देववाणी (सैंतीस)
पानी, आग और पत्थर (3)
हम कल, खल आदि पर विचार करें इससे पहले यह कहना चाहेंगे की हमें जलधाराओं में मिलने वाले शिलाखंडों को अपने क्षेत्र तक ढो कर लाने के क्रम में हुए प्रयोगो और विकासों के क्रम मे आविष्कृत दूसरे उपकरणों के रूप, आकार और क्रिया से जुडी शब्दावली की,
जिनकी अंतिम परिणति ठोस पहिया और विकसित रूप अरायुक्त चक्र था , उपेक्षा करते हुए चलने की विवशता है, अन्यथा विषयान्तर होने की समस्या आ जाएगी।.
हम उस प्रबुद्ध चरण पर आएं जब मनुष्य प्रकृति में अपने हस्तक्षेप से उत्पन्न ध्वनियों से भी नामकरण करने का साहस जुटा लेता है और उन ध्वनियों से जुड़े कार्यों, परिणामो और गुणों को के लिए शब्दावली का निर्माण करता है.
शिलाखंडों को तोड़ने से उत्पन्न ध्वनि का अनुकरण ‘कल’ और इसके उच्चारभेद (कड़, खड़, गड़, घड़) इसी चरण के द्योतक हैं. क्या आपने इस बात पर ध्यान दिया है कि जब आप कड़ा कहते हैं तो ‘पत्थर के समान’ और जब कठोर कहते हैं तो काठ की तरह, (भोजपुरी में कठोर हृदयवाले के लिए कठकरेज प्रयोग में आता है)। यही अन्तर कड़ाई, कड़क और कठिन, कठेस कठिनाई, सं- काठिन्यमें भी है । हम अभाव के लिए कड़का पड़ने की बात करते हैं तो आशय होता तो पत्थर से ही है, परन्तु यह किसान के उस अनुभव से जुड़ा शब्द है जिसमें ओले पड़ने से उसकी खड़ी फसल बर्वाद हो जाती है। ओले के लिए पत्थर या उपल का प्रयोग होता है, यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है।
हम तोड़ते है कुछ बनाने के लिए इसलिए टूटने वाले की ध्वनि उसी की संज्ञा नहीं बनती, वह टूटने की क्रिया को भी व्यक्त करती है और साथ निर्माण को भी। अब इस शब्दावली पर ध्यान दें: कल्प, कल्पना, कलन – जोड़ना, जो उपसगों के साथ आकलन, संकलन, विकलन, आदि उत्पन्न हैं। रोचक है कि विकलन की क्रिया या काट कर अलग करने की क्रिया से कलन और संकलन के लिए शब्द पैदा हो रहा है।
कल्पना का अर्थ खयालों में चीजें गढ़ने से नहीं है, गढ़ने और बनाने से था जिसका स्थान निर्माण ने ले लिया और कल्पना का मनोवैज्ञानिक पक्ष ही बचा रहा। इसी कल से कला,ए कल्याण या योग, जो तमिल में विवाह का सूचन और हमारे यहां मंगल कामना के रूप में प्रचलित है। यदि यह तय करना हो कि यह किसका शब्द है तो कहना होगा उन सबका जो बहुत प्राचीन काल से इनका व्यवहार करते आ रहे हैं। कारण हमारी अधिकांश प्राथमिक शब्दावली ऐसी है जिसकी जन्मकुंडली तैयार नहीं हो सकती। अब तमिल के निम्न शब्दों पर ध्यान देंः
कल् . पत्थर, रोड़ी, रोड़ा।
कलै . बिखरना, टूटनाए छितराना,
कल्लकम् – खलल
कल् / कल्लु – खोदना, तोड़ या खोद कर बाहर निकालना या बहा देना (Eng. cull out)
कल – मिलाना, मिश्रण करना, कलप्पु – मिश्रण कलकलक्कु – कलकलनाद कलै.- एक अंक, सोलहवां भाग ,
कल्लूरि. विद्यालयए महाविद्यालय।
कल्वम्. चक्कीके नीचे का पाट।
कल् . सीख, ज्ञानार्जन कर, पढ़।
कलैयोत . विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करना।
सौंदर्य और चमक और चमलीली धातु के आशय जो जलार्थक कल से व्युतपन्न हैं :
कलपम् – मोर का वर्ह, तु. कलापी
कळवुदम – चांदी, तु. कलधौत – सोना
कलशम् – कलश
कलम् – जलपात्र,
कलिपलि – खलबली,
फिर भी तमिल में कला का उन्नयन ज्ञान और विज्ञान के लिए हो गया है इसलिए इस बात की संभावना मानी जा सकती है कि यह शब्द उसने देवभाषा से ही लिया हो।
यदि कल से पहिया के लिए कोई शब्द बना होता तो हम यह कह सकते थे कि काल, और उसका वह रूप जो बीते हुए और आने वाले दिनों के लिए कल के रूप में हमारी भाषा में है, कल के पाषाणी स्रोत से निकला है, परन्तु ऐसा नहीं है और पत्थर में इससे भिन्न स्थिति में कोई गति नहीं होती इसलिए मानना होगा कि काल की अवधारणा जल के कल कल प्रवाह से जुड़ी है और हिन्दी पहल, पहले, पहला, पहेली की अवधारणा पहिए से और काल की गति के लिए जल प्रवाह की भूमिका है परन्तु तर्क के लिए कोई कह सकता है की जल में भी चक्कर या जलावर्त होता है जिसे आकार के अनुसार जमकातर, भंवर या भंवरी कहा जाता है, पर कुशल है की जलचक्र नहीं अतः हमारा दिमागी चक्कर, भ्रम, भ्रान्ति और छेड़ने के औजारों भ्रम (बरमा), भृमि (बर्मी) का सम्बन्ध इनसे ही है। परन्तु भ्रमण, घूम फिर कर वापस अपनी जगह लौट आना, क्या इसी से सम्बंधित है ? मैं इस पर कुछ कहने से बचना चाहूंगा, क्योंकि, यह शब्द प्रसंगवश आ गया। यह अवश्य कहा जा सकता है कि कालचक्र में जल और पाषाणी दोनों स्रोतों का योग है।
पाषाणी स्रोत स्वतः भी जल से चर सर से संबन्ध रखता परन्तु इसका सीधा संबंध जल से नहीं चक्र निर्माण से है।
परन्तु उस कालदेव का संबंध क्या दावाग्नि में कल कल (जिसे हम तड़, कड़ रूप में भी अनुनादित करते हैं), से नहीं है जो गुजरते ही नहीं हैं विनाश करते हैं, जिसके कारण प्रलय लाने वाले शिव के तीसरे नेत्र और उससे फूटने वाला ज्वाला की कल्पना की कई है और जिसके प्रभाव में कालदेव को सूर्य और उनके लोक को सूर्यप्रभ माना गया और उसकी सूर्यलोग या स्वरलोक या स्वर्ग के रूप में भी कल्पित किया गया – यत्र ज्योति अजस्रः यस्मिन लोके स्वर्हितः । हमें ऐसा लगता है कि इस काल की कल्पना दावाग्नि का काल्पनिक उत्कर्ष है।कहें काल की अवधारणा में कल के तीनों रूपों जल, पत्थर और आग का हाथ है।
क्या यह अच्छा न होगा कि हम कल को लेकर एकबार फिर कलह करें?
Month: May 2017
Post – 2017-05-18
देववाणी (छत्तीस)
पानी, आग और पत्थर (2)
ध्वनि ही शब्द बनती है इसका सबसे प्रबल प्रमाण यह है कि यदि कई वस्तुओं की अपनी भिन्न क्रियाओं से एक जैसी ध्वनि की प्रतीति हो तो वही ध्वनि उन क्रियाओं, वस्तुओं और उनसे किसी भी तरह का संबंध रखने वाली वस्तुओं, क्रियाओं, भावो, या विशेषताओं को मिलेगी ।
यदि भाषा पर हमारा वश चलता तो अर्थभेद के लिए इनमें अलगाव कर लेते। परन्तु ऐसा हो नहीं पाता है, क्योंकि यह विचार भी एक सीमा तक ही सही है कि शब्द लोक गढ़ता है, पूरा यच यह है कि शब्द अपने अर्थ के साथ हमारे सक्रिय जगत में उत्पन्न ध्वनिपरिवेश से पैदा होता है और हम उसकी पहचान करके उसे ग्रहण करते हैं। लोक भी शब्द निर्माण में स्वतन्त्र नहीं होता, पहले से चली आई भाषा संपदा से और अपने क्रियाव्यापार से उत्पन्न ध्वनि से निर्देशित होने के कारण इतनी सटीक अभिव्यक्तियां तैयार कर लेता है कि उनका आशय ग्रहण करने में किसी को कठिनाई नहीं होती। इस रहस्य को उद्घाटित करने में कल की ध्वनि बहुत उपयोगी है।
कल, खल, गल, घल ये पानी से भी उत्पन्न होने वाली ध्वनियां हैं। या हम कह सकते हैं कि कल ध्वनि को अपनी ध्वनियों की सीमा में घोषप्रेमी और महाप्राणप्रेमी समुदायों ने भी ग्रहण किया और जिस भाषा की ध्वनिव्यवस्था में उनके उसमें मिल कर एकमेक होने के कारण इन सभी का समावेश था उसमें इनके अर्थ में सूक्ष्मभेद भी किए गए जब कि जिन भाषाओं में ऐसा संभव न था उन्हें उन सभी अर्थों में अपनी ध्वनिसीमा में उनका प्रयोग किया जाता रहा और अर्थभेद, सन्दर्भभेद के अनुसार, किया जाता रहा।
हमारे पास इस समय तीन कल हैं।
1. जल की कलकल ध्वनि से उत्पन्न, जो सौन्दर्य, आर्द्रतायुक्त पदार्थों, उनके कार्यव्यापार से जुड़े लोगों, क्रियाओं, और उनकी विशेषताओं और भाववाचकों से जुड़ा है। उदाहरण के लिए जल – कल, कलश, कलछुल, कलेवा -जलपान, कलाल / कलवार – सुराबिक्रेता, कलित – ललित और जल की चंचलता के कारण केलि , खेल आदि की दिशा में शब्दों का जनन करता है। जल परक शब्दों का सभी तरल पदार्थो के लिए प्रयोग हुआ है जिसमें अमृत से लेकर गरल तक आता है । तेल से इसका संबन्ध इतना स्पष्ट है कि दिल्ली की स्थानीय बोली में पानी के लिए तेल का प्रयोग आज भी होता है। अतः कलछुल में गर्म तरल पदार्थ को निकालने का भाव है तो भोज. कल्हारना में फ्राई करने का । स्वयं कडाही में कल का कड हुआ है अतः उसका नामकरण इसी से जुड़ा है, पर कल्हारने से क्या क्लेश का और क्लिष्ट का संबन्ध नहीं जुड़ता?
2. कल ध्वनि का दूसरा स्रोत है पत्थर या कंकड़ के टूटने से उत्पन्न नाद।अतः इसका अर्थ पानी नहीं हो सकता। इसका अर्थ है पत्थर, या कंकड़। हम कह आए हैं कि नाद को मनुष्य पाषाण युग के आरम्भ से ही सुनता आया था, परन्तु जरूरी नहीं कि इसके वाचिक महत्त्व को भी समझता हो और इस नाद के वाचिक पुनरुत्पादन को उसकी संज्ञा भी बनाया हो। यदि ऐसा होता तो सबसे पहले यह संज्ञा उन शिलाखंडों को मिली होती जिसे पाषाणकालीन मनुष्य जल धाराओं की पेटी से जुटा कर लाता था और जिनको तोड़ कर वह अपने हथियार बनाता था। (विशाल चट्टानों को वह स्वयं तोड़ता भी तो किस हथियार से। इसके लिए वह जलधाराओं पर निर्भर था। जल स्वयं वज्र है = आपो वै वज्र – यह अतिरंजना नहीं एक वैज्ञानिक खोज है। विदेशियों ने हमारे साहित्य का अपनी जरूरत से पाठ किया इसलिए जल्दबाज़ी में बहुत सी बातों को समझ ही न सके या जितना समझे उसे अपनी जरुरत की विपरीत पाकर दबा दिया।)
धारा की पेटी में सुलभ प्रस्तर खण्डों को उन्होंने पाहन कहा। यह पह या पोह मूल से सम्बंधित है जिससे पहिया और पो – जा, प्रवाही या जल, पवि, पवित्र और पवन आदि का सम्बन्ध है। दोनों गतिसूचक हैं और हम निवेदन कर आये हैं कि गति से सम्बन्धित सभी शब्दों को आदिपद जलवाची है। पाहन पानी की तलब या पीते समय होठों से उत्पन्न नाद है जिसका अनुकरण पा, पी, पे, पो की रूप में हुआ जिनका अर्थ पानी है : पा – पानी, पे- पेय, पी – वै. पीतु, और वै. पोष से तो पता चलता ही है. त्राहि कि ही तरह पानी ( प्यासा मर रहा हूँ, पानी पिला कर मेरी रक्षा करो ), पाहि, में भी देखा जा सकता है।
प्रसंगवश यह भी जिक्र करदें कि जिस हड़बड़ी में यूरोप की और से भारत की और बढ़ने वाले आर्यों के लिए सबूत जुटाए जा रहे थे उन दिनों यह सुझाव प्रमाण के रूप में दिया गया था कि अश्वपालन करने में अग्रणी आर्य थे और इसका खंडन किक्कुली अभिलेख से होता था । वर्णविन्यास से देखें तो अश्वपालन का आचार्य मुंडारी था न कि आर्य भाषा भाषी। दूसरा झूठ यह कि अरायुक्त पहिये का आविष्कार करने वाले आर्य थे, जब कि हमारा इतिहास चीखते स्वर में कहता है कि ये इंद्र-विमुख, भृगु थे. पहिये की आविष्कार का सत्य यह है कि इसके लिए कई भाषायी समुदाय प्रयत्नशील थे ।
एक उन्ही शिलाखंडों को, जैसा हम देख आए हैं, पाहन कहता था जिससे पवि, पवन, पो, और पहिया का रिश्ता है तो दूसरा उसे शर्करा कहता था. इसकी भाषा में पानी या धारा के लिए सर और कर का प्रयोग होता था । आप सर का आशय तो समझ चुके होंगे,यदि आपने भोजपुरी का करमोवल अर्थात भिगोना और करमा/ करमुआ , पानी में पलनेवाली एक लतर जिसका पोषक मूल्य है, से परिचित हैं तो पाएंगे कि शर्करा – जलधारा में मिलने वाला घिसा हुआ पत्थर, दूसरे खाद्यों और पेयों की लिए भी प्रयोग में आ सकता था, जैसे सक्कर पर इसका एक दूसरा रूप चरकर भी था। दोनों में दो जलवाची शर/ चर + कर शब्दों का संयोग था। यदि पह से पाहन और पहिया, पहल, पहले का नाता है तो शर्करा / चरकरा बोलनेवालों ने जो आविष्कार किया उससे चक्र, अंग्रेजी सर्कस और सर्कल, सर्कुलेशन आदि का है।
और एक तीसरा समुदाय उसी को बट / बटिका कहता था। इससे संस्कृत का वर्त, वर्तन या चक्कर खाने या घूमने का और गोलाकार या वर्तुल का सम्बन्ध है। इसका विकास पहिये की लिए न हो सका। उसके लिए पहले ही शब्द चलन में आ गया था पर बर्म, बरमा, भ्रम, भृमि और आपके भ्रमण से इसका गहरा संबन्ध है। अब आपको भरम या भ्रम का अर्थ भी समझ आगया होगा।
एक चौथा समुदाय था जो उसी प्रस्तर खंड को रोड़ा कहता था। इसकी भाषा में रोल का अर्थ चक्कर खाना था । हो सकता है यह एक दूसरे से रगड़ खाते हुए बहने वाली बटिकाओं के अनुनाद के आधार पर गढ़ा गया हो। इसकी छाया आपको स्वर भेद और व्यंजन भेद से रोढ, रोह, रोथ, रथ, रोह, रोटरी, रोड, रोलर, रेढ़ा, रेढ़ू में दीख सकती है । संभव है रीढ़ के नामकरण मैं भी इसका हाथ हो. रीढ़ तोड़ देने के लिए रेढ़ मार देने का मुहावरा तो चलता ही है.
incomplete
Post – 2017-05-17
देववाणी (पैंतीस)
पानी, आग और पत्थर
हमने देखा, जब हम चन्द्रमा कहते हैं तो कई बार चांद कहते हैं। अर्थात अपने अपने शब्दों से चांद कहने वालों के मिलने के कारण हम उन सबके शब्दों को मिला कर एक कर देते हैं, इसलिए कई भाषाओं में प्रयुक्त चांद की संज्ञा को एक के बाद एक, ताबड़तोड़ दुहराते हैं और वह एक शब्द बन जाता है।
इसके लिए भाषावैज्ञानिकों ने कोई शब्द गढ़ा अवश्य होगा, वह मुझे याद नहीं. फिर भी भारतीय भजाषाओँ का अध्ययन करने वालों ने इसे अवश्य लक्ष्य किया होगा. तन+नीर, ताल +आब, जल+आब के दृष्टान्त हम दे आये हैं, परन्तु यह भी संभव है कि पॉलीग्लॉस या एक ही क्षेत्र में अनेक भाषाओँ और उनके चलन का ध्यान रखनेवालों को भाषा के विकास में इसकी भूमिका का उन्हें ध्यान न रहा हो, क्योंकि वे भाषा की आनुवांशिकता से इतने ग्रस्त थे की छिटफुट ऐसे प्रस्तावों के आने के बाद भी उन्होंने भाषा की निर्माण प्रक्रिया में इसकी भूमिका का सही आकलन नहीं किया। फिर भी मेरा ज्ञान अपर्याप्त है और किसी को लगे इसमें सुधार अपेक्षित है तो हमारी सहभागिता होगी। यद्यपि इससे हम जिस पक्ष पर बात करने जा रहे हैं उस पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ेगा।
आज हम देखेंगे कि जब हम कल कहते हैं तो एक ही भाषा के तीन शब्दों को एक साथ बोलते हैं, पत्थर, पानी, और आग। सन्दर्भ से ही यह पता चलता है कि इन तीनों में से हम किसकी बात कर रहे हैं । विचित्र स्थिति है परन्तु भाषाविज्ञानियों के लिए यह कोई नई चीज नहीं है। अंग्रेजी में इसे होमोफोनी कहते हैं। सुनने में शब्द एक लगतs है परन्तु वे अलग अलग हैं। यह दूसरी बात है कि जिस स्तर पर उतर कर हम अपनी बात करने जा रहे हैं उस तक पहुंचने का रास्ता ही बन्द रहा है।
परन्तु यदि आप कहना चाहें कि आग और प्रकाश को अपनी संज्ञा जल से ही मिली होगी] आपने स्वयं यह सिद्धांत बघारा है तो इज्जत बचाने के लिए आपकी बात मान लूंगा। कारण,आग और प्रकाश से स्वतः तो कोई ध्वनि नहीं पैदा होती परन्तु आग लगने पर ज्वलन के लिए जो ऑक्सीजन ख़त्म होती है। उससे पैदा हुए निर्वात को भरने के लिए हवा का जो दबाव पैदा होता है उस टकराहट से ज्वाला के अनुपात में ही हाहाकार पैदा होता है। यह ध्वनि भले हवा के दबाव की मानी जाय, पैदा तो यह आग लगने पर ही होती है! एक दूसरा कारण भी है. आग लगने पर जलने वाले काठ के कमजोर पढ़कर टूटने से तड़कने की जो आवाज पैदा होती है, जिसे कोई अपनी भाषा की ध्वनिव्यवस्था के अनुसार कड़, कट , कल, के रूप में अनुनादित या उच्चारित कर सकता है, इसलिए जिस सज्जनता से मैंने आप कि बात मान कर पुनर्विचार किया उसी से आप मेरे इस प्रस्ताव को भी मान सकते हैं कि कल आग से भी पैदा होनेवाली ध्वनि है और इसलिए उसके लिए या उससे जुड़े कार्यव्यापार के लिए इसका अर्थोत्कर्ष किया जा सकता है।
पत्थर में आवाज नहीं होती या होती है तभी जब पानी या हवा या भूकंप के कारण उसके खंड गिर कर किसी चीज से टकरायें। पत्थर को पत्थर से तोड़ने और गढ़ने का काम मनुष्य ने बहुत पहले आरंभ कर दिया था । यह काम इतने प्रारंभिक चरण पर आरंभ हुआ कि यह तय करना कठिन है कि उसने पहले औजार बनाना सीखा या बोलना और इसलिए मनुष्य के हस्तक्षेप से पत्थर से आवाज भी पैदा हो सकती थी और चिनगारियां भी।
कड़, खड़, गड़ ऐसी ही ध्वनियां हैं जिनका प्रयोग कंकड़ से ले कर पत्थर तक के लिए किया जाता है। ध्वनि के उत्पन्न होने और उसके वाचिक मूल्य को पहचानने को हम अवश्य कुछ विलंब से जोड़ सके होंगे। समस्या तब पैदा होता है जब हम पाते हैं कि इनके अन्त में आने वाली ध्वनियां सभी भाषाओं में नहीं पाई जातीं। मूर्धन्य ड़ की निकटतम ध्वनि मूर्धन्य ळ है और वह भी सभी बोलियों में नहीं मिलती ल की ध्वनि अवश्य मिलती है। (incomplete)
Post – 2017-05-16
सच वह नहीं है जिसको सभी देख रखे हैं
‘हम देखने वालों की नजर देख रहे हैं।’
जो कुछ है निगाहों में, निगाहों से भी पीछे
हम उससे भी पीछे के भरम देख रहे हैं।
Post – 2017-05-16
देववाणी ( चौंतीस )
इतिहास दुबारा लिखना है
सन, चन, चंद्र, चन्द्रमन, चंद्रमस, चन्द्रमा के सामाजिक पक्ष को समझे बिना हमारा इतिहासबोध, वर्तमान की समझ और भविष्य के सपने सब अधूरे रह जायेंगे और आपकी मानसिक दासता आगे भी जारी रहेगी। अपनी भाषा को समझे बिना आप अपने समाज को नहीं समझ सकते। यह भाषा हिंदी, तमिल या हो नहीं है। इसका एक एक शब्द इन विभाजनों की राजनीती को भी उजागर करता है और उसके बाद भी विविधता को अधिक वैभवपूर्ण बनाता है। यह एक गलत सोच थी की हमारी सभी भाषाएं संस्कृत से निकली हैं। इस सीमा तक पादरी काल्डवेल सही थे। परन्तु किसी अन्य की तुलना में वह स्वयं अधिक अच्छी तरह जानते थे की भारतीय समाज के बीच भिन्नताएं तो थीं परन्तु कटुता न थी। क्योंकि भाषाओँ का और दक्षिण भारतीय परम्परा का उनका ज्ञान बहुत गहरा था। वह इस सौहार्द को भितरघात करते हुए तोडना चाहते थे क्योंकि वह जानते थे की दूध को तलवार से नहीं फाड़ा जा सकता, नीबू की कुछ बूंदें इसके लिए काफी है। मन में खटास पैदा करने से ही ईसाइयत के प्रचार का मनोवैज्ञानिक पर्यावरण तैयार हो सकता है। इसके लिए उन्होंने तमिल जातीयता को उत्तेजित करते हुए उसे संस्कृत के प्रतिस्पर्धी के रूप में स्थापित किया। इस तरह की प्रतिस्पर्धा उत्तर भारत में भी संस्कृत के विरुद्ध पैदा की जा सकती थी क्योंकि केवल दक्षिण में ही नहीं अपनी बोलियों के प्रति अगाध आसक्ति उत्तर भारत में भी थी। भावनाएं उत्तेजित करने की समस्या थी। यहां वही काम सवर्णों और आवरणों की आड़ में संस्कृत भाषियों को आक्रमणकारी सिद्ध करते हुए और शेष जनों को उनके द्वारा परास्त किये और पराधीन बनाकर रखने की कहानियों से पूरा किया गया।
इन सभी समस्याओं के समाधान भाषा के अध्ययन से अधिक निर्णायक रूप में किया जा सकता है न कि दर्शन और औचित्य बघार कर।
उन दौरों का इतिहास जिनके न तो मौखिक परंपरा से आई कोंई जानकारी हमारा साथ दे पाती है न ही ग्रन्थों में लिखित पुरातन कालों के आख्यान। यदि देते भी हैं तो उन पर लोग यह कह कर विश्वास नहीं कर पाते कि इनमें अतिरंजना का सहारा लिया गया होगा, भाषा के इस विवेचन से समझा जा सकता है। हमारी भाषाएं और उनकी बोलियां आदि काल से आज तक परस्पर जीवन्त संबंध बनाए हुई हैं इसलिए भाषा का अध्ययन भारतीय इतिहास के सन्दर्भ में जितना अव्याहत है उतना उन देशों और क्षेत्रों का नहीं जहां स्थानीय बोलियों पर एक उन्नत भाषा का एकाएक प्रसार होता है और जो वहां की उच्च सांस्कृतिक आकांक्षाओं के अनुरूप् षब्दभंडार का जनन करती हुई उनकी अपनी प्राचीन बोलियों को अव्यावहारिक बना देती है। वे इस आगत भाषा के ध्वनितत्व को और कुछ सीमा तक विन्यास को तो प्रभावित करती हैं परन्तु सहभागिनी की भूमिका नहीं निभा पातीं। यह भूमिका वे तभी निभा पाएंगी जब उनकी अपनी बिसरी हुई बोलियों के तत्वों की खोज हो और यह समझने का प्रयास किया जाय कि यदि यह बनी बनाई भाषा उनके पास न पहुंचती और उन्होंने स्वयं विकास करते हुए आधुनिक युग तक की यात्रा की होती तो उनकी अपनी बोलियों में नई अपेक्षाओं के अनुसार किस तरह के परिवर्तन आए होते।
संस्कृत ने हड़प्पा सभ्यता के निर्माण की प्रक्रिया में अपना वह विकास किया जिसमें उसके स्तर को देखते हुए पूर्णता का भ्रम पैदा होता है और तकनीकी शब्दावली के गठन के लिए उसने जिस इंजीनियरी का विकास किया उसका भारत में ही नहीं सर्वत्र अनुकरण किया गया। भारत से यूरोप तक की भारोपीय भाषाओं को यह सहज सुलभ थी इसलिए उन्होंने अपने जार्गन के लिए भी अपनी ध्वनिव्यवस्था में ढली इसी की शब्दावली और घटकों का सहारा लिया। लातिन और ग्रीक के यूरोपीय भाषाओं के जार्गन के लिए स्रोत भाषा बनने का यह प्रधान कारण प्रतीत होता है।
हम चन्द्रमा के विविध नामों पर लौटें। यह शब्द न केवल उस षड्यन्त्र का भंडाफोड़ करता है जिसमें संस्कृत बोलने वाले किसी समुदाय को आक्रमणकारी या किसी भी अन्य तरीके से भारत में घुसपैठिया बताया गया था, अपितु इस ढकोसले का भी कि संस्कृत का किसी विशेष नस्ल या से संबन्ध था। यह सच है कि आरंभ में इसमें अग्रणी भूमिका किसी एक समुदाय की थी जिसे पहचाना तक नहीं जा सकता, क्योंकि इसका आरंभ झूम खेती तक जाता है जिसमें एक एक कर कई समुदायों ने अपनाया था। स्थायी खेती में उनमें से किए एक की भूमिका अग्रणी रही है और उनके अनुभवों, प्रयोगों, और तरीकों को दूसरों द्वारा अपनाने की विवशता के कारण उसकी भाषा की भूमिका प्रधान थी जिसे कृषि अपनाने वाले दूसरे समुदायों को भी अपनाना पड़ता था। परन्तु यह स्वयं इच्छुक था कि अधिक से अधिक लोग खेती अपनायें ताकि उसकी संगठित शक्ति भी बढ़े और जंगली जानवरों और जनों के उपद्रव में भी कमी आए इसलिए यह एक खुला समाज था जिसमें समय समय पर कम से कम चार पांच भाषाई समुदायों के लोग शामिल होते रहे। इनके द्वारा ही उस भूस्वामिवर्ग का निर्माण हुआ जिसके सामाजिक गठन का परिणाम वर्णवाद था।
ऐसी स्थिति में सवर्ण और असवर्ण का प्रश्न पहल और प्रयोग की तत्परता और इसके अभाव या इस दिषा में उदासीनता का अन्तर बन जाता है। हमसे पहले के जिन अध्येताओं ने इस समस्या पर विचार किया है उनमें डा- अंबेडकर की दृष्टि सबसे प्रखर और तार्किक थी जिसे समझने की क्षमता अपने स्वार्थ के कारण सवर्णों में भी नहीं थी, परन्तु उनकी नजर में भी इतिहास का यह विराट फलक नहीं था, इसलिए पहल और इसकी कमी के पहलू पर उनका भी ध्यान नहीं गया।
समता की अवधारणा नई है और लंबे समय तक सपना ही बनी रहने वाली है। परन्तु इसके पहले आज तक मानवीयता के नाम पर दया ओर दान और सवावर्त के जो भी उपाय किए जाते रहे हैं उनमें से कोई पहल और उपक्रम को प्रेरित करने वाला नहीं रहा है। आज की सुविधाएं भी पहल की जगह पराश्रयता पैदा करने वाली ही हैं।
योग्यता अर्जित करने में समान सुविधाओं या पिछड़े हुए जनों को कुछ अधिक सुविधाओं की व्यवस्था न्यायोचित और देशहित में है, परन्तु चुनौतियों को कम करना, रियायती दर पर आगे बढ़ाना न उन समुदायों के हित में है न पूरे समाज के। योग्यता की परख में पक्षपात को समाप्त करने के तरीके निकालना एक जरूरी उपाय है जिसके कारण जो आगे बढ़े हुए तबके हैं वे अपने स्वजनों को आगे बढ़ा कर दूसरों के अवसर कम करते हैं परन्तु अयोग्यता को प्रश्रय देना किसी समाज या राष्ट्र के हित में नहीं हो सकता।
अन्तिम बात यह कि तुलनात्मक भाषाविज्ञान का समस्त ढांचा, इसके अन्तर्गत किए गए सभी काम, बहुत सीमित उपयोग के रह जाते हैं। भाषा परिवारों की अवधारणा, भाषा के क्रोडक्षेत्र की कल्पना, पूर्वरूपों की सर्जना तथा दूसरे निष्कर्ष या तो पूरी तरह खंडित हो जाते हैं या सीमित आंचिलिक उपादेयता के रह जाते हैं जहां तथ्यों से इन्कार नहीं किया जा सकता, निष्कर्षों को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
Post – 2017-05-15
खुदा देता जिन्हे हैं उनको थोड़ी अक़्ल देता हैं
मिली जिनको अधिक उनको मिटाकर छोड़ देता हैं.
कोई उसके बराबर होना चाहे उसको क्यों चाहे
उसी की जहन में आकर इरादे तोड़ देता हैं .
न उसकी याद हो तुमको तुम्हे वह याद रखता हैं
जहां तुम ऐंठ जाते हो वहीँ से तोड़ देता हैं .
Post – 2017-05-15
देववाणी (तैंतीस)
घालमेल
चन्द्रमा का अंतिम शब्द है मन या मस। मैं स्वयं दुविधा में हूँ कि ये दो शब्द है या एक ही शब्द को दो भाषाई समुदाय अपनी ध्वनिसीमा के कारण दो तरह से बोलते रहे।
इनका सबसे रोचक पहलू संस्कृत व्याकरण में मिलता है। इसमें चंद्रमा को नपुंसक माना गया है परन्तु रूपावली में एक नई समस्या सामने आती है. दूसरे नपुंसक लिंगी शब्दों की रूपावली में प्रथमा एक वचन में नपुंसकलिंगी रूप आता है। उदहारण के लिए फलं की रूपावली है फलं फले फलानि परन्तु चंद्र्मन की रूपावली आरम्भ होती है चंद्रमा चन्द्र्मसौ चन्द्रमस: । यदि ध्यान दें तो पाएंगे कि एक समुदाय के लोग चंद्रमा को पुलिंग मानते थे। दुसरे इसे नपुंसक लिंग मानते थे। नपुंसक रूप एक ग़लतफ़हमी का परिणाम लगता हैं ।
मन जैसा हम कह आये हैं स्वत: चन्द्रमा के लिए प्रयोग में आता था। चन – चं +और (तर-) / दर – द्र = चन्द्र चलन में आचुका था। लगता हैं उसके बाद मन बोलने वाला समुदाय मुख्या धारा का अंग बनकर द्विभाषी बना और मन का जन की तरह मन: मनौ मना: रूप चलता रहा. यह एक संभावित कारण लगता है।
जब हम देववाणी से संस्कृत की दिशा में आये बदलावो की बात कर रहे हैं तो ऋग्वेद काल से पहले पांच हजार या इससे भी लम्बी अवधि में आये परिवर्तनों के जहाँ तहाँ से जुटाए, मिटने से बचे रह गए, पदचिन्हों के सहारे उस विकास यात्रा को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं । इस अवधि में कई तरह के मेल मिलाप हुए हैं और फिर भी उन्ही समुदायों के कुछ लोगों ने दूसरे समुदायों में मिल कर उन्हें भिन्न रूप में प्रभावित किया हैं और जहां तहाँ हर तरह के मेलजोल से बचते रहे हैं ( गो मेलजोल से बच कोई नहीं पाया हैं। उस प्रक्रिया पर बात करने से भटकाव होगा) । इन्हीं में उस आशंकाओं के किवारण के सूत्र भी छिपे हैं।
हमने कहा एक समुदाय मन को चन्द्रमा के लिए प्रयोग में लाता था और उसमें मन पुल्लिंग था और गहरे मेल मिलाप के बाद जब सभी के शब्दों के मेल से रूप बने तो एक जो पुल्लिंग मानता था उसने चंद्रमस चन्द्र्मसौ चन्द्रमसः जारी रखा और दूसरा समुदाय चंद्रमन की नपुंसक रूपावली चलाता रहा। उसकी रूपावली तो न चल सकी, शब्द के रूप में चन्द्रमन चलता रहा जिसमें मन बचा रहा और चन्द्रमस केवल रूपावली में दृष्टिगोचर होता हैं।
संस्कृत में मस/ मास =चन्द्रमा तो लुप्त हो गया पर उसके एक चक्र के लिए मास बचा रहा। फ़ारसी में माह और मह और महीना तीनो सुरक्षित हैं और संस्कृत में भी इन आशयों में बहुत पहले प्रयोग में आने को प्रमाणित करते हैं जब की हम देख आये हैं की मन अनेक बदलावों के बाद अंग्रेजी मून और मंथ, मेन्सुरेशन में तथा मन या ज्ञान पक्ष में मेन्टल/ माइंड आदि में सुरक्षित हैं।
कुछ शंकाओं का निराकरण करते चलें। क्या यह सम्भव हैं की एक ही भाषा में कुछ लोग किसी शब्द का एकलिंग में प्रयोग करें और दूसरे भिन्न लिंग में। हिंदी में बहुत से लोग सामर्थ्य का प्रयोग स्त्रीलिंग में करते हैं, जो गलत हैं। दूसरे पुल्लिंग में जो सही हैं. परन्तु जैसा पतंजलि और भर्तृहरि ने कहा हैं, और जो बात पश्चिमी भाषाशस्त्रियों को कुछ देर से समझ आई, भाषा का निर्माण लोक करता हैं, वैयाकरण नहीं, इसलिए लोकव्यवहार में आने पर सही गलत की और ध्यान नहीं दिया जाता । न तान लोकप्रसिद्धत्वात कश्चित तर्केण बाधते (भर्तृहरि ) ।
संस्कृत में लिंग को लेकर खासी अनियमितता हैं । हिंदी में उर्दू के कारण कुछ अनियमितताएं आई हैं। संस्कृत में लिंग की अनियमितता के पीछे भी यही कारण हैं।हिंदी में तो एक भाषा की संगत का परिणाम हैं की ‘हम तुम्हारे साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर चलने वाले हिंदी और हिंदुत्व से ऊपर उठे सेक्युलर हैं ‘ यह दवा करने के लिए उर्दू की उन गलतियों का भी प्रयोग करते हैं जिससे हिंदी सीखनेवालों की उलझन बढे और उनके लेखन से मुग्धा होकर उन जैसी ग़लतियाँ दुहराने वालों की संख्या बढ़कर सही प्रयोग करने वालों से अनुपात में आगे चला जाय.
एक प्रसंग याद आ गया . मेरे एक मित्र हैं राजकुमार सैनी. मित्र इसलिए हैं की कोई कितना भी बड़ा हो अगर गलत कह रहा हैं उससे भिड़ जाते हैं. मुझ से भी भिड़ गए. हो सकता हैं मैं ही उनसे भिड़ गया होऊं. पचीस साल पुरानी बात हुई. सवाल था सुनहरी मौका का . मैंने कहा यह गलत हैं. सैनी जी डट गए यह प्रयोग तो कमलेश्वर ने भी किया हैं. मुझे ऐसे मौकों पर खास मज़ा आता हैं, मैंने कहा, कमलेश्वर कहानियां बहुत अच्छी लिखते हैं पर उनको हिंदी नहीं आती. सैनी जी भड़कते हैं तो देखते बनता हैं. कहा क्या बकते हैं आप. जब दूसरा आपा खोता हैं तो मुझे खास मज़ा आता हैं. वह उग्र और मैं मुस्कराता रहा. वः अपनी ही उग्रता के शिकार हो कर मेरी बात सुनने को तैयार हो गए . मैंने पूछा मौका स्त्रीलिंग हैं या पुल्लिंग. कुछ देर तक वह समझ ही न सके की मैं कह क्या रहा हूँ.
मैंने दूसरा प्रश्न किया, आप अच्छा मौका कहेंगे या अच्छी मौका. या अच्छा मौका?
उनके मुंह से निकला अच्छा मौका।
मैंने पूछा फिर सुनहरी मौका ठीक है या सुननहरा मौंका?
सैनी जी इतने साफपाक थे की अपनी गलती का अहसास करते हुए जब वह माथा पीटते थे तो उनके मुंह के बल गिरने का धमाका भी सुनने देती थी. इस बार भी ऐसा ही हुआ.
पर सोचिये हिंदी को अपनी छोटी सी जिंदगी में उर्दू से पाला पड़ गया और हम तुम्हारे साथ हैं के चक्कर में इसने आपतोषवाद को भाषा तक पहुंचा दिया हैं. देववाणी को संस्कृत बनने से पहले उन हज़ारों सालों में कितने समझौते या समायोजन करने पड़े इसका कोई हिसाब दे सकता हैं! हम एक कोशिश कर रहे हैं. इसमें दूसरा कोई साथ आ सकता हैं?
मन का प्रयोग भाषा भेद से मत, मथ, मद, मध्, मन, मड और मण आदि कई रूपों में होता रहा लगता हैं फिर ये सभी रूप सामान्य व्यवहार में आने लगे। इनमे भाषों की घोषप्रियता और महाप्राणन की प्रवृत्ति देखी जा सकती हैं। एक दूसरी प्रवृत्ति स्वरभेद की हैं!
Post – 2017-05-15
जिस बात की मुझे शिकायत है वह यह कि मेरे मित्रगण आनन्द लेते हुए, स्वयं सोचते और शब्दों से खेलते हुए, जो मुझसे छूट गया उसकी ओर ध्यान देते और दिलाते हुए नहीं पढ़ते हैं। ज्ञान बटोरने पर यह बोझ बन जाता है। मैं एक उदाहरण से अपनी बातर कहूं। जब मैंने यह कहा कि जिस की वस्तु क्रिया या सत्ता में अपनी ध्वनि नहीं है उसे अपनी संज्ञा जल से मिली है जिसकी अनन्त ध्वनियां हैं और फिर तर से तार, आंख के तारे, आसमान के तारे तक का क्रम जोड़ा तो किसी का ध्यान इस ओर जाना चाहिए था कि तार या धागा, तर्क, तर्कु का भी संबंध क्या तर से ही नहीं है, प्रवाह में न दिखाई दे पर गुदाज छिल्के वाले पौधों को तोड़ने पर उनकी आर्द्रता तार के रूप में दिखाई देती है पीजा की तरह। इससे तार का संबंध तो जुड़ता ही है । और फिर एक नई दिशा अर्थ और शब्द की खुलती तार के लेकर तारतम्य तक जाती । इसी तरह तर्ज, तरह, तरीका, तौर, तरफ के पीछे क्या है। जब आप सर्जजनात्मक पाठ करते हैं तो जैसा मनोरंजन होता है वैसा जुए के खेल या बुझौवल में ही मिल सकता है। कोशिश करें तो बहुत कुछ जुड़ेगा भी और छंटेगा भी ।
Post – 2017-05-14
दिल को हमने दिल नहीं समझा था फिर समझा था क्या
डाक्टर की जाँच का कोई सिला समझा था क्या
टूटता पहले था अब तो बैठ जाता है जनाब
यह हुआ कैसे यह है किसकी अदा समझा था क्या .
Post – 2017-05-14
दिल मेरा है वही लेकिन सुबूत हैं ही नहीं
कभी लिक्खे थे उसे वे खुतूत हैं ही नहीं
लिये फोटो थे साथ दिल का उनमें अक्स न था
जख्म दिखलाने के देखो सुलूक हैं ही नहीं.