Post – 2016-08-15

सुबूही

कुछ न कहता हूँ लोग कहते कुछ न जानता है
कह रहा हूँ तो समझते हैं जानकार भी हूॅ ।
उनकी मर्जी की कह दिया ताे जान देते है
कुछ अलग कह दिया कहते हैं गुनहगार भी हूॅा।
सही लोगों के बीच कितना गलत हूँ सोचो
उनको समझाऊँ तो ‘दुश्‍मन का तरफदार भी हूँ।’
फिर भी इन खतरों से गुजरे तो जिन्‍दगी जी है
वर्ना तो मौत के पिजड़ में गिरफ्तार भी हूँ।
चलो भगवान से पूछें कि सच गलत है क्‍या।
‘जवाब का मै मुन्‍तजिर हूँ, तलबगार भी हूंँ।’
13 अगस्‍त 16

यूँ ही आँखों में आ गए ऑंसू
बात तो आपके मिजाज की थी ।
हुआ जाहिर जिसे छिपाना था
बात माजी की न थी, आज की थी।
कुछ तो सोचें कि क्‍या कहेंगे लोग
तब लड़ाई तो तख्‍तो ताज की थी।
आज भी ख्‍वाब वही हों बाकी
तब तो यह सख्‍त ऐतराज की थी।
14 अगस्‍त 16

Post – 2016-08-14

निदान ‘ 19

सेक्युलरिज्म का भारतीय पर्याय

”तुम कल जब सलाह दे रहे थे विश्व द्रोही और मानवद्रोही भावधारा से परहेज करने की तो क्या अपने ही विश्ववाद को थोथा नहीं साबित कर रहे थे ? यार तुम उदारता की बात करते हो तो उसके भीतर से भी तुम्हारी संकीर्णता उजागर हो ही जाती है। उदारता है तो सबको समान समझो, सम्माान दो, न कि अलग करो।”

“मैं जानता था यह बात तुम्हें चुभेगी, क्यों’कि यह तुम्हा री मूढ़ता से जुड़ी हुई समस्यान है। पर दुबारा समझाने का प्रयत्नत करूँगा। याद करो, हम कह जाए हैं कि निदान के समय रियायत नहीं बरती जाती, न उपचार के समय रियायत बरती जाती है। उदारता इस बात में बरती जा सकती है कि सभी मरीजों का बिना भेदभाव के निदान और उपचार हो। आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक या लैंगिक भेदभाव न बरता जाय। लाभ देते हुए भेदभाव न करना अलग बात है, सबको एक जैसा मान लेना मूर्खता भी नहीं जड़ता का प्रमाण है, जो तुम देते आए हो।

”हम यहॉं दो विकल्पों के बीच सर्वोत्तम विकल्प की बात करना चाहेंगे। एक है जिसमें सुधार, पुनर्विचार, समायोजन और क्रान्तिकारी परिवर्तनों का स्वागत है। उसे दोषमुक्त नहीं मानता, पर दोष को दूर करने की प्रतिबद्धता है। इसमें भी एक छोटा सा, प्रभावहीन, तबका है जो कटमुल्लों जैसा अडि़यल है, परन्तु उसकी न कभी चली है, न चलने पाती है, क्योंंकि इसका नेतृत्व बुद्धिजीवी वर्ग के हाथ में रहा है, जिसने तर्क को सबसे प्रभावशाली औजार के रूप में काम में लिया है और ब्रह्मसमाज, आर्यसमाज, प्रार्थनासमाज आदि के बड़े सामाजिक आन्दो लन खड़े किए हैं, इसलिए जिससे जुड़कर समाज के रुग्ण और सताए हुए तबकों तक पहुंच कर नैतिक आग्रह के बल पर व्यापक जनाधार तैयार हो सकता था और जमीनी सचाई को समझने का अवसर मिल सकता था। वह न तुम समझ पाए न कर पाए।

”दूसरा है जिसमें बार बार इस बात की दुहाई दी जाती है कि ऐसा कुरान में भी है, या कुरान का यह उल्लंघन नहीं है, इसलिए इस सीमा तक किसी प्रगतिशील प्रस्ताव का विरोध करना ठीक नहीं है । यह दूसरी बात है कि उसी कुरान के अनुसार उसकी भिन्न व्या्ख्या करने वाले और इसलिए उसे वर्जित मानने वाले भी हो सकते हैं और अधिक संभावना इस बात की है कि वे बहुमत में निकलें या इतने प्रभावशाली निकलें कि सुधार का प्रस्ता व रखने वालों के खिलाफ फतवा जारी कर दें या उन्हें अपनी जबान बन्द करने काे बाध्य कर सकें। ऐसा लगातार हुआ है।

”अत: वहॉं मार्क्सवाद को उस सीमा तक डाइल्यूट करना होगा कि वह खींचतान कर ही सही, कुरान से, कट्टरपन्थियों द्वारा उसकी व्याोख्या से, कम से कम आभासिक मेल पैदा करे। परन्तु इससे काम चलने वाला नहीं। क्योंकि यह इस्लाखमीकरण की प्रक्रिया का आरंभ मात्र है जिसमें कसौटी पर खरा उतरने के लिए लगातार झुकते जाना और समझौते करते जाना पड़ता है और यह प्रक्रिया पूरी तब होती है जिसके बाद तुम्हारा पूरा इस्लामीकरण हो जाता है, यद्यपि इसके बाद भी तुम उपहास के पात्र ही बने रहते हो क्योंकि जब तक तुम्हारे भीतर तार्किकता का आग्रह पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता, कट्टर मुसलमानों के सामने तुम खट्टर मुसलमान ही माने जाते हो।”

”आ गए न अपने हिन्दूवादी कार्यक्रम पर ।”

”मैंने तुमसे कहा, मैं निदान कर रहा हूँ । यदि मैं अपनी ओर से कोई चीज जोड़ कर कुछ सिद्ध करना चाहता हूँ तो उसका उल्लेख अवश्य करो, क्योंकि इससे परिणाम प्रदूषित होता है। परन्तु तुम तो कहते हो अमुक अमुक तथ्यों से ऑंखें मूँद कर निदान करो। फिर तो मूँदहु ऑंखि कतहुँ कोउ नाहीं।” न समस्या, न समाधान, न हाय तौबा, न तुम्हारी जरूरत । और तब यह जो तुम सैफ्रनाइजेशन और भगवाकरण अभुआते रहते हो, तुम्हें उस सन्निपात से भी मुक्ति मिलनी चाहिए ।”

”तुम कलारूपों पर और विशेषत: दृश्य माध्यमों पर जिन्हें अधिक योजनाबद्ध रूप में बनाया जाता रहा, उनके माध्यम से मेरे मन्तव्य को समझने का प्रयास करो। जानते हो तुम्हा्री अपने और अपनों के प्रति नफरत पहले सुधार से आरंभ हुई । चोटी तुम्हारे सौन्दार्यबोध को आहत करती थी, तो नौकरो चाकरों की मोटी चुटिया को अधिक नयनाभिराम बना कर तुम पेश करते रहे। इसे मूर्खो अनपढ़ों की पहचान बना कर पेश करते रहे। निहायत भोड़े रूप में चोटी चन्दन चर्चित किसी पंडित को, जिसको उसके हिन्दी उच्चारण के कारण अधिक हास्यास्पद बनाने के लिए उसे दक्षिण भारतीय पृष्ठभूमि का दिखाया जाता रहा और इस तरह विनोद और बढ़ जाता था। तुम इन्हें मूढ़ता और पोंगापन्थी का लक्षण बताते रहे।

”इसके माध्यम से तुमने भारी सफलता पाई जनेऊ की झंझट से भी मुक्ति मिल गई। हिन्दू महिलाएँ चोटी रखती है तो उसे भी मोम लगा कर इन्द्रधनुषी बना कर मनोरंजन कराया। लोगों ने इसे भी गुड स्पिरिट में लिया और तुम्हारी भोड़ी विनोदप्रियता पर भी हँसते रहे।

”बहादुरी, त्याग, उत्सर्गभावना का जहाँ भी अवसर आता तुम एक खान भाई को उतार देते और प्राण और नाना पाटेकर जैसे प्रभावशाली कलाकारों के माध्यम से वह गुंडई के बावजूद त्याग और सद्भभाव की मूरत बन जाता। बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ता, खास कर इसलिए कि अब वह व्यक्ति भी नहीं रह जाता, केवल खान रह जाता और उसकी सदाशयता की कद्र न करने वाले अपने पुराने विश्वासों में जकड़े कितने जघन्य लगते, कितने अन्यायी और मूर्ख ।

”इस तरह सद्भावना पैदा करने के लिए तुम सबसे सशक्त‍ माध्यम से ले कर कहानी और नाटक तक में लगातार समाज को सुधारने और जिसे तुम सबसे डरावना मान रहे थे उसको रास्ते‍ से हटाने में जुटे रहे। तुम जिस दवा से बीमारी का इलाज कर रहे थे उस पर कभी किसी ने कोई आपत्ति तक नहीं की । क्‍योंकि इस देश में विचारो और बौद्धिकों की चलती आई है। दवा चलती रही फिर जो दवा का उल्टा परिणाम हुआ, उसकी कोई जिम्मेदारी कभी तुमने ली।”

वह घिरा हुआ अनुभव कर रहा था और बच निकलने का कोई रास्ता तलाश रहा था, वह रास्ता उसे मिल भी गया, ”यह सब हमारी इतनी कोशिशों के बाद बढ़ा है। यदि हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते तो पता नहीं कब का क्या हो जाता।”

”यह इतना सहनशील समाज जिसे तुम लगातार छेड़ते रहे और सुधार के नाम पर अपमानित करते रहे, जिसने तुम्हारे इतने उकसावों के बावजूद कभी तुम्हा रे खिलाफ कोई आवाज तक नहीं उठाई, उसे तुम खुराफाती और हुड़दंगी मानते हो, परन्तु उसके धीरज को अधिक से अधिक अपमानजनक परीक्षाओं से गुजार कर तुमने विस्फोटक बना दिया फिर भी कहते हो कि हमने उसका अपमान न किया होता तो वह जाने क्या तूफान खड़ा कर देता। मैं समझ नहीं पाया तुम्हारे विचारों को उनकी ऊँचाई के कारण, क्या तुम समझा सकोगे मुझे अपनी समझ कहॉं से दुरुस्त करनी चाहिए ।”

वह चुप रहा । शायद उत्तर बन नहीं पा रहा था।

”एक सहिष्णु समाज को, इतने सहिष्णु समाज को, जिसे अपने इसी गुण के कारण कई बार ‘कायर’ ‘भीरु’ जैसे विशेषणों तक से अपमानित किया जाता रहा, परन्तु इसे भी सह कर जिसने अपने युगों के अर्जित संस्कार को नहीं त्यांगा, असहिष्णु, बनाने में तुम्हारी कोई भूमिका नहीं, जिसने अपने इलाज का भार चुपचाप तुम्हारे ऊपर छोड़ रखा था। यदि तुम्हारी समझ में इसका कारण अब भी न आ रहा हो तो मैं तुम्हारी मदद करूँ।”

उसने मदद तो नहीं माँगी, क्यों कि समझ उसकी इतनी अच्छी है कि कोई दूसरा उसे समझा नहीं सकता, दबे स्वर में कहा, ”इसे तुम किस रूप में देखते हो?”

”मैं इसे उसी प्रक्रिया के रूप में देखता हुँ जिसको न तो तुम समझ पाए, न स्वी’कार कर पाओगे और जिसे छिपाने के लिए तुम्हें लगातार झूठ पर झूठ गढ़ने पड़े हैं।
तुमने केवल एक बार को प्ले्बीसाइट का समर्थन करने की भूल नहीं की थी, उसके परिणामों को मुस्लिम लीग की इच्छा के अनुसार मोड़ने के अभियान में हिस्सा लिया था। उसके इरादों को लगातार अपने कार्यक्रम का हिस्सा बनाए रखा और लगातार उस पर खरा उतरने के लिए अधिक उग्रता अपनाते चले गए और आज जब लगा कि अब तो बाजी ही पलटने वाली है तो अभी चुनाव आरंभ भी नहीं हुए थे तुम खंडप्रलय की भविष्यवाणियॉं करते हुए, उसकी उपलब्धियों पर परदा डालते हुए, घिनौने से घिनौने हथियार का प्रयोग, उसे लांछित और अपमानित करने के लिए करते रहे और वह अपनी राष्ट्रनिष्ठाा और सर्वसमावेशी अभि‍यान के विश्वास पर अडिग तुम्हारी स्थिति यक्ष पर वाणों की बौछार करने वाले अर्जुन की सी किए मूस्काराता और प्रचार माध्यमों को किनारे डाल कर जनता से सीधे संवाद करते हुए अपनी बात समझाता और अपने इरादों को स्पमष्ट करता रहा और इसके अनुपात में ही तुम्हारी बौखलाहट विक्षिप्तता के हाशिये तक पहुँती गई है। अब कल यदि तुमको कहना पड़े कि हमारा यह प्रस्ताव कुरान के अनुरूप है तो मुझे तो आश्चर्य न होगा, बल्कि खुशी होगी कि लोगों की समझ में तो आ गया भारतीय सेक्युैलरिज्म किसका पर्याय है!
14-Aug-16

Post – 2016-08-14

एक अतुकान्‍त भी

सभी अक्षरों से परे मेरी जिंदगी
सभी श्‍ब्दों से परे मेरी पीड़ा
अर्थहीनता के मूर्धन्य कोण पर मेरी जिज्ञासा
अतीत और भविष्य के दो पाटों के बीच की अपरिभाषित दरारमें
पिसती मेरी योजनाएँ
‘मैं हूँ
‘मै ही रहूंगा बचा’ के हाहाकार में
अपने को तलाशता मैं
आपके सामने उपस्थित
शायद
जीवित
शायद
जीवितों की तलाश में भटकता
इस सांस्कृतिक मुर्दाघर में ।
04.05.2006

Post – 2016-08-14

एक पुरानी तुकबन्‍दी

जिन्दगी ऐसे गुजारी कि कोई गम न रहा।
दुखों का बोझ कभी जिंदगी में कम न रहा।
झेलते खेलते रखता हुआ पल वल का हिसाब
घाव भरते गए अब दर्द एकदम न रहा।।
06/10/06

Post – 2016-08-13

कुछ न कहता हूँ लोग कहते कुछ न जानता है
कह रहा हूँ तो समझते हैं जानकार भी हूॅ ।
उनकी मर्जी की कह दिया ताे जान देते है
कुछ अलग कह दिया कहते हैं गुनहगार भी हूॅा।
सही लोगों के बीच कितना गलत हूँ सोचो
उनको समझाऊँ तो ‘दुश्‍मन का तरफदार भी हूँ।’
फिर भी इन खतरों से गुजरे तो जिन्‍दगी जी है
वर्ना तो मौत के पिजड़ में गिरुतार भी हूँ।
चलो भगवान से पूछें कि सच गलत है क्‍या।
‘जवाब का मै मुन्‍तजिर हूँ, तलबगार भी हूंँ।’

यूँ ही आँखों में आ गए ऑंसू
बात तो आपके मिजाज की थी ।
हुआ जाहिर जिसे छिपाना था
बात माजी की न थी, आज की थी।
कुछ तो सोचें कि क्‍या कहेंगे लोग
तब लड़ाई तो तख्‍तो ताज की थी।
आज भी ख्‍वाब वही हों बाकी
सोचिए बात ऐतराज की थी।
14 अगस्‍त 16

दिलों के पार कई बस्तियां रही होंगी।
वहीं कहीं मेरी कुटिया बनी रही होगी।
जहाँ दिमाग भी होता था जानते थे लाेग
अाप को भी यह बात लग रही सही होगी।
मैं उन्‍हें प्‍यार भी करता था और नफरत भी
सोचता मुझमें ही कोई कमी रही होगी।
ऐ मेरे दोस्‍त बात करते तो अच्‍छा होता
चुप लगाने की कोई गॉंठ तो रही होगी।
तुम बहुत ठी‍क थे और आज कुछ जियादा हो
हमारी बात जहन में न आ रही होगी।
किसी को कहते बुरा खुद को बुरा लगता है
भले बुरे की कसौटी कोई रही होगी।
पूछो भगवान से अपना मगज बचा के रखों
वही बतलाए कि क्‍या, किसने, क्‍यों, कही होगी।
13; 8.16

Post – 2016-08-13

निदान – 18
परहेज भी दवा है अगर मान सको तो

”हमारी पार्टी से यह भूल तो हो गई कि हमने प्‍लेबीसाइट का समर्थन किया। इसे हमने छिपाया भी नहीं। स्‍वीकार किया है। इस एक ही चूक को तुम कितनी बार दुहरा चुके हो और कितनी बार कोस चुके हो पता है। कल फिर तुम उसी पर आ गए।”

”इस समय इस सवाल को न छेड़ो तो अच्‍छा रहे। मैं जानता हूँ यह तुम्‍हारी जरूरत है। मैंने उन तमाम बातों को याद दिलाया था जिन्‍हें तुम्‍हें अपने अस्तित्‍व और देश के हित के लिए करना था और यदि अब तक न किया तो अब आरंभ करना चा‍हिए। आज भी उधर ध्‍यान दो और किसी भी प्रश्‍न को ले लो, जैसे भारतीय भाषाओं के माध्‍यम से ही उच्‍चतम शिक्षा दिलाने, अदालतों की भाषा हाई कोर्ट तक उस राज्‍य की भाषा और सर्वोच्‍च न्‍यायालय में किसी भी भाषा में अपनी बात कहने, बयान देने न्‍याय वकील और जज के लिए नहीं होता, उससे प्रभावित जनों के लिए होता है। यह समझाओ। अब तक अंग्रेजी का पल्‍लू पकड़ कर औपनिवेशिकता को बढ़ावा दिया है, देश और समाज को अपने आप से विच्छिन्‍न करते रहे। यदि तुम कोई सकर्मक कार्यक्रम अपनाओं तो इसक बॉंटो, उसे पटाओ, अपने ही घर को तोड़ो-उजाड़ो जैसे खतरनाक खेलों की जरूरत न पड़ेगी।

”यह न रास आए तो दलित समस्‍या की गहरी पड़ताल करो, आर्थिक और सामाजिक दोनों की यातना भोगने वालों को इस अधोगति से बाहर कैसे लाया जाय जिसमें वह एक तेजस्‍वी वर्ग के रूप में उभर सके, यह देश के सामने युगों से लम्बित समस्‍या है। इस असंतोष को उपद्रवकारी और विस्‍फोटक रूप देकर उसकी ऊर्जा को बर्वाद किया जा सकता है जो तुमने अब तक किया है, परन्‍तु इससे वांछित परिणाम नहीं आऍंगे।

”हम तो सदा दलितो के साथ रहे हैं यार ।”

”तुम तो कभी अपने साथ भी नहीं रहे, दलितों के साथ कैसे रह सकते हो? तुम अपने जन्‍म के समय से दूसरों के औजार बने रहे। उसने तुम्हारा उपयोग चिमटे के रूप में किया, अपना हाथ जलने से बचाने के लिए तुम्‍हें आग में झोंकता रहा और तुम आग उगलते रहे पर अपनी बात लोगों को समझा नहीं सके। समझाते भी क्‍या जब तुम्‍हारे पास कुछ अपना था ही नहीं, जो अपना हो सकता था उसका अनुसंधान ही नहीं किया। तुम दलितों से हमदर्दी दिखाने के लिए उनके प्रति होने वाले अत्‍याचारों के लिए ब्राह्मण को, मनु को, मनुस्‍मृति को काेसते रहे ।

”अभ्‍ाी तक का जो हाल है उसमें तो तुम्‍हारा कहानीकार लिखेगा, एक था दलित और एक था बाभन । दलित बेचारा जल्‍दी में था । बाभन से दस कदम दूर हो कर आगे निकला लेकिन सुबह की धूप थी उसके दुर्भाग्‍य से उसकी छाया ने बाभन का स्‍पर्श कर लिया। अब क्‍या था । बाभन उसे छू तो सकता नहीं था, उस ने एक बड़ा सा पत्‍थर उठाया और उसक सिर पर दे मारा। वह वहीं ढेर हो गया। लिख कर छपा देगा और तुम सभी उसे क्रान्तिकारी रचनाकार बताते हुए सातवें आसमान तक उठाते चले जाओग। क्‍यों, गलत कहा?”

”जब सीधी बात तुम्‍हारे मुँह से निकलती ही नहीं तो गलत क्‍यों कहोगे! सही कहते तो हैरानी होती । क्‍या तुम नहीं समझते कि दलितों के साथ अन्‍याय आज भी शर्मनाक पैमाने पर हो रहे हैं ?”

”न होते तो तुम्‍हें अपने पुनर्जीवन के लिए इस मसले को हाथ में लेने को क्‍यों कहता।”

”हम उन्‍हें साथ लेना चाहते रहे हैं, वे ही हमारे साथ नहीं आए ।”

”तुम्‍हारे साथ नहीं आए नहीं तो तुम उनके भी नेता बन जाते और तुम्‍हारा जनाधार बढ़ जाता और तुम वही ऊल जलूल काम अधिक ऊधम मचाते हुए करते रहते और दलित उत्‍पीड़न को दलितों को अपने साथ रखने के लिए उनके उद्धारक बन कर ओर बढ़ाते रहते।”

”मैं तुम्‍हारी बात समझ नहीं पाया कि तुम कहना क्‍या चाहते हो।”

”मैं तुमसे एक ही बात कहता आया हूँ, वही इस मामले में भी कहूँगा, ‘समझ से काम लो’ । इस समस्‍या की पड़ताल करो, इस प्रवृत्ति में किस दर से और किन कारणों से वृद्धि हुई है। पहले ऑंकड़े जुटाओ कि पिछले दस साल में कितने कांड दलित उत्‍पीड़न के हुए है और साथ ही दलितों द्वारा, दलित संवेदना और सुरक्षा उपायों का दुरुपयोग करते हुए किसी से बदला लेने या निकम्‍मेपन को बनाए रखने के लिए कितनी फर्जी शिकायतें की गई है। प्रत्‍येक मामले में उत्‍पीडि़त करने वाला व्‍यक्ति किस जाति और पृष्‍ठभूमि का था। इसी तरह क्षेत्रीय वर्गीकरण भी। अब स्‍वतन्‍त्रता से पहले के दिनों के जो ऑंकड़े सुलभ है उनका प्रयोग करते हुए प्रति दस वर्ष का चार्ट तैयार करो और ऑंकड़ों को बोलने दो। खुद चुप रहो। इससे व्‍याधि के कारणों का, अनुसंगी पक्षों का, इसके घटते या बढ़ते ग्राफ का भी पता चलेगा और इसका सामना कैसे किया जाना चाहिए यह तय करने में भी मदद मिलेगी। इसके लिए किसी को जत्‍था बना कर तुम्‍हारी पार्टी में शरण्‍ा मॉंगने की जरूरत नहीं पड़ेगी। परन्‍तु मैं जानता हूँ तुम इसे करोगे नहीं, क्‍योंकि तुम लोग कुर्सी पर बैठ कर क्रान्ति करने वाले लोग हो। पसीना बहाने में स्‍वयं विश्‍वास नहीं करते और अपनी सारी ऊर्जा निकम्‍मेपन का विस्‍तार करने में लगाई है।”

”चलो, हमने कर लिया। इससे हो जायेगी समस्‍या हल?”

”यह तो मैंने नहीं कहा। कहा इससे समस्‍या को समझने में और इसके समाधान के उपाय तलाशने में मदद मिलेगी। गरज कि हो सकता है कि अांकड़े यह शोर मचाने लगे कि हाल के दिनों में दलितों के साथ सबसे क्रूर व्‍यवहार उनका रहा है जिनको ओबीसी कहा जाता है। तब तुम्‍हारा ब्राह्मण-शूद्र का विरोध वाला सतहीपन खत्‍म हो जाएगा और अब समस्‍या सामाजिक से अधिक आर्थिक हो जाएगी! अवसर जनित हीनता अवसर प्राप्‍त जनों के प्रति ईर्ष्‍या और क्रूरता में बदलती दिखाई देगी। यह मेरा निष्‍कर्ष नहीं है, उसके लिए तो वह अध्‍ययन जरूरी है जो तुम करो तो तुम्‍हें अपने बने रहने का मुद्दा मिल जाएगा, जिसके अभाव में सांप्रदायिकता और जातिवाद को किसी न किसी तरह जिलाए रखने की समस्‍या से जूझ रहे हो और दोष दूसरों को देते फिरते हो।”

”अब हो गया सन्‍तोष या कुछ बाकी रह गया है।”

”तुमको कोई सिखा नहीं सकता। कुछ सीखने की जगह अपने बचाव के लिए तरकीबें तलाशने लगते हो। डिफेंस मेकैनिज्‍म अधिक प्रबल है। प्रबल किनमें होता है यह भी नहीं सोचते। तुम्‍हें अपने भले की चिन्‍ता हो या न हो, मुझे तुम्‍हारे हित की चिन्‍ता क्‍यों है, यह समझ सको तो भी सबका भला हो:

”पहला यह कि तुम भी हमारे देश के ही प्राणी हो और खासे अक्‍लमंद और अपने ढंग से कुछ पढ़े लिखे भी। तुम्‍हारी ऊर्जा भी हमारी सकल ऊर्जाभंडार का ही हिस्‍सा है, वह ध्‍वंसात्‍मक गतिविधियों में बर्वाद हो और तुम्‍हें भी बर्वाद करती चली जाए यह राष्‍ट्रहित में नहीं है।

”दूसरे, तुम्‍हारी इस देश को जरूरत है। तुम्‍हारे प्रभावमंडल में आने वाले लोग मानवतावादी सरोकारों से आकर्षित हो कर ही निकट आए थे, यह बात दूसरी कि तुम्‍हारे प्रभाव के प्रचंड हाे जाने पर अपने को वामपंथी बताए बिना कोई सम्‍मान से जिन्‍दा नहीं रह सकता था। एक समय था कोई नया आदमी सामने पड़ा तो लोग उसकी जाति पूछते थे, तुम पंथ पूछते रहे। दक्षिणपन्‍थी या वामपंथी ? इसलिए अपने जीने का रास्‍ता तलाशते तुम्‍हारे पास आ लगे व्‍यक्ति इसका अभ्‍यास करते करते वे मुहावरे ही दुहराने लगते थे जिसमें आन्‍तरिक सरोकार और अवसर की तलाश के बीच का फर्क मिट जाता था और अवसर आने पर ही प्रकट होता था।

” कारण कुछ भी हो, यह मानवाद हमारा सपना है, युगों पुराना और बार बार दुहराया जाने वाला। दूसरे समुदाय तो कबीलाई चेतना वाले रहे हैं जिनका ईश्‍वर भी उनके कबीले या धर्मबन्‍धुओं तक सिमट कर कहने को बड़ा पर होने को बहुत छोटा हो जाता रहा है। अपना ध्‍यान उस सपने को पूरा करने पर लगाओ तो सनातन धर्म और मार्क्‍सवाद का फर्क कम हो जाएगा ।

और अन्तिम तो मेरी चिन्‍ता नहीं है, चेतावनी है कि नकारात्‍मक कार्यक्रम का भविष्‍य नहीं होता और उससे जुड़े व्‍यक्तियों, संस्‍थाओं और संगठनों का भी भविष्‍य नहीं होता। इसके कारण तुम्‍हारी सत्‍ता ही नहीं घटी है तुम्‍हारी आवाज का असर भी कम हुआ है। इससे तुम्‍हारे नेताओं की आवाज अपने काडर तक भी बिखर कर पहुंच रही है। कभी तुम एक शब्‍द कहते थे तो कई कोनों से प्रतिध्‍वनित होते हुए वह सौ शब्‍द बन कर सुनाई देता था, आज चीखते हो तो वह मिमियाहट बन कर सुनाई देती है ।

”यह सच है कि मैं तुम्‍हारी आलोचना करते हुए बहुत कठोर हो जाता हूँ, स्‍वर ऊँचा हो जाता है, परन्‍तु इसका कारण यह है कि तुमको बोलते रहने का इतना नशा रहा है कि परमात्‍मा ने तुम्‍हें कान भी दिये है, यह तक भूल जाते हो। मैं तुम्‍हारी भर्त्‍सना करने से अधिक अपनी विवशता पर चीत्‍कार करता हूँ । तुम क्‍या करते रहे हो, यह बताने चलूँ तो कानों पर हथेली दबाए भाग खड़े होगे। इससे देश का बहुत नुकसान हुआ है। तुम्‍हारा नुकसान भी देश का नुकसान है इसे फिर दुहराता हूँ, पर तुम्‍हारा उद्धार मैं नहीं कर सकता। यह तुम्‍हें ही करना होगा – उद्धरेत् आत्‍मनात्‍मानं नात्‍मानं अवसादयेत् । सुधरने का यह आखिरी अवसर है। विश्‍वद्रोही और मानवद्रोही भावधारा से जुड़ कर विश्‍वकल्याण का सपना नहीं देखा जा सकता।

Post – 2016-08-13

निदान – 18
परहेज भी दवा है अगर मान सको तो

”हमारी पार्टी से यह भूल तो हो गई कि हमने प्‍लेबीसाइट का समर्थन किया। इसे हमने छिपाया भी नहीं। स्‍वीकार किया है। इस एक ही चूक को तुम कितनी बार दुहरा चुके हो और कितनी बार कोस चुके हो पता है। कल फिर तुम उसी पर आ गए।”

”इस समय इस सवाल को न छेड़ो तो अच्‍छा रहे। मैं जानता हूँ यह तुम्‍हारी जरूरत है। मैंने उन तमाम बातों को याद दिलाया था जिन्‍हें तुम्‍हें अपने अस्तित्‍व और देश के हित के लिए करना था और यदि अब तक न किया तो अब आरंभ करना चा‍हिए। आज भी उधर ध्‍यान दो और किसी भी प्रश्‍न को ले लो, जैसे भारतीय भाषाओं के माध्‍यम से ही उच्‍चतम शिक्षा दिलाने, अदालतों की भाषा हाई कोर्ट तक उस राज्‍य की भाषा और सर्वोच्‍च न्‍यायालय में किसी भी भाषा में अपनी बात कहने, बयान देने न्‍याय वकील और जज के लिए नहीं होता, उससे प्रभावित जनों के लिए होता है। यह समझाओ। अब तक अंग्रेजी का पल्‍लू पकड़ कर औपनिवेशिकता को बढ़ावा दिया है, देश और समाज को अपने आप से विच्छिन्‍न करते रहे। यदि तुम कोई सकर्मक कार्यक्रम अपनाओं तो इसक बॉंटो, उसे पटाओ, अपने ही घर को तोड़ो-उजाड़ो जैसे खतरनाक खेलों की जरूरत न पड़ेगी।

”यह न रास आए तो दलित समस्‍या की गहरी पड़ताल करो, आर्थिक और सामाजिक दोनों की यातना भोगने वालों को इस अधोगति से बाहर कैसे लाया जाय जिसमें वह एक तेजस्‍वी वर्ग के रूप में उभर सके, यह देश के सामने युगों से लम्बित समस्‍या है। इस असंतोष को उपद्रवकारी और विस्‍फोटक रूप देकर उसकी ऊर्जा को बर्वाद किया जा सकता है जो तुमने अब तक किया है, परन्‍तु इससे वांछित परिणाम नहीं आऍंगे।

”हम तो सदा दलितो के साथ रहे हैं यार ।”

”तुम तो कभी अपने साथ भी नहीं रहे, दलितों के साथ कैसे रह सकते हो? तुम अपने जन्‍म के समय से दूसरों के औजार बने रहे। उसने तुम्हारा उपयोग चिमटे के रूप में किया, अपना हाथ जलने से बचाने के लिए तुम्‍हें आग में झोंकता रहा और तुम आग उगलते रहे पर अपनी बात लोगों को समझा नहीं सके। समझाते भी क्‍या जब तुम्‍हारे पास कुछ अपना था ही नहीं, जो अपना हो सकता था उसका अनुसंधान ही नहीं किया। तुम दलितों से हमदर्दी दिखाने के लिए उनके प्रति होने वाले अत्‍याचारों के लिए ब्राह्मण को, मनु को, मनुस्‍मृति को काेसते रहे ।

”अभ्‍ाी तक का जो हाल है उसमें तो तुम्‍हारा कहानीकार लिखेगा, एक था दलित और एक था बाभन । दलित बेचारा जल्‍दी में था । बाभन से दस कदम दूर हो कर आगे निकला लेकिन सुबह की धूप थी उसके दुर्भाग्‍य से उसकी छाया ने बाभन का स्‍पर्श कर लिया। अब क्‍या था । बाभन उसे छू तो सकता नहीं था, उस ने एक बड़ा सा पत्‍थर उठाया और उसक सिर पर दे मारा। वह वहीं ढेर हो गया। लिख कर छपा देगा और तुम सभी उसे क्रान्तिकारी रचनाकार बताते हुए सातवें आसमान तक उठाते चले जाओग। क्‍यों, गलत कहा?”

”जब सीधी बात तुम्‍हारे मुँह से निकलती ही नहीं तो गलत क्‍यों कहोगे! सही कहते तो हैरानी होती । क्‍या तुम नहीं समझते कि दलितों के साथ अन्‍याय आज भी शर्मनाक पैमाने पर हो रहे हैं ?”

”न होते तो तुम्‍हें अपने पुनर्जीवन के लिए इस मसले को हाथ में लेने को क्‍यों कहता।”

”हम उन्‍हें साथ लेना चाहते रहे हैं, वे ही हमारे साथ नहीं आए ।”

”तुम्‍हारे साथ नहीं आए नहीं तो तुम उनके भी नेता बन जाते और तुम्‍हारा जनाधार बढ़ जाता और तुम वही ऊल जलूल काम अधिक ऊधम मचाते हुए करते रहते और दलित उत्‍पीड़न को दलितों को अपने साथ रखने के लिए उनके उद्धारक बन कर ओर बढ़ाते रहते।”

”मैं तुम्‍हारी बात समझ नहीं पाया कि तुम कहना क्‍या चाहते हो।”

”मैं तुमसे एक ही बात कहता आया हूँ, वही इस मामले में भी कहूँगा, ‘समझ से काम लो’ । इस समस्‍या की पड़ताल करो, इस प्रवृत्ति में किस दर से और किन कारणों से वृद्धि हुई है। पहले ऑंकड़े जुटाओ कि पिछले दस साल में कितने कांड दलित उत्‍पीड़न के हुए है और साथ ही दलितों द्वारा, दलित संवेदना और सुरक्षा उपायों का दुरुपयोग करते हुए किसी से बदला लेने या निकम्‍मेपन को बनाए रखने के लिए कितनी फर्जी शिकायतें की गई है। प्रत्‍येक मामले में उत्‍पीडि़त करने वाला व्‍यक्ति किस जाति और पृष्‍ठभूमि का था। इसी तरह क्षेत्रीय वर्गीकरण भी। अब स्‍वतन्‍त्रता से पहले के दिनों के जो ऑंकड़े सुलभ है उनका प्रयोग करते हुए प्रति दस वर्ष का चार्ट तैयार करो और ऑंकड़ों को बोलने दो। खुद चुप रहो। इससे व्‍याधि के कारणों का, अनुसंगी पक्षों का, इसके घटते या बढ़ते ग्राफ का भी पता चलेगा और इसका सामना कैसे किया जाना चाहिए यह तय करने में भी मदद मिलेगी। इसके लिए किसी को जत्‍था बना कर तुम्‍हारी पार्टी में शरण्‍ा मॉंगने की जरूरत नहीं पड़ेगी। परन्‍तु मैं जानता हूँ तुम इसे करोगे नहीं, क्‍योंकि तुम लोग कुर्सी पर बैठ कर क्रान्ति करने वाले लोग हो। पसीना बहाने में स्‍वयं विश्‍वास नहीं करते और अपनी सारी ऊर्जा निकम्‍मेपन का विस्‍तार करने में लगाई है।”

”चलो, हमने कर लिया। इससे हो जायेगी समस्‍या हल?”

”यह तो मैंने नहीं कहा। कहा इससे समस्‍या को समझने में और इसके समाधान के उपाय तलाशने में मदद मिलेगी। गरज कि हो सकता है कि अांकड़े यह शोर मचाने लगे कि हाल के दिनों में दलितों के साथ सबसे क्रूर व्‍यवहार उनका रहा है जिनको ओबीसी कहा जाता है। तब तुम्‍हारा ब्राह्मण-शूद्र का विरोध वाला सतहीपन खत्‍म हो जाएगा और अब समस्‍या सामाजिक से अधिक आर्थिक हो जाएगी! अवसर जनित हीनता अवसर प्राप्‍त जनों के प्रति ईर्ष्‍या और क्रूरता में बदलती दिखाई देगी। यह मेरा निष्‍कर्ष नहीं है, उसके लिए तो वह अध्‍ययन जरूरी है जो तुम करो तो तुम्‍हें अपने बने रहने का मुद्दा मिल जाएगा, जिसके अभाव में सांप्रदायिकता और जातिवाद को किसी न किसी तरह जिलाए रखने की समस्‍या से जूझ रहे हो और दोष दूसरों को देते फिरते हो।”

”अब हो गया सन्‍तोष या कुछ बाकी रह गया है।”

”तुमको कोई सिखा नहीं सकता। कुछ सीखने की जगह अपने बचाव के लिए तरकीबें तलाशने लगते हो। डिफेंस मेकैनिज्‍म अधिक प्रबल है। प्रबल किनमें होता है यह भी नहीं सोचते। तुम्‍हें अपने भले की चिन्‍ता हो या न हो, मुझे तुम्‍हारे हित की चिन्‍ता क्‍यों है, यह समझ सको तो भी सबका भला हो:

”पहला यह कि तुम भी हमारे देश के ही प्राणी हो और खासे अक्‍लमंद और अपने ढंग से कुछ पढ़े लिखे भी। तुम्‍हारी ऊर्जा भी हमारी सकल ऊर्जाभंडार का ही हिस्‍सा है, वह ध्‍वंसात्‍मक गतिविधियों में बर्वाद हो और तुम्‍हें भी बर्वाद करती चली जाए यह राष्‍ट्रहित में नहीं है।

”दूसरे, तुम्‍हारी इस देश को जरूरत है। तुम्‍हारे प्रभावमंडल में आने वाले लोग मानवतावादी सरोकारों से आकर्षित हो कर ही निकट आए थे, यह बात दूसरी कि तुम्‍हारे प्रभाव के प्रचंड हाे जाने पर अपने को वामपंथी बताए बिना कोई सम्‍मान से जिन्‍दा नहीं रह सकता था। एक समय था कोई नया आदमी सामने पड़ा तो लोग उसकी जाति पूछते थे, तुम पंथ पूछते रहे। दक्षिणपन्‍थी या वामपंथी ? इसलिए अपने जीने का रास्‍ता तलाशते तुम्‍हारे पास आ लगे व्‍यक्ति इसका अभ्‍यास करते करते वे मुहावरे ही दुहराने लगते थे जिसमें आन्‍तरिक सरोकार और अवसर की तलाश के बीच का फर्क मिट जाता था और अवसर आने पर ही प्रकट होता था।

” कारण कुछ भी हो, यह मानवाद हमारा सपना है, युगों पुराना और बार बार दुहराया जाने वाला। दूसरे समुदाय तो कबीलाई चेतना वाले रहे हैं जिनका ईश्‍वर भी उनके कबीले या धर्मबन्‍धुओं तक सिमट कर कहने को बड़ा पर होने को बहुत छोटा हो जाता रहा है। अपना ध्‍यान उस सपने को पूरा करने पर लगाओ तो सनातन धर्म और मार्क्‍सवाद का फर्क कम हो जाएगा ।

और अन्तिम तो मेरी चिन्‍ता नहीं है, चेतावनी है कि नकारात्‍मक कार्यक्रम का भविष्‍य नहीं होता और उससे जुड़े व्‍यक्तियों, संस्‍थाओं और संगठनों का भी भविष्‍य नहीं होता। इसके कारण तुम्‍हारी सत्‍ता ही नहीं घटी है तुम्‍हारी आवाज का असर भी कम हुआ है। इससे तुम्‍हारे नेताओं की आवाज अपने काडर तक भी बिखर कर पहुंच रही है। कभी तुम एक शब्‍द कहते थे तो कई कोनों से प्रतिध्‍वनित होते हुए वह सौ शब्‍द बन कर सुनाई देता था, आज चीखते हो तो वह मिमियाहट बन कर सुनाई देती है ।

”यह सच है कि मैं तुम्‍हारी आलोचना करते हुए बहुत कठोर हो जाता हूँ, स्‍वर ऊँचा हो जाता है, परन्‍तु इसका कारण यह है कि तुमको बोलते रहने का इतना नशा रहा है कि परमात्‍मा ने तुम्‍हें कान भी दिये है, यह तक भूल जाते हो। मैं तुम्‍हारी भर्त्‍सना करने से अधिक अपनी विवशता पर चीत्‍कार करता हूँ । तुम क्‍या करते रहे हो, यह बताने चलूँ तो कानों पर हथेली दबाए भाग खड़े होगे। इससे देश का बहुत नुकसान हुआ है। तुम्‍हारा नुकसान भी देश का नुकसान है इसे फिर दुहराता हूँ, पर तुम्‍हारा उद्धार मैं नहीं कर सकता। यह तुम्‍हें ही करना होगा – उद्धरेत् आत्‍मनात्‍मानं नात्‍मानं अवसादयेत् । सुधरने का यह आखिरी अवसर है। विश्‍वद्रोही और मानवद्रोही भावधारा से जुड़ कर विश्‍वकल्याण का सपना नहीं देखा जा सकता।

Post – 2016-08-12

नादानी का निदान

कल मैं अपनी बात ठीक से रख नहीं पाया और तुम्‍हें भी झपकी आ रही थी। आज भी रख पाऊँगा या नहीं कह नहीं सकता क्‍योंकि यह इतनी उलझी हुई है कि एक पहलू काे समझने के लिए दूसरे की जानकारी जरूरी है। इसलिए आज पहले सुनो आैर समझो कि भारतीय सन्‍दर्भ में एक मार्क्‍सवादी का क्‍या कार्यभार है और उसका बोध तक कहीं बचा रह गया है। उनमें ही नहीं, उनके आलोचकों तक में।

मार्क्‍स बहुत बड़े चिन्‍तक थे, बहुत अध्‍ययनशील थे, उनका ज्ञान मुझसे कई गुना था, जीवन ऋषियों जैसा समर्पित। लोकहित ही उनके जीवन का लक्ष्‍य था और उसकी संभावना ही उनके आनन्‍द का स्रोत था। बहुत आदर है मेरे मन में उनके लिए और उनकी छाया भी छू सकूँ तो जीवन को सार्थक समझूँ इस लालसा के साथ जितने भी बूंद तेल मेरे हिस्‍से में था उसको बहुत कंजूस की तरह जलाते हुए जितनी रोशनी संभव थी बिखेरने का प्रयत्‍न करता रहा हूं, अकेला और अकंप। परन्‍तु मार्क्‍सवादी होने के नाते यह भी स्‍वीकारता हूँ कि मार्क्‍स सर्वज्ञ नहीं थे। उनकी जानकारी में बहुत कुछ ऐसा था जिसे खोटा कहा जाएगा। उस खोटे को भी उन्‍होंने प्रामाणिक मानते हुए कुछ विचार स्थिर किए थे जो इसी के कारण या तो इकहरे थे, अधूरे थे या गलत थे। भारत के विषय में उनकी जानकारी और विचार भी इसी कोटि में आता है। भारत से अपरिचित रह जाने के कारण, आदिम साम्‍यवाद की अवधारणा में भी कुछ खोट रह गई थी। भारतीय ग्रामों की स्‍वायत्‍तता और कतिपय मामलों में बाहरी तन्‍त्र पर निर्भरता को छोड़ दें तो अपनी अनेक कमियों के बाद भी यह उनके उस कम्‍यून की अवधारणा के निकट था जिसके सपने को उन्‍होंने कम्‍युनिज्‍म की संज्ञा दी थी।

भारतीय चिन्‍ताधारा में दो मुख्‍य और अनेक गौण धाराओं का मेल है। इसकी बहुवर्णता के पीछे मैं यह याद दिलाता रहता हूँ कि विगत हिमयुग की त्रासदी में उत्‍तर से दक्षिण की ओर या तटरेखाओं की ओर पलायन के करते आए हुए जनों और संस्‍कृतियों की भूमिका थी। ऊष्‍म काल आने के बाद हिमाच्‍छादित प्रदेशों के हिममुक्‍त होने और किसी सीमा तक जीवन यापन के अनुकूल होने पर यहॉं से बाहर की ओर भी लोग गए परन्‍तु सभी नहीं। इसकी एक अलग कहानी है जिसमें उलझने का यह समय नहीं।

परन्‍तु इस भीड़ के कारण अन्‍न का संकट भी पैदा हुआ था और उसके लिए भारी मारकाट मची थी जिसकी याद कपालकुंडला, चामुंडा, और कपाली शिव के रूप में बनी रही। अपने कबीले की रक्षा के लिए संहार और रक्‍तपात से न डरते हुए इस मातृशक्ति की भारत पूजा करते हुए उसे बलि क्‍यों देता रहा जब कि इसने शान्ति और अहिंसा को अपना आदर्श बना लिया था यह रहस्‍य इस आपदा काल को याद किए बिना समझ में नहीं आएगा। अस्तित्‍वरक्षा का यह संघर्ष शिल्‍प और कौशल के आदानप्रदान का भी कारण बना और विविध योग्‍यताओं वाले समूहों की पारस्‍परिक निर्भरता के रूप में भी सामने आया। यह प्रमुख कारण है जिससे सभ्‍यता का आविर्भाव इस देश में हुआ और उस क्रम में भी आगे बढ़ने और अपना हिस्‍सा पाने की प्रतिस्‍पर्धा के चलते कई बार मार काट हुई जिसे हम देवासुर संग्रामाें में पाते हैं। यह भी बहुत जटिल मामला है जिसका संकेत करके हम आगे बढ़ सकते हैं।

इस संघर्ष के बीच वह समझ पैदा हुई और वह मूल्‍य व्‍यवस्‍था पैदा हुई जिसे हम भारत की विशिष्‍ट मूल्‍य व्‍यवस्‍था कह सकते हैं जिसमें शान्ति के महत्‍व को, मानवकल्‍याण की चिन्‍ता को केन्‍द्रीय और अन्‍य जीवों जन्‍तुओं के प्रति उदार भाव अपनाने को इतना महत्‍व दिया गया। जिन प्राणियों, वृक्षों, वनस्‍पतियों के, जलधाराओं, पर्वतों के उदार दान पर हमारा जीवन निर्भर है उनके प्रति गहन कृतज्ञता का यह भाव कि उनकी रक्षा के लिए प्राण दिया और प्राण लिया जा सकता है, यह विश्‍वास तो असुरों का था। उन्‍हें इस रक्षाव्रत के कारण ही राक्षस कहा जाने लगा और सभ्‍यता के विकास में बाधक मान कर उनकी निन्‍दा भी की जाती रही, इसे यदि केवल गाय के सिरे से समझने चलें तो समझने में कठिनाई होगी। बिस्‍नाइयों में आज भी एक प्राणी या पौधे की रक्षा के लिए कठोर आग्रह को समझ सकें तो यह रहस्‍य समझ में आ जाएगा। यह आदिम समाज की देन है।

बुद्ध के अष्‍टांग मार्ग का कोई भी अंग ऐसा नहीं है जो भारतीय परंपरा में पहले से विद्यमान न था। जैन मत की नैतिकता और साधना के भी पूर्वरूप इसमें मिलते थे। यही हाल हमारे उन दर्शनों का है जो बाद में अपने सुपरिचित और सुपरिभाषित रूप में तार्किक विवेचन के साथ आए। ऋग्‍वेद में इन सबके आभास मिल जाते हैं।

परन्‍तु ऋग्‍वेद में जो खास बात पाई जाती है वह है आसुरी संस्‍कृति और देवसंस्‍कृति का मेल। इस मेल का सबसे विचित्र पक्ष है असुर संस्‍कृति द्वारा देवसंस्‍कृति का पुनराख्‍यान जिसमें आगे चलकर असुर या वारुणी संप्रदाय ब्राह्मणवाद का सबसे मुखर प्रवक्‍ता बन जाता है जब कि इसी से पहले उसकी ठनी रहती थी। यह भार्गव परंपरा भी कही जा सकती है। हमारे पुराणों का संकलन और संपादन हो या उस मनुस्‍मृति के ज्ञात पाठ की रचना हो या महाभारत और गीता हो, सब भार्गवों की रचना है, जिन्‍हें ब्राह्मणों ने कभी अपनी बराबरी का दर्जा नहीं दिया फिर भी वे ब्राह्मण की श्रेष्‍ठता के गीत गाते रहे। गो ब्राह्मण की अतिरिक्‍त महिमा और दूसरी सेवेदनशीलताओं के पीछे भी यही रहे हैं। नये धर्मान्‍तरितों को भी अपने को सच्‍चा सिद्ध करने के लिए बहुत अधिक उत्‍साह दिखाना होता है फिर भी वे सन्‍देह के दायरे में ही बने रहते हैं ।

मुझे फिर पीछे लौटना होगा। हमारे यहां इन दो प्रमुख प्रतिस्‍पर्धी विचारधाराओं में एक आत्‍मवादी रही है जिसको इन्‍द्र की परंपरा या देवपरंपरा कह सकते हैं। असुर परंपरा भौतिकवादी रही है जिसे विरोचन की परंपरा कह सकते हो। इस विरोचन की परंपरा में ही मृत देह की पूजा और भौतिक समृद्धि को अधिक महत्‍व दिया जाता रहा। सहमरण, सती और एक साथ समाधि के विरल उदाहरण भी इन्‍हीं के पाए जाते रहे हैं। हमारे शिल्‍प और कौशल पर असुर समाज का ही अधिकार रहा जब कि देवों ने संपत्ति के सभी स्रोतों पर अधिकार करके और इनको अपने कब्‍जे में अयुत कोटिवर्ष रखने के लिए सैन्‍यबल और नैतिक और भौतिक प्रतिबन्‍ध या न्‍यायप्रणाली का निर्माण किया और इनके द्वारा उनकी सेवाओं का लाभ उठाते हुए उन्‍हें अपना उपजीवी बनाए रखा। ये आरंभ से कृषिकर्म के विरोधी थे और उस दिशा में पहल नहीं की। स्थिति यह हो गई कि अभाव में देवसंस्‍कृति के संवाहकों ने उस खेती का श्रमभार भी इन्‍हीं पर डाल दिया और स्‍वयं उससे विरत हो गए।

तो मोटे तौर पर यह है हमारी समाज रचना जिसमें अर्थतन्‍त्र समाजव्‍यवस्‍था से इस तरह नाभिनाल बद्ध है कि कोई पहल जब तक दोनों पक्षों में आमूल परिवर्तन लाने में सक्षम न हो उसे तात्‍कालिक रूप में कुुछ सफलता मिल भी जाय तो वह स्‍थायी नहीं हो सकती। जो बात सबके लिए मान्‍य रही है या जिसके लिए सभी के मन में आदर रहा है वे वेही मूल्‍य हैं जिनको सनातन धर्म या क्षमा, दया, अस्‍तेय, अपरिग्रह आदि कहा जाता है और जिनकी साधना को या जिन पर नियंत्रण को आत्‍मविजय के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है।

दुनिया के किसी दूसरे देश में यह मूल्‍य व्‍यवस्‍था नहीं पाई जाती। संभव है कुछ आदिम जनों में यह आज भी बचा रह गया हो, परन्‍तु भारत की विशेषता यह कि इसने इन मूल्‍यों को सत्‍तू की तरह छान कर अपने विकास के चरण पर भी त्‍यागा नहीं, इसलिए इसके वैभव के दौर भी व्‍यापक स्‍तर पर सामाजिक खुशहाली के दौर रहे हैं, न कि निजी वैभव का प्रदर्शन। दूसरे देशों के ज्ञात इतिहास के आदिम चरण से ही उनकी मूल्‍य व्‍यवस्‍था हमने ठीक उलट रही है। अहंकार का प्रदर्शन, हिंसा, यथासंभव सब कुछ जहां से भी जोडा या लूटा जा सकता है उसे लूटना, छल बल जैसे भी हो जो पाना है उसे पाने के लिए तैयार रहना, वैभव का प्रदर्शन, अपने और अपने कबीले को छोड़ कर किसी को इंसान न समझना और दूसरे जितने पदार्थ जैव अजैव, पाए जाते हैं उनका अपने सुख के निए विनाश की सीमा तक उपभोग और बर्वादी करने में भी संकोच न अनुभव करना। दूसरे सभी देशों और समाजों की मूल्‍यपरंपरा यही रही है। हमारी मूल्‍यपरंपरा का कभी पूरी तरह निर्वाह नहीं हुआ जिसके कारण इसमें कई तरह के विरोधाभास और अन्‍तर्विरोध पाए जाते हैं जिनका निराकरण हमारे सामाजिक आर्थिक रूपान्‍तरण की पहली शर्त है। और यह सचमुच एक आन्‍तरिक क्रान्ति के लिए लम्‍बे समय से प्रतीक्षरत है।

जिन्‍हें तुम भारतीय कम्‍युनिस्‍ट कहते हो, उनमें से किसी को इस समाज रचना को गहराई में उतर कर समझने की जरूरत नहीं हुई। समतावादी समाज के नारे पर मुग्‍ध सुशिक्षित मूर्खो का इतना बड़ा जमावड़ा किसी अन्‍य पार्टी में न मिलेगा जो कम्‍युनिस्‍ट पार्टी में मिलेगा। यह यथार्थवाद की कसमें खाता है और जिस समाज को बदलना है, जिसमें आमूल परिवर्तन लाना है, उसके चित्‍त की ही समझ इसे नहीं।

समाज के चित्‍त को, इसकी मानसिकता को, समझने के लिए इतिहास में जाना होता है। पहले से इतिहास नहीं लिखा मिलता तो उसकी खोज करनी होती है। उसके प्राचीन साहित्‍य को समझना होता है, लोक विश्‍वास और उनकी रीतिनीति का सम्‍मान करते हुए उसे समझने का प्रयत्‍न करना होता, जिससे उनके रागबन्‍धों और संवेदनशील पक्षों को समझा जा सके। आधुनिक साहित्‍य यदि पश्चिम की नकल बनने की कोशिश न करता तो वह भी लोकमानस को समझने में सहायक हो सकता था, परन्‍तु उसके रचनाकारों और विचारकों की रुझान भी कम्‍युनिज्‍म की ओर रही और इनकी दशा भी कम्‍युनिस्‍टों जैसी ही रही, कि ये कलात्‍मकता के शिखर की तलाश में अपने ही लोक तक पहुँचने के लिए तैयार ही न थे। जितने सुशिक्षित नेता कम्‍युनिस्‍ट पार्टी को मिले उतने किसी अन्‍य को नहीं। परन्‍तु इनकी पहली पीढ़ी ही इंग्‍लैंड रिटर्नों की थी जो पश्चिम रह कर जो कुछ पढ़ा और जाना था उसी को ज्ञान का अन्‍त समझते रहे। यह विश्‍वास प्रबल कि किताबी ज्ञान से कुछ भी किया और समझाया जा सकता है। मूर्खता की हद यह कि उसी इंग्‍लैड उपनिवेशवादियों ने भारत को समझने और नियन्त्रित करने के लिए वे सारे काम किए जिसे हम ऊपर गिना आए हैं। उन्‍होंने हमें अपने नियंत्रण में रखने के लिए अपने ढंग की व्‍याख्‍या की थी जिससे किसी दूसरे का काम नहीं चल सकता अौर चलेगा तो उनका जो स्‍वाधीन हो चुके देश को अपनी सत्‍ता के लिए नए सिरे से गुलाम बनाना चाहते हैं, चाहे वह जाति के नाम पर हो या क्षेत्र के नाम पर हो या धर्म के नाम पर हेा। मजे की बात यह कि यहां का कम्‍युनिस्‍ट सत्‍ता की भूख में या उसके निकट बने रहने के लिए पहले आंचलिकता को हवा देता रहा और आज जाति और उपजाति को हवा दे रहा है। जातिवादी जमीन को कमजोर करने और गोड़ने के लिए जो जमीनी स्‍तर पर करना था और जिसके रास्‍ते समाज में गहरी जड़ें जमाई जा सकती थीं उसकी ओर इसका ध्‍यान ही न रहा। प्रगतिशीलता पश्‍ववर्तिता का ऐसा रूप नासमझी का दस्‍तावेज है।

अब तुम स्‍वयं तय करो, क्‍या तुमने अपने समाज को, इसके यथार्थ को समझा? फिर इस यथार्थ को समझा कि मार्क्‍स की सहानुभूति मोटे तौर पर मानवता के प्रति रही हो सकती है, जैसे अपने यहाँ प्राणिमात्र के हित की बातें की जाती रही है, पर वह जिस क्रान्ति की बात कर रहे थे वह यूरोप और अमेरिका की, गोरी जातियों की क्रान्ति थी। मजदूर वर्ग तो वहीं तैयार हुआ था। उस क्रान्ति में हम सम्मिलित नहीं हो सकते थे क्‍योंकि भारत का सारा कारोबार, घरेलू उद्योग तक खत्‍म किया जा चुका था और हम केवल कच्‍चे माल की आपूर्ति कर रहे थे और तुमने स्‍वतन्‍त्रता आंदोलन के साथ नये उभरे कल कारखानों को भी हडताल और काम रोको से नष्‍ट करके वही काम करते रहे जो अंग्रेज सारा उत्‍पादन अपने हाथ में रखने के लिए अपने जोर से करते रहे थे। मार्क्‍स ने भारत को जेम्‍स मिल के इतिहास से समझा था जिसका इतिहास उन प्राच्‍यविदों की प्रतिक्रिया में लिखा गया था जो ऊपर वर्णित भारतीय जीवनमूल्‍यों पर इतने रीझे हुए थे कि उनकी प्रशंसा तक हमारी अधोगति को देखते हुए व्‍यंग्‍य लगती थी , इसलिए उन उच्‍च गुणों तक को मार्क्‍स ने दुर्गुण समझ लिया था। धर्म को अफीम मानने वाले मार्क्‍स को अफीमची मिशनरियों की रपटों को सच मान कर लिखे गए इतिहास से भारत को समझना पड़ा था।

अपनी ओर से तुमने जो मार्क्‍सवादी इतिहास लिखना शुरू किया वह मिल के अधूरे काम का तार्किक विस्‍तार था परन्‍तु इसका कारण यह था कि तुम्‍हारी पार्टी ने जैसा हम दिखा आए हैं, मुस्लिम लीग के कार्यभार को अपने कार्यभार में जोड़ लिया अौर उससे मुक्‍त न हो । अपने इतिहास और संस्‍कृति को समझना अपने यथार्थ की जड़ो को समझना था, वह आपने नहीं किया, उल्‍टे उसे नष्‍ट करते रहे क्‍योंकि एक ही किताब पर पली समझ से अपने इतिहास को नष्‍ट करने वाले और इसलिए अति भावुक प्रतिक्रियावाले लोगों की अपेक्षाओं पर सही उतरने के लिए तुम इतिहास को समझने की जगह उसे नष्‍ट करने में जुट गए और इस तरह अपने सामाजिक तानेबाने को समझने की जगह इसे नष्‍ट करने में गौरव अनुभव करते रहे
। समझदारों की इतनी बड़ी जमात मूर्खता के ऐसे कीर्तिमान स्‍थापित करती रही कि अपने यथार्थबोध को ही नष्‍ट कर डाला।

एक अन्तिम बात सुनो, जिस देश में विचार ही सबसे प्रबल हथियार रहा है उसमें खून बहाने वाला हथियार सफल नहीं हो सकता। शक्ति का प्रयोग वे करते हैं जिनके पास न्‍याय और औचित्‍य नहीं होता, अपने प्रचार और बचाव के लिए सही तर्क और सही विचार नहीं होता। अपना विचार होता ही नहीं। ओढ़ा हुआ होता है।
सुपारी किलिंग की तरह सुपारी पालिटिक्‍स भी होती है। अब यदि सचमुच तुम्‍हारे भीतर थोड़ी सी भी अक्‍ल हो तो तुम मुझे समझाओं कि अपने समाज का बौद्धिक मेरुदंड तोड़ने के अतिरिक्‍त तुम्‍हारा क्‍या योगदान है हमारे समाज को। जिसका मेरुदंड ही टूटा हुआ हो उसका दिमाग कैसे काम कर सकता है ? हमारे एक मित्र कह रहे थे कि क्‍लास स्‍ट्रगल की तो आप ने बात ही नहीं की। भई मजबूत सर्वहारा तबका तो पूँजीवादी विकास से पैदा होता, उसकी तुमने जड़ों पर ही प्रहार आरंभ कर दिया। भूल समझ में आई तो इतनी देर से कि सुधार के साथ ही दीवार और छत नीचे आ गई। यूनियनों के दलालों को संघर्षकारी शक्ति न समझा करो जिन्‍होंने प्रगति ही नहीं, सामान्‍य गतिविधि को भी असंभव बना दिया।

”उठो, चलें। या उठने में भी मदद करनी होगी ?”

Post – 2016-08-11

निदान – 17

भारतीय भावभूमि और मार्क्‍सवाद

कहने को बहुत कुछ है अगर आप सुनें तो
हम रो कर अपना हाल बताया नहीं करते ।

”यदि तू सचमुच मार्क्‍सवादी है, तो मरने को कोई दूसरी जगह नहीं मिली थी। सनातनियों के बीच जा मरा। वहां तो लोगों के सिकुड़े हुए सीने भी छप्‍पन इंच के हो जाते है, तुम्‍हारा भी हौसला बुलन्‍द हो, यह स्‍वाभाविक है।”

”मरने की जगह तो तैयार करते रहे हो तुम लोग। मरने के और मारने के। कितनी हत्‍यायें की हैं, और कितने रूपों में, कितनी संस्‍थाओं, परंपराओ और मूल्‍यों का विनाश किया है, इसकी तालिका तैयार करुँ तो देख कर घबरा जाओगे। लेकिन, मैं इसे नहीं करूँगा। मैं तुम्‍हारी गन्‍दगी साफ करने न जाऊँगा और तुम अपनी गन्‍दगी से बाहर आ कर जिन्‍दा नहीं रह पाओगे। दोस्‍ती के नाते मै यह सुझाव जरूर देना चाहूँगा कि जिन्‍दगी भर हिन्‍दी पढ़ाते रहे हो, उसके मुहावरों का अर्थ समझा करो और यह भी समझा करो कि कि इसका संचार मूल्‍य क्‍या है। गनीमत है उस आदमी ने यह नहीं कहा कि ऐसा करने के लिए पत्‍थर का कलेजा चाहिए, नहीं तो गली गली में शोर मचाते फिरते कि इस आदमी का कलेजा पत्‍थर का है। खैर मैं उधर नहीं मुड़ूंगा, क्‍योंकि मैं तुम्‍हें यह बताना चाहता था कि मार्क्‍स के जन्‍म से चार हजार साल पहले हमने उस समाज की कल्‍पना की और उस दिशा में चलने के प्रयत्‍न करते रहे, जिसे संभव बनाने के लिए मार्क्‍स खून बहाने तक को तैयार थे, लेकिन वह खून बहाने के शौकीन न थे।”

”हद हो गई यार । तुम्‍हें बरदाश्‍त करना मुश्किल है। एक बार कहा था, ईसा मसीह के विचार भारत से प्रेरित थे और आज कह रहे हो मजहब को अफीम मानने वाले के विचार तुम्‍हारे सनातनधर्म से प्रेरित थे। इतना और करो, मेरे कहने से इतना और मान लो कि रक्‍तक्रान्ति का विचार भारत में प्रचलित नरबलि से पैदा हुआ होगा।”

”नरबलि किसी सुदूर अतीत में प्रचलित रही होगी, परन्‍तु हम जिस सनातन की बात कर रहे हैं वह रक्‍त से दूध की ओर बढ़ी थी। दूसरी संस्‍यताओं में पशु का एक ही उपयोग था, उसका मांसाहार। चीन हो या मध्‍येशिया, या यूरोप सभी का हाल यही था, जानवरों को घेर कर पकड़ना, अधिक हाथ लग गए तो बचे हुओं को अगले दिनों के लिए बाँध रखना। अकेला भारत था जिसने वह क्रान्ति की जिसे डेयरी फार्मिंग या दूध और दूध के उत्‍पाद के महत्‍व को इतने पहले समझा और इसके हड़प्‍पा सभ्‍यता के विदेशी उपकेन्‍द्रों के माध्‍यम से संपर्क में आने वाले देशों ने समझा। इससे बाहर आज भी पशु का वहीं उपयोग है और जिन देशों ने कुछ सीखा जाना, उन्‍हें भी दूध उत्‍पाद उतने रूपों में भी नहीं मिलते न उतने चाव से उनका सेवन होता है।”

”तुम बोलते जाओ, अब मैं टोकूंगा नहीं, और तुम्‍हारा यह प्रशस्तिगान ही तुम्‍हारी मूर्खता का अमर दस्‍तावेज बनता जाएगा। जो कुछ दुनिया में है वह सब हमी से है, हमारी ही भाषा के विकृत रूप पूरी दुनिया में बोले जाते हैं, हमारे ही पूर्वजों की सन्‍ताने पूरी दुनिया में छा गईं, देवता इस धरती पर जन्‍म लेने के लिए तरसते रहे हैं क्‍योंकि मोक्ष की प्राप्ति केवल इस देश में तप करके संभव है, जगत की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा यहीं कमलदल के ऊपर पालथीमारे उतराए थे, इस तरह की गलतफहमियां हजार दो हजार साल पहले ठीक न भी लगती रही हों तो, उस चरण को देखते, सहन की जा सकती थीं, परन्‍तु आज के दिन अगर कोई कहे कि सब कुछ हमी से है तो उसे कोई पागलखाने में भी रखने को तैयार न होगा।”

”दहशत निकल गई । अब मन स्थिर हो चुका हो तो ध्‍यान से सुनो और कुछ सीख सको तो सीखो। तुम लोग किसी भी विकास की मूल भूमि भारत देखते ही क्‍यों इतने विक्षिप्‍त हो जाते हो कि उसके साथ बहुत सारी अनर्गल बातों को जोड़ कर उसे सिरे से नकारने लगते हो। मैं सिर्फ एक चीज की बात कर रहा था, अहिंसा का विचार ओर समस्‍त मानवता के कल्‍याण के विचारों का जनक यह देश है, और भौतिक आविष्‍कारों की तरह ही वैचारिक आविष्‍कार भी धीरे धीरे दूर तक अपनी राह बना लेते हैं और राहें अदृश्‍य हो जाएँ तो प्रत्‍यक्ष संबंध देखना कठिन होता है। ईसा का अहिंसा का विचार, अपरिग्रह का विचार भारतीय है और उनके व्‍यक्तित्‍व और चिन्‍तन के विकास में भारत का हाथ है यह हम नहीं उनका ही पुराण कहता है जो पूर्व के अत्‍यन्‍त बुद्धिमान मागियों या मगों के उनके जन्‍म के समय पहुंचने के रूप में बचा रह गया है जिसका हवाला भी मैने दिया था।

” मनुष्‍य मात्र को अभाव से मुक्‍त करने का संकल्‍प भी बहुत पुराना है। वह एक दो इबारतो में, जैसे सर्वे भवन्‍तु सुखिन: सर्वे सन्‍तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्‍यन्‍तु मा कश्चित् दुख भाग्‍भवेत मे ही नहीं व्‍यक्‍त है, यद्यपि यह कामना मार्क्‍सवाद की भूमिका कही जा सकती है और इसी में मार्क्‍स के समस्‍त स्‍वप्‍नों को मूर्त देखा जा सकता है। यह विचार किसी अन्‍य समाज में उस पुराने चरण पर व्‍यक्‍त हुआ हो इसकी जानकारी मुझे नहीं है, यदि तम्‍हें हो तो तुम मेरी मदद कर सकते हो।”

उसने कुछ कहने के लिए जानीवाकर जैसी मुद्रा अपनाई। मैंने कहा, ”बीच में मत टोको । सुनते जाओ। यही स्‍वर उस कथन में है कि धरती पर जितने प्राणी हैं उन सभी में उसी परमेश्‍वर का निवास है, इसलिए दूसरों के लिए भी बचा रहे ऐसा सोचते हुए वस्‍तुओं का उपभोग करो और दूसरो के प्राप्‍य का लोभ मत करो। अपरिग्रह की भावना में भी यह है।

”विश्‍व की समस्‍त संपदा समस्‍त प्राणिजगत की है। इतना ऊँचा आदर्श किसी ऐसे भौतिकवादी के लिए अकल्‍पनीय था जिसकी चिन्‍ता केवल मनुष्‍य तक सीमित रहती है इसलिए भौतिक और जैविक परिवेश का जब तक मनुष्‍य के लिए विनाशपर्यन्‍त उपयोग हो, मार्क्‍स की चिन्‍ता में स्‍थान नहीं था। विशेषत: इसलिए कि उनका दर्शन भी औद्योगिक क्रान्ति का प्रतिफल था।

”मार्क्‍स विचार का आधार भौतिक मानते हैं, चित्‍त या चेतना पदार्थ से पैदा होती है। इस पर उपनिषद की एक कथा है, अब इस समय तो मुझे ऋषि का नाम भूल रहा है, जिनके पास ब्रह्म को जानने संभवत: उनका पुत्र ही पहुंचता है और वह बताते हैं कि अन्‍न ही ब्रह्म है। उसे विश्‍वास नहीं होता तो वह उसे आदेश देते हैं, इतने दिनों तक बिना आहार के रह। वह उतने दिनों के बाद हतचेत हो जाता है। पूछते हैं, कुछ समझ में आता है और वह अचेत बना रहता है, फिर उसे आहार के बाद आने को कहते हैं और अब उसकी बुद्धि काम करने लगती है, पूछते हैं बात समझ में आई चेतना के लिए अन्‍न जरूरी है। परन्‍तु कथा यहीं समाप्‍त नहीं होती। इससे आगे क्‍या उसकी सिद्धि के बाद और क्‍या की जिज्ञासा बनी रहती है। अर्थात् भौतिक अावश्‍यकताअों की पूर्ति के बाद आत्मिक उत्‍थान। यह बात बार बार दूसरे मनीषियों द्वारा भी दुहराई जाती है, शरीरं आद्यं खलु धर्म साधनम्। पहले भौतिक आवश्‍यकताओं की पूर्ति और फिर उसके बाद मानव जीवन को सार्थक करने वाले समस्‍त आयोजन। तुम जानते हो, धर्म की हमारी परिभाषा है उस विशिष्‍टता को प्रमाणित करना है जो उससे अपेक्षित है। अग्नि का धर्म है दाहकता और जल की क्‍लेदता, यदि अग्निवत या जलवत दिखने वाला कोई पदार्थ इन अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं कर पाता तो वह आग या जल है ही नहीं।”

अब उसका संयम जवाब दे गया, ”‍भिगोने का काम तो तेल और तेजाब और पेट्रोल भी करते हैं, इनको जल कहोगे।”

”देखो, यह अलग समस्‍या है और इसके लिए जिस स्‍तर का ज्ञान अपेक्षित है वह तुम्‍हारे धुरन्‍धरों में भी न मिलेगा। परन्‍तु यदि तुमको पता हो कि तेल का मतलब भी पानी होता है, यह मुझे अपने पार्क के माली से पता चला था। मैंने पौधों को पानी देने में कोताही पर उसे टोका तो उसने खुरपी से मिट्टी को कुरेदा और कहा, ”ताऊ यामे घणों तेल है।” और जानते हो नून का अर्थ भी पानी होता है, और बच्‍चों की मूत्रेन्द्रिय को नूनी कहा जाता है, घी का, पय का, अम़त का भी अर्थ पानी होता है। इसलिए क्‍लेद्यता को पानी का गुण बताया, पिपासा बुझाने की शक्ति को नहीं। अब आगे से चुप रहना, अन्‍यथा जो कहना अधिक जरूरी है वह कहने से रह जाएगा।”

वह अनुशासित बालक की तरह इस तरह शान्‍त हो गया जिस शान्ति में कान पकड़ने का बिंब भी प्रकट होता था।

”दूसरे सभी मतों की पड़ताल करो। सभी में आता है मत पहले, जीवन बाद में। यहां मिलता है, धन से धर्म होता है और उससे भौतिक अावश्‍यकताओं की पूर्ति होती है – धनात् धर्मं ततो सुखम्।

”यह कोई बाद का या गढ़ा हुआ सिद्धान्‍त नहीं है । ऋग्‍वेद में आता है न सोमं अप्रता पपे, सोम धर्मसाधना का प्रतीक है यहाँ, अप्रता का अर्थ है धनहीन । यह इतना पुराना विश्‍वास है कि तुम इसके युग के बौद्धिक उत्‍कर्ष और विमर्श को समझ ही नहीं सकते। तुमने तो इस डर से कि कहीं इसे जानने के साथ पुरातनपंथी न हो जाओ, न तो उस भाषा को सीखा, न उसके साहित्‍य को जाना। उल्‍टे अपने अज्ञान की पूजा और उसकी समृद्धि से नफरत करने लगे और नफरत का प्रचार करने लगे।”

”रात देर से सोया था । ऑंखें झपक रही हैं।”

”तब फिर मैंने जो कहा उसे तुमने सुना भी क्‍या होगा । अभी तो पूरी बात कह भी नहीं पाया था। आज जल्‍दी सो जाना और कल साथ में ऑंख गीली करने के लिए पानी भी लेते आना । चलो, अब कुछ कहने से क्‍या फायदा ।”

Post – 2016-08-11

”यदि तू सचमुच मार्क्‍सवादी है, तो मरने को कोई दूसरी जगह नहीं मिली थी। सनातनियों के बीच जा मरा। वहां तो लोगों के सिकुड़े हुए सीने भी छप्‍पन इंच के हो जाते है, तुम्‍हारा भी हौसला बुलन्‍द हो, यह स्‍वाभाविक है।”

”मरने की जगह तो तैयार करते रहे हो तुम लोग। मरने के और मारने के कितनी हत्‍यायें की हैं और कितने रूपों में कितनी संस्‍थाओं, परंपराओ और मूल्‍यों का विनाश किया है इसकी तालिका तैयार करुँ तो देख कर घबरा जाओगे। लेकिन, मैं इसे नहीं करूँगा। मैं तुम्‍हारी गन्‍दगी साफ करने न जाऊँगा और तुम अपनी गन्‍दगी से बाहर आ कर जिन्‍दा नहीं रह पाओगे। दोस्‍ती के नाते मै यह सुझाव जरूर देना चाहूँगा कि जिन्‍दगी भर हिन्‍दी पढ़ाते रहे हो, उसके मुहावरों का अर्थ समझा करो और यह भी समझा करो कि कि इसका संचार मूल्‍य क्‍या है। गनीमत है उस आदमी ने यह नहीं कहा कि ऐसा करने के लिए पत्‍थर का कलेजा चाहिए, नहीं तो गली गली में शोर मचाते फिरते कि इस आदमी का कलेजा पत्‍थर का है। खैर मैं उधर नहीं मुड़ूंगा क्‍योंकि मैं तुम्‍हें यह बताना चाहता था कि मार्क्‍स के जन्‍म से चार हजार साल पहले हमने उस समाज की कल्‍पना की और उस दिशा में चलने के प्रयत्‍न करते रहे जिसे संभव बनाने के लिए मार्क्‍स खून बहाने तक को तैयार थे, लेकिन वह खून बहाने के शौकीन न थे।”

”हद हो गई यार । तुम्‍हें बरदाश्‍त करना मुश्किल है। एक बार कहा था, ईसा मसीह के विचार भारत से प्रेरित थे और आज कह रहे हो मजहब को अफाम बनाने वाले के विचार तुम्‍हारे सनातनधर्म से प्रेरित थे। इतना और करो, मेरे कहने से इतना और मान लो कि रक्‍तक्रान्ति का विचार भारत में प्रचलित नरबलि से पैदा हुआ होगा।”

”नरबलि किसी सुदूर अतीत में प्रचलित रही होगी, परन्‍तु हम जिस सनातन की बात कर रहे हैं वह रक्‍त से दूध की ओर बढ़ी थी। दूसरी संस्‍यताओं में पशु का एक ही उपयोग था उसका मांसाहार। चीन हो या मध्‍येशिया, या यूरोप सभी का हाल यही था, जानवरों को घेर कर पकड़ना, अधिक हाथ लग गए तो बचे हुओं को अगले दिनों के लिए बाँध रखना। अकेला भारत था जिसने वह क्रान्ति की जिसे डेयरी फार्मिंग या दूध और दूध के उत्‍पाद के महत्‍व को इतने पहले समझा और इसके हड़प्‍पा सभ्‍यता के विदेशी उपकेन्‍द्रों के माध्‍यम से संपर्क में आने वाले देशों ने समझा। इससे बाहर आज भी पशु का वहीं उपयोग है और जिन देशों ने कुछ सीखा जाना, उन्‍हें भी दूध उत्‍पाद उतने रूपों में भी नहीं मिलते न उतने चाव से उनका सेवन होता है।”

”तुम बोलते जाओ, अब मैं टोकूंगा नहीं, और तुम्‍हारा यह प्रशस्तिगान ही तुम्‍हारी मूर्खता का अमर दस्‍तावेज बनता जाएगा। जो कुछ दुनिया में है वह सब हमी से है, हमारी ही भाषा के विकृत रूप पूरी दुनिया में बोले जाते हैं, हमारे ही पूर्वजों की सन्‍ताने पूरी दुनिया में छा गईं, देवता इस धरती पर जन्‍म लेने के लिए तरसते रहे हैं क्‍योंकि मोक्ष की प्राप्ति केवल इस देश में तप करके संभव है, जगत की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा यहीं कमलदल के ऊपर पालथीमारे उतराए थे, इस तरह की गलतफहमियां हजार दो हजार साल पहले ठीक न भी लगती रही हों तो उस चरण को देखते सहन की जा सकती थीं, परन्‍तु आज के दिन अगर कोई कहे कि सब कुछ हमी से है तो उसे कोई पागलखाने में भी रखने को तैयार न होगा।”

”दहशत निकल गई । अब मन स्थिर हो चुका हो तो ध्‍यान से सुनो और कुछ सीख सको तो सीखो। तुम लोग किसी भी विकास की मूल भूमि भारत देखते ही क्‍यों इतने विक्षिप्‍त हो जाते हो कि उसके साथ बहुत सारी अनर्गल बातों को जोड़ कर उसे सिरे से नकारने लगते हो। मैं सिर्फ एक चीज की बात कर रहा था अहिंसा का विचार ओर समस्‍त मानवता के कल्‍याण के विचारों का जनक यह देश है और भौतिक आविष्‍कारों की तरह ही वैचारिक आविष्‍कार भी धीरे धीरे दूर तक अपनी राह बना लेते हैं और राहें अदृश्‍य हो जाएँ तो प्रत्‍यक्ष संबंध देखना कठिन होता है। ईसा का अहिंसा का विचार, अपरिग्रह का विचार भारतीय है और उनके व्‍यक्तित्‍व और चिन्‍तन के विकास में भारत का हाथ है यह हम नहीं उनका ही पुराण कहता है जिसमें पूर्व के अत्‍यन्‍त बुद्धिमान मागियों या मगों के उनके जन्‍म के समय पहुंचने के रूप में बचा रह गया है जिसका हवाला भी मैने दिया था। मनुष्‍य मात्र को अभाव से मुक्‍त होने या करने का संकल्‍प भी बहुत पुराना है। वह एक दो इबारतो में, जैसे सर्वे भवन्‍तु सुखिन: सर्वे सन्‍तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्‍यन्‍तु मा कश्चित् दुख भाग्‍भवेत मे ही नहीं व्‍यक्‍त है, यद्यपि यह कामना मार्क्‍सवाद की भूमिका कही जा सकती है और इसी में मार्क्‍स के समस्‍त स्‍वप्‍न को मूर्त देखा जा सकता है। यह विचार किसी अन्‍य समाज में उस पुराने चरण पर व्‍यक्‍त हुआ हो इसकी जानकारी मुझे नहीं है, यदि तम्‍हें हो तो तुम मेरी मदद कर सकते हो।”

उसने कुछ कहने के लिए जानीवाकर जैसी मुद्रा अपनाई। मैंने कहा, ”बीच में मत टोको । सुनते जाओ। यही स्‍वर उस कथन में है धरती पर जितने प्राणी हैं उन सभी में उसी परमेश्‍वर का निवास है, इसलिए अपने दूसरों के लिए भी बचा रहे ऐसा सोचते हुए वस्‍तुओं का उपभोग करो और दूसरो के प्राप्‍य का लोभ मत करो। अपरिग्रह की भावना में भी यह है। विश्‍व की समस्‍त संपदा समस्‍त प्राणिजगत की है। इतना ऊँचा आदर्श किसी ऐसे भौतिकवादी के लिए अकल्‍पनीय था जिसकी चिन्‍ता केवल मनुष्‍य तक सीमित रहती है इसलिए भौतिक और जैविक परिवेश का जब तक मनुष्‍य के लिए विनाशपर्यन्‍त उपयोग हो, मार्क्‍स की चिन्‍ता में वह नहीं आ सकता था। विशेषत: इसलिए कि उनका दर्शन भी औद्योगिक क्रान्ति का प्रतिफल था।

मार्क्‍स विचार का आधार भौतिक मानते हैं, चित्‍त या चेतना पदार्थ से पैदा होती है। इस पर उपनिषद की एक कथा है, अब इस समय तो मुझे ऋषि का नाम भूल रहा है, जिनके पास ब्रह्म को जानने संभवत: उनका पुत्र ही पहुंचता है और वह बताते हैं कि अन्‍न ही ब्रह्म है। उसे विश्‍वास नहीं होता तो वह उसे आदेश देते हैं, इतने दिनों तक बिना आहार के रह। वह उतने दिनों के बाद हतचेत हो जाता है। पूछते हैं, कुछ समझ में आता है और वह अचेत बना रहता है, फिर उसे आहार के बाद आने को कहते हैं और अब उसकी बुद्धि काम करने लगती है, पूछते हैं बात समझ में आई चेतना के लिए अन्‍न जरूरी है परन्‍तु कथा यहीं समाप्‍त नहीं होती। इससे आगे क्‍या उसकी सिद्धि के बाद और क्‍या अर्थात् भौतिक अावश्‍यकताअों की पूर्ति के बाद आत्मिक उत्‍थान। यह बात बार बार दूसरे मनीषियों द्वारा भी दुहराई जाती है, शरीरं आद्यं खलु धर्म साधनम्। पहले भौतिक आवश्‍यकताओं की पूर्ति और फिर उसके बाद मानव जीवन को सार्थक करने वाले समस्‍त आयोजन। तुम जानते हो, धर्म की हमारी परिभाषा है उस विशिष्‍टता को प्रमाणित करना जो उससे अपेक्षित है। अग्नि का धर्म है दाहकता और जल की क्‍लेदता, यदि अग्निवत या जलवत दिखने वाला कोई पदार्थ इन अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं कर पाता तो वह आग या जल है ही नहीं।”

अब उसका संयम जवाब दे गया, ”‍भिगोने का काम तो तेल और तेजाब और पेट्रोल भी करते हैं, इनको जल कहोगे।”

”देखो, यह अलग समस्‍या है और इसके लिए जिस स्‍तर का ज्ञान अपेक्षित है वह तुम्‍हारे धुरन्‍धरों में भी न मिलेगी। परन्‍तु यदि तुमको पता हो कि तेल का मतलब भी पानी होता है, यह मुझे अपने पार्क के माली से पता चला था। मैंने पौधों को पानी देने में कोताही पर उसे टोका तो उसने खुरपी से मिट्टी को कुरेदा और कहा, ”ताऊ यामे घणों तेल है।” और जानते हो नून का अर्थ भी पानी होता है, घी का पय का अम़त का भी अर्थ पानी होता है। इसलिए क्‍लेद्यता को पानी का गुण बताया, पिपासा बुझाने की शक्ति को नहीं। अब आगे से चुप रहना, अन्‍यथा जो कहना अधिक जरूरी है वह कहने से रह जाएगा।”

वह अनुशासित बालक की तरह इस तरह शान्‍त हो गया जिस शान्ति में कान पकड़ने का बिंब भी प्रकट होता था।

”दूसरे सभी मतों की पड़ताल करो। सभी में आता है मत पहले, जीवन बाद में। यहां मिलता है, धन से धर्म होता है और उससे भौतिक अावश्‍यकताओं की पूर्ति होती है – धनात् धर्मं ततो सुखम्।

”यह कोई बाद का या गढ़ा हुआ सिद्धान्‍त नहीं है । ऋग्‍वेद में आता है न सोमं अप्रता पपे, सोम धर्मसाधना का प्रतीक है यहाँ, अप्रता का अर्थ है धनहीन । यह इतना पुराना विश्‍वास है कि तुम इसके युग के बौद्धिक उत्‍कर्ष और विमर्श को समझ ही नहीं सकते। तुमने तो इस डर से कि कहीं इसे जानने के साथ पुरातनपंथी न हो जाऊँ न तो उस भाषा को सीखा न उसके साहित्‍य को जाना। उल्‍टे अपने अज्ञान की पूजा और उसकी समृद्धि से नफरत करने और नफरत का प्रचार करने लगे।”

”रात देर से सोया था । ऑंखें झपक रही हैं।”

”तब फिर मैंने जो कहा उसे तुमने सुना भी क्‍या होगा । अभी तो पूरी बात कह भी नहीं पाया था। आज जल्‍दी सो जाना और साथ में ऑंख गीली करने के लिए पानी भी लेते आना । चलो, अब कुछ कहने से क्‍या फायदा ।