निदान – 17
भारतीय भावभूमि और मार्क्सवाद
कहने को बहुत कुछ है अगर आप सुनें तो
हम रो कर अपना हाल बताया नहीं करते ।
”यदि तू सचमुच मार्क्सवादी है, तो मरने को कोई दूसरी जगह नहीं मिली थी। सनातनियों के बीच जा मरा। वहां तो लोगों के सिकुड़े हुए सीने भी छप्पन इंच के हो जाते है, तुम्हारा भी हौसला बुलन्द हो, यह स्वाभाविक है।”
”मरने की जगह तो तैयार करते रहे हो तुम लोग। मरने के और मारने के। कितनी हत्यायें की हैं, और कितने रूपों में, कितनी संस्थाओं, परंपराओ और मूल्यों का विनाश किया है, इसकी तालिका तैयार करुँ तो देख कर घबरा जाओगे। लेकिन, मैं इसे नहीं करूँगा। मैं तुम्हारी गन्दगी साफ करने न जाऊँगा और तुम अपनी गन्दगी से बाहर आ कर जिन्दा नहीं रह पाओगे। दोस्ती के नाते मै यह सुझाव जरूर देना चाहूँगा कि जिन्दगी भर हिन्दी पढ़ाते रहे हो, उसके मुहावरों का अर्थ समझा करो और यह भी समझा करो कि कि इसका संचार मूल्य क्या है। गनीमत है उस आदमी ने यह नहीं कहा कि ऐसा करने के लिए पत्थर का कलेजा चाहिए, नहीं तो गली गली में शोर मचाते फिरते कि इस आदमी का कलेजा पत्थर का है। खैर मैं उधर नहीं मुड़ूंगा, क्योंकि मैं तुम्हें यह बताना चाहता था कि मार्क्स के जन्म से चार हजार साल पहले हमने उस समाज की कल्पना की और उस दिशा में चलने के प्रयत्न करते रहे, जिसे संभव बनाने के लिए मार्क्स खून बहाने तक को तैयार थे, लेकिन वह खून बहाने के शौकीन न थे।”
”हद हो गई यार । तुम्हें बरदाश्त करना मुश्किल है। एक बार कहा था, ईसा मसीह के विचार भारत से प्रेरित थे और आज कह रहे हो मजहब को अफीम मानने वाले के विचार तुम्हारे सनातनधर्म से प्रेरित थे। इतना और करो, मेरे कहने से इतना और मान लो कि रक्तक्रान्ति का विचार भारत में प्रचलित नरबलि से पैदा हुआ होगा।”
”नरबलि किसी सुदूर अतीत में प्रचलित रही होगी, परन्तु हम जिस सनातन की बात कर रहे हैं वह रक्त से दूध की ओर बढ़ी थी। दूसरी संस्यताओं में पशु का एक ही उपयोग था, उसका मांसाहार। चीन हो या मध्येशिया, या यूरोप सभी का हाल यही था, जानवरों को घेर कर पकड़ना, अधिक हाथ लग गए तो बचे हुओं को अगले दिनों के लिए बाँध रखना। अकेला भारत था जिसने वह क्रान्ति की जिसे डेयरी फार्मिंग या दूध और दूध के उत्पाद के महत्व को इतने पहले समझा और इसके हड़प्पा सभ्यता के विदेशी उपकेन्द्रों के माध्यम से संपर्क में आने वाले देशों ने समझा। इससे बाहर आज भी पशु का वहीं उपयोग है और जिन देशों ने कुछ सीखा जाना, उन्हें भी दूध उत्पाद उतने रूपों में भी नहीं मिलते न उतने चाव से उनका सेवन होता है।”
”तुम बोलते जाओ, अब मैं टोकूंगा नहीं, और तुम्हारा यह प्रशस्तिगान ही तुम्हारी मूर्खता का अमर दस्तावेज बनता जाएगा। जो कुछ दुनिया में है वह सब हमी से है, हमारी ही भाषा के विकृत रूप पूरी दुनिया में बोले जाते हैं, हमारे ही पूर्वजों की सन्ताने पूरी दुनिया में छा गईं, देवता इस धरती पर जन्म लेने के लिए तरसते रहे हैं क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति केवल इस देश में तप करके संभव है, जगत की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा यहीं कमलदल के ऊपर पालथीमारे उतराए थे, इस तरह की गलतफहमियां हजार दो हजार साल पहले ठीक न भी लगती रही हों तो, उस चरण को देखते, सहन की जा सकती थीं, परन्तु आज के दिन अगर कोई कहे कि सब कुछ हमी से है तो उसे कोई पागलखाने में भी रखने को तैयार न होगा।”
”दहशत निकल गई । अब मन स्थिर हो चुका हो तो ध्यान से सुनो और कुछ सीख सको तो सीखो। तुम लोग किसी भी विकास की मूल भूमि भारत देखते ही क्यों इतने विक्षिप्त हो जाते हो कि उसके साथ बहुत सारी अनर्गल बातों को जोड़ कर उसे सिरे से नकारने लगते हो। मैं सिर्फ एक चीज की बात कर रहा था, अहिंसा का विचार ओर समस्त मानवता के कल्याण के विचारों का जनक यह देश है, और भौतिक आविष्कारों की तरह ही वैचारिक आविष्कार भी धीरे धीरे दूर तक अपनी राह बना लेते हैं और राहें अदृश्य हो जाएँ तो प्रत्यक्ष संबंध देखना कठिन होता है। ईसा का अहिंसा का विचार, अपरिग्रह का विचार भारतीय है और उनके व्यक्तित्व और चिन्तन के विकास में भारत का हाथ है यह हम नहीं उनका ही पुराण कहता है जो पूर्व के अत्यन्त बुद्धिमान मागियों या मगों के उनके जन्म के समय पहुंचने के रूप में बचा रह गया है जिसका हवाला भी मैने दिया था।
” मनुष्य मात्र को अभाव से मुक्त करने का संकल्प भी बहुत पुराना है। वह एक दो इबारतो में, जैसे सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख भाग्भवेत मे ही नहीं व्यक्त है, यद्यपि यह कामना मार्क्सवाद की भूमिका कही जा सकती है और इसी में मार्क्स के समस्त स्वप्नों को मूर्त देखा जा सकता है। यह विचार किसी अन्य समाज में उस पुराने चरण पर व्यक्त हुआ हो इसकी जानकारी मुझे नहीं है, यदि तम्हें हो तो तुम मेरी मदद कर सकते हो।”
उसने कुछ कहने के लिए जानीवाकर जैसी मुद्रा अपनाई। मैंने कहा, ”बीच में मत टोको । सुनते जाओ। यही स्वर उस कथन में है कि धरती पर जितने प्राणी हैं उन सभी में उसी परमेश्वर का निवास है, इसलिए दूसरों के लिए भी बचा रहे ऐसा सोचते हुए वस्तुओं का उपभोग करो और दूसरो के प्राप्य का लोभ मत करो। अपरिग्रह की भावना में भी यह है।
”विश्व की समस्त संपदा समस्त प्राणिजगत की है। इतना ऊँचा आदर्श किसी ऐसे भौतिकवादी के लिए अकल्पनीय था जिसकी चिन्ता केवल मनुष्य तक सीमित रहती है इसलिए भौतिक और जैविक परिवेश का जब तक मनुष्य के लिए विनाशपर्यन्त उपयोग हो, मार्क्स की चिन्ता में स्थान नहीं था। विशेषत: इसलिए कि उनका दर्शन भी औद्योगिक क्रान्ति का प्रतिफल था।
”मार्क्स विचार का आधार भौतिक मानते हैं, चित्त या चेतना पदार्थ से पैदा होती है। इस पर उपनिषद की एक कथा है, अब इस समय तो मुझे ऋषि का नाम भूल रहा है, जिनके पास ब्रह्म को जानने संभवत: उनका पुत्र ही पहुंचता है और वह बताते हैं कि अन्न ही ब्रह्म है। उसे विश्वास नहीं होता तो वह उसे आदेश देते हैं, इतने दिनों तक बिना आहार के रह। वह उतने दिनों के बाद हतचेत हो जाता है। पूछते हैं, कुछ समझ में आता है और वह अचेत बना रहता है, फिर उसे आहार के बाद आने को कहते हैं और अब उसकी बुद्धि काम करने लगती है, पूछते हैं बात समझ में आई चेतना के लिए अन्न जरूरी है। परन्तु कथा यहीं समाप्त नहीं होती। इससे आगे क्या उसकी सिद्धि के बाद और क्या की जिज्ञासा बनी रहती है। अर्थात् भौतिक अावश्यकताअों की पूर्ति के बाद आत्मिक उत्थान। यह बात बार बार दूसरे मनीषियों द्वारा भी दुहराई जाती है, शरीरं आद्यं खलु धर्म साधनम्। पहले भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति और फिर उसके बाद मानव जीवन को सार्थक करने वाले समस्त आयोजन। तुम जानते हो, धर्म की हमारी परिभाषा है उस विशिष्टता को प्रमाणित करना है जो उससे अपेक्षित है। अग्नि का धर्म है दाहकता और जल की क्लेदता, यदि अग्निवत या जलवत दिखने वाला कोई पदार्थ इन अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं कर पाता तो वह आग या जल है ही नहीं।”
अब उसका संयम जवाब दे गया, ”भिगोने का काम तो तेल और तेजाब और पेट्रोल भी करते हैं, इनको जल कहोगे।”
”देखो, यह अलग समस्या है और इसके लिए जिस स्तर का ज्ञान अपेक्षित है वह तुम्हारे धुरन्धरों में भी न मिलेगा। परन्तु यदि तुमको पता हो कि तेल का मतलब भी पानी होता है, यह मुझे अपने पार्क के माली से पता चला था। मैंने पौधों को पानी देने में कोताही पर उसे टोका तो उसने खुरपी से मिट्टी को कुरेदा और कहा, ”ताऊ यामे घणों तेल है।” और जानते हो नून का अर्थ भी पानी होता है, और बच्चों की मूत्रेन्द्रिय को नूनी कहा जाता है, घी का, पय का, अम़त का भी अर्थ पानी होता है। इसलिए क्लेद्यता को पानी का गुण बताया, पिपासा बुझाने की शक्ति को नहीं। अब आगे से चुप रहना, अन्यथा जो कहना अधिक जरूरी है वह कहने से रह जाएगा।”
वह अनुशासित बालक की तरह इस तरह शान्त हो गया जिस शान्ति में कान पकड़ने का बिंब भी प्रकट होता था।
”दूसरे सभी मतों की पड़ताल करो। सभी में आता है मत पहले, जीवन बाद में। यहां मिलता है, धन से धर्म होता है और उससे भौतिक अावश्यकताओं की पूर्ति होती है – धनात् धर्मं ततो सुखम्।
”यह कोई बाद का या गढ़ा हुआ सिद्धान्त नहीं है । ऋग्वेद में आता है न सोमं अप्रता पपे, सोम धर्मसाधना का प्रतीक है यहाँ, अप्रता का अर्थ है धनहीन । यह इतना पुराना विश्वास है कि तुम इसके युग के बौद्धिक उत्कर्ष और विमर्श को समझ ही नहीं सकते। तुमने तो इस डर से कि कहीं इसे जानने के साथ पुरातनपंथी न हो जाओ, न तो उस भाषा को सीखा, न उसके साहित्य को जाना। उल्टे अपने अज्ञान की पूजा और उसकी समृद्धि से नफरत करने लगे और नफरत का प्रचार करने लगे।”
”रात देर से सोया था । ऑंखें झपक रही हैं।”
”तब फिर मैंने जो कहा उसे तुमने सुना भी क्या होगा । अभी तो पूरी बात कह भी नहीं पाया था। आज जल्दी सो जाना और कल साथ में ऑंख गीली करने के लिए पानी भी लेते आना । चलो, अब कुछ कहने से क्या फायदा ।”