#वैदिक_साहित्य में #कूटविधान_के_रूप (2)
कूटोक्तियों की चर्चा आने पर हमारा ध्यान पहले मंडल के 164 वें सूक्त की ओर जरूर जाता है। यह ऋग्वेद के सबसे बड़े सूक्तों में से एक है। पूरा सूक्त ही पहेलियों से भरा है। सिद्धों की उलट बांसियाँ ऐसी ही पहेलियों से प्रेरित लगती हैं। वाक्यांश तक एक जैसे आए हैं, परंतु उस विस्तार में जाने पर हम अपने विषय से बहुत अधिक बहक जाएंगे। केवल संकेत ही पर्याप्त माना जाना चाहिए। एक नमूना देखे – बैल के बच्चा हुआ, गाय बंध्या रह गई, बछड़े काे तीनों साँझों को दुहिए. रोज गीदड़ सिंह से युद्ध करता है- ‘बयल बिआइल गविया बाँझ, बछा दूहिए तीनों साँझ/ नित उठि सियाल सिंह सों झूझै, कण्हपा कह कोउ बिरला बूझै।’
अब अस्यवामीय (सहस्राक्षरा) की कुछ ऋचाओं के प्रतीक विधान से इसकी प्रेरणा को समझने का प्रयत्न करें:
एक पहिए का रथ है, उसमें सात घोड़े जुते हैं, एक ही अश्व के सात नाम हैं (सप्त युंजन्ति रथमेकचक्रमेको अश्वो वहति सप्तनामा ।) (पहिए में ए्क नाभि या धुरी होती है, परंतु) एक ऐसा पहिया है जिसमें तीन धुरे हैं, (गलती हो गई तो इन्हे एस दूसरे से टकराना. रगड़ खाना, टूटना चाहिए, पर) ये तो न पुराने होते हैं, न घिसते- टूटते है (त्रिनाभि चक्रमजरमनर्वं यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्थुः ।। 1.164.2
इस सात पहियों वाले रथ पर जो सात सवार हैं उसे सात अश्व खींच रहे हैं, सात बहनें साथ वहाँ जा रही हैं, जहाँ गायों के सात नाम हैं ( इमं रथमधि ये सप्ततस्थुः सप्तचक्रं सप्त वहन्तयश्वाः । सप्त स्वसारः अभि सं नवन्ते यत्र गवां निहिता सप्त नाम। 1.164.3)
जो सबसे पहले पैदा हुआ उसे पैदा होते किसने देखा, जिसका कोई ठिकाना नहीं वह उनका भरण करता है (कः ददर्श प्रथमं जायमानमस्थन्वन्तं यदनस्था बिभर्ति ।…1.164.4)
मैं नादान हूं, अपनी अज्ञानता के कारण मैं उनसे देवताओं के नाम का अर्थ जानना चाहता हूँ …(पाकः पृच्छामि मनसा विजानन् देवानामेना निहिता पदानि ।1.164.5)
दोनों में जो बात समान है वह मामूली सर्वविदित बातों को घुमा फिरा कर कहने की है। इसका अर्थ है किसी समाज में ऐसे उपजीवी वर्ग की उपस्थिति, जो किसी चीज का उत्पादन नहीं करता, विचारों तक का, परंतु जो किसी विलक्षणता के बल पर समाज पर अपनी धाक जमा कर प्रतिष्ठा और जीविका दोनों प्राप्त कर सकता है। यह उसकी व्यक्तिगत उपलब्धि न भी हो, समाज की संपन्नता का प्रमाण तो है ही।
यह भी नहीं कहा जा सकता कि सामान्य जीवन जीने वालों को फुर्सत के ऐसे क्षण मिलते ही नहीं है जिनमें वे इस तरह की बौद्धिक कवायद के लिए समय निकाल सकें। पहेलियों और कथाओं का तो मूल स्रोत जन साधारण ही है, प्रतिभाशाली शिक्षित लेखकों ने उन्हें तराशा और उनका विस्तार किया है। भोजपुरी में पहेली को बुझौअल कहते हैं और यह बौद्धिक होड़ का ही एक रूप है – जिसकी आकांक्षा कम जानने वालों में अधिक होती है। हमारा निवेदन यह है कि काव्यशौष्ठव या अंतर्वस्तु दोनों स्तरों पर पहेलियां, ऋग्वेद की हों या सिद्ध कवियों या कबीर की, बहुत सीमित दायरे में बात का बतंगड़ बनाने का यत्न मात्र हैं, जबकि पहेलियों से इतर वैदिक कविता, सभी दृष्टियों से उस ऊँचाई पर पहुँची कविता है जिस तक संस्कृत कवियों सहित आज तक की कविता नहीं पहुँच सकी।
भाषा और अभिव्यक्ति पर अपने अधिकार के कारण वे अल्पतम शब्दों में इतना जीवन चरित्र उपस्थित कर देते हैं इतनी जटिल समस्याओं का समाधान कर देते हैं, जो हमें बाद के साहित्य में उनके स्तर की नहीं मिलती।
अस्यवामीय सूक्त की सभी ज्योतिर्वैज्ञानिक ऋचाएं मिलकर भी अंतर्वस्तु के मामले में अनपढ़ व्यक्ति की जानकारी तक सीमित रह जाती हैं- वर्ष के चक्र, मौसम, ऋतुओं, दिनों, महीनों, रात-दिन के कुल योग तक। उनसे उतनी जानकारी भी नहीं मिलती जितनी पहले ही मंडल की एक अन्य ऋचा – ‘वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः, वेदा य उपजायते । 1.25.8- में मिल जाता है।[]
[][] इससे उपजात दिनों और अधिमास के संकेत से पश्चिमी विद्वानों के उस दावे का खंडन हो जाता है जिसमें यह समझाया जाता रहा है कि वैदिक समाज ने ज्योतिष का ज्ञान पश्चिमी एशिया (खल्दियों) से प्राप्त किया था क्योंकि, उनका चंद्रमास और गणना से समायोजित नहीं होता। ‘प्रजावत मास’ में यह ध्वनित है कि मास ठीक चांद्रमास के बराबर नहीं होता, उसका कालमान कुछ अधिक होता है (अधिजायते), इससे प्रतिवर्ष कुछ दिन फालतू बसते हैं जिन्हें उपजात कहा गया। एक अन्य प्रसंग में युग का उल्लेख जिस रूप में आया है उससे पता चलता है 5 वर्षों के अंतराल पर सौर और चांद्र गणना का समायोजन होता था। यह समायोजन सौरगणना में भी करना होता है।[][]
ऋग्वेद का जो सबसे महत्वपूर्ण कूटविधान है वह कृषि, उद्योग-वाणिज्य और खनन से संबंध रखता है, जिसे इस रूप में किसी ने नहीं पहचाना और इस विराट रूपकथा को सही संदर्भ न दे पाना ऋग्वेद को समझने में सबसे बड़ी बाधा रही है। कृषिकथा के दो आयाम हैं, एक पार्थिव जिसमें कृषि की दिशा में पहल करने वालों को शिकार और आहारसंग्रह पर निर्भर करने वाले समाज के विरोध का लंबे समय तक सामना करना पड़ा, और दूसरा प्राकृतिक बाधाओं का था, जिसका संबंध मुख्य रूप से अनावृष्टि और असमय वृष्टि से है, और इन दोनों का परस्पर एक दूसरे पर आरोपण हो जाता है। वाणिज्य का, विशेषतः सुदूर व्यापार का, आरंभ होने पर आवागमन में बाधक लुटेरों और कबीलों का भी असुरों से एकात्म्य हो जाता है।
ऋग्वेद में वर्णित वृत्र और इंद्र की कहानियां ऋग्वेदिक कवियों की उद्भावनाएं नहीं है, इनका बहुत पुराना इतिहास है जो कई हजार साल पहले से चला रहा है और इस अंतराल में इसे कितने रूपों में ढाला गया इसका हमें आज पता नहीं चल सकता।
श्रुति परंपरा से चली आई इन्हीं कथाओं के कारण ऋग्वेद को श्रुति कहा गया।
ऋग्वेद में एक स्थल पर दो प्राचीन परंपराओं का उल्लेख है, (द्वे स्रुती अशृणवं पितृणामहं देवानामुत मर्त्यानाम् , ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च । 10.88.15)[]
[][]इसमें पितृणां का प्रयोग पितृभ्यः के आशय में हुआ है (चतुर्थ्यर्थे बहुलं छंदसि)। हमने पितरों से दो परंपराओं (मार्गों ) की बात सुनी है – देवताओं की ( सृष्टि प्रपंच की) दूसरी मनुष्यों की।[][] इन्हीं दो के भीतर विश्व की समस्त गतिविधियां चलती रहती हैं, और इन्हीं में हमारे अपने पितरों के कारनामे भी शामिल है।
यह स्मरण केवल एक ऋचा तक सीमित नहीं है, कई संदर्भों मे बार-बार दुहराया जाता है। इन्हीं के कारण वेदों को श्रुति अर्थात सुनी हुई कहानियों पर आधारित माना जाता रहा, न कि इस कारण कि लोग लेखन से परिचित नहीं थे, अतः ऋग्वेद की ऋचाओं को लिपिबद्ध नहीं किया जा सका था, केवल कंठस्थ किया जाता था।
यह कथाएं कितने रूपों में दोहराई जाती रही? हम नहीं जानते कि जब तुलसीदास कह रहे थे,’नाना भाँति राम अवतारा, रामायन शत कोटि अपारा। कल्प भेद हरि चरित सुहाए, भाँति अनेक मुनीसन गाए।’ तो उनकी दृष्टि ऋग्वेद में रामकथा के पूर्व रूप पर गई थी या नहीं। परंतु रामकथा को आदि काव्य और इसके रचनाकार को आदि कवि मानने की परंपरा, इसकी रचना और रचनाकार को वैदिक ऋषि यों और कवियों से पूर्ववर्ती तो मानती ही है।
इस बीच इसके कितने रूपांतर हुए किन-किन चरित्रों के नाम से इसे दोहराया जाता रहा, इन के स्थान पर पहले किन किन का नाम लिया जाता रहा, इस पर माथापच्ची करने की पर्याप्त सामग्री हमारे पास नहीं है, परंतु देव समाज और इंद्र का अपना महत्व कृषि कर्म में इनकी अग्रता के कारण ही है और शुरू से इनकी असुरों से शत्रुता इसी के कारण है इसके लिए हमारे पास निर्णायक संकेत उपलब्ध हैं।
ब्राह्मणों और संहिताओं में इसके संकेत तो हैं ही, ऋग्वेद में भी इंद्र उर्वराजित हैं, वही क्षेत्रपति हैं। मुझे ऐसा स्मरण था कि ‘इन्द्रः आसीत् सीरपतिः शतक्रतु कीनाशः आसन् मरुतः सुदानवः।’ भी उसी में आया है। लिखने से पहले जाँच करने पर निराशा हाथ लगी। सन्दर्भ तलाशने के लिए अंतरजाल का सहारा लिया तो वहां संदर्भ गलत। लिखने में कोई भूल हुई होगी। व्याख्या कुछ इस प्रकार मिली:
“मधुना मधुरसेन क्षौद्रेण वा संज्ञितम् संमानं यवम् दीर्घशूकम इमं धान्यविशेषं सरस्वत्याम् अधि सरस्वत्याख्याया नद्यः समीपे मणौ मनुष्यजातौ देवाः अचीकृषन् कृषिं कृतवन्तः । तदानीं कर्षणेन भूमौ तद् धान्यम् उत्पादयितुं शतक्रतुः इन्द्रः सीरपतिः हलस्याधिष्ठाता स्वामी आसीत् । सुदानवः शोभनदान मरुतः कीनाशाः कर्षका आसन् ।
इसका इतना ही लाभ है कि इस बात का समर्थन दूसरे भी करते हैं कि जिन देवों की कथा देवासुर संग्राम की कथा से जुड़ी है उनका संबंध उन लोगों से था जो अपने को देव या ब्राह्मण ( दोनों का अर्थ था अग्नि का उपयोग करने वाले) कहते थे, जंगल की सफाई के लिए वन दहन करते थे, यह वन-दहन कृषि उत्पादन के लिए किया जाता था, इसलिए इसे यज्ञ (उत्पादन) कहते थे, धर्म का यही आरंभिक रूप था। इसकी कहानियां इस चरण के कई हजार साल बाद जहां-तहां कल्पना का फुट देकर अंकित की जा रही थी, फिर भी प्राचीनतम संकेत इतने निर्णायक रूप में बने रह गए हैं कि हम प्रयत्न करके उनके आधार पर प्राचीनतम इतिहास को उससे अधिक विश्वसनीय रूप में लिख सकते हैं, जितना लिखित ग्रंथों की सहायता से किसी दूसरे काल का लिख पाते हैं:
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । 1.164.50
चाक्लिप्रे तेन ऋषयो मनुष्या यज्ञे जाते पितरो नो पुराणे, पश्यन् मन्ये मनसा चक्षसा तान् य इमं यज्ञमयजन्त पूर्वे ।। 10.130.6
बाद के साहित्य में यातायात में व्यस्त दिखाई देने वाले अश्विनी भी उस अवस्था में खेती का काम करते थे:
यवं वृकेण अश्विना वपन्तेषं दुहन्ता मनुषाय दस्रा । अभि दस्युं बकुरेणा धमन्तोरु ज्योतिश्चक्रथुरार्याय ।। 1.117.21
अश्विनी गर्दभी पुत्र हैं, या गर्दभ का मानवीकरण है, इसलिए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गो पालन आरंभ होने से पहले, परंतु आरंभिक चरण से काफी बाद में, खेती में सबसे पहले गधों का उपयोग किया गया।
जो भी हो, यज्ञ को स्थापित करने, और उसका विस्तार करने के बाद मानव युग (जो खेती में गोधन के प्रयोग से आरंभ होता है), से पहले के देवों को यह याद तो रहा कि कभी वे ही देव थे, इसलिए बाद में भी अपने को भूदेव कहते रहे। यह संज्ञा अग्नि से उनके किसी विशेष संबंध के फलस्वरूप मिला था, यह वे भूल गए। अब अग्निस्वरूप बन गए।
याद रहे ऋग्वेद मानव युग आरंभ होने के दो तीन हजार साल बाद लिखा जा रहा था। इतने लंबे अंतराल में याददाश्त में जो भी विचलन आ सकती है उसका ध्यान रखते हुए ही हम इतिहास को समझ सकते हैं । कृषिउत्पाद -जनित समृद्धि के चलते सुर उत्पादन का भार दूसरों पर छोड़कर स्वयं उत्पादन से विमुख हो गए. सुर से असुर हो गए, आराम तलब हो गए। आत्महत्या कर ली। स्वर्ग को चले गए और आज तक आराम तलबी के उसी स्वर्ग में विपन्न रह कर, भूमि पर अपने प्राचीन अधिकार के बल पर, उत्पादन पर अपना अधिकार विविध अनुपातों में बनाए रहे:
“यज्ञेन वै देवाः । इमां जितिं जिग्युर्यैषामियं जितिस्ते होचुः कथं न इदम्मनुष्यैरनभ्यारोह्यं स्यादिति ते यज्ञस्य रसं धीत्वा यथा मधु मधुकृतो निर्धयेयुर्विदुह्य यज्ञं यूपेन योपयित्वा तिरोऽभवन्नथ यदेनेनायोपयंस्तस्माद्यूपो नाम” ३.२.२.2.
कृषिकथा की पुरातनता और रामायण से इसके संबंध की बात ताे आज भी अधूरी रह गई, परंतु अगली पोस्ट में इसको, यदि संभव हुआ तो इसके कुछ अन्य पहलुओं को समझने का प्रयत्न करेंगे।