतान कर उस समय की गई व्याख्या है जब कृषि के देवता इंद्र बन चुके थे। या यह सोचने का दुस्साहस कोई नहीं कर सका इंद्र का उदय होने से पहले इस भूमिका का निर्वाह पूषा करते थे । बकरे की सवारी करने वाले की विशेष भूमिका पहले क्या थी और एक बार इन्हें बैलों से अन्न उपजाते – गोभिः यवं न चर्कृषत्- दिखाया गया है। यह स्मरण रहे कि देवयुग जिसमें गोपालन आरंभ नहीं हुआ था, अज प्रधान पालतू पशु था।

जो भी हो यह सोचना तो और भी दुष्कर था कि उससे पहले वर्षा के देवता कृषि के देवता नहीं, रुद्र हुआ करते थे।

इसी चरण पर इस प्राचीन अविश्वास के अनुसार कि दक्षिण में एक बहुत विशाल वृक्ष है जो आकाश तक चला गया है उस वृक्ष पर एक बंदर रहता है। जब वह उसकी डालियों को हिलाता है तो उससे वर्षा होती है।
ऋग्वेद में यह वृषाकपि इंद्र का पुत्र होता है ।

परंतु वर्षा के इन दोनों देवों का संबंध कृषि से नहीं लगता। कृषि के प्राचीनतम देवता विष्णु ही है जो अपने वामन रूप में आग की चिंगारी हैं और अग्नि की तरह सर्वत्र व्याप्त हैं, और विस्तृत रूप में सूर्य वन जाते हैं।

विष्णु ब्रह्म, पूषा, इंद्र सभी सूर्य के पर्याय या अलग-अलग रूप हैं। मनु विवस्वान या सूर्य के पुत्र हैं। राम का जन्म भी सूर्यवंश में होता है। राम विष्णु के अवतार हैं। नामभेद के रहते हुए भी इस तारतम्य में एक अंतःसंगति है।

कई बार यह कह दिया जाता है वाल्मीकि के रामायण में राम का मानवीय पक्ष स्पष्ट है और तुलसी ने अवतारवाद को प्रधान बना दिया। हमारी अपनी अपनी समझ से यह उलझन इस कथापरंपरा से अवगत न होने के कारण है। अवतारवाद का समावेश इस कथा में आदिम आचरण पर ही हो गया था।

रोचक एंक दूसरा पक्ष भी है, जैसे अग्नि का उत्पादक प्रयोग करने के कारण, उस समुदाय के लोग भी अपने को देव/ ब्रह्म अर्थात् अग्नि कहने लगे थे, उसी तरह उसके कई हजार साल बाद धातु युग का आरंभ होने पर, धातु विद्या मैं दक्ष जन अपने को आगरिया = अग्नि पुत्र कहने लगे, क्योंकि धातुविद्या में अग्नि की भूमिका और भी प्रधान थी।

अंगिरा का अर्थ ही होता है आग (यदंग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तव इत् तत् सत्यं अंगिरः ।। 1.1.6),। भृगु (भग/भर्ग/भर्ज > कण्वा इव भृगवः सूर्या इव विश्वं हि इत तं आनशुः ) भी अपना संबंध अग्नि से जोड़ते हैं, यद्यपि इनकी दक्षता बढ़ईगिरी तक सीमित दिखाई देती है।

अक्सर परंपराओं में भेद करने वाले आसुरी विज्ञान को पूर्ववर्ती और कृषि की परंपरा से अलग या तो विरोधी या प्रतिस्पर्धी रूप में चित्रित करते हैं। ऐसा करते हुए कुछ पहलुओं की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। यह सच है कि असुरों के लिए धरती, जल धाराएं और वनस्पतियां माता के समान थीं और इनको काटना, जलाना, खोदना या दूषित करना वर्जित था। इसे याद रखना होगा कि वर्जना और मर्यादा दो ऐसी चीजें हैं कि इनकी रक्षा के लिए जान दी और दूसरे की जान ली भी जा सकती है।

भारतीय परंपरा में धरतीमाता, मां गंगे, तुलसी माता जैसी अवधारणाएं इन्हीं असुरों से आई हैं। इसी कारण आरंभिक अवस्था में असुरों ने कृषि की ओर अग्रसर होने वाले समाज का हिंसक विरोध किया। ब्राह्मण का अर्थ कृषि कर्मी और यज्ञ का अर्थ उत्पादन या अपने समय का ही नहीं, आज तक का श्रेष्ठतम कर्म अर्थात दुनिया का पेट भरने वाला कर्म, कृषि कर्म था। इस यज्ञ का विरोध सहते हुए किसानी करने वालों को जिस यातना से गुजरना पड़ा और फिर भी वह अपने निश्चय से विरत नहीं हुए, उन्नत कृषि तथा स्थाई निवास की ओर अग्रसर हुए।

सीता कृषि के आरंभिक चरण की देवी नहीं है। वह उस चरण पर जन्म लेती हैं जब भूमि को जोतने के यंत्र विकसित हो चुके हैं और पहले की तुलना में देवों की धाक जम चुकी है, इसलिए प्रतीक रूप में जुताई के समय ब्राह्मणों के रक्त से भरे हुए और जमीन में दबे हुए घड़े से उनकी उत्पत्ति होती है- कृषिदेवी के रूप में।

देवों का वर्चस्व स्थापित हो जाने के बाद, वन्य भूमि के कृषि भूमि में परिणत हो जाने के बाद, उन वनों के असुरों के निराश्रय हो जाने के बाद, वे बहुत धीरे-धीरे कृषि कर्मियों को अपनी सेवाएं प्रदान करने लगे। वर्जना के निर्वाह और कृषि कर्मियों से आहार जुटाने के द्वंद्व में सक्रियता के नए तरीके आविष्कार किए गए:
जिन जानवरों का वे शिकार करते थे अब उन्हें पकड़ कर, पालकर, देवों की सेवा में पेश करना;
1. पशुपालन और पशु आधारित उपक्रमों का विकास ;
2. ऐसे कौशलों और निपुणताओं का विकास जिनमें वर्जना की रक्षा संभव हो और जो कृषि कर्मियों के लिए किसी रूप में उपयोगी हो।
3. ऐसी कलाओं – नृत्य, संगीत, अभिनय, कलाबाजी और मायाचार या रूपपरिवर्तन को देवों की रुचि के अनुसार परिष्कृत करना। इसने आगे चलकर नाट्यकला को आगे आगे बढ़ाया।

हम इनका उल्लेख करते हुए केवल इस बात की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं कि देवों और असुरों का हिंसक विरोध और प्रतिरोध चल तो रहा था परंतु जिस चरण पर धातु विद्या, पाषाणी और काष्ठ कला को अपनी जीविका का साधन बना लेने वालों का वर्ग उत्पन्न होता है वह चरण विरोध का नहीं है, परिस्थितियों में बदलाव के कारण, सहयोग का है, और सहयोग का भी इसलिए है कि अपनी वर्जनाओं के कारण यह उस उत्पादन पद्धति को नहीं अपना सके, जिसमें वे भूस्वामी बन सकते थे। कदम कदम पर वर्जनाएंँ थी। अधबिसरे रूप में आर्थिक अभाव में भी उसी पुराने गर्व ने उनके गरूर को बनाए रखा रखा ।

हम भले सामंतवादी वर्ण व्यवस्था के कारण कई तरह के ऊंच-नीच के शिकार हैं, विविध रूपों में हम सभी को उनकी सेवा करनी पड़ती है जिनका अर्थव्यवस्था पर अधिकार है। यह सेवा अपने निजी गरूर के साथ करने की जिद ही होती है जो हमें उनकी संपत्ति को भी तुच्छ मानने का आत्मबल प्रदान करती है । विविध योग्यताओं से संपन्न हम सभी अपनी अर्थव्यवस्था के दास हैं। दास की जगह पहले शूद्र का प्रयोग होता था। पता लगाइए, टीका चंदन लगाने वालों, और अपनी श्रेष्ठता का तामझाम करने वालों में कौन है जो शूद्र नहीं है, वैज्ञानिकों से लेकर ज्ञानियों और अल्पज्ञों तक कौन है जो अपनी अर्थव्यवस्था का गुलाम नहीं है।

हमने अपने तंत्र को दूसरों के मंत्र से समझने का प्रयत्न किया है। हमारे समाज में एक विचित्र और अदृश्य प्रतिस्पर्धा चलती रही है, ब्राह्मण शूद्र को नीच समझता रहा, शूद्रों में अपनी कला दक्षता पर गर्व करने वाले ब्राह्मण को भिखारी समझते रहे। इस बात को किसी और ने नहीं भारतीय समाज के एक अध्येता, अरविंद शर्मा ने रेखांकित किया था, जिसमें उन्होंने एक मोची को अपने बेटे को झिड़कते सुना था कि काम धंधा नहीं सीखेगा तो क्या ब्राह्मणों की तरह भीख मांगेगा।

बात तो बनी नहीं। कल देखेंगे।

Post – 2019-08-22

#वैदिक_साहित्य में #कूटविधान_के_रूप (2)

कूटोक्तियों की चर्चा आने पर हमारा ध्यान पहले मंडल के 164 वें सूक्त की ओर जरूर जाता है। यह ऋग्वेद के सबसे बड़े सूक्तों में से एक है। पूरा सूक्त ही पहेलियों से भरा है। सिद्धों की उलट बांसियाँ ऐसी ही पहेलियों से प्रेरित लगती हैं। वाक्यांश तक एक जैसे आए हैं, परंतु उस विस्तार में जाने पर हम अपने विषय से बहुत अधिक बहक जाएंगे। केवल संकेत ही पर्याप्त माना जाना चाहिए। एक नमूना देखे – बैल के बच्चा हुआ, गाय बंध्या रह गई, बछड़े काे तीनों साँझों को दुहिए. रोज गीदड़ सिंह से युद्ध करता है- ‘बयल बिआइल गविया बाँझ, बछा दूहिए तीनों साँझ/ नित उठि सियाल सिंह सों झूझै, कण्हपा कह कोउ बिरला बूझै।’

अब अस्यवामीय (सहस्राक्षरा) की कुछ ऋचाओं के प्रतीक विधान से इसकी प्रेरणा को समझने का प्रयत्न करें:
एक पहिए का रथ है, उसमें सात घोड़े जुते हैं, एक ही अश्व के सात नाम हैं (सप्त युंजन्ति रथमेकचक्रमेको अश्वो वहति सप्तनामा ।) (पहिए में ए्क नाभि या धुरी होती है, परंतु) एक ऐसा पहिया है जिसमें तीन धुरे हैं, (गलती हो गई तो इन्हे एस दूसरे से टकराना. रगड़ खाना, टूटना चाहिए, पर) ये तो न पुराने होते हैं, न घिसते- टूटते है (त्रिनाभि चक्रमजरमनर्वं यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्थुः ।। 1.164.2
इस सात पहियों वाले रथ पर जो सात सवार हैं उसे सात अश्व खींच रहे हैं, सात बहनें साथ वहाँ जा रही हैं, जहाँ गायों के सात नाम हैं ( इमं रथमधि ये सप्ततस्थुः सप्तचक्रं सप्त वहन्तयश्वाः । सप्त स्वसारः अभि सं नवन्ते यत्र गवां निहिता सप्त नाम। 1.164.3)
जो सबसे पहले पैदा हुआ उसे पैदा होते किसने देखा, जिसका कोई ठिकाना नहीं वह उनका भरण करता है (कः ददर्श प्रथमं जायमानमस्थन्वन्तं यदनस्था बिभर्ति ।…1.164.4)
मैं नादान हूं, अपनी अज्ञानता के कारण मैं उनसे देवताओं के नाम का अर्थ जानना चाहता हूँ …(पाकः पृच्छामि मनसा विजानन् देवानामेना निहिता पदानि ।1.164.5)

दोनों में जो बात समान है वह मामूली सर्वविदित बातों को घुमा फिरा कर कहने की है। इसका अर्थ है किसी समाज में ऐसे उपजीवी वर्ग की उपस्थिति, जो किसी चीज का उत्पादन नहीं करता, विचारों तक का, परंतु जो किसी विलक्षणता के बल पर समाज पर अपनी धाक जमा कर प्रतिष्ठा और जीविका दोनों प्राप्त कर सकता है। यह उसकी व्यक्तिगत उपलब्धि न भी हो, समाज की संपन्नता का प्रमाण तो है ही।

यह भी नहीं कहा जा सकता कि सामान्य जीवन जीने वालों को फुर्सत के ऐसे क्षण मिलते ही नहीं है जिनमें वे इस तरह की बौद्धिक कवायद के लिए समय निकाल सकें। पहेलियों और कथाओं का तो मूल स्रोत जन साधारण ही है, प्रतिभाशाली शिक्षित लेखकों ने उन्हें तराशा और उनका विस्तार किया है। भोजपुरी में पहेली को बुझौअल कहते हैं और यह बौद्धिक होड़ का ही एक रूप है – जिसकी आकांक्षा कम जानने वालों में अधिक होती है। हमारा निवेदन यह है कि काव्यशौष्ठव या अंतर्वस्तु दोनों स्तरों पर पहेलियां, ऋग्वेद की हों या सिद्ध कवियों या कबीर की, बहुत सीमित दायरे में बात का बतंगड़ बनाने का यत्न मात्र हैं, जबकि पहेलियों से इतर वैदिक कविता, सभी दृष्टियों से उस ऊँचाई पर पहुँची कविता है जिस तक संस्कृत कवियों सहित आज तक की कविता नहीं पहुँच सकी।

भाषा और अभिव्यक्ति पर अपने अधिकार के कारण वे अल्पतम शब्दों में इतना जीवन चरित्र उपस्थित कर देते हैं इतनी जटिल समस्याओं का समाधान कर देते हैं, जो हमें बाद के साहित्य में उनके स्तर की नहीं मिलती।
अस्यवामीय सूक्त की सभी ज्योतिर्वैज्ञानिक ऋचाएं मिलकर भी अंतर्वस्तु के मामले में अनपढ़ व्यक्ति की जानकारी तक सीमित रह जाती हैं- वर्ष के चक्र, मौसम, ऋतुओं, दिनों, महीनों, रात-दिन के कुल योग तक। उनसे उतनी जानकारी भी नहीं मिलती जितनी पहले ही मंडल की एक अन्य ऋचा – ‘वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः, वेदा य उपजायते । 1.25.8- में मिल जाता है।[]
[][] इससे उपजात दिनों और अधिमास के संकेत से पश्चिमी विद्वानों के उस दावे का खंडन हो जाता है जिसमें यह समझाया जाता रहा है कि वैदिक समाज ने ज्योतिष का ज्ञान पश्चिमी एशिया (खल्दियों) से प्राप्त किया था क्योंकि, उनका चंद्रमास और गणना से समायोजित नहीं होता। ‘प्रजावत मास’ में यह ध्वनित है कि मास ठीक चांद्रमास के बराबर नहीं होता, उसका कालमान कुछ अधिक होता है (अधिजायते), इससे प्रतिवर्ष कुछ दिन फालतू बसते हैं जिन्हें उपजात कहा गया। एक अन्य प्रसंग में युग का उल्लेख जिस रूप में आया है उससे पता चलता है 5 वर्षों के अंतराल पर सौर और चांद्र गणना का समायोजन होता था। यह समायोजन सौरगणना में भी करना होता है।[][]

ऋग्वेद का जो सबसे महत्वपूर्ण कूटविधान है वह कृषि, उद्योग-वाणिज्य और खनन से संबंध रखता है, जिसे इस रूप में किसी ने नहीं पहचाना और इस विराट रूपकथा को सही संदर्भ न दे पाना ऋग्वेद को समझने में सबसे बड़ी बाधा रही है। कृषिकथा के दो आयाम हैं, एक पार्थिव जिसमें कृषि की दिशा में पहल करने वालों को शिकार और आहारसंग्रह पर निर्भर करने वाले समाज के विरोध का लंबे समय तक सामना करना पड़ा, और दूसरा प्राकृतिक बाधाओं का था, जिसका संबंध मुख्य रूप से अनावृष्टि और असमय वृष्टि से है, और इन दोनों का परस्पर एक दूसरे पर आरोपण हो जाता है। वाणिज्य का, विशेषतः सुदूर व्यापार का, आरंभ होने पर आवागमन में बाधक लुटेरों और कबीलों का भी असुरों से एकात्म्य हो जाता है।

ऋग्वेद में वर्णित वृत्र और इंद्र की कहानियां ऋग्वेदिक कवियों की उद्भावनाएं नहीं है, इनका बहुत पुराना इतिहास है जो कई हजार साल पहले से चला रहा है और इस अंतराल में इसे कितने रूपों में ढाला गया इसका हमें आज पता नहीं चल सकता।

श्रुति परंपरा से चली आई इन्हीं कथाओं के कारण ऋग्वेद को श्रुति कहा गया।

ऋग्वेद में एक स्थल पर दो प्राचीन परंपराओं का उल्लेख है, (द्वे स्रुती अशृणवं पितृणामहं देवानामुत मर्त्यानाम् , ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च । 10.88.15)[]

[][]इसमें पितृणां का प्रयोग पितृभ्यः के आशय में हुआ है (चतुर्थ्यर्थे बहुलं छंदसि)। हमने पितरों से दो परंपराओं (मार्गों ) की बात सुनी है – देवताओं की ( सृष्टि प्रपंच की) दूसरी मनुष्यों की।[][] इन्हीं दो के भीतर विश्व की समस्त गतिविधियां चलती रहती हैं, और इन्हीं में हमारे अपने पितरों के कारनामे भी शामिल है।

यह स्मरण केवल एक ऋचा तक सीमित नहीं है, कई संदर्भों मे बार-बार दुहराया जाता है। इन्हीं के कारण वेदों को श्रुति अर्थात सुनी हुई कहानियों पर आधारित माना जाता रहा, न कि इस कारण कि लोग लेखन से परिचित नहीं थे, अतः ऋग्वेद की ऋचाओं को लिपिबद्ध नहीं किया जा सका था, केवल कंठस्थ किया जाता था।

यह कथाएं कितने रूपों में दोहराई जाती रही? हम नहीं जानते कि जब तुलसीदास कह रहे थे,’नाना भाँति राम अवतारा, रामायन शत कोटि अपारा। कल्प भेद हरि चरित सुहाए, भाँति अनेक मुनीसन गाए।’ तो उनकी दृष्टि ऋग्वेद में रामकथा के पूर्व रूप पर गई थी या नहीं। परंतु रामकथा को आदि काव्य और इसके रचनाकार को आदि कवि मानने की परंपरा, इसकी रचना और रचनाकार को वैदिक ऋषि यों और कवियों से पूर्ववर्ती तो मानती ही है।

इस बीच इसके कितने रूपांतर हुए किन-किन चरित्रों के नाम से इसे दोहराया जाता रहा, इन के स्थान पर पहले किन किन का नाम लिया जाता रहा, इस पर माथापच्ची करने की पर्याप्त सामग्री हमारे पास नहीं है, परंतु देव समाज और इंद्र का अपना महत्व कृषि कर्म में इनकी अग्रता के कारण ही है और शुरू से इनकी असुरों से शत्रुता इसी के कारण है इसके लिए हमारे पास निर्णायक संकेत उपलब्ध हैं।

ब्राह्मणों और संहिताओं में इसके संकेत तो हैं ही, ऋग्वेद में भी इंद्र उर्वराजित हैं, वही क्षेत्रपति हैं। मुझे ऐसा स्मरण था कि ‘इन्द्रः आसीत् सीरपतिः शतक्रतु कीनाशः आसन् मरुतः सुदानवः।’ भी उसी में आया है। लिखने से पहले जाँच करने पर निराशा हाथ लगी। सन्दर्भ तलाशने के लिए अंतरजाल का सहारा लिया तो वहां संदर्भ गलत। लिखने में कोई भूल हुई होगी। व्याख्या कुछ इस प्रकार मिली:
“मधुना मधुरसेन क्षौद्रेण वा संज्ञितम् संमानं यवम् दीर्घशूकम इमं धान्यविशेषं सरस्वत्याम् अधि सरस्वत्याख्याया नद्यः समीपे मणौ मनुष्यजातौ देवाः अचीकृषन् कृषिं कृतवन्तः । तदानीं कर्षणेन भूमौ तद् धान्यम् उत्पादयितुं शतक्रतुः इन्द्रः सीरपतिः हलस्याधिष्ठाता स्वामी आसीत् । सुदानवः शोभनदान मरुतः कीनाशाः कर्षका आसन् ।

इसका इतना ही लाभ है कि इस बात का समर्थन दूसरे भी करते हैं कि जिन देवों की कथा देवासुर संग्राम की कथा से जुड़ी है उनका संबंध उन लोगों से था जो अपने को देव या ब्राह्मण ( दोनों का अर्थ था अग्नि का उपयोग करने वाले) कहते थे, जंगल की सफाई के लिए वन दहन करते थे, यह वन-दहन कृषि उत्पादन के लिए किया जाता था, इसलिए इसे यज्ञ (उत्पादन) कहते थे, धर्म का यही आरंभिक रूप था। इसकी कहानियां इस चरण के कई हजार साल बाद जहां-तहां कल्पना का फुट देकर अंकित की जा रही थी, फिर भी प्राचीनतम संकेत इतने निर्णायक रूप में बने रह गए हैं कि हम प्रयत्न करके उनके आधार पर प्राचीनतम इतिहास को उससे अधिक विश्वसनीय रूप में लिख सकते हैं, जितना लिखित ग्रंथों की सहायता से किसी दूसरे काल का लिख पाते हैं:
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । 1.164.50
चाक्लिप्रे तेन ऋषयो मनुष्या यज्ञे जाते पितरो नो पुराणे, पश्यन् मन्ये मनसा चक्षसा तान् य इमं यज्ञमयजन्त पूर्वे ।। 10.130.6
बाद के साहित्य में यातायात में व्यस्त दिखाई देने वाले अश्विनी भी उस अवस्था में खेती का काम करते थे:
यवं वृकेण अश्विना वपन्तेषं दुहन्ता मनुषाय दस्रा । अभि दस्युं बकुरेणा धमन्तोरु ज्योतिश्चक्रथुरार्याय ।। 1.117.21

अश्विनी गर्दभी पुत्र हैं, या गर्दभ का मानवीकरण है, इसलिए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गो पालन आरंभ होने से पहले, परंतु आरंभिक चरण से काफी बाद में, खेती में सबसे पहले गधों का उपयोग किया गया।

जो भी हो, यज्ञ को स्थापित करने, और उसका विस्तार करने के बाद मानव युग (जो खेती में गोधन के प्रयोग से आरंभ होता है), से पहले के देवों को यह याद तो रहा कि कभी वे ही देव थे, इसलिए बाद में भी अपने को भूदेव कहते रहे। यह संज्ञा अग्नि से उनके किसी विशेष संबंध के फलस्वरूप मिला था, यह वे भूल गए। अब अग्निस्वरूप बन गए।

याद रहे ऋग्वेद मानव युग आरंभ होने के दो तीन हजार साल बाद लिखा जा रहा था। इतने लंबे अंतराल में याददाश्त में जो भी विचलन आ सकती है उसका ध्यान रखते हुए ही हम इतिहास को समझ सकते हैं । कृषिउत्पाद -जनित समृद्धि के चलते सुर उत्पादन का भार दूसरों पर छोड़कर स्वयं उत्पादन से विमुख हो गए. सुर से असुर हो गए, आराम तलब हो गए। आत्महत्या कर ली। स्वर्ग को चले गए और आज तक आराम तलबी के उसी स्वर्ग में विपन्न रह कर, भूमि पर अपने प्राचीन अधिकार के बल पर, उत्पादन पर अपना अधिकार विविध अनुपातों में बनाए रहे:

“यज्ञेन वै देवाः । इमां जितिं जिग्युर्यैषामियं जितिस्ते होचुः कथं न इदम्मनुष्यैरनभ्यारोह्यं स्यादिति ते यज्ञस्य रसं धीत्वा यथा मधु मधुकृतो निर्धयेयुर्विदुह्य यज्ञं यूपेन योपयित्वा तिरोऽभवन्नथ यदेनेनायोपयंस्तस्माद्यूपो नाम” ३.२.२.2.

कृषिकथा की पुरातनता और रामायण से इसके संबंध की बात ताे आज भी अधूरी रह गई, परंतु अगली पोस्ट में इसको, यदि संभव हुआ तो इसके कुछ अन्य पहलुओं को समझने का प्रयत्न करेंगे।

Post – 2019-08-20

#कबीर# की समझ
ऋग्वेद में कूटविधान के रूप (1)

ऋग्वेद में कूटविधान की आवश्यकता क्यों पड़ी?

एक कारण तो यह था कि कविता में यदि वही भाषा प्रयोग में लाई जाए जिसका व्यवहार हम सामान्य जीवन में करते हैं तो वह कविता कैसे हुई? उसमें किसकी रुचि होगी। यदि कहानी मैं उन्हीं लोगों का जीवन और अनुभव प्रस्तुत किया जाए तो फिर वह कहानी कैसे हुई ? इसके लिए उन्होंने भाषा को विलक्षण बनाने का प्रयत्न किया, और चरित्रों को विचित्र. साधारण से अलग कल्पित किया। काव्य का वर्ण्यविषय भी असाधारण रखा।

भाषा को विलक्षण बनाने के लिए अन्य अलंकारों के साथ(1) अतिरंजना, (2) प्रतीप, अर्थात् कार्य-कारण के संबंधों को उलट कर दिखाने और (3) समाज वर्जित को सामान्य व्यवहार की तरह पेश करने, (4) प्रकृति का मानवीकरण और पाशवीकरण करते हुए अभेदरूपक और रूपकथाएं रचने के साथ वैचित्र्य या असंभव को संभव दिखाने की युक्तियां विशेष रूप से काम में लाई गईं।

ऋग्वेद की ऋचाओं के रचनाकार कौन थे, यह तय नहीं किया जा सकता। जैसे रामायण या महाभारत के विभिन्न चरित्र जो कुछ कहते हैं वह वे नहीं वाल्मीकि या व्यास उस पात्र से कहलवाते हैं, पर इन दोनों महाकाव्यों में इतना जोड़ा और भरा गया है कि यह भी निश्चय के साथ नहीं कह सकते कि जिसका श्रेय हम वाल्मीकि या व्यास को दे रहे हैं वह सचमुच उन्हीं की सूझ है उसी तरह हमें यह पता नहीं कि किसी सूक्त का रचनाकार कौन है। सामान्य धारणा यह है कि सूक्तों में जिसे ऋषि बताया गया है वही उसका रचनाकार है, परन्तु यह सही नहीं है। इसके तीन प्रमाण हैं:
अनेक सूक्तों में अनेक ऋषि हैं।
अनेक के अमानवीय – परमेष्ठी, इन्द्र, मछलियां – जैसे ऋषि हैं।
शौनक ने बृहद्देवता में संवादसूक्तों के विषय में स्पष्ट कहा है कि संवाद जिसके मुँह से कहलवाया गया हे वह उसका ऋषि है।

इसी तरह देवता का अर्थ है वर्ण्यविषय। इसलिए ऊपर की तीनों शर्तें देवता पर भी लागू होती हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि जिन ऋषियों को पात्र बनाया गया है वे पुराने जमाने के वे महापुरुष हो सकते हैं जिनको ऋग्वेद में – नमो ऋषिभ्यः पूर्वेभ्यः पथिकृद्भ्यः – कह कर याद किया जाता है।

वर्ण्यविषय कितने रूपों और भूमिकाओं में आ सकता है इसका कोई ठिकाना नहीं। अग्नि विष्णु हैं, वामन हैं, पक्षी हैं. सिंह हैं, समस्त देव वही हैं, मनुष्य की कोई ऐसी भूमिका नहीं जिससे वह न जुड़े हों – कवि, विप्र, यज्ञ भी, यज्ञ के संपादक – पुरोहित, ऋत्विज, होता, पोता, ब्रह्मा, मंत्र, ब्राह्मण, दूत, राजदूत, हरकारा, वाहन। इन से जो चमत्कार पैदा होता है उसका अनुमान किया जा सकता है। अग्नि पर इतनी ऋचाएं और ऐसी विलक्षण उदभावनाएँ. अपने आप में विस्मयकारी है। हमारे लिए अच्छी बात यह कि इनके साथ अग्नि शब्द का प्रयोग हुआ इसलिए भटकाव कम हो जाता है अन्यथा ऋग्वेद हड़प्पालिपि से भी अधिक दरूह सिद्ध होता।

पहले ही सूक्त को लें इसमे अग्नि को पुरोहित, यज्ञ का देव, ऋत्विज, होता, रत्नदाता, प्राचीन कवियों और नवीन दोनों ही ऋर्षिभियों द्वारा पूज्य, देवों को ढोकर लाने वाला, यशस्वी, सबसे बड़ा वीर, यज्ञ को समग्रतः घेरने वाला, देवों के पास जाने वाला, देवों के साथ आनेवाला, होता, कविक्रतु, सत्य, विविध कीर्तियों से युक्त, अंगिरा, अध्वरों (जिनको कोई हिंसित न कर सके) में देदीप्यमान, अमृत का धाम, जगमग करते रहने वाले, अपने घर में वर्धमान, पुत्र के लिए पिता की तरह सदा उपलब्ध। पहली नजर में ये सारी उपमाएं बेतुकी लगती हैं पर दुबारा सोचने पर पुरोहित= सम्मुख रखा हुआ, देव= देने वाला, चमकने वाला, जलाने वाला; ऋत्विज- नियत काल पर यज्ञ करने वाला, रत्नधा= मनके (खास कर के टिक्कल मनके (microbeads). ढोलकाकार मनके, (drum-beads), अंतःखचित मनके (intercarved beads), तो ताप के सहारे बनाए ही जाते थे मणियों को मणिक्य बनाने के लिए, इच्छित आकार देने, उनमें छेद बनाने के लिए उनको गर्म करना होता था। इसी तरह अन्य प्रयोगों को भी समझा जा सकता है जिनके लोभ में पड़ गए तो दूसरे पक्ष छूट जाएंगे।

कभी कभी वैदिक कवि अपने प्रतीक विधान को अधिक खींच लेते हैंः
वृक्षेवृक्षे नि यता मीमयद्गौस्ततो वयः प्र पतान् पूरुषादः ।
(वृक्ष वृक्ष पर गायें बँधी है, वे मिमिया रही हैं, और उस वृक्ष से मनुष्यभक्षी पक्षी उड़ रहे हैं।)

इसमें साहचर्य संबंध को उस की पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया गया है, वृक्ष= वानस्पतिक उत्पाद या उससे से निर्मित अर्थात कोदंड, गो= पशुप्रजात ताँत या प्रत्यंचा, निमियाना = प्रत्यंचा का स्पंदन,पूरुषाद वय= धनुष सेे प्राणलेवा उड़ने वाले (तीर)। पसीने छूट जाते हैं इनका अर्थ करते हुए, मुहावरा चरितार्थ होता है खोदा पहाड़ निकली चुहिया।

चौंकाने का एक तरीका है वर्जना या सामाजिक टैबू जिसका उल्लंघन करने पर मनुष्य को प्राणों से हाथ धोना पड़ सकता था, उनको हास्यकर या वास्तविक की तरह पेश करना।
नाथ पंथियों का गो मांस खाना, और वारुणी पीना अपने समय की वर्जनाओं को भले प्रकट करें, ऋग्वेद के समय में ये वर्जित नहीं थे। ऋग्वेद के काल की वर्जनाएँ उस कोटि में आती हैं जिसे वर्जित संबंध incest कहा जाता है। इसके कारण, बहन का यार (स्वसुः जार), बाप का बाप (पितुः पिता असत्), मैंने अपने बाप को पैदा किया (अहं सुवे पितरं), जैसे प्रयोग देखने में आते हैं। व्याख्या में पता चलता है एक ही रात से उषा और सूर्य जो अग्नि के रूप, दोनों पैदा होते हैं, अतः सगे भाई बहनहैं। सूर्य उषा का जार. उसे जला देता है।
बहन-भाई का संबंध वैदिक काल में सबसे पवित्र माना जाता था और इसलिए बहन को लेकर ऐसी उक्तियाँ हैं जिनसे बाद के कालों में बहन से संबंधित गालियां पैदा हुई हो सकती हैं।

ऋग्वेद में अपने भाई यम के पीछे पागल यमी पर एक पूरा सूक्त है। यम=दिन और यमी=रात अनंतकाल से एक दूसरे के पीछे भाग रहे हैं। वह एक ही महाकाल की संताने हैं, इसलिए परस्पर भाई बहन हैं, यमी प्रेम निवेदन करती दिन का पीछा कर रही है परंतु भाई बरजता रहता है, इसलिए संबंध स्थापित नहीं हो पाता। ऐसी ही एक उद्भावना मन और बुद्धि को लेकर है, जिसमें कहा जाता है की मनु ने अपनी दुहिता को ही बाहु पास में ले लिया, मनुर्ह वै दुहितरं अधिदध्यौ, इसी का दूसरा रूप ब्रह्मा के अपनी पुत्री सरस्वती अथवा वाणी पर आसक्त होने के रूप में रचा गया। दूसरे को लेकर तो कई अंतर्कथाएं रची गईं जिनका सबसे रोचक पक्ष है वैदिक मूल्यों और मर्यादाओं के निर्वाह का भार उस रूद्र द्वारा वहन किया जाना , जो वैदिक आचार के उल्लंघन के लिए विख्यात हैं। अब इसके दंड स्वरूप चतुरानन ब्रह्मा को पंचानन बनाकर उनके ऊपर के सिर को रूद्र द्वारा काट दिया जाता है।

सिद्धोंं और नाथ पंथियों की गौ मांस पर शब्दक्रीड़ा ऋग्वेद में विद्यमान है:
श्रोणामेक उदकं गामवाजति मांसमेकः पिंशति सूनया भृतम् ।
अश्व का मांस नहीं उसका महत्व:
ये चार्वतो मांसभिक्षामुपासत उतो तेषामभिगूर्तिर्न इन्वतु ।।

पहेलियों के लिए ऋग्वेद का पहले मंडल का 164 वां सूक्त सर्वाधिक विख्यात है। यह ऋग्वेद के सबसे बड़े सूक्तों में से एक है। इसमें एक बार वाणी के लिए सहस्राक्षरा का प्रयोग हुआ है। इसकी चर्चा हम कल करेंगे।

Post – 2019-08-19

कविता सत्य का साक्षात्कार नहीं, कवि के शब्द कौशल की अभिव्यक्ति है, इसके बल पर वह यथार्थ से अलग, उससे उलट संसार को युग सत्य के रूप में पेश कर सकता है और इसके कारण ही विचारों के मामले में कवि सबसे अविश्वसनीय ओर आविष्ट भाषा पर अधिकार के कारण सबसे खतरनाक प्राणी है। यह प्रतीति मुझे विनोद मे निम्न पंक्तियाँ लिखते हुए हुई:

हर तरह की छूट थी
बस हँसना मना था उस राज्य में
कोई किसी बात पर हँसे
बादशाह को खबर लग जाती:
‘लोग हँस रहे हैं’
यह खबर दबा दी जाती
क्यों हंस रहे हैं।
फाँसी का रास्ता हँसी से गुजरता था
उस राज्य में।