Post – 2019-07-27

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
मैं नहीं जानता लिखा क्या है!

द्विवेदी जी पर लिखने की न तो कोई योजना थी, न तैयारी, यद्यपि वह उन दो व्यक्तियों में से एक हैं जिनसे मैं निकटता अनुभव करता हूं, जबकि उन दोनों में परस्पर विरोध भाव देखा जाता रहा है और इसके रगड़े में आचार्य शुक्ल ही नहीं, तुलसीदास और कबीर तक आ जाते हैं । विरोध था या दृष्टिकोण की भिन्नता यह नहीं जानता। ये हैं डा. रामविलास शर्मा और पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी। जो लोग आदर वश नाम लेना नहीं चाहते वे डॉक्टर साहब और पंडित जी कह कर काम चलाते हैं।

जैसे, जब नेताजी कहा जाता है, तो दूसरे सभी नेता किनारे डाल दिए जाते हैं, और इसका मतलब सबके लिए सुभाष चंद्र बोस होता है और सोशलिस्टों के लिए राजनारायण, इसी तरह हिंदी में पंडित जी का अर्थ होता है पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी, दूसरे सारे पंडित पीछे हट जाते हैं, वे जाति के पंडित हों या ज्ञान के पंडित हों, इस मामले में दोनों की समझ बराबर पड़ती है, सिवाय माकपा से जुड़े दिल्ली-वासियों के जिनके लिए पंडित जी का मतलब भगवती प्रसाद शर्मा होता है।

इसी तरह से हिंदी में डॉक्टर साहब का मतलब रामविलास शर्मा होता है। साहब हटा देने के बाद विरुद उन लोगों के काम भी आ सकता है जो डॉक्टर हैे ही नहीं – न पशुओं के, न आदमियों के, न किताबियों के- मिसाल के लिए अपना नाम ले तो सकता हूं, परंतु शिष्टाचार का तकाजा है, सो चुप रहना ही अच्छा।

जो भी हो दिवेदी जी अकेले ऐसे रचनाकार हैं जिनसे मुझे असमंजस के क्षणों में दिशा मिली है, इसलिए द्विवेदी जी को समर्पित भाव से याद करता हूँ। रामविलास जी से मेरा संबंध, अपने क्षेत्र में आप या मैं के तनाव से ग्रस्त रहा है, परंतु सभी दृष्टियों से बड़े तो वही थे। दूर से कठोर दीखने वाले रामविलास शर्मा विचारों की दृढ़ता के कारण ऐसे लगते थे। व्यक्ति के रूप में जितना कोमल हृदय उनका था, उसका पता उनसे जुड़े लोगों को ही हो सकता है।

इन दोनों पर लिख पाता तो कृतार्थता अनुभव होती। डॉक्टर साहब को तो अपनी ओर से ही लिखने का वचन भी दिया था, डेढ़ सौ पन्ने लिखे, दूसरे दबाव ऐसे प्रबल हो गए कि वहां से ध्यान हटा तो अब तक उधर गया ही नहीं। द्विवेदी जी पर लिखने के लिए जिस तैयारी की जरूरत थी वह तैयारी मैं कर ही नहीं सका।

प्रयाग से द्विवेदी जी पर निकलने वाले एक विशेषांक के संपादक ने आग्रह किया तो सहमत हो गया और उनका अंक मेरे कारण रुका न रह जाए इसलिए टुकड़ों में लिखकर पूरा करना चाहता हूं। आज की कड़ी को अंतिम कड़ी बनाना चाहता था। बन न पाएगा इसके लक्षण अभी से दिखाई देने लगे हैं।

संपादक को यह अच्छा न लगेगा कि कोई लेख उसके अंक में प्रकाशित होने से पहले ही लोगों की जानकारी में आ जाए। परंतु आदतें बदलती हैं तो पुरानी यादें छूटती भी हैं। उन पर लौटना मुश्किल होता है। जब हाथ से लिखता था, तो यह सोचकर कि मनहर चौहान टाइपराइटर पर सीधे लिखते हैं, हैरानी होती थी। सुनता था जैनेंद्र जी अपनी रचनाएं बोल कर लिखाया करते हैं तो हैरानी होती थी।

उन दिनों आसमान की छत के नीचे रहने वाले मुझ जैसे व्यक्ति को जीविका के लिए अपने वांछित क्षेत्र में पसीना बहाने की, जगह, अनुवाद करना पड़ता था। प्रति लिखित नहीं टंकित ही देनी होगी यह नियम था। टाइपिस्टों की गलतियां सुधारने में उतनी ही मेहनत लगती थी जितनी वाणीलेखन की सुविधा उठाने के बाद संशोधन में लगती है।

तंग आकर, हो सकता है टाइप का खर्चा बचाने के लिए भी 63-64 में टाइपराइटर पर काम करना शुरू किया तो कुछ दिनों तक परेशानी झेलनी बड़ी, महीने 2 महीने के बाद हाथ से लिखने पर अनुवाद सँभल ही न पाए, टाइपराइटर पर काम आसान होने लगा। फिर पचीस एक साल बाद वर्ड में काम करना शुरू हुआ तो टाइपराइटर पर लिख ही नहीं सकता था। माइक्रोसॉफ्ट इंटरनेट के बाद भी सुविधाएं मिलीं तो आखिरी मंजिल फेसबुक बन गया। यदि सोचना और लिखना है तो इसी पर संभव है अन्यथा लिख ही नहीं सकता। यही मेरी पटरी और कलम बन गया है। यदि संपादक मेरे फेसबुक पर नजर डालते हैं तो मेरी लाचारी को समझ कर इस मित्र मंडली के बीच पढ़ने सुनाने की सीमा को समझ पाएंगे।

हम स्वयं नहीं लिखते हैं बहुत सी चीजें एक साथ होती हैं जिनमें कुछ लिखा जाता है। जगह बदलने पर, मेज कुर्सी बदलने पर, लिखने के साधन बदलने पर बदली परिस्थिति से समायोजित होने से पहले तक हमारा लिखना स्थगित या कामचलाऊ बना रहता है।

मेरे साथ एक और दिक्कत है, जिस विषय पर लिख रहा हूँ किसी कारण से उससे हटने के बाद, वापस लौटना बहुत कठिन हो जाता है। परंतु फेसबुक पर लिखने का एक और नुकसान भी है। बीच में आने वाली प्रतिक्रियाएं और अपेक्षाएं पहले से सोची हुई योजना को किसी न किसी अनुपात में बदल देती हैं। मैं एक रचनाकार के रूप में द्विवेदी जी पर यह अंतिम कड़ी लिखना चाहता था। बीच में कुछ सवाल उठाए गए, उनका समाधान भी जरूरी लगता है। यद्यपि इसके कारण जो लिखना था, उसके लिए जगह कम पड़ जाएगी, या बचेगी ही नहीं, यह संकट मंडरा रहा है।

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संभवतः विद्यानिवास जी ने एक बार, जब द्विवेदी जी से पूछा, “आपकी नजर में आप की सर्वश्रेष्ठ रचना कौन सी है?” तो उन्होंने नामवर जी का नाम लिया था। परंतु यदि नामवर जी सचमुच उनकी रचना थे तो वह रचना उनकी सबसे कमजोर रचना है, कमजोर भी नहीं, अधूरी!

रामविलास जी की कठोरता की तरह नामवर जी की अक्खड़ता पर जिन लोगों का ध्यान गया होगा वे यह समझ ही नहीं सकते ज्ञान के क्षेत्र में नामवर जी कितने विनम्र थे। वैसी विनम्रता मेरी आकांक्षा तो है परंतु उपलब्धि नहीं। जिस तीसरे व्यक्ति के सम्मुख विनत अनुभव करता हूं वह नामवर जी ही हैं, अपनी समस्त सीमाओं के बावजूद, अपने समस्त जोड़-तोड़ के बावजूद नाम और जमा का हिसाब लगाने के बाद नामवर जी के खाते में जमा निकलता है और मेरे खाते में ऋण। कृतज्ञता किसी के प्रति नहीं है. किसी ने न मेरे लिए कुछ किया, न मैंने किसी से चाहा, परंतु कृतार्थता इन तीनों पर लिख कर अनुभव कर सकता था, जिसका समय नहीं है, जो दूसरे दबावों के बीच पीछे खिसक गए हैं।

प्रसंगवश इतना कहें कि यदि द्विवेदी जी के बस में किसी को बनाना होता तो क्या वह किसी एक शिष्य को चुनकर ही जैसा चाहते थे वैसा बनाते? अपने शिक्षण में बेईमानी या पक्षपात से काम लेते? परंतु यदि कोई पूछे द्विवेदी जी के बनारस में इतने सीमित काल में इतने मेधावी शिष्य कैसे पैदा हो गए – रामदरश मिश्र. शिवप्रसाद सिंह, नामवर जी, केदार जी, विश्वनाथ त्रिपाठी – तो सोचना होगा उनमें कुछ तो ऐसा था, जिसके कारण उनके शिष्यों में, जो नामावली आती है, वह किसी अन्य विभागाध्यक्ष के संदर्नभ में नहीं आती। उन्होंने कुछ तो दिया होगा।

क्या दिया? ज्ञान नहीं, वह तो सब को समान दिया, बनते तो सभी लगभग एक जैसे ही – प्रतिभा के अनुसार कुछ नीचे कुछ ऊपर। परंतु ये सभी अलग-अलग रास्तों के पथिक थे। द्विवेदी जी ने उन्हें स्नेह दिया, संरक्षण दिया, और मुक्ति दी। अपनी इच्छा के अनुसार किसी को ढालने बनाने का प्रयास ही नहीं किया, फिर नामवर जी को द्विवेदी जी ने अपनी कृति कहा तो इस असमंजस में कहा होगा कि छोटी बड़ी रचना लेखक के लिए होती ही नहीं, पाठकों के अपने चुनाव के कारण, आलोचकों की नकलनवीसी के कारण , कुछ कृतियों के साथ उसकी पहचान जुड़ जाती है और लोग उन्हें उसकी सर्वोत्तम रचना मानने लगते हैं, जबकि उसने अपनी प्रत्येक रचना में अपना सब कुछ उड़ेलने का प्रयत्न किया है, इसलिए जैसे पिता के लिए यह तय करना कठिन होता है उसकी सबसे प्रिय संतान कौन सी है, उसी तरह रचनाकार के लिए यह तय करना कठिन होता है कि उसकी नजर में उस की सर्वश्रेष्ठ रचना कौन सी है।

फिर भी पिता को नाम लेना ही पड़े तो वह अपनी सबसे सफल या होनहार संतान का नाम लेगा और गुरु अपने सबसे प्रखर शिष्य का नाम लेगा। दिवेदी जी के हाथ में पड़ने से पहले उनके सभी शिष्य जो थे वही थे, द्विवेदी जी के स्पर्श से उनको आत्मविश्वास मिला और अपनी संभावनाओं का आकाश मिला।

महत्वाकांक्षी पिता और गुरु अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपना प्रतिरूप अपनी किसी संतान या शिष्य में देखता है, जो नहीं पा सका या जिस ऊंचाई तक नहीं पहुंच सका, उस तक अपनी उस संतान या शिष्य के माध्यम से प्राप्त करना चाहता है। द्विवेदी जी ने यही चाहा था। इसी रूप में नामवर जी को अपनी ही सर्वोत्तम कृति मानते रहे होंगे। परंतु मंगलाचरण की कमी रह गई थी। वह कृति उनकी आकांक्षाओं को तोड़कर एक अलग दिशा में बढ़ गई। रचना बिगड़ गई। परंतु न तो नामवर जी में प्रतिभा की कमी के कारण, न ही अविनय के कारण।

Post – 2019-07-26

दैन्योपरि पलायनं
अर्जुनस्य प्रतिज्ञे द्वे न दैन्यं न पलायनम् ” –अर्जुन की दो प्रतिज्ञाएं हैं–न तो वह कभी दीनता प्रगट करेगा, और न ही पलायन करेगा–महा.भा. ।

द्विवेदी जी के साथ उल्टा पाठ बनता है – न प्रज्ञा न प्रतिज्ञानं दैन्योपरि पलायलम्।

द्विवेदी जी पर लिखते हुए सभी ने उनकी कमजोरी को देखने से इंकार किया है। मैं स्वयं इसकी मीमांसा में नहीं जाना चाहता, परंतु हम अपने श्रद्धेय जनों से प्रेरित और उनके आचार से अनुकूलित होते हैं और मेरी मोटी समझ के अनुसार जिन्हें हम किसी भी क्षेत्र की विभूति मानते हैं उनका आचरण ऐसा होना चाहिए कि उसका अनुसरण करने वालों को समग्र उत्थान हो सके।

मोटी समझ धरी रह जाती है जब बारीक समझ से विचार करने पर हम पाते हैं कि महानता एकदिश होती है। महान विभूतियों के सभी पक्ष हमारे लिए अनुकरणीय नहीं होते।

द्विवेदी जी इतने दीन-हीन परिवार में नहीं पैदा हुए थे कि अपनी दीनता का रोना रोते। छात्र जीवन में यह सच लग सकता था, पर शांतिनिकेतन में सबसे प्रतिष्ठित पद पर रहते हुए, जो सुविधाएं अपने समकक्ष दूसरों को सुलभ नहीं थीं, उनको पाते हुए भी, केवल इस लालसा में कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में, जिसका बौद्धिक पर्यावरण उस पर्यावरण के विपरीत होगा, जिसमें पहुंचने के बाद उनका पुनर्जन्म हुआ था, वापस आना शवसाधना का ही एक रूप था, जिसे रामविलास जी ने, एक दूसरे प्रसंग में, इस्तेमाल किया था जिसने आलोचना की चिंताधारा को प्रभावित किया।

परंतु कुछ और पाने की आकांक्षा ने उनके विवेक को अवरुद्ध कर दिया था। संज्ञा के अभाव की बात इसी संदर्भ में की जा सकती है। मुझे सुमन जी को लिखे गए आत्मीय पत्रों को पढ़ते हुए अक्सर अंतर्व्यथा होती है क्योंकि अनजाने ही द्विवेदी जी मेरे आचार्य बन बैठे। जिंदगी के एक पिछले पड़ाव पर मुझे लगा मैं द्विवेदी जी से आगे बढ़ा ही नहीं हूं और फिर भी द्विवेदी जी मुझसे बहुत पीछे छूट चुके हैं। लगा मैं उसी चेतना के ग्राफ के अनुसार तरंगित और उद्वेलित होता रहा हूं और इस प्रपंच के कारण इस भ्रम का शिकार होता रहा हूँ कि मैं अगले जमाने को प्रस्तुत कर रहा हूं और इस भ्रम में ही एक ऐसा आलोक मिला हो, जिसके बाद लगा हो उन्होंंने इस कोण से तो देखा ही नहीं, होते तो दिखाता, और कहता आपने तो सत्य का दर्शन ही नहीं किया, अध्यास या प्रतीति को ही यथार्थ समझ बैठे।

अपने प्रमाण पुरुष का कद ही छोटा हो जाए तो आघात तो अनुभव होगा ही। उसी से अपने को भी नापने की जरूरत अनुभव होती है। यदि उससे दारुण परिस्थितियों मैं मैंने स्वयं अपने दिन तनी हुई रीढ़ और तनी हुई गर्दन के साथ न काटे होते, और यदि इन पंक्तियों को लिखते हुए मुझे निराला, शमशेर, त्रिलोचन, विष्णु चंद्र शर्मा न याद आते तो मैं संतुलित रूप में दिवेदी जी से असहमत भी नहीं हो सकता था।

महान लोगों में उनकी अच्छाइयों के अनुरूप ही बुराइयाँ भी होती हैं। ऊंचे शिखर में ही पातालगामी खाइयाँ भी हो सकती हैं। द्विवेदी जी यहाँ भी हमें निराश करते हैं। उनकी कमियां भी बहुत मामूली हैं। न कोई स्कैंडल, न कोई आरोप, बस सुखी जीवन की चाह, जिसमें सुख की परिभाषा में भौतिक निश्चिंतता तो हो, बौद्धिक और आत्मिक उत्थान न हो ।

इसे सहन करने के लिए नया पाठ पढ़ने की जरूरत नहीं होती, परंतु जब द्विवेदी जी अपनी फक्कड़ता की बात करते हैं तो इनकी याद आती है और डींग से पहले द्विवेदी जी का जो कद था और छोटा हो जाता है। फक्कड़पन आर्थिक तंगी के बीच भी अपनी महिमा को बनाए रखने की ज़िद का ही दूसरा नाम है । इसके लिए एक सनक जरूरी होती है, द्विवेदी जी आजीवन नॉर्मल रहे। नॉर्मल का एक पर्याय पराकाष्ठा है, तो दूसरा औसत। द्विवेदी जी व्यक्ति के रूप में दूसरी कोटि में आते हैं।

वह किसी मोर्चे पर डट कर खड़े ही न हुए, लगातार भागते रहे, उम्मीद करते रहे कि उनकी लड़ाई कोई और लडे़, पर काव्यालंकारों मे केवल अर्थान्तरन्यास पर ध्यान देते रहे । वह उन लोगों में थे जिन्होंने आपातकाल का समर्थन किया था और उस मनीषी से अपना संबंध जोडते थे जिसने जलियाँवाला कांड के बाद नाइट की उपाधि लौटाई थी। वचने किं दरिद्रता।

Post – 2019-07-25

आचार्य द्विवेदी आचार्य नहीं थे

दुर्भाग्य के कई रूप होते हैं, इनमें से एक है आप का महिमामंडन करने के लिए किसी ऐसे शब्द का प्रयोग जो किसी सिली सिलाई पोशाक की तरह आपको फिट न आता हो; जिसमें आप कसे और फँसे अनुभव करें; या जो इतना फैला हो कि उसमें आप जैसा एक और इंसान समा तो सके पर हाथ-पाँव न हिला सके और आप इंसान होते हुए भी चिड़ियों और जानवरों को भगाने के लिए खेतों में खड़े किए गए धोखे ( scarecrow) जैसा अनुभव करें और फिर भी लबादा उतार कर फेंकने का साहस न जुटा पाएँ।

हिंदी में दो ही आचार्य हुए हैं। एक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और दूसरे रामचंद्र शुक्ल जिनके साथ कई लोग आचार्य शब्द को पूर्व पद के रूप में लगा देते हैं। लगा दें, परंतु यह विरुद दोनों को फबता है। आचार्य वह है जो अपने आचरण से अथवा अपनी शिक्षा से आचार के मानक तैयार करे, उनके अनुसार अपने प्रभाव क्षेत्र में आने वाले व्यक्तियों को उसके ढाले या प्रेरित करे।

इनके साथ एक महिमा भी जुड़ी हुई है और एक सीमा भी। कारण, वे अपने प्रभाव क्षेत्र के लोगों को असमंजस की स्थिति से उबार कर एक सुलझी अवस्था में पहुँचाते तो हैं परंतु उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए नई ऊंचाइयों पर पहुंचने का रास्ता बंद कर देते हैं ।

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल दोनों के मामले में इसे सही माना जा सकता है। परंतु इस दृष्टिकोण को अपना लेने के बाद उनके प्रति हमारी संवेदना इतनी भोथरी हो जाती है कि हम यह भी नहीं समझ पाते कि आगे का विद्रोही चरण इनके द्वारा तैयार की गई भूमि के अभाव में संभव ही नहीं था।

हिंदी जगत में इन दो आचार्यों के बिना हम तुतला सकते थे, तालियां बजा सकते थे, अपने विचारों को सही और जनमानस की भाषा में, पूरे सांस्कृतिक आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत नहीं कर सकते थे। देव भाग यहीं समाप्त होता है।
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आश्चर्य है कि द्विवेदी जी के आत्मीय शिष्यों में से कोई ऐसा नहीं हुआ जो द्विवेदी जी के अनूरूप एक कदम भी चल पाया हो। सचेत रूप में केवल एक व्यक्ति ने प्रयास किया, वह थे शिवप्रसाद सिंह । मूल का अनुकरण, मूल की अनुकृति नहीं होता, उसका ह्रास होता है, फिर भी द्विवेदी जी के प्रति सच्ची श्रद्धा का निवेदन अकेले शिव प्रसाद सिंह ने करना चाहा, कर न पाए, क्योंकि समझ की चूक थी। दूसरे शिष्य द्विवेदी जी की डफली बजाते रह गए कि यदि इसकी आवाज गली-गली घूमकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के नगाड़े से ऊपर उठाई जा सके तो वे अपनी गुरु दक्षिणा पूरी कर सकेंगे।

इसने हिंदी साहित्य के पर्यावरण को दूषित तो किया परंतु उनके लेखों और कारनामों से द्विवेदी जी का कद 1 सेंटीमीटर भी ऊंचा उठा होता तो इस सौभाग्य का समारोह मनाया जा सकता था। द्विवेदी जी ने जिस परंपरा की नींव डाली थी, उसको समझने तक की योग्यता का अभाव मुझे उनके शिष्यों में दिखाई देता है।

उनमें से किसी में यदि इतनी योग्यता भी होती कि वह द्विवेदी जी की परंपरा को पहचान पाता तो मुझे सबसे अधिक संतोष होता, क्योंकि उस व्यक्ति की खोज मैंने स्वयं की। यह वह व्यक्ति था, जिसके सामने नामवर जी नरम हो जाया करते थे और पीठ पीछे उसके विरोध में साठगांठ करने लगते थे। मैं उसका नाम नहीं लूंगा क्योंकि आप में से कई को यह भ्रम हो सकता है कि मैं अपनी प्रशंसा कर रहा हूं।

बात अकेले उनकी नहीं है द्विवेदी डफली बजाने वालों की है। वे सोच बैठे कि अपने निजी स्वार्थ से, आचार्य शुक्ल की आड़ लेकर, द्विवेदी जी का विरोध करने वालों से बदला लेने का एक ही तरीका है कि द्विवेदी जी को आचार्य शुक्ल से बड़ा सिद्ध कर दिया जाए। इसी चक्कर में द्विवेदी जी मनीषी कवि की भूमिका से उतार कर आचार्य बना दिए गए।

द्विवेदी जी आलोचक थे ही नहीं। हिंदी के आलोचक तो हो ही नहीं सकते थे। आलोचक के रूप में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के समक्ष, जिन्होंने हिंदी के एक एक कवि, हिंदी के एक-एक शब्द की पहचान की हो, कहीं ठहरते ही न थे। वह संस्कृत के विद्वान थे, हिंदी उन्हें लाचारी में अपनानी पड़ी।

साहित्य के दार्शनिक थे। वह कवि थे। कवि किसी भाषा का नहीं होता संवेदना की गहराइयों का होता है और इसलिए समग्र मानवता का होता है जिसे अपनी भाषा में उतारने के बाद आप पाते हैं वह तो आपका ही कवि है।

यह वह ऊँची भूमिका है, जिसमें, कविताई में थोड़ा बहुत हाथ पांव मारने के बावजूद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल पहुंच नहीं सकते थे। इसका स्वप्न भी वह देखते तो सँजो नहीं पाते।

यह वह भूमिका है जिसमें ज्ञान भी तुच्छ लगता, पांडित्य भी हास्यास्पद लगता है। हिंदी में यदि केवल दो आचार्य हुए, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल, तो हिंदी में ही नहीं मेरी सीमित जानकारी के भारतीय साहित्य में मेरे सामने केवल 3 नाम आते हैंः अनाचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, गुलेरी और तुलसीदास। ज्ञान की सिद्धावस्था में पहुंचे हुए ज्ञान का उपहास करते हुए जिस भी चीज को छू दें वह मोम बनकर चीख उठे, मुझे द्रवित तो किया, आकार भी तो दो और उनका अट्टहास ठोस हो कर कलाकृति में बदल जाए।

उनका समस्त लेखन सभी विधाओं को तोड़ता है अपनी स्वतंत्रता और निजता के साथ, जैसे प्रकृति की प्रत्येक उत्पत्ति एक सार्वभौम सीमा के भीतर एक वृक्ष की तरह अब तक के सभी वृक्षों की सीमाएं तोड़ता हुआ अपने नियम से बढ़ता है।

Post – 2019-07-24

जाहिलिया की व्युत्पत्ति

जाहिलिया अरबी का शब्द है। इसका मूल जहल है जिससे जाहिल शब्द निकला है जिसका अर्थ मूर्ख है। इस विषय में आधिकारिक सूचना नहीं मिलेगी परंतु हमारा अनुमान है कि इसका अर्थ बुद्धिमान हुआ करता था और यह जहन का पूर्व रूप था। अनुमान इस तथ्य पर आधारित है संस्कृत में कुत् (देखें भो. कूतना- अनुमान करना; सं- कौतुक-जिज्ञासा; कुत्ता – जागरूक रहने वाला प्राणी)/ कित् (दे. चि-कित्सा, वि-चि-कित्-सा – संदेह, दुविधा) अभिप्राय जानना हुआ करता था और इसी के कारण कौत्स एक ऋषि का नाम था। परंतु आगे चलकर एक अन्य विद्वान कौत्स नाम के हुए हैं जिन्होंने वेदों की घोर भर्त्सना की। उसके बाद कुत्स का अर्थ परिवर्तन हो गया और यह घृणित के आशय में क्यों होने लगा, जिससे कुत्सित शब्द निकला है। इसी तरह मोहम्मद के अपने खानदान में जहल नाम के एक व्यक्ति हुए थे। वह न केवल मोहम्मद के विचारों का विरोध करते थे, अपितु जिन लोगों के बीच में मोहम्मद इल्हामों ही बात करते थे, उनके बीच जाकर वह उन्हें धूर्त, मक्कार, ढोंगी आदि कह कर दुष्प्रचार किया करते थे। जाहिलिया अरबी का शब्द है। इसका मूल जहल है जिससे जाहिल शब्द निकला है जिसका अर्थ मूर्ख है।

इस विषय में आधिकारिक सूचना नहीं मिलेगी परंतु हमारा अनुमान है कि इसका अर्थ बुद्धिमान हुआ करता था और यह जहन का पूर्व रूप था। अनुमान इस तथ्य पर आधारित है संस्कृत में कुत्, कित् का अभिप्राय जानना हुआ करता था और इसी के कारण कौत्स एक ऋषि का नाम था। परंतु आगे चलकर एक अन्य विद्वान कौत्स नाम के हुए हैं जिन्होंने वेदों की घोर भर्त्सना की। उसके बाद कुत्स का अर्थ परिवर्तन हो गया और यह घृणित के आशय में क्यों होने लगा, जिससे कुत्सित शब्द निकला है। इसी तरह मोहम्मद के अपने खानदान में जहल नाम के एक व्यक्ति हुए थे। वह न केवल मोहम्मद के विचारों का विरोध करते थे , अपितु जिन लोगों के बीच में मोहम्मद इल्हामों ही बात की करते थे, उनके बीच जाकर वह उन्हें धूर्त, मक्कार, ढोंगी आदि कह कर दुष्प्रचार किया करते थे। आगे चलकर देखेंगे कि यह अब्बू जहल ही था, जिसने मोहम्मद को अपशब्द कहे थे तो हमजा ने उसका असर तोड़ दिया था, जब हाशिम कुनबे के दूसरे सभी लोग मोहम्मद के साथ निर्वासन की जिंदगी जीने का फैसला करके चले गए तो यह अकेला था जिसने जाने से इंकार किया। यही व्यक्ति है जिसने बद्र के जंग में नेतृत्व किया था और मारा गया था और जिसके सिर को अपने सामने पेश करने पर मोहम्मद ने प्रसन्नता प्रकट की (the Prophet said: ‘This is the head of Abu Jahl, the enemy of God’.)।

Post – 2019-07-23

हजारी प्रसाद द्विवेदी

मैंने अपने बी.ए. के ऐच्छिक विषयों में संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य लिया था और हिंदी साहित्य इसलिए छोड़ दिया था कि एम.ए. में मुझे हिंदी लेनी थी जिसके लिए मैं संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य के ज्ञान को जरूरी समझता था। आगरा विश्वविद्यालय में तीनों साहित्य के विषय वर्जित थे, इसलिए जिससे सब से अधिक लगाव था, उसे छोड़कर दर्शन शास्त्र चुनाव किया।

निर्णय बहुत सही था, मेरे बौद्धिक कर्म के लिए, पर इच्छा हुई बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में दाखिला लूं।

जेब में पैसा नहीं। स्कॉलरशिप के कुछ पैसे बाकी थे। वे मिले। उनकी बदौलत बनारस पहुंच गए। सोचा समस्या का समाधान वहां की परिस्थितियों के अनुसार निकाला जाएगा। पहुंचे तो पता चला प्रवेश के लिए फार्म तक नहीं मिल सकते। एक उपाय था। यदि डॉक्टर मेनन जो प्रवेश के अध्यक्ष थे, स्वीकृति दे दें तो प्रवेश पत्र मिल सकता है।

अपने कॉलेज से हम दो छात्र साथ गए थे। रजिस्ट्रार दफ्तर से कुछ खिन्न से पता लगा कर उनके बंगले पहुँचे। पता चला अभी वह विभाग से लौटे ही नहीं हैं।

वापस लौटने लगे तो अभी उनके बंगले की सीमा भी पार न की थी कि देखा एक ठिगने कद का नितांत साधारण दिखने वाला, ऊपर आधी बाँह की कमीज और नीचे लुंगी को उलट कर कमर में खोंसे एक आदमी चला आ रहा है। यदि हमें वापस लौटते देख कर उसने स्वयं न पूछा होता तो हम सोच भी नहीं सकते थे कि आर्ट फैकल्टी के डीन और प्रवेश परीक्षा के सर्वे सर्वा डॉक्टर मेनन यही हैं।
उन्होंने पूछा हम कहां से आए हैं, फिर कहां ठहरे हैं, और फिर क्या हमने खाना खा लिया है। वह अपने घर पर लंच के लिए आए थे। हमारे सभी उत्तर संतोषजनक लगे, गो हालत संतोषजनक नहीं थी, पर हमें तो ठिकाना या खाना नहीं चाहिए था। प्रवेश के लिए फार्म चाहिए था। उन्होंने अब पूछा, किस काम से आए थे, और जब हमने बताया तो उन्होंने एक स्लिप पर लिख कर दिया फार्म दे दिया जाए, और कहा यदि कोई कठिनाई हो तो आ जाना मैं साथ चलूँगा।

कठिनाई होनी ही नहीं थी, फार्म मिल गया। हमने इतना सरल इतना आत्मीय व्यवहार कभी देखा ही नहीं था । मैं इतना अभिभूत था और आज तक हूँ कि उस ठिगने से आदमी से ऊंचा न कोई व्यक्ति तब लगा, न आज तक कोई दूसरा दिखाई दिया।

समस्या यह थी कि अंग्रेजी में मेरे अंक अच्छे थे और उसमें मुझे दाखिला मिल सकता था। परंतु मैंने अंग्रेजी से स्नातक इसलिए किया था कि m.a. में मुझे हिंदी लेनी है। बी.ए. जिसने हिंदी से न किया हो वह m.a. में हिंदी नहीं ले सकता था ।

अगले दिन द्विवेदी जी के निकट पहुंचा। वह अपने शिष्यों से घिरे, कुछ है झूमते हुए, बात करते हुए, गंभीर मुद्रा में चल रहे थे। साथ चलने वालों में केदार जी भी थे। साहित्यिक संबंधों के कारण वह मुझे जानते थे। निकट आए। मैंने समस्या बताई। वह द्विवेदी जी के पास गए, बात की और लौटकर बताया नियम इसकी अनुमति नहीं देते। कुछ हो नहीं सकता।

नियम तो नियम हैं। द्विवेदी जी उन्हें बदल नहीं सकते थे, परंतु हमारे किशोर मन पर मेनन के व्यवहार के कारण ऐसा प्रभाव पड़ा कि अपनी भव्य काया और गंभीरता के बावजूद वह मेनन के सामने इतने अगण्य लगे जिसे शब्दों की भाषा में बयान नहीं किया जा सकता, आवेग की भाषा में साझीदारी संभव नहीं है।

किशोरावस्था की बात अलग है, वयस्क होने पर भी, यह समझने पर भी कि उन्होंने जो कुछ किया वह गलत नहीं था, मैं स्वयं भी यही करता और करता हूं, परंतु व्यक्ति के रूप में द्विवेदी जी, मुझे कभी प्रभावित न कर सके। यह उनकी समस्या नहीं है, मेरी समस्या है। मनोराग और मनोमालिन्य हमारे चेतन व्यवहार की पकड से कितने परे रहते हैं, इसे मैंने ऐसे ही अनुभव के माध्यम से जाना है।

Post – 2019-07-23

कुहासे के पीछे शमा जल रही है
उसे देखना हो तो चिलमन हटाओ।

Post – 2019-07-22

जो जह्रे हलाहल है अमृत भी वही नादाँ

सवाल इतने हैं उनसे निबटने चलें तो बाहर का रास्ता बंद हो जाएगा। हमारा प्रयोजन न तो इस्लाम के प्रति विद्वेष पैदा करना है, न ही मोहम्मद साहब के व्यक्तित्व का अवमूल्यन। यह सिद्ध करना तो हो ही नहीं सकता की हिंदू समाज दूसरों से अधिक अच्छा है।

धर्म कोई भी हो, परलोक के किसी रूप से प्रेरणा ग्रहण करता हो, वह इस लोक में सुख, शांति और विश्वास से जीने के रास्ते में कई तरह की रुकावटें पैदा करता है। समाज की बागडोर बौद्धिक दृष्टि से कुंद, नैतिक दृष्टि से संदेहास्पद, सामाजिक दृष्टि से गैर जिम्मेदार, और देश दुनिया से बेपरवाह पंडों, महंतों, पुरोहितों, मुल्लाओं, पादरियों के हाथ में सौंप दी जाती है, जो सबसे चिंताजनक बात है। मुहावरा मुझे याद नहीं, वाक्य दारा का है, और भाव भाव यह है जहां मुल्ला मुल्ला की चलती है वहाँ इंसान का बसर नहीं ।

यह बात केवल मुल्लों के विषय में सही नहीं है अपने धार्मिक समुदाय पर कब्जा जमाने वाले या जमाने का प्रयत्न करने वाले ऊपर के सभी लोगों के विषय में सही है।

ये समझ की जगह उन्माद पैदा करते हैंं। अपने ही समाज को बांध कर रखना चाहते हैं।

ये दूसरों की कमाई पर पलने वाले घोर आत्मकेंद्रित है प्राणी होते हैं जो अपने हित के लिए, अपने ही समाज को पीछे ले जाने के अतिरिक्त कोई काम नहीं करते और अपनी धाक बनाए रखने के लिए उसे आफत में झोंक देते हैं।

इसके बाद भी हमारी सामाजिक पहचान धर्म, पंथ, जाति से इस तरह जुड़ी हुई है कि इन्हें नकारने के बाद भी हम इनसे मुक्त नहीं हो पाते।

हम केवल यह देख सकते हैं कि किसकी पकड़ ढीली है, कौन मुक्त होने की अधिक छूट देता है और इस दृष्टि से संगठित धर्म, एकेश्वरवादी धर्म अपने अनुयायियों को धार्मिक कर्मकांड से बांधकर, अपना अधिक से अधिक गुलाम बनाने का प्रयत्न करते हैं। इसलिए जहां जहाँ जितने समय तक इनका जितना अधिक प्रभाव रहा है समाज उतना ही उद्विग्न, बर्बर और पतनोन्मुख रहा है, और इनसे मुक्त होने, या इनका शिकंजा ढीला पड़ने के अनुपात में ही कोई देश या समाज अधिक मानवीय, अधिक समावेशी, अधिक प्रबुद्ध और महत्वाकांक्षी बना है।

यह मात्र इत्तफाक नहीं है कि विश्व की महान सभ्यताएं एकेश्वरवादियों से पहले रही है और इनकी जकड़ से मुक्त होने के बाद ही अस्तित्व में आ सकी हैं ।

यह झमेला कि एकेश्वरवाद अधिक वैज्ञानिक है, बहुदेववाद पिछड़ी मानसिकता की देन है, सर्वेश्वरवाद आदिम चेतना की उपज है़, एकेश्वरवादी सोच का परिणाम जो स्वयं बहुदेववाद का समर्थन करता है।

यह बात चौंकाने वाली लगेगी, परंतु यदि तुम्हारा अल्लाह /गॉड/ यह्व अपने कबीले के लिए ही है अपनी धर्म सीमा में ही रहता है, तो तुम्हारे अल्लाह के अलावा दूसरे अल्लाह तो तुम्हारी संकीर्णता से ही पैदा हो गए, दुनिया में अपनी अपनी अपनी भाषा के अपने अपने इलाके में रहने वाले बहुत सारे इसी तर्क से पैदा हो जाएंगे।

सैद्धांतिक रूप में सभी एकेश्वरवादी धर्म इतने संकीर्ण हैं, कि अपने अल्लाह के नाम पर कबीले का सरदार तो पैदा कर सकते हैं, समूचे विश्व का, सभी प्राणियों का, हित चाहने वाले परमेश्वर की कल्पना नहीं कर सकते हैं। यह बहुदेववादियों में ही संभव है; तथाकथित जाहिलिया में भी था।

परम शक्ति के विषय में अपने ऊहापोह में वे ही ‘होते हुए भी न होने जैसे शून्यवत ब्रह्म’ की कल्पना कर सकते हैं, जिसे गॉड पार्टिकल के रूप में पहचानने का भौतिक विज्ञानियों ने आज दावा किया है।

अधिक विवेकसम्मत कौन है यह फैसला हम नहीं करना चाहेंगे। परंतु इसकी वैज्ञानिकता हमारे लिए इसमें नहीं है कि आज की वैज्ञानिक खोज वैदिक अवधारणा से मेल खाती है, बल्कि इसमें है कि किसी ने परम सत्ता के किसी रूप को गढ़कर दूसरों पर लादी की तरह लाद नहीं दिया; उन्हें प्राण का भय दिखाकर उसे ढोने को मजबूर नहीं किया, अपितु संशय का दरवाजा स्वयं खुला रहने दिया:
को अत हा वेद,क इह प्रदेचत, क्त आजाता, कुत इदं विसृष्टिः
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेन अथा को वेद यत् आ्रवभूव।।
इदं विसृष्टिः यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याद्यक्षः परमे व्योमन् सो अत हा वेद यदि वा न वेद।।ऋ.10.129.6,7
(अनुवाद आप इंटरनेट से तलाश कर सकते हैं)

जहां तक सर्वेश्वरवाद का सवाल है, पर्यावरण की चिंता, समस्त प्राणियों-पादपों को बचाने और समस्त सृष्टि की चिंता, हमारी आज की सबसे बड़ी चिंता है, आर यही सर्वेश्वरवाद का केंद्रीय सरोकार रहा है, इसलिए उसका उपहास नहीं किया जा सकता।

जो सबसे हास्यास्पद है वह है एक सर्वोपरि सत्ता, और उसके प्रतिस्पर्धी शैतान, अल्लाह के नीचे फरिश्तों की फौज, फरिश्तों में भी ऐसे जो अल्लाह को भी कुछ न समझें, अलग से जिन्नों का अस्तित्व और सब कुछ इस अल्लाह को मानने वालों तक सीमित जो उनके कबीले की जबान बोलता है, और अपराध के सभी रूपों का समर्थन करता है, बशर्ते यह उसे सजदा करने वाले, उसकी शान में करें, पर यही काम तो शैतान करता है।

शैतान से अल्लाह को बचाना, और शैतानी से से इंसानियत को बचाना मुसलमानों का पहला दायित्व होना चाहिए।

अल्लाह की अनन्यता में विश्वास, पैगंबर की पैगंबरी में विश्वास और फैसले के दिन और उसके दंड-पुरस्कार – दोजख और जन्नत में विश्वास ये तीन सिद्धांत हैं जिनमें से कोई मुसलमान किसी को नकार नहीं सकता। ट्रिनिटी यहां भी है।

अल्लाह की इच्छा के बिना कुछ हो ही नहीं सकता। अल्लाह की मर्जी के बिना न शैतान हो सकता है, न कुछ बिगाड़ सकता है। इसलिए मानना होगा कि वह भी अल्लाह का ही एक दूसरा रूप है। दोनो रूप कुरान में हैं। स्वस्थ या प्रसन्न अल्ला रहीम और करीम होता है, सबकी सुनता है, दुआएँ देता है, बीमार या कुपित अल्ला शैतान की भूमिका में आ जाता है, धमकियां देता, बर्वाद करता, मनमानी करता और किसी की नहीं सुनता।

स्वस्थ और अच्छे बुरे की समझ रखने वाला रहमदिल पैगंबर पहले के साथ होता है; आपा खोने वाला, सताने मे मजा लेने वाला पैगंबर दूसरे के चंगुल में आ जाता है।

मुसलमानों को यह सोचना होगा कि वेअपने समाज को स्वस्थ बनाना चाहते हैं आगे ले जाना चाहते हैं या बीमार बनाना चाहते हैं और इसी के अनुसार पैगंबर का, अपने अल्लाह और कुरान की अपनी आयतों का चुनाव करना होगा।

ब्रह्मांड की खोज की जा चुकी है, स्वर्ग नरक नहीं मिले। इसी धरती पर स्वर्ग बनाने या इसे नरक बनाने के बीच भी चुनाव करना होगा, परंतु यह स्वर्ग ऐसा नहीं हो सकता जिसमें इंसान बागड़ा बकरे की भूमिका में अपने जीवन की सार्थकता माने।

यह काम कोई मुल्ला मौलवी नहीं कर सकता जिसकी दिलचस्पी समाज को बीमार बनाए रखने मे होती है। यह काम मुस्लिम बुद्धिजीवी कर सकते हैं, कोई दूसरा बुुद्धिजीवी भी नहीं।

परंतु ईश्वर किसी का हो, विज्ञान ने और कुछ किया हो या नहीं, उन सभी अंधेरे कोनों को रौशन कर दिया है जहां देवता और ईश्वर छिपे रहते थे, इसलिए किसका ईश्वर सच्चा ईश्वर है, इस बहस में आज पड़ना नासमझी के सिवा कुछ नहीं है।

इस्लाम ने अपनी प्राचीन ज्ञान संप,दा, कला, साहित्य, वास्तु, इतिहास उन सभी को नष्ट कर दिया जिनकी कोई सभ्य समाज रक्षा करता हैा माता-पिता और पुरखे तक नरक की आग के हवाले कर दिए गए। हमें आज जो जानकारी मिलती है वह दूसरे समुदायों में प्रासंगिक उल्लेख और श्रुत परंपरा और पुरातत्व के माध्यम से। आज का मुस्लिम समाज जिन विशेषताओं पर गर्व करता है वे सभी जाहिलिया की देन या अवशेष हैं। अरबी, ईरानी और उर्दू साहित्य की जड़ें ‘जाहिलिया’मैं उतरी हुई हैं। तंज. चुस्तजबानी, दर्पोक्ति, हास्य यहां तक कि वह विशेषता भी जिसके लिए मियां चिर्की को याद किया जाता है:
Oh Banū Thuʿal, sons of whores!
What is your language?
It is a strange tongue.
Their prattle sounds like the rumbling of a camel’s gut,
Or the sound of a croaking bird, fluttering.
They’re from Dīyāf [in al-Shām ]; uncircumcised;
Their orator rises late, chewing on his own excrement*.
(*the pre-Islamic Ḥurayth ibn ʿAnnāb, recorded in Abū Tamām’s al-Ḥamāsa)

आया तो कविता में सूफी अंदाज भी जाहलिया के दौर से ही, परंतु कवियों के माध्यम से नहीं, साधकों के माध्यम से जिसकी ओर मुहम्मद की भी रुझान थी जो तत्व चिंतक ज़ैद (Zaid bin Amr meditated on higher and purer things ) और ऐसे ही कुछ दूसरे साधकों के प्रति उनकी निष्ठा से (अपनी हिजरत मे वह उस घाटी में रुके थे जिसमें वानी सलीम रहते थे, और जुम्मे की नमाज वहीं आरंभ की थी) प्रकट होता है।

मुझे ऐसा लगता है कि हनीफ अद्वैतवादवादी थे – न वे यहूदियों से प्रभावित थे, न ही ईसाइयों से, इस्लाम तो तब तक भ्रूणावस्था में भी न था। उनमें से कुछ ने तो कभी इस्लाम अपनाया ही नहीं, जिनमें जैद बिन अम्र स्वयं भी थे और इनके कारण इस्लाम में आरंभ से ही हनफी संप्रदाय पैदा हुआ जो न मुहम्मद को पैगंबर मानता था, क्योंकि पैगंबर मानते ही देववाद आरंभ हो जाता था, न कुरान को, परंतु वे इतने दृढ़ अद्वैतवादी थे कि उनसे पंगा लेने पर इस्लामी एकेश्वरवाद धूल चाटने लगता, इसलिए उसे सुन्नी मत में समायोजित कर लिया गया। यह आज सुन्नी मत के चार पन्थों में से सबसे पुराना और सबसे ज़्यादा अनुयायियों वाला पन्थ है।

परंतु मैं चाहता हूं मेरी इन बातों को माना न जाए, परखा जाए और जहाँ चूक दिखाई दे वहां इसका संकेत भी किया जाए और मुझे पुनर्विचार का अवसर भी दिया जाए। कारण, मैं इस विषय का अधिकारी विद्वान नहीं हूँ। जानकारी परिश्रम करके, कम समय में, जुटाई जा सकती है, परंतु अधिकार लंबे समय तक किसी समस्या के अंतर्विरोधों से जूझते हुए किसी समाधान पर पहुंचने के बाद ही प्राप्त होता है।

Post – 2019-07-21

विश्वासघात

हम पहले देख आए हैं कि मोहम्मद को अपने मत को मनवाने में बहुत कठिनाई हो रही थी। सबसे पहले उनको पैगंबर मारने के लिए पूरे साल में उनकी पत्नी सहित पांच पारिवारिक जन ही तैयार हुए थे। फिर जबर और यासर नाम के दो यहूदी और सुहैब नामक एक यवन मुसलमान बने जो गुलामी से हाल ही में छूटे थे। अबू बक्र (कुमारी के पिता) जिनका पुराना नाम अबदुल्ला बिन उस्मान था और जिनको यह नया नाम बाद में उनकी बेटी आयशा से मुहम्मद के निकाह के बाद मिला, उन्होंने इस्लाम कबूल करने के बाद अन्य कुछ के साथ दस गुलामों को भी मुसलमान बनाया था। फिर कुछ और रिश्तेदार – मां, पत्नी और बेटी के रिश्ते से मुसलमान बने थे। कहें, अरबों के बीच, कुरैशों के बीच उनको पाखंडी ही समझा जा रहा था, इसलिए अपने पैगंबर होने के दावे के अतिरिक्त अपनी साख जमाने के लिए किसी लोकमान्य आधार की जरूरत थी।

उनकी ओर आकर्षित होने वाले हनीफ जिब्रील के आवेश के कारण यह समझते थे कि वह इब्रानी मत का ही प्रचार कर रहे हैं। वह स्वयं भी यह दावा करते रहे कि वह इब्राहिम के मत का प्रचार करने के लिए भेजे गए हैं। कुरान में इब्राहिम का 100 से अधिक बार जिक्र आया है, जिनसे यह ध्वनित होता है कि मोहम्मद इब्राहिम के ही मत था नए ढंग से प्रचार कर रहे हैं। यहां हम उनका सांकेतिक हवाला ही दे सकते है:
Say: “We believe in Allah, and in what has been revealed to us and what was revealed to Abraham, Isma’il, Isaac, Jacob, and the Tribes, and in (the Books) given to Moses, Jesus, and the prophets, from their Lord: We make no distinction between one and another among them, and to Allah do we bow our will (in Islam).” (Surah Al-Imran, 84)
Say: “(Allah) speaketh the Truth: follow the religion of Abraham, the sane in faith; he was not of the Pagans.” (Surah Al-Imran, 95)
We had already given the people of Abraham the Book and Wisdom, and conferred upon them a great kingdom. (Surah An-Nisa�, 54)
And I follow the ways of my fathers,- Abraham, Isaac, and Jacob; and never could we attribute any partners whatever to Allah.that (comes) of the grace of Allah to us and to mankind: yet most men are not grateful. (Surah Yusuf, 38)

यहां तक कि मक्का भी इब्राहिम के कारण पवित्र था:
Behold! We gave the site, to Abraham, of the (Sacred) House, (saying): “Associate not anything (in worship) with Me; and sanctify My House for those who compass it round, or stand up, or bow, or prostrate themselves (therein in prayer). (Surah Al-Hajj, 26)

मदीना पहुंचने के बाद वहां यहूदियों के प्रभाव के कारण वह यह तो दोहराते ही रहे कि इब्राहिम का मजहब सच्चा मजहब है।So We have taught thee the inspired (Message), “Follow the ways of Abraham the True in Faith, and he joined not gods with Allah.” (Surah An-Nahl, 123)

हम देख आए हैं कि यहूदियों के साथ अपने रिश्ते मजबूत करने के लिए उन्होंने उनके साथ एक करार भी किया था, परंतु लूटपाट की आदत पड़ जाने के बाद, जब कुछ हाथ नहीं लगता था तो नजर यहूदियों की दौलत की ओर जाती थी। इसके कारण बहाना खोज कर उनको दोषी सिद्ध करने और लूटमार मार करने की योजनाएं बनती थीं। इसके बाद भी इब्राहिम को तो नकारा नहीं जा सकता था पर यह तो सिद्ध किया ही जा सकता इब्राहिम न तो यहूदी न ही ईसाई:
Abraham was not a Jew nor yet a Christian; but he was true in Faith, and bowed his will to Allah’s (Which is Islam), and he joined not gods with Allah. (Surah Al-Imran, 67)
Surah Al-Baqara.
The Jews say, “Ezra is the son of Allah “; and the Christians say, “The Messiah is the son of Allah .” That is their statement from their mouths; they imitate the saying of those who disbelieved [before them]. May Allah destroy them; how are they deluded?
अब जिब्रील प्रगट हो कर सबसे पहले मूर्ति पूजा का विरोध करने वाले यहूदियों को मूर्तिपूजक सिद्ध कर देते हैं और उनका सफाया करने का आदेश देते है। करार इसके साथ खत्म हो जाता है और फिर उनके धन दौलत बाल बच्चों और स्वयं उनके साथ क्या किया जाता है इसका उल्लेख हम पहले कर आए हैं। किताब के मानने वालों की परिभाषा बदल गई,’O believers kill and fight those who do not believe in God, that is, the Jews who believe in Duality and the Christians who are believers in a Trinity.’

इसी तरह का एक दूसरा करार मोहम्मद ने मक्का के कुरेशों से किया था जिसके अनुसार 10 साल तक शांति रहनी थी। किसी को किसी के साथ किसी तरह का फसाद नहीं करना था। जो लोग इस्लाम कबूल करना चाहे उनको इसे कबूल करने की छूट थी। जो लोग देव पूजा करते थे, उन्हें इसकी छूट थी। यह करार मोहम्मद के मक्का पहुंचने के बाद आठवें साल में तब किया गया था जब उनको हज करने का इलहाम हुआ था।

वह एक बड़े दल के साथ हज करने पहुंचे थे। उन्होंने मक्का से कुछ दूर अपना डेरा डाला था। यह छोटे हज का मौका था। मक्का वालों ने उन्हें भीतर नहीं घुसने दिया, परंतु उसी मौके पर यह संधि हुई जिसके अनुसार इस वर्ष मुहम्मद को दल बल के साथ वापस होना था, और अगले वर्ष उनके हज की बारी थी, जिसमें मक्का वालों को दूर रहना था।

जो मोहम्मद के इल्हाम याने अल्लाह के फर्मान पर हज करने आए थे उनके गले वापसी को भी विजय बताने की बात समझ में आने से रही। मुहम्मद ने जो कुछ समझाया वह भी गले नहीं उतरने वाला था, परंतु मोहम्मद में इतनी विलक्षण प्रतिभा थी कि वह अपने अनुगामियों को कुछ भी समझा सकते थे और वे उनका कहा कुछ भी, आज तक, बिना सोचे विचारे समझते और मानते आए हैं।

हम विस्तार में गए बिना, यह प्रश्न करना चाहेंगे कि क्या इस संधि का मोहम्मद ने निर्वाह किया। यदि किया होता तो अरब का औल दुनिया का इतिहास कुछ अलग होता।
हमने प्रसंग को इस प्रसंग को इसलिए उठाया कि हमारे हिंदू इतिहासकार मध्यकाल की घटनाओं को, विश्वासघात को, वे वादे से मुकरने की प्रवृत्ति को गर्हित समझते रहे हैं, परंतु वह बहुत धार्मिक थे, लगातार मुल्लों से सलाह लेकर काम करते रहे हैं।

उन्होंने केवल अपने धर्म का निर्वाह किया, यदि धर्म ही ऐसा हो जिसमें नैतिकता की जगह न हो परंतु सफलता के लिए सभी तरह के अपराध क्षम्य हों, क्षम्य ही नहीं जन्नत की चाभी हों, तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। वे सभी मोहम्मद का अनुशरण करते हैं, इसीलिए मोहम्मद अली जो खिलाफत के दिनों मो.क. गांधी के पांव चूमा करते थे, जब यह कहा जघन्य से जघन्य मुसलमान गांधी से तो दूसरे लोग जो कुरान को नहीं जानते थे, इस्लाम को नहीं जानते थे, उन्हें हिंदू पैमाने से मापने की कोशिश करते थे, नाराज हो गए, यह गांधी थे जिन्होंने कुरान और मुस्लिम मानसिकता का गहराई से अध्ययन किया था, उसके बचाव में खड़े हो गए रॉकी एक मुसलमान के रूप में वह जो कुछ कह रहे थे वह धर्म सम्मत था। परंतु यदि मुसलमान की दरिंदगी सभ्यता का मानक बना दी जाए दुनिया का क्या होगा यह जरूर सोचना चाहिए।

किसी को मध्य काल के अत्याचारों को दोष नहीं देना चाहिए, विश्वासघातियों की निंदा नहीं करनी चाहिए, वे अपने धर्म का पालन कर रहे थे। आज भी इसके लिए तत्पर रहते हैं।

Post – 2019-07-21

व्यक्तित्वांतर
क्या यह संभव है कि एक व्यक्ति शांति और सौहार्द का पक्षधर रहा हो वह वह किसी चरण पर दुर्दांत मानवता द्रोही बन जाए? यह उसी तरह संभव है जैसे जो व्यक्ति किसी को इतना प्यार करता हो कि उसके लिए प्राण तक दे दे वह उसका प्राण लेने को तैयार हो जाए। उग्र आवेग अपने प्रतिकूल गुण और धर्म में बदलने की क्षमता रखते हैं। जो स्थाई है वह गुण और धर्म नहीं, उग्रता है।
अपने शैशव और बचपन के अनुभवों से उत्पन्न कुंठाओं और ग्रंथियों से ऊपर उठने की लालसा से एक ओर तो उनके भीतर ईमानदारी, सादगी, दयालुता, सहनशीलता[] और दृढ़ता जैसे दुर्लभ गुणों का विकास किया, दूसरी ओर इनके प्रदर्शन से दूसरे लोगों से अलग और ऊपर सिद्ध होने की प्रवृत्ति ने उनसे इस श्रेष्ठता को स्वीकार कराने, उन पर हावी होने की लालसा – अहंमन्यता – पैदा हुई जो इन विशेषताओं से उत्पन्न व्याधि है, जिसके लिए मेगलमीनिया [megalomaniac (/mɛɡələˈmeɪnɪak) – an unnaturally strong wish for power and control, or the belief that you are very much more important and powerful than you really are ..] का प्रयोग किया जाता है। व्याधि का रूप लेने के कारण व्यक्ति अपनी स्वीकार्यता की जिद में अपने उन गुणों के विपरीत आचरण कर सकता है जिनके बल पर अपनी श्रेष्ठता का दावा करता है और इसके साथ ही इस भ्रम का भी शिकार हो सकता है कि अपने सिद्धांत पर चल रहा है।[
मोहम्मद को अपनेआरंभिक उपेक्षित जीवन के अनुभव के कारण दुखी, अपमानिक लोगों के प्रति गहरी सहानुभूति थी। गुलामों के प्रति, यतीमों के प्रति, अपने अनुयायियों के प्रति उनकी गहरी सहानुभूति उनके संपर्क में आने वालों को इतने अटूट भाव से जोड़ देती थी कि वे उनके किसी कथन को असत्य मान ही नहीं सकते थे। इसे बनाए रखने के लिए वह तकियाकलाम की तरह अपने पैगंबर होने का दावा दुहराते रहते हैं, जम कि दूसरे, उन्हें निकट से जानने वाले भी उनमें ऐसा कोई गुण नहीं देख पाते जो मानवेतर हो इसलिए वे उन्हें मक्कार समझ कर तिरस्कृत करते हैंः
‘Then said the chiefs of the people who believed not, “We see in thee but a man like ourselves; and we see not who have followed thee, except our meanest ones of hasty judgement, nor see we any excellence in you above ourselves. Nay, we deem you liars,”‘ Suratu Hud (xi) 29.
And the infidels say, ‘The Qur’an is a pious fraud of his own devising, and others have helped him with it.’
And they say, ‘Tales of the ancients that he hath put in writing! and they were dictated to him morn and even.’ Suratu’l-Furqan (xxv) 5-6.
मदीना में उनको इस तरह के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। धार्मिक आस्था की दृष्टि से यहां का परिवेश उनके अनुकूल था। परंतु मुहाजिरों की बढ़ने के बाद आर्थिक संकट इतना गहरा था कि मोहम्मद आर्तनाद सा करते हैं:
‘O Lord, they (i.e., Muslims,) go on foot, make them riders; they are hungry, satisfy them; they are naked, clothe them; they are poor, enrich them.’ Mudariju’n-Nabuwat, p. 559, cited by Sell in The Battle of Badr, p. 10
ये ही असह्य परिस्थितियां थीं जिनमें उनका पेट भरने के लिए लूटपाट का तरीका अनिवार्य हो जाता है, जिसके लिए कुरैशों के काफिले पर आक्रमण करना उन्हें एक नैतिक ओट देता है उनके अन्याय के कारण ही इन्हें अपना सब कुछ छोड़ कर भागना पड़ा, उनके द्वारा ही यह निरंतर अपमानित किए जाते रहे। और इस तरह एक एक कदम आगे बढ़ते हुए बद्र के जंग का वह मोड़ आता है जहां अल्लाह नेपथ्य में चला जाता है और तलवार सभी सवालों का जवाब देने लगती है। कठोरता नृशंसता का रूप लेती चली जाती है, अहंकार पराकाष्ठा पर पहुंचता जाता है। कारण, इन सब के पीछे है, अनुपात और औचित्य का ध्यान नहीं रह जाता, पर पीड़न में आनंद आने लगता। शैतान का बहकावा हो, या अल्लाह की जगह शैतान की दखलअंदाजी हो, शैतान का प्रवेश इसी दौर में होता है। वह पूरी कौम को मजहब की आड़ में शैतानी के रास्ते जाने को मजबूर कर देता है। स्वयं पैगंबर का आचरण ऐसा हो जाता है मानो उनके इस पर उनके सर भूत सवार हो गया हो। इलहाम के पहले अनुभव में उन्हें ऐसा ही लगा था बाद का उनका आचरण उसे प्रमाणित भी करने लगता है। कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है।
यहूदी सरदार किनान को यातना दी जाती है उसका सिर काट दिया जाता है, उसकी रूपवती पत्नी सफिया को गुलाम बना लिया जाता है। वह दहिया के हिस्से में आती। उस पर मुहम्मद की नजर पड़ती है तो वह उससे शादी का प्रस्ताव रखते हैं। वह उसे कबूल भी कर लेती है।
ऐसी ही स्थिति में, निकाह का प्रस्ताव स्वीकार करने वाली एक दूसरी स्त्री जैनब जिन्दा गाड़ दिए गए अपने पति और रिश्तेदारों का बदला लेने के लिए उनके भोजन में जहर मिला देती है। उनकी जान तो बच जाती है, पर इसको जान से हाथ धोना पड़ता है।
उनमें विवाह करने को विवश सभी महिलाओं में विद्रोह की क्षमता नहीं थी, अन्यथा गतायु और शरीर-विज्ञानी कारणों से अक्षम व्यक्ति से विवाह रचने वाली कितनी महिलाएं सचमुच उनसे संबंध रखना चाहती थी यह तय करना कठिन है।
चार विवाह करके समानता का बर्ताव करने का जो नाटक मोहम्मद ने आरंभ किया था उनकी जानकारी में भी व्यर्थ था।
बानी उमैया के कुछ लोग मुसलमान बन गए। उन्हें मदीने की जलवायु रास नहीं आई। मोहम्मद ने कृपा करके उन्हें ऊँट दे कर रेगिस्तानी ढंग से रहने की छूट दे दी। उनकी सेहत में सुधार आ गया पर उनके मन में लोभ पैदा हुआ, वे ऊंटों को लेकर चंपत होने लगे। मोहम्मद को पता चला तो उन्हें पकड़ कर लाया गया अवर्णनीय यातना देकर मारा गया। इसे उचित ठहराने के लिए आयत भी उतर आईः
The recompense of those who war against God and His Apostle, and go about to commit disorders on the earth, shall be that they shall be slain or crucified, or have their alternate hands and feet cut off, or be banished the land. This their disgrace in this world, and in the next, a great torment shall be theirs. Suratu’l-Ma’ida (v) 37.
क्रम में अंतर हैः
[5:33] The just retribution for those who fight GOD and His messenger, and commit horrendous crimes, is to be killed, or crucified, or to have their hands and feet cut off on alternate sides, or to be banished from the land. This is to humiliate them in this life, then they suffer a far worse retribution in the Hereafter.
जिस तरह की लूटपाट मक्का के मुसलमान करने लगे थे, उसी तरह की लूटपाट मदीना के व्यापारियों के काफिलों की भी होने लगी। इसका बदला लेने के लिए जैद को भेजा गया। उसने उस कबीले की एक हैसियत वाली बृद्धा उम्म किरिया के दोनों पांव दो ऊँटों से बाँध कर उल्टी दिशाओं में तब तक चलाया जब तक पूरा शरीर दो फाँक न हो गया। लौट कर उसने अपनी कारस्तानी बयान की तो मुहम्मद ने बाहों में भर कर चूम लिया।
अल्लाह मोहम्मद के साथ रहे हो, परंतु बीच बीच में मुसलमानों को अपने हमलों में पराजय का मुंह देखना पड़ता। ऐसे मामलों में वे यहूदियों को प्रताडित किया करते। खैबर का हमला ऐसा ही था। यहूदियों ने बचाव में अपने को असमर्थ पा कर समर्पण कर दिया। जिब्रील ने सलाह दी कि बानू क़ुराज़िया के किताबवाले मूर्तिपूजकों का सफाया करने से पहले तलवार को रुकने न दो। मुहम्मद ने उसे भरोसा दिया, अल्ला की कसम उसी तरह चूर कर दूँगा जैसे अंडे को पत्थर पर पटक कर किया जाता है। तमाम अनुनय-विनय और उनके साथ क्या सलूक किया जाए, इसके लिए न्याय का दिखावा करने के बाद फैसला यह हुआ कि मर्दों का वध किया जाएगा और औरतों और बच्चों को गुलाम बना कर बेच दिया जाएगा और उनका माल-मता सेना में बांटा जाएगा। मुहम्मद ने कहा, “तुमने अल्ला के फैसले के अनुसार ही फैसला दिया है।” मर्दों को मदीना ले जाया गया। मुहम्मद के आदेश से खंदक खोदी गई । अली और जुबैर को इस फैसले पर कत्ल करने के लिए चुना गया। आठ सौ लोगों के कत्ल से खंदक खून से भर गई। औरतों को आपस में बांट लिया गया। उनमें सबसे सुंदर रेहाना को मुहम्मद के हरम के लिए रख लिया गया।

Post – 2019-07-20

व्यक्तित्वांतर
(संपादन के समय ही संक्षेपण हो पाएगा। )

क्या यह संभव है कि एक व्यक्ति शांति और सौहार्द का पक्षधर रहा हो वह वह किसी चरण पर दुर्दांत मानवता द्रोही बन जाए? यह उसी तरह संभव है जैसे जो व्यक्ति किसी को इतना प्यार करता हो कि उसके लिए प्राण तक दे दे वह उसका प्राण लेने को तैयार हो जाए। उग्र आवेग अपने प्रतिकूल गुण और धर्म में बदलने की क्षमता रखते हैं। जो स्थाई है वह गुण और धर्म नहीं, उग्रता है।

अपने शैशव और बचपन के अनुभवों से उत्पन्न कुंठाओं और ग्रंथियों से ऊपर उठने की लालसा से एक ओर तो उनके भीतर ईमानदारी, सादगी, दयालुता, सहनशीलता[] और दृढ़ता जैसे दुर्लभ गुणों का विकास किया, दूसरी ओर इनके प्रदर्शन से दूसरे लोगों से अलग और ऊपर सिद्ध होने की प्रवृत्ति ने उनसे इस श्रेष्ठता को स्वीकार कराने, उन पर हावी होने की लालसा – अहंमन्यता – पैदा हुई जो इन विशेषताओं से उत्पन्न व्याधि है, जिसके लिए मेगलमीनिया [megalomaniac (/mɛɡələˈmeɪnɪak) – an unnaturally strong wish for power and control, or the belief that you are very much more important and powerful than you really are ..] का प्रयोग किया जाता है। व्याधि का रूप लेने के कारण व्यक्ति अपनी स्वीकार्यता की जिद में अपने उन गुणों के विपरीत आचरण कर सकता है जिनके बल पर अपनी श्रेष्ठता का दावा करता है और इसके साथ ही इस भ्रम का भी शिकार हो सकता है कि अपने सिद्धांत पर चल रहा है।[

मोहम्मद को अपनेआरंभिक उपेक्षित जीवन के अनुभव के कारण दुखी, अपमानिक लोगों के प्रति गहरी सहानुभूति थी। गुलामों के प्रति, यतीमों के प्रति, अपने अनुयायियों के प्रति उनकी गहरी सहानुभूति उनके संपर्क में आने वालों को इतने अटूट भाव से जोड़ देती थी कि वे उनके किसी कथन को असत्य मान ही नहीं सकते थे। इसे बनाए रखने के लिए वह तकियाकलाम की तरह अपने पैगंबर होने का दावा दुहराते रहते हैं, जम कि दूसरे, उन्हें निकट से जानने वाले भी उनमें ऐसा कोई गुण नहीं देख पाते जो मानवेतर हो इसलिए वे उन्हें मक्कार समझ कर तिरस्कृत करते हैंः
‘Then said the chiefs of the people who believed not, “We see in thee but a man like ourselves; and we see not who have followed thee, except our meanest ones of hasty judgement, nor see we any excellence in you above ourselves. Nay, we deem you liars,”‘ Suratu Hud (xi) 29.
And the infidels say, ‘The Qur’an is a pious fraud of his own devising, and others have helped him with it.’
And they say, ‘Tales of the ancients that he hath put in writing! and they were dictated to him morn and even.’ Suratu’l-Furqan (xxv) 5-6.

मदीना में उनको इस तरह के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। धार्मिक आस्था की दृष्टि से यहां का परिवेश उनके अनुकूल था। परंतु मुहाजिरों की बढ़ने के बाद आर्थिक संकट इतना गहरा था कि मोहम्मद आर्तनाद सा करते हैं:
‘O Lord, they (i.e., Muslims,) go on foot, make them riders; they are hungry, satisfy them; they are naked, clothe them; they are poor, enrich them.’ Mudariju’n-Nabuwat, p. 559, cited by Sell in The Battle of Badr, p. 10
ये ही असह्य परिस्थितियां थीं जिनमें उनका पेट भरने के लिए लूटपाट का तरीका अनिवार्य हो जाता है, जिसके लिए कुरैशों के काफिले पर आक्रमण करना उन्हें एक नैतिक ओट देता है उनके अन्याय के कारण ही इन्हें अपना सब कुछ छोड़ कर भागना पड़ा, उनके द्वारा ही यह निरंतर अपमानित किए जाते रहे। और इस तरह एक एक कदम आगे बढ़ते हुए बद्र के जंग का वह मोड़ आता है जहां अल्लाह नेपथ्य में चला जाता है और तलवार सभी सवालों का जवाब देने लगती है। कठोरता नृशंसता का रूप लेती चली जाती है, अहंकार पराकाष्ठा पर पहुंचता जाता है। कारण, इन सब के पीछे है, अनुपात और औचित्य का ध्यान नहीं रह जाता, पर पीड़न में आनंद आने लगता। शैतान का बहकावा हो, या अल्लाह की जगह शैतान की दखलअंदाजी हो, शैतान का प्रवेश इसी दौर में होता है। वह पूरी कौम को मजहब की आड़ में शैतानी के रास्ते जाने को मजबूर कर देता है। स्वयं पैगंबर का आचरण ऐसा हो जाता है मानो उनके इस पर उनके सर भूत सवार हो गया हो। इलहाम के पहले अनुभव में उन्हें ऐसा ही लगा था बाद का उनका आचरण उसे प्रमाणित भी करने लगता है। कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। हमारे साथ समस्या यह है कि अनुवाद करें तो जगह कम पड़ेगी, मूल का सहारा ले तो भी राहत नहीं मिलेगी। संक्षेप में कहें विश्वसनीयता का संकट पैदा होगा, फिर भी रास्ता बचता है कि कहा संक्षेप में जाए और टिप्पणी में स्रोत दे दिया चाए।
एक युद्ध में जिस स्त्री का पति मारा गया है, उसे गुलाम बना लिया गया है, उसे को सौंप दिया गया है, अपनी मौत के करीब पहुंचे पैगंबर उससे शादी का प्रस्ताव रखते हैं। वह उसे कबूल भी कर लेती है।
The Jewish chief Kinana was accused of concealing some treasure and according to some accounts, was tortured and beheaded . His wife Safiyya was a daughter of Huyay who had been slaughtered with the Bani Quraiza. She was a woman of great beauty and as she had lived near Madina with her father was probably known to Muhammad. She at first fell to the lot of a man called Dahiya,4 but when Muhammad’s attention was called to the fact of her high position amongst the Jews, he gave compensation to Dahiya and himself sought her in marriage, and strange to say she consented to become his tenth wife.

एक दूसरी ऐसे ही स्थिति में, निकाह का प्रस्ताव स्वीकार करने वाली स्त्री उनसे भोजन में विष मिला देती है, जान उनकी बन जाती है, जाती उसकी है जिसने उनसे बदला लेने की कोशिश की थी परंतु यह इस बात का भी प्रमाण है के बद्र के बाद उन्होंने स्त्रियों को अपमानित करने के लिए उनसे विवाह किया
One woman, Zainab bint Harith, by means of some poisoned goats flesh attempted to kill Muhammad, who had caused her husband and relatives to be put to earth, and atoned for her act by her death.
और उनमें सभी में विद्रोह की क्षमता नहीं थी, अन्यथा गतायु और शरीर-विज्ञानी कारणों से अक्षम व्यक्ति से विवाह रचने वाली सभी महिलाएं उनके अहंकार -तुष्टि का फास्ट बनी कितनी महिलाएं सचमुच उनसे आकर्षित की या संबंध बनाना चाहती थी या तय करना कठिन नहीं है।
चार विवाह करके समानता का बर्ताव करने का जो नाटक मोहम्मद ने आरंभ किया था उनकी जानकारी में भी व्यर्थ थाः
Suratu’n-Nisa’ (iv) 3, which sanctions four wives and the acquired slaves, seems to show that in polygamy there is a danger lest jealousy and ill-feeling may arise. The remedy suggested is monogamy: ‘If ye fear that ye shall not act equitably, then (marry) one only.’ Now Hafasa and ‘Ayisha apparently thought that they did not get equitable treatment and were jealous of Mary the Copt. Muhammad had neglected the Qur’anic remedy for such a state of things and hence all this domestic trouble. The verse quoted from Sura iv and this verse,Ye will not have it at all in your power to treat your wives alike, even though you would fain do so [Suratu’n-Nisa, (iv) 128]. इस तरह बहु विवाह, हरम, महिलाओं की यंत्रणा का एक रूप था और इसी यंत्रणा को आरंभ स्वयं मोहम्मद ने बद्र के जंग के बाद किया था। उनमें एक पर एक महिलाओं को बंदी बनाकर ऐसे संताप में जीने को विवश करना पर पीड़न में आनंद लेने का एक रूप थी।
5. बानी उमैया के कुछ लोग मुसलमान बन गए। उन्हें मदीने की जलवायु रास नहीं आई। मोहम्मद ने कृपा करके उन्हें ऊँट दे कर रेगिस्तानी ढंग से रहने की छूट दे दी। उनकी सेहत में सुधार आ गया पर उनके मन में लोभ पैदा हुआ, वे ऊंटों को लेकर चंपत होने लगे। मोहम्मद को पता चला तोः
The herdsmen who pursued them were cruelly tortured to death. Muhammad was naturally very angry, and when the culprits were captured and brought before him, he ordered that their eyes should be put out, their arms and legs cut off and their bodies impaled until life was extinct. It must, however, be stated that Muhammad seems to have felt that such severe torture in judicial punishments was a doubtful procedure, for he delivered the following
revelation:—

The recompense of those who war against God and His Apostle, and go about to commit disorders on the earth, shall be that they shall be slain or crucified, or have their alternate hands and feet cut off, or be banished the land. This their disgrace in this world, and in the next, a great torment shall be theirs. Suratu’l-Ma’ida (v) 37.
जिस तरह की लूटपाट मक्का के मुसलमान करने लगे थे, उसी तरह की लूटपाट मदीना के व्यापारियों के काफिलों पर भी होने लगे।
The traders at Madina were annoyed,and Zaid was sent with a strong party to punish the robbers. Their stronghold was captured and Umm Qiriya, an old woman, a person of some influence in her tribe, was cruelly put to death. Her legs were tied to camels, which were then driven in opposite directions, until she was torn asunder. Zaid on his return gave an account of his expedition to Muhammad who embraced and kissed him. It is not recorded that he
expressed disapprobation of this cruel deed.
अल्लाह मोहम्मद के साथ रहे हो, परंतु बीच बीच में मुसलमानों को अपने हमलों में पराजय का मुंह देखना पड़ता। ऐसे मामलों में वे यहूदियों को प्रताडित किया करते। खैबर का हमला ऐसा ही था। उन्होंने बचाव में अपने को असमर्थ पा कर समर्पण कर दिया। नतीजाः
The victory won, Gabriel appeared to Muhammad and told him not to put off his arms, for the angels had not done so for forty days. He then gave a direct command: ‘O Muhammad, arise to strike the idolaters who are possessors of the Book, the Bani Quraiza. By Allah I am going to batter their fort and to break it to pieces like the egg of a hen cast against a k.’ Muhammad obeyed and gave the order for the immediate march of an army of three thousand men, with ‘Ali as the standard bearer. The fortress was soon invested and the Jews, who seem to have laid in no stock of provision for a siege, quickly found themselves in great distress. After fifteen days or so had elapsed they requested permission to emigrate as the Bani Nadir had done. This was refused. They then offered to leave all their goods and chattels behind. The reply was that they must surrender unconditionally. …
तमाम विनती और मनुहार के बाद भी फैसला यह हुआ कि
‘This verily is my judgement, that the male captives shall be put to death, that the female captives and the children shall be sold into slavery, and the spoil be divided among the army.’ Any murmuring at this savage decree was at once stayed by
Muhammad who said: ‘Truly thou hast decided according to the judgement of God pronounced. on high from beyond the seven heavens.’ The men were then taken to Madina. Muhammad ordered a trench to be dug. The next day the Jews were brought forth in batches, and ‘Ali and Zubair were directed to slay them. Darkness came on before they had completed their bloody task. Torches were then brought to give light for the completion of this cruel deed. The blood of about eight hundred men flowed into the ditch, on the brink of which the victims were made to knee. Muhammad looked on with approval, and when Huyay bin Akhtab was brought before him said: ‘O enemy of God, at last the Most High has given thee into my hands and has made me thy judge.’ ome of the females were divided amongst the Muslims and the rest were sold as slaves. A beautiful widow, Raihana, whose husband had just been slaughtered, was reserved by Muhammad for his own harem,
कौन कह सकता है कि मुस्लिम आतंकवादी गुमराह हैं?