Post – 2019-07-04

रीतियां, रूढ़ियां और विश्वास (3)

असली और नकली का भेद
इस्लाम से पहले किसी अन्य समाज की ही तरह अरब समाज में भी किसी बच्चे को पुत्र बना लेने के बाद उसके साथ किसी तरह का भेद नहीं किया जाता था। मोहम्मद ने उसी का निर्वाह करते हुए, अपने पुत्रों के इंतकाल के बाद जईद काे गोद लेते हुए, अपनी वल्दियत प्रदान करते हुए उसका नाम जईद बिन मोहम्मद कर दिया था। अब इस नई जरूरत के कारण उससे न केवल तलाक दिलवाया गया, बल्कि उसके रक्त संबंध वाले पिता का नाम उसके साथ जोड़ा गया। अब वह दुबारा हरिस के पुत्र हो गए (Zaid was no longer spoken of as the son of Muhammad, but as Zaid ibn Haritha.)

कारण, पैगंबर होने के बाद मोहम्मद किसी के पिता नहीं रह गए। ”Muhammad is not the father of any of your men, but (he is) the Messenger of Allah, and the Seal of the Prophets: and Allah has full knowledge of all things.— Sura al-Ahzab Quran 33:40 (Translated by Yusuf Ali)

परंतु नकली मुसलमान, मुनाफिकून, पीठ पीछे इस घटना को लेकर एक दूसरे से शिकायत करने लगे।
[Al-Tabari states that Q33:40 was revealed because “the Munafiqun made this a topic of their conversation and reviled the Prophet, saying ‘Muhammad prohibits [marriage] with the [former] wives of one’s own sons, but he married the [former] wife of his son Zayd.'”]

अब पुत्र और पुत्री की परिभाषाएं भी बदलनी जरूरी हुईं। अब जो विधान हुए निम्न प्रकार थे :
1. पुत्र और पुत्री केवल अपनी विवाहिता से उत्पन्न संतान को माना जाएगा।
2. गुलाम की हर चीज पर मालिक का अधिकार होता है इसलिए उसकी पुत्री, पुत्र के साथ, जो चाहे कर सकता है।
3. रखैल, या गुलाम की पत्नी, पुत्री से संबंध रखने पर उससे उत्पन्न पुत्री से कोई आदमी सहवास कर सकता है। दूसरे सभी समाजों में इसे वर्जित माना जाता है। इनसेस्ट या पाप कर्म माना जाता है। केवल इस्लाम में ऐसा संबंध वैध माना जाने लगा। इसका एक परिणाम यह कि यदि कोई मुसलमान ऐसी विधवा से शादी करता है जिसकी पुत्री भी साथ में है, तो उससे यह दूसरा पिता सहवास कर सकता है, और कभी कभी जब इस तरह की घटनाएं सुनने में आती हैं तो हिंदुओं की समझ में नहीं आता, परंतु इस्लाम में ऐसा करना गुनाह नहीं है।
4. कोई मुसलमान किसी लड़के या लड़की को गोद ले सकता है परंतु इसके बाद इसे गोद लेना नहीं माना जा सकता। अब इनको दत्तक पुत्र की जगह पालित बालक या बालिका ही माना जा सकता है। इनके बड़े होने पर इनके साथ यौन संबंध को अनैतिक नहीं माना जा सकता।
5. इनको पालक पिता की संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मिलेगा। इसका हिस्साअपने जायज पिता की संपत्ति में ही मिलेगा।

विचित्र और दूसरों के लिए वर्जित और अनैतिक लगने वाले इंतजामों को कोई चुनौती नहीं दे सकता क्योंकि ऐसा अल्लाह के हुक्म से हो रहा हैः It is not fitting for a Believer, man or woman, when a matter has been decided by Allah and His Messenger to have any option about their decision: if any one disobeys Allah and His Messenger, he is indeed on a clearly wrong Path,
— Sura al-Ahzab Quran 33:36 (Translated by Yusuf Ali)

हिजाब
सामान्य व्यवहार में एक पुरुष और एक स्त्री का संबंध ही पारस्परिक विश्वास की रक्षा कर सकता है। किसी अन्य की उपस्थिति के साथ, वह वास्तविक हो या संदिग्ध, कलह और अपराध आरंभ हो जाते हैं। अनेक पत्नियों का हरम बसाने पर जो भीतरी कलह और भटकाव आरंभ होता है उसकी कहानियां किसी को पता नहीं चल सकती। मोहम्मद साहब के हरम में संख्या एक समय में नव-दस तक पहुंच चुकी थी। जिस मामले में स्वयं पैगंबर संयम नहीं बरत सकते थे उसमे उनके अनुयाई भी उन्हीं की राह पर चलें, यह स्वाभाविक था और इसलिए मोहम्मद साहब के हरम के लिए खतरा था।

उमर बिन खत्ताब ने शिकायत की, अल्लाह के पैगंबर, आपके घर में चरित्रवान इंसानों के अलावा चरित्रहीन लोग भी आपकी बीवियों से रब्त-जप्त रखते हैं। आप किसी तरह की रोक टोक क्यों नहीं रखते। [Umar bin Al-Khattab said: `O Messenger of Allah, both righteous and immoral people enter upon you, so why not instruct the Mothers of the believers to observe Hijab’ Then Allah revealed the Ayah of Hijab.” 2:125 And I said, `O Messenger of Allah, both righteous and immoral people enter upon your wives, so why do you not screen them’ Then Allah revealed the Ayah of Hijab.]

यहीं से आरंभ होती हैं पाबंदियां और बंधन। ऐसे मामलों में सहारा भी अल्लाह का ही रह जाता था:
O wives of the Prophet, you are not like anyone among women. If you fear Allah, then do not be soft in speech [to men], lest he in whose heart is disease should covet, but speak with appropriate speech. 33:32.God desires only to put away from you filth, O Folk of the House, and to make you completely pure.33.33

पता नहीं उन कालों में यह अर्थ विस्तार हुआ था या नहीं, कि असाधारण होने के कारण वे सभी मुसलमानों की माताएं हैं। परंतु यह बंधन भी किस काम का था जब रक्त संबंध वाली मां, और दूसरी माताओं में भी भेद किया जा सकता था, जैसे गोद लिए पुत्र और रक्त संबंध वाले पुत्र में किया जाता था।

जैनब के साथ विवाह के बाद इसके नमूने भी सामने आने लगे थे। यदि वह स्वयं उसकी सूरत देखकर होश गवां बैठे थे तो दूसरे तो उस जमाने से लेकर आज के जमाने तक उन्हीं के नक्शे कदम पर चल रहे हैं। उनको तो ऐसा करना ही था। मैं नीचे की टिप्पणी का अनुवाद नहीं करना चाहता। व्याख्या व्याख्या होती है। उसमें थोड़ा बहुत हेरफेर विचारक की अपनी समझ के अनुसार हो सकता है परंतु किसी को प्रमाण बनाकर उसका अनुवाद करने चलें तो अपराध दूना हो जाता है:
Al-Bukhari recorded that Anas bin Malik, may Allah be pleased with him, said: “When the Messenger of Allah married Zaynab bint Jahsh, he invited the people to eat, then they sat talking. When he wanted to get up, they did not get up. When he saw that, he got up anyway, and some of them got up, but three people remained sitting. The Prophet wanted to go in, but these people were sitting, then they got up and went away. I came and told the Prophet that they had left, then he came and entered. I wanted to follow him, but he put the screen between me and him. Then Allah revealed,

(O you who believe! Enter not the Prophet’s houses, unless permission is given to you for a meal, (and then) not (so early as) to wait for its preparation. But when you are invited, enter, and when you have taken your meal, disperse…)” Al-Bukhari also recorded this elsewhere. It was also recorded by Muslim and An-Nasa’i. Then Al-Bukhari recorded that Anas bin Malik said: “The Prophet married Zaynab bint Jahsh with (a wedding feast of) meat and bread. I sent someone to invite people to the feast, and some people came and ate, then left. Then another group came and ate, and left. I invited people until there was no one left to invite. I said, `O Messenger of Allah, I cannot find anyone else to invite.’ He said,
«ارْفَعُوا طَعَامَكُم»
(Take away the food.) There were three people left who were talking in the house. The Prophet went out until he came to the apartment of `A’ishah, may Allah be pleased with her, and he said,
«السَّلَامُ عَلَيْكُمْ أَهْلَ الْبَيْتِ وَرَحْمَةُ اللهِ وَبَرَكَاتُه»
(May peace be upon you, members of the household, and the mercy and blessings of Allah.) She said, `And upon you be peace and the mercy of Allah. How did you find your (new) wife, O Messenger of Allah May Allah bless you.’ He went round to the apartments of all his wives, and spoke with them as he had spoken with `A’ishah, and they spoke as `A’ishah had spoken. Then the Prophet came back, and those three people were still talking in the house. The Prophet was extremely shy, so he went out and headed towards `A’ishah’s apartment. I do not know whether I told him or someone else told him when the people had left, so he came back, and when he was standing with one foot over the threshold and the other foot outside, he placed the curtain between me and him, and the Ayah of Hijab was revealed.” This was recorded only by Al-Bukhari among the authors of the Six Books, apart from An-Nasa’i, in Al-Yaum wal-Laylah.[The Quran: Commentaries for 33.53, Al Ahzab (The allies)]

औरतों के लिए भी तीन किलेबंदियां, एक दीवार की, न वे बाहर निकल सकती थीं, न कोई दूसरा पति की इजाजत के बिना घर में घुस सकता था। दूसरी खुदाई आदेश की। तीसरी शोभा और प्रतिष्ठा के लिए अपनाए गए नकाब की। इस्लाम में औरत बहुत आजाद है। वह अपनी बेड़़ियां खुद चुन सकती है। यदि इतना छोटा सा काम भी वह न संभाल पाई तो उसके लिए बेड़ियों का चुनाव पुरुषों को करना ही होगा।

Post – 2019-07-03

रीतियां, रूढ़ियां और विश्वास (2)

सजदा

इब्रानी परंपरा में सजदा या झुक कर जमीन से माथा लगाकर बंदगी करने का चलन नहीं था। प्राचीन काल में यहूदी आसनी जमीन पर बैठकर प्रार्थना करते थे। उसका स्थान कुर्सियों ने लिया है। प्रार्थना के लिए खड़ा होना पड़ता है। इसका निकटतम आदर्श भारतीय प्रार्थना और प्रणिपात प्रतीत होता है।

परंतु पहले के अरब समाज में इस तरह का कोई चलन रहा नहीं लगता।

इस्लामी मान्यता के अनुसार जब मुहम्मद को इल्हाम हुआ और उसके सम्मोहन से बाहर निकले तो वह घबराए और डरे हुए थे।

उनको भले पता न चला हो कि उन्हें क्या हुआ है, परंतु खदीजा को जिन्होंने उन्हें प्रेरित किया था उन्हें इसका रहस्य पता था । वह उनको लेकर, उनकी बुआ वरक्का के पास गईं और कहा सुनो तो मोहम्मद क्या कह रहे हैं।

वरक्काेन इसी मुद्रा में झुक कर उनसे पूछा, “तुमको क्या दिखाई पड़ा कि तुम्हारा यह हाल हो गया? तभी से ही इस मुद्रा को अल्ला के हुक्म जैसी मान्यता मिल गई।

जाहिर है, यह एक गढ़ी हुई कहानी है जिसके इतिहास का या तो मुस्लिम विद्वानों को पता नहीं, या यदि पता है तो इसे शुद्ध इस्लामी सिद्ध करने के लिए वे इस पर परदा डालते हैं।

‘जैसा कि उसके फारसी प्रतिरूप ‘नमाज’ से प्रकट होता है, यह नमन है, इसकी मुद्रा योग की एक विशिष्ट मुद्रा (वीरासन) है, जिसे भोजन के बाद भी किया जा सकता है। दरबार के समय लगभग सभी मुसलमान बादशाह तख्त पर इसी मुद्रा में बैठते रहे हैं ।

आज जब योग के विषय में कठमुल्लों द्वारा अनावश्यक हठधर्मिता दिखाई जा रही है, यह याद दिलाना जरूरी हो जाता है कि ऐसे मुसलमान जो बात बात पर मोहम्मद साहब की जीवन को आदर्श बनाकर उस पर चलने की कवायद करते हैं, यह भी नहीं जानते कि मोहम्मद के प्रेरणास्रोत क्या थे और किस साधना के द्वारा वह अलौकिक शक्ति पाना चाहते थे और क्या पाया था।

कालदेव के दिव्य रूप का दर्शन करने के बाद घबराए हुए अर्जुन की जो दशा होती है “दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि | दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥11.25॥” कुछ ऐसी ही दशा मोहम्मद साहब की लगती है । कहते हैं लोटे पर मक्खी को बैठा देखकर, उसे इंगित करते हुए नास्तिक नरेंद्र दत्त ने जब रामकृष्ण परमहंस की क्षणिक अनुपस्थिति में उनका उपहास करते हुए कहा था, ब्रह्म ब्रह्म पर बैठा और ठीक उसी समय उपस्थित हुए परमहंस ने शिर-स्पर्श करते हुए, हामी भरी थी और उन्हें जो कुछ दिखाई पड़ा था उसके बाद ऐसी ही घबराहट उनको भी हुई थी।

तलाक

पश्चिमी समाज में जीवनसंगिनी की अवधारणा नहीं थी, जनम जनम का साथ है हमारा तुम्हारा जैसा गीत वहां कोई गाए भी तो लोगों की समझ में नहीं आ सकता था। भारत में यह था। किसी अकल्पनीय परिस्थिति में परित्याग संभव तो था परंतु, उसके बाद भी स्त्री उसी की पत्नी कहलाती थी। परित्याग के बाद पति पत्नी को उन सभी सुविधाओं से वंचित कर देता था, जिसका पत्नी के रूप में उसे अधिकार था, परंतु वैवाहिक बंधन से मुक्त नहीं करता था, इसलिए मानना होगा कि संबंध विच्छेद भारतीय जन्म जन्मांतर के बंधन से अधिक मानवीय है।

पश्चिम में संबंध विच्छेद का चलन बहुत पुराना है। इसका जिक्र और विधान हामू रब्बी की संहिता ( 1795-1750 ई.पू.) में है। इसके अनुसार एक आदमी अपनी पत्नी को केवल यह कह कर कि “तुम मेरी पत्नी नहीं रहीं” मेहर की रकम, और एक निश्चित जुर्माना चुका कर तलाक दे सकता था।
A man could divorce his wife by saying, “You are not my wife,” paying a fine and returning her dowry.

इसलिए मुसलमानों का यह दावा कि इस्लाम ने महिलाओं को अधिक आर्थिक सुरक्षा दी गलत लगता है। महिलाओं के अधिकार कम हुए, इसका प्रमाण यह है कि हामू रब्बी की संहिता में औरत को भी संबंध विच्छेद का अधिकार, कुछ टेढ़ा तो था, परंतु था। उसे कानूनी रास्ता अपनाना पड़ता था। विच्छेद मनमर्जी से नहीं हो सकते थे। यह व्यभिचार, बंध्यापन, दुर्व्यवहार, उपेक्षा, गाली गलौज के आधार पर ही हुआ करता था। A wife had to file a lawsuit to obtain a divorce. Babylonian couples sought divorces for reasons such as adultery, infertility, desertion, abusive treatment and neglect. A wife could divorce a husband for adultery. A husband could ask a court to execute his adulterous wife”. (according to Rev. Claude H.W. Johns’ book, “Babylonian and Assyrian Laws, Contracts and Letters).

हम नहीं जानते कि इस्लाम पूर्व अरब में तलाक का चलन था या नहीं; था तो उसका रूप क्या था? मोहम्मद साहब के जीवन काल में तलाक की दो घटनाएं और एक विधान हमें विचलित करता है। इनका जिक्र जरूरी है।

मोहम्मद ने जैनब नाम की दो महिलाओं से विवाह किया था। एक ऐसे पति की विधवा थी जो अबीसीनिया में निर्वासित हुए थे। उनको संरक्षण की जरूरत थी, पत्नी बनाने का तरीका छोड़कर संरक्षण का कोई दूसरा तरीका उन्हें मालूम नहीं था, इसलिए 53 साल की उम्र में किया गया विवाह ‘आ गले लग जा’ से प्रेरित था। अर्थात वैवाहिक संबंध, और तर्क संरक्षण का।

ये तर्क मोहम्मद साहब की महिमा को गिरने से बचाने के लिए गढ़े जाते हैं। मेरे लिए इस कारण वह न तुच्छ हो जाते हैं, न महान। दूसरे संदर्भ में, कहे तो गांधी के संदर्भ में, मैं यह कह चुका हूं कि महान विकृतियां महान पुरुषों में ही पाई जाती है, सबसे गहरी दरारें भी सबसे ऊंचे पर्वतों में पाई जाती हैं। इसलिए मोहम्मद साहब का यह पक्ष मेरी नजर में उन्हें गिराता नहीं है, उठा तो सकता ही नहीं।

इसे खुले मन से स्वीकार किया जाना चाहिए कि यह बुढ़भसता या खबीसपन (इंबेसिलिटी) की व्याधि थी जिसका माध्यम वे लोग बनते हैं जो जवानी के दिनों में ही कठोर आत्म संयम का सहारा लेते हैं और ढलती उम्र में उन्हीं वासनाओं के खिलौने बन जाते है। वे उनकी पूर्ति के कई बहाने तलाशते हैं पर चाहें तो भी उससे न तो मुक्त हो सकते हैं न ही उस ऊर्जा को किसी नई दिशा में ढाल सकते थे । उनसे अपने ज़मीर और मिजाज पर कायम रहने का संकल्प तक नहीं निभ पाता।

मोहम्मद में यदि या विकृति आई तो इसे इसका ही परिणाम मानना होगा कि साहचर्य के बावजूद ढलती उम्र में खदीजा से न उनका शारीरिक संबंध संभव था, न उनके नियंत्रण से मुक्त हो पाना, जिसने नियंत्रण हटने के साथ उद्दाम क्षति पूर्ति का रूप लिया, इसलिए इस विफलता के आधार पर उनका मूल्यांकन करना गलत है, परंतु महिमा का गान करना उससे भी गलत है। व्याधि के लिए व्यक्ति को दोष देना समझदारी नहीं।

कामुकता का उस आयु में जो तब की आयु सीमा में बुढ़ापा था, इतना प्रबल हो जाना कि वह विवेक खो बैठें, इसी रूप में समझी जा सकती है। जैसा हमने कहा, जेनब नाम की दूसरी युवती रिश्ते में उनकी दूर की बहन लगती थी। यह अबू तालिब के छोटे भाई अब्दुल मुत्तलिब की बेटी थी। ऐसा विवाह अरब समाज में वर्जित था।

इससे भी बड़ी बात यह कि वह उनके दत्तक पुत्र जईद/ज़ैद की पत्नी थी। उसे देखते ही मोहम्मद साहब अपने पर काबू न रख सके। उनका मनोभाव पता चलने पर पुत्र ने पत्नी को तलाक देने का सुझाव रखा। तलाक का एक मार्मिक संदर्भ यही आता है। तलाक के प्रस्ताव को मोहम्मद ने ठुकरा दिया।
A little later on, in the beginning of the fifth year of the Hijra, a marriage was arranged with Zainab bint Jahsh, the wife of Muhammad’s adopted son Zaid. The story goes that, on visiting the house of Zaid, Muhammad was struck with the beauty of his wife. Zaid offered to divorce her, but Muhammad said to him, ‘Keep thy wife to thyself and fear God.’ Zaid now proceeded with the divorce, though from the implied rebuke in the thirty-sixth verse of Suratu’l-Ahzab (xxxiii) he seems to have doubted the propriety of his action. In ordinary cases this would have removed any difficulty as regards the marriage of Zainab and Muhammad, पर उन् परंतु प्रकृति के आगे उनकी क्या चलती। इसके लिए एक नया इल्हाम तो होना ही था।

अब नया ज्ञान प्राप्त हुआ, कि दत्तक पुत्र तो पुत्र होता ही नहीे। और फिर वह तो पहले गुलाम रह चुका था। गुलाम का सब कुछ स्वामी का होता हे। फिर उसने तो तलाक भी दे दिया था, इसके बाद भी तू अल्लाह से छिपने का प्रयत्न करता है। अल्लाह के हुक्म के आगे पुरानी सामाजिक वर्जनको कैसे जगह मिल सकती है: A little later on, in the beginning of the fifth year of the Hijra, a marriage was arranged with Zainab bint Jahsh, the wife of Muhammad’s adopted son Zaid. The story goes that, on visiting the house of Zaid, Muhammad was struck with the beauty of his wife. Zaid offered to divorce her, but Muhammad said to him, ‘Keep thy wife to thyself and fear God.’ Zaid now proceeded with the divorce, though from the implied rebuke in
the thirty-sixth verse of Suratu’l-Ahzab (xxxiii) …’It is not for a believer, man or woman, to have any choice in their affairs, when God and His Apostle have decreed a matter.’ Suratu’l-Ahzab (xxxiii).
(जारी)

Post – 2019-07-01

रीतियां, रूढ़ियां और विश्वास

बीच वाला आदमी
मुझे जीविका के लिए सरकारी नौकरी करनी पड़ी। मैं भारत के राष्ट्रपति के नाम पर नियुक्त हुआ, संविधान और सेवा शर्तों के अनुसार, मैं उनके अधीन काम करता था जिसके अधीन उन्हीं सेवा शर्तों को मानते हुए तीनों अंगों के उच्चतम पदों पर काम करने वाले। परंतु जिससे मेरा पाला पड़ता था वह बीच वाला आदमी या मेरे ठीक ऊपरी पद पर काम करने वाला आदमी, मेरे लिए, जितना ताकतवर था उतना राष्ट्रपति, चाह कर भी नहीं हो सकते थे। अपने अनुभवों से जानता हूं यह बीच वाला आदमी राष्ट्रपति से अधिक ताकतवर होता है। भगवान के नाम पर पेश किया जाने वाला भोग और चढ़ावा पुजारी भोगता और सहेजता है। जहां चढ़ावा नहीं है, वहां की स्थिति इससे अच्छी नहीं है।

इस्लाम की ओर से किया जाने वाला यह दावा कि अल्लाह और बंदे के बीच कोई मध्यस्थ नहीं है, सही नहीं लगता।

ईसा मसीह ने अपने बारह अनुयाई चुने और उन्हें अपने मत का प्रचार करने का उत्तरदायित्व सौंपा था और उसी की तर्ज पर मोहम्मद ने भी करार को प्रामाणिक रूप देने के लिए अपने-अपने कबीलों के ठीक बारह सरदारों को आमंत्रित किया था (कबीले न सही, कुनबे ही सही) और उनको अपने प्रभाव क्षेत्र में इस्लाम के प्रचार करने का उत्तरदायित्व दिया ऐर यह प्रचारित करने का जिम्मा दिया था कि मुहम्मद अल्लाह के पैगंबर हैं और जो कोई उनका कहा नहीं मानता है वह भारी गुनाह करता है जिसकी सजा उसे मिल कर रहेगी और उनके साथ सबका दायित्व अपने ऊपर लिया था। खुदा और बंदों के बीच मध्यस्थता का काम कयामत के दिन भी बना रहता है।

पदक्रम
हम देख खाए हैं कि ईसाइयत का नाम लेते हुए उन्होंने अपनी व्यवस्था आरंभ की थी। ईसाइयत में इससे पोप, बिशप और पादरी का पद क्रम तैयार हुआ था। इस्लाम में इसने खलीफा, इमाम और मुल्ला के पदक्रम का रूप लिया। ईसाई तंत्र में कम से कम ईसाइयों के भीतर इस क्रम का सम्मान किया गया। इस्लाम में इसका निर्वाह नहीं हो सका। इसका विस्तार से अध्ययन किया जाना चाहिए।

महिलाओं का दर्जा
बौद्ध ढांचे में भिक्षुओं के साथ भिक्षुणियों को स्थान मिला था, ईसाई ढाँचे में ननों को प्रवेश मिला, इस्लाम में इसके लिए संभावना अधिक थी । मदीना से मुहम्मद को मना कर ले जाने वाले 73 पुरुषों के साथ मदीना से दो महिलाएं भी आई थीं। इस्लाम में इस ढांचे का आरंभ, ( जैसा हम देख आए हैं), अकवा के दूसरे करार के साथ ही हो गया था। इस्लाम में यकीन रखने वाले, उनके ऊपर उनके सरगना और सबसे ऊपर स्वयं मोहम्मद जो कयामत के दिन भी मध्यस्थ के रूप में बने रहेंगे। बात चढ़ावे की नहीं है, उसमें दमड़ी जाती है पर चमढ़ी बची रहती है। दूसरे विकल्प में दमड़ी बचा ली जाती है चमड़ी चली जाती है। कहां जाता है इस्लाम में महिलाओं को सबसे अधिक आर्थिक सुरक्षा प्रदान की गई है, परंतु किस कीमत पर? आत्मसम्मान और सुरक्षा की कीमत पर? इस्लाम के आने से पहले महिलाओं को जितनी सुरक्षा और स्वतंत्रता प्राप्त थी उसमें इतनी कमी आई कि विवाहिता स्त्री भी सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती।

जुमे की नमाज
मोहम्मद साहब हिजरत के दौरान जिन अनुभवों से गुजरे उनका एक परिचय संक्षेप में दे आए हैं। एक ढांचा तैयार करने की दृष्टि से उन्होंने इस दौरान क्या किया इसका उल्लेख रह गया। आठवें दिन वह हिजरी 1 के पहले महीने (रबीउल औवल) के आठवें दिन कूबा पहुंचे और सार्वजनिक इबादत के लिए एक मस्जिद का शिलान्यास किया। यहां से मस्जिदों का आरंभ होता है। इसे पहली मस्जिद के रूप में याद किया जाए यह स्वाभाविक ही है। इसी दिन अली उनसे आ मिले थे। सभी आगे बढ़े तो बानी सलीम जिस घाटी में रहते थे, उसमें रुके। यह शुक्रवार था। यहां उन्होंने जहां सजदा किया, वहां मस्जिद बनाई गई। इसे शुक्रवार की मस्जिद या जुम्मे की मस्जिद कहा जाता है। इस अवसर पर उन्होंने एक तकरीर भी दी थी। तभी से जुम्मे की नमाज को विशेष महत्त्व दिया जाता है, जिस पर एक तकरीर दे कर मुसलमानों की मानसिकता को नियंत्रित किया जाता है।

मस्जिद की जमीन
कहते हैं, जब वह रवाना हुए तो अपने अपने इलाके में उन्हेंअपनी ऊंटनी से नीचे उतरने का आग्रह करने लगे। वह किसकी बात मानते किसकी नहीं, उन्होंने कहा इसका फैसला ऊंटनी ही करेगी। वह जहां जाकर बैठ जाएगी वहीं पर उतरूंगा। ऊंटनी मदीना से पूरब की तरफ एक खुली जगह में बैठ गई। मोहम्मद साहब ने वहां मस्जिद बनाने का इरादा किया। जमीन दो अनाथों की थी । इसे उन से खरीदा गया। इसी के आधार पर यह कहा जाता है कि मस्जिद किसी जमीन या मकान पर जबरदस्ती कब्जा करके नहीं बनाई जा सकती। यह शरीयत के अनुरूप नहीं है।

यह एक तरह का झांसा है, क्योंकि यदि यह सच है तो मध्यकाल में जितनी भी मस्जिदें भारत में बनी उनमें उन मस्जिदों को छोड़कर जो इस नियम के अनुसार नहीं बनी है शरीयत के खिलाफ मानकर हिंदुओं को सौप देना चाहिए, उन मस्जिदों को तो हर हाल में जिनके बारे में पुरातात्विक या अभिलेखीय प्रमाण है कि उन्हें मंदिरों को तोड़ कर बनाया गया है। कम से कम ऐसे मुस्लिम विद्वानों को मौखिक रूप में इस बात का समर्थन करना चाहिए कि ऐसी सभी मस्जिदें शरीयत के खिलाफ हैं और उन्हें हिंदुओं को लौटा देना चाहिए क्योंकि इसके अनुसार वे नापाक जगहें हैं।

ऐसा करने की जगह वे इतिहास को कयास से उलट देंगे और यह समझाएंगे कि यदि मस्जिद बनी है तो किसी तरह की जोर जबरदस्ती की ही नहीं गई होगी। भारत में शरीयत की दुहाई आज तक किसी आदर्श के निर्वाह के लिए नहीं किया गया, कट्टरता को जायज सिद्ध करने के लिए किया जाता है।

सच्चाई यह है कि ऐसे लोगों को मालूम है अभी तक मोहम्मद साहब ने हिंसा का सहारा नहीं लिया था, लूटपाट आरंभ नहीं किया था। एक बार जब उस रास्ते पर चल पड़े तो उनके लिए कोई भी कुकर्म कुकर्म नहीं था क्योंकि अल्लाह उन्हें ऐसा करने का संदेश भेज देता था जिसकी अवज्ञा वह कर नहीं सकते थे।

मुसलमानों का कहना है, अल्लाह एक है, सर्वोपरि है, उसके अलावा कोई दूसरा अल्लाह नहीं। परंतु असलियत यह है कुरान शरीफ के अनुसार ही दो अल्लाह है। एक मक्का का, दूसरा मदीने का। एक की बात दूसरा उलट-पुलट देता है। पहला इंसान को किसी को भी सजा देने की इजाजत नहीं देता, गुनाहगारों को स्वयं सजा देता है और नेक बंदों के लिए जन्नत का इंतजाम करता है। दूसरा अल्लाह हर तरह के गुनाह का समर्थन करता है, गुनाह करने में कोई झिझक हो तो उस पर फटकार लगाता है और करने को मजबूर कर देता है। सभी मुसलमान इस सचाई को जानते हैं, और इसलिए दूसरे मजहब के लोगों को समझाने के लिए वे मक्का के अल्लाह की बात करते हैं, और तहे दिल से उन सभी गलत कारनामों का समर्थन करते हैं, जिनको पहला अल्लाह और पहले का पैगंबर गलत मानता था।
(जारी)

Post – 2019-06-29

तंत्र का ताना-बाना

हमें अपनी चर्चा में सांप और सीढ़ी का खेल खेलना पड़ता है। कुछ छू़टे हुए सूत्रों को उनके सही संदर्भ में रखने की विवशता है। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि मोहम्मद साहब के इलहाम उनकी जरूरतों के अनुसार आते हैं।
उदाहरण के लिए जब मक्का छोड़कर मदीना जाने का समय आया, तो सूरा कुछ उसी भाव से आया जिसमें तुलसी ने लिखा था “तजहु मन हरि विमुखन को संग/ जा के संग कुबुधि ऊपजत है, परत भजन में भंग:
Follow, [O Muhammad], what has been revealed to you from your Lord – there is no deity except Him – and turn away from those who associate others with Allah.
यह भी एक कारण था जिससे उनकी अवज्ञा करने वाले उन्हें धूर्त कहते थे। परंतु मक्का में रहते उन्हें यह बोध था कि यदि जो कुछ भी होता है, अल्लाह की इच्छा से ही होता है तो यह भी अल्लाह की इच्छा से ही हो रहा होगा, इसलिए किसी दूसरे को, उन्हें, अपनी मर्जी के अनुसार चलाने का अधिकार नहीं:
But if Allah had willed, they would not have associated. And We have not appointed you over them as a guardian, nor are you a manager over them.सूरा 6.107

एक दूसरी बात यह है कि मोहम्मद साहब अपने को लिखने पढ़ने की योग्यता से रहित इसलिए बताते थे कि कहीं लोग यह न मान लें कि वह उन लोगों से कम समझदार हैं जिनके विचारों को दुहरा रहे हैं। इससे यह तो सिद्ध हो ही जाएगा कि यह इंसानी विचार है, अल्लाह का संदेश नहीं है। यदि वह पढ़े लिखे थे ही नहीं तो फिर किसी दूसरे के विचारों को पढ़ते ही कैसे?

उनकी एक जरूरत यह थी की प्राचीन महापुरुषों की परंपरा से अपने को जोड़कर उनसे भी अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त करें; दूसरी यह कि यह सिद्ध करें कि वह अल्ला के निरंतर संपर्क में हैं, जिसका सौभाग्य उनसे पहले किसी पैगंबर को नहीं मिला था। इसलिए यहूदी और ईसाई मान्यताओं, उनके आप्त पुरुषों के विषय में भी जानकारियां न तो यहूदियों और ईसाइयों के संपर्क में आने के कारण प्राप्त थीं , न ही उनकी किताबों को पढ़ने के फलस्वरूप। इन्हें उनको वही अल्लाह स्वयं बताता था जिसने उनको पहले भेजा था। मोहम्मद और कुरान में श्रद्धा रखने वालों को इसमें कोई चूक नहीं दिखाई देगी, परंतु कोई अध्येता ऐसे सादृश्यों की उपेक्षा नहीं कर सकता।

मोहम्मद को मदीना जाने के लिए मनाने को 621 में मदीना से 12 लोग आए थे।
622 में 75 (73 पु. 2 म.) आए थे। वफादारी की प्रतिज्ञा के बाद मुहम्मद ने 12 लोगों को आमंत्रित किया। परंतु क्यों?
They stretched their hands forth, and he (pbuh) stretched his hand and they pledged their word by saying, “We pledge ourselves to obey in well and woe, in ease and hardship, and, speak the truth at all times, and that in Allah’s service we would fear the censure of none.” After they gave the pledge Allah’s Messenger (pbuh) said, “Bring me twelve leaders who have charge of their people’s affairs.” They produced nine from al-Khazraj and three from al-Aws. So the Messenger of Allah (pbuh) said to these Nuqaba (leaders), “You are the guardians of your people just as the disciples of ‘Isa, son of Maryam, were responsible to him while I am responsible for my people.” They went back to their beds and then back to their caravan and returned to Madinah. (History, 11 Second pledge of Aqaba : systemofislam.com).

यहां हम इसी परिघटना के दो अन्य पाठांतरों का उल्लेख करना चाहेंगे। पहला:
After that pledge, Al-Abbas ibn Ubadah ibn Nadla said to the Prophet (peace be upon him), ‘‘By Allah Who has sent you with the truth, if you wish, we will attack the people of Mina tomorrow with our swords.’ The Prophet (peace be upon him) said, ‘We have not been ordered to do this, but return to the group you are travelling with.’ Consequently, they returned to their travelling companions.
दूसरा:
To the chiefs of the tribes, he said: ‘I do not wish to force you to anything. Only permit any one who approves of my invitation (to the Faith) to receive it and protect me from being killed, that I may recite to you the book of Allah.’

ये प्रसंग इस्लामी इतिहास में एक नए मोड़ को समझने मे सहायक हो सकते हैं जिनको मुस्लिम इतिहासकार और धर्मवेत्ता न समझ सकते हैं, न समझ गए तो स्वीकार कर सकते हैं, क्योंकि ऐसा करने पर इस्लाम की अनन्यता पर आंच आती है । परंतु उनके आत्मराग से मुक्त होकर देखने वाला कोई भी व्यक्ति निम्न निष्कर्षों पर पहुंचे बिना नहीं कर सकता:
1. अभी तक जो समानधर्मियों का संगठन था, वह राजसत्ता के समानांतर एक धर्मसत्तातंत्र का रूप लेने जा रहा था।

2. मोहम्मद ने इसके लिए पोपतंत्र के ढांचे को अपनाते हुए इस बात का ध्यान रखा कि उनका तंत्र पूरी तरह किसी दूसरे की नकल न लगे।

3. इस तंत्र में सर्वोपरि मोहम्मद और बाद में उनके उत्तराधिकारी खलीफे हैं जिनके नीचे इमाम है और फिर दूसरे अमला जिनके बारे में अपने सीमित ज्ञान के कारण विस्तार से कुछ नहीं कह सकता, परंतु यह निवेदन कर सकता हूं कि यहां से ईसाइयत के ढांचे को मुहम्मद उसी तरह स्वीकार करते हैं जैसे ईसाइयत ने मामूली फेरबदल करते हुए बौद्ध संगठन के ढांचे को स्वीकार किया था।

4. मोहम्मद तब पैदा हुए थे जब ईसा भुला दिए गए थे, पोप ने अपने उनका स्थान ले लिया था, पर मुहम्मद उस संक्रमण बिंदु पर थे, जिसमें ईसा धर्मचेतना का अंग थे।

5. यह कथन सच है कि ईसा मसीह को काठी पर लटकाकर मार दिया गया, परंतु मरे नहीं। जिंदा हो गए। यह ईसा के बारे में भी सच है, मोहम्मद के बारे में भी सच है, गांधी के बारे में भी सच है। जिनके पास विचार है, वे शरीर के मर जाने के बाद भी मरते नहीं हैं, पुनर्जन्म पाते हैं। जानकारी कम है, चौथे किसी व्यक्ति के बारे नहीं जानता, परंतु यहां मैं याद दिलाना चाहता हूं कि अभी तक मोहम्मद काठी पर लटकाए जाने वाले ईसा के आदर्शों पर चल रहे थे। हिंसा में सराबोर कबीलों के बीच शांति के संदेश से अलग कोई क्रांतिकारी संदेश नहीं हो सकता था। मोहम्मद आज तक इसी का पालन कर रहे थे इसे ऊपर के उदाहरणों से समझा जा सकता है। उनके नाम के साथ बार-बार दोहराए जाने वाले ‘वह शांति के आगोश में रहें’, इस समय तक के मोहम्मद के लिए ही सही है। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।

परंतु यदि यह इस्लाम है तो इससे विरत हो जाने का दौर, पोप शाही की ईसाईयत का दौर भी इसके बाद मोहम्मद साहब के द्वारा ही आरंभ होता है। उसकी वास्तविकता को समझने के बाद हमारे सामने एक प्रश्नचिन्ह उभरता है। इस्लाम सलामती और शांति का मजहब है जिसका दावा करते हुए मोहम्मद साहब का नाम आते ही piece be upon him दुहराए बिना पहचान पूरी ही नहीं होती, या वह जिसका रास्ता उन्होंने एक विवशता मेें अपनाया था, परंतु वह सारे काम अल्लाह का हुक्म मिलने के बाद करते थे इसलिए उससे बाद के लिए दूसरा कोई रास्ता नहीं रह गया। उस राह के मुसाफिर उस पर चलें इस पर हमें आपत्ति हो तो भी उसे बदलना हमारे वश में नहीं। हम केवल यही निवेदन कर सकते हैं कि उसके बाद से हिंसा , दरिंदगी पर गर्व करने वाले मजहब को शांति और सुकून का मजहब न कहा जाए।

Post – 2019-06-28

धर्म का सत्ता-तंत्र में बदलना

हिजरत के साथ इस्लाम में वे प्रवृत्तियां पैदा हुई, जो मजहबी तंत्र की अनिवार्य आवश्यकताएं है। सत्ता है तो उत्तराधिकार की स्पर्धा भी होगी। यह भी इसके साथ ही आरंभ हो गई । मोहम्मद साहब की उम्र इस समय 52 वर्षा हो रही थी। तत्कालीन कल समाज की सामान्य आयु 60-65 वर्ष की हुआ करती थी। यह भी इसका एक कारण रहा हो सकता है। मुहम्मद के करीबी लोगों में तीन थे। पहला स्थान अली का था, जो उनके अभिभावक अबू तालिब के पुत्र थे, इस्लाम कबूल करने वालों में पहले थे, मुहम्मद के लिए जान देने और जान लेने के लिए तैयार रहते थे, और उनकी पुत्री फातिमा के पति थे। दूसरा स्थान अबू बक्र का था, जो पहले सुशिक्षित और संपन्न व्यक्ति थे जिन्होंने इस्लाम कबूल किया था और जिनकी पुत्री आयशा से मोहम्मद साहब ने स्वयं विवाह किया था और जो उनकी पत्नियों में सबसे अधिक चहेती थीं । एक तीसरा आकांक्षी जईद मोहम्मद भी हो सकता था, जिसे मुहम्मद ने दत्तक पुत्र बनाया था और वल्दियत दी थी। इस ओर हमारा ध्यान न जाता, यदि हिजरत के उन तीन दिनों में जब वे इसी गुफा में अबू बक्र के साथ छिपे हुए थे, अनेक ऐसी कहानियां न जुड़ जातीं जिनमें सभी अबू बक्र और उनके परिवार की मुहम्मद के प्रति भक्तिभाव दर्शाते उन्हें मुहम्मद के बाद दूसरा ‘थानी अथनेन’ उनके नाम के साथ न जुड़ जाता, उन्हें खलीफतुल नबी कहा जाता, कुरेशियों की पकड़ से बचाने के उनकी सलाह पर रात के समय चुपके से मदीना के उल्टी दिशा में आठ किलोमीटर की दूरी पर एक गुफा में छिपे रहने की समझदारी पर मुहम्मद द्वारा सत्यनिष्ठ, ( al-Siddîq, the truthful,” “the upright,” ) कहा जाना ।

यह स्पर्धा इसके बाद से लगातार अनेक निर्णायक मोड़ों पर देखने में आती है. जैसे बद्र की जंग में उनके पुत्र का जिसने अभी इस्लाम नहीं कबूल किया था उन्हें लड़ने के लिए ललकारना और उनका इसके लिए तैयार हो जाना और मुुहम्मद के मना करने पर मानना, मुहम्मद द्वारा 631 में हज को इस्लामी रूप देने के लिए तीन सो मुसलमानों के साथ मक्का भेजना और इसके बाद उनके साथ अमीर-उल-हज बन जाना, अगले साल अबू बक्र का मुहम्मद को लेकर हज के लिए जाना [एक अवसर पर तो मुहम्मद ने खुलकर कहा था कि मेरे ऊपर अबूबक्र के तन-धन से दूसरों से अधिक अहसान हैं और अगर मुझे अपने अनुयायियों में से किसी के खलील (जिगरी दोस्त) चुनना हो तो वही होंगे, लेकिन इस्लाम का बिरादराना भाव ही काफी है। मेरे मरने पर किसी मस्जिद का दरवाजा न खुले सिवाय अबू बक्र के (No doubt, I am indebted to Abu Bakr more than to anybody else regarding both his companionship and his wealth. And if I had to take a Khalil from my followers, I would certainly have taken Abu Bakr, but the fraternity of Islam is sufficient. Let no Door of the Mosque remain open, except the door of Abu Bakr.., सहीह अल-बुखारी. 1.8.456 व 5.58.244 इब्न अब्बास और 5.58.244 द्वारा बकौल विकीपीडिया.उद्धृत्)]

कहीं कोई दुविधा रह जाती है कि खिलाफत की समस्या मुहम्मद के जीवनकाल में ही हल नहीं की जा चुकी थी? परंतु दुविधा तो वहीं पैदा होती है जहां गढ़ने-जोड़ने का प्रयत्न बहुत साफ दिखाई देता है। यह सारी कहानियां अबू बकर के खलीफा बन जाने के बाद अधिकार का औचित्य सिद्ध करने के लिए लिखी गई हैं। और इस बात का भी संदेह किया जा सकता है उन्होंने कुरान का पाठ तैयार कराते हुए अपने पक्ष में आयतें उसमें जोड़ दीं।

शिया इतिहासकार इन्हीं घटनाओं की एक भिन्न व्याख्या देते रहे हैं, उदाहरण से लिए गुफा में छिप कर जान बचाने को अबू बक्र की कायरता सिद्ध करते रहे, दूसरी कहानियों को काल्पनिक बताते रहे।

कुछ ऐसी कहानियां भी हैं जिनसे यह सिद्ध होता है अबू बक्र अपनी व्यापारिक सूझबूझ से अधिक काम लेते थे। मोहम्मद के प्रति उनकी निष्ठा इतनी गहरी और साफ नहीं थी। यह स्पर्धा केवल अली और अबू बक्र के बीच में ही नहीं थी। विद्रोह उमर ने भी उसी समय किया था जब अबू बक्र जनाजे की सारी रस्म अदायगी अपने नियंत्रण में ले कर उन पर हुक्म चला रहे थे।

हमारी जानकारी में एक बात से लगता है जिससे लगे मुहम्मद साहब उन्हें अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाना चाहते थे और अबुबक्र ने उनसे मक्कारी की थी। जब वह मरणासन्न थे और अपनी बिदाई काआभास भी दे चुके थे उस समय भी हथियार के बल पर इस्लाम के विस्तार के लिए वह उसी तरह चिंतित थे जैसे मरणासन्न शेरशाह कालिंजर के किले को जीतने के लिए बेताब।

प्रसंग वश यह याद दिला दें कि शेरशाह ने कालिंजर के किले को जीतने के पुख्ता इंतजाम कर लिए थे, परंतु उसके ही हुक्का यंत्र का गोला किले की दीवार से टकराकर वापस लौटा और उसके आघात से शेरशाह क्षत-विक्षत हो गया। प्राण बचे रहे, परंतु जीने की आशा नहीं। हकीम चंदन का लेप करते रहे, इत्र-फुलेल छिड़कते रहे पर राजस्थान की झुलसाने वाली लू में तड़पता हुआ होश और बेहोशी के बीच पल पल मौत के करीब जाते हुए भी शेरशाह विजेता के रूप में मरना चाहता था। उसका हालचाल जानने के लिए जब कोई आता तो उसे लौटा देता, यह इशारा करते हुए कि मोर्चे पर जाओ। वह मरा, परंतु यह समाचार सुनकर कि कालिंजर का अजेय किला जीत लिया गया है।

मोहम्मद के भाग्य में यह नहीं लिखा था।
Mohammed never liked to admit a defeat as final. the defeat at Muta was still remembered, and it was desirable action should be taken to cause it to be forgotten, and so and expedition was formed to proceed against the Byzantines. Usama was placed at the head of it, and so it is called the Sariya of Usama. The Prophet addressed Usama thus: ‘March in the direction of Muta where thy father was slain. Attack the enemy, set fire to their habitation and goods. Make haste to surprise the people before the news reaches them.’ But Muhammad was now seized with his last illness and the expedition did not set forth until after his death, when Abu Bakr directed it to proceed.(Canon Sell, The Life of Muhammad, 222)

परंतु यदि हम यह जानना चाहें कि यह अभियान सफल क्यों न हो पाया तो इसका कारण यह है जो काम शेरशाह के सिपहसालारों ने नहीं किया वह काम अबू बक्र ने नहीं किया। जिस व्यक्ति को इतने भरोसे का बताया जाता है उस अबू बक्र से जब मुहम्मद ने यह सोचकर कि ओसामा की उम्र केवल 18 साल है, उसकी मदद के लिए जाने को कहा, तो अबू बक्र ने उनके आदेश की अनसुनी कर दी। खलीफा बनने के बाद उसने क्या किया, यह मोहम्मद के प्रति उसकी निष्ठा का हिस्सा नहीं बन सकता। [When the fever developed he directed Abu Bakr to go to the war following Usama who was 18, but he mysteriously did not listen and lingered in Madina, Shias say desirous of becoming the successor.] शिया इतिहासकारों का आरोप गलत नहीं लगता।

मोहम्मद की दशा ऐसी थी, परंतु अबू बक्र उनकी तीमारदारी में नहीं लगे थे। उनकी मृत्यु की सूचना पाकर अपने गांव सुन्ना से घोड़े पर सवार हो कर आए (सुन्नी आज तक घोड़े पर ही सवार हैं) :-

When Muhammad died Muslims gathered in Al-Masjid al-Nabawi and there were suppressed sobs and sighs. Abu Bakr came from his house at As-Sunh (a village) on a horse where he had been with his new wife. He dismounted and entered the Prophet’s Mosque, but did not speak to anyone until he entered upon ‘Aa’isha. In Sunni accounts he went straight to Muhammad who was covered with Hibra cloth (a kind of Yemenite cloth). He then uncovered Muhammad’s face and bowed over him and kissed him and wept…

यह कुछ विचित्र लगता है कि मुसलमानों ने भी अपने पैगंबर के साथ वैसा ही विश्वासघात किया जैसा ईसाईयों ने ईसा मसीह के साथ किया था और अपना इल्जाम यहूदियों के सर मढ़ दिया था। मोहम्मद को सूली पर नहीं चढ़ना पड़ा, पर अपने अंतिम दिनों में उन्हें किस वेदना से गुजरना पड़ा होगा इसका अनुमान हम नहीं लगा सकते।

खलीफों का इतिहास, मुस्लिम शासकों का इतिहास, मुस्लिम समुदाय इतिहास अंधविश्वास पर इतना बल इसलिए देता है कि यह अपनों के साथ अपनों के विश्वासघात का इतिहास बन कर रह जाता है। आज के भारत में भी, जब अल्पसंख्यक के नाम पर अधिक उदारता दिखाई गई, खुराफात के सूचकांक में वृद्धि ही देखने में आई। मुसलमानों को, खास कर उनके बुद्धिजीवियों को इस दिशा में ऐसा पर्यावरण तैयार करना चाहिए जिसमें मुसलमान अपनों का और दूसरों का विश्वास अर्जित कर सकें, शांति, सद्भाव और सद्विश्वास से स्वयं भी आगे बढ़ सकें और देश की प्रगति में भी बाधक न बने। मुस्लिम देश भारतीय मुसलमानों से प्रेरणा ले सकें।

Post – 2019-06-27

आला हजरत

राजनीति और इस्लामी परंपरा का खेल मुहम्मद साहब के मदीना जाने के निर्णय के साथ ही आरंभ हो जाता है । पहली बार उन्हें मदीना जाने के लिए निमंत्रित करने के लिए 12 आए थे, उन्होंने जो करार किया था उसमें मुहम्मद साबब को पैगंबर मानना और ईमानदारी, दया, दान आदि नेतिक आचारों को स्वीकार करने का प्रावधान था। “a formal pledge of allegiance at Muhammad’s hand, promising to accept him as a prophet, to worship none but one God, and to renounce certain sins such as theft, adultery, and murder. This is known as the “First Pledge of al-Aqaba.” (विकी) इस नैतिकता के कारण उसे बाद में जनाना करार की सज्ञा दी गई।

दूसरी बार जब 73 पुरुष और दो महिलाएं मुहम्मद को मक्का ले जाने का अनुरोध लेकर उनके पास पहुंचे और उन्होंने एक दूसरे की रक्षा के लिए प्राण निछावर करने की बात की तो यह उनके सोच में एक नया मोड़ था । इससे पहले गलत आचरण करने वाले को दंड देने वाला अल्लाह था, इन्सान द्वारा बदले की कार्यवाई करते हुए जान लेने या जान देने का विचार नहीं आया था। यहां से जिहाद का आरंभ होता है। ‘Yes, by Him Who sent you with the truth (as a Prophet), we will protect you like we protect ourselves and families.’ Therefore, the Prophet (peace be upon him) took his pledge. Al-Baraa continued, ‘By Allah, we are sons of war, and the weapons of war are like toys in our hands; we have inherited this from our forefathers.’
जो लोग कहते हैं जिहाद दो तरह का होता हो, एक अपनी कमजोरियों के विरुद्ध और दूसरा इस्लाम या मुसलमानों की रक्याा के लिए वे हिंदुों को पाठ पढाते हैं, असलियत पर परदा डालते हैं। अक़बा का पहला करार जिसमें आत्मशुद्धि का विधान था वह जिहाद की कोटि में ही नहीं आता। इसे इस्लाम के अधिकारी विद्वान इब्न इशहाक़ की इबारत में रखना चाहेंगे:
The apostle had not been given permission to fight or allowed to shed blood before the second ‘Aqaba.
This second pledge of ‘Aqaba introduced the concept of jihad. ( ibn Ishaq:Sirat Rasul Allah. (A. Guillaume, Trans.) Karachi: Oxford University Press, p208.) cited in Unravelling Islam.com.

मक्का में मुसलमानों की संख्या अधिक नहीं थी। इस्लामीकरण अभियान के छठें साल में उमर इब्न उल खत्ताब के बाद से इस्लाम की स्वीकार्यता में विशेष प्रगति नहीं हुई थी।

अब पैगंबर के सुझाव पर वे सभी मक्का छोड़कर भागने लगे, इससे पहले भी उनको अपने विश्वास की रक्षा के लिए , अबीसीनिया जाना पड़ा था, जिसे पहली हिजरत कहा जाता है ।

दूसरी हिजरत में , अपना मक्का का अपना घर-बार छोड़ कर मदीना जाने की कोशिश में सभी सीधे मदीना नहीं पहुंच थे। हिजरत अकेले मुहम्मद ने नहीं इन सभी ने की थी। वे मक्का से तर-वितर हो गए थे पर सभी मदीना नहीं पहुंच पाए थे, उनका आना मुहम्मद साहब के मदीना पहुंचने के बाद भी जारी रहा। मजहब देश से अधिक प्रिय है, इसकी रक्षा के लिए देश छोड़ा जा सकता है, यहां से जुड़ी है यह सोच कि मुसलमान का देश नहीं होता, केल दीन होता है। यह अधूरा कथन है। मुसलमान के मां, बाप, भाई कोई नहीं होता, केवल दीन होता है, यह समझ भी इसी हिजरत की देन लगती है। अपने समसे खैरख्वाह चचा अबू तालिब से इस्लाम न कबूल करने के कारण मुहम्मद अल्लाह से उनके लिए दुआ करते रहे, पर बाद में उनको जहन्नुम का आग के हवाले कर बैठे।

मुहाजिरों के दुख, त्याग और अपने प्रति निष्ठा के कारण मदीना में सामाजिक स्तरभेद में पहला स्थान मुहाजिरों का था। दूसरा अंसरों का, कहें ऐसे लोगों का जो मदीना के निवासी थे, परंतु समय रहते, अर्थात् बलप्रयोग आरंभ होने से पहले से इस्लाम कबूल कर चुके थे। तीसरा नाममात्र के मुसलमानों का स्तर था जो मुसलमानों की संख्या बढ़ने के साथ इस्लाम न कबूल करने वाले अरबों पर किए जाने वाले अत्याचार के कारण या इसके अंदेशे से इस्लाम कबूल कर बैठे थे। वे दिखावे के लिए मुसलमान थे पर अपने पुराने रीति रिवाज छोड़ने को तैयार नहीं थे और इसलिए जिन पर पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता था और जो मौका पाकर विश्वासघात भी कर सकते थे। इस्लाम में सभी एक समान हैं, यह एक भ्रम है। सामाजिक स्तरभेद इसके साथ ही आरंभ हो गया था। आगे कुछ और कसोटियाँ जुड़ती गईं।

यदि आपको यह समझने में कठिनाई होती रही हो की विभाजन के बाद पाकिस्तान में जाने वाले मुसलमान अपने को मुहाजिर क्यों कहते थे और पाकिस्तान पर वहां के निवासियों से ऊपर अपना हक क्यों जताते थे तो इसका उत्तर यहां मिलेगा। वे पाकिस्तान घोषित किए गए भू भाग से अपनी जान बचाकर भारत आने वाले हिंदुओं की तरह शरणार्थी नहीं थे। उन्होंने हिजरत की थी , इसलिए मुहाजिर थे और इस्लामी नियम के अनुसार स्थानीय लोगों से भी ऊपर मुहाजिरों का अधिकार होता है, इसका विधान हजरत मोहम्मद कर चुके थे।

पाकिस्तान के पुराने भू भाग में पहले के सभी निवासियों को इनके पधारने के बाद, अपने घर में रहते हुए भी, बेघर बार होने की पीड़ा क्यों सहनी पड़ी, और पाकिस्तान के आंतरिक विक्षोभ की जड़ें कितनी गहरी हैं इसका उत्तर भी यहीं मिलेगा। भारत से पाकिस्तान गए मुसलमान मुहाजिर हैं, पहले दर्जे के नागरिक, पाकिस्तान के पुराने मुसलमान अंसर हैं, दूसरे दर्जे के मुसलमान।

परंतु आप लाख चाहे तो, मनमोहन सिंह की नालायकी के कारण सोनिया नियंत्रित कांग्रेस के इस फार्मूले का उत्तर नहीं पा सकते कि भारत की परिसंपत्तियों पर सबसे पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है। पूरे इतिहास में इतनी उल्टी सोच वाला कोई राजनेता तलाशे न मिलेगा।

Post – 2019-06-25

सूत्रवत

1. जो लोग आत्म निरीक्षण नहीं कर सकते, आलोचना नहीं झेल सकते, उन्हें किसी की आलोचना करने का अधिकार नहीं है।

2. जो लोग उन किताबों की बात करते हैं, जो किसी भिन्न देश-काल में, किन्ही व्यक्तियों के अनुभव पर, उनकी सही या गलत समझ का निष्कर्ष होती हैं, वे अपने समय को, इसकी समस्याओं को, समझने में ही नहीं, देखने में भी भूल कर सकते हैं। वे उन कथनों का मर्म भी नहीं समझ पाते जिनको दोहराना उनकी आदत बन चुकी होती है। ऐसे लोगों को ज्ञान की गठरी का बोझ ढोने वाली खूटी की संज्ञा दी गई। स्थाणुरयं भारहारः किलाभूत। लगता है ऐसे लोगों से बहुत पुराने समय से चिंतकों का पाला पड़ता रहा है ।

3. चिंतक, अपने समय की समस्याओं को समझने के लिए पुरातन ज्ञान के सार्थक अंशों का उपयोग करता है। स्थाणु उस जगह से टस से मस नहीं होता, और रटे हुए सूत्रों के अनुसार यथार्थ को ही बदल कर अपनी स्वार्थ सिद्धि करना चाहता है, और पूरे समाज के लिए असाध्य समस्याएं पैदा करता चला जाता है।

4. ऐसा व्यक्ति, अपने समाज के लिए, अपनी समस्त ज्ञान संपदा के होते हुए भी व्याधिग्रस्त की तरह होता है और वह भी ऐसे व्याधिग्रस्त की तरह जिस के संपर्क में आने पर व्याधि का संक्रमण होता है ।

5. जिस यथार्थ को मैं देखता हूं उसमें अपने को हिंदू कहने वाले, हिंदू रीति-रिवाज से अपने सभी संस्कार करने वाले या करने की इच्छा रखने वाले, जब अपने विवाह में दूसरे हिंदुओं की तरह घोड़ी पर सवार होकर निकलते हैं तो उन पर हमला कर दिया जाता है। उनको अपमानित किया जाता है। ऐसे असंख्य उदाहरण हैं, रोज देखने और सुनने में आते रहते हैं जिनसे हम सभी परिचित हैें, इसलिए उनकी तालिका प्रस्तुत करने की जरूरत नहीं । इतनी यातना सह कर भी वे अपने को हिंदू कहते रहे, हिंदुत्व की रक्षा में इससे बड़ा बलिदान किस सवर्ण ने दिया है?

6. बंदी बनाए गए , अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे, कोई भी यातना सह लेंगे, इस कठिन व्रत का निर्वाह करने वाले, इस व्रत के कारण, यातना देकर भंगी बना दिए गए राजपूतों से किस तरह का व्यवहार किया जाता है। हिंदुत्व की रक्षा के लिए किस ब्राह्मण ने इससे बड़ा त्याग किया- पूरे इतिहास में, पूरे पुराण में?

6. अपने धर्म की रक्षा के लिए इतना बड़ा बलिदान देने वालों को जो सम्मान मिलना चाहिए था ब्राह्मणवाद के कारण उन्हें नहीं मिल पाया और जिस हिंदुत्व की रक्षा के लिए उन्होंने इतना बड़ा बलिदान दिया, वह क्या वर्णवाद था? वह वही मूल्यव्यस्था थी जिसे सनातन मूल्यव्यवस्था कहा जाता है जिसका वर्णवाद/ब्राह्मणवाद से सनातन विरोध है।

7. मैं संवादविमुखता के विषाक्त परिवेश में संवाद जारी रखना चाहता हूं, विवाद को कम करने के लिए, समझ को दुरुस्त करने के लिए।

8. यह एक ऊँची कक्षा है। इसमें प्रवेश की योग्यता जिनमें नहीं है उन्हें स्वयं बाहर हो जाना चाहिए, अन्यथा अपनी आशंकाएं बिंदुवार और अपने सुझाव हर मामले में तर्क का और प्रमाण के साथ, अथवा नम्र जिज्ञासा के रूप में रखना चाहिए। अवांछित लोगों की अहमहमिका से विचारविमर्श प्रदूषित होता है।

Post – 2019-06-24

मुहम्मदन और मुसलमान

घालमेल सभी मजहबों में देखने आता है। यह सामाजिक और राजनीतिक आकांक्षाओं के कारण होता है। हिंदू समाज को ही लें तो ब्राह्मणवाद एक मजहब है। इसके साथ एक व्यवस्था जुड़ी हुई है और उस व्यवस्था में कुछ लोगों के ऐसे हित जुड़े हुए हैं जिनके कारण दूसरों का अहित होता है और फिर भी उसे एक नैतिक व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

हम धर्म को जिस रूप में जानते हैं और जिसका सहारा लेकर हम हिंदुत्व की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं, वह सामाजिक व्यवस्था और प्रच्छन्न राजनीतिक हितबद्धता से ऊपर समस्त संसार, समस्त मानवता, समस्त प्राणि-जगत के कल्याण के लिए अपेक्षित मूल्यप्रणाली है, जिसे हम सनातन धर्म कहते हैं, और इसके आधार पर प्राणिमात्र ही नहीं प्राकृत पदार्थों के भी खरे पन और खोटे पन की पहचान करते हैं। दाहकता है तो आग है, नहीं है तो आग का भ्रम है।

मामला इतना इकहरा भी नहीं कि हम दोनों के बीच कोई संबंध ही न जोड़ पाएँ।

ब्राह्मणवाद मजहब होने के कारण सनातन धर्म की तरह सर्व कल्याणकारी तो नहीं है, परंतु दुनिया के किसी समाज की तुलना में, ब्राह्मणवादी समाज में सनातन मूल्यों के लिए जितना अवकाश है उतना प्राच्य जगत को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं पाया जा सकता। अतीत में ही नहीं वर्तमान में भी। विश्व राष्ट्र संघ के दस्तावेजों में इसे उसी तरह स्थान दिया गया है, जैसे ब्राह्मणवाद में, परंतु पालन नहीं हो पाता।

आदर्श एक खयाल है जिस तक पहुंचने की कोशिश में हम किसी न किसी मंजिल पर अटके रह जाते हैं। दुर्भाग्य अटके रह जाने में नहीं है, दुर्भाग्य आगे बढ़ने की आकांक्षा के समाप्त हो जाने में है। हम जहां हैं, जिस दिशा में हैं, उसी में अपने को सही सिद्ध करने की आदत में है। सितारों से आगे के जहां की तलाश करने की इच्छा शक्ति के नष्ट हो जाने में है।

इसी परिप्रेक्ष्य में हम इस्लाम धर्म और मोहम्मदी मजहब के अंतर को समझ सकते हैं और जिस अनुपात में अपनी सीमाओं से ऊपर उठने का प्रयत्न करते हैं उसी अनुपात में दूसरों से ऊपर उठने और आगे बढ़ने की अपेक्षा रख सकते हैं।

दोनों के बीच वैसा ही घालमेल किया जाता है जैसा ब्राह्मणवाद और सनातन धर्म के बीच। सभी मुसलमान इस्लाम के पाबंद नहीं है, जैसे सभी हिंदू सनातन धर्म के पालन करने वाले नहीं हैं।

इस्लाम उनके लिए जीवित है जो शांति और सौहार्द के लिए काम करते हैं । जो स्वयं सोचते हैं और किसी किताब, किसी पैगंबर के मोहताज नहीं रहते। यह उनका धर्म है जो अपने दिमाग से काम लेते हैं, जो अपने समय में रहना चाहते हैं, जो अपने परिवेश से समायोजित हो कर रहना चाहते हैं, जिनकी संख्या कम होती गई है, जिनकी चिंता अपनी संख्या में कमी आने के अनुपात में बढ़ती चली गई है, जो अपने को बचाने के लिए इस्लाम की वापसी चाहते हैं और मुहम्मदी दासता से मुक्त होना चाहते हैं।

जिस कुरान का मुहम्मदन अक्षरशः पालन करना चाहते हैं, वह मुहम्मद साहब के इल्हामों का विश्वसनीय अभिलेख नहीं है। उसे उस्मानी काल में 644 के बाद, अर्थात मोहम्मद साहब के देहावसान के 11 साल बाद, एक विवादास्पद खलीफा उस्मान की जरूरतों के अनुसार तैयार किया गया, या जो पहले से चला आ रहा पाठ था उसमें रद्द-बदल किया गया।

ऐसा सभी प्राचीन अभिलेखों के साथ किया गया है। हमें रामायण के मूल पाठ का पता नहीं है, यद्यपि यह ज्ञान है कि मूल पाठ उपलब्ध रामायण से भिन्न था। हमारी विवशता है कि यह जानते हुए भी कि रामायण या महाभारत अपने मूल पाठ से हट चुके हैं, इसके बाद भी उपलब्ध पाठ पर ही भरोसा करना पड़ता है।

दूसरे ऐसा करते हैं तो हमें उनके विश्वास का सम्मान करना चाहिए। हम केवल इस बात की छूट ले सकते हैं इतिहासकार के रूप में इस सामग्री पर विचार करते हुए उस मूल सत्य तक पहुंचने के साधनों का उपयोग करते हुए, हमारी समझ से सचाई का जो रूप सामने आता है उसे सबके सामने निर्बंध और निसंकोच होकर प्रस्तुत करने का प्रयत्न करें। अपनी ज्ञान सीमा में, कल हम यही करने का प्रयत्न करेंगे।

Post – 2019-06-23

हिजरत (ग)

मोहम्मद साहब अपने विचारों का प्रचार नहीं कर पा रहे थे। काबा में तीर्थ यात्रा के लिए दूरदराज से आने वाले लोगों के बीच ही वह अपने मत का प्रचार कर सकते थे। इसकी छूट स्वयं कुरेशियों ने दी थी। उनके अपने देवी-देवता बचे रहें, दूसरों को वह क्या सिखाते हैं इससे उन्हें कोई मतलब न था। इस प्रतिबंध को छोड़कर उनको, उनके मतावलंबियों को, कोई परेशानी न थी। उनका लक्ष्य इससे पूरा नहीं होता था। यदि प्रचार मक्का से बाहर के लोगों के बीच ही करना था तो उन्हें यथ्रीब से 621 में आए हाजियों का अनुरोध मान कर उनके साथ चला जाना चाहिए था। परंतु वह स्वयं इसलिए नहीं गए कि वहां वे सुरक्षित अनुभव नहीं कर रहे थे। अर्थात् वह मक्का में अधिक असुरक्षित अनुभव कर रहे थे। इसका कारण क्या हो सकता है?

मदीना (यथ्रीब)
यथ्रीब जिसे मोहम्मद साहब के पहुंचने के बाद मदीना नाम प्राप्त हुआ, पहले नखलिस्तान के रूप में जाना जाता था। नख्ल= खजूर, नखलिस्तान= खजूर का प्रदेश। आज भी यहां से 300000 टन खजूर का निर्यात होता है । इसका कारोबार किन लोगों के हाथ में था, इसकी जानकारी हमें नहीं है, परंतु संभव है, इसमें प्रमुख भूमिका यहूदियों की रही हो जिसके कारण वे अधिक समृद्ध थे और स्थानीय अरबों से उनकी तनातनी चलती थी।
मक्का लाल सागर के पूर्वी तट पर दिसावर व्यापार का प्रधान केंद्र था। यूरोप जाने वाला भारतीय माल जहाजों के द्वारा यहां पहुंचता था और यहां से सीरिया और वहां से आगे। मक्का से यथ्रीब साढ़े चार सौ किलोमीटर दूरी पर है। रेगिस्तान के बीहड़ रास्ते में पानी की सुविधा होने के कारण कारवां इससे होकर गुजरा करता था। यथ्रीब के अरब सौदागरी भी करते थे और रहजनी भी कर लिया करते थे। रहजनी को उनके बीच शान की बात समझा जाता था।

मोहम्मद साहब से अपनी जिस खानदानी बहादुरी की डींग उन्होंने भरी थी, वह युद्ध के मैदान से अधिक लूटपाट से जुड़ी थी। इसी को लेकर उनकी आपस में भी ठनती रहती थी । उनकी लूटपाट के शिकार होने वाले काफिले मक्का के सौदागरों के ही होते थे, इसलिए मक्का के लोग यथ्रीब से शत्रुता रखते थे और यथ्रीब के अरब मक्का वालों को शिकार बनाते थे। एक का दुश्मन दूसरे का दोस्त माना जाता था।

मोहम्मद साहब स्वयं व्यापारी यात्राओं पर जाते रहे थे इसलिए इनके विषय में उन्हें अनुभव भी रहा होगा। यही कारण है कि मक्का में अनेक असुविधाओं के होते हुए भी, वह यथ्रीब की तुलना में अधिक सुरक्षित अनुभव कर रहे थे।और अगले साल 622 ई. में जब उन्होंने कसम खाई कि वे उनकी सुरक्षा अपने परिवार के लोगों की तरह ही करेंगे उसके बाद उन्होंने मक्का से मदीना में जाकर बसने का निर्णय किया।

कुरैशियों को मुसलमानों के मक्का छोड़कर जाने से परेशानी नहीं थी। परेशानी इस बात को लेकर पैदा हुई वे उनके दुश्मनों के साथ दोस्ती करने जा रहे हैं और उनसे मिलकर बदला ले सकते हैं। बाद की घटनाओं ने उनकी आशंका को सही सिद्ध किया ।

उनका यह सुनिश्चित करना कि मुहम्मद किसी हालत में मक्का से बाहर न जाने पाएं, इसी का परिणाम था और संभव है इसी कारण उन्होंने मोहम्मद की जान लेने की भी योजना बनाई हो । कहते हैं कि अपने हिज्र की रात को उन्होंने अपनी जगह अली को सोने को राजी कर लिया और इस तरह चकमा देख कर गायब हो गए। निकल भागने के बाद अबू बक्र के साथ 3 दिन तक वह एक गुफा में छिपे रहे। इस बीच उनकी चारों तरफ खोज होती रही। कुछ लोग गुफा के पास भी पहुंचेे परंतु वहां तक पहुंच नहीं पाए । चौथे दिन मोहम्मद मदीना की यात्रा पर रवाना हुए। यह कहानी सूरा तौबा की एक आयत में उतरी लगती है।
If ye help him not, still Allah helped him when those who disbelieve drove him forth, the second of two; when they two were in the cave, when he said unto his comrade: Grieve not. Lo! Allah is with us. Then Allah caused His peace of reassurance to descend upon him and supported him with hosts ye cannot see, and made the word of those who disbelieved the nethermost, while Allah’s Word it was that became the uppermost. Allah is Mighty, Wise. ﴾40﴿

वह एक ऊंटनी पर सवार होकर निकले थे। अपने लंबे सफर में वह कहां कहां रुके यह हमारी चिंता का विषय नहीं परंतु अपने बाल बच्चों को लाने के लिए भी उन्होंने जईद को भेजा । काबा में इस बीच उनके साथ किसी तरह का दुर्व्यवहार नहीं किया गया था। वे सम्मान सहित उनके पास पहुंच गए।

मदीना में उन्होंने अपने को हर तरह के बवाल से अलग रखा। एक मस्जिद कायम की । मस्जिद के पूरब तरफ अपनी पत्नियों के लिए बहुत मामूली किस्म की झोपडियां बनाई ।

मदीना में उन्हें और दूसरे मुसलमानों को जितनी आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा वैसी तंगी उन्होंने इससे पहले कभी नहीं देखी थी। दिनोंदिन उन्हें खजूर खाकरअपने दिन काटने पड़े। परंतु इनका भी हमारे लिए उतना महत्व नहीं है जितना इस बात का कि मदीना में पहुंच कर, धरती पर अमन का पैग़ाम फैलाने वाले पैगंबर के दिन पूरे हो गए। मोहम्मद वही रहा, पर पैगंबर का स्थान सिपहसालार ने ले लिया। अमन का मसीहा जंगजू में बदल गया। यह मेरी खोज नहीं है, इसे कैनन सेल ने बहुत सटीक ढंग से बयान किया है। Mohammed failure at Mecca was that of the prophet; his triumph in Medina was that of the chieftain and the conqueror. मेरी उनसे सहमति मात्र है।

इसमें मैं केवल अपनी ओर से इतना और जोड़ना चाहूंगा कि मक्का में अल्लाह के पैगाम मोहम्मद तक पहुंचते थे, मदीना में मोहम्मद जो चाहता और करता है उसकी ताईद अल्लाह को इल्हाम के रूप में करना पड़ता है।

यदि हम अल्लाह के स्थान पर अंतरात्मा को रखें और इल्हाम को अंतरात्मा की आवाज कहें तो हम कहेंगे अंतरात्मा ने उनका साथ छोड़ दिया या उसकी आवाज कमजोर पड़ गई। उसका स्थान संकल्प शक्ति ने ले लिया। जो ठान लिया वह करना है। जो करते हैं वह गलत नहीं है उसे सही सिद्ध होना ही पड़ेगा। पहले जो दुनिया की नजर में गलत था उससे बचना था मोहम्मद ने जो कुछ किया सही है। सही और गलत का फैसला इस बात से होगा मोहम्मद ने क्या किया और क्या नहीं किया और क्या न करने को कहा।

पहले अल्लाह के फरिश्ते ने मोहम्मद को दबोच कर कहा था, कलमा पढ़, अल्लाह के अलावा कोई अल्लाह नहीं है, अल्लाह से बड़ा कोई नहीं है। मक्का में पैगंबर अल्लाह से छोटा और उसके फरिश्ते का मोहताज था, मदीना में कलमा गलत हो गया। मोहम्मद अल्लाह से बड़ा हो गया। आप अल्लाह की आलोचना कर सकते हैं, मोहम्मद की नहीं। अल्लाह ने जो कुछ बनाया है उसमें गलतियां निकाली जा सकती हैं। मोहम्मद ने जो कुछ कहा या किया या जिस रूप में सुना उसमें कोई गलती नहीं तलाशी जा सकती।

पहले फरिश्ते अल्लाह के ताबेदार थे, अब मोहम्मद के ताबेदार हो गए चाहे तो उन्हें फरिश्ता माने, न चाहे तो शैतान करार दे दे।

यदि मक्का में इस्लाम था, अमन और ईमान का निर्वाह था, तो मदीना में सभी की परिभाषाएं उलट गई। अल्लाह अल्लाह न रहा, अल्लाह के बंदे मोहम्मद के बंदे बनने की प्रतिस्पर्धा में शामिल हो गए। इस्लाम समाप्त हो गया, मोहम्मदवाद आरंभ होगया। विश्व इतिहास की यह सबसे बड़ी दुर्घटना है जिसमें इस्लाम ने सुसाइड कर के मुहम्मदवाद के रूप में नया अवतार लिया। अपने को मुसलमान कहने वालों में मुसलमान कोई नहीं है मुहम्मदन पूरी दुनिया में फैल गए हैं और विश्व मानवता के लिए चुनौती बन गए है।