Post – 2016-04-12

12.4.16

आम का मतलब खास होता है

कोश में आपको आम मतलब एक फल मिलेगा जो उस आम से अलग, यद्यपि ध्वानि में सर्वसदृश है जिसका अर्थ साधारण मिलेगा। एक दलित और उपेक्षित व्यक्ति की गणना आम लोगों में नहीं की जा सकती, और जब कोई इस नाम का एक दल बन जाने के बाद अपने को आम आदमी कहता है जो वह अपने को एक खास दल से जुड़ाव रखने वाला होने का दावा करता है। जिस झाडू को आम ने अपना चिन्हे बनाया उसे अपने जीवन में उठाने वाला आम आदमी नहीं है, वह आम लोगों से कुछ नीचे पड़ता है। मोटे तौर पर आम जन का अर्थ मध्यवित्त जन है और अब तो आम से जुड़ने वाले सम्पंन्न जनों की कोटि में आ चुके हैं।

अभी हाल में एक महामारी चली है जिसमें बात बे बात आदमी वन्दे़ मातरम् या भारत माता की जय बोलने लगता है या मर जाऍंगे पर ऐसा बालूँगा नहीं की घोषणा करने लगता है। मुझ याद नहीं मैंने आज से कितने साल पहले वन्दे मातरम् या भारत माता की जय बोला हो। जिसकी स्पुष्ट याद है वह उस समय की है जब मैं छह साल का रहा होउूँगा। 1937 के चुनाव के पहले का जिसमें प्रभात फेरी करते हुए गॉंव के नौजवान भारत माता की जय बोल रहे थे और उससे उस शैशव में ही मन पर उस आवेश का और उसकी ध्वनि का असर हुआ था जो आज भी मन में सनसनी पैदा कर देता है, परन्तु न तो मेरी आयु उस जुलूस के साथ चलने की थी न ही मैंने भारत माता की जय बोला होगा। आप याद करें, सच्चेे मन से आपने वन्दे मातरम् कब बोला था, किस सन्दर्भ में या भारत माता की जय कब बोला था। मेरा आशय वन्दे मातरम् गान से नहीं है जिसे लता की आवाज ने आत्मा‍ से उठती आवाज बना दिया है। उसे सुनते हुए मैं विभोर हो जाता हूँ। आवाज उतनी मधुर नहीं है इसलिए गाता नहीं, केवल सुनता हूँ और झूम उठता हूँ। यह तय करना कठिन है कि शब्दों के जादू पर या स्वर और संगीत के जादू पर या दोनों पर।

इस गान में ‘के बोले मा तूमि अबले’ का मतलब यह नहीं है कि वह अबला नहीं है, अपितु कहीं गहरे मन में यह ग्रथि बनी हुई है और इससे बाहर आने की विकलता है। जै बजरंग बली या अल्लाहो अकबर का मतलब बताने की जरूरत नहीं। इसमें न तो बजरंगबली के प्रति श्रद्धा का भाव है न अल्ला्ह की महानता का स्वीकार। हमला करने या मुकाबला करने का अवश्य है। युयुत्सा को विवेक पर हावी करने की योजना अवश्य है।

शब्दों का अर्थ उनके निरपेक्ष अर्थ से जो कोशों में मिलता है बहुत अलग होता है। यह भिन्न अर्थ उस काल, व्यक्ति, श्रोता, वक्तां, सन्द र्भ सभी की घुली रंगत से पैदा होता है। इसलिए वन्दे मातरम् का अर्थ मातृभूमि की वन्दना ही नहीं होता। कोई मुझसे कहे बोलो वन्दे मातरम् या भारत माता की जय तो मैं नहीं बोलूँगा। उसे अकारण या बिना किसी प्रसंग के बोलते सुनूंगा तो आश्चतर्य से उसे देखूँगा कि इसे हो क्या गया है। बिना औचित्य के कोई भी शब्द या कार्य मानसिक असन्तुलन का प्रमाण है।

किसी दूसरे के आदेश से कोई ऐसा काम करना जिसकी तलब अपने भीतर से न उठ रही हो, नैतिक और बौद्धिक पतन का प्रमाण है। मैत्री, प्रेम जैसे आह्लादकारी संबंध भी किसी दूसरे के आदेश पर नहीं स्थापित किये जा सकते। मुझे अपनी पत्नी या अपने बच्चों या दोस्तों से कभी यह नहीं कहना पड़ा कि मैं उन्हें प्यार करता हूँ। जहॉं आत्‍मीयता न हो वहॉं इसकी जरूरत पड़ सकती है। मुझे पिता जी को या मॉ को प्रणाम कहना नहीं पड़ा, चरणस्पतर्श करते हुए भी। जिनका आदर करता हूँ उनमें से किसी से नहीं कहा कि मैं उनका आदर करता हूँ। यह मेरी अपनी बात है, हो सकता है आप भी ऐसा ही करते हो, और यदि न करते हों तो सोचिए कि आप को कह कर अपना मनोभाव क्यों बताना पड़ता है।

सच तो यह है कि वे लोग जो औचित्य के बिना भारत माता की जय या वन्दे मातरम् स्वयं भी बोलते हैं उनमें देशप्रेम नहीं होता। देश से प्रेम करने वाला देश में शान्ति, सुख और समृद्धि की कामना करेगा, उस दिशा में प्रयत्नशील होगा और फिर उसका प्रयत्न ही एक शब्दातीत वज्रलेख बनता चला जाएगा उसके प्रयत्न की गहनता के अनुपात में। औचित्य् के बिना, किसी इतर इरादे से इनको नारों की तरह प्रयोग करने वाला अशान्ति पैदा करना चाहता है, सुख और समृद्धि के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों में बाधा पहुँचाना चाहता हॅ। वह अपने स्वार्थ के लिए देश का अहित करना चाहता है। यदि सचमुच किसी को देश छोड़ कर कहीं जाना पड़े तो सबसे पहले ऐसे लोगों को चले जाना चाहिए । ये समाज के उूपर भार तो पहले से रहे हैं क्यों कि बिना कोई उत्पाादक काम किए माल असबाब जोड़ते रहे है, अब समाजघातक भी बन चुके हैं।

Post – 2016-04-10

मातृभक्ति

‘’तुम ठीक कहते थे। यह हरामजादा तो निरा चुगद निकला।‘’ उसने बैठने के साथ कहा जिसमें तने होने से झुकने और बैठ जाने की सभी अवस्थाओं का सहयोग था।
उसकी भाषा हैरान करने वाली थी। उसने पहले इस तरह के शब्दों का प्रयोग किया हो, यह याद नहीं आ रहा था। मैंने तंज कसा, ‘संस्कृत बोलना कब से शुरू कर दिया। यह तो तुम्हारी मातृभाषा नहीं है।‘

सोचा था वह झेंप जाएगा, पर हुआ उल्टा ही, ‘मैं तो संस्कृत ही बोल रहा हूँ, पढ़ोगे तो तुम तो वैदिक बोलने लगोगे। सुनते हैं उसमें मा बहन की गालियॉं भी चुन चुन कर दी गई हैं। उसने आज के जनसत्ता के तीसरे पन्ने की एक रपट सामने खोलकर रख दी और गुस्से को सँभाले, कि इस बीच कहीं यह ठंडा न पड़ जाय, कुछ ऐंठ के साथ, उस रपट को ही देखता रहा, जिसे मैं उसे पढ़ रहा था।

मैंने एक नजर उस रपट पर डाल कर उसकी ओर रुख किया, ‘तुम्हें इस पर आक्रोश ही आता है, तरस नहीं आता?’ इस वाक्य ने सुलग रही आग में घी का काम किया, ‘तुम आदमी हो या चुकन्दर।‘

आप गौर करें तो वह मुझे भी चुगद कहना चाहता था, पर इसका साहस नहीं था इसलिए उस कन्द का नाम ले लिया था जिसमें आदिवर्णसाम्य था। मैं इसे समझता हुआ मुस्कराता रहा और यह आशा लगाए रहा कि वह अब झेंपा कि तब, पर अब उसका आक्रेाश अपने नेताओं की ओर मुड़ गया। सच कहो तो चुगद तो वे है जो ऐसे मुहफट के समर्थन में बयान देने लगे और उसकी सभी बदकारियों के भागी बन गए । भारतीय जनमानस में मातृभाव के प्रति कितना आदर है और इस तरह के मुँहफटों के साथ सहानुभूति दिखा कर हमारे अपने नेताओं ने अपना ही बेड़ा कितना गर्क किया है, जिस पर दुर्भाग्य से मैं भी सवार हूं, यह मैं भी नहीं जानता। तुम्हें तो लड्डू बॉंटना चाहिए कि ऐसे चुगद पहले तुम्हारे बीच ही पैदा होते थे, अब हमारे बीच भी पैदा होने लगे और इसका राजनीतिक लाभ तुम लोगों को मिलेगा।‘

मैंने कहा, ‘हमें न बावलों की तरह बोलना चाहिए न बावलों की तरह काम करना चाहिए। यह जानना चाहिए कि हमारा क्षेत्र क्या है, उसकी मिट्टी कैसी है, उर्वरता कैसी है, और उसमें क्‍या और कब पैदा हो सकता है और उसके लिए क्‍या करना अपेक्षित है। हम यदि दलितों और उत्पीडि़तों के साथ सहानुभूति रखते हैं तो हमे क्याें , क्‍या और कैसे करना चाहिए और इसकी पूर्वपीठिका यह विचार है कि हमारे आयुध क्या हैं, उनसे हम किस दूरी तक मार कर सकते हैं। कबीर ने विचार की कार्यक्षमता को ध्यान में रखते हुए उस चोट की बात की थी जो चेतना के रूप को बदल देती है। भीतर से चकनाचूर कर देती है। जो पुरानी मान्यताएं और विश्वास हैं उनको ध्वस्त करके एक नई चेतना, नई सार्थकता और नयी आकांक्षा का सूत्रपात करती है। यह बहुत बड़ा काम है। इसे केवल हम कर सकते हैं। हम अपना काम नहीं कर रहे हैं और उसके ही ये अनिष्टकारी परिणाम हैं, अन्यथा इसके निवारण के लिए पुलिस बल की आवश्यकता नहीं होती। चेतना को बदलने वाला तलवार चलाने वाले से, आयुध का सहारा लेने वाले से, बाहरी निशान छोड़ जाने वाले से, बहुत अधिक बलवान होता है, पर हम इसे जानते ही नहीं और दूसरों का हथियार उधार मांग कर चलाने लगते हैं और इस मूढ़ता में स्वयं भी मारे जाते हैं और जानें कितनी हत्याओं के सहभागी होते हैं।‘

उस पर मेरे कथन का असर हुआ है, यह तो उसके चेहरे के तनाव में कमी आने से ही पता चल गया।

मैंने कहा, ‘हमारा हथियार बयानबाजी नहीं वस्तु-स्थिति का विश्लेषण है। यह विश्लेषण ही अन्तश्चेतना को बदलता है। इसी की चोट बाहर नहीं दीखती परन्तु भीतर से उसके पुराने मूल्य और विश्वास ध्वस्त होते हैं जिसे कबीर ने भीतर चकनाचूर कहा है।

अब वह मेरी बात ध्यान से सुन रहा था इसलिए मेरा अपना विश्वास भी बढ़ गया था। बोला, ‘क्या तुमने कभी यह सोचा कि कोई शब्द या कार्य, जो किसी सन्तुलित चित्त के व्यक्ति से कहा या किया नहीं जा सकता, उसे कहने या करने वाले कितनी आत्मग्लानि के शिकार होते हैं। हिजड़े जो बात बात पर अपने को नंगा करने को हथियार के रूप में काम में लाकर लोगों को अपनी शर्तें मानने को बाध्य कर देते हैं, वे जिसे उजागर करना चाहते हैं उसके साथ उनकी कितनी यातना जुड़ी हुई है। वे तुम्हारी सहानुभूति के पात्र हैं या घृणा के?’

उस पर मेरे कथन का असर न हुआ, उल्टे हिकारत से मुझे देखते हुए बोला, ‘क्या बकते हो यार!’

मैंने पूछा, तुम्हे ईडिपस (Oedipus) कांप्लेक्स के बारे में कुछ पता है?’ उसे पता नहीं था, क्योंकि वह फालतू चीजों को ले कर मगजमारी नहीं करता। उसने मार्क्‍स को पढ़ा था या नहीं, यह पता नहीं, पर जितना पढ़ा उसमें इस नतीजे पर पहुंच गया कि फ्रायड को पढ़ना मार्क्सवादविरोधी है?

उसे एक ही बचाव मिला, ‘किस आदमी की बात करते हो। वह तो कुछ दिन फैशन में रहने के बाद अपने शिष्यों के द्वारा ही नकार दिया गया और फिर समाज ने उन शिष्यों को भी नकार दिया, मनोविश्‍लेषण का बाजार भाव तो जमीन पर आ चुका है।

मैंने कहा, ‘यही हाल मार्क्सवाद का भी है, परन्तु ये उन्नीवीं शताब्दी की ऐसी उपलब्धियां है जिनको झुठलाया जा सकता है, मिटाया नहीं जा सकता है, क्योंकि इन्होंने हमारी समाज-व्यवस्था और चेतना को इत तरह झकझोरा कि हम तब तक एक आदर्श समाज की कल्प‍ना तक नहीं कर सकते जब तक दोनों के सिद्धान्तों का समायोजन न हो?’

उसने खीझ कर कहा, ‘तुम तो निहायत सिड़ी निकले (पता कीजिए तो सिड़ी का मतलब सड़ा हुआ निकलेगा), ‘बोलो क्या कहना है।

’पहले इडिपस ग्रंथि के बारे में समझ लो। प्रकृति ने विपरीत लिंग के प्रति नैसर्गिक आकर्षण पैदा किया है जिसे सभ्यता के विकास में सामाजिक मर्यादाओं ने वर्ज्य बना दिया जब कि पशुजगत में वे वर्ज्य नहीं होते। इस वर्जना के कारण प्राकृत आवेगों के अवरुद्ध हो जाने के कारण ग्रन्थियाँ और आचार गत विकृतियॉं पैदा होती हैं। परन्तु कुछ मामलों में सभ्यंता के प्रतिबन्ध हार जाते हैं, प्रकृति विजयिनी होती है, मां का अपनी सन्तान से रति संबंध वर्ज्‍य होते हुए भी किन्हीं बाध्यताओं में व्यवहार्य हो जाता है।

‘इसके समाचार बीच बीच में आते रहते हैं, जो मानव विधान के अनुसार अपराध और प्राकृत विधान के अनुसार स्वाभाविक होते हैं। आज कल की खोजों से पाया गया कि सबसे अधिक सेक्स उत्पीउ़न आत्मीयों के द्वारा होते हैं जिन्हे मर्यादा के कारण छिपा लिया जाता है, वह भी इसी को प्रमाणित करता है। माता के पुत्र के साथ यौन संबंध के बिना मुहावरे में भी इस तरह की उक्ति किसी सभ्य व्यक्ति की जबान पर नहीं आएगी, कि वह अपनी होने वाली पत्नी और उससे होने वाली संतान से वही संबध रखेगा जो वह अपनी मां से रखता आया है और जिसके साथ सामाजिक मर्यादाओं का बंधन भी समाप्त हो जाता है।‘

वह खीझ गया, ‘तुम आदमी हो या…’ मैंने उसका वाक्य, पूरा किया, ‘चुकन्दर। सुनो जिस भाषा को मैं अपनी भाषा मानता हूं उसमें चुकन्दर और सिड़ी जैसे शब्दों से भी बचा जाना चाहिए, पर सत्य की खोज में अप्रिय से अप्रिय पहलू की पड़ताल अवश्य की जानी चाहिए।‘

’कहना क्या‍ चाहते हो तुम?’

‘गाली देने की जगह तुम्हें इस मीमांसा में जाना चाहिए था कि किन परिस्थितियों और अनुभवों के बाद किसी व्यक्ति की जबान पर वर्जनाएं सहजता से आ सकती हैं जैसा मैंने हिजड़ों की विवशता के उदाहरण से समझाया।‘

’तुम कहना क्या चाहते हो यार?’ उसने वही वाक्‍य फिर दुहराया।

‘कह यह रहा हूं कि सुना उसका पिता अक्षम है, उसकी मां में प्राकृतिक दबाव उन सुरक्षित कृत्योंन्तु जो न होना है वह किसी न किसी चरण पर हो भी जाता है और उसकी आदत भी पड़ जाती है और फिर परिभाषाएं बदल जाती हैं और वह न केवल अपनी पत्नी को अपनी मा का स्थानापन्न मानने लगता है अपितु अपनी पुत्री के साथ भी उसी आचरण की कल्पना करने लगता है जो उसकी मां ने उसके साथ किया। देखो, मैं यह नहीं कहता कि जो मैं कह रहा हूं वह सच है, कह यह रहा हूं कि गाली देने से अच्छाा है अप्रिय घटना या कथन का विश्लेपषण जिससे हम संतप्त व्यक्ति को उसके संताप से बाहर लाने में मदद कर सकते हैं और उसका सुधार हमारे समाज को अधिक संयत और व्यवस्थित बनाने में मदद कर सकता है।

Post – 2016-04-09

‘’पिकासो के बारे में एक बात जानते हो? ‘’ मैं उसकी ओर ध्यान से देखने लगा कि वह पिकासो की किस बात की जानकारी मुझसे बांटना चाहता है। पूछ बैठा, ‘पिकासो की याद कैसे हो आई?’

’’बताता हूं। चित्रकार वह जितना बड़ा था उससे बड़ा सौदेबाज था। चित्र की मुँहमांगी कीमत वसूलता था। बस एक आर्टडीलर था जो उस पर भारी पड़ता था। जानते हो कैसे ? नहीं जानते होगे, वह भी बताता हूँ। वह आकर उसकी जिस कृति को खरीदना होता उसे छोड़ कर किसी दूसरी की तारीफ करने लगता। फिर कला पर बात करके उसे इतना बोर कर देता कि उससे पिंड छुड़ाने के लिए पिकासो उसकी पसंदीदा कृति‍ को उसके लगाए मोल पर बेचने को तैयार हो जाता।‘’

मैं कुछ बोला नहीं, प्रतीक्षा करता रहा कि यह कलाप्रसंग कहां से आ गया।

‘यार तुमने मुझे इस हिन्दी और भारतीय भाषाओं वाले सवाल पर इतना बोर किया कि मुझे भी सब्जा बाग दीखने लगा है। जो लोग तुम्हें फेसबुक पर पढ़ते हैं उनमें से भी कुछ को सब्ज बाग बहुत पहले से दीख रहा है। तुम जिस तरह अपना तर्क रखते हो, जिस तरह पैंतरे बदलते हो, उसमें लगता है है यह सपना नहीं, कल का सच है, और वे सपने में भी सत्यमेव जयते अभुआने लगते हैं। परन्तु उनसे पूछो, सीने पर हाथ रख कर कहो, ‘क्या, तुम्हेंं यह संभव लगता है’ तो वे बगलें झॉंकने लगेंगे। कहेंगे, हम एक नामुराद के बहकावे में आ गए थे।‘’

बात बहुत गलत भी नहीं थी। जिसे वह सपना और सब्जबाग कह रहा था, वह कल का सच था पर एक ऐसा सच जिसे संभव मानने और उसके लिए प्रयत्न की अपेक्षा थी। जो भविष्य का सपना देखता है उसे क्रान्तदर्शी कहा जा सकता है, जो आज है नहीं, संभव है, पर अनिवार्य नहीं, प्रयत्नसाध्य है और इसलिए उस दिशा में प्रयत्न होना चाहिए, इसे जानने और समझने वाला, अवरोधों के पार देखने वाला, क्रान्त दर्शी। पर इस पर आप हंस सकते हैं।

” स्वतंत्रता हमारा जन्मय सिद्ध अधिकार है कहने वाला, क्रान्तदर्शी था। भारतीय भाषाओं की प्रतिष्‍ठा के बिना भारत का भविष्‍य नहीं, यह सोचने और मानने वाला भी क्रान्‍तदर्शी हो सकता है। पर मैं स्वयं तो उस कोटि में आता नहीं। मुझे तो बस यह समझाना था कि जो कुछ मैने कहा वह सावन के अंधे का देखा हुआ अन्तिम नजारा नहीं है, भविष्य में झिलमिलाती वास्तकविकता का पूर्वाभास है।

मैंने कहा, ‘देखो, मैं भी जानता हूँ कि मेरे श्रोता या पाठक मेरे विचारों को अपनी आकांक्षा के अनुरूप पाते हैं इसलिए वे इन पर अपनी प्रसन्नता सहमति और प्रशंसा के रूप में उड़ेलते हैं। यह हो कर रहेगा, या हो भी सकता है, इसका उन्हें भी पूरा विश्वास नहीं। वे सोचते हैं, काश, ऐसा हो जाता। उचित तो है पर संभव कैसे होगा।‘

इसलिए मैं आज इस अंतिम बहस में तुम्हें कुछ बुनियादी बातें समझा दूँ जिनमें तुम्हारा और मेरे पाठकों और श्रोताओं का चित्तं विचलित हो सकता है। भई, सभी का भला और सताए हुओं का उत्थान तो हम भी चाहते हैं, तुम भी चाहते हो। इस तर्क से तुम भी मेरी ही टीम में हो।

‘पर सच मानो तो न तो अन्ततर्मन से उनमें से अधिकांश इसे चाहते हैं, न तुम इसे चाहते हो।‘’ वह मेरी ओर प्रश्नो भरी ऑंखों से देखने लगा।

‘’देखो, वाल्तेऑयर के प्रशंसकों में यदि जर्मनी का फ्रेड्रिक द ग्रेट था तो दूसरी ओर रूस की ज़ारा कैथरीन भी थी। उसने वाल्तेयर के प्रभाव में शिक्षा विभाग खोला। उसके शिक्षा निदेशक ने उससे निवेदन किया कि महिमामयी, हमने स्कूल तो खोल दिए, उसमें पढ़ने कोई आता नहीं हैं।‘

‘जानते हो कैथरीन ने क्या जवाब दिया था, ‘’मिस्टर डाइरेक्टर, हमने दुनिया को यह बताने के लिए स्कूल खोले हैं कि हम भी एक सभ्य राष्ट्र हैं, अपने समाज को शिक्षित करना चाहते है, परन्तुु जिस दिन उन स्कू लों में पढ़ने वाले मिलने लगेंगे उस दिन न मैं वहॉ रहूँगी जहॉं हूँ, न आप वहॉं रहेंगे जहॉं आप हैं।‘’

‘’जानते हो, यही स्थिति हमारे उन हिन्दी प्रेमियों की है, स्वभाषा प्रेमियों की है जो अपनी भाषाओं को प्रतिष्ठा देने के नाम पर गर्दन उूंची कर लेते है और जब पता चलता है कि इसके चलते प्रतिभा के उस अनखोजे परन्तु् विपुल भंडार के साथ प्रतिस्‍पर्धा करनी होगी और इस प्रतिस्‍पर्धा में वे पीछे जा सकते हैं तो उनका उत्‍साह ठंडा पड़ जाता है। तुम्हारा दल जिसका नेतृ वर्ग उसी सुविधाभोगी तबके में आता है, सोचता है, उसके हित उस तबके के साथ खड़े होने से सधते हैं जिसे वह दक्षिणपंथी कहता रहा है या मध्‍यमार्गी मानता रहा है। गरीबी, पिछड़ेपन और भेदभाव के विरुद्ध तुम खड़े भी दीखते हो और पड़े भी दीखते हो, और यार, तुक का दबाव ऐसा प्रबल है कि जी में आता है, कह दूँ सड़े भी दिखाई देते हो, पर तभी याद आया, यदि तुक तर्क पर हावी हो गई तो कहना होगा, बड़े भी दिखाई देते हो, जो मैं कहने चलूँ तो गला रुँध जायगा। पर कुछ बातें मैं समझा नहीं पाया उन्हें उनके खुरदरेपन के साथ समझो:

1. तुम्हारी आशंका का एक कारण यह है कि जो स्वतंत्रता प्राप्ति के ठीक बाद के निर्णायक क्षण में जब हिंदी को राजकीय कामकाज की भाषा बनाने का आवेश था नहीं हो सका वह क्या अब संभव है । तुम उसी क्षण में हमारे हिस्से में क्या आया है की कामना और उससे उत्पन्‍न गिरावट की कल्प ना भी नहीं कर पाते जो इसमें रुकावट बनी थीं।

2. जिस निर्णायक तिथि पर हिन्दी को राजभाषा बनना था उसी पर तमिल आवेश और उसके दबाव में यह समर्पण कि जब तक तमिलभाषी हिन्दी को स्वीककार नहीं करेंगे तब तक इसे राजभाषा नहीं बनाया जाएगा।

3. इसके बाद पहले का सारा जोश और तैयारियॉं ठंडे बस्तें में डाल दी गईं और वह मुहावरा हावी हो गया कि न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। हम सर्वथा परास्‍त और निष्क्रिय हो गए।

4. पर इस पचास साल के दौर में दक्षिण के वे राज्य जो हाशिये पर थे पर हिन्‍दी के प्रति जिन्‍होंने व्‍यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया उनका अभ्युदय हुआ और जो विरोध में थे, उनका ह्रास हुआ। केरल पहले तमिलनाडु की तुलना में इतना पिछड़ा था कि तमिल उसे अपना उपनिवेश समझते थे। हिन्दी के राजभाषा न हो पाने के निर्णय के बाद भी हिन्दी के प्रति अपने वस्तुपरक दृष्टिकोण के कारण वह तमिलनाडु को इतना पीछे छोड़ गया है कि दिल्ली में यदि घरेलू सहायकों की संख्या देखो तो वे अपने अनुपात से बहुत अधिक तमिलनाडु की मिलेंगी जब कि केरल की नर्सें मिलेंगी, दूसरे सम्मानित पेशों में काम करने वाले, यहॉं तक कि व्यवसाय करने वाले मिलेंगे, और अपनी संख्या को देखते वे तमिलनाडु से कई गुना आगे मिलेंगे। इसी तरह की गिरावट बंगाल में भी देखने को मिलेगी। रिक्शा चलाने वालों में बंगलाभाषियों की संख्या अपनी जनसंख्या के अनुपात में बहुत आगे है, और यह तय करने में कठिनाई होती है कि उनमें कितने बंगाली है, कितने बांग्लागदेशी। जिन्हें अपने साहित्य पर इतना नाज था कि वे अपनी भाषा का सम्मान तक नहीं कर सके, उसे अपने राज्य की भाषा बनाने से कतराते रहे वे आज गिरावट के दौर से अपनी उसी अभिजनवादी अकड़ के कारण गुजर रहे हैं और भीतर यह समझ चुके हैं कि हिन्दीे के बिना उनका हित भी बाधित होता है।

5. परन्तु मैं उस चरण की बात कर ही नहीं रहा हूँ। मेरे लिए राजभाषा समस्या केन्‍द्रीय नहीं है, शिक्षा की समानता जो अवसर की समानता से जुड़ी हुई है और जिसके लिए उन्हें अपनी भाषाओं के माध्यम से अपने समूचे समाज की सर्जजनात्मक उूर्जा का उपयोग करना है, अपनी खनिज, पर अब तक अनुपयोगी पड़ी संपदा के सार्थक उपयोग की तरह, जिससे उनका और विश्व समाज में पूरे देश का अभ्‍युदय जुड़ा है, उसकी बात कर रहा हूँ। इसे टाला जा सकता है रोका नहीं जा सकता। क्यों कि इस बीच यह अहसास तेज हुआ है कि समाज के पिछड़ेपन या किसी भी गिरावट, उपेक्षा या बेरोजगारी की जिम्मे दारी न अकेली उनकी है न उनके पिछले जन्म के कर्म की। इससे मुक्ति दिलाने में सरकार की भूमिका है और उसे इसकी व्यवस्था करनी ही होगी। आज यह विद्रोह कुछ दिनों का काम, कुछ रियायते दे कर पूरा कर लिया जाता है, कल जो हक है हमारा हम लेंगे, उससे न जरा भी कम लेंगे का नारा दबे, पिछड़े और आज दुत्कारे जाने वाले जनों का प्रधान नारा बनने जा रहा है।

6. जब मैंने कहा, उस स्तर पर जाति, धर्म और संप्रदाय की सीमाऍं ढह जाती हैं, तो यह इतनी सीधी बात है कि तुम जैसे मन्दबबुद्धि के दिमाग में भी आ सकती है, परन्तु् जो मैंने कहा, उन्हीं समुदायों के अधिक प्रातिभ सिद्ध होने वालों का उपयोग उनके सामाजिक स्तर के खिलाफ काम करने वाली ताकतें कर ले जाऍंगी और वे इतिहास की का‍ल्पनिक कथाओं में उलझा कर उनकों दूसरे प्रलोभन दे कर इस्तेरमाल करेंगी तो इसे समझने में तुम्हें और दूसरों को भी कठिनाई होगी जब कि इसके नमूने ऑंखों के सामने हैं। यह बात तो समझ में आएगी ही नहीं कि जो इतनी जघन्य अवस्था‍ में जी रहे हैं कि निर्वाचन का अर्थ उनके लिए पॉच साल में एक बार के लिए एक थैली शराब, या कुछ पैसे या कुछ कपड़े लत्ते होता है, उनकी सामूहिक चेतना के बीच से कोई नेतृत्व उभरेगा।

7. इसलिए उस दलित वर्ग का मीडियाकर वह आन्दोलन छेड़ने को बाध्य है। वही इसे फलोदय तक ले जा सकता है। वह न बिकाउू होता है न उसके गाहक होते हैं। उसे ही दो विकल्पों के बीच से एक का चुनाव करना है, आत्मघात या समानता का संघर्ष जिसका नैतिक आधार इतना प्रबल है कि जिनके हित इससे टकराते हैं वे भी खुल कर इसका विरोध नहीं कर सकते।

8. परन्तुि यहीं पर उस तबके की क्रान्तिकारी भूमिका का पता चलता है जिसे मीडियाकर या मझोली समझ वाला कहा जाता है। समूचे समाज में सबसे महत्वपूर्ण तबका यह मीडियाकर तबका ही है। और जानते हो, मैं इसी का एक सदस्य हूँ परन्तु उन निर्योग्यताओं से लैस जो ऐसा आन्दोलन खड़ा कर सके जब कि तुम इसके प्रातिभ तबके से आते हो जो अपनी प्रतिभा का टेस्टीमोनियल छाती से चिपकाए सही गाहक की तलाश में फेरी लगाते रहते हैं।
इति भाषा प्रसंग:।

Post – 2016-04-08

जबॉं कटती है कटने दो अँगूठे पर नजर रखो

आप अब तक यह तो समझ चुके होंगे कि हम दोनो, दोस्तों की तरह नहीं, वकीलों की तरह बात करते हैं। पक्ष हमने चुन लिए हैं। कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते। बहस का अपना ही मजा है, उसके बाद फिर नए सींग उगाने, भिड़ने और अदालत के बाहर एक दूसरे का हाल पूछने में उम्र गुजरी है। उसने कहा तुम्हारी जड़ें उजागर कर दीं तो मै भला पीछे क्यों रहता।

“जड़ लोग भी जड़ों तक पहुंचने की कोशिश करते हैं यह जानकर पुलकित हूं, पर पहुंच नहीं पाते यह सोच कर व्यथित भी हूं। कभी यह तो समझने की कोशिश की होती कि मेरे कथन में और इतिहास की परिघटनाओं में कोई साम्‍य और अन्तर है भी या नहीं और फिर यह भी सोचा होता किैं मैं कई बार, कई रूपों में, यह कह आया हूं कि मौलिकता अपरिपक्व परन्तु अपने उत्कर्ष के लिए व्यग्र जनों की समस्या है । इससे ललित साहित्‍य और कलाओं का काम चल जाता है जिनमें भावुकता का अनुपात बौद्धिकता की तुलना में बहुत अधिक होता है, परन्तु, बौद्धिक को मौलिक नहीं प्रामाणिक होना चाहिए।

”जब तुम मौलिक होते हो तो, अकेले होते हो, अनन्य होते हो, दूसरों को चकित करते हो, जब प्रामाणिक होते हो तो बहुत के साथ, कई रूपों में परखे हुए व्यक्तियों और तथ्यों के साथ होते हो, इसलिए विश्वसनीय होते हो, सामाजिक होते हो और तुम्हारा लक्ष्य किसी को चकित करना या अपने को अनन्य सिद्ध करना नहीं, अपितु अपने पाठकों और श्रोताओं को बदलना होता है। परिवर्तन लाने के लिए, किसी आन्दोेलन को फलोदय तक पहुँचाने के लिए, एक ही बात को, एक ही विचार को, बार बार दुहराना होता है, कई बार तो उूब पैदा होने की हद तक जा कर।

”परन्तु प्रामाणिकता के साथ नवीनता उन्हीं तथ्यों और विचारों और क्रियाओं और अनुभवों के नए रूप में संयोजन से स्वत: पैदा होती है। उनकी व्याख्या से सचाई का एक नया आकार सामने आता है जो जब सपना बना रहता है तब भी विश्वसनीय बना रहता है। दुनिया के सारे आविष्कार, सभी क्रान्तिकारी विचार, सभी दर्शन और कुछ दूर तक धर्म भी इसी प्रक्रिया से पैदा होते हैं। पूर्वलब्ध तथ्यों के नये संपुंजन और उनके अन्तर्घात से फूटे नए आलोक से।‘’

’’अब मैं क्या करूँ। बैठा रहूँ या उठ कर चला जाउूँ और जब तक तुम्हारा आत्मालाप पूरा नहीं हो जाता तब तक टहलता रहूँ?’’

’’तुम कहीं मत जाओ, जहॉं भी जाओगे तुम्हारी बेवकूफी तुम्हारे साथ जाएगी। उससे छुटकारा नहीं। तुम यहॉं बैठे बैठे जो मैं कहता हूँ उसे सुनो और यह समझो कि केलेकर जी विद्वान आदमी हैं। उन्होंने भी तुम्हारी तरह ही बहुत कुछ पढ़ा है इसलिए समझते हैं व्यक्ति या कोई संगठन अगर कुछ करने पर आ जाए तो वह कोई भी अच्छा काम कर सकता है या युगान्तर ला सकता है। उनके जीवट को मैं भी नमन करता हूँ। यह भी दुहरा आया हूँ कि उसके बिना कुछ भी संभव नहीं है। परन्तु यदि परिस्थितियॉं अनुकूल नहीं हैं, यदि प्रतिरोधी शक्तियॉं अधिक सशक्‍त और सक्रिय और अनुकूलन में समर्थ हैं तो इच्छित दिशा में हम कुछ कदम चल कर हार जाते हैं।

लोहिया जी नरशार्दूल न रहे हों, मात्र एक चिन्तक ही रहे हों, उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए जो प्रयत्न किए उनका इच्छित परिणाम नहीं आया। वह बेकार गया, यह भी नहीं कह सकते। यह लोहिया जी के आन्दोकलन का परिणाम था कि राज्यों के काम काज की भाषा वे भाषाऍं बनी जिनके आधार पर राज्यों का सीमांकन हुआ था। हिन्दीं प्रदेश इसका एक मात्र अपवाद था जिसमें एक ही भाषाक्षेत्र की अपनी विशालता के कारण इसे पहले से बँटे राज्यों में बँटा रहने दिया गया परन्तु इन राज्यों में भी हिन्दी् काे राज्यभाषा उस आन्दोलन के बाद ही बनाया गया।

” सच कहो तो कांग्रेस की पराजयके बाद क्योंकि कांग्रेस की पूरी ताकत अंग्रेजी के पक्ष में रही है और नेहरू भाषावार राज्यों के प्रबल विरोधी थे क्‍योंकि वह जानते थे कि यदि राजयों की शासकीय भाषा उनकी अपनी भाषा बन गई तो केन्‍द्र से अंग्रेी को हटाना आसान हो जाएगा। वह यह भी सोचते थे कि ज्ञान की गंगोत्री अंग्रेजी ही है। जब हिन्दीभाषी राज्यों में राजकाज हिन्दी में आरंभ हो गया उसके बाद भी बंगाल और तमिलनाडु तक जो अपनी भाषाओं को अपने साहित्यं के आधार पर हिन्दी से अधिक समर्थ भाषा मानते थे, अपनी भाषाओं को राजकाज की भाषा नहीं बना सके थे। आज क्‍या स्थिति क्‍या है, इसका मुझेज्ञान नहीं। फिर केन्द्र के लिए किसी भारतीय भाषा के लिए उनका समर्थन जुटा पाने का प्रश्न ही न था।

” पर लोहिया जी जहॉं सफल न हो सके वह था सभी स्कूलों को एक स्तर पर लाना जिससे राष्ट्ररपति से ले कर चपरासी तक के बच्चाे एक ही तरह की शिक्षा पा सकें और अपनी योग्यंता के आधार पर आगे बढ़ सके।

मैं सरकारी कामकाज की भाषा की लड़ाई की बात नहीं कर रहा हूँ। शिक्षा की भाषा की बात कर रहा हूँ । और इसमें सबसे प्रबल भूमिका किसी दल की नहीं उस पिस रहे तबके की है जिन्हें अपनी भाषा में शिक्षा चाहिए और छोटे से बड़े सभी लोगों के बच्चों को उसी में शिक्षा दी जानी चाहिए। यदि वे कोई अन्य भाषा सीखें तो उसका स्थान गौण होना चाहिए। वह संस्‍कृत की क्‍यों न हो। उसको योग्यता की कसौटी नहीं बनाया जाना चाहिए। उचित भाषाई परिवेश में सभी लोग बिना आयास के कोई भी भाषा सीख लेते हैं, और इतने अधिकार से सीख लेते हैं कि कोई उन्नीस-बीस नहीं पड़ता । इसलिए योग्यता का भाषा से कोई संबंध नहीं। अयोग्य होते हुए भी, संख्या में अल्प होते हुए भी, जो समाज को अपने नियन्त्रंण में रखना चाहते हैं वे सामान्य जनों द्वारा व्यवहार्य भाषा की अवहेलना करते हैं, उनमें शिक्षा को लगभग असंभव बना देते हैं, और यदि ऐसा न भी हो सके तो उसे कहानी, कविता, बुझौवल तक की भाषा बनाए रखने का प्रबन्धं करते हैं और उस भाषा को अपने नियन्त्र ण में रखते हैं जिस पर अधिकार को योग्यता का प्रमाण बना दिया जाता है। इसी से कई तरह के आन्तरिक उपनिवेश पैदा होते हैं। संस्कृत पर अनन्य अधिकार जमा कर ब्राह्मणों ने यही किया, अंग्रेजी पर अनन्य अधिकार जमा कर नवब्राह्मण यही कर रहे हैं और इससे जातियों के भीतर जातियॉं पैदा हो रही और मजबूत हो रही हैं। जातिवाद के विरुद्ध खड़ा होने वालों को इतिहास में दो हजार साल पीछे जा कर एक काल्पनिक कथा में अँगूठा काटे जाने के अन्याय से ध्यान हटा कर आज के दिन जबान काटे जाने के अन्या य के विरुद्ध एकजुट होना चाहिए। क्योंकि जिनकी जबान काट दी जाती है, उनके अंगूठे ही नहीं हाथ तक उन्हीं के द्वारा काट दिए जाते हैं, उन्हेे को काम मिलता ही नहीं, जलील होने की यातनाऍं और फेंकी हुई रोटियॉं मिलती है और फिर या तो अकाल और भुखमरी से उनकी गर्दन काट दी जाती है, या गर्दन काटने पर, आत्महत्या करने पर विवश किया जाता है। इस मामले में इस भ्रम से बचा जाय कि वर्णवाद के विरुद्ध केवल दलित हैं, गो इसके कारण सबसे अधिक उत्पीड़न उनको ही सहना पड़ा है। परन्तु, सहना और विरोध में खड़ा होना दो अलग बातें है। दलित अपने आक्रोश का भी सौदा कर सकता है और अदलित इस दुहरी पीड़ा से अर्धविक्षिप्त़ तक हो सकता है। फिर भी जबान की वापसी का अभियान दलित नेतृत्व में हो तो उसमें अधिक तेजस्विता रहेगी, एक बार इसके खड़ा होने के बाद पिछड़े देशों, समाजों और सामाजिक स्तरों का मेधावी बालक अपनी महत्वाेकांक्षा के कारण दुश्मदनों के हाथ का खिलौना बन जाता है, फिर भी आग तो वहीं बची है, उस पीड़ा में, अपने नरक से बाहर आने की आकांक्षा में या इस बोध से अवसन्न ता में। जैसे लकड़ी में आग। उसके लिए प्रातिभ नहीं मछोले कद के तेजस्वी नेतृत्व को आगे आना होगा, शिक्षा की बराबरी की माँग के साथ जिसे कई तरीकों से दबाया, भटकाया और मिटाया जा रहा है।

Post – 2016-04-08

आज की पोस्ट लंबी हो गई । इसे दो किश्तों में दे रहा हूँ । दो शीर्षकों से । पहला अभी, दूसरा दो ढाई घंटे बाद।

विरोध का मनोविज्ञान

‘‘तुम जब कुछ भी कहते हो तो विश्वास नहीं होता! जानते हो इसका क्या कारण है? तुम जिस सोच का समर्थन करते हो उसकी मलिनता के कारण! कोई कहे, ‘सूखे के इस दौर में सूखा प्रभावित क्षेत्रों में , गटर का पानी किस अनुपात में वितरित किया जाय कि पेय जल की समस्या हल हो सके तो क्या इस पर बहस हो सकती है? तुम इसी तरह की बातें करते हो। मैं चुप लगा जाता हूं तो तुम समझते हो मंजिल मार ली। तुम्हारे सीधे सादे विचार जो पहली नज़र में ठीक लगते हैं उन पर भी सन्देह होता है! तुम्हारी अक्ल पर पड़े उनके पत्थर के कारण। ये खुशबू की बात करें तो उससे भी बदबू आती है! इसलिए भी तुम्हारी यह बात मुझे सही नहीं लगती थी कि अंग्रेजी हमारे बौद्धिक उत्कर्ष में बाधक है! सीधी सी बात कि हमारे पास आधुनिक ज्ञान का कोई दूसरा विश्वसनीय स्रोत नहीं है इसलिए लगता रहा है कि जिन भी परिस्थितियों में अंग्रेजी का माध्यम हमें सुलभ हुआ उसे आज त्यागना बौद्धिक आत्महत्या है और इसीलिए हम ऐसा विचार रखने वालों को संकीर्ण सोच का, राष्ट्रवादी व्याधियों से ग्रस्त मानते आए थे और अंग्रेजी के प्रति उदार स्वीकार भाव रखते आए हैं। पर उस दिन की तुम्हारी बात मुझे ठीक लगी!”

“पत्थ र पर दूब कैसे उग आई। मैं तो यह मान कर चलता हूँ कि यदि कोई बात तुम्हारी समझ में न आई तो वह सही है, समझ में आ गई तो जरूर कुछ गड़बड़ है। जिस आदमी को खुशबू की चर्चा से बदबू आती हो, उसे सोचना चाहिए कि लगातार दुष्प्रचार के कारण बदबू उसके भीतर तो नहीं भर गई है और वह भी इतनी गहरी कि जिसे खुशबू तक न मिटा सके।

”जानते हो अमेरिका के जंगलों में बेचारा सा एक जानवर होता है । उसे स्कंक कहते हैं! वह काटता नहीं है, अपने बचाव के लिए दुर्धन्ध भरी एक फुहार छोड़ता है । कितना भी नहाओ, शैंपू करो, बदबू जाती ही नही। उसका एक ही उपचार है, टमाटर के रस से शरीर को अच्छी तरह रगड़ कर नहाना। विचारधाराओं में कुछ ऐसी होती हैं जो नफरत के बल पर ही जीवित रहती हैं और इनके प्रभाव में आने वाले व्यक्ति उसी दशा में पहुँच जाते हैं जिसमें तुम पहुँच चुके हो। बौद्धिक स्कंक ।

”फिर भी यह चमत्कार हुआ कैसे कि मेरी कही कोई बात तुम्हें सही लगने लगी। और यदि तुम्हे सही लगने लगी तो अब अपने ही कहे वाक्यों पर मेरा विश्वास डगमगा रहा है! ‘’

’’भई, मैंने सोचा, अगर दस बार तोता भी भाग्य!फल निकाले तो दो चार बार सही तो वह भी होता है फिर तुम्हातरी भी कुछ बातें तो सही होंगी ही कि तभी कोंकड़ी के प्रख्या्त लेखक रवीन्द्र केलेकर का एक व्या्ख्यान जो उन्होंने कभी ज्ञानपीठ पुरस्कारर लेने के अवसर पर दिया था वह ‘अन्तिम जन’ के जुलाई 2015 अंक में सामने पड़ गया, जिसमें उन्होंने बड़े मार्मिक ढंग से इस पीड़ा को व्यक्त किया है कि अंग्रेजी ने हमारे बौद्धिक विकास को कुंठित किया है। अंक यह रहा। पढ़ कर समझ में आ जाएगा कि जो बात तुम आज कह रहे हो वह दूसरे समझदार लोग बहुत पहले से कहते आ रहे हैं।‘’ उसने पत्रिका को खोल कर मुझे थमा दिया। कुछ पंक्तियों को उसने रंग रखा था।

मैंने पत्रिका हाथ में लेते हुए जुमला कसा, ‘’समझदार लोग इतने पहले से यह कहते आ रहे हैं और मूर्खों को फिर भी समझदारी से इतनी चिढ़ है कि वे दाद तो दे लेते हैं, पर सुझाव मानते नहीं।‘’

केलेकर के इस व्याख्यान का शीर्षक था, ‘बोन्सााई संस्कृति’ और उसके द्वारा रंगीन पंक्तियॉं निम्न प्रकार थीं:

’जड़ें काट कर बड़े बड़े वृक्षों को बौना बनाने की एक कला जापानियों ने विकसित की है। नारियल का पेड़ जो गगन को छूने के लिए उूपर तक जाता है उसे सिर्फ पॉंच फुट उूँचा इस कला के द्वारा बनाया गया मैंने देखा है। बड़ा ही सुन्दर दिखाई देता है, मगर वह नारियल नहीं दे पाता। दीवानखाने की शोभा बढ़ाने के ही काम आता है। इस कला को बोन्साई कला कहते हैं। अंग्रेजी ने हमारे देश में कई बोन्साई विद्वान, बोन्साई बुद्धिजीवी, बोन्साई लेखक और अब तो बोन्साई पाठक भी निर्मित किये हैं जो परिसंवादों की शोभा बढ़ाने के काम आते हैं। ठोस कुछ भी नहीं दे सकते। क्या हम देश को बोन्साय लोगों का होने देंगे? नहीं न? तो फिर अंग्रेजी की जो प्रबलता है उसके खिलाफ विद्रोह करना निहायत जरूरी हो गया है। कौन करेगा यह विद्रोह? एक नरशार्दूल था जिसने यह विद्रोह शुरू किया था – डा. लोहिया। अचानक ही चल बसे । अब? मेरी दृष्टि देशी साहित्यकारों की ओर जाती है। विक्टयर ह्यूगो बड़े गर्व के साथ कहा करता था – इटली ने रिनेसां का आन्दोलन चलाया। जर्मनी ने रिफार्मेशन के साथ साथ आधा रिवोल्यूेशन चलाया और न सिर्फ फ्रांस की बल्कि पूरे यूरोप की शक्ल सूरत ही बदल डाली। ऐसा कोई एक वाल्तेयर देश की किसी एक भाषा में पैदा होगा, तभी आज की हालत जड़मूल से बदल पाएगी।‘

मैंने उन पंक्तियों को पढ़ कर एक लम्बी सांस ली तो लगा वह खुशी से बैठे बैठे ही बेंच से दो इंच उूपर उछल जाएगा, बोला , जो बात दूसरों ने दशकों पहले कही है उसी को दुहरा कर तुम मौलिक चिन्तक बनना चाहते हो और अनपढ़ो की जमात मिल गई है तो फूले भी नहीं समाते होगे, पर मैंने तुम्हारी जड़े, उखाड़ कर दुनिया के सामने उजागर कर दीं!”

Post – 2016-04-08

पुस्तक के काउंटर पर आने में दो चार दिन तो लगेंगे ही। प्रकाशक किताबघर प्रकाशन, दरियागंज, िदल्ली – ११०००२ हैं।

Post – 2016-04-04

समय होत बलवान

”रुकावटों का कोई अन्त नहीं, सारे पढ़े लिखे अंग्रेजी के साथ, भारतीय भाषाओं को प्रमुखता देने की किसी दल या सरकार में इच्छाशक्ति नहीं, फिर भी तुम कहते हों अंग्रेजी यह गई, वह गई, और ताली बजाने लगते हो। अच्छा तमाशा है!

‘’मैं अंग्रेजी को भगाना नहीं चाहता। वह अपने देश-परिवेश में एक महान भाषा है। हमारे देश में उसने अपने जैसी दर्जनों भाषाओं का रास्ता रोक रखा है। हम उनको भी आमंत्रित करने को व्यग्र है, पर इन सभी को उनकी सही औकात में रखने का सपना देखते हैं। अंग्रेजी संस्‍कृत दोनों का सम्मान करता हूँ। दोनों को उनके दायरे में रखना चाहता हूँ। भाषा कोई भी हो, यहॉं तक कि बोलियॉं, ये सभी अनन्य‍ हैं।‘’

’’तुम किसी चीज की तारीफ करते हो तो आसमान पर चढ़ा देते हो। कहॉं विकसित विश्व- भाषाऍं और कहाँ हमारी अपनी भाषाऍं जिनमें तकनीकी शब्द उनसे उधार ले कर अनुवाद करना या गढ़ कर समझना पड़ता है और कहॉं बोलियॉं जिनका विश्वबोध भी सिमटा हुआ है और शब्दभंडार भी। सबको बराबर कर दिया।‘’

’’मैंने सभी को अनन्य अर्थात् दूसरे सभी से अलग, अनूठा, कहा, समान नहीं। तुम यह मान कर चलते हो कि मैं जो कुछ कहूँगा वह गलत होगा, इसलिए ध्यान से सुनते नहीं और अधसुने वाक्य को अपने ढंग से गढ़ कर हमला कर देते हो। दोष तुम्हारा नहीं उस पूरी जमात का है जिसका तुम हिस्सा बने हो। देखो तो कैसी कैसी सत्यानाशी व्याख्यायें सामने आ रही हैं।

“मैं जिस अनन्यता की बात कर रहा था उसे समझ लो। मुझे यह लगता रहा कि संस्‍कृत में इतस्तत: की जगह इत: अत:या इतो अत: होना चाहिए। इसके विस्तार में जाउूँगा तो तुम बोर हो कर बेहोश हो जाओगे पर कुछ समझ न पाओगे। इसकी पुष्टि जिन्हें तुम भारतीय आर्य भाषाऍं और बोलियॉं कहते हो उनसे नहीं, अपितु द्रविड़ समुदाय में गिनी जाने वाली एक नामालूम सी बोली जिसे अपने अज्ञान के कारण मैं कुछ समय तक मुंडा परिवार की भाषा समझता रहा, उससे हुई। उसमें यहॉं और वहॉं के लिए इतरं अतरं का प्रयोग होता है। और तमिल में, तुम्हें पता होगा, मध्य तकार का दकार के रूप में उच्चारण होता है। तो कुछ बोलियों में इसका उच्चारण इदरं अदरं के रूप में होता रहा होगा। इसका अर्थ हुआ, संस्कृत का विकास जिस रेल-मेल से हुआ उसमें विविध परिवारों में गिनी जाने वाली बोलियों की भूमिका थी और संस्कृत ने बहुत कुछ उनसे लिया है, और गौर करो तो हमारी बोलियों का इधर उधर संस्कृत के इत: तत: से नहीं सीधे उस प्राचीन स्तर से जुड़ा है। यह है उनकी अनन्यता और उपयोगिता।‘’

‘’मैं तुम्हारी बक-धुन से बेहोश तो नहीं हो सकता पर सिरदर्द का क्या करें। कल से गोली ले कर आया करूँगा। मैंने सवाल क्या किया था और तुमने उसे कहॉं पहुँचा दिया। किस चक्‍की का आटा खाते हो यार। बकवास का इतना जबरदस्त स्टैमिना!’’

‘’मैं केवल यह समझाना चाहता था कि जिनको तुच्छ समझ कर हम उनकी उपेक्षा करते हैं, वे भाषाऍं हों या मानव समुदाय, यहॉं तक कि व्यक्ति, उनमें से प्रत्येक से जो कुछ मिल सकता है वह किसी अन्य से नहीं मिल सकता। वे सभी अनन्य‍ हैं। उन भाषाओं का भी जिनका कोई साहित्य नहीं, किसी क्षेत्र की स्वी‍कृत भाषाऍं नहीं, उनको सीखने समझने के लिए व्यग्र रहा हूँ। अंग्रेजी और संस्कृत सीखने की कोशिश में तो मैं स्वयं लगा रहा हूँ। सत्तर साल की कोशिश के बाद भी सीख किसी को नहीं पाया सिवाय हिन्दी के। मगर उसमें भी गलतियॉं अनगिनत करता हूँ। हर तरह की। अपनी भाषा में आप गलती करते हुए भी छोटे नहीं होते, सबको विश्वास होता है कि भाषा तो आप जानते ही हैं, पर विदेशी या सीखी हुई भाषा में आपको निखोट होना चाहिए, अन्यथा आपके अपने ही आप को अपने उपहास से रसातल में पहुँचा देंगे। मातृभाषा मॉं जैसी है, उससे आप जिद कर सकते हो, शरारत कर सकते हो, लापरवाही कर सकते हो और फिर भी उसके अपने हो, सीखी हुई भाषा मैट्रन की तरह होती है। सिखाये का पालन होना चाहिए। कोई विचलन क्षम्य नही।‘’

’’हरज क्या है इसमें। मैट्रन तो लोग अपने बच्चों के भले के लिए ही लगाते हैं। वह तुम्हारा विकास करती है, उससे ही द्रोह!’’

’’ मैट्रन उन बच्चों की होती हैं जिनके पितरों के पास संपन्नता होती है परन्तु अपने बच्चों के लिए समय नहीं होता। उनकी मैट्रन भी यदि मॉं की जगह लेने लगे तो वह समृद्धि-जनित मूर्छना भी टूटेगी। मैट्रन बाहर हो जाएगी और बच्चे को उसकी मॉं मिल जाएगी यह मामूली समीकरण तुम्हामरी समझ में आया?‘’

‘’मेरे पास अक्ल होती तो तुम्हारा दोस्त होता, कम से कम यह तो सोचा होता।‘

‘मैं पिछले सत्तर साल से संस्कृत और अंग्रेजी सीखने का प्रयत्न करता रह्ा । किसी को काबू न कर सका।‘’

‘’तुम्हारी तो एक किताब भी है अंग्रेजी में। तुम ऐसा कैसे कह सकते हो।‘’

‘’किताब से क्या होता है, भाषा को अक्षर नहीं, इसे जबान, लैंग्वेज, टंग, वाक् कहते हैं। जो तुम्हारी जबान पर नहीं है वह तुम्हारी भाषा नहीं है। जानते हो, हिन्दी से एम. ए. कर चुका था पर बोलता भोजपुरी था। भाषा लिखी या छपी हुई इबारत नहीं है, जिसे ऑंखों से पढ़ा और हाथों से टॉका जाता है। इसे सुना और बोला जाता है। जो सुन नहीं सकता वह बोल नहीं सकता। इसलिए जो भाषा परिवेश में बोली जाती है उससे अलग सभी भाषाऍं श्रमसाध्य भाषाऍं हैं और उनका आधिकारिक ज्ञान हो ही नहीं सकता। हम उनके उूपरी छिल्के से नीचे पहुँच ही नहीं पाते जहॉं भाषा की आत्मा होती है। हिन्दी के परिवेश में आने के बाद अब भोजपुरी बोलना कठिन होता है, परन्तु यह कठिनाई भोजपुरी क्षेत्र में जाते ही अचेत रूप में ही समाप्त हो जाती है। अंग्रेजी इसीलिए कष्टसाध्य भाषा है। उसे भगाने की जगह उस जैसी दूसरी बहुत सी भाषाओं का स्वागत करने को तैयार हूँ परन्तु उनको उनकी जगह पर ही रखना होगा। मैं मातृभाषाओं की गरिमा की वापसी चाहता हूँ और यह तभी संभव है जब उनके माध्य म से उच्चतम अवसर प्राप्त हों।‘’

‘’समझ गया। तुमने इसे मूछ का सवाल बना लिया है, भले आदमी, यदि ऐसा है तो खुद भी मूछ तो रखते।‘’

’’मूछ का सवाल नहीं है, गरीब से गरीब और देश के किसी कोने में पड़े हुए बच्चों के लिए शिक्षा के माध्यम में समानता के अधिकार की समस्या है। अपनी भाषा मोलभाव से नहीं खरीदी जाती, वह सरे राह लुटाई जाती है और बिना इस विषय में सचेत हुए हम उस पर अधिकार कर लेते हैं।‘’

’’छोड़ो ये बार बार दुहराई गई बातें। यह बताओ जब सभी ग्रह इसके विरोध में है, कम से कम कोई साथ देने को तैयार नहीं तो तुम भारतीय भाषाओं को उनका स्थान दिलाओगे कैसे।‘’

‘’यह काम मेरे वश का नहीं है, यह काम अंग्रेजी स्वयं करने जा रही है। मैंने कहा था न, पहले यह ज्ञान की भाषा थी, अब यह भ्रष्टाचार की भाषा बन चुकी है। इसका स्तरीय ज्ञान दिलाने वाले स्कूलों की फीस ही इतनी उूँची है कि मध्यवर्ग के कदाचार को इससे औचित्य मिलता है। इतनी तो आय है, फीस इतनी, बच्चों को पढ़ाना तो होगा ही। और इसका जो दूर दूर तक विस्तार हुआ है उसमें साधनहीन जन पिस जाते हैं। अंग्रेजी अपनी सर्जनात्मकता खो कर एक जघन्य बोझ में बदल चुकी है जिसके कारण भाषा सीखने पर जान लड़ाने के कारण बच्चे दूसरे विषयों की ओर पूरा ध्यान नहीं दे पाते और जिस पर ध्यान देते हैं उसे सीख नहीं पाते। इसका परिणाम है महामारी के स्त‍र पर नकल का कारोबार। हमारे समय में यह लगभग असंभव था, और फिर लड़कों की संख्या बढ़ती गई और उनका दुस्साहस भी बढ़ता गया। मान बहादुर प्रिंसिपल थे, नकल पर रोग लगाई थी और उनकी हत्या‍ उनके ही कालेज के छात्र ने कर दी। अब यह आश्चर्य का विषय नहीं रह गया है। नकल कराने में छात्र ही नहीं, उनके अभिभावक और शिक्षक तक शामिल होने लगे है। उनको अच्छे नंबर चाहिए, स्कूल को अपना नाम। पर्चे लीक कराने का कारोबार व्यापमं या क्या नाम है जो मध्य प्रदेश में सुनने में आया था। खैर जो भी हो, उसकी चर्चा से तो अवगत हो। ये एक दूसरे से असंबद्ध परिघटनाऍं और प्रवृत्तियॉं नहीं हैं। और इनके पीछे प्रधान कारण अंग्रेजी का चलन और उसका दबदबा है।

‘’मैंने एक बार कहा था न कि इतिहास का फैसला वर्चस्वी की अपनी ही व्यर्थता और अव्यवहार्यता के रूप में आता है और तब असंभव प्रतीत होने वाले परिवर्तन स्व्ल्प आयास से भी हो जाते हैं, परन्तु प्रयास तो करना ही पड़ता है।‘’

उसने लगभग समर्थन का खतरा उठाते हुए एक नीतिवाक्य जड़ दिया, ‘’नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।

‘’इतनी देर बाद आया समझ में इतिहास का वह संकेत। सांस्कृतिक विजय के लिए पश्चिम ने कितना लंबा और जी जान से संघर्ष किया इसे तुम जानते हो। सांस्कृतिक मुक्ति के लिए हमें अपनी भाषाओं की ज्ञान संपदा का विस्तार करना होगा और यह अंग्रेजी में जो लिखा है उसका भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने से नहीं होगा। हमें विविध क्षेत्रों में मौलिक अध्ययन और अनुसंधान से ज्ञान का उत्पादन करना होगा। अंग्रेजी, संस्कृत या अन्य भाषाऍं जिनका ज्ञान है वे भी स्रोत भाषाऍं बनी रहेंगी। यदि हिन्दी के लोग विश्व हिन्दी सम्मे‍लन, हिन्दी दिवस आदि के आयोजनों से दूरी बना कर रहें तो भाषागत सौहार्द स्थापित करने में इससे भी बढ़ावा मिलेगा। मैंने पहले ही कहा था हिन्दी क्षेत्र में राष्ट्र भाषा प्रचार समितियाँ दक्षिण भारत की किसी भाषा की शिक्षा का केन्द्र बन जाऍं या उनमें राष्ट्र की दूसरी भाषाओं की कक्षाऍं लगाना आरंभ करें और हिन्दी भाषी इसमें रुचि लेने लगें तो इसका जादू जैसा असर होगा। परन्तु इसे आन्दोलन का रूप देने में नेतृत्व दलित समाज ही समर्थ हो सकता है।

Post – 2016-04-03

”बात अपनी कह सकें, यारब जबॉं अपनी तो हो।”

‘’तुम्हें क्या। लगता है। यह जो आप सरकार है, शिक्षा प्रणाली में सुधार तो इसकी प्राथमिकताओं में है। यह तुम्हारे सपने पूरा करने की दिशा में कुछ करेगी।‘’

‘’मैं सरकारों और राजनीतिक दलों पर बात नहीं करना चाहता। यह एक सोच और समझ से जुड़ी समस्या है, किसी दल से नहीं। इसके पनपने में आधी सदी लगी है, इसे समझने में भी समय लग सकता है और इसके बाद निराकरण का चरण आता है, जिस अवधि तक के लिए यदि हम मान भी लें कि कोई दल इसका सही निदान कर पाया है और उसका उपचार कर लेगा, तब तक जरूरी नहीं कि वह सत्ता में रहे। इसलिए हमें उस मानसिकता को समझना होगा जिससे वह सोच पैदा हुई‍ जिसने उद्धारकों को लुटेरों की एक नई कौम में बदल दिया, कम्युनिस्टों को साम्राज्यवादियों और आन्तरिक उपनिवेशवादियों का दलाल बना दिया, जिसके कारण एक दौर का अंग्रेजी विरोधी अपने बच्चों का भविष्य अंग्रेजी माध्यम में तलाश करने लगता है। यह मत भूलो कि अपने क्रान्तिकारी तेवर के बाद भी आप सरकार भी दो तरह की शिक्षाप्रणाली के पक्ष में है, उन निजी कारोबारी स्कूलों में गरीबों की कुछ प्रतिशत भर्ती के पक्ष में है, यह अवसरवाद है। परन्तु मैं इसके लिए उस सरकार के इरादों का निर्णायक नहीं बन सकता। राजनीतिक अपरिहार्यताऍं कमीनेपन की भी परिभाषा बदल कर बलिदानियों की एक नई कोटि खड़ी कर लेती हैं, इसलिए राजनीतिक दलों का मूल्यांकन करने में समय लिया जाना चाहिए।

”हमारा सोच विचार भी राजनीतिक श्रेणियों में बँट चुका है इसलिए हमें विचारक माने जाने वालों की पोजिशन का तो पता चलता है और जिसे हम उनका विचार मानते हैं, वह विचार होता ही नहीं, वह पूर्व ग्रहीत मान्यता के समर्थन में नए ऑकड़ों के साथ ऐसे खेल में बदल जाता है जिसमें अदा समझ में आती है, अदायगी का पता नहीं चलता।

”भाषा की समस्‍या राजनीतिक समस्या नहीं है, वैचारिक समस्या है।‘’

‘’तुम मानते हो राजनीतिज्ञों के पास दिमाग नहीं होता, सोच और समझ नहीं होती? कभी इस पहलू पर भी ध्यान दिया कि तुम हवा में बातें करते हो? हवाई बातें करते हो और, माफ करना, हवा का रुख देख कर दिशा बदल लेते हो। अपने को एकमात्र मार्क्सवादी कहते हो और काम उनका करते हो जो हिटलर को अपना आदर्श मानते हैं। जमीन पर पॉंव रखो तो सचाई का भी पता चलेगा।’’

‘’मैं इस तरह सोचता ही नहीं जैसे तुम सोचते हो जिसमें सोचने की पहली शर्त होती है, तू मुझ सा बन जा और फिर सोच, और तू सोच भी रहा है या नहीं, यह तब पता चलेगा जब यह सिद्ध हो जाएगा कि गहन सोच विचार के बाद तू उसी नतीजे पर पहुँचा जिस पर हम बहुत पहले पहुँच चुके थे और उस पर दृढ़ता से जमे हुए थे, न पीछे हटे न आगे बढ़े, न उूपर उठे न नीचे गिरे। त्रिशंकु की कल्पना करने वालों को कम्यूनिज्म का पूर्वाभास कैसे हो गया था इस पर तुम उन विश्वविद्यालयों में अनुसंधान की व्यवस्था करो जिनमें कक्षाऍं कम लगती हैं, हंगामे अधिक होते हैं, तो तुम अपने को भी समझ पाओगे और आगे बढ़ने, उूपर उठने के रास्ते और प्रेरणाऍं भी मिल जाऍगी।

”तुम हिटलर की जीवनी पढ़ने से घबरा जाते हो, दूसरे उन शब्‍दों का अर्थ जानना चाहते हैं जिनका तुम तकिया कलाम की तरह इस्‍तेमाल करते हो। ना‍जिज्‍म उनमें एक है और हिटलर उसे समझने के लिए जरूरी है। भारत में यही उपलब्‍ध है। तुम ज्ञान को व्‍यवहार मान लेते हो इसलिए सशंकित रहते हो।

‘’पहले उन शब्दों का अर्थ समझो जिनको तुम बार बार दुहराते हो पर किसी के पल्ले यह नहीं पड़ता कि तुम कहना क्या चाहते हो। तुम जिसे वायवीयता और धरती का यथार्थ कहते हो, उसकी एक व्याख्या तुलसी दास ने की है जिसे मैं अपने लिए प्रयोग में लाना चाहूँगा, वह वायवीयता को शुद्धता की कसौटी मानते हैं और यह मानते हैं कि जब तक पार्थिव मलिनताओं से संपर्क नहीं होता तब तक जल की शुद्धता बनी रहती है और भूमि का स्पर्श करते ही वह जल ढाबर या मटियाला हो जाता है।

”मेरे‍ लिए इसका अर्थ है, सैद्धान्तिक विवेचन की प्राथमिक अपेक्षा वायवीयता, अर्थात् इतर सरोकारों, आग्रहों और बन्धनों से निरपेक्षता है और तुम्हारी सोच के अनुसार भूमि पड़े ढाबर पानी को पानी की शुद्धता की कसौटी बनाया जा सकता है। पहले इस बुनियादी अन्तर को समझने का प्रयत्न करो। ध्यान रखो, हम हिन्दी पर, भाषा पर, या शिक्षा नीति पर बात नहीं कर रहे हैं। हम भारतीय मानसिकता पर, गुलामी के नये रूप पर, उससे मुक्ति की संभावनाओं पर बात कर रहे हैं और भाषा इसमें इसलिए सबसे पहले आ जाती है कि भाषा के अभाव में हम बेजबान हो जाते हैं। बात अपनी कह सकें, यारब जबॉं अपनी तो हो।