#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया((3)
पूरब की ध्वनिमाला में ‘व‘ के प्रवेश के बाद पश्चिमी बोली में ‘बर‘ का ‘वर‘ हो गया, परंतु इससे उसकी प्रकृति में अंतर नहीं आया। पूर्वी क्षेत्र की बोली इससे अप्रभावित रही और इसी अनुपात में उस शब्द संपदा से भी वंचित रही जो वकार से पश्चिम में निर्मित हुई। आज यह बात कुछ विचित्र लगेगी कि शायद सारस्वत क्षेत्र मे ब की ध्वनि नहीं थी, परन्तु जिस पैमाने पर पूर्वी के बकार का वकार में परिवर्तन हुआ लगता है, उससे यह आशंका पैदा पोती है। यदि पश्चिमी दिशा में अग्रसर हुए कृषि कर्मियों के बीच संपर्क सूत्र किसी भी कारण से बाद में भी बने रह गए हों तो संभव है, सारस्वत क्षेत्र में गढ़़े कुछ शब्द पूर्व में भी पहुंचे हो जिनकी ध्वनि बदलकर वे उनका प्रयोग करते रहे हों। संस्कृत के प्रभाव से बाद के कालों में यह प्रक्रिया और भी तेज हुई हो सकती है।
आज के तीव्र गति के यातायात के साधनों के आतंक में प्राचीन कालों के संदर्भ में इतने सुदूर क्षेत्र से संपर्क सूत्र की बात किंचित अविश्वसनीय लगती है। परंतु पुराने समय में, अतीत कालीन स्थलों से रागात्मक संबंध इतना प्रगाढ़ होता था कि वे स्थल तीर्थ जैसी और वहां की विशेष वस्तुएं तीर्थ के प्रसाद जैसी पवित्रता ग्रहण कर लेती थी। कृषिकर्मियों के आदिम स्थाई निवास को मैं नेपाल की तराई के गंडकी क्षेत्र में इसलिए कल्पित करता हूं कि शालिग्राम का पत्थर पूरे भारत में इसी क्षेत्र से आजतक प्राप्त किया जाता रहा है। इस क्षेत्र की महिमा का अन्य कोई कारण दिखाई नहीं देता। गंडकी सदानीरा का एक नाम नारायणी भी है। मेरी अपनी मान्यता है कि शालिग्राम उस बटिका को कहा जाता था, जिससे प्रसाधन के यंत्रों का विकास होने से पहले धान से चावल अलग किया जाता था अथवा धान के खील को पीसकर शालिचूर्ण बनाया जाता था। प्राचीन काल के उपयोगी साधनों का दैविकरण अनेक रूपों में हुआ है यह बात हम बहुत पहले कह आए हैं। इसे यहां इसलिए दुहराना पड़ रहा है कि इस बात को रेखांकित किया जा सके एक प्राचीन कालों में सुदूर क्षेत्रों से आंतरिक संपर्क कभी टूटा नहीं था, यद्यपि विशिष्ट पहचान वाली क्षेत्रीय इकाइयां किसी न किसी पैमाने पर सदा से विद्यमान रही है और इससे हमारी भाषा संस्कृति और खानपान सभी अदृश्य रूप में प्रभावित होते रहे हैं।
वर की व्यंजन ध्वनियों (व्, र्) को अदल-बदल कर विविध स्वरों के योग से नए संयोजन पूर्वी की प्रकृति में थे, ये पश्चिमी बोली में भी बने रहे। वर का वार, रव, राव, रवा, वरा, वारा, रवि, रावी, विर, वीर, वीरा आदि रूप लेते हुए नई अपेक्षाओं के अनुसार शब्द निर्माण करना पश्चिमी में भी चलता रहा। इससे जो विशाल शब्द भंडार तैयार हुआ है उसकी करना कराना न तो संभव है नहीं मेरे द्वारा उसे तालिका वध किया जा सका है। परंतु एक ही वस्तुस्थिति के लिए भिंन्न स्वरों के उपयोग से शब्दावली का निर्माण कुछ रोचक अवश्य हो सकता है। उदाहरण के लिए वर के वार, वारण आदि पुरुषों से एक और तो दीवार, चारदीवारी, तथा युद्ध -वार-, और आघात, अर्थात वार करना, के लिए शब्द निर्मित हुए, इसलिए वीर, वीर्य, वैर आदि को हम हम मात्र ध्वनि परिवर्तन से गड़े हुए शब्दों मान सकते हैं, परंतु वारा की भांति वीर भी जल की ध्वनि से उत्पन्न एक स्वतंत्र शब्द था। इस विवेचन में पढ़ने पर हम बहुत सकते हैं। अस्तु।
पश्चिम की दिशा में बढ़ने वाले केवल भौगोलिक यात्रा नहीं कर रहे थे, अपितु भिन्न भाषा समुदायों के संपर्क में आने के साथ उनको अपनी सामाजिकता का हिस्सा और उनकी बोलियों की विशेषताओं को अपनी भाषा का अंग बनाते हुए पढ़ रहे थे। अन्य ध्वनियों के प्रवेश उनके लिए कोई समस्या नहीं पैदा नहीं हो रही थी। उनकी भाषा अजंत अथवा स्वरांत प्रधान थी। इसमें सवर्ण संयोग ही होता था । ध्वनिगत भिन्नताओं के होते हुए भी भारत की लगभग सभी भाषाओं की प्रकृति ऐसी ही थी, इसलिए नए समुदायों के समावेश से उनकी भाषा की प्रकृति प्रभावित नहीं होती थी। इसका एकमात्र अपवाद कौरवी भाषा की। हरियाणवी के पश्चिम में पंजाबी इंद्र को आज भी इंदर बना लेती है। हम कह सकते हैं अकेले सारस्वत क्षेत्र में एक व्यंजन प्रधान बोली बोली जाती थी जिसकी प्रकृति सामी थी।
हम इसे विगत हिमयुग की अकल्पनीय उथल-पुथल का परिणाम मानते हैं। इस सच्चाई को समझ न पाने के कारण हार्नले और ग्रियर्सन ने कभी आर्यों के दो आक्रमणों का सुझाव दिया था और जिसका अनुमोदन रामप्रसाद चंद्र ने मानववैज्ञानिक (शिरोरचना) के आधार पर किया था। इसके अनुसार आर्यों का दूसरा आक्रमण पहले के आर्यों पर हुआ था और इसके बाद वे अपने क्षेत्र से चारों और बिखर गए थे और केंद्र में नए आर्य बस गए थे जिनकी भाषा ऋग्वेद की भाषा है। पर जिल विशेषताओं की बात हम कर रहे हैं वे तो वे तो तथाकथित द्रविड़ और कोल परिवार में गिनी जाने वाली भाषाओं मेो भी पाई जाती हैं। कितनी असंगतियों और विसंगतियों का घालमेल करते हुए विद्वान आक्रमण के सिद्धांत पर डटे रहे यह सोच कर आज हंसी आती है और जब यह सिद्धांत हमारे विद्वानों द्वारा भी स्वीकार कर लिया गया था तब इस पर किसी को रोना तक नहीं आता था। पहले वाले आक्रमणकारी कहां से आए थे, भारत से बाहर किस क्षेत्र की भाषा में वे प्रवृत्तियां पाई जाती हैं जिनका हम ऊपर उल्लेख कर आए हैं, यह सोचने की किसी को फुर्सत न थी।
जो भी हो, यह व्यंजन प्रधान भाषा जहां से भी आई हो इसने भारतीय भाषाओं को संस्कृत के माध्यम से जितनी गहराई से प्रभावित किया और बाद में भी यह क्षेत्र कई भाषाओं के अखिल भारतीय चरित्र का निर्माण करने में सक्रिय भूमिका निभाता रहा, यह एक रोचक भाषावैज्ञानिक तथ्य है, जिसके रहस्य की सही जानकारी हमें भी नहीं है। साथ ही इस रहस्य की भी जानकारी नहीं है कि उत्तर भारत में नई भाषाओं का जन्मा पूर्वी हिंदी क्षेत्र की सक्रियता से ही क्यों होता रहा है।
इस तरह है भारत में भाषाओं के चरित्र निर्धारण में चार क्षेत्रों की कारक भूमिका रही है एक पूर्वी हिंदी क्षेत्र, दूसरा कौरवी क्षेत्र, तीसरा महाराष्ट्र और चौथा मदुरई जो तथाकथित द्रविड़ भाषाओं के चरित्र निर्धारण में निर्णायक स्थान रखता रहा है।
नई ध्वनियों के प्रवेश से पूर्वी बोली अधिकाधिक समृद्ध होती रही और इस दृष्टि से अपने ऐतिहासिक महत्व के बावजूद भोजपुरी अपने से पश्चिम की बोलियों की अपेक्षा कुझ विपन्न दिखाई देती है और इसी का परिणाम है कि संस्कृत के केंद्रों के बावजूद साहित्यिक दृष्टि से अवधी या ब्रजभाषा की समकक्षता में न आ सकी।
इसके लिए भाषा कहां तक उत्तरदायी है इसका निर्णय करना आसान नहीं है, क्योंकि राम अवधी और कृष्ण व्रज क्षेत्र में पैदा हुए इसलिए भक्ति साहित्य का केंद्र बनने का लाभ इन भाषाओं को मिला। जायसी कुतुबन जैसे किसी सूफी कवि ने भी किन्ही कारणों से भोजपुरी को अपना माध्यम नहीं बनाया, भाषाओं के साहित्य उत्थान में इनकी भूमिका रही है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। यह तथ्य तब और ुजागर हो जाता है जब आधुनिक काल से पहले हम कौरवी को भोजपुरी से भी तिरस्कृत पाते हैं।
अतः हम अपनी चर्चा भाषा तक ही सीमित रखें को अधिक निरापद होगा। पूर्वी भाषा में एक और तो नई ध्वनियों की सहायता से बने हैं नए शब्दों को अपनाने का प्रयत्न किया दूसरे उनके समानांतर अपने शब्द गढ़े और इससे नई अर्थ छटाओं वाली शब्दावली का विकास हुआ, जिसका पूरा लाभ संस्कृत तो न उठा सकी पर यह लाभ हिंदी को अवश्य मिला। कुछ मामलों में हम यह तय नहीं कर सकते उसके प्रयोग पहले के हैं या बाद के। हम दो समानांतर श्रृंखलाओं में रखकर समझ सकते हैं। पहली के नमूने हम ‘वर’ पर विजार करते हौए दे आए हैं, दूसरी की कुछ बानगी नीचे गाई जा सकती हैः
बर/बड़> बर- 1. बरगद, 2. पत्ता, 3. दूल्हा, 4. किनारा (बरहज, बरहल, बरौनी, बरसाना, बारीसाल -तटीय स्थानों क् नाम), , बारी – 1. पत्ते के पात्र (दोना, पत्तल) बनाने वाले,> बरई/ बरेल – पान या पत्ते का कारोबार करने वाले, 2. बाग, बरोह, बरिआर, बरोह, बारा(बड़ा, त. वडै, बरी (बड़ी), बड़ाई, बढ़, बढ़ना, बढ़ावा, बबढ़ोतरी, बढ़वार, बढ़िया, बढ़ई (गढ़ने वाला, बढ़िया बनाने वाला), बूढ़, बार, बरौनी, बाढ़ आदि।