Post – 2015-12-12

बात ही काम है यह क्यों न समझते हैं जनाब!

‘‘तुम कहते हो हमारे पास कोई जन्मसिद्ध अधिकार न तो होता है, न ही है। संविधान में इन्हें गलती से डाल दिया गया है। संविधान निर्माताओं में भारतीय समाज की समझ नहीं थी।‘’

‘‘जो जन्मसिद्ध है उसे संविधान दुबारा कैसे देगा? जन्मसिद्ध अधिकार केवल भारत के लोगों को ही क्यों मिलेगा? तो पहले तो यह सोचो कि संविधान न तो जन्मसिद्ध अधिकार दे सकता था, न जन्मसिद्ध अधिकार होते हैं, सिवाय एक के।’’

‘‘सुनूँ तो!’’

‘‘रोने का अधिकार। और वह अधिकार नवजात को इसलिए नहीं मिलता है कि उसे पता होता है कि उसे रोने का अधिकार प्राप्त है और वह इसका इस्तेमाल कर रहा है। वह जन्म की पीड़ा और माँ के गर्भ में जो सुकून भरा तापमान होता है उससे बाहर आते ही तापमान की भिन्नता से पैदा बेचैनी से पैदा होने वाली चीत्कार है जिसके बारे में बच्चे को भी पता नहीं होता कि वह कर क्या रहा है और उसे सुन कौन रहा है। देखो, परिभाषा पर तौलो तो आत्माभिव्यक्ति और स्वान्तःसुखाय अभिव्यक्ति का अवसर जीवन में एक ही बार आदमी को मिलता है: जन्म के बाद, बिना यह जाने कि इसे कोई सुनने जानने वाला है या नहीं। अभिव्यक्ति से उसे जरूर सुकून मिलता है।

“अच्छा, आदमी और जानवर में सबसे बड़ा अन्तर क्या होता है, यह बता सकते हो?’’

‘‘मेरी परीक्षा ले रहे हो?’’

‘‘नहीं, बस पूछ लिया यह जानने के लिए कि मैं जो सोचता हूँ क्या वही तुम भी सोचते हो।’’

‘‘जानवर के पास आवेग होते हैं, बुद्धि नहीं होती।’’

‘‘तुमसे यही उम्मीद थी। तुम्हें यह बताऊँ कि आदमी जानवरों से अधिक मूर्ख पैदा होता है और अधिक मूर्ख रहता है तो और पूरी समझदारी से, पूरी जिन्दगी जीने के बाद उस सच को समझ पाता है जिसे मीर ने मुखर किया था: ‘यही जाना कि कुछ न जाना हाय! सो भी इक उम्र में हुआ मालूम।‘ अर्थात् वह मूर्ख पैदा होता है, दूसरे जानवर, खैर सभी जानवर नहीं परन्तु अधिकांश जानवर, पैदा होते ही अपने पाँवों पर खड़े हो जाते है, पर आदमी के बच्चे को पाँवों पर खड़ा होने का शउूर भी एक लम्बे संघर्ष के बाद मिलता है। जानवर मनुष्य से अधिक व्यावहारिक होते हैं, और इसलिए वे उन तमाम मूर्खताओं से बच जाते हैं जिनके कारण मनुष्य एक दूसरे का सिर काटते हैं। यदि आदमी का विकास न होता तो यह धरती अयुत कोटि वर्ष तक बची रहती, अपनी अधिकतम विविधताओं के साथ। आदमी पैदा हो गया तो जब तक प्रकृति के नियम के अनुसार रहा सब कुछ सन्तुलित था। जनसंख्या तक। जब उसने प्रगति के नाम पर प्रकृति पर विजय पाने का अभियान छेड़ा, वहीं से उसने अपने ही नहीं, धरती के विनाश की नींव रख दी।’’

‘‘तुम मुझे गलत सिद्ध करके किसी सच पर प्रकाश डालने वाले थे।’’

मैने उसकी बात पर ध्यान ही नहीं दिया, ‘‘आदमी और दूसरे जानवरों में फर्क सिर्फ यह है कि दूसरा कोई जानवर जन्म लेते ही रोना नहीं शुरू करता। अपने पाँव पर खड़ा हो जाता है। आदमी अकेला है जो जन्म लेते ही रोने लगता है, रोते हुए जीता है और दूसरों को रुलाता हुआ, रोते रोते मर जाता है । दूसरे जीवों का जन्म जीने के लिए हुआ था उन्हें जीने नहीं देता आदमी। खुद जीने का शऊर न पैदा कर पाया आदमी और मरने का शऊर उसमें है ही नहीं, वर्ना खुद अपने पर्यावरण को गैस चैंबर बना कर घुट-घुट कर न मरता।“

“लेकिन हमने जन्मसिद्ध अधिकारों पर बात करना चाहा था।“

“मैं भी उन्हीं पर बात कर रहा था। कहा, जन्मसिद्ध अधिकार न होते हैं, न हैं। और जहाँ तक आधारभूत स्वतन्त्रताओं की बात है। वे किताब में होती हैं, पर किताब से बाहर होती ही नहीं। और जानते हो क्यों नहीं होती हैं?

‘‘जो तुम जानते हो उसे मैं कैसे जान सकता हूँ? बूझो तो बताउूँ की तर्ज पर, बताओ तो बूझूँ।’’

‘‘सच यह है दोस्त कि हमारे पास संविधान ही अशुद्ध मिला, उसे एक शूद्र ने बनाया, हमारा समाज इतना उदार है कि उसने एक ऐसे शूद्र को जो अंग्रेज़ों से कहता था, हमें स्वतन्त्र भारत में न्याय नहीं मिलेगा, इसलिए हमारी सुरक्षा का प्रबन्ध जब तक न हो जाय, देश को आजाद न करना, उसे समझा बुझा कर अपनी उदारता का परिचय देते हुए यह भी कह दिया, भाई तू ही बना दे ऐसा संविधान जिससे यह देश चले। और उसने बनाया भी एक मानवतावादी संविधान। हमारी सामन्ती सोच अपनी उदारता तो दिखा सकती थी, शूद्र के बनाए विधान को तो नहीं मान सकती थी। वैसे भी हम जिसे पवित्र मानते हैं उसकी पूजा करने लगते हैं, पर न उसे जानते हैं, न उसकी मर्ज़ी मानते हैं’’

‘‘क्या बकवास करते हो यार! कभी किसी ने संविधान की आलोचना की है?’’

‘‘मैं भी मानता हूँ कि संविधान की आलोचना न होनी चाहिए। परन्तु तुम बताओ क्या संविधान की स्वीकार्यता के बाद संविधान की अवहेलना होनी चाहिए थी। ऐसा क्यों हुआ? मैंने एक चूक की कि इसे वर्णवाद के खाते में डाल कर समझने का प्रयत्न किया। वह गलत है। खासकर तब जब एक नया वर्णवाद अंग्रेजी षिक्षा से पैदा हो चुका है जो दोनों जहाँ की नेमतें एक साथ भोगना चाहता है, परन्तु क्या हमने अपने संविधान का आदर किया? वाद स्वतन्त्रता से आरंभ हुआ था इसलिए स्वतंत्रता की ही बात करें। संविधान का मसौदा अंग्रेजी में बना था इसलिए उसे अंग्रेजी में ही रख कर समझें तो अच्छाः

Seven fundamental rights were originally provided by the Constitution – right to equality, right to freedom, right against exploitation, right to freedom of religion, cultural and educational rights, right to property and right to constitutional remedies.

“इनमें कोई ऐसा विधान नहीं है जिसका पालन हुआ हो। कोई ऐसी प्रतिज्ञा नहीं है जो परस्पर असाध्य न हो, कोई ऐसी योजना नहीं है जिसमें इनको हासिल किया जा सके।

“हमें यह अधिकार है कि हम अपने संविधान की महिमा गा सकते हैं परन्तु न तो उसके अन्तर्विरोधों को दूर कर सकते हैं, न ही उन विरोधों की प्रकृति को समझ सकते हैं। पूजना है तो समझना क्या!’’

‘‘तुम कहते हो हमारा संविधान और विधान जनता के हित में नहीं वकीलों के हित में बनाए गए हैं और इनके प्रचलन-काल में पूरे देश पर जो भी बीते, खुश केवल वे ही रह सकते हैं, इसलिए हमें संविधान पोषित अधिकारों की जगह अपने कर्तव्यों की बात करनी चाहिए जिनसे कतिपय अधिकार बिना माँगे मिल जाते हैं।“

“कमाल कर दिया तुमने तो। मेरे मुँह की बात छीन ली। हमारा संविधान नये उपनिवेशवाद का संविधान है और हम उसके ही परिणाम अपनी आँखों के सामने देख रहे हैं। जो कह दिया वह करेंगे नहीं। बात भी काम है यह क्यों न समझते हैं जनाब।

Post – 2015-12-11

स्वतंत्रता की खोज

आज मैं तुम्हें दो चार हजार साल पीछे ले चलूँगा। तैयार हो?
आगे चलने की बात होती तो सोचता भी, इतने पीछे तो हर चीज सड़ रही होगी।
सड़ाँध वर्तमान से ही आती है, अतीत में तो सब कुछ अश्मीभूत हो जाता है।
“जरूरत क्या पड़ गई इतने पीछे लौटने की?”
“मैं तुम्हें यह बताना चाहता था कि हमारे यहाँ स्वतंत्र जन्मा या फ्री बार्न की अवधारणा नहीं रही है। मनुष्य नहीं जीवमात्र अपने कर्म बन्धन के साथ जन्म लेते हैं।“
यह तो तुम एक बार कह चुके हो। मैंने मान भी लिया था। इसी बात को कितनी बार दुहराओगे।
“मैं जिन शब्दों का प्रयोग करते हुए तुमसे बात कर रहा हूँ उनमें से बहुतों का सैकड़ों बार प्रयोग कर चुका हूँ। प्रश्न शब्द या विचार का नहीं, सन्दर्भ का है। मैं यह याद दिलाना चाहता था कि स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है जैसे नारे केवल राजनीतिक या सांस्थानिक दबाव के सन्दर्भ में सही हैं। रूसो का आशय भी मात्र यही था। वह सार्विक नहीं था। चन्द्रशेखर इसी अर्थ में आजाद थे कि वह ब्रिटिश सत्ता की अधीनता नहीं स्वीकार करते थे और उसे उखाड़ फेंकने को कृतसंकलप थे। अन्यथा मनुष्य तो माँ के गर्भ से भी नाभि-नाल-बद्ध पैदा होता है और स्वयं उस बन्धन को काट भी नहीं सकता, दूसरे किसी को ही उसे काट कर मुक्त करना होता है।
स्वतन्त्रता का हमारे यहाँ अर्थ था अपनी रक्षा का भार स्वयं उठाना या स्वावलम्बन रहा है, फ्रीडम के पर्याय के रूप में इसका प्रयोग नया-नया है। मनु के एक कथन को नारीवादी आन्दोलनकारी और हिन्दू समाज-व्यवस्था को गर्हित सिद्ध करने वाले अक्सर उद्धृत करते हैः पिता रक्षति कौमार्ये भर्ता रक्षति योग्वने, रक्षति पुत्रः वार्धक्ये न स्त्री स्वातऩ्यमर्हति परन्तु इसके साथ उन पंक्तियों को प्रायः भूल जाते हैं जिनमें नारी काी के सम्मान की बात की गई है या अपने आवेश में उसका भी उपहास करते हैं। यहा मेरा प्रयोजन उसको उचित ठहराने का नहीं है, अभिप्राय यह याद दिलाने का है कि मनु ने स्वातन्त्र्य का प्रयोग ‘स्वतः अपनी सुरक्षा करने में समर्थ’ के अर्थ में लिया है, न कि बांध कर रखने के आशय में। नीतिग्रन्थों में व्याख्या की गुंजायश नहीं होती इसलिए मनु ने जो नहीं कहा, वह यह कि स्त्री अपनी कायिक सीमाओं के कारण अधिक अरक्षित है, वह अपनी रक्षा नहीं कर सकती। अतः शैशव से ले कर बुढ़ापे तक उसके स्वजनों में से किसी न किसी को उसकी रक्षा का दायित्व उठाना पड़ेगा। आज भी अन्यथा स्वतन्त्र महिलाओं को यदि किसी अपरिचित परिवेश में जाना हो तो वे अपने साथ किसी को रक्षक या एस्कोर्ट के रूप में लेकर जाना जरूरी समझती हैं। मैंने एक आधुनिक लड़की को राह चलते अपनी सहेली से यह बात करते सुना कि उसका ब्वाय फ्रेंड उस दिन उसके साथ नहीं था इसलिए अमुक जगह उसे अभद्र व्यवहार का सामना करना पड़ा। तो अब पति के स्थान पर उसका प्रेमी मात्र प्रेमी नहीं उसका रक्षक भी है। यह बात हमारी पीढ़ी के लोगों के गले शायद मुश्किल से उतरेगी कि वे सर्वत्र अपनी सन्तान का ध्यान नहीं रख सकते और सुरक्षा का तकाजा भी ब्वायफ्रेंड की तलाश में से एक प्रधान कारण है।
आज भी यही उम्मीद हम अपनी पुलिस से करते हैं, परन्तु पुलिस को यह अधिकार नहीं देते कि वह सुझा सके कि उसे सर्वाधिक सुरक्षित रहने के लिए किन नियमों का ध्यान रखना चाहिए। रखना चाहिए, कह रहा हूँ। रखना होगा नहीं। परन्तु यदि गलती से किसी ने यह सुझाव दे दिया तो उसकी आफत। अरे भाई, आपके ही बच्चों की सुरक्षा के लिए कहा जा रहा है, कि टेनिसकोर्ट की ड्रेस को सड़क बाजार का ड्रेस और बेड रूम के व्यवहार को गली बाजार का व्यवहार न बनाएँ। नारी स्वातन्त्र्य के नाम पर कामुकता की पुतली बनाने के लिए तो आप उकसा रहे हैं। यदि एक महिला पुलिस अधिकारी भी सार्वजनिक स्थल पर अशोभन व्यवहार के लिए कठोर कदम उठाती है तो मारल पोलिसिंग को खतरनाक बता कर वे ही लोग शोर मचाते हैं जो सामूहिक बतात्कार की बढ़ती प्रवृत्ति को पुलिस की विफलता बता कर शोर करते हैं। पहले उकसाते हैं कि समाज की टीकाओं और टिप्पणियों की चिन्ता मत करो, तुम्हारा प्राइवेट बिहैवियर यदि पब्लिक बन जाए तो उससे पब्लिक शरमाए, तुम्हे झिझकने की जरूरत नहीं है। यह एक जटिल समस्या है। हो सकता है इसके कुछ पहलू मेरी समझ में न आएं और इसका कोई सरल समाधान भी नहीं है। खास कर उन परिस्थतियों में जिनमें मनोरंजन और विज्ञापनों की दुनिया ने जैव विकारों को आनी लोकप्रियता का साधन बना रखा है। पर मनचलेपन को ही स्वतन्त्रता मान लेने के इस अहंकार के कारण ही आपदा का पहाड़ भी उस पर टूट पड़े इसकी संभावना बढ़ती है। कोई उनसे पूछे कि जो लोग और माध्यम तुम्हारे मनचलेपन को स्वतन्त्रता बता कर तुम्हें उकसाते हैं वे तुम्हारी जोखिम की कीमत पर अपना फैशन का कारोबार करना चाहते हैं, यह तुम्हें पता है और यदि हां तो क्या उस कारोबार का चलता फिरता माडेल बनने का मोल तुम्हें भी मिलता है। प्रसार चैनलों को विज्ञापन मिलता है, वे अपने कारोबार के लिए मारल पोलिसिंग का विरोध करते हैं और उनके कथन को उसकी तार्किक परिणति पर जे जाएं तो वे इसी के लिए इम्मोरलिटी को प्रोमोट करते हैं।
‘उन्हें अपना मोल मिले तो तुम प्रसन्न हो जाओगे, जब कि यह पोशीदा वेश्यावृत्ति होगा?’
‘‘उपभोक्तावाद ने परिभाषाएं बदल दी हैं। कभी गुलामों की बोलियां लगती थीं, अब खिलाड़ी खुद बिकने के लिए खड़े हो जाते हैं और गाहक न मिला तो अपना बल्ला तोड़ देते हैं। तुम जिसे पोशीदा वेश्यावृत्ति कह रहे हो उसी का विस्तार हुआ है धन की हवश में। अंगप्रदर्शी माडेलिंग को क्या तुमने इस नाम से पुकारा। यही पोशीदा वेश्यावृत्ति वनांचलों को ईसाइयत के माध्यम से अमेरिकी कूटक्षेत्र में बनाने चालू के लिए चालू रही है। यही उस मुहिम में रही है जिसमें तुम भौगोलिक रूप में देश को बाँटने के बाद, रेवड़ियों के लोभ में, मनोवैज्ञानिक स्तर पर बाँटने को तत्पर हो गए।“
“बात कोई भी हो, तुम उसे घसीट कर मेरे उूपर जरूर जाओगे। कमाल है यार।“
“तुम्हारा एक अपराध हो तो गिनाकर छुट्टी पा लूं। यह तुम हो जिसने मुसलिम समुदाय की ऐसी छवि बनाई और उसे प्रसारित किया है कि अल्ला ताला ने उसे बारूद से बनाया और हिन्दुओं के ईश्वर ने उसे चन्दन से बनाया जिसमें भुजंग लिपटे रहें तो भी विष नहीं व्यापता, रगड़ो तो भी सुगन्ध ही देता है और जिसको बात बेबात रगड़ कर इसका प्रदर्शन भी करते रहे हो कि ‘देखो इसने इसे भी सह लिया। अब और कड़ी परीक्षा से गुजारना होगा। बौखलाएगा कैसे नहीं। नहीं बौखलाया तो हमारी हार है।“
“हमारे नारीवादी नारी के अधिकारों की नहीं, हिन्दू नारी की यातनाओं और उनके अधिकारों की बात करते हैं। केवल हिन्दू को आधुनिक शिक्षा दिलाने की चिन्ता करते हैं। मुसलमान मदरसों में ही खुश रहेगा। मुस्लिम समाज को सचेत रूप में तुमने उनके मुल्लों और मौलवियों का गुलान बनाया है। और जिस हिन्दू समाज की उदारता, सर्व समावेशी प्रकृति को आदर्श के रूप् में प्रस्तुत करते हो, उसी हिन्दुत्व को, उसके मूल्यों और प्रतीकों को सबसे गर्हित, तुम सिद्ध करते आए हो, क्योंकि इसके लिए तुम्हें कुछ हासिल होता रहा है।’’
‘‘तुम्हें पता है तुम बहक गए हो। तुम चले थे स्वतन्त्रता की परिभाषा पर बात करने और पहुंच गए कहां।’’
“बहक तो गया पर यह समझाने के लिए कि स्वतन्त्रता के नाम पर बहुत सारी बदतमीजियां की जाती रही हैं। मनबहकी का पर्याय बना कर उसी को नष्ट करने के आयोजन होते रहे हैं। मैं कह रहा था कि स्वतन्त्रता जन्मजात नहीं मिलती, उसे अर्जित करना होता है। जन्मना स्वतन्त्र होने की बात केवल राजसत्ता के सन्दर्भ में की गई है सामान्य जीवन व्यवहार में मनचलापन नहीं, अनुशासन, संयम, कर्तव्यपालन, शिष्टाचार, स्वतन्त्रता के अनुसंगी घटक बन जाते हैं, सच कहें तो ऐसे ही गुणों से हम अपनी स्वतन्त्रता अर्जित करते हैं और गुलाम मानसिकता में इन्हीं का अभाव होता है। इस पहलू पर हम कल बात करेंगे।“
12/11/2015 5:24:48 PM

Post – 2015-12-10

हार की जीत

‘‘तुम जानते हो, मैं कब हारता हूँ?’’ सवाल अजीब था और अजीब सवालों के जवाब भी अजीब ही होते हैं। वह मुझे इस तरह देखने लगा जैसे देखना भी अन्धों की तरह टटोलना हो और फिर कुछ सोच कर बोला, ‘‘जब तुम मानते हो कि तुम गलत हो ही नहीं सकते और अपने विचारों को दूसरों पर लादते हो।’’

‘‘नहीं, तब नहीं, बल्कि तब जब तुम मेरी ऐसी बातों को भी मान लेते हो जो बाद में मुझे गलत लगती हैं। मैं अपने को सही नहीं सिद्ध करना चाहता, चाहता हूँ मुझे गलत सिद्ध करने के लिए सोचना आरंभ करो और हम वाद-प्रतिवाद से किसी सही नतीजे पर पहुँच सकें। हमारे बुद्धिजीवियों में आरोप प्रत्यारोप अधिक चलता है, सोच विचार कम। वे समझना नहीं चाहते हैं, अपनी गलत बातों को भी दूसरों से मनवाना चाहते हैं। वे जीतना चाहते हैं इसलिए जहां हैं वहीं ठहरे रह जाते हैं। आगे नहीं बढ़ पाते। यह एक तरह की हार है। इसमें दोनों की हार होती है। सही चर्चा में गलती को समझने का मौका मिलता है और इसलिए दोनों का हित होता है। या कहो दोनों जीतते हैं। इसलिए जब तुम मुझे सही मान कर, या लाजवाब हो कर चुप लगा जाते हो और बाद में मुझे लगता है कि तुम ठीक कह रहे थे तो मुझे लगता है मैं हार गया। मैं ही नहीं हम दोनों।

‘‘ये पवित्र विचार तुम्हें सूझे कहाँ से?’’

“कल कुछ देर बाद मुझे लगने लगा कि जिसे मैंने फोरम फार फ्रीडम कहा था उसका नाम कुछ और था। फिर अपने नोट देखे तो पता चला उसका नाम कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम था। चलो यह तो मात्र नाम की चूक हुई, परन्तु यह तो सूझा ही नहीं कि इसका जन्म स्तालिन के उस शान्ति अभियान के विरोध के लिए हुआ था जिसमें वह अमेरिकी पूँजीवाद को नया फासीवाद कह कर उससे बचाने के लिए दुनिया भर के बुद्धिजीवियों और कलाकारों को संगठित करने के प्रयत्न में था। इसमें अमेरिका के भी बहुत सारे बुद्धिजीवी शामिल हुए थे। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का नहीं, सांस्कृतिक स्वतन्त्रता का नारा दे कर, लोकतन्त्र खतरे में है का नारा देकर, दुनिया के बुद्धिजीवियों को बरगलाने का प्रयत्न था, जिसमें बहुत बड़े बड़े बुद्धिजीवी बेवकूफ बन गए थे। बट्रेंड रसेल जैसे लोग तक, क्योंकि पहले यह पता ही न चला कि इसे सी.आई.ए. चला रही है। दुनिया की ऐसी ऐसी नामी पत्रिकाएँ, पत्रकार, दार्शनिक, कलाकार, संगीतज्ञ, जितने भी नामी गरामी लोग थे। और जब पता चला तब तक उनकी साख गिर चुकी थी। जयप्रकाश नारायण और अज्ञेय जी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। कहां से कहां आ गए। लेकिन अज्ञेय जी के उत्थान में भी वह एक कारक था।“

उसके चेहरे पर सन्तोष की चमक उभर आई।

“और देखो तुम यह भी सही कह रहे थे कि अन्याय पर टिकी हुई व्यवस्था छूट दे सकती है; स्वतन्त्रता नहीं दे सकती, परन्तु उस छूट को ही स्वतन्त्रता के रूप में परिभाषित कर सकती है। इसलिये पूंजीवादी समाज की स्वतन्त्रता की परिभाषा और स्वतन्त्रता की गारंटी भी एक धोखा है। उसने समाजवाद के प्रति आकर्षित पीढ़ी को जो जी चाहे करने की छूट दी। नंगा नाचो बीच सड़क पर। दम मारो दम की छूट, भीड़ के बीच रतिलीला की छूट – बच्चे, बच्चियां, बूढ़े बूढ़ियां पास से गुजर रही हैं, तुम स्वानसाधना में लगे हो, कोई आपत्ति नहीं कर सकता। छूट है। कुछ भी करो, पूंजीवादी शोषण और दोहन ने एक पूरी पीढ़ी को नशेड़ियों और बदहवाशों की पीढ़ी बना कर रख दिया। उधर लगे रहो और हमें अपना काम करने दो। पिछले साठ सत्तर सालों में दुनिया में जितने उपद्रव हुए हैं या हो रहे हैं वे अमेरिकी शस्त्र उद्योग को जिन्दा रखने के लिए।“

“मैं तो यह कहूँगा कि जितनी भी भ्रष्टता फैल रही है वह अमेरिकी फैशन बाजार को आगे बढ़ाने के लिए और जितनी बीमारियाँ पैदा हो रही हैं उनके पीछे अमेरिकी दवा उद्योग को आगे बढ़ाने के लिए है और जितने भी संचार माध्यम चल रहे हैं उनके सामने अमेरिकी संचार माध्यमों की नकल कर रहे हैं। और और…”

“तुम कुछ आवेश में आ गए हो, पर बात मोटा-मोटी सही कह रहे हो। अब तुम यह बताओ कि एक ओर जहाँ रोज अकल्पनीय घृणित अपराधों की वृद्धि हो रही है दूसरी ओर नग्नता और हर तरह की छूट को रुचि और परिधान और जीवन शैली की स्वतन्त्रता कह कर उसकी जबरदस्त वकालत करने वालों के पीछे किसका हाथ है?”

“जाहिर है, अमेरिकी फैशन बाजार का और उस पर पलने वाले हमारे व्यापारिक संचार माध्यमों का।“

“विश्व सुन्दरियां जल्दी जल्दी भारत से क्यों चुनी जाने लगीं? क्योंकि भारत में गोरे रंग के प्रति आकर्षण लगभग बीमारी के स्तर तक है। यह तुम्हें अफ्रीका में नहीं मिलेगा। यहां कालों को गोरा बनाने वाले कारोबार के लिए खुला बाजार था।“

“तो सौन्दर्य, सुरुचि और स्वतन्त्रताओं के नाटक के पीछे खतरनाक स्वार्थ छिपे बैठे हैं!”

“स्वतंत्रताओं की आड़ में अपराधों का विस्तार किया जा सकता है और उनके पीछे अपराधियों का हाथ हो सकता है। हमारी कलाएँ और साहित्य इसके अपवाद नहीं हैं। कानून और व्यवस्था पुलिस का सिरदर्द है, परन्तु उसका उन फैक्टरियों पर कोई नियन्त्रण नहीं जो अपराध की मानसिकता पैदा करती हैं और अपराध के पैसे पर पलती-बढ़ती हैं, क्योंकि इसी स्वतन्त्रता के नाम पर उनका बचाव किया जाता है। तुमने देखी आज के अखबार में छपी रपट कि हमारे सिनेजगत में अपराधियों का पैसा काले से सफेद होता आ रहा है और इसी से समझ सकते हो कि अपराधियों की रुचि जिन चीजों में होती है उन्हीं की पूर्ति हमारे अधिकांश चित्र क्यों करते आ रहे हैं और उसी की बदौलत पहले जहाँ स्टार हुआ करते थे वहाँ सुपर स्टार क्यों पैदा होने लगे। दिलीप कुमार स्टार हैं और उसके बाद सुपरस्टारों की कतार, पर दिलीप ने जिस बदनाम गली की ओर नजर डालना तक उचित नहीं समझा, उसी गली में सुपरस्टार तेलमालिश करते फिरते हैं। पैसे की अपार भूख ने कला की महिमा को रौंद कर रख दिया है फिर भी सुपरस्टार स्वतन्त्रता का झंडा लेकर खड़ा हो जाएगा, कि हम अपराध और नंगे नाच के दृश्यों पर कैंची नहीं चलने दे सकते। सेंसर में बैठे पहले के महान फिल्मकारों ने इन्हें इतनी कारीगरी से बढ़ावा दिया है, इस पर आंच आई तो समाज में यथार्थ का चित्रण प्रभावित होगा। समाज का सब कुछ मिथ्या है, अपराध उसका यथार्थ है। समाज के अपराधीकरण में इस यथार्थ प्रेम का कितना हाथ है इसे कोई तय कर सकता है? अपराध के तरीकों का आविष्कार करने के लिए प्रतिभाशाली लेखकों को लगाओ और अपराध की नई संभावनाएं तलाश करो और अपराधिकयों की कल्पनाशीलता में सहयोग करो और अपराध को इतना रंजक बना दो कि अपराध मनोरंजन का स्थान ले ले। इन सबको घबराहट उस सेंसर से है जो इनकी बदतमीजियों पर कैंची चला सकता है।

“देखो जंगलीपन से आगे बढ़ते हुए मनुष्य सभ्य बना है। सभ्यता के प्रथम पाठ के रूप में उसने सीखा आत्मसंयम। उसने स्वतन्त्र होने के लिए मनमानेपन को कम किया ताकि दूसरों के साथ सही तालमेल कायम करके अधिक सुरक्षित और अधिक गौरवशाली बन सके। यदि स्वतन्त्रता के नाम पर मनमानेपन को बढ़ावा दिया जा रहा है तो चाहे वह हमारे वेश में हो या परिवेश में, हम अपराधी तत्वों के हाथ में खेलते हुए, जंगल की ओर वापस लौट रहे हैं। एक नये किस्म के जंगलीपन की ओर। इसलिए देखना यह होगा कि स्वतन्त्रता स्वतन्त्रता की कसौटी पर सही उतरती है या नहीं। वह हमारा उत्थान करती है या पतन; हमारी समस्याओं का समाधान करती है या समस्यायें पैदा करती है। हमारे बड़बोले अपनी अक्ल से काम ले रहे हैं या उन्हें कोई और प्राम्ट कर रहा है।“
“पैसे में बड़ी ताकत होती है यार।“
“बड़ी। जानते हो कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम के योजनाकार सिडनी हुक ने क्या कहा था? कहा था:
Give me a hundred million dollars and a thousand dedicated people, and I will guarantee to generate such a wave of democratic unrest among the masses–yes, even among the soldiers–of Stalin’s own empire, that all his problems for a long period of time to come will be internal. I can find the people.

“जरा सूरज की तरफ तो देखो। क्या आज भी पूरब की ओर से ही निकला है? हमारे विचारों में इतनी समानता कैसे पैदा हो गई?”
12/10/2015 9:01:37 AM

Post – 2015-12-09

न यहाँ के रहे न वहाँ के रहे

“हाँ कलबुर्गी के बारे में तुम क्या कह रहे थे?”

“कलबुर्गी के बारे में कुछ कहने चलूँ तो कई तरह के सवाल बीच में खड़े होंगे, इसलिए पहले उन सवालों पर बात कर लूँ तो कलबुर्गी पर बात करना आसान हो जाएगा। परन्तु ये सवाल भी ऐसे हैं कि इनको रुक-रुक कर समझना होगा, क्योंकि ये दार्शनिक अवधारणाओं से जुड़े सवाल हैं जिनको लोग जिस रूप में समझते हैं, उससे लगता है कि वे इनको समझते ही नहीं। इनमें पहली है स्वतन्त्रता।“

“हमारी तो लड़ाई ही इसी की है।“

‘‘अखाड़िया आदमी हो, जहाँ सोचना चाहिए वहाँ भी लड़ने लगते हो। लड़ने वाले समझते नहीं । समझते होते तो जैसा भी समाजवाद आया था, जैसे भी आया था, उसे बचा तो सकते ही थे। और बचा सकते तो दुनिया का बहुत कुछ नष्ट होने से बचाया जा सकता था। सोवियत क्रान्ति करने वाले डरे हुए लोग थे। आईने से डरने वाले लोग थे, अपने ही इतिहास से डरे हुए, अपने ही समाज के आगे बढ़े हुए हिस्से से डरे हुए, आसपास की दुनिया से डरे हुए। डरे हुए आदमी के पास बाँटने को भी डर ही होता है। वह जितना बनाता है उससे अधिक का ध्वंस करता है, उन सबका जिनसे डरा हुआ है। यही उसने किया। अपने इतिहास से ले कर समाज तक के साथ, फिर भी उसमें बहुत कुछ रक्षणीय था। और अपनी अधूरी समझ के कारण दूसरे देशों के साथ भी। फिर भी उसमें बहुत कुछ रक्षणीय था जिसे स्वतन्त्रता की सही समझ से बचाया जा सकता था। डरा हुआ आदमी या समाज स्वतन्त्रता का न तो अर्थ समझ सकता है, न स्वतन्त्र हो सकता है। सच कहो तो वह स्वतन्त्रता की परिभाषा से भी डरने लगता है।’’

‘‘स्वतन्त्रता की आड़ में लूटने की छूट, हड़पने की छूट, अन्याय करने की छूट, गुलामों का व्यापार करने की छूट लेने वालों का समर्थन करने वाले क्या स्वतन्त्रता का अर्थ जानते हैं? स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाने वाले क्या यह जानते हैं कि वे किसके गुलाम हैं?’’

‘‘यार मैं तो हैरान हो जाता हूँ। साल दो साल में एक बार तुम भी ऐसी बात कर जाते हो जिसके लिए सोलह आने सच का मुहावरा बना था जिसने सौ पैसे सच को मुहावरा बनने से रोक रखा है। तुमने तो यह भ्रम भी पैदा कर दिया कि तुम्हें लिबर्टी और इंडिपेंडेंस और फ्रीडम का भी अन्तर मालूम होगा, क्योंकि अनैतिक पर रोक न होने को तुमने छूट कहा और स्वतन्त्रता को उससे अलग रखा, इसलिए अनुमान भी करना पड़ता है कि तुमको आत्मनिर्भरता का भी अर्थ मालूम होगा। आज का दिन तुम्हारा रहा। नहीं गलत कह गया, अभी तक के चन्द लमहे तुम्हारे रहे, आगे तुम पर क्या बीतेगी इसे पहले से कैसे जाना जा सकता है?’’

वह अपनी खास हँसी में हँसा जिससे पेड़ों से चिड़ियों के उड़ भागने की आवाजें सुनाई देती हैं। दम ले कर बोला, ‘‘तुमको जल्लाद होना चाहिए था। फँसरी की रस्सी को मजबूत और चिकना बनाने के लिए कैसी रस्सी, कितनी चर्बी और कैसी गाँठ लगानी है, इस पर तुम्हारी मास्टरी है।’’

दोस्ती का मामला ठहरा। वह हँसा तो साथ तो देना ही था। पर यह जताने के लिए कि मैं उसकी उपमा का बुरा नहीं मानता। मुझे उस समय भी हँसना जारी रखना पड़ा जब वह अपनी उपमा को पूर्णोपमा बनाने का प्रयास कर रहा था।

‘‘देखो, मैं केवल तुम्हें नहीं, किसी भी धर्म, किसी भी विचारधारा, किसी भी पन्थ, किसी भी दल या संगठन से जुड़े व्यक्ति को न तो स्वतन्त्र मानता हूँ, न ही यह मानता हूँ कि उसमें स्वतन्त्रता का अर्थ समझने की योग्यता है। वह ‘स्व’ में होता ही नहीं है, किसी ‘अन्य’ से बँधा या उसकी कारा या उसके द्वारा बनाए गए दायरे में होता है, वह स्वतन्त्र कैसे हो सकता है? तुम हिन्दू हो तो स्वतन्त्र नहीं हो, तुम मुसलमान हो तो स्वतन्त्र नहीं हो, ईसाई हो तो स्वतन्त्र नहीं हो, गरज कि जितने भी अन्य तन्त्र हैं, उनसे जुड़े या बँधे हो तो स्वतन्त्र नहीं हो। तुम देश भक्त हो तो स्वतन्त्र नहीं हो, और यही बात भक्ति के सभी रूपों पर, सभी वादों पर, सभी इज्मों पर लागू होती है। विश्ववाद या इंटरनेशनलिज्म पर भी।’’

‘‘तुम स्वच्छन्दता को स्वतन्त्रता का पर्याय बना रहे हो।’’

‘‘नहीं। मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था कि तुम इनका भेद जानते हो या नहीं और दुख इस बात का है कि तुम इस परख में फेल हो गए।

देखो जिन लोगों ने इन पारिभाषिक शब्दों का अनुवाद किया वे पश्चिम के बराबर आना चाहते थे। वे मानते थे कि हमारे पास तो कुछ था ही नहीं। यदि पश्चिम को अपना लें तो हम आधुनिक हो जाएँगे। इसका अर्थ है, वे सोचते थे, पश्चिम अखोट है और यदि हम उसके समान बन जाएँ तो हम आगे बढ़ जाएँगे। इसमें यह निहित था कि हम जितना भी आगे बढ़ें, पश्चिम से पीछे ही रहेंगे। हम अपने को स्वतन्त्र कहते हुए उनके गुलाम बने रहेंगे। और जानते हो, तुम पश्चिमी परिभाषाओं के भी गुलाम बने हुए हो। परन्तु यदि हम कहें हमारे यहाँ इस समस्या पर यह कहा गया था, इसलिए हमें अपनी जातीय समझ से काम लेना चाहिए, तो यह भी अपने अतीत की गुलामी है।“

‘क्या सोचना हवा में होता है। उसका अथ-इति नहीं होता?’’

‘‘कमाल है यार। आज तो तुम एक पर एक अनमोल बचन बिन मोल बोले जा रहे हो। सोचना हवा में नहीं होता। उसकी जमीन होती है। उसका आधार होता है। यह जमीन पहले के सोचे और जाने हुए से तैयार होती है। दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे अन्तिम माना जा सके। इसलिए प्रत्येक अन्त एक नए आरंभ का प्रस्थान बिन्दु भी होता है। जो अब तक सोचा जा चुका है उसकी समीक्षा से सामने आता है वह पहलू जिसे सुलझाने के क्रम में नई पहल आरंभ होती है। पुराने पर अधिक भरोसा गुरुत्वाकर्षण का काम करता है। आप नई परिस्थितियों के अनुसार सही समाधान तलाशना चाहते हो, और गुरुत्वाकर्षण तुम्हें ऊपर उठने नहीं देता।’’

‘‘इतना सोचा-विचारा गया और उसके बाद यह माना गया, क्या इसके बाद भी सोचना बाकी रह गया है? तब तो किसी समस्या का अन्त हो ही नहीं सकता। सुलझ गया फिर भी अनसुलझा रह गया। फिर तो सीढ़ी और साँप के खेल की तरह ऊपर चढ़ो और नीचे आओ और फिर ऊपर चढ़ने की कोशिश करो।श्

‘‘नहीं, फिर नीचे आने की बात नहीं कर रहा हूँ, उस शिखर से ऊपर उठने की बात कर रहा हूँ। नए शिखर की पहचान की बात कर रहा हूँ।

‘‘स्वतन्त्रता हमारे ज्ञान-मीमांसा में थी ही नहीं। पश्चिम में गुलामों का व्यापार चलता था। यह यूनानियों के समय से या हो सकता है उससे भी पहले से चला आ रहा था। इसलिए वहाँ गुलाम की औलाद भी गुलाम हो जाती थी। उससे अलग आजाद आदमी की औलाद की, फ्री बार्न की अवधारणा पैदा हुई। फिर वह समझ कि आदमी आजाद पैदा होता है और हर जगह बेड़ियों में जकड़ा हुआ है जैसा मुहावरा बना जो रूसो के नाम से चलता है और जिससे उसने सामाजिक करार का सिद्धान्त गढ़ा था। परन्तु रूसो के करार सिद्धान्त से चार पाँच हजार साल पहले से हमारी चिन्ता धारा में करार सिद्धान्त प्रतिपादित था जिसमें मनु को राजा निर्वाचित किया जाता है और अपने राजकीय कर्तव्य के निर्वाह के लिए उन्हें प्रजा द्वारा कर देने की सहमति होती है। मैं नहीं कहता कि रूसो के चिन्तन पर भारतीय दर्शन का प्रभाव पड़ा था, गो पड़ा हो सकता है यह कहना गलत नहीं। परन्तु यहाँ स्वतन्त्रता की अवधारणा नहीं है। सामी मतों में पुनर्जन्म में विश्वास नहीं था, इसलिए उसमें पुरा जन्मों के आश्रवों या अवलेपों से बँधे होने और उन्हीं के भोग के लिए उन सभी बन्धनों और विवशताओं या अवसरों की कल्पना नहीं की गई थी।’’

‘‘तुम बोर बहुत करते हो यार! किसी भी चीज को ले कर तब तक बोलते जाओगे जब तक सुनने वाला बेहोश हो गर गिर न जाय।’’

‘‘तुम ठीक कहते हो। बोर होने से बचने के लिए हमने सोचना तक बन्द कर दिया है। सीधे यहाँ या वहाँ से विचार उड़ा लेते हैं और उसे नारे की तरह उछालना आरंभ कर देते हैं। साहित्यकारों का ज्ञान तो ललित लवंग लता परिशीलन से आगे बढ़ता ही नहीं। वही कविता, कहानी और आलोचना जिसमें सोच नदारद है। हमारे आलोचक अपनी विशिष्ट कलादृष्टि तक विकसित नहीं कर सके। या तो पुरानी दरबारी रुचि या पश्चिमी सामाजिक और सांस्कृतिक तकाजों से विकसित मानों का सीधा आयात। ऐसे लोग स्वतन्त्र न तो हैं न स्वतन्त्रता को समझ सकते हैं। मैंने कहा था न, तुमको तो स्वतन्त्रता की परिभाषा से भी डर लगेगा।’’

वह हँसने लगा, ‘‘चलो अपनी भड़ास निकाल लो। मैं भाग तो सकता नहीं।’’

‘‘तो मैं कह रहा था कि ये हमें उपलब्ध विचार हैं जो दो भिन्न परिस्थितियों और भिन्न जरूरतों से विकसित हुए हैं इसलिए स्वतन्त्रता की कोई पुरानी परिभाषा मात्र काम चलाऊ हो सकती है। यह वह जमीन है जहाँ से हमारी आज की परिस्थितियों में स्वतन्त्रता की एक व्याख्या करनी होगी, जिसमें इनमें से किसी का न तो बहिष्कार होगा न तिरस्कार न समग्र स्वीकार।“

‘न यहाँ के रहे न वहाँ के रहे, कोई तुमसे ही पूछे कहाँ के रहे। थक गए होगे, उठो ।“

Post – 2015-12-08

न समझे अपने घर को पर बदल डालेंगे दुनिया को

“यह बताओ, तुमने दाभोलकर और कलबुर्गी को पढ़ा है? साफ साफ बताना।“

“पढ़ा तो नहीं है।“

“फिर तुमने उन्हें कमजोर और बदहवास लेखक कैसे कह दिया। क्या यह तुम्हें शोभा देता है।’’ उसने मुझे गर्दन से पकड़ लिया।

“पढ़ने का जी नहीं हुआ।“

“और फतवा देने को जी मचल उठा। पढ़ने को जी क्यों न हुआ, यह भी तो सुनूँ।“

“दोनों घटनाएँ दो कालों में हुई, दोनों के बीच घालमेल करके उसी तरह एक फर्जी दृश्य बनाया गया जैसे अलग-अलग स्तरों और स्थितियों से कंकाल जुटा कर बिना उनकी छानबीन किये, सच तो यह है कि पहले की छानबीन को किनारे डालते हुए, ह्वीलर ने मोहेंजोदड़ो के हत्याकांड का किस्सा बनाया था और जिसे तुम्हारे पेशेवर इतिहासकार, जो इस मजमे में भी शामिल हैं, बड़े विश्वास से सन दो हजार तक पढ़ाते रहे और इसे गलत सिद्ध करने वालों पर संशोधनवाद का आरोप लगाते रहे।

“परन्तु दोनों घटनाएँ हुईं एक ही शासन में जिसका इतिहास सांप्रदायिक दुर्भाव पैदा करके सत्ता में बने रहने का है। दोनों के विषय में जो सूचनाएँ छन कर आईं उनसे पढ़ने की उत्सुकता ही न हुई। लगा दोनों में या तो सामान्य बुद्धि का अभाव था, या वे बड़े लेखक थे ही नहीं। इनमें दाभोलकर की तो उनके साहस और संकल्प के लिए प्रशंसा भी की जा सकती है, कलबुर्गी को उसका भी श्रेय नहीं दिया जा सकता।“

“तुम जानते हो तुम क्या कह रहे हो?”

मैंने उसकी कही की अनसुनी कर दी, ‘‘कलबुर्गी को सहमत छापने जा रहा है तो यही इसका प्रमाण है कि वह मार्क्सवादी कलेवर में पलती मुस्लिम लीगी सोच का लेखक रहा होगा।“

“हद कर दी यार तूने। कई बार तो तुम्हारे मुँह पर थप्पड़ मारने का मन करता है।“

“तुम यही कर सकते हो। पर यह काम भी तुम ठीक ठीक नहीं कर सकते वर्ना अपने मुंह पर थप्पड़ मारते। थप्पड़ मारने से अच्छा है मेरी बात पर ध्यान दो।“
“क्या ध्यान दूँ तुम जैसे लोगों से बात की जा सकती है?“
“यार यदि तुम बात ही नहीं कर सकते, तर्क ही नहीं दे सकते, तुम्हारे पास कहने को कुछ है ही नहीं, केवल फतवे दे सकते हो, तो मुकदमा तो तुम लड़ ही न पाए। खुद हार गए और हार कर भी छाती फुला रहे हो।“
“बताओ, बताओ, तुम्हीं बताओ क्या मिल गया तुम्हें इन दोनों के खिलाफ?”
“उनके खिलाफ तो कुछ मिलना ही नहीं था। वे बेचारे अपनी समझ को दूसरों के लिए अनुकरणीय मानते हुए अपने अनुसार पूरे समाज को चलाने को आतुर थे। जिन्हें अपने समाज की समझ तक नहीं वे जिद ठाने बैठे हैं कि समाज उनके अनुसार चले। समझ होती तो यह जानते कि वे क्या कर सकते हैं और क्या उनके वश का नहीं है। मैंने एक दिन कहा था न कि हमारी मुसीबत का सबसे बड़ा कारण यह है कि हम अपना काम करते नहीं, दूसरों के क्षेत्र में घुस कर उनका काम करने लगते हैं और इसके दो नुकसान होते हैं, हमारा अपना काम धरा रह जाता है और दूसरों के काम में खलल पड़ता है, उूपर से एक नई समस्या खुद पैदा कर लेते हैं। ऐसे लोगों को क्या कहेंगे?”
“तुम कहते हो साहित्यकार को सामाजिक प्रश्नों पर लिखना बन्द कर देना चाहिए और धार्मिक प्रवचन देना चाहिए।“
मैं कहता हूँ कि साहित्य और दर्शन के लिए समस्त ब्रह्मांड खुला है बल्कि कल्पना का आकाश भी। वह किसी को भी विषय बना सकता है और उसका चित्रण और विवेचन कर सकता है। परन्तु यदि वह यह ठान ले कि वह अमुक को दूर कर देगा, अमुक को बदल देगा तो रुक कर सोचना चाहिए कि बदलने का यह काम वह कर भी सकता है या नहीं। जिसे बदलना चाहता है उसकी प्रकृति और शक्ति को वह जानता भी है या नहीं। उस बदलाव की जिम्मेदारी किसकी है, यदि उसका संज्ञान वह नहीं ले रहा है तो उसके तार को समझता है या नहीं।“
“तुम्हारा मतलब है दाभोलकर को अन्धश्रद्धा और पाखंड के खिलाफ अभियान नहीं चलाना चाहिए था?”
“देखो अन्धश्रद्धा और पाखंड के खिलाफ अभियान इस देश में हजारों साल से चलते रहे हैं। सबसे ताजे दो आन्दोलन ब्रह्मसमाज और आर्य समाज के रहे हैं। एक लेखक भी यह करे गलत नहीं है। उसके लिए उसका सम्मान होना चाहिए। पर इस कारण वह लेखक के रूप में बड़ा नहीं हो जाता। लेकिन यदि वह किसी पाए का लेखक है तो उसे यह भ्रम नहीं पाल लेना चाहिए कि चलो लगे हाथ वह काम भी कर ही डालें जो इतने सशक्त आन्दोलनों से संभव नहीं हो पाया। इसके स्थान पर वह इसका अनुसंधान करते कि इसकी जड़ें अतनी गहरी क्यों हैं और इसका अस्तित्व किन शक्तियों पर कायम है जिनका उन्मूलन हुए बिना इसे कमजोर नहीं किया जा सकता। तब पता चलता कि इसका इलाज पूंजीवादी विकास और उसके द्वारा वैज्ञानिक सोच का प्रसार है, न कि कोरी लफ्फाजी।
“सामन्ती व्यवस्था में अन्धश्रद्धा, ढ़ोंग, जादू टोना, मानसिक पिछड़ापन सब बना रहेगा। पूँजीवाद सामाजिक न्याय और समानता का पोषक नहीं है फिर भी उसकी एक प्रगतिशील भूमिका है अगली मंजिलों की ओर बढ़ने में, परन्तु तुमने तो राष्ट्रीय पूँजीवाद की जड़ों पर ही कुठाराघात कर दिया, समय से पहले समाजवाद लाने के चक्कर में, सो उसकी दुर्गति तो हुई ही तुम्हारी भी दुर्गति हुई और यह बात आज तक तुम्हारे पेशेवर चिन्तकों की जहन में आई नहीं। मोदी उस दिशा में बढ़ना चाहता है तो उसी का विरोध कर रहे हो। इतनी सारी चीजों का घालमेल करके जो पाखंड तुम कर रहे हो उसके खिलाफ तो दामोलकर भी खड़े नहीं हो पाते। अधिक संभव है तुम्हारे साथ हो जाते क्योंकि तुम और वह सभी सामन्ती सोच के ही लोग हो जो एक पाखंड से दूसरे को दूर करने के सपने देखते हैं।“
“दाभोलकर की सामाजिक समझ दुरुस्त होती तो उन्हें पता होता कि अंडरवल्र्ड के कई रूप हैं जिसमें एक अन्धविश्वास और आस्था का मुखौटा लगा कर चलता है और इसके पास अपराधियों का एक दल है जो इसके कारोबार में बाधक लोगों को ठिकाने लगा सकता है। एक आशाराम नहीं बहुत सारे आशाराम बापू और बाबा और स्वामी बन कर अपना गिरोह चला रहे हैं और अरबों की संपत्ति के मालिक हैं। उनके विषय में जानकारी हो तो उसे पुलिस को सूचित करना चाहिए। खुद उन्हें दूर करने के लिए कमर कसने पर नतीजे बुरे हो सकते हैं। यह नासमझी ही सही, हमारी सहानुभूति तो ऐसे व्यक्ति से हो सकती है परन्तु इससे उसका लेखन बड़ा नहीं हो जाता। कितने गवाहों को जेल में पड़े पड़े आशाराम और उसके बेटे ने खत्म करा दिया। उन मरने वालों के प्रति हम गहरा सम्मान प्रकट कर सकते हैं कि वे झुके या बिके नहीं, पीड़ा भी अनुभव कर सकते हैं पर उनकी यह भूमिका एक ईमानदार और साहसी नागरिक की है न कि कला या साहित्य की, भले उनमें से कोई और भी लिखता रहा हो।
“तुम जानते हो दाभोलकर की मृत्यु आशाराम के गुगों ने किया था और इस सचाई को उनका नाम उछालकर अपनी रोटी सेंकने वालों ने लगातार छिपाया कि जिस दिन उन्होंने आशाराम के खिलाफ अपने पत्र में लेख लिखा था उसके कुछ ही दिनों के बाद उनको गोली मारी गई थी।। छिपाया इसलिए जाता रहा कि इससे उनके मोदी हटाओ देश बचाओ की असलियत खुल जाती। ये लोकतन्त्र विरोधी लोग हैं। जनता ने जिसे चुन कर भेजा उसे ये काम करने नहीं देंगे। अभिजातवाद के समर्थक हैं ये लोकतन्त्र के नहीं।“
“कलबुर्गी का मामला इससे भिन्न है परन्तु अधिक मूर्खतापूर्ण। उठो, उसे कल के लिए रहने दो।“

Post – 2015-12-07

कीजिये हाय हाय क्यों

आज मैंने ही बात शुरू की, ‘‘देखो, कल मैं जान बूझ कर कुछ आक्रामक हो रहा था। विज्ञापनों की दुनिया से हम जानते हैं कि जादुई यथार्थ पैदा करके झूठ को सच और सच को झूठ में कैसे बदला जा सकता है। इस मोटी सचाई को न समझ कर तुम किसी न किसी बहाने उसी मुद्दे को उछाल देते हो, जो है नहीं, फिर भी जिसके होने का भ्रम पैदा किया जा रहा है।“

“तो तुम मान रहे हो सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है।“

“ऐसा कैसे मान सकता हूँ, कभी ऐसा हुआ ही नहीं तो आज क्यों होगा। यह तो प्रलय के समय होगा, जब सारी झंझट ही खतम हो जाएगी। ‘मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यों’, इसलिए ‘रोइये जार जार क्यों कीजिये हाय हाय क्यों।‘ जब तक मनुष्य है तब तक बहुत कुछ ठीक होने के बाद भी बहुत कुछ गड़बड़ रहेगा और उसे दूर करने के प्रयत्न में ही आगे का विकास होगा, परन्तु विकास के साथ नई गड़बड़ियाँ भी पैदा होंगी। आज तक इतिहास में कभी कोई दौर दिखाई नहीं देता जब असन्तोष के हजार कारण न रहे हों। कभी कभी ये ऐसा उग्र रूप ले लेते हैं कि हम उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते। अन्यथा जीवन की सहज गति को बनाए रखना समस्याओं के समाधान का सबसे कारगर उपाय है। समस्यायें अनन्त हैं। जितने लोग उतनी समस्यायें या कहो एक-एक के पीछे दस दस समस्यायें। सभी लोग अपनी समस्याओं के समाधान में ही लगे हैं और इन समस्याओं के समाधान के क्रम में अन्य सतस्याओं का भी समाधान होता चल रहा है। हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि हम अपने लिए और दूसरों के लिए समस्याएं पैदा न करें। इसलिए मन लगाकर अपना काम करो। समय बचे तो दूसरों की भी मदद करो।“

“तुम बातों को दूसरी ओर मोड़ देते हो यार! मैं उस असहिष्णुता की बात कर रहा था जिसमें लेखकों को मार दिया जा रहा है। मैं उस अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की बात कर रहा था जिसमें वे अपने विचारों को निडर हो कर प्रस्तुत कर सकें। मैं दाभोलकर और कलबुर्गी के हत्यारों की बात कर रहा हूँ। तुमने आज का अखबार नहीं देखा। रामचन्द्र गुहा भी इससे असुरक्षित अनुभव करने लगे हैं और तुम पर कोई फर्क नहीं पड़ता।“

“कितनी बार कहा तुमसे कि अनपढ़ आदमी अपने पूरे दिमाग से काम लेता है, ज्ञानी लोगों के पास अपना दिमाग होता ही नहीं। वे इसे गिरवीं रख कर ज्ञानी की ख्याति और लाभ पाते हैं और फिर इसका इतना चस्का लग जाता है कि अपने दिमाग से काम लेना बन्द कर देते हैं। सिर्फ फायदा ही फायदा दिखाई देता है। रामचन्द्र गुहा भी ऐसे ही लोगों में आते हैं लेकिन अंग्रेजी बहुत अच्छी लिखते हैं। ये भी समाज से ही नहीं, अपने जमीन तक से कटे हुए, आत्म विकल प्राणी हैं। अपने गले में फाँसी लगाने वाले लोग । असुरक्षित अनुभव करने के लिए सीधे इंग्लैंड से भागे चले आए बेचारे। इन पर भरोसा मत किया करो नहीं तो तुम्हारी दशा भी वैसी ही हो जाएगी। सोचोगे पूरब की जाओगे पच्छिम।“

“तुम नहीं सोचते कि तुम अपनी लफ्फाजी से हत्यारों को बचा रहे हो?
“हत्यारों को तो उन्होंने बचा लिया यार, जो छाती पीट रहे हैं। दबाव में आ कर पुलिस कई बार तत्परता दिखाने के लिए बेगुनाह को पकड़ लेती है, उसे डरा धमका कर गुनाह भी कबूल करवा लेती है और फिर पता चलता है वह आदमी तो बेकसूर था। इस बीच जो बच निकलता है वह है सही अपराधी। वही यहां भी हुआ। अपराध हुआ कांग्रेस के शासन में गुनागार भाजपा को साबित करने लगे। जनता, जो इसे जानती है, उसके दरबार में साबित तो नहीं हो पाएगा, शोर जरूर मचा रहेगा। परन्तु उस शोर के अनुपात में ये बुद्धिजीवी अपने ही समाज की नजर में गिरते जाएंगे, अपनी साख खोते जाएंगे और साहित्य और विमर्श का दायरा सिकुड़ता जाएगा।
मैं उन अभागों को मरने से तो नहीं बचा सका, परन्तु बचे हुए लेखकों की साख और सम्मान और विवेक को बचाने की कोशिश अवश्य कर रहा हूँ और यह जानते हुए कर रहा हूँ कि वे इसके लिए मुझे ही बदनाम करेंगे, पर न सीख पाएँगे न अपने को बचा पाएँगे।“

“मेरी समझ में तुम्हारी बात नहीं आती।“

“आती है, पर तुम्हारी जिद की वजह से बात तुम्हारे माथे से टकरा कर दूर छिटक जाती है। मैं कहना चाहता हूँ कि अभिव्यक्ति की मर्यादा होती है, स्वतन्त्रता की भी मर्यादा होती है। स्वतन्त्रता हमारे पास नहीं होती है, इसे हमें अर्जित करना होता है। अर्जित करना हमारे विवेक और संकल्प पर निर्भर करता है, अर्जित कर पाना हमारे अतिरिक्त कुछ और बातों पर भी निर्भर करता है। तुम स्वयं भड़काने वाले वक्तव्यों की निन्दा कर रहे थे। यदि तुम्हें लगे कि तुम्हारे लेखन से कुछ लोगों की भावनाएँ आहत हो रही हैं तो लेखन का तरीका बदलो। एक चेतना की सुगबुगाहट होती है, यह सुगबुगाहट पैदा करना रचनाकार का दायित्व है। यही उसकी सामाजिक भूमिका है। पर एक वेदना की कसमसाहट भी होती है, इससे लेखक को बचना चाहिए। यदि कोई एक व्यक्ति भी किसी कृति से आहत होता है तो लेखक को उसे समझाने का प्रयत्न करना चाहिए कि उसका इरादा उसकी भावना को आहत करने का नहीं था। लेखक बहुत बड़ा हो कर भी अपने पाठक से छोटा होता है, उसी को समझाने, सही दिशा देने के लिए, कहो, उसी की सेवा में तो वह अपना लेखन अर्पित करता है। उसका स्वान्तः सुख भी अपने पाठक से स्वान्तः सुख से एकमेक होता है। कोई महान से महान लेखक या रचनाकार समाज से महान नहीं हो सकता। यह समझ लेखक को विनम्र बनाती है, यदि यह समझ नहीं है तो उद्धत लेखक उद्धत प्रतिक्रियाओं के लिए स्वयं जिम्मेदार है।“

“समाज में जागृति पैदा करने के लिए, समाज की अभ्यस्ति को तोड़ने के लिए, उसकी सोच को बदलने के लिए, जो कुछ लिखा जाएगा, उससे बहुतों को आपत्ति होगी।“

“जागृति पैदा करने वाला स्वयं तो जगा हो! सोए सोए खर्राटे भर कर दूसरों की नीद खराब करने को जागृति का आह्वान कहते हो? मेरी पूरी सहानुभूति उन लेखकों के साथ या ऐसे लोगों के साथ है जिनके अपने विचार से मतभेद होने पर कोई उनकी हत्या कर देता है। ऐेसे हत्यारों के प्रति मेरे मन में कटुता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। मैं किसी पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने को भी गलत मानता हूँ। सत्ताइस साल बाद एक कांग्रेसी ने माना कि सैटेनिक वर्सेज पर प्रतिबन्ध गलत था। रश्दी की हत्या के फतवे को तो जघन्य मानता हूँ। पर इसके साथ ही मैं रश्दी को घटिया और खुदफरोश लेखक भी मानता हूँ जो पश्चिमी पाठकों के मनोरंजन के लिए अपने समुदाय की भावनाओं को सचेत रूप में आहत कर रहे थे। रश्दी एक बहुत समर्थ लेखक हैं। उनकी रचनात्मक क्षमता का मैं आदर करता हूँ। मैं इन्दिरा जी की बहुत सी बातों की कटु आलोचना करता हूँ, परन्तु मिडनाइट चिल्ड्रेन में जिस बेहूदे ढंग से उनका चित्रण है उससे मुझे रश्दी के भीतर के लफंगेपन का भी आभास हुआ था, जिसके रहते समर्थ से समर्थ रचनाकार महान रचनाकार नहीं बन सकता। सैटेनिक वर्सेज में वह उससे अधिक कुत्सित लगे और अपनी कलात्मकता में भी कलाबाज अधिक कलाकार कम लगे। दाभोलकर और कलबुर्गी के मामले में वह कुघट घटित हो गया जिससे रश्दी बच गए, परन्तु उनकी नृशंस मृत्यु के कारण ही वे मेरी नजर में अच्छे लेखक नहीं हो जाते। मैं उन्हें खासा कमजोर और एक हद तक बदहवास लेखक पाता हूँ। पुरस्कार पर मत जाना।“

“मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ पर इस पर कल बात करेंगे।“
12/7/2015 10:31:50 AM

Post – 2015-12-06

बात पर वाँ ज़बान कटती है

“एक लेखक के नाते तुम्हें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मोर्चे पर तो लेखकों का साथ देना चाहिए।””

“अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को केवल लेखकों तक क्यों सीमित कर रहे हो? दूसरों को इससे वंचित कर दोगे?”

“नहीं, मेरे कहने का यह मतलब नहीं था। मैं तो बोलने की आजादी की बात कर रहा हूँ।”

“किसकी आजादी पर रोक लगी है। यहा तो अनाप-सनाप बोलने, बरजने पर भी बोलते रहने की आजादी है। निरीह बालिकाओं के साथ सामूहिक बलातकार करने वालों तक का बच्चों से गलती हो जाती है कह कर पक्ष लेने वालों तक को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्राप्त है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध तो साहित्यकार, खास कर आलोचा ही लगाते रहे हैं कि यदि ऐसा लिखा तो तुम्हें रिऐक्शनरी सिद्ध कर देंगे और तुम्हारा लेखकीय भविष्य चौपट हो जाएगा। बोलने की आजादी की हिमायत करने वाले लोग चुप रहने तक की आजादी पर हमला करने को तैयार रहते हैं।“

“चुप्पी का मतलब होता है मिली भगत। सहमति। तुम अपने मुँह से नहीं उनके मुँह से बोल रहे हो. उन लोगों का मौन समर्थन कर रहे हो जो बकवास करते फिरते हैं। जिनके बयान से समाज में उत्तेजना फैलती है।“

“तुम मानते हो कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में उत्तेजना पैदा करने वाली अभिव्यक्ति नहीं आनी चाहिए। उस पर रोक लगनी चाहिए। उसकी भर्त्सना की जानी चाहिए।“

उसे लगा कि उसे ही उसके ही कथन से घेरा जा रहा है। तुरत जवाब देने को मुँह खोला और फिर बन्द कर लिया।

“जब उत्तेजना पैदा करने वाले बयानों की भर्त्सना की जाती है, उस पर भी मौन रहने को क्या यह नहीं मानोगे कि इससे भी मौन सहमति जताई जा रही है। देखो, उत्तेजना पैदा करने वालों को उत्तेजित प्रतिक्रिया का स्वागत करना चाहिए । यदि उत्तेजना न पैदा हो तो उन बेचारों का प्रयास ही विफल होगा। परन्तु भारतीय समाज की परिपक्वता तो देखो। दोनों धड़ों के सिरफिरे ऐसे बयान दे रहे हैं जिससे उत्तेजना पैदा हो और इसके बाद भी समाज पर किसी का गहरा असर नहीं पड़ता क्योंकि समाज उत्तेजना और उग्रता पसन्द नहीं करता। हमारा मिजाज क्षमा-दया, अनसूया, अहिंसा और सत्यनिष्ठा आदि के उन मूल्यों को आत्मसात करके बना है जिसमें क्षोभ क्षणिक होता है और शान्ति और सहयोग स्थायी। जल अपने तल को सँभालना जानता है पर हवा और अवरोध से कुछ तरंगें भी पैदा हो जाया करती हैं। यह समाज सृष्टि का मूल जल को मानता रहा है और इसकी प्रकृति को इसकी आत्मा ने आत्मसात् कर रखा। पानी को काटना आसान है, टुकड़े करना असंभव। इसलिए तुम्हारा लेखक हो या पंडा या मुल्ला उत्तेजना पैदा करने का अपराध ये ही करते हैं, लोगों की नजर में आने के लिए। साहित्य में भी बहुत कुछ ऐसा किया जाता है जो मानवद्रोही, उत्तेजक और अनिष्टकर होता है और इसलिए वर्ज्य होना चाहिए, इसके बाद भी हमारे समाज में कभी किसी भी अभिव्यक्ति को किसी काल में प्रतिबन्धित नहीं किया और इसकी दुहाई तो संघ भी देता रहता है। फिर दूसरों की जबान कौन काटता फिरता है?
तुम। तुम जिस दर्शन में विश्वास करते हो उसमें बोलने वाले अपनी जबान खुद कटवा कर जान बचा लेते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि ज़बान खुली तो जान से जायेंगे, और मन को समझा लेते हैं कि वे एक क्रांतिकारी काम कर रहे हैं। शोषित, पीड़ित और वंचित सर्वहारा के स्वयंभू प्रतिनिधि जो जी आए कहते रहें और लोग सुनते रहें, परन्तु यदि वे कुछ कहना चाहेंगे तो यदि सत्ता हाथ में हुई तो उन्हें यातनागृह में भेज दिया जाएगा या चीन का वह कौन सा चैाक था, तिनामेन, जो भी नाम हो, उसमें अपने ही नौनिहालों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की माँग पर कत्ल कर दिया जाएगा। बख्तर बन्द गाड़ियों से मशीन गन चला कर और रौंद कर मार दिया गया था। न हवाई फायर, न आंसू गैस, न वाटरजेट, न गोली, सीधे गोला और रौदने वाला चेन तुम्हे याद है, आपात काल के सबसे बड़े समर्थक और सहयोगी तुम लोग थे और यह तुम्हारे मिजाज को दर्शाता है। तुम आपात काल और आपातकालीन स्थितियों में खुश रहते हो और खुशी खुशी अपनी जबान कटवा लेते हो – मजे ही मजे हैं, अब बोलना भी न पड़ेगा और वजीफों की बरसात होती रहेगी। मजे के ऐसे ही दिनों से बाहर आ जाने के कारण असुरक्षित अनुभव करने लगते हो। हम ठहरे इंसान। पानी में दम घुटने लगता है और तुम खुली हवा में आते ही तड़पने लगते हो। मैं तुम्हें समझ नही पाता यार। अभिभ्यक्ति की स्वतन्त्रता छिन जाने पर तुम मान लेते हो, तुम जो चाहो कह सकते हो जब कि तुम्हारे पास कहने को कुछ रह ही नहीं जाता, कलाबाजी दिखाने की अनुमति अवश्य होती है।
सत्ता हाथ में न हो तो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का इसतेमाल करने वाले को लांछित और खतरनाक बता कर उसको गर्हित बना दिया जाएगा। लोग उसकी बात न सुन पाएँ इसका प्रबन्ध किया जाएगा। इसका भुक्तभोगी मैं स्वयं हूं और तुम भी इसे जानते हो। आज तक तुम लोग यही करते आए हो।

Post – 2015-12-05

वी. के. सिंह ज़िंदाबाद

“क्या तुमको नहीं लगता कि जब से भाजपा की जीत हुई सांप्रदायिकता अधिक बढ़ी है।“

“तुम इसे इस रूप में भी रख सकते थे कि भारतीय समाज में सांप्रदायिकता का विस्तार हुआ है इसलिए भाजपा की जीत हुई।“

“हाँ, शायद यही ठीक है।“

“यदि यह ठीक है तो सांप्रदायिकता का विस्तार किसने किया, पिछली सरकार ने, या प्रेस और दृ श्य-श्रव्य माध्यमों ने या सभी ने मिल कर, या इन सभी से भी अधिक विश्व फलक पर घटित घटनाओं और व्याख्याओं ने, या इन सबके परिप्रेक्ष्य में हिन्दू समाज के भीतर पैदा हुई आशंका ने?”

वह उलझन में पड़ गया। मैंने उसे आड़े हाथों लिया, “तुम्हारे पास अक्ल तो है नहीं, पार्टी से पूछ कर बताना। हो सकता है सांप्रदायिकता को बढ़ाने में उसका भी हाथ रहा हो, क्योंकि यह मैं एक बार बहुत साफ कह आया हूँ कि उसके पास कोई और कार्यक्रम नहीं रह गया है। उसके पास ही नहीं, इसमें संघ से ले कर मुस्लिम मुल्ला तन्त्र और गुर्गातन्त्र तक, ईसाई मिशनरी संस्थाओं और मठों तक, और दूसरी सभी पार्टियों तक के पास कोई ऐसा ठोस कार्यक्रम या दर्शन नहीं है जिसके आधार पर वे पूरे समाज को अपनी ओर आकर्षित कर सकें और अपने को बचाए रख सकें। जाति पर आधारित सभी पार्टिया वैसे भी अपने चरित्र में सांप्रदायिक होती हैं। यानी अपने संप्रदाय या जाति को छोड़ कर उनको और किसी की चिन्ता नहीं होती। दूसरे बचे रह जाते हैं इतने ही को अपना भाग्य समझते हैं।’

उससे कुछ बोलते न बन रहा था। मैंने एक रद्दा और जड़ा, ‘हो सकता है जिन राजनैतिक दलों ने सांप्रदायिकता का विस्तार किया, उन्होंने किया तो मुस्लिम वोट बैक को अपनी ओर खींचने के इरादे से, लेकिन पन्द्रह प्रतिशत वोट अगर पाँच में बँट भी गया तो इससे अधिक हिन्दू वोटों का रुझान उस दल की ओर होगा ही जिसको वे संघ से जुड़ाव के कारण सांप्रदायिक कहते हों परन्तु जिसके शासन से एक बार गुजरने के बाद सभी ने यह अनुभव किया कि इससे डरने की जरूरत नहीं । पाकिस्तान और कशमीरी मुसलमान तक शान्ति और सदभाव के लिए वाजपेयी सरकार को ही याद करते हैं। और 2004 का चुनाव भी वह हारी नहीं थी, जीतते¬-जीतते रह गई थी। और जानते हो क्यो? अपने प्रचार तन्त्र की मूर्खता के कारण। यदि वे विनम्रता से कहते, हमें आप ने जो अवसर दिया, उसका हमने आपके हित में उपयोग किया हो तो हमें एक अवसर और दीजिए, हम अधूरे सपनों को पूरा करना चाहेंगे। परन्तु जब आप कहते हैं कि इंडिया शाइन कर रहा है तो आप दो सोई इुई कुरेदों को जिसे आप क्वेरी कह सकते हैं, पैदा करते हैं और दोनो से आप की जान पर बन आती है। पहली यह कि शाइन कौन कर रहा है, हम तो जहाँ थे वहीं रह गए। दूसरे यह कि इसके बूते का जो करना था वह कर चुका। इसी को देश का और अपना सौभाग्य मान रहा है। आगे भी हमारे लिए कुछ ऐसा नहीं करेगा जिससे हमारी समस्याएँ समाप्त हों। दोनों में नकारात्मक मत मिलते हैं और आप हार जाते हैं। इसलिए राजनेताओं को समझना चाहिए कि ईमानदारी विज्ञापन पर भारी पड़ती है और अपनी कमियों के साथ जो कुछ आप कर सके उसे कच्चे चिट्ठे की तरह लोगों के सामने रखें तो कर्मनिष्ठ दल को कोई हरा नहीं सकता।

“खैर सांप्रदायिक भावना उभारने का जो काम उन्होंने किया उसका लाभ भाजपा को मिला पर इससे कुछ सीख नहीं पाए। हो सकता है वे ही परदे के पीछे से आज भी सांप्रदायिकता का विस्तार कर रहे हों और पोषित और पल्लवित प्रचार माध्यमों का उपयोग करके उसका इल्जाम भाजपा पर, इस डर से लगा रहे हों कि यदि इसे पूरा कार्यकाल काम करने को मिल गया तो हमारा पत्ता सदा के लिए साफ हो जाएगा क्योंकि, तब विकास ही भूखी जनता हमें घास न डालेगी।“

अब उसे मौका मिला, “क्या बात करते हो? यहीं दादरी में, तुम्हारे ठीक बगल में, जो हुआ वह तुम्हें दिखाई नहीं दिया। कौन लोग अपराधी को बचाने की कोशिश कर रहे थे, दिखाई नहीं दिया तुम्हें?”

“दादरी मैं नहीं गया। वहाँ काफी भीड़ पहले से ही लग गई थी और ऐसे मौकों पर जाना भी नहीं चाहिए, पर उसको लेकर जो राग दादरा शुरू हुआ, उसे जरूर सुनता रहा। वह बहुत क्षोभकर था। उस राग में भी एक स्वर पृष्ठभूमि से उभरा था जिसे दबा दिया गया। अर्थात् एक व्यक्ति की निजी रंजिश जो शायद बीएसएफ में था और छुट्टी लेकर आया था। दादरी में या कहीं भी यदि कोई नृशंस अपराध होता है तो इसकी खबर तो बन सकती है, पर इसे लेकर हुड़दंग मचा कर, जाँच से पहले ही किसी को अपराधी बता कर, नंगानाच करते हुए, पुलिस की जाँच में रुकावट पैदा नहीं की जानी चाहिए; न ही उसकी जाँच को कोई दिशा देने का दबाव तैयार किया जाना चाहिए। उसकी जरूरत तभी पड़ती है जब सरकार उस पर कार्रवाई करने में हिचके या पुलिस निष्क्रियता दिखाए। जिस सरकार को कार्रवाई करनी थी वह मुस्लिमप्रेमी मानी जाती है। यदि वह इसके बावजूद शिथिल थी तो गुस्सा उस पर उतारना था, परन्तु वह भी उसके विफल होने के बाद। मीडिया स्वयं सनसनी पैदा कर, अपने को लोकप्रिय बनाने के चक्कर में, इस समस्या को अनुपात से अधिक बढ़ा और आवष्यकता से अधिक समय तक खींच कर सांप्रदायिक असुरक्षा का वातावरण तैयार करती है और खुद ही इस चिन्ता में भी शामिल हो जाती है कि असहिश्णुता बढ़ रही है। चिनगारी को आगजनी में बदलने का प्रयत्न करने वाले आग लग सकती है, इसकी चिन्ता जताने लगते हैं।

परन्तु जघन्य कोई घटना होती है उतना ही, या उससे भी अधिक जघन्य, उसका रेकार्ड, घिसने की हद, तक चलाकर व्यापार करने को मानता हूँ, क्योंकि पहले के साथ अन्ध आवेग जुड़ा होता है जिसमें लोगों की मति भीड की मानसिकता के कारण मारी जाती है, परन्तु ये तो अपना काम पूरे होश हवास में, सोच समझ कर, केवल पैसे के लोभ में करते हैं। ये जानते हैं कि इससे असहिश्णुता का का विस्तार होगा। सनसनी फैलेगी। जो काम पहले अफवाह करते थे वही ये तथ्यों का पूरा पता चलने से पहले खुद ही, कुछ ठान कर, अपनी सनक के पक्ष में जनमानस को ढालने लगते हैं।“

“तुम जानते हो इस समय तुम्हारी जबान से कौन बोल रहा है?” उसने उत्तर देने का मौका नहीं दिया, खुद ही जवाब दिया, “वी.के. सिंह।’ वह भी तो इन्हें सुपारीबाज कहते हैं।“

“देखो सही बात कहने और अपनी बात के लिए सही मुहावरा ढूँढ़ लेने में अन्तर होता है। वी.के. सिंह कहते गलत नहीं हैं, पर सही मुहावरे नहीं तलाश पाते। मेरा एक मित्र था, कहता था, सेना या पुलिस में जाने वाले लोगों को आदमी से मशीन बनाने के लिए लम्बी ट्रेनिंग दी जाती है। उसके बाद वे आधे आदमी और आधे बटन दबते ही चालू हो जाने वाली म शीन बन जाते हैं। रिटायरमेंट के समय इन्हें फिर नागरिक जीवन में दाखिल करने के लिए एक ट्रेनिंग दी जानी चाहिए जिससे ये आम लोगों की तरह बोलना, चलना, व्यवहार करना सीख लें। वह नहीं किया जाता। नहीं किया गया। बेचारे वी.के. सिंह का क्या दोष । किसी रिटायर हुए सैनिक अधिकारी को सड़क पर देख लो, पहली नजर में ही पता चल जाएगा यह सेना में रहा है और पूरा सिविलियन नहीं बन पाया है, न बन पाएगा। हम जबान चलाते हैं, वे गोली चलाते हैं। आज जब गोली पास नहीं रह गई तो जबान भी गोली की तरह चलाते हैं, पर निशाना बिल्कुल सही होता है। गोली से अगला मरता है, उनकी बोली से तुम लगातार तिलमिलाते रहते हो।“

उसने कहा, “वी.के. सिंह जिन्दाबाद।“ और हाथ तानते हुए उठ खड़ा हुआ। पर चलते चलते बोला, “लानत है तुम्हारी समझ को।“
12/5/2015 9:22:15 PM

Post – 2015-12-04

अन्धा-बाँटे-रेवड़ी-युग की विदाई

“हमारा देश सड़ चुका है यार! इसे ब्रह्मा भी नहीं सुधार सकते और तुमको मोदी पर इतना भरोसा है।“

“कोई भी एक व्यक्ति, या बड़ा से बड़ा संगठन भी, सभी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता। परन्तु एक व्यक्ति भी, यदि उसमें प्रतिभा और संकल्प है तो, निर्णायक स्थिति में पहुँच कर ऐसी स्थिति पैदा कर सकता है जिसमें समस्याओं की पहचान बदल जाए, उनका चरित्र बदल जाए, उनका समाधान उसी के बीच से निकलने लगे। तुम समस्याएँ पैदा कर सकते हो, पहले की समस्याओं को बढ़ा सकते हो क्योंकि तुम निरा शावादी हो। तुम्हें यह देश सड़ा हुआ लगता है जिसमें एक सड़ी हुई चीज तुम भी हो। दूसरों को सड़ा सिद्ध करके अपने को साफ-पाक सिद्ध करने वाले। मोदी तुमसे ठीक उलट है। वह आशावादी है। वह मुहावरे बदल देता है, पुराने मुहावरों में से सही का चुनाव करना जानता है। वह कहता है यह मत कहो कि गिलास आधा खाली है, कहो गिलास आधा भरा हुआ है। याद है तुम्हें?”

वह बोला कुछ नहीं, मुस्कराता रहा।

“अभी कल तक लगता था हमारी जनसंख्या इतनी विस्फोटक हो गई है कि सँभालना मुश्किल है। आक्षेप लगते थे मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है और इसका संप्रदायवादी आशय निकाला जाता था। चिन्ता थी अगर अनुपात बराबर करने के लिए हिन्दू भी ऐसा ही करने लगें तो स्थिति विस्फोटक हो जाएगी, दाना तो दूर पानी तक नहीं मिल पाएगा सभी को, पीने के लिए। जन संख्या वही, मोदी ने कहा हम 125 करोड़ संख्या वाले लोग हैं। दुनिया के कई दूसरे देशों में आबादी में गिरावट आ रही है। उनके यहाँ कार्यदल की जरूरत पूरी करने को लोग नहीं मिल रहे हैं। हम इस जरूरत को पूरा कर सकते हैं। स्थिति वही है, केवल इंफैसिस बदल गई और समस्या का समाधान यह कि हमें तकनीकी कौशल बढ़ाने वाली शिक्षा की जरूरत है। स्किल्ड श्रमिक पैदा करने हैं।“

“कोरी बातें हैं भाई। तुम जैसा मूढ़ ही इसके चकमे में आएगा। इतने लोगों के लिए स्कूल, शिक्षक कहाँ से आएँगे। अभी तो प्राइमरी शिक्षा तक सही नहीं हो पा रही है।“

“पहले दृष्टि पैदा होती है, फिर दिशा मिलती है और फिर कदम बढ़ते हैं और मंजिलें मिलती हैं। मंजिल नहीं, मंजिले। उपलब्धि, दर उपलब्धि। परन्तु यह दृष्टि भी बेकार है, यदि अन्धा-बाँटे-रेवडी-युग की शक्तियाँ इतनी प्रबल हों कि वे अपने द्वारा फैलाई गई अशिक्षा और कुशिक्षा का लाभ उठा कर लोगों को बरगलाने में सफल हो जायँ कि उधर खतरा ही खतरा है। बढ़े कि खाई में गिरे। जब हमारे संस्थागत ढाँचे में ही ऐसी अड़चनें हों कि जनता जिसे अपना नेता चुने उसे काम करने ही न दिया जाय। जनता अपने प्रतिनिधि संसद में चुन कर भेजे कि वे उसकी समस्याओं पर विचार करके उनका समाधान निकालेंगे और रेवड़ी युग के उच्च सदन में बैठे प्रतिनिधि कहें जनता की ऐसी की तैसी। हम कोई काम होने ही न देंगे, करके दिखाए तो सही। जब पूर्ण बहुमत वाली एक सरकार को प्रतिपक्ष की योग्यता तक से शून्य दल यह ललकारते फिरें कि हम कोई काम होने ही न देंगे। कोई एक व्यक्ति क्या कर सकता है? और इसके बावजूद वह जितना कर पाया वह हैरानी पैदा करती है।“

“अभी कल ही अन्ना हजारे पूछ रहे थे, ‘अच्छे दिन आए?’’

मैंने कहा, ‘‘अन्ना हजारे को कितनी बार कितने लोगों ने बेवकूफ बनाया है, इसका कोई हिसाब है तुम्हारे पास?’’

वह चुप रहा।
‘‘अन्ना हजारे की समझ पर भरोसा मत करो। नीयत पर भी नहीं। महत्वाकांक्षा की बात अवश्य कर सकते हो और उसके लिए कुछ सहने झेलने और डटे रहने की ताकत को भी। परन्तु मैंने तुम्हें कितनी बार समझाया कोई कुछ कहे तो यह मत समझ लो कि वह जो कुछ कह रहा है, वही कह रहा है।

हँसना जरूरी था और वह खुल कर हँसा भी, ‘फिर क्या मान लूँ भाई।’

‘सोचो वह कब कह रहा है, क्यों कह रहा है और उसको सुनने वालों की संख्या घटी है या बढ़ी और फिर तय करो कि उसके वाक्य भरोसे लायक हैं भी या नहीं। और यह भी सोचो कि यदि उसे कुछ दिखाई नहीं दिया तो क्या तुम्हें भी कुछ दिखाई नहीं देता।’

‘‘क्या किया इस आदमी ने? क्या दिखई दे रहा है तुम्हें जो मैं नहीं देख पाता।’’

एक वाक्य में सुनना चाहो तो उसने ‘अन्धा-बाँटे-रेवड़ी’ युग का अन्त कर दिया जिसमें रेवड़ी तो छूने टटोलने से दीख जाती थी, अपने जन भी घेरे मिल जाते थे, पर देश और इसकी समस्यायें नहीं दिखाई देती थीं। इसी का दूरा नाम अच्छे दिन की नींव है। अब ‘विकास युग की थाप सुनाई पड़ने लगी है। अब पहले के लुटेरे दलों को भी, उन्हें भी जो जाति को जीवित करके सत्ता में आए हैं, विकास की चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इस देश की समसे बड़ी समस्या तुम्हें क्या लगती है?’’

‘‘भ्रष्टाचार और बेकारी ।’’

‘‘ठीक कहा तुमने, इसमें एक सही शिक्षा प्रणाली को भी जोड़ लेते तो अच्छा रहा होता, जिसके अभाव में ही ये दोनों व्याधियाँ बढ़ती चली गई हैं।’’

‘‘तुम समझते हो मोदी भ्रष्टाचार खत्म कर देंगे!’’

‘‘नहीं, मैं इतना भोला नहीं हूँ। इसकी जड़ें मानव स्वभाव में हैं। उस लोभ में जिसे उन छह रिपुओं में से एक माना गया है जिनसे लड़ते हुए ही मनुष्य मनुष्य बना रह सकता है। इनसे तो मोदी को भी लड़ना पड़ता होगा। भ्रष्टाचार तो चन्द्रगुप्त के उस राज्यकाल में भी था जिस में ईमानदारी का स्तर यह था कि लोग दरवाजों पर ताले नहीं लगाते थे । चोर बेईमान वेद के समय में भी थे और आज तक बने आए हैं। अन्तर केवल एक बात में है। हमारे यहाँ इसे गर्हित माना जाता रहा है और दूसरी मूल्य व्यवस्थाओं में सफलता और समृद्धि को ही साधन की परख का आधार माना जाता रहा।“

“तुम मोदी की बात कर रहे थे, यार!”

“मेदी और नेहरू में एक अन्तर याद दिला दूँ। गाँधी ने अपने सत्य अहिंसा और सादगी के जीवन ने आदर्शों और साधन को भी साध्य की तरह पवित्र रखने के आन्दोलन से नैतिकता का एक ऐसा पर्यावरण तैयार किया था जिसमें असंख्य लोग अपने निजी जीवन में गाँधी बनने के प्रयोग कर रहे थे। नेहरू ने उसे उलट दिया। इसने उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार और कदाचार का आरंभ उनके साथ हुआ और इतने धूर्ततापूर्ण ढंग से हुआ कि लोग देख कर भी आँखें मूँदे रहे.

‘‘नेहरू के बारे में भ्रष्टाचार की बात तो कम से कम मत कर यार!”

‘‘1948 में सेना के लिए जीप खरीद का घोटाला किसके समय में हुआ था। मेनन ने यदि ब्रिटेन में राजदूत रहते पदीय मर्यादा का उल्लंघन किया था तो विदेश विभाग किसके पास था? नेहरू उनका बचाव क्यों करते रहे। उनको अपना सबसे प्रियपात्र ही नहीं मानते रहे, अपितु रक्षा मंत्री का पद भी सौंप दिया। किनकी गलत और असफल रक्षानीति और रखरखाव के कारण भारत चीन विवाद में देश को इतना अपमानित होना पड़ा? रक्षा उपकरणों का पैसा किन चीजों पर खर्च होता रहा?”

“फिर मूधड़ा कांड, जिसे दबाने के नेहरू के प्रयत्न का विरोध उन्हीं के दामाद फीरोज गांधी ने किया, जिससे उनके पहले से खराब संबन्ध और खराब हो गए परन्तु उसके बाद ही फीरोज गाँधी की पहल से बीमा कंपनियों का रा ष्ट्रीकरण हुआ था और फीरोज गाँधी ने कहा था यह संस्था पार्लमेंट की पुत्री है, और हमें हमेशा इस पर नजर रखनी होगी कि यह भ्रष्टाचार का शिकार न हो जाए। नेहरू ने यहाँ भी अपराधी के प्रति नरमी दिखाने का अपराध तो किया ही था।

और जहाँ तक चालबाजी का सवाल है अभी हाल ही में एक फेसबुक मित्र ने उस रहस्य का सप्रमाण खुलासा किया है जो उन्होंने राजेन्द्र प्रसाद और पटेल दोनों के साथ किया था।

मोदी जब अपने को गांधीवादी कहता है, जब पटेल का उत्तराधिकारी मानता है तो राजनीतिक जीवन में व्यक्तिगत स्तर पर उन उच्च आदर्शों का पालन करने के अपने संकल्प के कारण। खैर, यहाँ कई बार प्रदर्शनप्रियता मोदी पर हावी हो जाती है जो पिछड़े दबे परिवेश से ऊपर उठने वालों में एक ग्रन्थि का काम करती है और ग्रन्थियाँ हमारे विवेक पर भी हावी हो जाती हैं अन्यथा वेशभूशा में प्रदर्शनप्रियता को कुछ संयत रखने पर ध्यान देते।

खैर तो मैं कह रहा था भ्रष्टाचार पूरे कांग्रेस शासन में कांग्रेस के काडर निर्माण का आधार बनता चला गया था और इसे जान बूझ का बढ़ाया जाता रहा और ऊपरी स्तर पर भी इसमें संकोच से काम नहीं लिया गया। इस देश को सड़ाने में सबसे बड़ी भूमिका इस व्याधि की रही है और मोदी ने इसके सिर पर भी कुठाराधात किया है और जड़ों को भी खत्म करने के लिए मठा डालना आरंभ किया है बिचौलियों की भूमिका खत्म करके। जनहित में दी जाने वाली अनुग्रह राशि को सीधे व्यक्ति के खाते में डालने की सूझ से। करोड़ों लाभार्थियों को खाताधारक बना कर, अद्भुत सूझ! साक्षात्कार के नाम पर धाँधलियों और रिश्वतखोरी को बन्द करने के लिए उस स्तर से साक्षात्कार की भूमिका ही ख़त्म कर दी । ये तरीके इससे पहले किसी अर्थशास्त्री को सूझे क्यों नहीं।

“और जहाँ तक कौशल के विकास का प्रश्न है, मेक इन इंडिया इसी कौशल विकास का एक हिस्सा है। कहने को तो इतना है कि सिर घूम जाएगा।”

“जैसे तुम्हारा घूम गया है। बहुत हो गया।“

Post – 2015-12-03

असर उस पर मगर नहीं होता

“बात अकेले मेरे मानने न मानने की नहीं है। कहीं कुछ है जो पोशीदा है। दिखाई नहीं देता, पर है। बीच बीच में उभरता है तो लगता है सक्रिय भी है। इसलिए मोदी की लोकप्रियता में भले खास फर्क न आया हो, मुझ जैसे लाखों लोग हैं जो संघ के इरादों पर विश्वास नहीं कर पाते। तुम्हीं बताओ, यदि तुम शान्तिप्रेमी हो तो यह शस्त्रपूजा की क्या आवश्यकता?”

“पहली बात यह कि मैं संघ को शान्तिप्रेमी नहीं मानता। मैं कहता हूँ इसका गठन और तैयारी प्रतिरक्षात्मक रही है और चेतना सांप्रदायिक। स्वतन्त्र भारत में इसकी जरूरत नहीं रह गयी थी। गान्धी ने अपनी मृत्यु से वह काम कर दिया था जो जीवित रह कर भी नहीं कर सकते। वह था हिन्दू सांप्रदायिक संगठनों का सफाया। कांग्रेस ने अपनी जरूरत से इसका हौवा खड़ा करते हुए इसे पुनर्जन्म दिया और फिर इसकी शक्ति का विस्तार किया। अंग्रेजी राज में लीग को उकसा कर दंगे कराए जाते रहे और अब कांग्रेस खुद ही दंगे उभार कर सांप्रदायिकता का डर पैदा करने लगी। यदि संघ की संलिप्तता होती तो उन जाँच आयोगों की रिपोर्ट प्रकाश में अवश्य आई होती जिनमें उसकी संलिप्तता थी। दंगे उकसाना, आयोग बिठाकर लीपा पोती करना, और फिर रिपोर्टो को दबा जाना यह कांग्रेस की नीति रही।“

“जहाँ तक शस्त्रपूजा की बात है, यह उसी प्रतिरक्षा तन्त्र का प्रतीकात्मक विधान है। यह कर्मकांड है न कि हिंसक तैयारी। परन्तु यह आज तो आरंभ हुई नहीं। यह तो हजारों साल, चार पाँच हजार साल पुरानी परंपरा लगती है। उन औजारों, हथियारों, साधनों और विधियों के प्रति सम्मान जताने के लिए उनका देवीकरण कर दिया जाता रहा है। यहाँ तक कि उपयोगी वनस्पतियों तक का देवीकरण कर दिया जाता रहा है। तुलसी हो या पीपल का पेड़। मैंने गलत कहा कि शस्त्रपूजा चार पाँच साल से प्रचलित है, यह तो तो आठ दस हजार साल से चला आ रहा है।

क्या बात करते हो तुम। इसीलिए तो हमलोग भड़कते हैं कि तुम हर एक चीज को सृष्टि के आदि से जोड़ने को बेचैन हो जाते हो।“

“तो पूजा केवल अस्त्र की नहीं होती है। विश्वकर्मा या बढ़ई के रूप में धरती आकाश का भवन या भुवन बनाने वाले की भी की जाती है और आज तो यह यन्त्रमात्र की पूजा का प्रतीक बन गया है। परिवा के इसी दिन बनिया अपने बाट और तराजू को धो-धा कर साफ करता है, नई बही तैयार करता शुभ लाभ की आशा में, कलम दावात वाले अपने कलम दावात की पूजा करते रहे हैं। दावात की पुरानी स्याही धोकर साफ करके नई दावात और नई कलम। खैर अब तो यह इतिहास की बात हो गई। स्मृतियों को जीवित रखने के पुरातन विधान हैं, इनका उपहास नहीं किया जाना चाहिए और अभियोग के लिए इनका इस्तमाल करना तो शरारतपूर्ण है।“

“भई तुमने बताया तो मैंने भी उस चित्र को देखा। उसमें मुद्रा पूजा की नहीं, युद्ध की है।“

“रहेगी। उससे मत घबराओ। जैसे बच्चे मूँछ लगाकर जवान होने का आनन्द लेते हैं कुछ वैसा ही परिहास है यह। जब तक कहीं संलिप्तता सिद्ध न हो, तब तक आरोप नहीं लगा सकते। मेरे मुहल्ले में एक चैहान थे। उनके पास बन्दूक थी। वह शस्त्रपूजा के दिन हवाई गोलियाँ दागा करते थे। यह सब प्रतीकात्मक है। जहाँ तक पूजा का सवाल है संघ वाले गुरुपूजा भी करते हैं परन्तु पढ़ाई लिखाई का यह हाल कि मुझे एक भी ऐसा नहीं मिला जिसे इतिहास, संस्कृति, संस्कृत भाषा तक का अच्छा ज्ञान हो।“

“क्या यह तुमसे छिपा रह गया है कि संघ को अमेरिका आतंकी संस्थाओं की सूची में रखे था और शायद अभी तक रखे हो।“

“अमेरिका ही तुम्हारी आँखें खोल रहा हो तो आँखें खुलने से पहले ही फूट जाएँगी। बताया था न, वह हमारा अन्नदाता बने रहने के लिए अन्न की सहायता की आड़ में विषैली घासों के बीज मिला कर भेजता रहा कि हमारी कृषि भूमि ही नष्ट हो जाय। वह जिसका दोस्त हुआ उसकी खैर नहीं। लेकिन अमेरिका आज कल हमारे मार्क्सवादी भाइयों को बहुत रास आने लगा है। क्या सर्वहारा की क्रान्ति अब वह लाने जा रहा है? मार्क्सवाद से और कम्युनिस्ट पार्टियों से उसका अनुराग बढ़ गया है? बुलावे आते हैं वहाँ से और अर्जिया भेजी जाती हैं यहाँ से। कभी सोचा है इस पर?”

“कभी ध्यान नहीं दिया।“

“अब देना। जब से सोवियत संघ का विभाजन हुआ, इनका दाना पानी मिलना बन्द हुआ, क्रान्ति के नारो का स्थान हिन्दुत्व के लिए गालियों के आविष्कार ने ले लिया। ये जितना गर्हित चित्र हिन्दुत्व का पेश करते हैं उतना ही गर्हित चित्र पेश करते हुए झारखंड और छत्तीसगढ़ में धर्मान्तरण पर जुटे ईसाई अपना प्रचार करते हैं। इस धर्मान्तरण का विरोध केवल संघ के लोग करते हैं। मैंने कहा न इनकी भूमिका आक्रामक नहीं प्रतिरक्षात्मक है। धर्मान्तरितों में से कुछ को समझा बुझा कर ये घर वापसी करा देते हैं। जैसे ईसाई प्रलोभन देते हैं और रोजगार आदि दिलाने का भी एक जाल सा बिछा रखा है उस तरह का साधन तो इनके पास नहीं है, परन्तु ये अकेले इस काम में सक्रिय हैं। समर्पित भाव से। यह कंटक ही उनको अमेरिका की नजर में आतंकवादी बना देता है। सेकुलरिस्ट बिरादरी भारत में भी ईसाई संगठनों को बहुत अपनी लगती है। धर्मान्तरण का अभियान करते हुए भी सेकुलरिस्ट तो वे भी हैं। मुझे तो डर है कि जुकरबर्ग ने जो अपनी आय का 99 प्रतिशत कल्याणकार्यों में लगाने का संकल्प लिया है उसका भी एक बड़ा हिस्सा भारत में धर्मान्तरण पर न खर्च होने लगे।“

“अमेरिका में तो खुद ही चर्च जाने वालों की संख्या घटती जा रही है। उसकी क्या दिलचस्पी हो सकती है भारत में ईसाइयत के प्रचार में?”

“नेहरू ने और उनसे भी अधिक दृढ़ता से इन्दिरा गांधी और राजीव ने भारत में अमेरिकी अड्डा तो न बनने दिया परन्तु एक चूक हुई कि धर्मप्रचार की आड़ में धर्मान्तरण कराने के अभियान को कभी रोक नहीं सके। वह आज भी जारी है। अमेरिका के आम नागरिकों को स्वयं चर्च जाने में दिलचस्पी कम हुई हो सकती है, पर जिस तरह के दारुण दृश्य संचार माध्यमों से तैयार करके वहाँ के पुरालेखागार को भरा जाता और मनोरंजन के लिए देखा-दिखाया जाता है उसमें इन कारुणिक स्थितियों से लोगों के उद्धार का काम उन्हें धर्मान्तरित करके किया जा रहा है। उसके लिए तो सहायता देने के लिए वे सदा तत्पर रहेंगे। यह दूसरी बात है कि पश्चिम के लोग अपने पालतू कुत्तों तक को बूढ़ा, बीमार या लुंज पुंज हो जाने पर मैंगर में डाल आते थे जिसमें पहले से भूखे और मरणासन्न कुत्ते उन्हें चबाने खाने के लिए युद्ध रत हो जाते थे, परन्तु भारतीय संपर्क में आने के बाद ईसाइयत के चरित्र में जो बदलाव आया और समृद्धि ने जिसे संभव बनाया वह पशुओं तक के प्रति दयाभाव। आज वहां पशुओं तक के प्रति अन्याय के निवारण के लिए संस्थाएँ काम करती हैं फिर मनुष्यों को हिन्दुत्व की पीड़ा से मुक्त करने के लिए मिशनरियों को फंड क्यों न मिलेंगे? भारतीय समाज का जितना ही गर्हित, क्रूर, आक्रामक चित्र वे पेश कर सकेंगे, सहायता राशि में उतनी ही वृद्धि होगी। अमेरिकी राजनीति इसे विविध देशों में अस्थिरता पैदा करने के खेल के लिए काम में लाती है। इस तरह उसका कूटनीतिक हित इससे जुड़ा हुआ है। भारत में हुए और कांग्रेस की खुली शह से बारबार होने वाले नरसंहारों की तुलना में गुजरात उपद्रव को रख कर देखो और अपने आप से पूछो कि कांग्रेस को आतंकवादी संगठनों की सूची में क्यों नहीं रखा गया, संघ को ही क्यों?”

“तुम भी हद करते हो। कांग्रेस एक राजनीतिक पार्टी है, संघ एक दक्षिणपन्थी गैर- राजनीतिक संगठन है। यह बताओ तुम मोहन भागवत के कल के बयान को क्या कहोगे?? मन्दिर बनाने के लिए वह जान तक देने को तैयार हैं। मोदी को संघ से अलग कैसे कर सकते हो?”

“मोहन भागवत को मोदी के बयान के ठीक बाद और बंगाल के चुनाव के पहले इस तरह के उल्टे बयान के बाद भी तुम्हें यह पता नहीं चला कि मोदी संघ की उस मध्यकालीन मानसिकता के विरुद्ध भी अभियान चला रहा है। तुमने मोहन भागवत का बयान ही सुना होठों की मुस्कराहट नहीं देखी जिसमें उनकी मूछ के बाल भी फड़फड़ा रहे थे। भाजपा का काम सांप्रदायिकता के बिना चल सकता है, परन्तु संघ का, अपने को सेकुलर कहने वाली पार्टियों का जिनके पास सांप्रदायिकता का भूत खड़ा करके उससे लड़ने के अलावा कोई कार्ययोजना ही नहीं है, सांप्रदायिकता के बिना काम नहीं चल चकता। मोहन भागवत ने भाजपा के विरुद्ध उसी दिन मोर्चा सँभालना शुरू कर दिया जिस दिन एक महान और आधुनिक राष्ट्र की कल्पना से प्रेरित उसने भाजपा को उस नाभिनाल से अलग करने के लिए अपने, यानी भाजपा के सदस्य बनाने का अभियान आरंभ किया। इसीलिए कहता हूँ कि इस अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए । जो लोग इस देश को सांप्रदायिकता की आग से बचा कर आगे ले जाना चाहते हैं उन्हें, बिना इस झिझक के कि उनकी राजनीति क्या रही है, मोदी का साथ देना चाहिए और उनकी आर्थिक नीतियों और उनके क्रियान्वयन आदि को ही केन्द्र में रख कर उनकी आलोचना करनी चाहिए।“

“तुम तो ऐसा कहोगे ही।“ उसने कहा और खड़ा हो गया।