Post – 2016-11-15

लोग गाडियों की सर्विसिंग साल दो साल मे कराते हैं, अपनी नहीं कराते 1 छोटी से छोटी शिकायत हाेने पर किसी हास्पिटल में भरती हो जाइए 1 बाकी ाक काम डाक्‍टर संभाल लेंगे । बाहर निकलने पर आप दो साल पीछे चले जाइएगा ।

Post – 2016-11-13

फैसले का दिन

कुछ घटनाएँ एक बड़ी खतरनाक योजना के तहत आरंभ की जाती हैं । वे बीच बीच में विचित्र रूपों में उजागर होती रहती हैं । इन्हें इतने आत्मविश्वास से संचालित किया जाता है कि लगता है जो कुछ िबल््कुल सही है, और स

Post – 2016-11-13

” तुम कल नमक की काला बाजारी और उसकी आड़ में हंगामा मचाने के समाचार के सन्दर््भ मेे टाटा का नाम लिया तो कहीं इनमें संबन्ध तो नहीं तलाश रहे थे ?”

यदि तुम्हें ऐसा लगा तो मुझे अपनी बात कहने मे में चूक हुई । पर चूक का भी अपना मनोविज्ञान होता है । टाटा के लिए मेरे मन में बहुत गहरा सम्मान है । पूरे टाटा परिवार के लिए िजतनी महान सेवा इस देश की टाटा परिवार ने की है िजतने समर्पित भाव से उन्होंने स्वयं सन्तों सी सादगी से जीते हुए देश के आर्थिक उत्थान के सपने देखे और उन्हें पूरा करने के लिए काम करते रहे वह अनन्य रहा है। भारत पर और भारतीयता पर जितना गहन अभिमान उस परिवार को रहा है, उतना कितनों को होगा ? वे भारत के पहले उद्योगपति हैं, पहले माडर्न उद्योगपति हैं जिन्होंने सोचा कि उनके मजदूरों को भी स्वस्थ वातावरण, शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य की और मानवीय गरिमा से जीने का अधिकार है । जिन दिनों यूनियनें खड़ी करना, हड़ताल कराना और उन्हीं मजदूरों से तोड़ फोड़ कर अपनी पार्टी की ताकत बढ़ाना निठल्ले कम्युनिस्टों का शौक हुआ करता उन दिनों भी किसी की हिम्मत नहीं हुई होगी कि किसी टाटा कंपनी में यूनियन बनाने ल का प्रस्ताव तक रखने में सफलता पाई हो । मैंने गोरखपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस और कलकत्ता शहर ही तब तक देखे थे । पहली बार जब जमशेदपुर देखा तो चकित । स्मार्ट सिटी की पूरी परिकलपना साकार ।

फिर भी जब कहा िक चूक का भी अपना मनोविज्ञान होता है तो इसिलए कि जब टाटा ने भी एक आयोजन में ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ मंच से असुरक्षा की भावना की बात की तो मैं घबरा गया । यह एकमात्र बयान था जो कहीं कुछ हो रहा है जो टाटा को अशोभन लग रहा है और इसमें प्रधान मंन्त्री की भूिमका भी लगती है ।

दो दिन बाद मिस्त्री की बरखास्तगी का एक पूरा नाटक िजसमें गुण-दोष का निर्णय करना मेरी समझ से बाहर हैं । समझ में इतना ही आसकता है कि मिस्त्री ने प्रधान मंत्री से समय मागा था । वह मिल भी चुके थे । उनके बाद टाटा ने अपना पक्ष रखने के लिए समय मांगा । तब तक प्रधानमंत्री विदेश यात्रा के लिए तैयार थे । उसी बीच राडिया टेप की बात भी आई थी।

ये ज्ञान और व्यवहार के ऐसे स्तरों की बातें हैं जिनकी गहराई से हम परिचित नहीं हैं, पर मन पर यह असर था कि यदि खीझ में टाटा भी नमक की आपूर्ति में थोड़ी सी शिथिलता बरत दी हो तो ? पर विचार के साथ ही इसका उससे अधिक जोर दार तमाचे की तरह लगा था, टाटा जैसा देशाभिमानी देश की जनता के साथ ऐसी गर्हित चाल नहीं चल सकता ।

वादी ने हार नहीं मानी, कहा वह तो सही है पर किसी वस्तु के पणन, प्रसाधन और वितरण के एकाधिकार की नीति सही नहीं है । इससे प्रतिस्पर्धा में कमी आती है, मुनाफाखोरी को बढ़ावा मिलता है और किन्ही स्थितियों में उसके न चाहते भी उसके वितरकों में से कोई वह शरारत कर सकता है जो इस बार किसी ने कर दिखाया था ।

वह हंसने लगा पर इस देश की जनता के लिए क्या कहोगे ?

बात अपने देश या पराए देश की नहीं है । मानव दुर्वलता की है । वह चाहता है कि यदि किसी चीज की कमी होने वाली है ताे दूसरे सभी को होजाय मुझे न हो । तो आपूर्ति में कमी या िवलंब लोग िबना जरूरत जमाखोरी पर आ जाते हैं और सारी चीजें बाजार से गायब हो जाती है और अकाल आरंभ हो जाता है । अब रसद के लूटपाट का आलम यह कि वह पुलिस की संभाल से बाहर चला जाता है । तुम्हें एक किस्सा सुनाता हूं । चीन की क्रांति हुई थी तब िवश्व मंदी के दौर से गुजर रहा था । नई व्यवस्था किसी को शासन का तजुर्बा न था । हर चीज का अभाव और हर चीज के लिए लम्बी क्यू । लोग यह जाने बिना कि जो चीज मिल रही है उसकी उन्हें जरूरत है या नहीं, क्यू मेंलग जाते ।

ऐसे ही में एक आदमी क्यूलगी देख कर खुश हो गया । चलो कुछ मिल तो रहा है । तीन चार घंटे बाद उसका नम्बर आया । खिड़की के परे बैठे क्लर्क ने पूछा, साइज ?

उसकी समझ में नहीं आया इसका क्या जवाब दे । उसकी परेशानी भांप कर क्लर्क ने कहा, यहां ताबूत बनाने के नम्बर िलखे चा रहें हैं । आप के मुर्दे का साइज कया है । उसकी पहली प्रतिक्रिया लौट चलने की हुई पर जब याद आया कि जरूरत पड़ने पर दुबारा इतनी लंबी क्यू में लगना होगा, उसने अपना साइज दे कर कर ताबूत बुक करा दी ।

Post – 2016-11-12

नमक की सही कीमत क्या है ?
वह सोच में पड़ गया । बेबसी मे मेरी ओर देखने लगा, हपर मैं कु कहूं इससे पहले ही उसे उत्तर सूझ गया, जान । नमक का माल अदा करने के लिए लोगों ने प्राण निछावर किए हैं ।
और किसी बहाने कोई नमक पर एकाधिकार कर लिया तो इसके माने ?
पूरे देश की जीवन धारा उसके हवाले कर देना ।
ठीक सोचा तुमने । गांधी जी जानते थे इस सत्य को इसलिए स्वतन्त्रता का सूत्र नमक आन्दोलन को बनाया । कांग्रेसियों में समझ अधिक थी, इसलिए जो बात टाटा की समझ में वह उनके किसी नेता की समझ में नहीं आई । संभव है नई सरकार की समझ में आ जाए ।

Post – 2016-11-11

‘लेकिन यार यदि यह अफवाह सच हुई तो हमारा क्‍या होगा ? जिसके जैसा पीएम दुश्‍मन देश के लोग भी अपने देश के लिए तलाश रह हों, उसे हटाने का अभियान हमने चुनाव परिणाम आने के दिन से ही छेड़ दिया आैर आज तक उसी पर डटे हुए है। या तो लोग हमें बुद्धिजीवी मानना छोड़़ देंगे या हमें बुद्धिजीविता नई परिभाषा गढ़नी होगी जिसमें देश भक्‍तों को बताना होगा कि दुश्‍मन देश का बुद्धिजीवी बुद्धिजीवी होता ही नहीं।’
‘तरीका तो ठीक है ।’
‘पर इसमें भी एक खतरा है । हम स्‍वयं कहते आए हैं कि कला और विचार की दुनिया सीमाओं से बंधी नहीं होती। भले वह देश अपना दुश्‍मन ही क्‍यों न हो। ऐसी हालत में लोग हमें क्‍या कहेंगे ?’
‘तुम उल्‍लू कहना चाहते हो ?’
‘नहीं, कठोर शब्‍दों से मुझे परहेज है । इसके लिए कोई नया शब्‍द तलाशना होगा। यह हमारा सबका साझे का काम है ।’

Post – 2016-11-11

”पाकिस्‍तान का पीएम कैसा हो ?”
”नरेन्‍द्र
”मोदी
”जैसा हो ।”
‘क्‍या तुमने यह धुन सुनी ?’
‘नहीं।’
‘सुनी तो मैंने भी नहीं यार ।’

Post – 2016-11-10

भारतीय मुसलमान और भारतीय बुद्धिजीवी – 7

साहित्‍य अकादमी लाइब्रेरी में सदा से सह व्‍यवस्‍था थी कि किताबोंं के वितरण और वापसी के डेस्‍क के निकट रेफरेस की पुस्‍तकें – विश्‍व कोश, कोश ग्रंथ आदि के सेल्‍फ हुआ करते थे। लाइब्रेरी तीन हिस्‍सों में विभाजित रही है – वाचनालय, आगे का हिस्‍सा जिसमें सबसे आगे अंग्रेजी साहित्‍य, अंग्रेजी में उपलब्‍ध वांग्‍मय जिसमें इतिहास, भाषाविज्ञान, विश्‍वभाषाअों की अंग्रेजी में अनुदित पुस्‍तकों आदि के रैक्‍स थे और उससे पीछे हिन्‍दी साहित्‍य और हिंदी में उपलब्‍ध वांग्‍मय । पीछे के साइड में संस्‍कृत सहित विभिन्‍न भारतीय भाषाओं के सेल्‍फ थे। इन्‍हीं में एक उर्दू भी थी। योजना की गुणवत्‍ता स्‍वत: स्‍पष्‍ट है । 2013 इसके लाइब्रेरियन एक मुस्लिम सज्‍जन बने जिनका नाम मुझ ठीक याद नहीं इसलिये शब्‍बीर अहमद मान लीजिए। उन्‍होंने आते ही पहला काम अरेंजमेंंट को बदलने का किया। अब अंग्रेजी के ठीक पीछे उर्दू और उसमें उतनी पुस्‍तकें तो थींं नहीं कि पीछे सेल्‍फों की कतारें भरी जा सकें, इसलिए उस जगह को भरने के लिए संस्‍कृत की पुस्‍तकों को पीछे से सामने लाया गया। इससे शब्‍बीर अहमद की मनोकामना पूरी होगई कि उर्दू सामने आ गई और हिन्‍दी बैकग्राउंड में चली गर्ई । प्रगतिशील आन्‍दोलन के आरंभ से आज तक मुस्लिम बौद्धि‍कों सोच और अभिव्‍यक्ति श्रव्‍य दृश्‍य माध्‍यमो से लेकर अश्रव्‍य और अदृश्‍य माघ्‍यमों तक यही रही है और इसी को हिन्‍दू वामपन्‍थी भी जोर शाेर से, उन्‍हीेें इबारतों मे दुहराते रहे हैं कि कहीं उन्‍हें हिन्‍दुत्‍ववादी न मान लिया जाय। लोगों ने अपने को सेक्‍युुलर सिद्ध करने के लिए बड़़ी कीमतें चुकाई है और आज भी चुकाते जा रहे हैं।
इसलिए अकेले शब्‍बीर अहमद को मैं इस निर्णय के लिए दोष देना उचित नहीं समझता। वह तो सेक्‍युलर धर्म का निर्वाह कर रहे थे। दुर्भाग्‍य से अभी तक काेई
सेक्‍युलर समझ का कोई लाइब्र
रिन अकादमी काे नसीब नहीं हुआ था । जो लोग इतिहास से ले कर वर्तमान तक के ऐसे अनुभवों से गुजरने वाले यह राय बना लेते हैं कि मुसलमान हाेता ही दगाबाज है,मेमने का मुखौटा लगाए रखने वाले मौका मिलते ही मुखौटा उतार कर भेडि़ए के तेवर में आ जाते हैं उनको मैं गलत नहीं मान सकता परन्‍तु इसमें उन परिस्थितियों को स्‍थान नहीं दिया जाता जिनमें इस स्‍वभाव का निर्माण होता है और उनमेंं बदलाव आने पर स्‍वभाव भी बदलता है।

Post – 2016-11-08

मिडिल स्कूल में मैंने दूसरी भाषा के रूप में उर्दू को चुना था। उर्दू की किताब का
नाम निगार उर्दू था। उसमें मुहम्‍मद साहब के जीवन पर एक नज्‍म थी। प‍हली पंक्ति भूल रहा हूंं अगली थी
वह नबी जिसका मुहम्‍मद नाम था
घर से जब मस्जिद को होता था रवां।
रास्‍ते में एक पड़ता था मकां ।
नामुहमडन उसमें रहता था कोई
जिसको थी उस नूरे हक से दुश्‍मनी ।
जमा कर रखता था कूड़ा घर का सब
फेकता था फर्कश: पर बेअदब ।
आग के वर्णन में आता है कि एक दिन उसने कुड़ा नहीं फेंका। मुहम्‍मद साहब को चिन्‍ता हुई कि आज माजरा क्‍या है। घर में गए और देखा कि वह एक बुढि़या थी। वह बीमार पड़ गई थी। उसकी देख भाल करने वाला काेई था । उन्‍होंंने उसकी तीमारदारी की और जब वह ठीक हो गई तो अपने पिछले कारनामें पर इतनी लज्जित हुई कि इस्‍लाम कबूल कर लिया। इस अहिंसा मार्ग की तुलना जब कुरान शरीफ के उन तमाम हवालों से क‍रता हूं जिनमें विधर्मियों का सर कलम करने के विधान है तो मेरी समझ में नहीं आता कि उनका वास्‍तविक चरित्र क्‍या था। इससे लगता है कि वह रक्‍तपिपाशु अरब समाज में अहिंसा और भाईचारा का वह दर्शर्न प्रचारित करना चाहते थे जो वहां के समाज को कबूल न था और इसलिए उनके इस मानवतावादी दर्शन कुरान को लिपि बद्ध करने वाला पचा नहीं सका था। उसने हिंसा और बलप्रयोग को कुरान का कार्यदर्शन बना दिया।
जैसे दूसरे विशाल ग्रन्‍थों मे पाया जाता है, उनकी पकृति धार्मिक हो या नहींं, सभी में कुछ मिलावट की गई है। कुर’आन केे विषय में तो जहां कोई असुविधाजनक स्थिति आए और उस विषय में उसे उद्धृत किया जाय तो मुसलमान ही यह कहते है कि यह प्रामाणिक संस्‍करण नहीं है या प्रामाणिक पाठ नहीं। यह एक ऐसा खुला रहस्‍य है कि इसे कोई भी लक्ष्‍य कर सकता है। मिसाल के लिए यह माना जाता है कि कुरान की आयतों का मुहम्‍मद साहब को अन्‍तर्ज्ञान या इलहाम हुआ था। परन्‍तु यह पुराने टेस्‍टामेंट के उन अंशों पर लागू नहीं हो सकता जिनको कुरान में समेट लिया गया। अब इसके दो भाग हो गए एक वह जिसका मुहम्‍मद साहब को इल्‍हाम हुआ था, एक वह जो उसके लेखकों सा संंपादको उसे भारी भरकम बनाने के लिए उसमें पुराणशास्‍त्र से सीधे ले कर भर दिया। इसका एक और पाठ बनता है मुहम्‍मद साहब के सामान्‍य स्‍वभाव से अनमेल पड़ने वाले अंश विशेषत: जो क्रूरता, दमन और असहिष्‍णुता प्रकट करते हैं, वे बाद के शासकों के आदेश से या वहां की रक्‍तपिपाशु संस्‍कृति के दबाव में अन्‍त:क्षेप था जिसके लिए बाद के लेखक उत्‍तर दायी माने जा सकते है।ये क्रूर विधान ‘खुदा बहुत क्षमाशील है की टेक से भी मेल नहीं खाते और मुहम्‍मद साहब के उस स्‍वभाव से भी जिसकी झलक ऊपर की नज्म में मिलती है।
अब प्रश्‍न उठता है कि कुर’आन को कब लिपिबद्ध किया गया और इसकी प्रतिलिपियां करने वालों ने चूक से या इरादतन क्‍या बदलाव किए कि कुर’आन के प्रामाणिक पाठ और अप्रामाणिक पाठ का सवाल उठाया जाता है। इसके विषय में इंटरनेट पर एक प्रश्‍नोत्‍तरी में जो विवरण मुझे पढ़ने को मिला वह निम्‍न प्रकार है:

There are three prevailing views concerning the compilation of the Qur`an:

1. It was compiled during the lifetime of the Prophet (ص). The compilation took place under his supervision—which is tantamount to divine inspiration—although he himself neither wrote the text of the Qur`an nor collected the verses directly.

2. The Qur`an that we have today was compiled by Imam ‘Ali b. Abi Talib (ع) after the Prophet’s death but before people finally accepted him as a caliph.

3. The Qur`an was compiled after the Prophet’s death by a handful of the Prophet’s companions (other than Imam ‘Ali b. Abi Talib (ع)).

Most Shi’i scholars—especially contemporary scholars—accept the first view. Some Shi’i scholars have taken the second stance. However, many Sunni scholars have accepted the third view. Orientalists have also accepted this view and have added that the Qur`an written by Imam ‘Ali b. Abi Talib (ع) was virtually ignored by the companions.

Obviously, on the basis of the first two opinions, the compilation of the Qur`an, its division into surahs (chapters), and the order within and among the surahs can be attributed to the divine will. In particular, based on the verse that reads,

Post – 2016-11-08

भारतीय मुसलमान और भारतीय बुद्धिजीवी – 6

हम जो कुछ भी करते या कहते हैं उससे पहले हमारे मन में यह स्‍पष्‍ट होना चाहिए कि हम क्‍या कर रहे हैं, इसे पूरा करने का साधन या वातावरण तैयार है या नहीं, और इसके क्‍या परिणाम होंगे। मोटी बात यह कि क्रिया से पहले सोच विचार जरूर हो। मन्‍त्रपूर्वा समारम्‍भा: ।

विफलता की स्थिति में या एक पिछड़े हुए समाज में लोग दूसरों काे गलत सिद्ध करके अपने को सही सिद्ध कर लेते हैं या इसका प्रयत्‍न करते हैं। दूसरों पर दोषारोपण करके अपने को सही सिद्ध करने से दूसरा गलत नहीं हो जाता, उसके पास भी अपने बचाने के लिए वैसे ही बहाने होते हैं। दोनों की नोकझोंक उस समय की बर्वादी है जिसमें वे उस विफलता के कारणों की पड़ताल करके उनसे भविष्‍य में बचने का तरीका निकाल सकते हैं। मुझे अपनी पिछली पोस्‍ट की सबसे बड़ी उपलब्धि यह लगी कि एक मुस्लिम अध्‍येता सबीह अहमद ने मुझे चुनौती दी कि मैं कुरआन शरीफ को पढ़ कर यह बताऊं कि उसमें मानवता के विरुद्ध क्‍या है। यह एक शुभ संकेत है कि चुप्‍पी की जगह बात तो आरंभ हो। वह कुरआन शरीफ से इतने अभिभूत हैं कि उन्‍हें उसमें कोई दोष दिखाई नहीं देता, मुझे बहुत सारे दोष दिखाई देते है।

हम प‍हले यह समझ लें कि हमारा देखना, सुनना, सोचना सब सेलेक्टिव होता है। अपनी आंखों के आगे के उस परिदृश्‍य को जिसे हमारा कैमरा देखता है, हमारी आंखें देखती तो है, परन्‍तु यदि उस समग्र को अपने अवधान बिन्‍दु में लायें तो हम बहुत कुछ देखते हुए भी कुछ देख न पाएंगे। यही हमारी श्रुति के साथ है। हमारे कान में एक ही समय में जितनी ध्‍वनियां पहुंंचती हैं उनमें से हम अपनी जरूरत के अंश को ही सुनते हैं, बाकी श्रवणग्राह्य कूड़ा होता है जिसकी ओर ध्‍यान तक नहीं देते। हम किसी विषय पर सोचते हुए उसके विषय में अधिकांश जानकारी को छांट कर अलग कर देते है। इस छंटाई में कभी कभी कुछ चूक भी होती है। कई बार तो ऐसा कि जो कथ्‍य था वह रह गया जो वागाडंबर था उसने सारा समय या सारी जगह घेर ली। इसे हम मानवीय बोध की सीमा मान सकते हैं और यह चतुर सुजान लोगों से ले कर मुझ जैसे बौड़म में भी पाया जाता है।

हिन्‍दू समाज और मुस्लिम समाज में अन्‍तर यह है कि हिन्‍दू समाज में तर्क के लिए जगह बची है। तर्क के लिए यह छूूट मामू अल रशीद ने दी थी और इस हद तक कि तर्क विरुद्ध बातों के लिए सार्वजनिक दंड दिया जाय। पर तर्कशास्‍त्री लाेगों ने तो अपने यहां भी स्‍वप्‍न, अध्‍यास या भ्रान्ति के सहारे ब्रह्म सत्‍यं जगन्मिथ्‍या सिद्ध कर ही दिया था। और यह काम शंकराचार्य जैसे उद्भट आचार्य ने किया था। जीवन निस्‍सार है, परलोक ही सार है यह विश्‍वास पैदा करने में आंशिक सफलता तो मिली ही है। जो बिधना ने लिख दिया छठी मास के अत, राई घटे न‍ तिल बढ़े रहु रे जीव निशंक। अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम । भगवान की मरजी के बिना एक पत्‍ता तक डोलता तो हवा धरी रह गई, पत्‍ती में कंपन पैदा करने वाला भगवान हो गया हवा तो उसी के प्रताप से बहती है। अपनी चिन्‍ता प्रणाली में इस तरह की तर्कविरुद्ध बातें जिस तरह हमें नहीं दिखाई देतीं, उसी तरह से सबीह अहमद को अपनी भक्तिधारा के कारण यह दिखाई नहीं दिया कि कुरआन शरीफ में कुछ बातें मानव द्रोही, कुछ नारी द्रोही और कुछ पर्यावरण द्रोही हो सकती हैं। इस पर चौंकने की जरूरत नहीं है समझने की जरूरत है।

यदि हमें वर्तमान गिरावट का बोध नहींं है तो जरूरी है यह बोध पैदा हो। यह समझ पैदा हो कि अब्‍बासी खलीफाओं के शासन में न्‍याय, मानवीय मूल्‍यों के साथ तार्किक असहमति के लिए छूट दी गई थी जिससे तीन शताब्दियों तक अरब विश्‍व सभ्‍यता के शिखर माने जाते थे तो ही हम अपनी प्रगति के रास्‍त तलाश सकते हैं । मै इस ओर ध्‍यान दिलाने की कोशिश कस्‍ंगर कि इस्‍लामी जगत किस गिरावट को पहुंच गया है कि यदि दयालु अल्‍लाह ने उसके बालू के नीचे संपदा का ऐसा भंडार दे दिया तो वह योग्‍यता क्‍यों न दी कि वह अपनी दौलत को संभाल पाता । उसे संभालने वाले दूसरे आ गए है जो असे लंबे अरसे तक जाहिल बना कर रखना और इस्‍लामी जलत मध्‍यकाल से बाहर निकलने ही नहीं देते। इसलिए यदि अपने भले की सोचना है तो उस हालत से बाहर निकलना होगा जिसमें घेर कर रखने के लिए कुरआन का इस्‍तेमाल किया जा रहा है।

हमारे मित्रों में काफी संख्‍या ऐसों की है जो समझते है यदि दूसरा गिरावट के दिनों से गुजर रहा है तो यही इस बात का प्रमाण है कि हमारी दशा अच्‍छी है। ऐसा है नहीं पर यह जबह उस पर बात करने की नहीं है इसलिए हम नीचे एक विवेचन परक लंबे लेख के एक अंश को यहां दे रहे हैं जिसकी रोशनी मुसलमान अपने हालात पर पुनर्विचार कर सकते हैं ।
Today, however, the spirit of science in the Muslim world is as dry as the desert. Pakistani physicist Pervez Amirali Hoodbhoy laid out the grim statistics in a 2007 Physics Today article: Muslim countries have nine scientists, engineers, and technicians per thousand people, compared with a world average of forty-one. In these nations, there are approximately 1,800 universities, but only 312 of those universities have scholars who have published journal articles. Of the fifty most-published of these universities, twenty-six are in Turkey, nine are in Iran, three each are in Malaysia and Egypt, Pakistan has two, and Uganda, the U.A.E., Saudi Arabia, Lebanon, Kuwait, Jordan, and Azerbaijan each have one.
There are roughly 1.6 billion Muslims in the world, but only two scientists from Muslim countries have won Nobel Prizes in science (one for physics in 1979, the other for chemistry in 1999). Forty-six Muslim countries combined contribute just 1 percent of the world’s scientific literature; Spain and India eachcontribute more of the world’s scientific literature than those countries taken together. In fact, although Spain is hardly an intellectual superpower, it translates more books in a single year than the entire Arab world has in the past thousand years. “Though there are talented scientists of Muslim origin working productively in the West,” Nobel laureate physicist Steven Weinberg has observed, “for forty years I have not seen a single paper by a physicist or astronomer working in a Muslim country that was worth reading.”
Comparative metrics on the Arab world tell the same story. Arabs comprise 5 percent of the world’s population, but publish just 1.1 percent of its books, according to the U.N.’s 2003 Arab Human Development Report. Between 1980 and 2000, Korea granted 16,328 patents, while nine Arab countries, including Egypt, Saudi Arabia, and the U.A.E., granted a combined total of only 370, many of them registered by foreigners. A study in 1989 found that in one year, the United States published 10,481 scientific papers that were frequently cited, while the entire Arab world published only four. This may sound like the punch line of a bad joke, but when Nature magazine published a sketch of science in the Arab world in 2002, its reporter identified just three scientific areas in which Islamic countries excel: desalination, falconry, and camel reproduction. The recent push to establish new research and science institutions in the Arab world — described in these pages by Waleed Al-Shobakky (see “Petrodollar Science,” Fall 2008) — clearly still has a long way to go.
Given that Arabic science was the most advanced in the world up until about the thirteenth century, it is tempting to ask what went wrong — why it is that modern science did not arise from Baghdad or Cairo or Córdoba. We will turn to this question later, but it is important to keep in mind that the decline of scientific activity is the rule, not the exception, of civilizations. While it is commonplace to assume that the scientific revolution and the progress of technology were inevitable, in fact the West is the single sustained success story out of many civilizations with periods of scientific flourishing. Like the Muslims, the ancient Chinese and Indian civilizations, both of which were at one time far more advanced than the West, did not produce the scientific revolution.
Nevertheless, while the decline of Arabic civilization is not exceptional, the reasons for it offer insights into the history and nature of Islam and its relationship with modernity. Islam’s decline as an intellectual and political force was gradual but pronounced: while the Golden Age was extraordinarily productive, with the contributions made by Arabic thinkers often original and groundbreaking, the past seven hundred years tell a very different story.

Post – 2016-11-06

भारतीय मुसलमान और भारतीय बुद्धिजीवी – 5

मैं आशावादी हूं पर आशावाद की अपनी सीमाएं हैं । जब मैं मुस्लिम समुदाय के साथ सद्भाव से रहने रहने की संभावनाओं पर जोर देता हूूं तो कुछ लोग मुस्लिम समुदाय का इतना डरावना चित्र पेश करते हैं जैसे वह मनुष्‍यों का समाज हो ही नहीं। मुसलमानों को इस बात पर शिकायत नहीं होनी चाहिए कि वे ऐसा सोच कर उनके प्रति अन्‍याय करते हैं क्‍योंकि उनमें जो बात बात पर कुरान और हदीस की दुहाई देते रहते हैं वे गैर मुसलमानों के बारे में ऐसा ही सोचते हैं। मेरी चिन्‍ता यह है कि मुसलमाान कुरान में रहेंगे तो हिन्‍दुस्‍तान में कैसे रह पाएंगे। हिन्‍दू यदि उन्‍हें बर्बर मान कर चलेंगे तो साथ कैसे रह पाएंगे। इसी से जुड़ा एक और सवाल है कि क्‍या मुस्लिम बुद्धिजीवियों की ही नहीं, अपने को सेक्‍युलर कहने वाले बुद्धिजीवियों की यह भूमिका नहीं बनती थी कि वे उनको शटअपनेस या बन्‍द दिमागी से बाहर लाने के बारे में सोच विचार करें । क्‍या वे जो कठमुल्‍लों से अधिक कठमुल्‍ले हैं वे इस्‍लामी परंपरा को भी समझने और उसकी सीमा में जो संभावनाएं हमें दिखाई देती हैं उन्‍हें टोहने का प्रयत्‍न कर सकते हैं। यदि अब तक न किया तो अब से या यदि वह भी न हो सके तो वे हमें, जो ऐसा प्रस्‍ताव रखना है, किसी दुश्‍चक्र या क्षुद्र समाजदृष्टि से ग्रस्‍त सिद्ध कर सकते हैं । य‍दि वे इतना भी करें तो मेरे लिए उनके विचारों का असाधारण मूल्‍य हुआ कि इसके साथ कम से कम हम गाली देने वाली भाषा से आगे बढ़ कर तर्क वितर्क तक तो आए ।

क्या यह सच हैै कि हदीस में कहीं इस बात का जिक्र है कि मुहम्म्द साहब या अरब हिन्दुस्तान को जन्ननतनिशां कहते थे ? मैंने यह बात पहली बार सैयद सुलेमान नदवी केे सन 1930 में हिन्दुहस्तािनी अकादमी में दिए गए उनके व्याख्यानों में पढ़ी थी जो भारत और अरब के संबंध के रूप में प्रकाशित हुई थी। फिर अरब व्यापारियों ने आदम्स ऐपल को उस स्थान के रूप में पहचाना जहां स्वार्ग से उतरने के बाद आदम ने जमीन पर पांव रखा था। मुहम्मनद साहब कहते थे पूरब से मीठी हवाएं आती हैं, और जैसा मैंने कहा, यह मीठी हवाएं यहां के ज्ञान और दर्शन का द्योतक है ऐसा मेरा खयाल है। मुहम्मद साहब का मानना था कि यदि ज्ञान चीन जैसे सुदूर देश से मिले तो उसे भी ग्रहण करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति का यह विचार न रहा होगा कि वह ज्ञान यदि कुरान में लिखी बातों से मेल खाए तभी उसे ग्रहण करना चाहिए। ऐसा सोचने वाला व्यक्ति ग्रंथागारों और शिक्षा संस्थानों को शैतानी ज्ञान का केन्द्र मान कर उसे जलाने का हामी नहीं हो सकता।

मुहम्मद साहब ने एक बहुत मजेदार फर्क किया जा ईसाई पापेसी में नहीं था यह मेरा अपना खयाल है जो गलत हो सकता है क्यों कि ऐसा उन्हों ने संभवत: कहीं लिखा नहीं, अपने मन के सभी विचारों को कोई लिख भी नहीं सकता। यह था जहां तक मजहबी या विश्वास के मामले हैं उसमें कुरान को मानो, जहां ज्ञान का प्रश्न‍ आता है आधुनिक और तर्क संगत ज्ञान को वह कहीं का भी हो और यदि वह कुरान की कास्माेलोजी या खगोलविद्या से अनमेल पड़े तब भी । मध्यकाल के ईसाई उन्मादियों ने ज्ञान और तर्क को मिटा दिया था, और इस पर गर्व भी प्रकट किया था यह हम देख आए हैं इसलिए वे तार्किकता के भी विरोधी थे।

उमैया ने धर्मसत्ता और राजसत्ताम हासिल करने के लिए मुहम्माद साहब में धेवतों हसन और हुसेन को धोखे से घेर कर कर्बला में मार डाला। पहले उन्हों ने कुछ लोगों से उन्हें कुछ विद्रोहियों के नाम से यह पैगाम भेजा कि वे आयें तो वे उनका साथ देंगे और ऐन मौके पर उनका साथ नहीं दिया, या यह एक साजिश थी जिसके वे शिकार हुए बल्कि उन्हें तड़पा कर मारा गया। यह क्रूरता यही तक सीमित न थी। इस्ला‍म को विचार के आधार पर फैलने की छूट देने की जगह तलवार के जोर से एक विशाल साम्राज्य कायम किया गया। उनकी राजधानी दमिश्कक थी और यहां से शासन करते या साम्राज्य विस्तार करते हुए वे 661 से 750 अर्थात नब्बे सालों में ही अरब के बाकी हिस्सों, ईराक, सीरिया, लेबनान, फिलिस्तीन, मिस्र, अफ्रीका के उत्तरी भाग, मध्य एशिया, स्पे न तक अपना विस्तार कर लिया और भारत तथा चीन के पड़ोस में पहुंच गए।

इस्लामी जगत में सभ्यता का आरंभ अब्बासी खलीफाओं के साथ आरंभ हुआ जिन्हों ने बगदाद को मेरे अनुमान से उसी रास्तेर पर आगे बढ़ाया जिसका पूर्वाभास मुहम्मद साहब के ऊपर के दोनों कथनों में मिलता है। यह भौगोलिक स्थिति के कारण भी हुआ और उनके दृष्टिकोण के कारण भी। बगदाद ईरान, बख्त्र जो ग्रीक प्रभाव में लंबे समय तक रहा था, और भारत के भी निकट था और उस वणिक्पथ से भी जुड़ जाता था जिसे सिल्‍क रूट कहा जाता है। यूरोप के लोगों को अरबों के माध्‍यम से जो कुछ भी मिला उसका स्रोत स्‍वाभाविक है कि वे अरब को मानते, अत: उनके लिए शून्य, दाशमिक अंक प्रणाली तक अरबी था, इसी तरह गणित, ज्योेतिष, चिकित्सा, ज्यामिति, त्रिमिति, दर्शन के भारतीय अवदान को भी वे नहीं समझ सकते थे। भारतीय विशेषज्ञों का एक शिष्ट‍मंडल अल मामू रशीद ने आमन्त्रित किया था और पूरब से आने वाली मीठी हवाओं को अरब ने अपना मालो जर बना लिया था इसलिए एक अर्थ में आधुनिक यूरोप की जड़ों में उस भारत का चिन्तन और ज्ञान बरास्ता अरब पहुंचा था।

सुनते हैं अलमंसूर के साथ ही ज्ञापपिपाशा को तलवार से अधिक महत्‍व‍ दिया जाने लगा। तलवार को वक्त जरूरत इस्तेमाल के लिए तो रखा पर अर ज्ञान की शक्ति को तरजीह दी। अल मंसूर कहते है मुहम्मपद साहब के चाचा के पोते थे और इस दृष्टि से वे उस परंपरा के अधिक विश्वससनीय वाहक हो सकते थे जिसकी योजना मुहम्मद साहब के मन में थी। अब्बासी खलीफाओं ने ज्ञान, विज्ञान, विमर्श के लिए और दूसरे देशों के ज्ञान को जुटाने और उनका अरबी में अनुवाद करने का, विचार स्वावतन्त्र्य का और उस ज्ञान संपदा पर आगे अनुसंधान और प्रयोग करने का जो अवसर दिया उससे विश्व सभ्यता का केन्द्रू बगदाद बना रहा और सबसे आधुनिक समाज अरबों का बना रहा जिसकी प्रेरणा से आधुनिक यूरोप का जन्‍म हुआ।

यूरोप के ज्ञान विज्ञान के नींव की एक एक ईंट अरबों से हासिल की गई थी और अरबों ने अपने ज्ञान और सभ्यता की नीव की एक एक ईंट भारत से ली थी परन्तु चरखा और कागज और रेशम बनाने की कला चीन से ली थी। अरबों ने उस नींव पर अपने ज्ञान के महल बनाए और यूरोप ने उन महलों को अपनी नींव में डाल लिया और उस पर गगनचु़ंबी शिखर बनाए। सच कहें तो उन्होंखने पहली बार संचित ज्ञान या इल्म को विज्ञान बनाया, उसे परिभाषित किया और जो भी उनके संपर्क में आया उसका दोहन तो किया पर लाभान्वित भी किया।

मेरी जो समझ बनती है, वह अधकचरी होते हुए भी यह है कि मुहम्मनद साहब के दृष्टिकोण के कारण अरब दुनिया के सबसे रौशनदिमाग लोग माने जाते थे। तार्किकता पर सुनते हैं अल मामू रशीद ने इस हद तक आग्रह किया कि यदि कोई तर्कविरोधी बात करे तो उसे सार्वजनिक रूप से कोड़ा मार कर दंडित किया जाय। यह वह दौर था जिसमें यदि तार्किक हों तो नास्तिक विचारों के लोगों का भी सम्मान हुआ करता था। शर्त यह कि तर्कपूर्ण ढंग से किसी बात का समर्थन किया जाय इब्ने सिना, ख्वारिज्मी, अलबरूनी, आदि दर्जनों चिन्तकों ने ज्ञान, दर्शन और तर्कशास्त्र को जो ऊंचाई दी उससे आधुनिक यूरोप का, उसकी आधुनिकता का जन्म हुआ इसे दबारा कहने की जरूरत है।

दुर्भाग्य से इन्हीं में एक दार्शनिक अल गजाली भी थे जाे अंधविश्वा‍स को तार्किक सिद्ध कर सकते थे। जिन्हें हम सुन्नी कहते हैं वे उमैया खलीफाओं की तौर तरीकों और अल गजाली के चिन्तन से प्रभावित हैं जिसमें तार्किकता के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता।

विज्ञान काे और कार्यकारण संबंध को अगर हम मान लें तो अल्लाह की जगह तो विज्ञान ले लेगा। इसलिए जो चीजें तर्क या कार्य-कारण की परिधि में आते हैं यदि उनकाे मान लिया गया तो इस्लााम ही खत्म हो जाएगा, इसलिए किसी भी घटना या क्रिया का उसके कारण से कोई संबंध नहीं। ये सब खुदा की मरजी से हैं। भूख लगती है और वह कुछ खाने से शान्त हो जाती है इसमें कोई तुक नहीं, दोनों में कोई संबंध नहीं। खुदा चाहेगा तो बिना कुछ खाए ही बंदे का पेट भर जाएगा। आग जलती है उससे गर्मी पैदा होती है, इसमें कोई संबंध नहीं, ये दोनों कार्य और कारण से जुड़ी बातें नहीं है, खुदा चाजे तो बिना आग के गर्मी पैदा हो सकती है।

खुदा परस्ती यदि इस सीमा तक पहुंच जाय तो क्या ऐसे समाज से कोई बात की जा सकती है। वे नेकदिल हो सकते हैं, समझदार नहीं। यह सोच कर मुझे घबराहट होती है। मेरा अब तक विश्वास कि बदलाव तो सभी में लाया जा सकता है, धराशायी हो जाता है। पर आशावादी बार बार धराशायी होने के बाद उठता है, सोचता है कि मैं क्यों गिरा था और आगे संभल कर चलता है।

मेरा यह ज्ञान बहुत अधूरा है, परिपक्व तो कहा ही नहीं जा सकता। बहुत से पहलू छूट गए हो सकते हैं। मुस्लिम विद्वानों में अधिकांश मेरी गलतियों पर हंस सकते हैं, पर क्या वे मुझे और मेरे पाठकों को यह समझाने की भी कोशिश कर सकते हैं कि गलती क्या है और इसे कहां से सुधारा जा सकता है।