निदान -30
एक तिनका ही सही, एक इरादा ही सही
”मैंने आप की कविता फेसबुक पर पढ़ी । आप उनके फटे और चिंथे को कैसे सिल और रफू कर पाएंगे डाक्साब जो उस सिले और रफू किए को फिर फाड़ और चींथ देंगे। आज तक का इतिहास उनका यही रहा है। जब जब हाथ मिलाया उनसे तब तब धोखा खाया है।”
”आप तो कविता भी करने लगे शास्त्री जी। अच्छे लक्षण है, पर यह बताइये अपने ही कपड़े को फाड़ने वाले को क्या कहते हैं ?”
”कविता करने की बीमारी तो इधर आपके कारण बहुतों को लग गई है। आप उन्हें तुकबन्दी कहते हैं तो लोग सोचते है, जब काम इतना आसान है तो क्यों न हाथ आजमाया जाये। मैंने भी आजमा लिया। पर जो आपका सवाल है उसका जवाब है, ‘पागल ।’
”यह पागलों का समाज है, अाप यह कहना चाहते हैं?
आप क्या कहना चाहेंगे। है कोई दूसरी परिभाषा?”
”मैं तो आपके फैसले को मानूँगा। मान लिया पागलों और बददिमागों का समाज है। यह भी कि इसका इतिहास यही रहा है, इसलिए यह पागलपन भी बहुत पुराना है । बीमारी उग्र हो चली है। ऐसी दशा में आप क्या करेंगे, पत्थर मारेंगे या चिन्ता करेंगे उस व्याधि से उन्हें मुक्ति कैसे दिलाई जाए ?”
”अब यही काम रह गया, दूसरों के पागलों काे पकड़ कर अस्पताल पहुँचाने का। कोई ठान भी ले तो उस पर क्या बीतेगी इसका अनुमान है। लावारिस लाशों की अन्त्येष्ठि करने का तो एक रेकार्ड है, क्योंकि मुर्दे बोलते नहीं, यह तक नहीं कहते कि मैं तो हिन्दू था, मुझे तुम दफ्न क्यों कर रहे हो, या मैं तो मुसलमान था, तुम मुझे जला क्यों रहे हो। पर पागल तो जिसे नहीं जानना चाहिए उसे कुछ अधिक जानता है जिसे जानना चाहिए उसे जानने और मानने से इन्कार कर देता है। जो अपनी व्याधि से मुक्ति ही नहीं चाहता उसे मुक्ति कैसे दिलाएँगे आप ? जो अपने को पागल मानता ही न हो उसे तो आप मनोचिकित्सक के पास तक कैसं ले जाऍंगे?”
”कुछ तो करना होगा शास्त्री जी । इतने सारे लोगों को पागल बने रहने की छूट दे कर आप भी चैन से नहीं रह पाऍंगे?”
”नहीं रह सकते, इसीलिए तो कहते हैं इनसे सदा सदा के लिए छुट्टी मिलनी चाहिए। इनका सफाया कर देना चाहिए ।” शास्त्री जी जिस आवेश को अब तक नियन्त्रित किए हुए थे वह एक साथ फट कर बाहर आ गया।
मैंने अपने स्वर को पहले जैसा ही ठंडा रखा, ”तरीका तो ठीक है। उन्होंने कई बार आजमाया है, एक बार हम भी आजमा कर देख लें। पर इसमें आपकी भूमिका क्या होगी ? पीछे से ललकारने की या तलवार, मतलब है बन्दूक, बम कोई भी हथियार ले कर चलाने की ? घबराइये नहीं, मैं आपके साथ रहूँगा, कब से शुरू कर रहे हैं आप यह काम ?”
शास्त्री जी को पहली बार लगा कि उनसे कुछ गलती हुई है, ”मैं किसी की जान लेने की बात नहीं करता, क्रोध आता है तो …
”तो आपको लगता है आप भी पागल हो जाऍं, आप भी वैसा ही कुछ कर बैठें जैसा आपकी समझ से वे करते हैं। आप मानते हैं कि पागल को देख कर पागल होश में आ जाता है । अाप सोचते हैं जो आप को शोभा नहीं देता उसे कोई दूसरा कर दे तो आप बेदाग भी रहें और समस्या भी सुलझ जाए? आप इतने जरूरी और पवित्र काम का यश तक नहीं लेना चाहते।”
शास्त्री जी जितने मेरे तर्क से विचलित नहीं थे उतने मेरे ठंढे और अनुद्विग्न और अकंप स्वर से थे। मैंने अपने स्वर को बदले बिना ही कहा, ”शास्त्री जी, मैं पुन: आपको अपने उस कथन की याद दिलाऊँगा कि मनुष्य में नाभदान का कीड़ा बनने से ले कर महाकाश का ध्रुवतारा बनने के बीच की सभी संभावनाऍं मौजूद हैं। गर्हित कृत्य को भी गौरव का विषय बना दीजिए तो उस गर्हित काम के लिए लोगों की कतार लग जाएगी क्योंकि गौरवशाली बनने के बाद वह गर्हित रह ही नहीं जाएगा। गर्हित और श्रेयस्कर की परिभाषाऍं उलट जाऍंगी। उस कतार में ऐसे तेजस्वी लोग तक खड़े दिखाई देंगे जो सिर्फ नाम से ही तेजस्वी नहीं हैं अन्य कारणों से ख्यातिलब्ध हैं। महिमा की भूख आदमी को किसी सीमा तक गिरा सकती है और किसी ऊँचाई तक उठा सकती है। आप जानते हैं आप जिन कृत्यों से घृणा करते हैं, जिनके कारण उन्हें पागल और बददिमाग मान लेते हैं, वही काम करने के लिए आप स्वयं भी तैयार हो गए थे और सुरक्षित माहौल में आप वही कर भी सकते हैं। अर्थात् पागल होने की संभावना उनके साथ ही नहीं है, आपके साथ भी है। मैं आप से पूरी तरह सहमत हूँ कि आप जहां से बैठ कर चीजों को देख रहे हैं, उसमें स्थिति बिल्कुल वैसी है दीखती है और उसके बाद वैसे ही विचार आ सकते हैं। अर्थात् थोडी सी शिथिलता से हम सभी इस दुनिया को पागलों का और केवल पागलों का संसार बनाने में सहयोग कर सकते हैं, इसीलिए जरूरी है कि हम यह सोचें कि जो पागल हो चुके हैं उन्हें अपने को सुधारने में मदद कैसे की जाय।
”आपके पास एक ही तरीका है, उनकी मानसिकता में बदलाव लाने का। नहीं, बदलाव लाना तो आपके वश में है ही नहीं। बदलाव लाने का प्रयत्न करने का और इसके लिए स्वयं अपनी मानसिकता में बदलाव लाने का प्रयत्न करने का । क्योंकि अपनी मानसिकता भी चुटकी बजाते तो बदल नहीं जाती।
”जो आरोप आप दूसरों पर लगाते हैं वह आरोप कोई तीसरा , या वह सवयं आप पर लगा सकता है । हमारे समाज में बहुत सी विकृतियाँ बहुत पुराने समय से हैं । कहें पागलपन के कई रूप विविध समाजों में हजारों साल से है । परन्तु आप स्वयं पागल बन कर किसी दूसरे के पागलपन को दूर नहीं कर सकते, इतनी सीधी सी बात समझनी होगी।
”कभी फुर्सत रही तो फेस बुक पर मैं भी ताक झॉंक कर लेता हूँ । एक बात देखी है हिन्दुओं का एक बड़ा हिस्सा है जो मुसलमानों ने नफरत करता है, और जैसा कि मैं कहता आया हूँ, नफरत करने वाला न दूसरे काे समझ सकता है न अपने को। मुससलमानों में अनुपात की दृष्टि से शायद उससे भी बड़ा हिस्सा है जो हिन्दू शब्द से ही नफरत करता है। उनके लिए पहले हमारा प्रिय शब्द म्लेच्छ हुआ करता था और आपके लिए उनका काफिर । हिन्दू शब्द को भी उन्होंने गाली बना रखा था आैर हम उसी नफरत से मुसल्ला कह कर उनको एक झटके में विचार सीमा से बाहर कर देते थे। हिन्दू शब्द का वह अर्थ आज भी उनके कोशों में पाया जा सकता है। पर कोशों के अर्थ कई बार अपने अर्थ से विपरीत कहानियां कहते हैं। गोरों की असाधारण सफलता के कारण हम उनसे नफरत करते हुए जैसे फिरंगी कह कर नफरत करते थे और बहुत सारी बुराइयॉं इससे जोड़ लेते थे, ठीक वही दशा बहुत पहले से उन देशों में थी जिन पर भारतीय व्यापारियों ने अपना दबदबा बना रखा था। ईरान में देवों के प्रति घृणा, ग्रीस में वही आज के तुर्की में बसे भारतीयों के प्रति घृणा में बदल कर प्रकट किया जाता था। हम इतिहास की गालियों को न देख कर उनके कारणों को देखें तो बहुत से अन्याय मिमियाहट में बदल जाऍंगे ।
”इसलिए आज जरूरत है, उस शब्दकोश को बदलने का, जातीय फिक्स्ड डिपाजिट में जमा उस घृणा को बाहर लाने की है। वह जाहिर हो, पर यह बताते हुए कि यह अमुक कारण से पैदा हुई और आज उसका यह उपचार किया जाय तो दूर हो सकती है तो परस्पर संवाद और अापत्तियों के निराकरण की समस्या से भी निबटा जाय। जरूरत बौद्धिक हस्तक्षेप की है। कुशिक्षा की बीमारियों को सही शिक्षा से कुछ हद तक कम किया जा सकता है, कम हो जाने पर ग्रहणशीलता बढ़ेगी और अगले पाठ की भूमिका तैयार होगी।”
”डाक्साब, आप बहुत आशावादी हैं। खयाली दुनिया से बाहर आते ही नहीं। लिख कर देख लीजिए, वे आपका ऐसा लिखा पढ़ेंगे ही नहीं। समझा कर देख लीजिए, वे आपकी बात मानेंगे ही नहीं।”
”मैं वह भी जानता हूँ, क्योंकि जब आप को समझा नहीं पा रहा हूँ तो क्या उन्हें समझाना आसान हो सकता है। इसीलिए हम प्रयत्न करने की बात करते हैं, प्रयत्न करना तो हमारे वश में है न। हम केवल वही कर सकते हैं और आफलोदय कर्म के रूप में कर सकते हैं। नसीहत दूसरों से भी ले सकते हैं। वह कल बताऊँगा। आज आप समझ नहीं पाऍंगे।