Post – 2018-05-24

#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया((3)

पूरब की ध्वनिमाला में ‘व‘ के प्रवेश के बाद पश्चिमी बोली में ‘बर‘ का ‘वर‘ हो गया, परंतु इससे उसकी प्रकृति में अंतर नहीं आया। पूर्वी क्षेत्र की बोली इससे अप्रभावित रही और इसी अनुपात में उस शब्द संपदा से भी वंचित रही जो वकार से पश्चिम में निर्मित हुई। आज यह बात कुछ विचित्र लगेगी कि शायद सारस्वत क्षेत्र मे ब की ध्वनि नहीं थी, परन्तु जिस पैमाने पर पूर्वी के बकार का वकार में परिवर्तन हुआ लगता है, उससे यह आशंका पैदा पोती है। यदि पश्चिमी दिशा में अग्रसर हुए कृषि कर्मियों के बीच संपर्क सूत्र किसी भी कारण से बाद में भी बने रह गए हों तो संभव है, सारस्वत क्षेत्र में गढ़़े कुछ शब्द पूर्व में भी पहुंचे हो जिनकी ध्वनि बदलकर वे उनका प्रयोग करते रहे हों। संस्कृत के प्रभाव से बाद के कालों में यह प्रक्रिया और भी तेज हुई हो सकती है।

आज के तीव्र गति के यातायात के साधनों के आतंक में प्राचीन कालों के संदर्भ में इतने सुदूर क्षेत्र से संपर्क सूत्र की बात किंचित अविश्वसनीय लगती है। परंतु पुराने समय में, अतीत कालीन स्थलों से रागात्मक संबंध इतना प्रगाढ़ होता था कि वे स्थल तीर्थ जैसी और वहां की विशेष वस्तुएं तीर्थ के प्रसाद जैसी पवित्रता ग्रहण कर लेती थी। कृषिकर्मियों के आदिम स्थाई निवास को मैं नेपाल की तराई के गंडकी क्षेत्र में इसलिए कल्पित करता हूं कि शालिग्राम का पत्थर पूरे भारत में इसी क्षेत्र से आजतक प्राप्त किया जाता रहा है। इस क्षेत्र की महिमा का अन्य कोई कारण दिखाई नहीं देता। गंडकी सदानीरा का एक नाम नारायणी भी है। मेरी अपनी मान्यता है कि शालिग्राम उस बटिका को कहा जाता था, जिससे प्रसाधन के यंत्रों का विकास होने से पहले धान से चावल अलग किया जाता था अथवा धान के खील को पीसकर शालिचूर्ण बनाया जाता था। प्राचीन काल के उपयोगी साधनों का दैविकरण अनेक रूपों में हुआ है यह बात हम बहुत पहले कह आए हैं। इसे यहां इसलिए दुहराना पड़ रहा है कि इस बात को रेखांकित किया जा सके एक प्राचीन कालों में सुदूर क्षेत्रों से आंतरिक संपर्क कभी टूटा नहीं था, यद्यपि विशिष्ट पहचान वाली क्षेत्रीय इकाइयां किसी न किसी पैमाने पर सदा से विद्यमान रही है और इससे हमारी भाषा संस्कृति और खानपान सभी अदृश्य रूप में प्रभावित होते रहे हैं।

वर की व्यंजन ध्वनियों (व्, र्) को अदल-बदल कर विविध स्वरों के योग से नए संयोजन पूर्वी की प्रकृति में थे, ये पश्चिमी बोली में भी बने रहे। वर का वार, रव, राव, रवा, वरा, वारा, रवि, रावी, विर, वीर, वीरा आदि रूप लेते हुए नई अपेक्षाओं के अनुसार शब्द निर्माण करना पश्चिमी में भी चलता रहा। इससे जो विशाल शब्द भंडार तैयार हुआ है उसकी करना कराना न तो संभव है नहीं मेरे द्वारा उसे तालिका वध किया जा सका है। परंतु एक ही वस्तुस्थिति के लिए भिंन्न स्वरों के उपयोग से शब्दावली का निर्माण कुछ रोचक अवश्य हो सकता है। उदाहरण के लिए वर के वार, वारण आदि पुरुषों से एक और तो दीवार, चारदीवारी, तथा युद्ध -वार-, और आघात, अर्थात वार करना, के लिए शब्द निर्मित हुए, इसलिए वीर, वीर्य, वैर आदि को हम हम मात्र ध्वनि परिवर्तन से गड़े हुए शब्दों मान सकते हैं, परंतु वारा की भांति वीर भी जल की ध्वनि से उत्पन्न एक स्वतंत्र शब्द था। इस विवेचन में पढ़ने पर हम बहुत सकते हैं। अस्तु।

पश्चिम की दिशा में बढ़ने वाले केवल भौगोलिक यात्रा नहीं कर रहे थे, अपितु भिन्न भाषा समुदायों के संपर्क में आने के साथ उनको अपनी सामाजिकता का हिस्सा और उनकी बोलियों की विशेषताओं को अपनी भाषा का अंग बनाते हुए पढ़ रहे थे। अन्य ध्वनियों के प्रवेश उनके लिए कोई समस्या नहीं पैदा नहीं हो रही थी। उनकी भाषा अजंत अथवा स्वरांत प्रधान थी। इसमें सवर्ण संयोग ही होता था । ध्वनिगत भिन्नताओं के होते हुए भी भारत की लगभग सभी भाषाओं की प्रकृति ऐसी ही थी, इसलिए नए समुदायों के समावेश से उनकी भाषा की प्रकृति प्रभावित नहीं होती थी। इसका एकमात्र अपवाद कौरवी भाषा की। हरियाणवी के पश्चिम में पंजाबी इंद्र को आज भी इंदर बना लेती है। हम कह सकते हैं अकेले सारस्वत क्षेत्र में एक व्यंजन प्रधान बोली बोली जाती थी जिसकी प्रकृति सामी थी।

हम इसे विगत हिमयुग की अकल्पनीय उथल-पुथल का परिणाम मानते हैं। इस सच्चाई को समझ न पाने के कारण हार्नले और ग्रियर्सन ने कभी आर्यों के दो आक्रमणों का सुझाव दिया था और जिसका अनुमोदन रामप्रसाद चंद्र ने मानववैज्ञानिक (शिरोरचना) के आधार पर किया था। इसके अनुसार आर्यों का दूसरा आक्रमण पहले के आर्यों पर हुआ था और इसके बाद वे अपने क्षेत्र से चारों और बिखर गए थे और केंद्र में नए आर्य बस गए थे जिनकी भाषा ऋग्वेद की भाषा है। पर जिल विशेषताओं की बात हम कर रहे हैं वे तो वे तो तथाकथित द्रविड़ और कोल परिवार में गिनी जाने वाली भाषाओं मेो भी पाई जाती हैं। कितनी असंगतियों और विसंगतियों का घालमेल करते हुए विद्वान आक्रमण के सिद्धांत पर डटे रहे यह सोच कर आज हंसी आती है और जब यह सिद्धांत हमारे विद्वानों द्वारा भी स्वीकार कर लिया गया था तब इस पर किसी को रोना तक नहीं आता था। पहले वाले आक्रमणकारी कहां से आए थे, भारत से बाहर किस क्षेत्र की भाषा में वे प्रवृत्तियां पाई जाती हैं जिनका हम ऊपर उल्लेख कर आए हैं, यह सोचने की किसी को फुर्सत न थी।

जो भी हो, यह व्यंजन प्रधान भाषा जहां से भी आई हो इसने भारतीय भाषाओं को संस्कृत के माध्यम से जितनी गहराई से प्रभावित किया और बाद में भी यह क्षेत्र कई भाषाओं के अखिल भारतीय चरित्र का निर्माण करने में सक्रिय भूमिका निभाता रहा, यह एक रोचक भाषावैज्ञानिक तथ्य है, जिसके रहस्य की सही जानकारी हमें भी नहीं है। साथ ही इस रहस्य की भी जानकारी नहीं है कि उत्तर भारत में नई भाषाओं का जन्मा पूर्वी हिंदी क्षेत्र की सक्रियता से ही क्यों होता रहा है।

इस तरह है भारत में भाषाओं के चरित्र निर्धारण में चार क्षेत्रों की कारक भूमिका रही है एक पूर्वी हिंदी क्षेत्र, दूसरा कौरवी क्षेत्र, तीसरा महाराष्ट्र और चौथा मदुरई जो तथाकथित द्रविड़ भाषाओं के चरित्र निर्धारण में निर्णायक स्थान रखता रहा है।

नई ध्वनियों के प्रवेश से पूर्वी बोली अधिकाधिक समृद्ध होती रही और इस दृष्टि से अपने ऐतिहासिक महत्व के बावजूद भोजपुरी अपने से पश्चिम की बोलियों की अपेक्षा कुझ विपन्न दिखाई देती है और इसी का परिणाम है कि संस्कृत के केंद्रों के बावजूद साहित्यिक दृष्टि से अवधी या ब्रजभाषा की समकक्षता में न आ सकी।

इसके लिए भाषा कहां तक उत्तरदायी है इसका निर्णय करना आसान नहीं है, क्योंकि राम अवधी और कृष्ण व्रज क्षेत्र में पैदा हुए इसलिए भक्ति साहित्य का केंद्र बनने का लाभ इन भाषाओं को मिला। जायसी कुतुबन जैसे किसी सूफी कवि ने भी किन्ही कारणों से भोजपुरी को अपना माध्यम नहीं बनाया, भाषाओं के साहित्य उत्थान में इनकी भूमिका रही है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। यह तथ्य तब और ुजागर हो जाता है जब आधुनिक काल से पहले हम कौरवी को भोजपुरी से भी तिरस्कृत पाते हैं।

अतः हम अपनी चर्चा भाषा तक ही सीमित रखें को अधिक निरापद होगा। पूर्वी भाषा में एक और तो नई ध्वनियों की सहायता से बने हैं नए शब्दों को अपनाने का प्रयत्न किया दूसरे उनके समानांतर अपने शब्द गढ़े और इससे नई अर्थ छटाओं वाली शब्दावली का विकास हुआ, जिसका पूरा लाभ संस्कृत तो न उठा सकी पर यह लाभ हिंदी को अवश्य मिला। कुछ मामलों में हम यह तय नहीं कर सकते उसके प्रयोग पहले के हैं या बाद के। हम दो समानांतर श्रृंखलाओं में रखकर समझ सकते हैं। पहली के नमूने हम ‘वर’ पर विजार करते हौए दे आए हैं, दूसरी की कुछ बानगी नीचे गाई जा सकती हैः
बर/बड़> बर- 1. बरगद, 2. पत्ता, 3. दूल्हा, 4. किनारा (बरहज, बरहल, बरौनी, बरसाना, बारीसाल -तटीय स्थानों क् नाम), , बारी – 1. पत्ते के पात्र (दोना, पत्तल) बनाने वाले,> बरई/ बरेल – पान या पत्ते का कारोबार करने वाले, 2. बाग, बरोह, बरिआर, बरोह, बारा(बड़ा, त. वडै, बरी (बड़ी), बड़ाई, बढ़, बढ़ना, बढ़ावा, बबढ़ोतरी, बढ़वार, बढ़िया, बढ़ई (गढ़ने वाला, बढ़िया बनाने वाला), बूढ़, बार, बरौनी, बाढ़ आदि।

Post – 2018-05-24

आधुनिकता के जनक को आधुनिकता के आढ़ती भूल चुके हैं।

जन्म: 22 मई 1772, राधानगर, खानाकुल

Post – 2018-05-24

“कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ।
“जगत तपोबन सो कियो दारुण दाघ निदाघ।।”
प्रताप की परिभाषा

Post – 2018-05-23

#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया( (2)

हमारे सामने जैसा कि हम पहले का है एक और तो समझने की समस्या है, कि ‘वर’, ‘वि-वर’, ‘वरण’, ‘विवरण’, तथा ‘वर्ण’ और ‘वर्णन’ की अर्थ-विकास रेखा क्या है। वही वर, जो आवरण के आशय के कारण प्राणियों के शरीर पर उगे हुए रूम के लिए प्रयोग में आता है, जिसका विकास घेरने वाले, रक्षा करने वीले कवच या वर्म के लिए हुआ, क्या मांद के पर्याय , विवर की संज्ञा का स्रोत हो सकता है?

यहां हम दो तथ्यों की ओर ध्यान दिलाना चाहेंगे। एक तो, चूहे की मांद में वह चौड़ी जगह जहां वह अनाज इकट्ठा करता है, उसे एक कोठा कहते हैं। दूसरे अंग्रेजी में माद के लिए burrow प्रचलित है। ध्यान रहे, यहां, वर् वह रूप दिखाई देता है जो भोजपुरी में मिलता है अर्थात ‘बर’। अतः वर के विवर की निर्मिति में कोई सन्देह नहीं रह जाता।

अक्षर के विषय में हमें पहले कह आए हैं इसका एक्अर्थ जल होता है, और दूसरा अर्थ वह जिसका नाश न हो। क्षर का भी प्रयोग प्रवाह के लिए हुआ है, अध क्षरन्ति सिन्धवो, 1.72.10; मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ।। 1.90.6 परंतु क्षर का मूल आशय बरसना (ततः क्षरत्यक्षरं तद् विश्वमुप जीवति,1.164.42), छितराना(ऊर्जं न विश्वध क्षरध्यै,1.63.8, बांटना (सद्यो दाशुषे क्षरसि,1.27.6) रहा लगता है और अक्षर वह है जिसे टूटना, बिखरना या छिन्न भिन्न न होना पड़े।

बोला हुआ वाक्य, पूरा होने के साथ ही समाप्त हो जाता है जब कि लिखित वाणी अनंत काल के लिए अमर हो जाती है। (सर्परीः अमतिं बाधमाना बृहद् मिमाय जमदग्निदत्ता । आ सूर्यस्य दुहिता ततान श्रवो देवेषु अमृतं अजुर्यम्।। 3.53.15)। इसलिए हमें ऐसा लगता है की अक्षर लेखन के बाद ध्वनि के लिखित चिन्हों के लिए वाणी के अल्पतम इकाई के लिए जिससे छोटी इकाई नहीं हो सकती प्रयोग में आया। इसी अक्षर से मात्राओं का हिसाब लगाया जा सकता था। वाचित वाणी में शब्द और वाक्य की अल्पतम इकाइयां होती हैं, लिखित वाणी के बिना अनोखी मात्राओं को गिनने का प्रश्न नहीं पैदा होता (गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कमर्केण साम त्रैष्टुभेन वाकम् । वाकेन वाकं द्विपदा चतुष्पदाऽक्षरेण मिमते सप्त वाणीः, 1.164.24 अक्षरेण प्रति मिम एतामृतस्य नाभावधि सं पुनामि,10.13.3)।

हम सभी जानते हैं, अक्षरों का विभाजन स्वर और व्यंजन में किया गया है। स्वर वह जिसे अपने उच्चारण के लिए किसी दूसरे पर निर्भर न करना पड़े और इसलिए उसे हम जितनी देर तक चाहे तान सकते हैं, परंतु यह छूट केवल स्वरों के स्वरित उच्चारण में ही संभव है ह्रस्व और दीर्घ की दीर्घता तय है। हम स्वरों के ह्रस्व के लिए ही वर्णमाला में चिन्ह निर्धारित कर पाए हैं, परंतु उनके उच्चारण आधी मात्रा और चौथाई मात्रा तीन चौथाई मात्रा में होते हैं इसी तरह दीर्घ माने जाने वाले स्वरों – ए-कार और ओ-कार के भी ह्रस्व रूप होते हैं। द्रविड़ भाषाओं में इनके लिए अलग से लिपि-चिन्ह भी नियत है। शब्द में अक्षर की स्थिति या अर्थभेद के लिए हम उतार चढ़ाव और बल का भी प्रयोग करते हैं जो बोलचाल की भाषा में बहुत निर्णायक होता है परंतु इन सभी के अनुसार यदि लिपिसंकेत बनाए जाएं तो वर्णमाला इतनी बोझिल हो जाएगी कि उसे सीखना बहुत कम लोगों के बस की बात होगी। इसका निर्णय हम उस संदर्भ आदि का ध्यान रखते हुए पाठक पर ही छोड़ देते हैं।

इस तरह लिखित भाषा एक खास अर्थ में अधूरी भाषा होती है और लोगों को इस बात की शिकायत बनी रहती है कि उनके मंतव्य को ठीक ठीक समझा नहीं गया। वेदिक पाठ में तनिक भी चूक से भारी अनर्थ हो सकता था. इसलिए इनके लिए विकारी चिन्हों का प्रयोग किया जाता था।

वर्णमाला में आज हम स्वर और व्यंजन दोनों को ग्रहण करते हैं। इसके लिए अक्षरमाला, जिसे बोलचाल में ‘अखरौटी’ कहते हैं, अधिक उपयुक्त था। अक्षरों के स्वर और व्यंजन में विभाजन के बाद ‘वर्ण’ का प्रयोग यदि विकारी चिन्ह लगे हुए हैं लिपिचिन्ह के लिए गढ़ा गया हो, आरंभ में इसका प्रयोग व्यंजन के लिए होता रहा तो इसका हमें कोई प्रामाणिक आधार नहीं मिलता। स्वर और व्यंजन दोनों को समेट लेने के बाद, वर्गीकरण की इसकी भूमिका समाप्त हो जाती है उसके उसी मूल से वर्ग शब्द का प्रयोग किया ही गया है।

वर का रेखा के लिए प्रयोग होता था। रेखन या लेखन आरंभिक अवस्था मे चित्रलेखन था । ऐसी स्थिति में हम कह सकते हैं ‘वर्ण’ का प्रयोग चित्रांकित आशय में प्रयुक्त हुआ हो सकता है और वर्णन किसी विचार या भाव का चित्रण हुआ। फिर भी यह याद रखना होगा कि समझना और समझाना उलझी हुई चीज को तार-तार अलग करना, या बंद चीज को खोलने, चीरने, दिखाने आदि का काम है। इसीलिए इन आशयों से जुड़े विश्लेषण, विच्छेदन, विवेचन, व्याकरण आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं। वर्णन को चित्रांकन या खाका उतारना और वर्ण को लिखित लिपिचिन्ह मानना ऐसी स्थिति में अधिक निरापद लगता है। पर ग्रीक वरवर जिसका, अर्थ बर्बर, बारबरस, बार्बेरियन – जिसकी भाषा समझ आए, सं. बर्बर, हिं. बर्राना, बरबराना, बड़बड़ाना और उपरोक्त वर्ब, वर्ड वैदिक (अधि ब्रवत् तन्वे को जनाय, 1.84.17)को हम दरकिनार नहीं कर सकते। यहां हम केवल संभावनाओं की बात कर सकते हैं, ध्वनि विशेष से अर्थविशेष के जुड़ने की दिशाओं की बात कर सकते हैं।

Post – 2018-05-21

#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया(

हम वर शब्द पर विचार करते हए वर्ण और वर्णव्यवस्था पर विचार करने लगे और इसी के अन्य विकारी रूपों से निकले आशयों की ओर बढ़ना चाहते थे कि पीछे की ओर देखने लगे कि उन परिवर्तनों लक्ष्य कर सकें जो पूरब (गंगा घाटी) से चल कर सरस्वती घाटी में पहुंचने वाली बोली में हुए थे। यहां कुछ रूक कर यह बताना जरूरी लगता है कि सरस्वती घाटी में पूरब से पहुंचने के हमारे पास क्या प्रमाण हैं। इन्हें हम पहले अन्य प्रसंगों में गिना आए हैं, जरूरत उनकी याद दिलाने की है। वे निम्न प्रकार हैंः
1. ऋग्वेद में इस बात का उल्लेख है कि कुरुक्षेत्र में आकर बसने वाले लोग कहीं बाहर से आए थेः
नि त्वा दधे वर आ पृथिव्यां इळायास्पदे सुदिनत्वे अह्नाम् ।
दृषद्वत्यां मानुष आपयायां सरस्वत्यां रेवदग्ने दिदीहि ।। 3.23.4

2. शतपथ ब्राह्मण इस बात का उल्लेख है दूसरी सभी दिशाओं में यज्ञ की स्थापना में विफल होने के बाद देवों ने पूर्वोत्तर की दिशा में यज्ञ की स्थापना की और उनकी सफलता के कारण ही इस दिशा को ईशानी या अपराजिता दिशा कहते हैं।

3. ऋग्वेद में दसवें मंडल केवल एक सूक्त 179 ऐसा बचा रह गया है जिसमें तीन पौराणिक व्यक्तियों का उल्लेख है जिनका संबंध काशी से लगता हैः शिबिरौशीनर, काशिराज प्रतर्दन, रौहिदश्व।

4. ग्रियर्सन, सुनीति कुमार चटर्जी, विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े और रामविलास शर्मा अपने-अपने साक्ष्यों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं पूर्वी हिंदी में आदि भारोपीय के लक्षण किसी अन्य भाषा या बोली की अपेक्षा अधिक सुरक्षित हैं।

5. सोम की उपलब्धता के विषय में यह स्मृति सुरक्षित रह गई है कि पहले सोम खरीद पूर्व की दिशा से होता था।

6. विगत कुछ दशकों में पूर्वोत्तर में जो उत्खनन हुए हैं, उनसे आज से 12000 साल पहले स्थाई निवास और धान की खेती के प्रमाण मिले हैं।

7. साहित्य में कई रूपों में कई स्थलों पर इसके हवाले मिलते हैं, जिन्हें प्रविधि से लेकर भाषाओं और रीति विधान तक सभी से की पुष्टि होती है, परंतु वह इतना विपुल है कि उसका उल्लेख यहां नहीं किया जा सकता।

अब हम उन परिवर्तनों पर नजर डाल सकते हैं जो ऋग्वेद में आए प्रयोगों, तथा भोजपुरी और कौरवी के बीच आज मिलने वाली भिन्नताओं के आधार पर हमारे सामने आते हैं। कौरवी से पूरब की बोलियों में य, व, श, ष, ण, ध्वनियां नहीं मिलती इसलिए हम यह मान सकते हैं ये परिवर्तन आगत भाषा में कुरुक्षेत्र में पहले बोली जाने वाली बोलियों के प्रभाव से आए हैं।

कुरुक्षेत्र से पूरब की ओर बढ़ते हुए स्वरण बढ़ता जाता है, हिन्दी तक में जिसका आधार कौरवी हे, लगभग सभी अकारान्त शब्द हलन्त जैसे हो जाते हैं, हम लिखते ‘हम’ और ‘हमने’ हैं, बोलते ‘हम्’ और ‘हम्ने हैं, दूसरे स्वरों की दीर्घता और, उसी अनुपात में, माधुर्य कम हो जाता है। हरियाणवी बोलने वालों को बात करते हुए सुनकर भोजपुरी भाषी को लगता है वे आपस में लड़ रहे हैं। इसके विपरीत भोजपुरी बोलने वाले हिंदी बोलते हैं तो भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरयाणा के लोगों को लगता है वे गाते हुए बोल रहे हैं। पश्चिमी हिंदी का चौथाई मात्रा वाला ‘अ‘-कार पूरब की ओर बढ़ते हुए मात्रा में आने वाली क्रमिक वृद्धि के कारण बंगाल तक पहुंचते-पहुंचते ओकार में बदल जाता है। वहां ‘अ‘-कार का उच्चारण असंभव हो जाता है। सभी स्वरों का उच्चारण विलंबित होता है जिसके कारण बांग्ला को बहुत मधुर भाषा कहा जाता है।

इस प्रवृत्ति के कारण पूरब से आए किसानों की भाषा, जिसमें स्वरों का स्पष्ट और पूर्ण उच्चारण होता था, और व्यंजन का सवर्णसंयोग होता था, एक ऐसे क्षेत्र की बोली से प्रभावित हो रही थी इसमें स्वरलोप की प्रवृत्ति थी, असवर्ण व्यंजन संयोग होता था, और एकल व्यंजनों को संयुक्त बनाने की प्रवृत्ति थी। मैं नहीं जानता मैं अपनी बात सटीक रूप में कह पा रहा हूं या नहीं परंतु ‘सत‘ का ‘सन्त‘ ‘सत्य‘, ‘सर‘ का ‘स्र‘ ‘स्न‘, ‘वर‘, ‘वर्‘ और ‘व्र‘, होना यहां पहुंचने के बाद ही संभव था।

इसी का प्रभाव था कि ‘बर/बार‘ > ‘वर/वार‘ > ‘वरण/वर्ण/ वारण‘, आदि में बदला। यहां पहुंच कर हम समझना चाहते हैं कि क्या ‘वर्ण‘ का ‘वर्णन‘ से, और ‘वर‘ का ‘वि-वर‘ और ‘वि-वर-ण‘ से सीधा संबंध है या नहीं। यदि है तो वह अर्थ विकास के किस चरण है से जुड़ा हुआ है।
हम पहले यह सुझाव दे आए हैं कि जल में ध्वनि होती है और जिससे ध्वनि पैदा होती है उसका प्रयोग भाषा के लिए किया जा सकता है, ‘भस-जल > भास -प्रकाश >(आ-भास) >भाषा । हम यह भी जानते हैं कि ‘अक्षर‘ का अर्थ जल होता है, ‘तेन क्षरति अक्षरः‘ । समझना यह भी था कि ‘अक्षर‘ के लिए प्रयुक्त ‘वर्ण‘ का भी स्रोत ‘वर‘ और ‘वारि है या रेखा और विभाजन वाला ‘वर‘ और ‘वर्ण‘। संभव है यह काम कल पूरा हो जाय।

Post – 2018-05-20

#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया(

हम भाषा पर विचार नहीं कर रहे हैं, बल्कि भाषा की उत्पत्ति और विकास पर विचार कर रहे हैं । भाषा की उत्पत्ति परिवेश की ध्वनियों का यथाशक्य अनुकरण करते हुए, उनके आधार पर वस्तुओं, क्रियाओं, विशेषताओं, अवस्थाओं, कल्पनाओं को नाम देते हुए हुई है। यह पचासों हजार साल की यात्रा करती हुई अपने वर्तमान रूप में पहुंची है।

हमारी भाषाओं का, जिनमें तथाकथित भारोपीय परिवार की भाषाएं आती हैं, विकास जल की गतियों, और बाधाओं से उत्पन्न असंख्य ध्वनियों में से कुछ का चयन करने से हुआ है।

इसी का निरूपण करते हुए हमारा ध्यान दूसरे पहलुओं की तरफ भी भटक जाता है। हम अनेक दृष्टियों से जांच पड़ताल करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि जिसे हम संस्कृत कहते हैं वह पूरब में बोली जाने वाली एक बोली में निरंतर होने वाले परिवर्तनों का परिणाम है।

मूल भाषा बोलने वालों के वर्चस्व का कारण थी कृषि विद्या में उनकी अग्रता। उनकी सफलता, प्रोत्साहन, और दबाव से प्रेरित अथवा बाध्य होकर जो दूसरे समुदाय खेती की ओर अग्रसर हए उन्होंने उनके अनुभव और जानकारी का लाभ उठाने के लिए उनकी भाषा सीखी। इस क्रम में सीखने वालों की भाषा का वर्चस्वी भाषा पर प्रभाव पड़ता रहा।

उनकी भाषा पर अन्य बोलियों के प्रभाव का एक कारण यह भी था कि खेती में भागीदारी तथा खुशहाली के परिणाम स्वरुप जनसंख्या बढ़ने के साथ उन्हें नई कृषि भूमि की तलाश में अन्य क्षेत्रों में जाना पड़ता । इससे एक ओर तो उनकी शक्ति बढ़ी, प्रसार-क्षेत्र बढ़ा, और दूसरी ओर नए स्थानीय जनों के संपर्क में आने के कारण उनकी भाषा के अनेक रूप स्थानीय बोलियों के प्रभाव से होते चले गए। अंत में उनका एक दल सरस्वती घाटी में पहुंचा और यहां से अर्जित समृद्धि के बल पर उन्होंने कई हजार वर्षों के बाद एक महान सभ्यता का विकास किया और फिर उच्चतर आकांक्षाओं तथा उन्नत जीवन स्तर की स्वाभाविक प्रवृत्ति के फलस्वरूप उद्योग और व्यापार में विस्तार और बोलचाल की भाषा का प्रसार भी हुआ। विभिन्न प्रकार की दक्षताओं वाले लोगों को सम्मान देते हुए उनका उपयोग करने प्रवृत्ति बढ़ी और इसके साथ कुछ नई बोलियों के लोगों का समावेश इस समाज में हुआ।

यह एक जटिल प्रक्रिया थी जिसकी पूरी जानकारी हमें नहीं है, परंतु जितनी जानकारी है उसे भी यदि विस्तार से रखना चाहें तो वह इतना उबाऊ हो जाएगा, कि पढ़ने वाले को भी व्यर्थ लगने लगेगा। इसके बाद भी यह बताना जरूरी है कि नए स्थान की खोज में पूरी की पूरी आबादी अपने स्थान से हट नहीं जाती थी, अपितु उसका एक छोटा सा, अधिक साहसी जत्था ही इस तरह का जोखम उठाता था।

यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि आहार संग्रह के चरण पर किसी समुदाय का अधिकार किसी विशाल क्षेत्र पर नहीं हो सकता था। छोटी छोटी दूरियों पर नए भाषा-भाषी समुदाय अपना देश या अटन क्षेत्र बनाकर निर्वाह करते थे। उन्होंने जब कृषिकर्म अपनाया तो धीरे धीरे अपनी पुरानी बोली काे भूल गए पर बहुत कुछ सीखी भाषा में मला जिसहे नई बोली का निर्माण किया और इस तरह वह चित्र विचित्र नक्शा तैयार हुआ जिसमें बहुत छोटी दूरी के बाद भाषा का चरित्र बदल जाता है। यह व्याख्या भी इकहरी है परंतु इसका सटीक विवरण हमारे लिए असंभव है और किसी दूसरों के लिए खोज का विषय ।

यह याद दिलाना जरूरी है किबीच-बीच में रुक जाने वालों की भाषा संस्कृत बनने की प्रक्रिया का हिस्सा है परंतु संस्कृत नहीं । संस्कृत बनने का सौभाग्य उन सभी क्षेत्रों के प्रभाव को लेकर सरस्वती घाटी में पहुंची भाषा के उत्तराधिकारियों का भी नहीं था, परंतु कालांतर में इस भाषा में वे सभी घटक शामिल हो गए जिनसे समस्याएं ही पैदा न हुई, उनको दूर करने के क्रम में एक ऐसी भाषा की रचना की गई जिसे व्याकरण के नियमों में बांध कर अमर तो बना दिया गया, परंतु उसकी वह ओजस्विता चुक गई जो वैदिक भाषा के समय तक सभी चरणों पर मौजूद थी और बोलियों में आज भी मौजूद है।

जीवंतता भंगुर है, निरंतर परिवर्तनशील,है, पर उसके बाद भी उसमें कुछ होता है जो शैशव से मृत्युपर्यंत बना रहता है। ओजस्विता ठहराव नहीं झेल सकती। केवल ममियां ही अनंत काल तक एक दशा में रखी जा सकती है।

ऐसी भाषा जिसके नियम उसे निश्चल कर दें, वह स्वयं जकड़ी रहकर किसी को मुक्ति नहीं दे सकती, और जो उसे गले लगा ले उसको भी मानसिक रूप से जकड़बंदी का शिकार बना सकती है। संस्कृत के साथ यही हुआ। उच्चारण की शुद्धता पर फिदा होने वाले उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने भारत में भी उर्दू की हत्या करने में कोई कसर नहीं रखी और यहां से गए मुहाजिरों ने भी । केवल इस शुद्धता के कारण पाकिस्तान की दूसरी भाषाओं को अपना शत्रु बना दिया और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जैसे बड़े कद के उर्दू शायर को भी अपने अंतिम दिनों में पंजाबी का शायर बना दिया।

व्याकरण भाषा की जरूरत नहीं है ्भाषा सीखने वाले इतर भाषा-भाषियों की जरूरत है। वे पूरी भाषा सीखने के बाद अपनी बात नहीं कहते, भाषा पर अधिकार होने तक और कई बार इसके बाद भी गूंगे बने रहते हैं।

पीछे का जो चित्र हमने प्रस्तुत किया है उसमें किसी भी चरण पर लंबे अरसे तक कोई भी व्यक्ति ना तो स्थानीय बोली शुद्ध रूप में बोल सकता था, न उसकी भाषा स्थानीय जन शुद्ध बोल सकते थे। अधूरेपन के बीच से गुजरते हुए हम पूर्णता की ओर बढ़ते हैं, परंतु पूर्णता से अधिक दुखद कोई दूसरी स्थिति नहीं हो सकती। हिंदी जीवंत भाषा है, सरकारी हिंदी मरी हुई पैदा हुई क्योंकि उस पर बंदिशें बहुत थी। भारतेंदु के समय से आज तक के हिंदी के गद्य और पद्य के प्रयोगों को देखें और तुलना करने बैठें तो सहज ही समझ सकते हैं कि इसकी जीवन्तता का रहस्य क्या है। बदलाव सभी स्तरों पर हुआ है जिसमें व्याकरण के नियम भी आते हैं।

इसलिए मैंने अपनी चर्चा में व्याकरण की उपयोगिता को चुनौती नहीं दी, शुद्धता को कार्यसाधक शुद्धता के रूप में प्रस्तुत किया। इसे एक उदाहरण से प्रस्तुत करें, हिंदी में नपुंसकलिंग जैसी कोई व्यवस्था नहीं है संस्कृत में है । परंतु संस्कृत का व्याकरण अपने नियमों का एक सीमा तक ही निर्वाह कर पाता है। इसलिए अनेक संज्ञाएं उभय लिंगी हैं। हमारे एक मित्र ने जो बहुत सतर्क संपादक रह चुके हैं एक दिन किसी प्रसंग में खिन्नता प्रकट करते हुए कहा कि कुछ लोग सोच को स्त्रीलिंग लिखते हैं। सच्चे संपादकों की तरह वह कोश देखने के आदी होंगे। कोश में पुल्लिंग मिलेगा।

यहां दो बातों पर ध्यान दें । पहला, औपचारिक शिक्षा व्यवस्था से पहले या इसकी परिधि से बाहर कोई किसी भाषा को न तो व्याकरण पढ़ कर बोलना शुरू करता है नहीं कोश देख कर सही गलत का निर्णय करता है। वह नई भाषा भी व्यवहार के क्रम में गलतियां करते हुए फिर कम गलतियां करते हुए लगभग सही भाषा बोलना शुरू करता है। अंतिम प्रमाण व्यवहार है और उसी के कारण भाषा में बहुत अदृश्य रूप में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं जैसे किसी भी जीवंत प्राणी में। जिसका व्यवहार कम होता है उसे गलत मान लिया जाता है जो प्रचलित होता है उसे सही माना जाता है इसलिए यदि आरंभ में उससे गलती होती भी है तो वह धीरे-धीरे अधिकांश लोगों द्वारा मान्य प्रयोग को अपना लेता है। कोई भी चीज गलतियों से भी बदलती है और बदलने के तरीकों से भी बदलती है, उसका बदलव ही प्रमाण है।

इसलिए मैं ग्रंथ लिखित को प्रमाण तभी मानता हूं जब वह तर्क और औचित्य की कसौटी पर खरा उतरे,अन्यथा वेद लिखित को भी अमान्य मानता हूं। छोटी मोटी भूलों को तब तक भूल नहीं मानता जब तक वह संचार में किसी तरह का अवरोध न पैदा करें। सोच पुलिंग है और समझ स्त्रीलिंग है, सूझ स्त्रीलिंग है जबकि तीनों अकारांत है अमूर्त अवधारणाओं को व्यक्त करते हैं। इनका किसी रूप में प्रयोग संचार में बाधक नहीं होता इसलिए इनके विषय में अतिरिक्त आग्रह, व्याकरण के स्वास्थ्य के लिए ठीक हो, भाषा के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं।

Post – 2018-05-19

#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया(
भाषा की शुद्धता

हम वर्ण, वर्णन और विवरण को वृण, वृणन और विव्रण लिखें तो आपको आपत्ति होगी। परंतु वैदिक समाज को इस तरह के प्रयोगों की आदत ही नहीं पड़ गई थी बल्कि इसे गलत नहीं मानता था। महान भाषाएं संचार पर ध्यान देती हैं व्याकरण की शुद्धता पर नहीं। शुद्धता किसी प्रकार की हो, एक सीमा के बाद वह एक व्याधि बन जाती इसलिए कार्यसाधक शुद्धता सभी क्षेत्रों में वांछनीय है और अतिवाद स्वयं एक व्याधि। भाषा में एक के लिए जो गलत होता है दूसरे के लिए वही सही होता है। दूसरे का सही गलत भी हो सकता है। भाषा का लक्ष्य संचार है, व्याकरण की शुद्धता की रक्षा करना नहीं। व्याकरण भी इसीलिए जरूरी होता है कि वह संचार को सटीक बनाए रखने में हमारी सहायता करता है। ऐसी गलतियां जिनसे संचार में, अर्थात, अपनी बात श्रोता तक पहुंचाने में बाधा नहीं होती, भाषा के मुख्य प्रयोजन में बाधक नहीं है और इसलिए सह्य है। उच्चारण हो अथवा वाक्य विन्यास व्याकरण की अन्य व्यवस्थाएं, इनका अतिरिक्त आग्रह, भाषा को बहुत छोटे से दायरे में बंद करके उसे सामान्य व्यवहार से बाहर कर देता है और इससे भाषा की लोकप्रियता ही नहीं घटती है, अपितु इससे जुड़ी अहम्मन्यता के कारण सामाजिक समस्याएं भी पैदा होती हैं। यह समझ वैदिक भाषा से परिचित होने से पहले मुझ में नहीं थी।

वैदिक समाज को भी यह शिक्षा परिस्थितियों के कारण अपने यथार्थ से मिली थी। गंगा घाटी के किसान नई भूमि की तलाश में सरस्वती घाटी में पहुंचे थे। उनकी भाषा स्थानीय बोली या बोलियों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती थी। स्थानीय बोलियों प्रकृति की प्रकृति क्या थी, इसे हम आज नहीं समझ सकते। उनके विषय में,आगंतुकों की भाषा में परिवर्तन और आज भी इस क्षेत्र की बोलियों में बची रह गई प्रवृतियों के आधार पर, केवल कुछ अनुमान लगा सकते हैं। इनमें से एक थी व्यंजन प्रधानता और स्वरों के लोप की प्रवृत्ति। कुछ नई ध्वनियों का भी प्रवेश हुआ जो पहले आगंतुकों की भाषा में नहीं थी। इनमें हैं अर्धस्वरों का प्रवेश, तालव्य और मूर्धन्य और ऋ और लृ ध्वनियों के प्रति असाधारण अनुराग।

इसके परिणाम स्वरूप हम जिस वर पर विचार करते आए हैं वह कई रूपों में बदला वर >व्र > वृ > व्रि> व्रु। इसके कारण परंपरावादियों के लिए अपनी भाषा को बचाए रखना भी असंभव प्रतीत होने लगा। सच कहें तो जिसे हम जिसे हम संस्कृत कहते हैं वह कुरुक्षेत्र के प्रभाव में परिवर्तित हो गई पूर्वी बोली का इतर नाम है।

Post – 2018-05-18

वर्णव्यवस्था

क्या आपने सोचा है वर्ण का अर्थ सामाजिक विभाजन कैसे हो गया?

इसके एक अर्थ से तो सभी परिचित हैं। वह है रंग। लंबे समय तक सुझाया जाता रहा, वर्ण का संबंध चमड़ी के रंग से है। स्थानीय लोगों का रंग काला था। इसमें गोरी चमड़ी के लोगों का प्रवेश हुआ और इस तरह समाज का विभाजन दो वर्णों में हो गया, एक आर्य वर्ण और दूसरा दास वर्ण। इन्हीं दासों को परास्त करके उन्होंने अपने अधीन किया – यो दासवर्णं अधरं गुहा कः।

परंतु यहां समस्या यह पैदा हो जाती थी कि वर्ण तो चार हैं। चार तरह रंगों में तीन तो आर्यों के ही थे। फिर जिन देशों में, वैदिक (उनके अनुसार भारोपीय) भाषा और संस्कृति का प्रसार हुआ उनमें से अनेक में वर्णव्यवस्था के अवशेष मिलते थे। इसके दो नतीजे निकाले जा सकते थे। पहला, वर्णव्यवस्था का जन्म भारत में हुआ। ऐसा मानने के पक्ष में यह बात भी जाती थी कि भले इसका प्रसार अन्यत्र भी हुआ पर अन्यत्र यह टिक नहीं पाई। भारत में इसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि इसके विरुद्ध आन्दोलन भी किए गए, फिर भी इसको मिटाया नहीं जा सका।

यहां ईसाइयत के दुष्पप्रचार और अवसरवादी हुल्लड़बाजी के बीच यह याद दिलाना जरूरी है, कि ये आन्दोलन आज की शब्दावली के दलितों द्वारा नहीं, सवर्णों द्वारा ही किए जाते रहे और मध्यकाल में भी जब कबीर भर्त्सना में गालियां देते हुए और रैदास अपने मार्मिक तर्क द्वारा, नानकदेव अपने मानववादी आग्रह द्वारा अपना अभियान चला रहे थे तब भी् ब्राह्मणों सहित अन्य सवर्णो द्वारा कितने उत्साह से इसका समर्थन किया जा रहा था, इसका अनुमान सिख पंथ में वेदियों की उपाधि और रैदास की इस दर्पोक्ति में देखा जा सकता है कि वेदज्ञ ब्राह्मण तक उनको दंडवत करते थे। असाधारण आध्यात्मिक ऊंचाई पर पहुंचे या ऐसा भ्रम पैदा कर लेने वाले सिद्धों, संतों, योगियों, फकीरों, तांत्रिकों, सूफियों तक की भारतीय समाज के सभी वर्णों के लोग जाति सीमा को पार करके आदर करते रहे, इसे भुलाना और जो अभी कल तक मानवयातना के कारोबारी रहे हैं उनका क्रीतदास बन जाना, मानसिक दिवालियापन का सूचक है, और इसके शिकार क्रान्तिकारी कहाने को आतुर बुद्धिजीवी सबसे अधिक हैं।

यदि वे सचमुच बुद्धिजीवी हैं तो उन्हेो इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि इतनी प्रबल सामाजिक आकोक्षा के बाद भी यह क्यों बनी रह गई है।

खैर इसे भारतीय परिघटना मानते ही जिन्होंने आक्रमणकारी आर्यों की कहानियां गढ़ी और प्रचारित का थीं, उनका पूरा ताशघर जमीन पर आ जाता था। तब उनकी योजना से उलट यह सिद्ध होता था कि वैदिक भाषा और संस्कृति का प्रसार पूरे भारोपीय क्षेत्र में, किसी भी युक्ति से, भारत से बाहर जाने वाले लोगों द्वारा किया गया था। कालों के देश में काले गोरे काले का फरक भी समाप्त हो जाता था, इसलिए वे बौद्धिक अस्थिरता पैदा करके इसका मौके की नजाकत के अनुसार लाभ उठाते हुए हमारे बुद्धिजीवियों को जाहिलों की तरह इस्तेमाल करते रहे और आज भी कर रहे हैं।

हमारी समस्या यह है की वर्ण शब्द में विभाजन और रंग के दोनों अर्थ कैसे आए? पहले हम विभाजन को लें।

‘वार’ जिसका विकास ‘बाड़’ या ‘बाड़ा’ में हुआ उसके दो रूप थे। एक किसी समुदाय या परिवार के अटन क्षेत्र का निर्धारण करने वाली रेखा या भौगोलिक सीमा। दूसरा जंगली जानवरों के आक्रमण से अपनी रक्षा के लिए लगाई जाने वाली कृत्रिम घेराबंदी जिसे हम ‘चारदीवारी’ या ‘बाड़’ (फेंस) कहते हैं। आगे चलकर ‘दीवाल/दीवार’ या अंग्रेजी के ‘वाल’ का विकास इसी से हुआ। इसी ने बहुत बाद में नगर प्राचीर या प्राकार का भी रूप लिया।

पहले वाले ‘वार’ या ‘वारित भूभाग’ देश की अवधारणा और उसकी सीमा रेखा में विकसित हुआ। ‘वर्ण’ या ‘वारणसीमा के भीतर और बाहर के लोगों का विभाजन’ था। यह एक तरह से स्वजन या भीतर के अपने ‘ज्ञात जन’ और ‘वृजन या अज्ञात वर्ण’ का विभाजन था। ऋग्वेद में वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था में परिणत नहीं हुई थी, या इसमें कठोरता नहीं आई थी, परंतु चातुर्वर्ण्य व्यवस्था कृषि के आरंभ से ही जडें जमा चुकी थी। इतना समय बीत जाने के बाद भी पुराना वर्ण विभाग या अपने-पराये का भेद पूरी तरह विस्मृत नहीं हुआ था अथवा उसका एक व्यापक अर्थ में अब भी प्रयोग हो रहा थाः
दूरे अज्ञाता उषसो बबाधे, 4.23.7 (अज्ञात जनों को उषाएं रोक कर हमसे दूर रखें।)
मा नो अज्ञाता वृजना दुराध्यो माशिवासो अव क्रमुः, 7.32.27 (अज्ञात, बाहरी, उद्दंड और अनिष्टकारी हमारे ऊपर धोखे से हमला न कर दें)।

हमें ऐसा लगता है कि जाति व्यवस्था ज्ञात और अज्ञात, जाति के भीतर और बाहर, का भेद थी। जाति से बहिष्कार एक तरह का देश निकाला था। इसने आनुवंशिक जाति का रूप बाद में ग्रहण किया।

जो भी हो, आहार संग्रह के चरण पर अपने और पराये भूभाग की मर्यादा का निर्वाह सभी करते थे। इसका संकेत करने वाली दो कथाएं रामायण में मिलती है। एक है सुग्रीव और बालि की शत्रुता की कथा, जिसमें यह ध्वनित है कि बालि जितना भी बलवान हो, वह सुग्रीव के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता था और सुग्रीव यदि उसके क्षेत्र में पहुंचा तो उसके जीने मरने की समस्या आ जाएगी। दूसरी है लक्ष्मण रेखा। यह वही सीमा रेखा है जो किसी भी समुदाय के निवास के लिए निर्धारित होती थी। बाहर का कोई व्यक्ति इसमें प्रवेश नहीं कर सकता था। यदि इस सीमा में रहने वाला व्यक्ति स्वयं ही इसका उल्लंघन कर देता है तो वह सुरक्षित नहीं रह सकता। सीता के साथ यही हुआ।

बाड़ की बात तो समझ में आ गई होगी परंतु बांड़ा का अर्थ समझने में तो एक कठिनाई अब भी बनी रह गई है। बाणभट्ट की आत्मकथा में द्विवेदी जी ने इसकी बड़ी रोचक व्याख्या की है। वह संस्कृत के मर्मज्ञ थे, और उनकी व्याख्या का अपना आनंद है। बांड़ा का प्रयोग ऐसे जानवर के लिए किया जाता है जिसका कोई अंग काटकर कहीं गाड़ दिया जाए और उसे खुला छोड़ दिया जाए। अपनी बंधन सीमा से वह मुक्त हो जाता है पर अपने क्षेत्र से संबंध बनाए रहता है।

भोजपुरी में एक कहावत है, बांड़ा बांड़ा जाय, चार हाथ पगहो ले जाय। अर्थात यदि उसे बांध कर रखने का प्रयत्न किया गया तो वह उस रस्सी को भी लेकर चला जाएगा, जिससे उसे बांधा गया था। बांड़ा या तो उस कुत्ते के लिए प्रयोग में आता है जिसकी दुम का एक हिस्सा काटकर गाड़ दिया जाता है और यह विश्वास किया जाता है कि वह उस इलाके को छोड़कर दूर नहीं जा सकता, दूसरा प्रयोग सांड के लिए आता है, जिसकी पहचान के लिए उसका कान आदि कुछ हिस्सा काट दिया जाता था। वह किसी तरह का बंधन नहीं मानता, किसी के खेत में घुस कर चरने लगे तो भी उसे हांकते समय मारा पीटा नहीं जाता । बाणभट्ट का नामकरण यदि उनके मुक्त स्वभाव के कारण किया गया हो तो आश्चर्य की बात नहीं, बाणभट्ट का आशय यदि धनुर्विद्या में पारंगत रहा हो तो भी हैरानी की बात न होगी, और यदि वाणी का ही भोजपुरी उच्चारण बाणी करते हुए उनका नामकरण वाग्भट के आशय में माता पिता ने किया हो तो भी आश्चर्य की बात नहीं। परंतु बाड़ा का अर्थ कटा हुआ या अलग किया हुआ ही है, यह कहने का दुस्साहस हम अवश्य कर सकते हैं।

हम हैं यहां केवल स्मरण दिलाना चाहेंगे कि सभी रंगों के लिए संज्ञा जल के किसी न किसी पर्याय से मिली इसलिए इसका सीधा संबंध रेखा से नहीं, जल की चमक से है।

Post – 2018-05-18

जब मैं कोई सुझाव रखता हूं तो उसका आधार उसकी तार्किक संगति होती है। अर्थ निर्धारण करना न तो हमारा काम है न ही धातु की तलाश करने वालों का था। परन्तु वे यह बता रहे थे कि किसी शब्द का निर्माण किस मूल ध्वनि से हुआ है, और इस क्रम में भविष्य में भी इन युक्तियों को काम में लाते हुए कैसे नए शब्दों को गढ़ा जा सकता है। इतना ही नहीं धातु का अर्थ काफी खुला हुआ था इसलिए पुराने शब्दों का प्रयोग कुछ बदले आशय में कैसे किया जा सकता है। इसलिए संविदा, निविदा, संसद, परिषद, समिति आदि का जिस आशय में ऋग्वेद में प्रयोग किया जाता था, उन शब्दों को वहां से ले कर हम कुछ भिन्न आशय में प्रयोग है, फिर भी वे इतने सटीक प्रतीत होते हैं, मानो इन शब्दों का निर्माण इन संस्थाओं और भावों के लिए हुआ हो। धातु भले काल्पनिक हो, भाषा की इंजीनियरी में इसकी एक कारक भूमिका है।
हम भाषा की उत्पत्ति को समझने के क्रम में यह भी जानते हैं कि किसी शब्द को हम जिस। आशय में प्रयोग करते हैं वह अर्थ आया कैंसे पर अनुमान से हमें भी काम लेना होता है और जैसा हमनें आरंभ में ही निवेदन किया था, ये अनुमान कुछ मामलों में गलत भी हो सकते हैं इसलिए सही विकल्प सुझाए जाने पर हमें अपनी धारणा को बदलने को तैयाररहना चाहिए। हमें केवल यह लाभ है कि हम धातुओं की मदद से कार्यसाधक रूप में समझ आने की तुलना में अधिक पारदर्शी रूप में समझ लेते हैं,और साथ ही हमारी पहुंच उस विशाल शब्दभंडार तक भी हो सकती है जिसे देसी कहा जाता रहा है। सच कहें तो यहां आकर देसी, तद्भव और तत्सम का भेद मिट जाता है और विदेशी प्रतिरूपों को समझने में मदद मिलती है।
उदाहरण के लिए बार को लें। यहां दो तथ्य ध्यान देने योग्य हैं। पहला यह कि इसका प्रयोग जानवरों के बाल के लिए लिए हुआ, कीटज अर्थात् मकड़ी के धागे या रेशम के। तार के लिए ऊर्ण का प्रयोग होता था था और मनुष्य के शरीर के बाल के लिए लोम या रोम का। और सिर के बाल के लिए केश का, इसलिए कुछ भाषाओं में इसका हीनार्थक प्रयोग रूढ़ हो गया, कुछ में यह पूंछ के अर्थ में प्रयोग में आने लगा।
दूसरा वार से व्युत्पन्न बारीक, अर्थात् बाल जैसा पतला जिसका विस्तार दूसरी चूर्ण की या पिसी हुई चीजों के सन्दर्भ में तो होता ही है सूक्ष्मता के कतिपय अन्य आशयों में भी होता है जैसे नजर, नोक या धार के लिए पर वार को छोड़ कर दूसरे प्रयोग बोलियों तक सीमित हैं? संस्कृत में इनके लिए तनु, सूक्ष्म, तीक्ष्ण का प्रयोग । अंग्रेजी में तनु > टेंडर, थिन पहुंचता है, भेड़ के बाल के लिए वार या बाल नहीं। वार या बाल का अर्थ किसी तर्क से मुड़ा हुआ से आगे बढ़कर गोल या गोलाकार हो जाता है। थिन या तनु पर हम पीछे विचार कर आए हैं कि जलार्थक तन कैसे तन्वन, तन्तु, तांत और तंत्र, तान्त्रिक, तन्त्रिका आदि का जनन करता है और तर (पानी,आर्द्र) >तार, तर्क, तारक, तारिका, तरीका, तरतीब, आदि का। हर हाल में हमें सूक्ष्मता और महिमा के लिए जल की ओर लौटना पड़ता है। पर हैरानी बारीक के दूरे पर्याय, ‘महीन’, को लेकर होती है जिसका मूल मह है जो महत के लिए प्रयोग में आता है।

Post – 2018-05-17

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हुकुम सदर

जब मैं छात्र जीवन में रात को बिछिया छावनी क्षेत्र से गुजरता एक कड़कती हुई आवाज सुनाई पड़ती थी। हुकुम सदर। यह वार्निंग थी। जवाब में अपना परिचय देना होता। बिना जवाब दिए आगे बढ़ने पर वह गोली दाग सकता था। समय लगा यह समझने में कि वह who comes there बोल रहा था।

जब मैं ‘वर’ या सीमा रेखा के सन्दर्भ में ‘वार करने’ की बात कर रहा था तो क्या आपका ध्यान अंग्रेजी के war की ओर गया था? .आदिम चरण पर ठकराव से बचने के लिए मानवकुलों या परिवारों हे भूभाग का आपस में बटवारा किया था तो उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाला भूभाग ही उनका देश था। उनकी अनुमति के बिना या इच्छा के विपरीत इसमें किसी अन्य का प्रवेश इस पर आक्रमण था। आक्रमण या aggression का अर्थ ही है सीमा लांघ जाना या उसके पार कदम रखना। यह युद्ध का आदिम रूप था । अपने ‘देश’ या ‘परि-वार’ की प्राणपण से रक्षा करना प्रत्येंक सदस्य का कर्तव्य था। कुशिक्षित लोगों की देशप्रेम, राष्ट्रनिष्ठा आदि पर मूर्खतापूर्ण फिकरेबाजियों के इस दौर में इस बुनियादी सचाई को रेखाकित करना जरूरी है।

जब घुसने वाले के ‘वारण’ का अर्थ समझा रहे थे तब क्या आपने अंग्रेजी के warn और warning शब्द पर ध्यान दिया था?

‘वर’ से निकले एक महत्वपूर्ण शब्द की चर्चा तो हमने की ही नहीं, वह था ‘वर्म’। ऋग्वेद में इसका और सिर पर शिप्रा का उल्लेख पाकर सर जान मार्शल खासे उत्साह में आ गए थे और यह घोषित कर दिया था किआर्य हेलमेट लगाते और बख्तर पहनते थे, अयस से तो परिचित थे ही इसलिए उन्हें लोहे की जानकारी थी जबकि सिंधु घाटी से लोहे का प्रमाण नहीं मिला है अतः आर्यों का यह हमला लोहे की खोज के बाद हुआ था।

अंधों को अंधेरे में दूर की सूझती है, इसलिए जब इस बात का खंडन हो गया भारत पर आर्यों का कोई हमला हुआ था तो 2003 में मध्यकाल के इतिहास के एक जानकार विद्वान ने जो पूरे भारतीय इतिहास के अधिकारी होने का दावा करते हैं एक अन्य अध्यापक के साथ मिलकर ‘कमिंग ऑफ आयरन’ नाम से एक किताब प्रकाशित की जिसकी ध्वनि ‘कमिंग ऑफ आर्यन’ की थी। इसलिए दोनो को अपना इतिहास ज्ञान दुरुस्त करते हुए यह समझना होगा कि लोह विद्या का प्रसार दुनिया में भारत से हुआ था फिर भी हम गोइंग आफ आइरन की बात करना समझ का भोंडापन ही मानेंगे।

इन मजेदार संदर्भों के बाद यह बताना जरूरी है कि वैदिक काल में बाणोंके प्रहार से रक्षा के लिए सिर पर केसरिया पगड़ी ( शिप्रा शीर्षसु वितता हिरण्ययीः, 5.54.11 शिप्रा – ऊष्णीषं), बांधी जाती थी और वर्म छाती पर लपेटा जाता था। यह रूई या पत्ती भरकर बनी कपड़े की एक पट्टी होती थी जिसे सी कर बनाया जाता था (वर्म सीव्यध्वं बहुलापृथूनि ।10.101.8 ) । वर्म की अवधारणा का स्रोत सोभवतः ऊर्ण या रेशम के धागे का वह कोया है जिसके भीतर रेशम का कीड़ा सुरक्षित रहता है।

जो भी हो जो भी हो यदि वर्म ‘वर’ या ‘वार’ से निकला है, तो उसमें भरी जाने वाली ‘रूई’ ‘रोम’ या ‘रोवा’ का हीनार्थ ‘रोम से भी मुलायम’ है। हम प्रश्न करें आपने वर्म का उल्लेख होने पर अंग्रेजी के warm शब्द पर गौर किया। संभव है दोनों के बीच कोई रिश्ता हो। लीजिए, कोट coat के बारे से कोटर की तो याद आई ही नहीं।

वर से व्युत्पन्न एक दूसरा रोचक शब्द है वरिमाण या व्याप्ति। इसका हवाला पृथ्वी के विस्तार के संदर्भ में आया है ‘वरिमाणं पृथिव्याः’ । महिमा, गरिमा की तरह ‘वरिमा’ या विषुवत रेखा (विषूवृत) की यह अवधारणा कुछ कम रोचक नहीं।