Post – 2016-08-25

निदान -30

एक तिनका ही सही, एक इरादा ही सही

”मैंने आप की कविता फेसबुक पर पढ़ी । आप उनके फटे और चिंथे को कैसे सिल और रफू कर पाएंगे डाक्‍साब जो उस सिले और रफू किए को फिर फाड़ और चींथ देंगे। आज तक का इतिहास उनका यही रहा है। जब जब हाथ मिलाया उनसे तब तब धोखा खाया है।”

”आप तो कविता भी करने लगे शास्‍त्री जी। अच्‍छे लक्षण है, पर यह बताइये अपने ही कपड़े को फाड़ने वाले को क्‍या कहते हैं ?”

”कविता करने की बीमारी तो इधर आपके कारण बहुतों को लग गई है। आप उन्‍हें तुकबन्‍दी कहते हैं तो लोग सोचते है, जब काम इतना आसान है तो क्‍यों न हाथ आजमाया जाये। मैंने भी आजमा लिया। पर जो आपका सवाल है उसका जवाब है, ‘पागल ।’

”यह पागलों का समाज है, अाप यह कहना चाहते हैं?

आप क्‍या कहना चाहेंगे। है कोई दूसरी परिभाषा?”

”मैं तो आपके फैसले को मानूँगा। मान लिया पागलों और बददिमागों का समाज है। यह भी कि इसका इतिहास यही रहा है, इसलिए यह पागलपन भी बहुत पुराना है । बीमारी उग्र हो चली है। ऐसी दशा में आप क्‍या करेंगे, पत्‍थर मारेंगे या चिन्‍ता करेंगे उस व्‍याधि से उन्‍हें मुक्ति कैसे दिलाई जाए ?”

”अब यही काम रह गया, दूसरों के पागलों काे पकड़ कर अस्‍पताल पहुँचाने का। कोई ठान भी ले तो उस पर क्‍या बीतेगी इसका अनुमान है। लावारिस लाशों की अन्‍त्‍येष्ठि करने का तो एक रेकार्ड है, क्‍योंकि मुर्दे बोलते नहीं, यह तक नहीं कहते कि मैं तो हिन्‍दू था, मुझे तुम दफ्न क्‍यों कर रहे हो, या मैं तो मुसलमान था, तुम मुझे जला क्‍यों रहे हो। पर पागल तो जिसे नहीं जानना चाहिए उसे कुछ अधिक जानता है जिसे जानना चाहिए उसे जानने और मानने से इन्‍कार कर देता है। जो अपनी व्‍याधि से मुक्ति ही नहीं चाहता उसे मुक्ति कैसे दिलाएँगे आप ? जो अपने को पागल मानता ही न हो उसे तो आप मनोचिकित्‍सक के पास तक कैसं ले जाऍंगे?”

”कुछ तो करना होगा शास्‍त्री जी । इतने सारे लोगों को पागल बने रहने की छूट दे कर आप भी चैन से नहीं रह पाऍंगे?”

”नहीं रह सकते, इसीलिए तो कहते हैं इनसे सदा सदा के लिए छुट्टी मिलनी चाहिए। इनका सफाया कर देना चाहिए ।” शास्‍त्री जी जिस आवेश को अब तक नियन्त्रित किए हुए थे वह एक साथ फट कर बाहर आ गया।

मैंने अपने स्‍वर को पहले जैसा ही ठंडा रखा, ”तरीका तो ठीक है। उन्‍होंने कई बार आजमाया है, एक बार हम भी आजमा कर देख लें। पर इसमें आपकी भूमिका क्‍या होगी ? पीछे से ललकारने की या तलवार, मतलब है बन्‍दूक, बम कोई भी हथियार ले कर चलाने की ? घबराइये नहीं, मैं आपके साथ रहूँगा, कब से शुरू कर रहे हैं आप यह काम ?”

शास्‍त्री जी को पहली बार लगा कि उनसे कुछ गलती हुई है, ”मैं किसी की जान लेने की बात नहीं करता, क्रोध आता है तो …

”तो आपको लगता है आप भी पागल हो जाऍं, आप भी वैसा ही कुछ कर बैठें जैसा आपकी समझ से वे करते हैं। आप मानते हैं कि पागल को देख कर पागल होश में आ जाता है । अाप सोचते हैं जो आप को शोभा नहीं देता उसे कोई दूसरा कर दे तो आप बेदाग भी रहें और समस्‍या भी सुलझ जाए? आप इतने जरूरी और पवित्र काम का यश तक नहीं लेना चाहते।”

शास्‍त्री जी जितने मेरे तर्क से विचलित नहीं थे उतने मेरे ठंढे और अनुद्विग्‍न और अकंप स्‍वर से थे। मैंने अपने स्‍वर को बदले बिना ही कहा, ”शास्‍त्री जी, मैं पुन: आपको अपने उस कथन की याद दिलाऊँगा कि मनुष्‍य में नाभदान का कीड़ा बनने से ले कर महाकाश का ध्रुवतारा बनने के बीच की सभी संभावनाऍं मौजूद हैं। गर्हित कृत्‍य को भी गौरव का विषय बना दीजिए तो उस गर्हित काम के लिए लोगों की कतार लग जाएगी क्‍योंकि गौरवशाली बनने के बाद वह गर्हित रह ही नहीं जाएगा। गर्हित और श्रेयस्‍कर की परिभाषाऍं उलट जाऍंगी। उस कतार में ऐसे तेजस्‍वी लोग तक खड़े दिखाई देंगे जो सिर्फ नाम से ही तेजस्‍वी नहीं हैं अन्‍य कारणों से ख्‍यातिलब्‍ध हैं। महिमा की भूख आदमी को किसी सीमा तक गिरा सकती है और किसी ऊँचाई तक उठा सकती है। आप जानते हैं आप जिन कृत्‍यों से घृणा करते हैं, जिनके कारण उन्‍हें पागल और बददिमाग मान लेते हैं, वही काम करने के लिए आप स्‍वयं भी तैयार हो गए थे और सुरक्षित माहौल में आप वही कर भी सकते हैं। अर्थात् पागल होने की संभावना उनके साथ ही नहीं है, आपके साथ भी है। मैं आप से पूरी तरह सहमत हूँ कि आप जहां से बैठ कर चीजों को देख रहे हैं, उसमें स्थिति बिल्‍कुल वैसी है दीखती है और उसके बाद वैसे ही विचार आ सकते हैं। अर्थात् थोडी सी शिथिलता से हम सभी इस दुनिया को पागलों का और केवल पागलों का संसार बनाने में सहयोग कर सकते हैं, इसीलिए जरूरी है कि हम यह सोचें कि जो पागल हो चुके हैं उन्‍हें अपने को सुधारने में मदद कैसे की जाय।

”आपके पास एक ही तरीका है, उनकी मानसिकता में बदलाव लाने का। नहीं, बदलाव लाना तो आपके वश में है ही नहीं। बदलाव लाने का प्रयत्‍न करने का और इसके लिए स्वयं अपनी मानसिकता में बदलाव लाने का प्रयत्‍न करने का । क्‍योंकि अपनी मानसिकता भी चुटकी बजाते तो बदल नहीं जाती।

”जो आरोप आप दूसरों पर लगाते हैं वह आरोप कोई तीसरा , या वह सवयं आप पर लगा सकता है । हमारे समाज में बहुत सी विकृतियाँ बहुत पुराने समय से हैं । कहें पागलपन के कई रूप विविध समाजों में हजारों साल से है । परन्‍तु आप स्‍वयं पागल बन कर किसी दूसरे के पागलपन को दूर नहीं कर सकते, इतनी सीधी सी बात समझनी होगी।

”कभी फुर्सत रही तो फेस बुक पर मैं भी ताक झॉंक कर लेता हूँ । एक बात देखी है हिन्‍दुओं का एक बड़ा हिस्‍सा है जो मुसलमानों ने नफरत करता है, और जैसा कि मैं कहता आया हूँ, नफरत करने वाला न दूसरे काे समझ सकता है न अपने को। मुससलमानों में अनुपात की दृष्टि से शायद उससे भी बड़ा हिस्‍सा है जो हिन्‍दू शब्‍द से ही नफरत करता है। उनके लिए पहले हमारा प्रिय शब्‍द म्‍लेच्‍छ हुआ करता था और आपके लिए उनका काफिर । हिन्‍दू शब्‍द को भी उन्‍होंने गाली बना रखा था आैर हम उसी नफरत से मुसल्‍ला कह कर उनको एक झटके में विचार सीमा से बाहर कर देते थे। हिन्‍दू शब्‍द का वह अर्थ आज भी उनके कोशों में पाया जा सकता है। पर कोशों के अर्थ कई बार अपने अर्थ से विपरीत कहानियां कहते हैं। गोरों की असाधारण सफलता के कारण हम उनसे नफरत करते हुए जैसे फिरंगी कह कर नफरत करते थे और बहुत सारी बुराइयॉं इससे जोड़ लेते थे, ठीक वही दशा बहुत पहले से उन देशों में थी जिन पर भारतीय व्‍यापारियों ने अपना दबदबा बना रखा था। ईरान में देवों के प्रति घृणा, ग्रीस में वही आज के तुर्की में बसे भारतीयों के प्रति घृणा में बदल कर प्रकट किया जाता था। हम इतिहास की गालियों को न देख कर उनके कारणों को देखें तो बहुत से अन्‍याय मिमियाहट में बदल जाऍंगे ।

”इसलिए आज जरूरत है, उस शब्‍दकोश को बदलने का, जातीय फिक्‍स्‍ड डिपाजिट में जमा उस घृणा को बाहर लाने की है। वह जाहिर हो, पर यह बताते हुए कि यह अमुक कारण से पैदा हुई और आज उसका यह उपचार किया जाय तो दूर हो सकती है तो परस्‍पर संवाद और अापत्तियों के निराकरण की समस्‍या से भी निबटा जाय। जरूरत बौद्धिक हस्‍तक्षेप की है। कुशिक्षा की बीमारियों को सही शिक्षा से कुछ हद तक कम किया जा सकता है, कम हो जाने पर ग्रहणशीलता बढ़ेगी और अगले पाठ की भूमिका तैयार होगी।”

”डाक्‍साब, आप बहुत आशावादी हैं। खयाली दुनिया से बाहर आते ही नहीं। लिख कर देख लीजिए, वे आपका ऐसा लिखा पढ़ेंगे ही नहीं। समझा कर देख लीजिए, वे आपकी बात मानेंगे ही नहीं।”

”मैं वह भी जानता हूँ, क्‍योंकि जब आप को समझा नहीं पा रहा हूँ तो क्‍या उन्‍हें समझाना आसान हो सकता है। इसीलिए हम प्रयत्‍न करने की बात करते हैं, प्रयत्‍न करना तो हमारे वश में है न। हम केवल वही कर सकते हैं और आफलोदय कर्म के रूप में कर सकते हैं। नसीहत दूसरों से भी ले सकते हैं। वह कल बताऊँगा। आज आप समझ नहीं पाऍंगे।

Post – 2016-08-25

दुनिया का कोई भी व्‍यक्ति किसी भाषा को आधे अधूरे रूप में ही जानता है। कई बार गलत भी जानता है और इस गलत को सही मान कर सही को जानने या यदि बताया जाय तो उसे मानने को तैयार नहीं होता। इसका एक छोटा सा कारण है। दुनिया की सभी भाषाऍं अनगिनत बोलियों के और कतिपय अन्‍य भाषाओं से कुछ ले दे कर बनी हैं, जिनमें से कुछ का लोप हो गया इसलिए हम उनके शब्‍दों को किन्‍ही वस्‍तुओं और क्रियाओं से जोड़ तो लेते हैं, पर यह समझ नहीं पाते कि इसके लिए यही ध्‍वनि क्‍यों अपनाई गई, यही शब्‍द क्‍यों प्रयोग में लाया गया। यह तो बुनियादी क्षति है जिसको प्रयत्‍न किया जाय तो कुछ मामलों में सफलतापूर्वक दूर भी किया जा सकता है।

मुझे जब १९६८ में द्रविड़ भाषाऍं सीखने के क्रम में ऐसे शब्‍दों का पता चला जो मेरी बोली में थे परन्‍तु संस्‍कृत में नहीं, न ही उन्‍हें किन्‍हीं तत्‍सम शब्‍द का बिगड़ा या बदला हुआ रूप कहा जा सकता था तो पहली बार मुझ यह लगा कि ये जिस बोली के शब्‍द हैं उसे बोलने वाले उत्‍तर से दक्षिण तक विचरण करते रहे हो सकते हैं और उनके कुछ सदस्‍य बीच बीच में बस गए होंगे जिनके माध्‍यम से वे शब्‍द उन बोलियों में प्रवेश कर गए, जिनको वे स्‍वयं अपना चुके थे। मैंने भाषाओं को सीखने का काम अधुरा छोड़ कर उन स्‍थान नामों का अध्‍ययन करने का मन बनाया जिनका कोई अर्थ समझ में नहीं आता। सोचा इससे उनका अर्थ समझ में आए या नहीं, यह पता चल जाएगा कि वे किन्‍हीं चरणों पर स्‍थानीय जनों की प्रधान भाषा को अपनाने से पहले कहां कहीं पहुंचे थे। वह बहुत रोचक अध्‍ययन था और इसने मुझमें इतना आत्‍मविश्‍वास पैदा किया कि मैं अपने साक्ष्‍यों के बल पर किसी अनमेल पड़ने वाली स्‍थापना, या किसी बड़े से बड़ेे चिन्‍तक काेे खारिज कर सकता था

उदाहरण के लिए नीहार रंजन रे का बंगला भाषा पर असाधारण अधिकार था, वह जानते हैं कि बंगाली समाज अनगिनत छोटे मानव समुदायों के मिलने से बना है किसका पता लगाने के लिए नृतत्‍व, पुरातत्‍व, भाषाविज्ञान, सभी को मिल कर काम करना होगा, परन्‍तु इसके साथ ही वह संस्‍कृतीकरण से भी आक्रान्‍त हैं और उन सीमाओं से भी बँधे रह जाते हैं जिनमें पाश्‍चात्‍य अध्‍येताओं ने इतिहास और भाषाशाास्‍त्र, यहॉं तक कि पुरातत्‍व और नृतत्‍व को सतही और गलत ढंग से पेश किया था इसलिए उन्‍हें बंग की जगह वंग जातीयता दिखाई देती है:
History has kept no strict account of how many, different people’s, how many various races and how many currents of culture mingled together and how they eventually merged into one of the settlements of RaaTha, PuNDra, Vanga. And SamataTa, which have comprised Bengal from very early times. But such an account may be found in people’s physical appearance, language, culture and material Civilization.(Nih arranjan Ray, History of the Bengali People, Tr.John W. Hood, Orient Longman, 1994).

यदि समग्रता का बोध ही उलट दिया जाय तो ये सभी शाखाएं मिल कर भी किसी समस्‍या का हल नहीं तलाश सकतीें । वह बंग को वग का तद्भव मानते हैंं। उल्‍टे सिरे से समस्‍या को देखने समझने का प्रयत्‍न करते हैं।

संस्‍कृत का एक अर्थ होता है पका हुआ। यही उसके दूसरे रूपों में जैसे जुता हुआ, साफ, परिष्‍कृत आदि में भी पाया जाता है। पकवान से अनाज नहीं पैदा होता, अनाज के कुछ चरणों से गुजरने और कुछ तत्‍वों को जोड़ने मिलानेे और ताप देने के बाद पकवान तैयार होता है। इसलिए जो लोग संस्‍क़त शब्‍दों को या भाषा के दूसरे घटकों को शुद्ध और जन भाषाओं को अशुद्ध और उन्‍हीं से निकला मानते हैं वे सारे पोथे कंठस्‍थ कर लें तो भी न भाषा के विकास क्रम को समझ सकते हैं, न उस पकवान के निर्माण में प्रयुक्‍त उपादानों की भूमिका को समझ सकते हैं, न ही उन घटकों की उपलब्घि या साधित रूपों को।

एक ही पड़ोस में अंग, बंग, मगध, ओड प्रमुखता से बसे हैं और ये सभी आहारसंचयी जनजातियां हैं। वे केवल इस क्षेत्र तक सीमीत न थे। उदाहरण के लिए बंग, बांगड़, बंगलोर, बांका, वंका जिसे अंग्रेजों ने बैकाक बना दिया आदि तक फैले हैं। अंग, अंगकोरवात, अंगोला तक, ओड, औडि़हार, औध/अवध, उूटी, ऊटकमंड आदि में भी कभी पहुंचे थे। हम इस तरह भारतीय भाषाओं और जनसमाजों की रचना की एक जमीनी सूझ और सोच से गुजरते हैं जिससे किताबी ज्ञान समस्‍या से बचने की कवायद बन कर रह जाता है।

मैं यहां यह नहीं कह रहा कि संस्‍कृतज्ञ का बंग को वंग लिखना नहीं चाहिए। केवल यह कि संस्‍कृत में ब की ध्‍वनि उपलब्‍ध है इसलिए बंग को वंग करने की जरूरत न थी पर यदि किया ही तो तद्भव वंग हुआ और तत्‍सम बंग। इसके साथ हम एक्‍ दूसरे सूत्र पर पहुँचते हैं कि बंग उन जनों में से केवल एक थे जो बंगाल में बसे थे। ऐसे अनगिनत भाषाई समुदायों का उसमें निवास था जिसका बोध सभी को है भी पर जिनका नाम तक हम नहीं जानते, न जान सकते हैं, परन्‍तु बंगला की बोलियों में जिनके कुछ तत्‍व तलाशे जा सकते हैं। इस तरह रचित कुछ कुछ अन्‍तराल पर बदलने वाली व्‍यवहार भाषाओं के क्षेत्र में प्रशासनिक, साहित्यिक, धार्मिक, शैक्षिक, विविध कारणों से जिस भाषा का प्रसार हुआ उसने सब कर एक आवरण डालते हुए ऐसी समरूपता पैदा कि जिससे एक बडे क्षेत्र में संचार संभव हो सका और इसने उन लक्षणों और घटकों का निर्धारण हुआ जो पूरे बंगाल में भाषाई जातीयता का बोध पैदा कर सके ।

परन्‍तु यह भाषा इन्‍हीं आदिम बोलियों में से एक थी जो सांस्‍कृतिक और आर्थिक गतिविधियों में तेजी आने के साथ अनेक भाषाओं के प्रभाव में अपना परिवर्तन करते हुए उस मानक चरण पर पहुंची थी जिसका प्रथम साक्षात्‍कार ऋग्‍वेद में होता है और फिर उसी चरण पर उसमें घालमेल भी होने लगता है जिससे उसके मानक रूप के नमूने कुछ ही ऋचाओं में मिलते हैं और कुछ की भाषा तो बाद के संस्‍कृत से अभिन्‍न हो जाती है।

अब यहॉं आकर ऐतिहासिक और तुलनात्‍मक भाषाविज्ञान का पूरा ढांचा ही उलट जाता है और वह वैज्ञानिक सूत्र सामने आता है जो विकास के जैव नियमों को सामाजिक निर्मितियों के मामले में उलट देता है। प्राकृत विकास में एक बहु में, सरल जटिल में, बदलता है। सा‍माजिक संस्‍थाओं और निर्मितियों में बहुत सारे लोग मिल कर एक संस्‍था, समाज, देश, आदि का निर्माण करते हैं जिसमें विविधताओं और विचित्रताओं में कमी आती है, सुथरापन आता है, जटिलताओं का समाहार होता है।

अब हम पाते हैं कि स्‍वयं संस्‍कृत को भी धातु, प्रत्‍यय, उपसर्ग के सहारे नहीं समझा जा सकता, बोलियों को तो समझा ही नहीं जा सकता और इस रहस्‍य पर तो लगातार परदा डाला ही जाता रहा है कि कैसे भारोपीय की यूरोपीय शाखाओं में ‘मुंडा, द्रविड़ आदि संस्‍कृतेतर भाषाओं की शब्दावली पहुँच गई।

इस क्रम में हमें पता चलता है कि अपनी ही भाषाओं के ऐसे अनगिनत शब्‍दों को हम जानते ही नहीं जो अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म व्‍यंजनाओं को प्रकट करते है और एका एक विशाल शब्‍द भंडार है जिसका हम प्रयोग करते हैं पर अर्थ नहीं जानते और रोचक यह कि हम कोशों तक में कुछ शब्‍दों को गलत रूप में प्रस्‍तुत और गलत अर्थ के साथ पाते हैं। अब आपके लिए जरूरी है कि आप अपनी आंख और औचित्‍य पर ध्‍यान दें।

आप पाते हैं लिखा चिह्न जब कि शद्ध चिन्‍ह होना चाहिए । चिन का अर्थ किसी बोली में आग था। इसे हमने अपना लिया । चिनगारी में, चिनचिनाहट में, चिनार में यही चिन है। आग का प्रयोग प्रकाश और ज्ञान आदि के लिए । इसलिए चिह्-न नहीं, चिन्- ह सही प्रयोग हुआ। एक दूसरा शब्‍द लें कुष्‍मांड, कुष्‍मांड या कुसुमांड नहीं, कुम्‍हांड या घड़े जैसे बडा गोलाकार फल । पुत्र के साथ तोअनर्थ ही कर दिया गया और यह यास्‍क से लेकर आप्‍टे तक एक समान मिलेगा।

जब इस सिरे से देखते हैं तो संस्‍कृतीकरण का एक इतिहास सामने आता है जिसको भारतीय सन्‍दर्भ में ही समझा जा सकता है । यह समझ ही उस पूरी मान्‍यता, उसे सही सिद्ध करने के लिए रचे गए पोथों, कोशों और व्‍याकरण ग्रन्‍थों को संग्रहालय की शोभा बना देता है। विषय इतना विस्‍तृत है कि इसकी रूपरेखा भी पूरी तरह स्‍पष्‍ट न की जा सकी । उसे अधिक ग्राह्य बनाने के लिए उदाहरण तो आ ही न सकेंगे पर एक उदाहरण्‍ा दें । तर, तिर, तुर, जिनमें व्‍यंजन स्थिर है, स्‍वर उन बोलियों के कारण या उनके लालित्‍य प्रेम के कारण बदले हैं और जिनमें अनिश्‍चय को देखते हुए इसे तृ नाम की धातु में उतार दिया गया और इसकी पूर्ति के लिए हमारी वर्णमाला मे ऋ नाम के एक स्‍वर की कल्‍पना की गई जिसका उच्‍चारण कोई नहीं जानता। कुछ क्षेत्रों में रु और कुछ में रि के रूप में उच्‍चरित किया जाता है। इस कल्पित स्‍वर की आवश्‍यकता न थी।

अब इस तर/तिर/तुर/ तृ का अर्थ है पानी । एक दूसरा शब्‍द है पानी के लिए इष । पानी के लिए प्रयुक्‍त शब्‍द इच्‍छा, कामना, लालसा आदि के लिए प्रयोग में आए । तृषा का अर्थ हुआ पानी की इच्‍छा। तृ और इष/इषा का संधि रूप तृषा हो सकता है इसे व्‍याकरण से नहीं समझा जा सकता। यह तृषा उत्‍कट कामना के लिए प्रयोग हो कर त़ष्‍णा बन जाती है। और पानी की जोर दार प्‍यास त्रास, पानी पिलाओ मेरी जान जा रही है के लिए त्राहि तो फिर रक्षा के सामान्‍य अर्थ में भी प्रयुक्‍त होने लगता है। त्रस्‍त, संत्रास आदि का अर्थ अब धातु को किनारे रख कर समझने की कोशिश कीजिए तो भाषा व्‍याकरणिक अन्‍धकार में की जाने वाली टोह वाली पद्धति की तुलना में लगेगा आखों के आगे उजाला छा गया है। व्‍याकरण बोझ न रह कर एक आलोक और क्रीड़ा में बदल जाएगा।
25 अगस्‍त

Post – 2016-08-24

मेरा सबसे प्रिय शायर, खुशमिजाज, खुशरू और सादादिल। हम दोनों एक ही सन् में पैदा हुए थे। वह मुझसे पांच महीने अठारह दिन बड़ा था और पांच मंजिल बड़ा लगता था। मैं तो उस तक पहुंचने के लिए अपनी बाॅह भॉज कर बाॅंहें गॅवा चुका था फिर वह मुझसे डर कर आज से आठ साल पहले ही क्‍यों भाग लिया।
अहमद फराज की आज नवीं पुण्‍यतिथि है और यह तुकबन्‍दी उसके विदा होने के चार साल बाद की थी। मेरे लिए वह आज भी एक सेतु है। राजनीतिज्ञ बॉटने की बात करते हैं, हमारा काम ही है फटे को सीना, चिथडे को रफू करना है और दूसरा काम आता ही नहीं ! वही हमें लेखक, विचारक और क्रा‍न्‍तदर्शी बनाता है।
इसलिए इस बिगडे माहौल में भी अहमद फराज की याद में: आज अहमद फ़राज़ की नवीं पुण्‍यतिथि है:

दिल उसके पास था, मेरे भी पास हो शायद।
ज़बान वैसी मशक्क़त से खास हो शायद।
वह शख्स इतना था अपना कि दीखता ही न था
जो दीखता था वह उसका लिबास हो शायद।
फराज़ को न बताना कि उससे जलता हूं
मज़ार में भी यह सुनकर उदास हो शायद।
पता लगाओ कभी वैसा कोई था कि नही
हुआ नहीं है, यह मेरा क़यास हो शायद।
शेर कहता था बहा जाता हो दरया जैसे
जिसके पानी में आज भी उजास हो शायद।
कब्र से उठ कर भी आ जाता है अफवाह सी है
दिया जलाओ कहीं आसपास हो शायद।
टूटे जुड़ जाते हैं इल्मो कमाल से भगवान
यह संगो-खिश्त का मौजूं जवाब हो शायद ।
27. 07. 12.

Post – 2016-08-24

निदान – २९
भगवान बुरा मान जो कोई बुरा कहे
अपने लिए नहीं तो उसी के लिए सही!

‘एक बात कहूँ तो बुरा तो नहीं मानेंगे आप ?”

”बुरा लगने वाली बात कहें और बुरा न मानूँ तो आपका प्रयत्‍न बेकार हो जाएगा। यदि अपने लिए नहीं, तो आपके लिए मुझे बुरा तो मानना ही होगा।”

शास्‍त्री जी उलझन में ही थे कि मेरा मित्र जो कल श्राेता बना हुआ था, अट्टहास कर बैठा। अपनी झेंप मिटाने के लिए शास्‍त्री जी को भी हँसना पड़ा। इस दबाब में अट्टहास में मैं भी शामिल हो गया। अचानक याद आया कि अपनी ही कही बात पर, शिष्‍टाचार के नाते, नहीं हँसना चाहिए तो एक झटके में रुक गया। वे दोनों असमंजस में पड़ गयेे कि कहीं वे गलत तो नहीं हँस रहे थे। इसे आप छोटे पैमाने पर चेन रिऐक्‍शन कह सकते हैं।

अब स्थिति तो मुझे ही सँभालनी थी। मैंने अपने को संयत रखते हुए कहा, ”शास्‍त्री जी जब तक आप यह सोच कर कुछ कहना चाहेंगे कि कोई उसका बुरा मानेगा या भला, तब तक या तो आप ठकुर सुहाती कहेंगे, या ऐसे अवसर पर चुप लगा जाऍंगे जब आपका हस्‍तक्षेप जरूरी था। सत्‍यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् मा ब्रूयात् सत्‍यं अप्रियं को मार्गदर्शक सिद्धान्‍त बना कर चलने वालेे प्रियवादी तो होते हैं, सत्‍यवादी नहीं। जिन लोगों को उनका कथन प्रिय लगता है वे भी उन पर भरोसा नहीं करते इसलिए अप्रीतिकर भी हो तो भी जो सही लगे उसे कहना चाहिए यदि वह व्‍यापक हित में हो तो।”

”अप्रियस्‍य च पथ्‍यस्‍य वक्‍ता श्रोता तु दुर्लभ: ।” शास्‍त्री जी ने जड़ दिया।

”श्रोता उपस्थित है, वक्‍ता बनिए आप ।”

”डाक्‍साब, सच कहूँ तो आप पर यही अभियोग लगाने जा रहा था कि आप किसी दल से भले न जुड़े हों, सोच आपकी वामपन्थियों वाली ही है और आप भी सारा दोष हिन्‍दुओं में ही देखते हैं। जिस तरह मुसलमानों में वर्जित खाद्य के रूप में एक पशु का मांस गिना जाता है, यदि उसी तरह हमारी भावनाओं का सम्‍मान करते हुए वे गाय को भी वर्जित मान लें तो सारा बवाल ही खत्‍म हो जाय।”
”इस विषय को आगे न बढ़ाया होता तो ही अच्‍छा था। मैं जो कुछ कहना था सांकेतिक रूप में कह आया था। उससे ही आप इतने खिन्‍न हैं, यदि इससे आगे कुछ और दो टूक कहना पड़ा तो आपको क्‍लेश ही होगा, समझ कुछ न पाऍंगे। सचाई यह है कि जिसे मुसलमान वर्ज्‍य मानते हैं उसकाेे दूसरे बहुतेरे वर्ज्‍य नहीं मानते इस‍ीलिए उसका अस्तित्‍व है अन्‍यथा उस प्रजाति का सफाया हो चुका होता। जीवन के तर्क उन लोगों की समझ में नहीं आते जिन्‍हें आराम से खाने पीने को मिल जा रहा है। इसका साक्षात्‍कार अस्तित्‍व रक्षा के दारुण क्षणों में ही होती है। दुर्भिक्षों के विवरणों से यदि परिचित होंं तो पता चलेगा कि मनुष्‍य क्षुधा कातर हो कर मनुष्‍य को मार कर खा जाता था, माताऍं अपनी सन्‍तान तक को। सर्वसुविधासम्‍पन्‍नता में जीवन के रहस्‍य और दबाव को नहीं समझा जा सकता।

”यदि आपने मेरे कथन और मन्‍तव्‍य पर ध्‍यान दिया होता तो खिन्‍नता बढ़ती नहीं, कुछ वैसी ही राहत मिलती जैसे चुभा हुआ कॉंटा निकल जाने के बाद मिलती है। या किसी व्‍यक्ति के बारे में गलतफहमी दूर हो जाने के बाद मिलती है। आप यदि आगे बात भी करते तो शिकायत के स्‍वर में नहीं, इस समस्‍या को अधिक स्‍पष्‍टता से समझने के लिए और उस समझ से ही आधा उपचार हो जाता और शेष आधे के निवारण के तरीके सूझ जाते।”

”मन तो मेरा वैसा ही है, मैंने तो, एक पक्ष की ओर ध्‍यान चला गया तो, उसकी याद आपको दिला दी।” शास्‍त्री जी इस बार पहले से अधिक दृढ़ दिखाई दिए।
”मैं लंबे समय से अपनी बात कहने की भूमिका बना रहा था, या उन सचाइयों से अवगत करा रहा था जिनको जाने बिना हम भोले बने और भटके हुए रह जाते हैं। इनको एक बार दुहरा दूँ:
पहली बात कि मनुष्‍य में व्‍यक्ति और समूह दोनों ही रूपों में तुच्‍छतम से महानतम, गर्हित से ले कर श्रेष्‍ठ तक कुछ भी बनने या होने की संभावना रहती है और इसका अपवाद कोई नहीं है, भले उसे ऐसे दौर से न गुजरना पड़ा हो। परिस्थितियो, प्रलोभवों, यातनाओं, विवशताओं के वश वह एक अति से दूसरी पर पहुँच सकता है। एक उदाहरण मैं शरतचन्‍द्र के अनुभव का दूँ । जब वह आज के म्‍यॉंमार में रहते थेे तब का। एक नौजवान ब्राह्मण था, पूजा पाठ करता था, चन्‍दन तिलक लगा कर निकलता। कुछ समय बाद एक दिन वह तहबन्‍द में मिला। पता चला उसका एक मुस्लिम लडकी से प्‍यार हो गया था और उस चक्‍कर में वह मुसलमान हो गया। पूछा गोमांस खाता है, बताया गाय काटता भी है। दो आवेगों में एक की प्रबलता ने दूसरे को जड़मूल से समाप्‍त कर दिया ।

”एक दूसरी बात मैंने कही थी कि व्‍यक्ति के मानस के निर्माण में शिक्षा की प्रबल भूमिका होती है और यह शिक्षा हमें केवल अपनीी औपचारिक शिक्षा और पाठ्यपुस्‍तकों या अध्‍यापकों से ही नहीं मिलती अपितु माता-पिता, परिवेश, धर्म और संस्‍कार, मनोरंजन, व्‍यक्तिगत अनुभव, मित्रमंडली, अनगिनत माध्‍यमों से मिलती है।

”एक तीसरी बात कही था कि कोई समाज जिस अनुपात में तार्किक और विवेेकवान है उसी अनुपात में वह अपने यथार्थ का सामना कर सकता है। अन्‍यथा उसके आग्रह और उसकी भावुकता के कारण उसे उनसे मुँह चुराना या ऑंखें मूंदनाा पड़ेगा। वह अपनी समस्‍याओं का समाधान नहीं तलाश कर पाएगा।
एक चौथी बात यह कि तार्किक या बुद्धिगम्‍य विचारों की तुलना विश्‍वास और अन्‍धविश्‍वास की ताकत अधिक होती है। तार्किक व्‍यक्ति या समाज को समझाया और अपने विचारों में परिवर्तन लाने को प्रेरित किया जा सकता है, तर्कातीत भावुकता, अन्‍धविश्‍वास, आवेग उसी बुद्धि का उपयोग अपने विश्‍वास या मान्‍यता को सही सिद्ध करने में तो लगा सकता है, परन्‍तु बदलाव में लंबे समय और बहुत अधिक परिश्रम की आवश्‍यकता होती है।
”तार्किकता हमें मनुष्‍य बनाती है, तार्किकता की अति जिसमें भावना केे लिए स्‍थान न हो हमें यन्‍त्रमानव बनाती है और तार्किकता का निपट अभाव और भावुकता की प्रबलता हमें पशु बनाती है। मनुष्‍य बने रहने के लिए असाधारण संतुलन की आवश्‍यकता होती है।

”इसलिए किसी को दोष देने से पहले हमें अपनी ओर देखना होगा कि क्‍या हम जिन समस्‍याओं के प्रति अतिसंवेदनशील हैं, उनकी अतिसंवेदनशीलता के कारणों को समझने में वस्‍तुपरकता से काम लेते हैं। जब गोपालन आरंभ नहीं हुआ था, तो हमारा सबसे प्रिय पशु बकरा था। यह आज से सात हजार साल से पहले की अवस्‍था की बात है। बकरी को प्रजनन और दूध आदि के लिए बचा कर रखा जाता था, पर बकरे की उपयोगिता कोई दूसरी नहीं थी, इसलिए उसका मांसाहार प्रचलित था। खेत को चर जाने वाले शाकाहारी जानवरों का वध धार्मिक कार्य माना जाता था और उनका मांसाहार अनिवार्य था। गोपालन के बाद जब तक बछडे का उपयोग हल और वाहन के लिए नहीं किया गया, उनका मांसाहार विहित था। ऋग्‍वेद में भी गाय या मादा गाय को ही अघ्‍न्‍या कहा गया है और बन्‍ध्‍या बछिया और सांड आदि को बध्‍य माना गया है। अवेस्‍ता में भी गाय को तो उसी तरह पवित्र माना गया है, अग्‍न्‍या कहा गया है परन्‍तु सांंड़ों की बलि का उल्‍लेख है।

”जब इसके बधियाकरण की जुगत निकल आई और उन्‍हें नियन्त्रित करके उनके श्रम का उपयोग हल और गाड़ी खींचने में होने लगा तब इन पर भी प्रतिबन्‍ध लगाने का अभियान आरंभ हुआ। मोटे तौर पर कहें हमारे स्‍वार्थ संबंध ही हमारी भावुकता, प्रेम आदि के निर्धारण में कारक भूमिका निभाते हैं, इसका याज्ञवक्‍ल्‍य और मैत्रेयी के संवाद में उपनिषदों में भी वर्णन किया गया है।

“जब भी हम अपनी माता के प्रति भी श्रद्धा की बात करते हैं तो उपकार ही गिनाते हैं जो उसने हमारे लिए किए। परन्‍तु ऐसी माताऍं भी खबर बनती हैं जिन्‍होंने अपने अनुचित प्रेम के कारण अपनेे पति और संतान तक की हत्‍या कर दी। कुमाता भी हो सकती है, भले अपवाद स्‍वरूप ही और उसके प्रति हमारा वही आवेग नहीं रह सकता।

“कल तक कृषि का आधार ही गोवंश पर निर्भर था। आज दूध की आवश्‍यकता हमें गाय रखने को प्रेरित करती है, पर ट्रैक्‍टर आदि ने हल का स्‍थान ले लिया और कटाई छँटाई के आधुनिक तरीकों के कारण भूसा तक खेतों में ही उड़ा दिया जा रहा है। पशुओं के चारे की समस्‍या अधिक गंभीर हुई है। जब भावुकता पैदा करनी होती है तो गाय के गुण गाये जाते हैं, पर बछड़े की कहीं चर्चा नहीं आती। गोरक्षा सरकारी धन के लूट का एक भ्रष्‍टतन्‍त्र बन चुका है। गायपालने वालों के बछड़े उनके खूंटो पर कुछ ही दिन रहते हैं । इस बीच कोई खरीदने वाला मिल गया तो उसे यह जाने बिना भी बेच देते हैं कि वह उनका क्‍या उपयोग करेंगे। हम उनके अन्तिम गन्‍तत्‍व की कल्‍पना ही कर सकते हैं। इसलिए अपने चुनाव भाषण में एक बार मोदी ने लालक्रान्ति की बात तो की थी, पर आगे उस पर चुप रहने लगे थे, क्‍योंकि श्‍वेत क्रान्ति और रक्‍तक्रान्ति एक ही सचाई के दो सिरे हैं।

“यदि कोई सचाई है जिसको टाला नहीं जा सकता, उससे भ्रष्‍टाचार, क्रूरता और दूसरे तरह के उपद्रवों को बढ़ाया जा सकता है पर उन्‍हें नियन्त्रित नहीं किया जा सकता तो हमें उसकी अनदेखी करने की आदत डालनी चाहिए । यदि नहीं डाली गई तो आत्‍मविनाशी क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं का ऐसा दौर आरंभ हो जाता है जिसके परिणाम अनिष्‍टकर होने को बाध्‍य हैं। अपने देश और समाज से प्‍यार करने वाला कोई व्‍यक्ति उपद्रव और अराजकता को बढ़ावा नहीं दे सकता । आप अधिक अत‍िसंवेदनशील होंगे तो पूरा जीवन आन्‍तरिक उद्वेलन और बाहरी कलह में बीतेगा।

”आदिम पाप की चर्चा करने वाला उस पाप से अपने को बचा नहीं सकता । बचाए तो उसके धर्म और वंश का नाश हो जाएगा। इसलिए वह आत्‍मग्‍लानि में जीने के लिए अभिशप्‍त है, वह पापबोध अनुभव कर सकता है और सामान्‍य होते हुए पापियों का समाज खड़ा कर सकता है, पाप से मुक्‍त नहीं रह सकता।

”यहॉं भी स्थिति यही है। हमाराा परंपरागत तरीका उपेक्षा का रहा है और अधिक से अधिक अपने लिए वर्ज्‍य का सेवन करने वालोंं तक से परहेज का रहा है, परन्‍तु आज की तिथि में यह भी उचित नहीं। हॉं, खान-पान में दूरी बनाए रखने का व्‍यक्ति को अधिकार भी है और यदि इस पर रोक विधान या संविधान द्वारा लगाया जाता है तो वह प्राकृत नियम और हमारी अपनी खानपान की स्‍वतन्‍त्रता का निषेध है, जिसका पालन नहीं हो सकता।

”दुर्भाग्‍य की बात यह है कि हमारी सारी समस्‍यायें सत्‍ता के लोभ में कांग्रेस द्वारा पैदा की गईं, जातिवादी राजनीति, संप्रदायवादी राजनीति, दलितवादी राजनीति और यह प्रतिबन्‍ध जिसका विस्‍तार करते हुए इसकी परिधि में घोोड़रोज या नीलगााय तक को गाय मान लिया गया। पर यह चुनावी दाव था। न इस पर उसका विश्‍वास था, न ही इसे लागू किया और आज उसके परिणाम भुगतने पड़ रहे हैं जिसका भी लाभ वही उठाना चाहती है।

”मैं मानता हूँ मेरे कथन से आपको क्‍लेश हुआ होगा, परन्‍तु अर्थतन्‍त्र और इतिहास का दबाव ऐसा है कि आप पाखंड को और उपद्रव को बढ़ावा तो दे सकते हैं, पर इसे रोक नहीं सकते। अधिक से अधिक होगा यह कि यह आपके देश से निर्यात किया जाएगा जो आज भी बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। आप अपने लोगों को उनके खान पान के वैध अधिकार से सत्‍ता के बल पर रोक और दंडित कर सकते हैं, इसके परिणाम जिस भी अनुपात में आएंगे अनिष्‍टकर होंगे, उन अनिष्‍टों को भुगत सकते हैं, परन्‍तु इतिहास के फैसले का आप नहीं रोक सकते।”

मुझे आश्‍चर्य हुआ, शास्‍त्री जी उत्‍तजित नहीं हुए। धैर्य से सुनते रहे और जब मेरी दृष्टि उनकी ओर गई तो देखा दूर किसी लक्ष्‍यहीन दिशा में सूनी ऑखों से कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं देख रहे हैंं। और आश्‍चर्य इस बात पर हुआ कि मुझे लगा, इस सच को बयान करते, मेरी ऑंखों से ऑंसू गिर रहे थे और मुझे इसका पता तक न था।

Post – 2016-08-23

निदान ‘ 28

गो ब्राह्मण प्रतिपालन

”डाक्‍साब, हम तो आपको इतना प्‍यार करते हैं कि आपके सामने अपना दिल खोल कर रख देते हैं और आप उसी में छुरी घुसा देते हैं।”

”प्‍यार का ही प्रमाण वह छुरी भी है जो आपकी शल्‍यक्रिया के लिए जरूरी है। यदि आप अपने ट्यूमर के साथ खुश हैं, डरते हैं कि इसे छेड़ा गया तो आपको असह्य पीड़ा होगी, तो भी आप की शल्‍यक्रिया आपके हित में है! सर्जन केवल यह कर सकता है कि वह आपको किसी शामक या पीड़ाहारी, इंजेशन देकर या क्‍लोरोफार्म सुंघा कर उस अवस्‍था में पहुँचाने के बाद छुरी हाथ में उठाए। क्‍या आपको नहीं लगा कि अन्तिम टिप्‍पणी से पहले का आ्ख्‍यान पीड़ाहारी उपचार ही था ?”

” पर पीड़ा तो इसके बाद भी हुई ही।” शास्‍त्री जी के स्‍वर में आक्रोश या अनुताप का भाव नहीं था, एक अपराधबोध था जिससे वह बचना चाहते थे।

”जहॉं तक छूरी का प्रश्‍न है, उसे तो शल्‍यचिकित्‍सक भी प्‍यार नहीं करता, उसे एक बार इस्‍तेमाल करने के बाद ही किनारे फेंक देता है। जरूरत हुई तो दूसरी छुरी उठाता है। यदि निर्वेद करने के उपाय के बाद भी, यह दिखाने समझाने के बाद भी कि देखो, इसी अतिरिक्‍त भावुकता के कारण इनकी यह दशा हुई, इनकी यह दशा हुई और तुम्‍हारी भी होगी। अपनी नियति से बचो, पछतावा बना रहता है तो व्‍याधि अधिक उग्र हो चली थी ।”

”आप भी अर्थव्‍यवस्‍था को इतना महत्‍व देते हैं । सिर्फ पैसे के लिए हम ऐसे जघन्‍य कृत्‍य करें जिसकी अनुमति अन्‍तरात्‍मा नहीं देती, इससे अच्‍छा तो मर जाना है। ऐसे शरीर की रक्षा करके क्‍या होगा जो रोटी के लिए आत्‍मा को ही बेच खाए। आपको पता है कितने हजार, या लाख लोगों ने मात्र सांस्‍कृतिक प्रतीकों की रक्षा के लिए प्राण गँवाए हैं। कितने लाख क्षत्रियों ने मरने की ठान कर पर झुकने से इन्‍कार करते हुए वीरगति प्राप्‍त की है और कितनी हजार क्षत्राणियों ने आत्‍मसम्‍मान की रक्षा के लिए जीते जी जौहर का वरण किया है। यदि आप अपना ही इतिहास भूल गए तो दूसरों को इतिहास की शिक्षा कैसे देंगे और वर्तमान संकट को कैसे समझ पाऍंगे ? आप तो स्‍वयं एक बार स्‍वीकार कर चुके हैं कि हिन्‍दू एक संकटग्रस्‍त समाज है । फिर …” शास्‍त्री जी विगलित हो गए । आगे कुछ कहा नहीं गया, लगा बोलेंगे तो अपने को सँभाल नहीं पाऍंगे।

वह इतने गहन आवेग में थे कि कुछ कहता तो भी सुन न पाते । चुप रहा। कुछ देर तक अवाक् । इस बीच उन्‍होंने अपने को सँभाला, कई बार तो जी में आता है, जब मरना ही है तो कुछ को मार कर मरूँ। ऐसी नपुंसक जिन्‍दगी से क्‍या।” अब उनके स्‍वर में रोष तो था परन्‍तु पराजय बोध भी था।”

”मैं इसी का दृष्टान्‍त तो राक्षसों के इतिहास काे दुहरा कर तो दे रहा था। उनकी भावना का सम्‍मान किया जाय तो वे इतने उदार, इतने सहृदय, मेधा में इतने प्रखर और अपने कौल के इतने पक्‍के थे जिसका उदाहरण इतिहास में कम मिलेगा। एक बार वचन हार जाने के बाद, यह जानते हुए कि उनके साथ छल किया जा रहा है, उन्‍होंने अपनी अधोगति का वरण तो किया पर वचन से पीछे नहीं हटे। वलि और वामन की कथा में यही तो है। इसी का दंड तो क्षत्रियों ने भी भोगा, प्राण दे देंगे लेकिन छल छदम से जीत कर अपने शौर्य का अपमान नहीं करेंगे।

मैंने एक बार कहा था कि जिन मूल्‍यों को हम सनातन मूल्‍य कहते हैं, और जिनके कारण हम हिन्‍दु समाज को विश्‍व सभ्‍यता में अग्रणी मानते हैं, मानते हैं कि आधुनिक भौतिकवादी, अतिउपभोगवादी और संहार के ब्रह्मास्‍त्रों से लैस संसार की रक्षा उन मूल्‍यों को समस्‍त मानवता का मूल्‍य बना कर ही संभव है, वे उन्‍हीं से तो आए हुए हैं।

उनकी जो दुर्गति हुई वह भी उनकी भावुकता का ही परिणाम थी। आज वे सबसे अरक्षित हैं और वनांचलों में चले जाइए वे अपने जीवनमूल्‍यों को कूड़ेदान में फेंक कर बिकने के लिए कतार लगाए खड़े हैं। उनकी कतार आप को दिखाई नहीं देगी। केवल बिके और अनबिके का फर्क दिखाई देगा, पर जो अनबिके हैं उनके मन में ‘अपने निजत्‍च की रक्षा करूँ या बिक जाऊँ’ का जो द्वन्‍द्व चल रहा है वह आपको नहीं दिखाई देगा। इस द्वन्‍द्व के अनुपात में ही वे अदृश्‍य कतार में आगे-पीछे खड़े दिखाई देते हैं और मैं जब कहता हूँ हिन्‍दू समाज संकटग्रस्‍त समाज है तो उसमें संकट का एक पक्ष इस से भी जुड़ा है। यह दुर्गति इसलिए कि उन्‍हीं पुरातन मूल्‍यों से चिपके रह जाने के कारण उन्‍होंने न तो सही समय पर अपने आर्थिक उन्‍नयन की दिशा में कदम नहीं बढ़ाया, न ही अपनी पुरानी ऊर्जा की रक्षा कर सके, आर्थिक पिछड़ेपन के कारण अरक्षणीय हो गए। समय रहते चेता होता तो उनकी दशा में भी सुधार हुआ होता और यह दिन न देखना होता। तभी उनके उन मूल्‍यों की भी रक्षा हो सकी होती। उनकी अपनी भी।

”प्र‍कृति से अतिसंवेदी भावुकतावश वे नये चरण की ओर बढ़ने वाले अपने ही समाज के लोगों को समझने में भूल की। नयी क्रान्तिकारी शक्ति की जीवन्‍तता को समझने में चूक की। सोचा इन मुट्ठीभर अपघातियों को खत्‍म करके अपने मूल्‍यों की रक्षा कर लेंगे। पर हुआ क्‍या
? उनकी संख्‍या बढ़ती गई, संगठन शक्ति बढ़ती गई, सामरिक शक्ति बढ़ती गई और इन सभी दृष्टियों से पिछड़ते गए। अन्‍तत: उन्‍हें उनकी सेवा में भी जुटना पड़ा, वे काम भी करने पड़े जिनसे वे बचना चाहते थे, वह अहंकार और स्‍वाभिमान भी खोना पड़ा जिसके चलते वे अपनी समकक्षता में देवों को कुछ समझते ही नहीं थे और उनमें से जो इसके बाद भी अपनी सीमा में बँधे सबसे असहाय, अरक्षित और दुर्गति की अवस्‍था में जीने पर अड़े रहे, वे अपने मूल्‍य मान सहित बिक रहे हैं और ईसाइयत की आड़ में विदेशी शक्तियों के संकेत पर अपने देश तक से विद्रोह करने के लिए तत्‍पर हो सकते हैं या हैं। उन्‍हें समझाया जाता है और वे मान लेते हैं कि वे हिन्‍दू समाज के अंग नहीं हैं, जब कि हिन्‍दू उन्‍हीं की मूल्‍यव्‍यवस्‍था की रक्षा के लिए प्रयत्‍नशील रहे हैं। वे अपने तक को भूल गए । वह ऊर्जा और सृजनशीलता भी खो दी जो उनसे अलग हो कर, तन्‍त्र से जुड़ जाने के कारण, अग्रणी समाज की सेवा में लगे उनके स्‍वजनों में बची रही।

दाे
”शास्‍त्री जी, रोटी को बहुत सरलीकृत न कीजिए । यह समस्‍त भौतिक प्रगति का प्रतीक है। अध्‍यात्‍म की बातें करने वाले बिना धेला खर्च किए अपना कारोबार जमाने के लिए नैतिक, बौद्धिक और आत्मिक दृष्टि से गिर हुए जो लोग करते हैं और अपने वैभव पर गर्व करते हैं वे स्‍वयं अध्‍यात्‍म की तुच्‍छता और कामदेव की महिमा का गान करते हुए ऑंख खोलते हैं और आप जैसे भक्‍तों की ऑंखें बन्‍द करने के प्रयत्‍न में लगे रहते हैं।

”मैंने कभी इन पाखंडियों की आलोचना आप से नहीं सुनी। सुविधाएँ आपके पास भी वे सारी हैं। मैं इन्‍हें छोड़ने की बात नहीं करता। अध्‍यात्‍म का आत्‍मराग गाने से पहले सचाई को ऑख खोल कर देखने का आग्रह कर रहा हूँ। ये पाखंडी लोग आपका काम नहीं कर रहे हैं। जो काम धर्मान्‍तरण कराने वाले ईसाई कर रहे हैं वही ये भी कर रहे हैं धार्मिकता और अन्‍धविश्‍वास को उत्‍तेजित करके अपने ही समाज को पीछे ले जाने का काम। यह अपनी अग्रता को सुनिश्चित करने वाले देशों की योजना का अंग है कि शेष जन उन सवालों से जूझते रहें जिनका अारंभ और अंत भावुकता के विस्‍तार, बौद्धिकता के ह्रास और पारस्‍परिक विघटन से होना है । इस सचाई को जानते नहीं और इसकी ओर ध्‍यान दिलाया जाय तो आप भी मानने को तैयार नहीं होंगे। बचाव के लिए तर्क तलाशेंगे और आप जैसे ज्ञानी के लिए यह कोई कठिन काम न होगा फिर भी मुझे समझाने से पहले अपने को समझाने के लिए इस पर सोचिएगा।”

”मैं आपको क्‍या समझाऊँगा डाक्‍साब, परन्‍तु जिस से हमारा माता जैसा नाता है…”

” यदि कहूँ, यहॉं भी अर्थशास्‍त्र काम करता है तो क्‍या आप झेल पाऍंगे? शास्‍त्री जी ने न तो उत्‍तर दिया, न ही चुनौती की मुद्रा में मेरी ओर मुड़े ही ।

शास्‍त्री जी ने समय लिया फिर दबे स्‍वर में कहा, ”समझना तो चाहूँगा, हम तो विरोधियों के दृष्टिकोण को भी समझने का प्रयत्‍न करते हैं।”

”पहले आप यह बताऍं कि आप असुर परंपरा से अपने को जोड़ते हैं या देव या ब्राह्मण परंपरा से ?”

”मैं यहॉं इस प्रश्‍न का औचित्‍य नहीं समझ पाया ।”

”खैर, मेरा प्रश्‍न भी बहुत सही नहीं था, क्‍योंकि हमारे समाज का पिछड़ा वर्ग असुर परंपरा तक सीमित रहा है, देव परंपरा के विधान उस पर आरोपित रहे हैं जिनको वह मानता नहीं था, परन्‍तु पालन करने को विवश था। परन्‍तु वन्‍य समाज उससे अनजान तक बना रहा। जिसे हम ब्राह्मणवाद कहते हैं वह मिश्र परंपरा है । इसलिए आप तो दोनों परंपराओं के संवाहक हैं।”

शास्‍त्री जी की समझ में फिर भी नहीं आया कि मैं इस बहस में पड़ा ही क्‍यों। वह बिना कुछ बोले विस्मित भाव से मुझे देख रहे थे ।

”सामाजिक न्‍याय की परंपरा असुर परंपरा है। यह मेलमिलाप बहुत पहले आरंभ हो गया था, इसलिए ऋग्‍वेद में अग्निधान की परंपरा, यज्ञ की परंपरा, इन्‍द्र और विष्‍णु का महत्‍व देव परंपरा से आया है और जिनको अदेवयून कह कर निन्‍दा की गई है और जो अग्नि को उसके औद्यो‍गिक उपयोग के कारण महत्‍व देते थे वे असुर परंपरा में आते है। बहुत पहले, कई हजार साल पहले, कृषि का श्रमभार भी असुरों पर आ पड़ा था। इसलिए जब गोपालन आरंभ हुआ, और गाय के दूध आदि का उपयोग आरंभ हुआ तो गाय को अघ्‍न्‍या कहने वाले, माता मानने वाले ये असुर पृष्‍ठभूमि के लोग थे, जो तब भी गणव्‍यवस्‍था में जीते थे। इसलिए ऋग्‍वेद के आठवें मंडल से सूक्‍त 101 में पन्‍द्रहवां सूक्‍त है जिसमें गाय को अदिति कहा गया है उसमें उसके साथ माता, पुत्री, भगिनी का संबंध जोड़ने वाले, तीनों गणसमाज के प्रतिनिधि हैं जो अब वैदिक देवों में समाहित हो चुके हैं पर अलगाव समाप्‍त नहीं हुआ है। ये ही प्रकृति की शक्तियों और तत्‍वों को मातृवत या पितृवत मानते थे। इनको सोमयाजी परंपरा का मान सकते हैं, वरुण और महेन्‍द्र के उपासकों की परंपरा। पूजा की परंपरा, ध्‍यान की परंपरा, योग की परंपरा आदि के जनक ये ही हैं।

‘देवों का उन्‍हीं प्राकृतिक तत्‍वों से बहुत भिन्‍न संबंध था। असुर प्रकृति में स्‍वत: उपलब्‍ध स्रोतों पर निर्भर होने के कारण उन्‍हें अपना पालक मानते थे। देव उनसे आगे बढ़ कर उत्‍पादन अपने हाथ में ले चुके थे। वे उन ओषधियों और वनस्‍पतियों को पैदा कर सकते थे, सींच कर बड़ा कर सकते थे, पेड़ लगा सकते थे इसलिए बिना अधिक दुविधा के काट भी सकते थे। पेड़ उनके लिए देव नहीं थे, पर असुरों के लिए देवस्‍थान थे। मूर्तिपूजा इस आसुरी पृष्‍ठभूमि से आई, मन्दिर की भी कल्‍पना इनकी ही रही हो सकती है। अध्‍यात्‍म चिन्‍तन, उपनिषद, बाद के संन्‍त आदि आंदोलन इसी परंपरा में आते हैं।”

”बात फैलती तो जा रही है, पर समझ में नहीं रही है।” शास्‍त्री जी ने टोका।

”मैं कहना यह चाहता था कि जब तक आपका असुर मूल्‍यों से समन्‍वय नहीं हुआ था तब तक और उसी के प्रभाव से बाद में भी ब्राह्मणों की दृष्टि यह थी कि जिसे हम उगा सकते हैं, पाल सकते हैं, पैदा कर सकते हैं, वह हमारा पालित है और हम उसको काट, उबाल, भून पका कर खा सकते हैं। यह पाकशास्‍त्री परंपरा भी आपकी ही है। उनकी नजर में वन‍स्‍पतियॉं मॉं हैं, देवों की परंपरा में वे पत्नियॉं हैं, यह तो जानते ही हैं आप। आसुरी परंपरा में नदियॉं माताऍं हैं, देवियॉं है, देव परंपरा की छाया के प्रभाव से शान्‍तनु गंगा नदी से विवाह कर सकता है सन्‍तान उत्‍पन्‍न कर सकता है।”

”बौद्धमत की प्रतिक्रिया में अहिंसा को अपना मूल्‍य बना कर जैसे ब्राह्मणों ने इसे चरम पर पहुँचा दिया और लहसन प्‍याल तक अखाद्य हो गए उसी तरह गाय के मामले में उस पुराने मातृभाव का पुन: आविष्‍कार करते हुए गाय से भावुकता को अति पर पहुँचा दिया गया और अब राजा का कर्तव्‍य गोब्राह्मण प्रतिपालन बना दिया गया। दोनों में साम्‍य स्‍थापित कर दिया गया। यदि गाय पशु हो कर भी गोवंश में उत्‍पन्‍न होने के कारण पवित्र है तो ब्राह्मण निरक्षर हो कर भी पूज्य हुआ और साक्षर और विद्वान और साधना में असाधारण शूद्र से, और सच कहिए तो किसी भी ब्राह्मणेतर से श्रेष्‍ठ रहेगा ही। इस गो ब्राह्मण के समीकरण ने गाय के प्रति हमारी संवेदना को अतिसंवेदी बना दिया। गोहत्‍या, ब्रह्महत्‍या का पर्याय बन गया। यदि एक को सहन किया जा सकता है तो दूसरे की भी नौबत आ सकती है। अब आप चाहें तो इसके पीछे के अर्थशास्‍त्र और समाजशास्‍त्र को समझ सकते हैं। गो, मैं यह अपनी समझ से कह रहा हूँ कोई दूसरा इसे गलत भी सिद्ध कर सकता है और तब उसकी बात पर ध्‍यान दूँगा।”

Post – 2016-08-23

हँसते हो तो लगता है कि तुम खुश हो, मगर।
क्‍यों हँस कर दिखाते हो आज खुश हो अगर।
उल्लास की भाषा तो लहू बोलता है
अपनी शिरा से उप शिरा से, खुश हो अगर।
हम भी तो सुनें इश्‍क की बर्वादियों को
जिनकी दहक से लगता है तुम खुश हो मगर।
है अन्‍त, न है आदि, न है बीच में कुछ
भगवान बन दिखाओ कभी, खुश हो अगर ।।

Post – 2016-08-22

निदान – 27
पुराने राक्षस : नये राक्षस

”सभ्‍यता के मार्ग में बाधा डालने वाले आरंभ से ही रहे हैं। सबसे बड़ी चुनौती नैतिक और भावनात्‍मक दृष्टिकोण के कारण रही है। अवरोध डालने वालों ने प्रगति को रोकने के लिए ऐसे उपद्रव किए जिनकी तुलना मानव संहार के आज के नमूनों से की जा सकती है तो प्रगति के लिए कृतसंकल्‍प लोगों ने भारी बलिदान देते हुए भी अपने व्रत से मुड़ने का नाम नहीं लिया । उनके त्‍याग और बलिदान की कथा को उस मिथकीय भाषा में ही लिखा जा सकता था जिसमें राक्षसों द्वारा बहाए गए ब्राह्मणों के रक्‍त से भरे घट से ही सीता (कृषिदेवी, हराई, कृषिभू‍मि) का जन्‍म होता है।”

”ब्राह्मणों के रक्‍त से क्‍यों ? ब्राह्मण तो किसी से लड़ता ही नहीं था, लड़ने वाले तो क्षत्रिय रहे हैं।”

”यह लड़ाई बाद के कामचोर ब्राह्मणों की नहीं, कृषि कर्म में पहल करने वाले समुदाय के साथ थी जो अपने को देव और ब्राह्ण कहते थे, या संभवत: इसमें दो भाषाई समुदायों के लोगों ने पहल की थी। इनमें से एक आग के लिए ती/दी का प्रयोग करता था दूसरा बर/भर का जिनसे देव और ब्रह्म का विकास हुआ और इनका भी अर्थ जलाने वाला, और अर्थविकास प्रकाशित करने वाला, प्रकाशित रहने वाला, और ज्ञानी आदि में हुआ। अग्निसाधक या आग का हथियार के रूप में प्रयोग करने वाले समुदा का तीन वर्णों में विभाजन हुआ – तिस्र प्रजा आर्या ज्‍योतिरग्रा -और चौथे की सेवाओं का इसने उपयोग किया। यह पहले भी कह आया हूँ।”

”अौर यही हजारों लोगों का समुदाय, सहस्राक्ष और सहस्रपाद समुदाय धरती पर छा गया और इसी ने आत्‍मविभाजन करके वर्णव्‍यवस्‍था का आरंभ किया जिसने पहले कृषि का विरोध करने वालों की दक्षताओं का अपने लिए उपयोग किया ?”

”संभव है, वास्‍तविकता यही रही हो, पर पुरुष सूक्‍त तक आकर स्‍वयं सूक्‍त के रचनाकार को भी ठीक इसी रूप में इसका बोध रहा हो, यह दावे के साथ कह नहीं सकता।

”कृषि कर्म की ओर बढ़ने वाले लोगों ने जिस चरण पर अधिक बड़े क्षेत्र में खेती करने के लिए झाड़ झंखाड़ जला कर भूमि की सफाई के आयोजन किए उस पर उनका सबसे कठोर विरोध असुरों या राक्षसों से हुआ। असुर का अर्थ है अनुत्‍पादक। यज्ञ का मूल अर्थ है उत्‍पादन यह कह आया हूँ – अतिमानेन ते वै असुरा ‘किं नु वयं जुहुवा‍म् इति स्‍व स्‍व आस्‍ये जुह्वतश्‍चेरु: ।’ फूल, फल, कन्‍द, साग जो भी पेट भरने को मिला उसे छक कर खाया और मस्‍ती में जुट गए ।

” इसके विपरीत, उनके आतंक से डरे, अपने प्राणों की खैर मनाने वाले खेती करने वाले देवों की आफत – जोतना, बोना, सींचना, रखवाली करना, तैयार अनाज को संभाल कर पूरे साल के लिए कंजूसी से खाना और अगले साल के बीजों के लिए घुनने सड़ने से बचा कर रखना और खेती के चक्‍कर में धूप, ताप, शीत, बरसात में खटना या तप और श्रम करना ।

”जैसे खेती का प्रतीकात्‍मक रूप कर्मकांडी यज्ञ हो गया, यज्ञ ही सबसे श्रेष्‍ठ कम बन गया – यज्ञो वै श्रेष्‍ठतमं कम – उसी तरह खेती का श्रम, तप, और संकल्‍प या व्रत कार्यविरत ऐयाशों की साधना और पाखंड में परिवर्तित हुुआ।

”राक्षस असुरो का ही दूसरा पर्याय हुआ। यह प्राकृतिक साधनों की रक्षा के संकल्‍प से जुड़ा था । हम यह पहले भी याद दिला चुके हैं कि ये आज के पर्यावरणवादियों में आदिम रूप हैं, परन्‍तु इसके लिए उन्‍होंने खेती की ओर अग्रसर देवों या ब्राह्मणों को मिटा देने का, उन्‍हें भगाने के लिए जितने अत्‍याचार किए उनके कारण रक्षा वाला पक्ष तो ओझल हो गया, क्रूरता, अत्‍याचार, उपद्रव उनकी पहचान से जुड़ गया। हम इसके ब्‍यौरे में नहीं जाऍंगे।”

”‍फिर इसकी चर्चा से क्‍या लाभ ?”

“यहॉं इसे दुहराने की आवश्‍यकता इसलिए हुई कि मुख्‍यत: प्रकृति में उपलब्‍ध खाद्य पदार्थो पर निर्भर रहने के कारण औजारों के विकास, मछियारी, नौचालन, जलप्रवाह के नियन्‍त्रण आदि में असुरो का योगदान असाधारण था। इसलिए यह भी न सोचा जाय कि खेती का विरोध करने वालों ने सभ्‍यता के विकास में कोई योगदान नहीं किया। हुआ मात्र यह कि तात्‍कालिकता के दबाव में न तो ये किसी लंबी और समय-साध्‍य योजना बनाने को इच्‍छुक थे न कोई अन्‍य पहल जो किसानी करने वालों में थी। इनकी दक्षता का उपयोग इनके भोजन का प्रबन्‍ध करके किसानों ने करना आरंभ किया। इनकी प्रतिभा के बिना सभ्‍यता का विकास संभव न था। मजेदार बात यह कि सभ्‍यता का दबाव इसके विरोधियों का भी उपयोग कर लेता है, पर निर्णय अपने हाथ में रखता है ।

”विचित्र न्‍याय या मूढ़ता है। जिस भूमि को किसी ने कृृषियोग्‍य बनाया उसका उस पर शाश्‍वत अधिकार । अब आप स्‍वयं अपने मनोबन्‍धों के कारण उन्‍हीं तरीकों को अपना कर भूमि की सफाई करके स्‍वत: उत्‍पादक नहीं बन सकते परन्‍तु रोटी के लोभ में उनकी अपेक्षाओं के अनुसार अपनी सेवायें उन्‍हें देने को तैयार हैं। यहां तक कि खेती का श्रम भी भूस्‍वामित्‍व के बल पर इन राक्षसों या वन्‍यसंपदा की रक्षा करने वालों की सन्‍तानों के सिर आ गया और भूमि का स्‍वामी वह वर्ग बना रहा जिसका आत्‍मविभाजन सुविधा के लिए तीन में हुआ, जिसका केवल एक ही आगे अपने को ब्राह़्मण कहता रहा। उनकी स्‍वतन्‍त्र दक्षताओं का भी उन्‍हें अपना सेवक बनाए बिना भी यही करता रहा।

”इनक सहयोग से नौवहन, पशुपालन आदि में भी प्रगति हुई और खेती को उन्‍नत बनाने में भी क्‍योंकि पशु श्रम का उपयोग किए बिना हल, गाड़ी आदि विकास और प्रयोग संभव न था। जंगली पशुओं को पकड़ने, साधने में इन असुरों की इतनी सिद्धि रही है कि वे आज भी सॉंप, रीछ, बन्‍दर आदि को पकड़, पाल और प्रशिक्षित करके असंभव को संभव कर सकते हैं। हाथी जैसे जानवर को पकड़ कर पाल‍‍तू बनाना और उसका उपयोग हाथी को पकड़ने में करना और वह अपने लिए नहीं, इसके बदले मिलने वाले आहार के लिए। ऋग्‍वेद में पिजड़े में बन्‍द सिंह का हवाला है, दुर्गा को सिंह की सवारी करते दिखाया ही जाता है। यदि नरबलि और पशुबलि करने वाली यह देवी सिंह के मांसाहार की जरूरत पूरी कर सकती थी तो वह उसे अपनी पीठ पर भी सवारी करा सकता था। सामान्‍य नागरिकों से लिए यह मँहगा सौदा था इसलिए त्‍याग दिया गया। पर सुनते हैं अफगानिस्‍तान में शेर और कुत्‍ते के क्रास से बहुत भयानक पर आज्ञाकारी कुत्‍ते विकसित किए गए थे।

”मैं यह याद दिलाना चाहता था कि जंगल जला कर सफाई करने के घृणित काम को छोड़ कर पशुपालन, पशु के पेशीय बल के उपयोग, उसे काबू में रखने के लिए नाथने, बॉंधने की युक्तियॉं निकालने, उनकी चंडता को कम करने के लिए उनका बधियाकरण आदि करने के सारे उपाय उनके द्वारा होते रहे, या हम कहें अन्‍न उत्‍पादन के स्रोतो और साधनों का विस्‍तार करके, मात्र एक मनोबन्‍ध सें कि हम उन मातृतुल्‍य वनस्‍पतियों को जलाने का अपराध नहीं करेंगे वे सेवक बने रहे और इस मनोबन्‍ध को तोड़ आगे बढ़ने के कारण किसानी करने वालों ने उनको भी अपनी सेवा में उन्‍हीं पालतू जानवरों की तरह लगा लिया जो हाथी, शेर, सांप और रीछ जैसे जानवरों को ही नहीं गगनचारी पक्षियों तक को पालतू बना सकते थे।
यह थी वह प्रक्रिया जिससे समस्‍त योग्‍यताओं से लैस होने के बाद भी कृषि भूमि का उद्धार अौर संस्‍कार न करने के कारण विविध शिल्‍पों में दक्ष लोग किसानी करने वालों के इशारे पर काम करने को बाध्‍य रहे।”

”यह तुम्‍हारी अपनी कल्‍पना तो नहीं ?”

”जो इस तर्क को नहीं समझते वे अनाड़ी कई सौ साल उपनिवेशवादियों के जाल में ‘आर्य आए, स्‍थानीय लोगों को अपना गुलाम बनाया, शूद्र की कोटि में डाल दिया ।’ का जाप करते रहे। समाज रचना इस तरह प्रभावित होती तो अब तक तथाकथित ऊँची जातियों के सभी लोग शूद्र बन चुके होते । दसियों बार तो इस देश को आंशिक या व्‍यापक पराधीनता स्‍वीकार करनी पड़ी । मूर्खता ही हद यह कि किसी ने यह भी नहीं सोचा कि ये आक्रमण करने वाले आर्य जानवर चराते थे, जानवर चराने वालों को किसी को गुलाम बनाने की क्‍या जरूरत। ऊटपटांग बातें समझदार लोग तक अपने बौद्धिक आलस्‍य के कारण पीढ़ी दर पीढ़ी मानते चले जा सकते हैं, यह हमारी बौद्धिक गुलामी का परिणाम और प्रमाण दोनो है। यदि आप यह नहीं समझ सकते कि किसी समस्‍या की या व्‍यवस्‍था की जड़ें कहॉं तक जाती हैं तो आप सामाजिक न्‍याय के नाम पर हुड़दंग मचाते हुए समाज को क्षुब्‍ध तो कर सकते हैं, उस समस्‍या का समाधान नहीं कर सकते । समस्‍या पहल के अभाव की थी और पहल के अभाव को आज भी बढ़ाया जा रहा है कि सरकार या समाज सब कुछ कर दे तो हम निश्चिन्‍त आगे बढ़ सके । बढ़ सकें भी नहीं, वही हमें खींच कर आगे बढ़ाए ।

”खैर, हम कह रहे थे कि अब सभ्‍यता के दो पक्ष हो गए। एक पहल, संपदा पर अधिकार और उसके विस्‍तार का । और दूसरा प्रौद्योगिकी, आविष्‍कार, दर्शन, साहित्‍य कला आदि का जिसमें जाति निरपेक्ष रूप में सभी को संपत्ति के स्रोतों पर अधिकार करने वालों के द्वारा इस्‍तेमाल किया जाता रहा है। इस्‍तेमाल होने वालों को अपनी विशेषज्ञता में इतना आनन्‍द आता रहा कि उनकी मुख्‍य चिन्‍ता अपनी विशेषज्ञता के क्षेत्र में कमाल करने की रही। इसमें हम भी आते हैं। इस माने में ब्राह्मण की स्थिति शूद्र से भिन्‍न नहीं थी, जो ज्ञानसाधना में इतना मग्‍न रहा कि उसके बाद किसी तरह पेट भरने का प्रबन्‍ध हो जाय तो वह परम भाव से डकार लेता और आशीर्वाद देता, जब तब जयकारा लगाता हुआ विदा हो जाएगा।

”लेकिन आज मैंने इस प्रसंग को एक अन्‍य कारण से भी छेड़ दिया। यदि प्रकृति के किसी उपादान या प्राणी के प्रति आप की भावुकता इतनी प्रबल हो जाय कि उसे बचाने के लिए आप मनुष्‍यों का संहार कर सकते या उनको यातना दे सकते हैं तो आप उसकी रक्षा करने का अभिनय तो कर सकते हैं, रक्षा नहीं कर सकते क्‍योंकि उसका अर्थतन्‍त्र होता है। उसके अभाव में आप अपनी भी रक्षा नहीं कर सकते। हॉं आप बस यह नहीं जानते कि आज के राक्षस आप हैं। चाहे गोरक्षा के नाम पर ही हो, मनुष्‍य का उत्‍पीड़न और संहार उस भावाकुलता का परिणाम है जो प्रगति विरोधी है, आपकी आदिम प्रवृत्ति से जुड़ा और आदिम सोच का नतीजा है और उस पूरे समाज के जो इस व्‍याधि से ग्रस्‍त है, बौद्धिक ही नहीं, नैतिक गिरावट का प्रमाण है।”

उसने हाथ बढ़ा कर मेरा मुँह बन्‍द कर दिया, ”चुप रह यार, देख उधर से शास्‍त्री जी आ रहे हैं। तेरी सामत आ जाएगी ।”

Post – 2016-08-22

हम उन्‍हें देख न पाए हैं मगर देखेंगे
पहले चिलमन वह उठाऍं तो उन्‍हें देखेंगे
सात परदों में उन्हें देखा है हर बार मगर
सिर्फ पर्दा वह नजर आए, जिन्‍हें देखेंगे ।

Post – 2016-08-21

शिकायत तुमको भी मुझको भी थी इस जिन्‍दगी से पर
तुम्‍हें ही कल तलक कहता था ‘मेरी जिन्‍दगी’ जानां ।
न मैं कुछ सोच सकता हूँ न तुम कुछ जान सकती हो
जमाने से जिसे हम मानते हैं तुमने भी माना ।

Post – 2016-08-21

इसका दूसरा भाग अभी पूरा किया है, जो लोग पहला भाग पढ़ चुके हों वे इसका दूसरा भाग ही पढ़ सकते हैे।
निदान – 26
एक
”तुम भले कहो कि तुम विश्‍व सभ्‍यता को विश्‍वमानवता की साझी विरासत मानते हो, परन्‍तु एक तो यह बात कुछ अतिरंजित लगती है और दूसरे तुम्‍हारे अपने मित्र भी इसका सीमित अर्थ ही लेते हैं कि भारत सबसे अच्‍छा देश, हिन्‍दू सभ्‍यता सबसे उन्‍नत सभ्‍यता और ….”
”सभी मनुष्‍यों में वे सबसे अच्‍छे ।” मैंने हँसते हुए उसका वाक्‍य पूरा किया।
“हाँ, यह भी कह लो !”
“यह हमारा राष्ट्रीय चरित्र है. जब तुम अपने को सबसे अधिक धर्म निरपेक्ष सिद्ध करने के लिए वाहियात आरोप गढ़ते हुए अपने को सिर्फ इसी आधार पर दूसरों से अधिक अच्छा सिद्ध करना चाहते हो तब तुम भी यही कर रहे होते हो. यह हमारी सांस्‍कृतिक अन्तःसलिला का प्रवाह है जिसे हम जब लक्ष्य नहीं करते या दबाने का प्रयत्न करते हैं तब भी प्रवाहमान रहती है. यह तुम भारतीय मुसलमानों और ईसाइयों में भी पाओगे. उनमें भी जो घोषित रूप में हिन्दुत्व का विरोध या इसकी निंदा करते हैं. सिर्फ शक्ल का अंतर नहीं, मिजाज का यह अंतर भी उन्हें दूसरे देशों के मुसलामानों और ईसाइयों से अलग करता है भले वे इस विषय में सचेत न हों. इसलिए वे यदि हिन्‍दुओं को विश्व सभ्यता का जनक मान बैठें तो उनके इस भरम का मैं बुरा नही मानूँगा. हाँ उनकी समझ पर भरोसा नहीं करूँगा.”
“सच तो यह है कि वे तुम्हारी समझ पर भरोसा नहीं करते. वे इसको कन्सीव ही नही कर पाते.”
“जब मेरे इतने निकट होकर तुम नहीं कर पाते हो तो उनसे शिकायत क्यों करूँ ? मैं इसका कारण जानता हूँ, तुम्हे शायद पता न हो. कन्सीव करने के लिए यूँ भी जैसे शारीरिक विकास का एक स्तर अपेक्षित होता है, उसी तरह वैचारिक विकास का एक स्तर अपेक्षित होता है. उसके अभाव में पूरी बात ग्रहण नहीं हो पाती. फिर जानकारी का एक दायरा जरूरी होता है. उसमे पहले से कुछ उहापोह की ज़रूरत होती है. परंतु सबसे अधिक ज़रूरी होता है उस मान्यता के निकट पड़ने वाली कुछ आधी अधूरी ही सही, बातों को किसी न किसी सन्दर्भ में पढ़ा या सुना होना. यदि बात इतनी नई हो और अतीत में इतने पीछे खींच ले जाती हो जहां तक पहले के धुरीण विद्वानों में भी कोई न पहुँचा हो तो वह कितनी भी प्रामाणिक क्यों न हो, हमें लाजवाब करने के बाद भी, बिलकुल सच प्रतीत होते हुए भी, अपेक्षा से बहुत आगे चले जाने के बाद जादू के खेल जैसा लगेगी जिसे हम प्रत्यक्ष देखते हुए भी विश्वास नहीं कर पाते. और ऊपर से यह प्रस्ताव यदि किसी ऐसे व्यक्ति की और से आ रहा हो जिसके विरुद्ध एक छिपा दबा अभियान लंबे समय से चलता आया हो तो उसके किसी विचित्र प्रस्ताव को तो यह कह कर ही ख़ारिज किया जा सकता है कि भी इनको तो चौंकाने वाली बातें करने की आदत है. अब तुम सुन भी रहे हो, बात समझ में भी आरही है, पर इस एक लटके के साथ तुम्हारी ही बुद्धि पर पत्थर पड़ जाएगा जैसे तुम्हारी बुद्धि पर पड़ा हुआ है.
परन्‍तु सभ्‍यता अपने सभी चरणों पर वैश्विक ही रही है, इसमें किसी का शोषण और उसकी संपदा की लूट का योगदान हो, दूसरे के लोभ का, तीसरे के कौशल का, चौथे के हाथ और पॉंचवे की पीठ का, एक के कारखाने और दूसरे के कच्‍चे माल और बाजार का । ये भूमिकाएं जीवट, पहल और जागृति के अनुसार बदलती रहती हैं। देखना यह होता है कि हम पिस रहे हैं या पीस रहे है और हमें अपने को बचाना या अपनी भूमिका बदल कर रंगमंच पर नये तेवर से उपस्थित होना है।
दो
यदि सभ्‍यता के निर्माण और विकास में समस्‍त मानवता का योगदान रहा है और आज के नितान्‍त पिछड़े समाजों ने भी किसी न किसी चरण पर अग्रणी भूमिका का निर्वाह किया है तो वहीं कोई ऐसा चरण न रहा जब इसके शत्रु और विनाश के लिए तत्‍पर लोग न रहे हों। आत्‍मगौरव जरूरी है, परन्‍तु आत्‍मगौरव वश यह सोच लेना कि हम सबसे अग्रणी रहे हैं, इसलिए दूसरे हमसे ग्रहण करें, हम किसी से कुछ न लेंगे। पिछड़े समाजों के पिछड़ेपन का कारण उनका बुद्धि और कौशल के माने में दूसरों से कम रह जाना नहीं, अहंकार वश उस चरण के बाद भी दूसरों से सीखने में अपनी हेठी अनुभव करना रहा है। हमें पिर‍ामिडों के कौशल और वास्‍तुशिल्‍प पर उस काल की सीमा का ध्‍यान रखते हुए आश्‍चर्य होता है परन्‍तु उससे कम आश्‍चर्यजनक सन्‍तुलन का वह बोध नहीं है जिसे हम एक पर एक बिना किसी गारे मसाले के रखे अनगढ़ शिलाखंडों की चिति नहीं है जो आंधियों तूझानों को झेलती अपने सन्‍तुलन के बल पर टिकी रहती है। इन दोनों के बीच एक संबंध है और क्रूर सचाई भी है। संबंध यह कि नगर निर्माण, पुल निर्माण, पथ निर्माण, दिशा बोध, प्राथमिक खगोलविद्या सभी के सूत्र इन जनों से जुडे़ हुए हैं । अपनी कला और ज्ञान और इसमें असाधारण निपुणता के प्रति इनका समर्पण भाव इतना गहन था कि किसी तरह पेट भरने का प्रबन्‍ध हो जाय तो ये अपना सारा समय अपनी कला में ही लगा देंगे। इसके चलते इनका शोषण भी हुआ और यदा कदा दमन भी।
” इनकी छाप भारत के मेगालिथ, चीन के मेगालिथ, फ्रांस, स्‍काटलैंड, बुल्‍गारिया और मिश्र तक ही नहीं माया सम्‍यता में भी पाई जाती है और इनके योगदान की सही समझ न होेने के कारण विद्वानों ने भी मूर्खतापूर्ण अटकलें लगा रखी हैं। मूलत: जिस भी क्षेत्र में इस कला और वस्‍तुदृष्टि का विकास हुआ इनका बिखराव मेरी समझ से हिमयुगीन आपदा के कारण हुआ, दोनों गोलार्धों में।
”ये विज्ञान के जनक हैं परन्‍तु इसके बाद अपने अभिमान में ये अपने आत्‍मराग के कारण न समय के साथ चल सके, न अपनी पुरानी योग्‍यता की रक्षा कर सके और तक्षकों के रूप में इन्‍होंने कुशल श्रमिक बन कर वास्‍तुकला, मूर्तिकला, और सिविल इंजीनियरी आदि का विकास किया परन्‍तु धन के स्रोतो पर अधिकार करने वाले चतुर लोगों के सेवक बन कर रह गए। इनकी पाषाणी कला से अनाज नहीं पैदा होता था और अनाज पैदा करने वाले दूसरे कलाकारों को रोटी के मोल खरीदते और नचाते रहे। इसी तरह का पागलपन उन जनों में था तो प्रकृति की कृपा से कम समय में ही अपना पेट भरने का प्रबन्‍ध कर लेते थे, इसलिए खाली समय नाचने गाने में लगाते थे। इन्‍होंने क‍विता, नृत्‍य, अभिनय, संगीत में असाधारण प्रगति की परन्‍तु प्रकृति प्रदत्‍त आहार से उनकी अपनी आवश्‍यकताऍं पूरी हो जाती थीं इसलिए कृषिकर्म की ओर कृषिकर्मियों के उकसाने के बाद भी ध्‍यान न दे सके और बाद में जब रोटी की पोषकता और स्‍वाद का पता चला तो रोटी पैदा करने वालों के हाथ के खिलौना बन गए। जानते हो किन्‍नरों, यक्षों, गन्‍धर्वों का संबन्‍ध नृत्‍य, अभिनय और संगीत से तो है ही, इनका क्षेत्र पर्वतीय क्‍यों है ?”
वह चें बोल गया, ”मुझसे ऐसे सवाल क्‍यों करते हो ? मैं हिन्‍दी का अध्‍यापक रहा हूँ कल्‍चरल ऐंथ्रापोलोजी का नहीं ।”
”इसलिए कि पर्वतीय बनों को ठेकेदारों द्वारा नष्‍ट करने और निर्माण कार्यों के उपयुक्‍त पेड़ों को लगा कर जिस तरह के जंगल पहाड़ों पर अब बचे रह गए है, पहले वैसी स्थिति नहीं थी। अपार विविधता थी।
ऋग्‍वेद का एक पद है, गिरिर्न भुज्‍यु, उपमा में कहा गया है कि पर्वतीय क्षेत्रों की तरह भोज्‍य पदार्थों से भरपूर । वहीं ऐसी रंगबाजी संभव थी जिससे रंगमंच का जन्‍म हो सके, नाटक का विकास हो सके। देखो तो, इनमें से किसी का श्रेय खेती करने वालों को नहीं जाता, परन्‍तु उत्‍पादन के महत्‍व को समझने वालों ने संपत्ति के स्रोतों पर अधिकार करके दूसरों का नचाया कहते हुए झिझक होती है, क्‍योंकि वे तो दूसरों को भी कह रहे थे, आहार संग्रह छोड़ कर खेती पर आओ, इसमें अधिक लाभ है, यह अधिक पौष्टिक आहार सुलभ कराता है। उनको अपना जनबल बढ़ाने की इतनी चिन्‍ता थी कि अधिक से अधिक संतान पैदा करना एक पुण्‍य का काम था और कोई भी पुण्‍य का काम करना सन्‍तान प्राप्ति के समान था।”
”तुम कहना क्‍या चाहते हो?”
”कहना यह चाहता हूँ कि तुम मूर्ख हो पर कह नहीं सकता। पूरी बात सुनते तो। चलो, जब छेंड़ ही दिया तो कहूँ कि एक समय में हम भी माइनारिटी सिंड्रोम से ग्रस्‍त थे, परन्‍तु हमारी यह मनोग्रस्‍तता समाज को आगे ले जाने के अभियान से जुड़ी थी, आर्थिक उन्‍नयन से जुड़ी थी और जो जुड़ न पाए वे अपने असाधारण कौशल और संवेदना के बाद भी पिछड़ गए और उन्‍हें सामाजिक अधो‍गति का सामना करना पड़ा जब कि सभ्‍यता का सारा तामझाम उनकी योग्‍यता और अपनी विशेषज्ञता के प्रति समर्पण भाव का ऋ‍णी है।”
उसे एक शेर याद आ गया । याद आ ही गया तो शेर तो शेर है, छलांग लगाकर बाहर तो आएगा ही और आया, ”हमीं से रंगे गुलिस्‍तां हमीं से रंगे बहार । हमीं को नज्‍में गुलिस्‍तॉं पर अख्तियार नहीं।”
”कहो तो ताली बजा दूँ पर यह समझ लो शायरी से समस्‍यायें पैदा होती हैं सुलझती नहीं हैं और कई बार इनका अर्थ उल्‍टा होता है। मुसीबत यह कि मैं खुद सलीके से कोई बात कह पाता ही नहीं।”
”कल कागज पर लिख कर आना और सरकारी फरमान की तरह पढ़ना । हो सकता है, मैं भी मान लूँ।”