Post – 2018-06-12

#वैदिककविता

शब्द प्रयोग
वैदिक कविता के सौंदर्य पक्ष पर बात करने के प्रलोभन के बाद भी, अपने को इसलिए रोकना पड़ता है क्योंकि उसके चलते प्रस्तुत विषय से इतनी दूर चले जाने का डर है कि फिर भाषा के पक्ष पर वापसी हो ही न पाए। वे ऋचाओं, या अर्द्धालिओं में ही पूरा चित्र नहीं खड़ा कर लेते थे, अपितु कुछ कवि शब्दों में ही पूरा दृश्य उपस्थित कर देते थे। चित्रभानु – रंग बिरंगी रश्मियांं विकीर्ण करने वाला, पर्जन्यक्रन्द -वर्षा के घनगर्जना सी ध्वनि करने वाला, विश्वचर्षणी समस्त जगत का अवलोकन करने वाला, दशभुजी पृथ्वी- दसों दिशाओं के रूप में अपनी भुजाएं फैलाकर ब्रह्मांड को समाहित करने वाली भूदेवी, विश्वमिन्व – समस्त जगत को धन धान्य और आनंद से पूर्ण करने वाला/वाली, प्रातर्यावाना- प्रातः काल ही यात्रा पर चल देने वाले, उषर्बुध- उषा की रेखा के साथ ही नींद से उठ जाने वाले, विश्वपेशस् – बहुविधरूपयुक्तं, विश्वभानु – सर्वतः व्याप्ततेजस्क, विश्वभोजस – समस्त भोग्य पदार्थों से युक्त, विश्व भेषज- समस्त रोगों का निवारण करने वाला, समुद्रवासस- बादलों का वस्त्र पहने हुए (अग्निदेव), ज्योतिर्वसाना – ज्योतिका वस्त्र पहने हुए (उषा ), तविषीभिरावृतम् – ज्योतियों(शक्तियो) से आवृत, दुरोकशोचि- दष्प्राप्य तेज वाला, स्वर्दृशीक – स्वर्गोपम/ सूर्योपम, स्वाधी, विश्वधाय- समस्त विश्व को धारण (पालन) करने वाला, हिरण्यवर्तनी- अपने बहाव का मार्ग निरंतर बदलती रहने वाली या अपने प्रदेश को धन धान्य से पूर्ण करती रहने वाली,, सिषासु -धन जोड़ने की फिक्र में रहने वाला, शुक्रवास – श्वेत वस्त्र धारण करने वाला, , जिह्मबार – जिह्ममधस्ताद्वर्तमानतया वक्रं वारं द्वारं यस्य, समुद्रज्येष्ठ – समुद्रो अर्णवो प्रशस्तमो यासां मध्ये, जल भंडारों में सबसे विशाल (महासागर), समुद्रव्यचसं – समुद्र की गर्जना जैसा स्वर (इन्द्रं विश्वावीवृधन्त् समुद्रव्यचसं गिरः, जिसके लिए इसी से प्रेरित मेघमन्द्ररव गढ़ा गया।

शब्दों की नवीनता और सटीकता की तुलना भाषाविदों की सहायता से तैयार की गई शब्दावली से करें तो अन्तर स्पष्ट हो जाएगाः सत्यमन्त्रा, ऋजूयवः, अन्तरिक्षप्रां, मदच्युतं, संभृतक्रतु, बद्बधान, अद्रिदुग्ध, स्वतवस, रघुष्यदः, धनस्पृत, . इस गणना को और आगे बढ़ाते जा सकते हैं, परंतु उसका कोई लाभ नहीं। इतना ही पर्याप्त है कि हमारी तकनीकी शब्दावली के सवसे सटीक शब्द वे हैं जो ऋग्वेद से लिए गए हैं।

अधिक रोचक यह बात है कि वे शब्द निर्माण में कितनी छूट लेते थे और युक्तियों का प्रयोग करते थे। जाहिर है क्यों उनके बहुत से प्रयोग आगे चल ही नहीं पाए और इसका एक कारण यह था इसके बाद प्राकृतिक आपदा के लंबे दौर में नष्टप्राय हो चुकी सभ्यता में इनका कोई उपयोगिता नहीं रह गई थी। अभाव के कारण नागर सभ्यता से जुड़े हुए सभी लक्षण लगभग मिट्टी में मिल चुके थे और अगली पीढ़ियों को अपने नाखून से खोदते हुए टूटी फूटी विरासत को बचाना था, जिसमें उन्नत भाषा के लिए सबसे कम अवकाश था इसलिए जुटाए गए साहित्य में तो वे बचे रहे पर

कुछ शब्दों के बारे में यह शिकायत भी की जा सकती है कि उनके निर्माण में प्रयोगधर्मिता कुछ आगे बढ़ गई थी। इसमें छोटे शब्द भी आते हैं और दीर्घकाय शब्द भी। सर्वनाम के साथ सामान्यता संधि नहीं होती परंतु वैदिक प्रयोगशीलों के लिए कोई बंधन मान्य नहीं थाः सः+इमम्= सेमं, उपसर्ग धातुओं के साथ लगते हैं, संज्ञा के साथ नहीं, परंतु वेदिक कवियों को इसकी चिंता नहीं थी – आ+इंद्र = ऐन्द्र, उपसर्ग धातु से पहले लगते हैं वैदिक कवि पूरी पंक्ति में आगे पीछे शब्दों के अंतराल के बाद कहीं भी रख सकते थे ‘आ तू न इन्द्र शंसय‘ में संशय से दो शब्द पहले ही उपसर्ग को रख दिया गया। आगमत की जगह आ घा गमत् , आ स्वश्व्यं दधीत = स्वश्व्यं आदधीत आदि. अपनी कल्पना से वे तरह-तरह के नए संयोजन कर रहे थे अकामकर्षण, अकृत्तरुक, परंतु सबसे मजेदार है आ+इत+अ+याम+उप = एतायामोप. इहेहमातरा = इह+इह+माता – सर्वत्र माता ययोस्तादृशौ स्थः, सास्युक्थ्यः = सः+असि+उक्थ्यः, स्वेदुहव्यैः = स्व+इत्+उ+ हव्यैः, सचोतेधि = सचा+उत+एधि;।

वैचित्र्य का एक कारण भाषा का व्यवहार कई भाषाई पृष्ठभूमियों से आए हुए और देव भाषा सीखने के प्रयत्न में लगे हुए लोगों के प्रयोग की विचलनें हैं जिन्हें संभवतः वे स्वयं लक्ष्य भी न कर पाते रहे हों, इसलिए सः> स्यः (यः स्यः दूतो न आजगन् ), स्वयं – स्वेन (स्वेना हि वृत्रं शवसा जघन्थ ), कुण्वैते, ब्रवैते, वितन्तसैते, इयत्तक/इयत्तिका; जैसे प्रयोग देवभाषा के लोगों द्वारा किए जाते रहे हो सकते हैं, परंतु इसके लिए जितना विस्तृत ज्ञान होना चाहिए उसके लिए मेरे पास समय नहीं है परंतु इत्ता सा, इत्ती सी जैसे प्रयोग भोजपुरी में चलते हैं। देभुः, वन्दारु, सनेरु, जबारू, कुणारु, निचेरुः,अभ्यारुः, तितिरुः, कारु,पेरुः,शरुः, विभंजनु, वंकू में भोजपुरी प्रत्यय साफ देखा जा सकता है।

Post – 2018-06-12

#विषयान्तर
दूरदर्शन को मोदीदर्शन न बनाएं

घटनाओं का होना, दुर्घटनाओं का बढ़ना, समाचारों का लोप, विचारों की दरबाबंदी मिलकर एक ऐसे अंधलोक की सृष्टि करते हैं जिसमें मनुष्य की भावुकता को मनजाही हदों तक उभारा और उनका विनाशकारी उपयोग किया जा सकता है। यह सचेत रूप में हो या अचेत रूप में, परिणाम एक ही होता है। हम इसी दौर से गुजर रहे हैं। निजी संचार माध्यमों के बाजारीकरण के बाद कोई भी पैसा देकर उनसे किसी भी विचारयो व्कायभिचार का प्रसार करा सकता है, रुचि को किसी भी दिशा में मोड़ सकता है, विकल्प के अभाव में कुरुचिपूर्ण, अश्लील, उपद्रवकारी सामग्री की आदत पैदा कर सकता है और हम इन योजनाओं के पीछे काम करने वाले व्यक्तियों के हाथ में नाचने वाली कठपुतली जैसा आचरण करने को विवश हो सकते हैं। समाचार पत्रों का हाल दृश्य और श्रव्य माध्यमों से अधिक अच्छा नहीं है।

मैं, सूचना के लिए पहले केवल दूरदर्शन को देखता था। अब दूरदर्शन पर केवल मोदी जी दिखाई देते हैं। अपने विरुद्ध विचारों का प्रसार करने का इससे अधिक मूर्खतापूर्ण कोई तरीका नहीं हो सकता। दूसरे दल, आपस में मिलकर या अलग अलग जो कुछ कर रहे हैं उसका लाभ भाजपा को मिलेगा इसे वे नहीं समझते, और भाजपा अपने प्रचार के लिए जो कुछ कर रही है उसका नुकसान सबसे अधिक उसी को उठाना पड़ेगा यह मुझे पक्का विश्वास है ।

प्रचार की अति और आत्म प्रशंसा विरक्ति पैदा करते हैं, इसका पाठ भाजपा को, इंडिया शाइनिंग के परिणाम से पढ़ लेना चाहिए था। वास्तव में उन दिनों जनमत का झुकाव भाजपा की ओर था। इसी से उत्साहित होकर अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही वाजपेई जी ने निर्वाचन का विकल्प चुना था। परंतु प्रचार में दूरदर्शन तथा अन्य सूचना माध्यमों से इंडिया शाइनिंग का जो अंधड़ चलाया गया, उसके परिणाम का पूर्वानुमान करते हुए मैंने एक बहुत नाजुक अवसर पर, बहुत गलत तरीके से, कुछ अशोभन लहजे में, तत्कालीन एनसीईआरटी के निदेशक से कहा था -आपको केवल 3 महीने मिले हैं इस बीच इतिहास की पुस्तक में जो कमियां हैं उन्हें दुरुस्त करा लें जिससे किताब आगे भी बढ़ाई जा सके अन्यथा सत्ता बदलने वाली है और यह किताब हटा दी जाएगी ।

इस अवसर पर दवे जी, विजय बहादुर सिंह और चित्रा मुद्गल भी उपस्थित थे। निदेशक महोदय ने जितनी शालीनता से मेरी कटूक्ति को सहन कर लिया था उसके कारण मेरे मन में एक व्यक्ति के रूप में उनका सम्मान सदा के लिए बढ़ गया यह अलग बात है।

परंतु जब सभी लोग भाजपा की जीत के सपने देख रहे थे, मैं इंडिया शाइनिंग के अति प्रचार के कारण भाजपा के संकट को निश्चित मान रहा था। आज भी सभी अपनी अपनी भाषा में स्वीकार करते हैं कि मोदी का कोई विकल्प नहीं है। अनेक गलतियों के बाद भी मोदी ने जो काम किए हैं वे उन गलतियों से कई गुना इष्टकर हैं। मैं उन लोगों में हूं जो मानते हैं कि मोदी को छोड़ कर किसी के हाथ में भारतीय शासन का जाना देश के लिए अनिष्टकर है इसलिए मैं चाहता हूं कि मोदी और भाजपा के लोग प्रचार के गलत हथकंडे न अपनाएं, अतिप्रचार से बचें। उनके प्रचार का काम उनके विरोधियों के कथन और काम स्वयं करते जा रहे हैं और आगे भी करेंगे। मेरा एक छोटा सा स्वार्थ है कि दूरदर्शन को दूरदर्शन रहने दिया जाए मोदीदर्शन न बनने दिया जाए।

Post – 2018-06-10

#वैदिककविता

काव्य प्रयोग

मैं यहां बहुत संक्षेप में अपनी बात कहने का प्रयत्न करूंगा। श्री अरविंद ने भावी कविता के विषय में कुछ विचार रखे थे जो उनके देहावसान के बाद धर्मयुग में प्रकाशित हुए थे। इसमें उन्होंने यह आशा व्यक्त की थी कि भविष्य में कविता उस ऊंचाई पर पहुंच सकती है जो ऋग्वेद में पाई जाती है। यह अपने आप में वैदिक कविता की अर्थगर्भिता और सौंदर्य बोध पर एक सार्थक टिप्पणी है।

इससे पहले छन्द पर कवियों के प्रयोगों के प्रसंग में, प्रचलित छंद में कुछ काट-ब्यौत करने की बात की थी। परंतु इस प्रयोग का एक पक्ष शब्दलाघव से जुड़ा है। ऐसा कवि उसी बात को कम से कम शब्दों में अधिक प्रभावशाली ढंग से कहने का दावा भी करता था। इसका सबसे अच्छा उदाहरण एकपदा विराट हैः

उरौ देवा अनिबाधे स्याम। 5.42.17

इस छोटी सी ऋचा का अर्थ समझने के लिए हमें उन व्यापारिक सार्थों की चिंता को समझना होगा जो जंगलों झाड़-झंखाड़ों या उबड़ खाबड़ इलाकों से हो कर गुजरते थे घबराए रहते कि कहीं रात बिताने के लिए खुली जगह ही ना मिले या ऐसा इलाका मिल जाए जहां उपद्रवी लोगों की बस्ती हो, माल और जान के लिए खतरा हो। पंक्ति का अर्थ है हे भगवान, हमें खुली जगह मिले और किसी तरह की बाधा न उपस्थित हो।

इसी भाव बोध की एक दूसरी ऋचा हैः
आ वां सुम्ने वरिमनत्सूरिभिः ष्याम् ।। 6.63.11
तुम्हारी कृपा से हम खुली जगह में शांति से अपने स्वजनों के साथ रहें।

द्विपदाविराट की यह ऋचाछ

तपन्ति शत्रुं स्वर्ण भूमा महासेनासो अमेभिरेषाम् ।। 7.34.19
विशाल सेनाएं रखने वाले अपनी प्रबलता शत्रुओं को उसी तरह दग्ध करते हैं जैसे तपता हुआ सूर्य धरती को।

ऋग्वेद की ऋचाएं स्वतंत्र कविताएं हैं जिनको सूक्तों में संकलित किया गया है। प्रत्येक ऋचा दोहों, चौपाइयों यह उर्दू के शेरों की तरह अपनी बात पूरी तरह कह लेती है। एक विषय या केंद्रीय भावभूमि से जुड़े होने के कारण उन्हें एक सूक्त में रखा गया है। पूरी कविता एक पंक्ति की भी हो सकती है यह पहले मेरी समझ में नहीं आता था। पहले इस और भी ध्यान नहीं गया था के सूत्र कथन का विकास एकपदा विराट से हुआ हो सकता है।
यह निर्विवाद है किसी बात को प्रभावशाली ढंग से कम से कम शब्दों में कह लेने की कोशिश ऋग्वैदिक काव्य भाषा का प्रधान गुण है। कुछ ही शब्दों में वर्ण्य विषय या कथ्य को मूर्त करने की क्षमता चकित करने वाली है ।

कुश-कास से जमीन को साफ करने के लिए आग का प्रयोग किया जाता था ऐसे ही एक दृश्य का चित्र एक ऋचा में हैः

यदुद्वतो निवतो यासि बप्सत्पृथगेषि प्रगर्धिनीव सेना ।
यदा ते वातो अनुवाति शोचिर्वप्तेव श्मश्रु वपसि प्र भूम ।। 10.142.4

आग ऊंची नीची भूमि पर झाड़-झंखाड़ का भक्षण करती हुई हुई आगे रही है और इसी बीच मुख्य धारा से अलग होकर बढ़कर जलाने लगती है, जैसे सेना का अग्रिम दस्ता हो।और इसके साथ प्रवाहित होने वाली हवा का योग मिलता है तो एक झटके में दूर तक इस तरह सफाया हो जाता है मानो नाई ने धरती की दाढ़ी का सफाया कर दिया हो।
इसमें सूक्ष्म अन्वीक्षण के साथ पूरे चित्र को एक ऋचा में चित्रित करने की क्षमता और भाषा पर ऐसा अधिकार कितने कवियों में हो सकता है, इस पर कोई टिप्पणी आवश्यक नहीं।

हम जानते हैं कि अपने विस्तार के क्रम में हड़प्पा सभ्यता का अंतर्देशीय प्रसार हुआ था और अंतर्राष्ट्रीय शब्द का यदि हम कुछ रियायत के साथ प्रयोग करें तो अंतर्राष्ट्रीय प्रसार भी हुआ था। अंतर्देशीय प्रसार के इसी क्रम में इसका विस्तार सौराष्ट्र और कच्छ में हुआ था। यह काम एक झटके में आक्रमणकारियों जैसी तैयारी के साथ नहीं हुआ था बल्कि धीरे धीरे जमाव बढ़ता चला गया था। मुख्य भूमि समुद्र तट तक पहुंचने की यात्रा का एक ऋचा में हुआ में हुआ है।

इमं विधन्तो अपां सधस्थे पशुं न नष्टं पदैरनु ग्मन् । 10.46.2

जैसे चोरी गए हुए पशु को खोजने के लिए उसके पांवों का निशान देखते हुए उस तक पहुंचा जाता है उसी तरह अग्नि परिचर्या करते हुए पहले के जाने वालों के राख आदि को देखते हुए सही रकस्वेता पहचानते हुए वे समुद्रतट तक पहुंचे। इस प्रसंग में याद दिला दें कि पशुओं की चोरी करने वाले, प्रायः स्वयं उनके मालिक के पास सहानुभूति जताने के बहाने पहुंच जाते थे और खोज कर लाने का वादा भी करते थे परंतु इसके लिए उससे जो फीस वसूल करते थे उसे पनहा कहा जाता अर्थात पांव के निशान निहारते हुए खोए हुए पशु तक पहुंचने की फीस।

एक गायत्री छंद में उसकी पहली पंक्ति में इद्र का वर्णन हैः

तुविग्रीवो वपोदरः सुबाहुरन्धसो मदे ।
इन्द्रो वृत्राणि जिघ्नते ।। 8.17.8

मोटी गर्दन, फूले हुए पेट, कसी हुई भुजाओं वाले इंद्र सोमरस से उल्लसित होकर वृत्रों का संहार करते हैं।

यदि निकली हुई तोंद के कारण इंद्र के बलशाली होने पर संदेह हो भीम के लिए प्रयुक्त वृकोदर पर ध्यान दे सकते हैं और जापान के सूमो
पहलवानों की शक्ल को देख सकते हैं। आदर्श मल्लयोद्धा की यही प्राचीन छवि थी, और लंगोटी का भी वही रूप था जिसे सूमो पहलवानों ने बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ अपनाया था।

कवियों की उद्भावनाएं, उपमाएं, रूपक इतने अनूठे हैं कि कालिदास, वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, तुलसीदास सभी उनके अनुकरण की कोशिश करते हैं और कभी-कभी उनके समकक्ष पहुंच पाते हैं।

उनकी उपमाओं में इतनी जीवंतता है कि उनके आधार पर देवों के चित्र ही नहीं, बल्कि कथाएं भी गढी जाती रहीं और इनका प्रसार अपने समय की दूसरी सभ्यताओं तक हुआ। मैं इसको मात्र एक उदाहरण से प्रस्तुत करना चाहूंगा जिससे आप सभी परिचित हैं परंतु यह नहीं जानते इसका स्रोत क्या है, तार्किक संगति क्या है, और अज्ञान के कारण इसकी सम्मोहकता और बढ़ जाती है। यह है उस काल्पनिक पक्षी की कहानी, जो अमर है और उसकी अमरता इस रहस्य मे छिपी है कि यह जलकर भस्म हो जाता है और फिर अपनी ही राख से अग्नि-विहंग बनकर आकाश की ओर उड़ चलता है। इसे हम फीनिक्स के नाम से जानते हैं, परंतु यह नहीं जानते, कि यह आग से जलकर बुझने उसकी किसी चिंगारी से पुनः प्रज्वलित हो जाने का रूपक है जो ऋग्वेद में अनेक रूपों में आता है।

इनमें आग की लपटों को आसमान तक पहुंचने की उसकी क्षमता को पक्षी के उड़ान भरने के रूप में बार-बार चित्रित किया गया हैः

तं नव्यसी हृद आ जायमानमस्मत् सुकीर्तिर्मधुजिह्वमश्याः ।
यमृद्विजर्वृजने मानुषासः प्रयस्वन्त आयवो जीजनन्त ।। 1.60.3

वया इदग्ने अग्नयस्ते अन्ये त्वे विश्वे अमृता मादयन्ते ।
वैश्वानर नाभिरसि क्षितीनां स्थूणेव जनां उपमिद् ययन्थ ।। 1.59.1

साकं हि शुचिनायो अप्स्वा शुचिना दैव्येन ऋतावाजस्र उर्विया विभाति ।
वया इदन्या भुवनान्यस्य प्र जायन्ते वीरुधश्च प्रजाभिः ।। 2.35.8

उभयं ते न क्षीयते वसव्यं दिवेदिवे जायमानस्य दस्म ।2.9.5

यो अप्स्वा शुचिना दैव्येन ऋतावाजस्र उर्विया विभाति ।
वया इदन्या भुवनान्यस्य प्र जायन्ते वीरुधश्च प्रजाभिः ।। 2.35.8

अबोध्यग्निः समिधा जनानां प्रति धेनुमिवायतीमुषासम् ।
यह्वा इव प्र वयामुज्जिहानाः प्र भानवः सिस्रते नाकमच्छ ।। 5.1.1

आ रोदसी अपृणा जायमान उत प्र रिक्था अध नु प्रयज्यो ।
दिवश्चिदग्ने महिना पृथिव्या वच्यन्तां ते वह्नयः सप्तजिह्नाः ।। 3.6.2

समिधा यस्त आहुतिं निशितिं मत्र्यो नशत् ।
वयावन्त स पुष्यति क्षयमग्ने शतायुषम् ।। 6.2.5

वैश्वानरस्य विमितानि चक्षसा सानूनि दिवो अमृतस्य केतुना ।
तस्येदु विश्वा भुवनाधि मूर्धनि वया इव रुरुहुः सप्त विस्रुहः ।। 6.7.6

यस्य ते अग्ने अन्ये अग्नय उपक्षितो वयाइव ।
विपो न द्युम्ना नि युवे जनानां तव क्षत्राणि वर्धयन् ।। 8.19.33

अच्छा होता यदि मैं इन ऋचाओं का हिंदी अनुवाद भी देता। परंतु समय नहीं है। साथ ही एक अन्य रूपक की ओर ध्यान दिलाने का प्रलोभन रोक नहीं पा रहा। यह है हिरण्यकशिपु के वध के लिए पत्थर के खंभे से नृसिंह का अवतार। अग्नि की तुलना सिंह से की गई हैः

रक्षो अग्निमशुषं तूर्वयाणं सिंहो न दमे अपांसि वस्तोः ।। 1.174.3

पत्थर पर चोट करने पर उसे चिंगारी निकलती है, पत्थर के कण-कण में अग्नि विद्यमान हैं।

Post – 2018-06-10

काव्य प्रयोग

मैं यहां बहुत संक्षेप में अपनी बात कहने का प्रयत्न करूंगा। श्री अरविंद ने भावी कविता के विषय में कुछ विचार रखे थे जो उनके देहावसान के बाद धर्मयुग में प्रकाशित हुए थे। इसमें उन्होंने यह आशा व्यक्त की थी कि भविष्य में कविता उस ऊंचाई पर पहुंच सकती है जो ऋग्वेद में पाई जाती है। यह अपने आप में वैदिक कविता की अर्थगर्भिता और सौंदर्य बोध पर एक सार्थक टिप्पणी है।

इससे पहले छन्द पर कवियों के प्रयोगों के प्रसंग में, प्रचलित छंद में कुछ काट-ब्यौत करने की बात की थी। परंतु इस प्रयोग का एक पक्ष शब्दलाघव से जुड़ा है। ऐसा कवि उसी बात को कम से कम शब्दों में अधिक प्रभावशाली ढंग से कहने का दावा भी करता था। इसका सबसे अच्छा उदाहरण एकपदा विराट हैः

उरौ देवा अनिबाधे स्याम। 5.42.17

इस छोटी सी ऋचा का अर्थ समझने के लिए हमें उन व्यापारिक सार्थों की चिंता को समझना होगा जो जंगलों झाड़-झंखाड़ों या उबड़ खाबड़ इलाकों से हो कर गुजरते थे घबराए रहते कि कहीं रात बिताने के लिए खुली जगह ही ना मिले या ऐसा इलाका मिल जाए जहां उपद्रवी लोगों की बस्ती हो, माल और जान के लिए खतरा हो। पंक्ति का अर्थ है हे भगवान, हमें खुली जगह मिले और किसी तरह की बाधा न उपस्थित हो।

इसी भाव बोध की एक दूसरी ऋचा हैः
आ वां सुम्ने वरिमनत्सूरिभिः ष्याम् ।। 6.63.11
तुम्हारी कृपा से हम खुली जगह में शांति से अपने स्वजनों के साथ रहें।

द्विपदाविराट की यह ऋचाछ

तपन्ति शत्रुं स्वर्ण भूमा महासेनासो अमेभिरेषाम् ।। 7.34.19
विशाल सेनाएं रखने वाले अपनी प्रबलता शत्रुओं को उसी तरह दग्ध करते हैं जैसे तपता हुआ सूर्य धरती को।

ऋग्वेद की ऋचाएं स्वतंत्र कविताएं हैं जिनको सूक्तों में संकलित किया गया है। प्रत्येक ऋचा दोहों, चौपाइयों यह उर्दू के शेरों की तरह अपनी बात पूरी तरह कह लेती है। एक विषय या केंद्रीय भावभूमि से जुड़े होने के कारण उन्हें एक सूक्त में रखा गया है। पूरी कविता एक पंक्ति की भी हो सकती है यह पहले मेरी समझ में नहीं आता था। पहले इस और भी ध्यान नहीं गया था के सूत्र कथन का विकास एकपदा विराट से हुआ हो सकता है।
यह निर्विवाद है किसी बात को प्रभावशाली ढंग से कम से कम शब्दों में कह लेने की कोशिश ऋग्वैदिक काव्य भाषा का प्रधान गुण है। कुछ ही शब्दों में वर्ण्य विषय या कथ्य को मूर्त करने की क्षमता चकित करने वाली है ।

कुश-कास से जमीन को साफ करने के लिए आग का प्रयोग किया जाता था ऐसे ही एक दृश्य का चित्र एक ऋचा में हैः

यदुद्वतो निवतो यासि बप्सत्पृथगेषि प्रगर्धिनीव सेना ।
यदा ते वातो अनुवाति शोचिर्वप्तेव श्मश्रु वपसि प्र भूम ।। 10.142.4

आग ऊंची नीची भूमि पर झाड़-झंखाड़ का भक्षण करती हुई हुई आगे रही है और इसी बीच मुख्य धारा से अलग होकर बढ़कर जलाने लगती है, जैसे सेना का अग्रिम दस्ता हो।और इसके साथ प्रवाहित होने वाली हवा का योग मिलता है तो एक झटके में दूर तक इस तरह सफाया हो जाता है मानो नाई ने धरती की दाढ़ी का सफाया कर दिया हो।
इसमें सूक्ष्म अन्वीक्षण के साथ पूरे चित्र को एक ऋचा में चित्रित करने की क्षमता और भाषा पर ऐसा अधिकार कितने कवियों में हो सकता है, इस पर कोई टिप्पणी आवश्यक नहीं।

हम जानते हैं कि अपने विस्तार के क्रम में हड़प्पा सभ्यता का अंतर्देशीय प्रसार हुआ था और अंतर्राष्ट्रीय शब्द का यदि हम कुछ रियायत के साथ प्रयोग करें तो अंतर्राष्ट्रीय प्रसार भी हुआ था। अंतर्देशीय प्रसार के इसी क्रम में इसका विस्तार सौराष्ट्र और कच्छ में हुआ था। यह काम एक झटके में आक्रमणकारियों जैसी तैयारी के साथ नहीं हुआ था बल्कि धीरे धीरे जमाव बढ़ता चला गया था। मुख्य भूमि समुद्र तट तक पहुंचने की यात्रा का एक ऋचा में हुआ में हुआ है।

इमं विधन्तो अपां सधस्थे पशुं न नष्टं पदैरनु ग्मन् । 10.46.2

जैसे चोरी गए हुए पशु को खोजने के लिए उसके पांवों का निशान देखते हुए उस तक पहुंचा जाता है उसी तरह अग्नि परिचर्या करते हुए पहले के जाने वालों के राख आदि को देखते हुए सही रकस्वेता पहचानते हुए वे समुद्रतट तक पहुंचे। इस प्रसंग में याद दिला दें कि पशुओं की चोरी करने वाले, प्रायः स्वयं उनके मालिक के पास सहानुभूति जताने के बहाने पहुंच जाते थे और खोज कर लाने का वादा भी करते थे परंतु इसके लिए उससे जो फीस वसूल करते थे उसे पनहा कहा जाता अर्थात पांव के निशान निहारते हुए खोए हुए पशु तक पहुंचने की फीस।

एक गायत्री छंद में उसकी पहली पंक्ति में इद्र का वर्णन हैः

तुविग्रीवो वपोदरः सुबाहुरन्धसो मदे ।
इन्द्रो वृत्राणि जिघ्नते ।। 8.17.8

मोटी गर्दन, फूले हुए पेट, कसी हुई भुजाओं वाले इंद्र सोमरस से उल्लसित होकर वृत्रों का संहार करते हैं।

यदि निकली हुई तोंद के कारण इंद्र के बलशाली होने पर संदेह हो भीम के लिए प्रयुक्त वृकोदर पर ध्यान दे सकते हैं और जापान के सूमो
पहलवानों की शक्ल को देख सकते हैं। आदर्श मल्लयोद्धा की यही प्राचीन छवि थी, और लगोटी का भी वही रूप था जो सूमो पहलवानों ने बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ अपनाया था।
कवियों की उद्भावनाएं, उपमाएं, रूपक इतने अनूठे हैं कि कालिदास, वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, तुलसीदास सभी उनके अनुकरण की कोशिश करते हैं और कभी-कभी उनके समकक्ष पहुंच पाते हैं।
उनकी उपमाओं में इतनी जीवंतता है कि उनके आधार पर देवों के चित्र ही नहीं, बल्कि कथाएं भी गढी जाती रहीं और इनका प्रसार अपने समय की दूसरी सभ्यताओं तक नहीं हुआ। मैं इसको मात्र एक उदाहरण से प्रस्तुत करना चाहूंगा जिससे आप सभी परिचित हैं परंतु यह नहीं जानते इसका स्रोत क्या है और तार्किक संगति क्या है अज्ञान के कारण इसकी सम्मोहकता और बढ़ जाती है। यह है उसे काल्पनिक पक्षी की कहानी, जो अमर है और उसकी अमरता इस रहस्य मे छिपी है कि यह जलकर भस्म हो जाता है और फिर अपनी ही राख से अग्नि-विहंग बनकर उड़ चलता है। इसे हम फीनिक्स के नाम से जानते हैं, परंतु यह नहीं जानते, कि यह आग से जलकर बुझने उसकी किसी चिंगारी से पुनः प्रज्वलित हो जाने का रूपक है जो ऋग्वेद में अनेक रूपों में आता है। इनमें आग की लपटों को आसमान तक पहुंचने की उसकी क्षमता को पक्षी के उड़ान भरने के रूप में बार-बार चित्रित किया गया हैः
वया इदग्ने अग्नयस्ते अन्ये त्वे विश्वे अमृता मादयन्ते ।
वैश्वानर नाभिरसि क्षितीनां स्थूणेव जनां उपमिद् ययन्थ ।। 1.59.1

साकं हि शुचिनायो अप्स्वा शुचिना दैव्येन ऋतावाजस्र उर्विया विभाति ।
वया इदन्या भुवनान्यस्य प्र जायन्ते वीरुधश्च प्रजाभिः ।। 2.35.8

यो अप्स्वा शुचिना दैव्येन ऋतावाजस्र उर्विया विभाति ।
वया इदन्या भुवनान्यस्य प्र जायन्ते वीरुधश्च प्रजाभिः ।। 2.35.8

अबोध्यग्निः समिधा जनानां प्रति धेनुमिवायतीमुषासम् ।
यह्वा इव प्र वयामुज्जिहानाः प्र भानवः सिस्रते नाकमच्छ ।। 5.1.1

समिधा यस्त आहुतिं निशितिं मत्र्यो नशत् ।
वयावन्त स पुष्यति क्षयमग्ने शतायुषम् ।। 6.2.5

वैश्वानरस्य विमितानि चक्षसा सानूनि दिवो अमृतस्य केतुना ।
तस्येदु विश्वा भुवनाधि मूर्धनि वया इव रुरुहुः सप्त विस्रुहः ।। 6.7.6

यस्य ते अग्ने अन्ये अग्नय उपक्षितो वयाइव ।
विपो न द्युम्ना नि युवे जनानां तव क्षत्राणि वर्धयन् ।। 8.19.33

अच्छा होता यदि मैं इन ऋचाओं का हिंदी अनुवाद भी देता। परंतु समय नहीं है। साथ ही एक अन्य रूपक की ओर ध्यान दिलाने का प्रलोभन रोक नहीं पा रहा। यह है हिरण्यकशिपु के वध के लिए पत्थर के खंभे से नृसिंह का अवतार। अग्नि की तुलना सिंह से की गई हैः
रक्षो अग्निमशुषं तूर्वयाणं सिंहो न दमे अपांसि वस्तोः ।। 1.174.3
पत्थर पर चोट करने पर उसे चिंगारी निकलती है, पत्थर के कण-कण में अग्नि विद्यमान है।

Post – 2018-06-09

#वैदिककविता

छंद विधान

लगभग सभी प्रयोगशील कवियों ने छंदों में प्रयोग किए है । ऐसा लगता है कि छंद में प्रयोग पुराने कवियों द्वारा भी किए जा रहे थे। नए कवियों ने उसे पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया। प्रश्न यह नहीं है कि वे नए छंद रचने का प्रयत्न कर रहे थे, बल्कि ऐसा सचेत रूप में कर रहे थे। प्रयोग के लिए प्रयोग कर रहे थे। अपने को दूसरों से कुछ बढ़कर या अलग दिखाने के प्रयत्न करते हुए प्रयोग कर रहे थे।

छंदशास्त्र को लेकर मेरा अलग से कोई अध्ययन नहीं है, इसलिए मैंने सोचा अधिकारी विद्वानों ने जो कुछ लिखा है उस पर एक सरसरी दृष्टि डाल लें। इसी तैयारी में 2 दिन मौन रहना पड़ा। परंतु जो कुछ पढ़ा वह समस्या को सुलझाने की जगह और उलझाता है। इसके अनुसार वैदिक छंद शास्त्र पर सबसे आधिकारिक काम आचार्य पिंगल का है। उन्होंने छन्दशास्त्र पर आठ अन्य आचार्यों के नाम गिनाए हैं और बताया है इनके ग्रंथ तो नहीं मिलते परंतु इन्होंने एक एक छन्द का नामकरण किया था। यह निम्न प्रकार हैः
क्रौष्टुकिकृत – स्कन्धोग्रीवी
यास्ककृत – उरोवृहती
वाण्डिकृत – सतोवृहती
सैतवकृत – विपुलानुष्टुप और उद्धर्षिणी
काश्यपकृत – सिंहोन्नता
शाकल्यकृत – मधु माधवी
मांडव्यकृत – चंड वृष्टिप्रपात
रातकृत — चंड वृष्टिप्रपात

मांडव्य और रात के नाम से एक ही छन्द है। वैदिक साहित्य के संदर्भ में छन्द का महत्व यह था कि इसे वेद के छह अंगों मैं स्थान दिया गया था। जिस साहित्य में उच्चारण और गायन का इतना महत्व हो कि वे जादू का सा असर रखते हों, उसके अनेक अध्येताओं का होना बहुत स्वाभाविक है। परंतु हमारी समस्या यह है की ऊपर के आचार्यों द्वारा सुझाए गए छन्दों में से 3 को छोड़कर शेष ऋग्वेद में नहीं आए हैं। उन्होंने छंदों का निर्धारण चारों वेदों के संदर्भ में किया है इसलिए संभवतः वे दूसरे वेदों में प्रयोग में आए होगे।

वैदिक कवियों ने अपनी रचनाओं में छन्जोदों के जो प्रयोग किए थे उनके लिए संज्ञा बाद के आचार्यों द्वारा दी गई प्रतीत होती है। इससे मेरी इस धारणा को बल मिलता है ( हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, 1987) कि सूक्तों के साथ आए ऋषि नाम और देवता नाम प्रयत्न से जुटाए गए सूक्तों मैं नहीं थे, अपितु संपादकों ने सूक्तों की अंतर्वस्तु के आधार पर स्वयं निश्चित किया। छन्दों के नामकरण पर पहले मेरा ध्यान नहीं गया था। अब लगता है इनको वर्तमान संज्ञा वेदों के छन्शादस्त्र पर काम करने वाले मनीषियों ने दी है।

ऋग्वेद के सभी छंद वर्णिक है। आचार्य राम किशोर मिश्र के जिस लेख (वेद के विविध छन्द और छन्दोनुशासन-ग्रन्थ) से मैंने ऊपर के शास्त्रकारों का उल्लेख किया है उसमें ऋग्वेद में मात्र तेरह छन्द प्रयोग में आए हैं। हमने उनके द्वारा दी गई तालिका के शाथ उदाहरणस्वरूप एक एक छन्द जोड़ दिए । इनकी वर्णसंख्या पर ध्यान देना जरूरी हैः
गायत्री- 24
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् । 1.1.1

2. उष्णिक् 28
आ याह्यद्रिभिः सुतं सोमं सोमपते पिब ।
वृषन्निन्द्र वृषभिर्वृत्रहन्तम ।। 5.40.1

3. अनुष्टुप् 32
उरोष्ट इन्द्र राधसो विभ्वी रातिः शतक्रतो ।
अधा नो विश्वचर्षणे द्युम्नं सुक्षत्र मंहय ।। 5.38.1

4. बृहती- 36
त्वमंग प्र शंसिषो देवः शविष्ठ मर्त्यम् ।
न त्वदन्यो मघवन्नस्ति मर्डितेन्द्र ब्रवीमि ते वचः ।। 1.84.19

5. पंक्तिः – 40
शर्यणावति सोममिन्द्रः पिबतु हा ।
बलं दधान आत्मनि करिष्यन् वीर्यं महदिन्द्रायेन्दो परि स्रव ।। 9.113.1

6. त्रिष्टुप – 44
आ ते हनू हरिवः शूर शिप्रे, रुहत्सोमो न पर्वतस्य पृष्ठे ।
अनु त्वा राजन्नर्वतो न हिन्वन्गीर्भिर्मदेम पुरुहूत विश्वे ।। 5.36.2

7. जगती-48
वैश्वानराय धिषणामृतावृधे, घृतं न पूतमग्नये जनामसि ।
द्विता होतारं मनुषश्च वाघतो, धिया रथं न कुलिशः समृण्वति ।। 3.2.1

8. अतिजगती- 52
कथा दाशेम नमसा सुदानूनेवया मरुतो अच्छोक्तौ प्रश्रवसो मरुतो अच्छोक्तौ ।
मा नोऽहिर्बुध्न्यो रिषे धादस्माकं भूदुपमातिवनिः ।। 5.41.16

9. शक्वरी – 56
त्वं शतान्यव शम्बरस्य पुरो जघन्थाप्रतीनि दस्योः ।
अशिक्षो यत्र शच्या शचीवो दिवोदासाय सुन्वते सुतक्रे भरद्वाजाय गृणते वसूनि ।। 6.31.4

10. अतिशक्वरी- 60
प्रप्रा वो अस्मे स्वयशोभिरूती परिवर्ग¬ इन्द्रो दुर्मतीनां दरीमन् दुर्मतीनाम्
स्वयं सा रिषयध्यै या न उपेषे अत्रैः ।
हतेमसन्न वक्षति क्षिप्ता जूर्णिर्न वक्षति ।। 1.129.8

11. अष्टि- 64
त्वं नो वायवेषामपूर्व्यः सोमानां प्रथमः पीतिमर्हसि सुतानां पीतिमर्हसि ।
उतो विहुत्मतीनां विशां ववर्जुषीणाम् ।
विश्वा इत् ते धेनवो दुह्र आशिरं घृतं दुह्रत आशिरम् । 1.134.6

12. अत्यष्टि- 64,
अग्निं होतारं मन्ये दास्वन्तं वसुं सूनुं सहसो जातवेदसं विप्रं न जातवेदसम्
य ऊर्ध्वया स्वध्वरो देवो देवाच्या कृपा ।
घृतस्य विभ्राष्टिमनु वष्टि शोचिषाऽऽजुह्वानस्य सर्पिषः ।। 1.127.1

13. धृति – 70-72
अवर्मह इन्द्र दादृहि श्रुधी नः शुशोच हि द्यौः क्षा न भीषाँ अद्रिवो घृणान्न भीषा अद्रिवः ।
शुष्मिन्तमो हि शुष्मिभिर्वधैरुग्रेभिरीयसे ।
अपूरुषघ्नो अप्रतीत शूर सत्वभिस्त्रिसप्तैः शूर सत्वभिः ।। 1.133.6

वैदिक संशोधन मंडल पुणे द्वारा प्रकाशित ऋग्वेद संहिता मे कुछ और छन्दों और उनके प्रभेदो का उल्लेख है जिससे यह प्रकट होता है की पिंगल शास्त्र के रचयिता के बाद भी दूसरे अध्येताओं ने नए प्रयोगों की खोज की और उन्हें संज्ञा दी। जिन छन्दों का मैं उल्लेख कर रहा हूं वे निम्न प्रकार हैः

विराट् ।
अग्ने दिवः सूनुरसि प्रचेतास्तना पृथिव्या उत विश्ववेदाः ।
ऋधग्देवाँ इह यत्रा चिकित्वः ।। 3.25.1

विराटस्थाना
बतो बतासि यम नैव ते मनो हृदयं चाविदाम ।
अन्या किल त्वां कक्ष्येव युक्तं परि ष्वजाते लिबुजेव वृक्षम् ।।10.10.13

एकपदा विराट
असिक्न्यां यजमानो न होता ।। 4.17.15 {23}

द्विपदा विराट् ।
परि प्र धन्वेन्द्राय सोम स्वादुर्मित्राय पूष्णे भगाय ।। 9.109.1

सतोबृहती
इमं नरो मरुतः सश्चता वृधं यस्मिन् रायः शेवृधासः ।
अभि ये सन्ति पृतनासु दूढ्यो विश्वाहा शत्रुमादभुः ।। 3.16.2

महाबृहती।
नवानां नवतीनां विषस्य रोपुषीणाम्
सर्वासामग्रभं नामाऽऽरे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ।। 1.191.13

अतिधृति ।
स हि शर्धः न मारुतं तुविष्वणिरप्नस्वतीषूर्वरास्विष्टनिरार्तनास्विष्टनिः ।
आदद्धव्यान्याददिर्यज्ञस्य केतुरर्हणा ।
अध स्मास्य हर्षतो हृषीवतो विश्वे जुषन्त पन्थां नरः शुभे न पन्थाम् । 1.127.6

प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
बृहदु गायिषे वचोऽसुर्या नदीनाम् ।
सरस्वतीमिन्महया सुवृक्तिभिः स्तोमैर्वसिष्ठ रोदसी ।। 7.96.1

पदपक्तिः
आभिष्टे अद्य गीर्भिगृणन्तोऽग्ने दाशेम ।
प्र ते दिवो न स्तनयन्ति शुष्माः ।। 4.10.4

महापंक्तिः 48
इयत्तिका शकुन्तिका सका जघास ते विषम् ।
सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामाऽऽरे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ।। 1.191.11
भद्रमिद्भद्रा कृणवत्सरस्वत्यकवारी चेतति वाजिनीवती ।
गृणाना जमदग्निवत्स्तुवाना च वसिष्ठवत् ।। 7.96.3

महापदपंक्तिः
तव स्वादिष्ठाऽग्ने संदृष्टिरिदा चिदह्न इदा चिदक्तोः ।
श्रिये रुक्मो न रोचते उपाके ।। 4.10.5

पुरस्तारज्योतिः48
आ सूर्या यातु सप्ताश्वः क्षेत्रं यदस्योर्विया दीर्घयाथे ।
रघुः श्येनः पतयदन्धो अच्छा युवा कविर्दीदयद् गोषु गच्छन् ।। 5.45.9

जगती त्रिष्टुब्वा 48
स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः ।
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना ।। 5.51.11

अति जगती
स भ्रातरं वरुणमग्न आ ववृत्स्व देवाँ अच्छा सुमती यज्ञवनसं ज्येष्ठं यज्ञवनसम् ।
ऋतावानमादित्यं चर्षणीधृतं राजानं चर्षणीधृतम् ।। 4.1.2

निचृत्। 28
आ वां रथो रथानां येष्ठो यात्वश्विना ।
पुरू चिदस्मयुस्तिर आङ्गूषो मर्त्येष्वा ।। 5.74.8

पादनिचृत्।
अभी सु णः सखीनामविता जरितृणाम् ।
शतं भवास्यूतिभिः ।। 4.31.3

इससे भी प्रकट है, छंदों का नाम बाद के आचार्यों द्वारा दिया गया है और कुछ के विषय में वे भी, अनिश्चय में रहने के कारण, दो संभावनाओं का संकेत करते हैं । उदाहरण के लिए मंडल 5 के सूक्त 51 की ग्यारहवी से तेरहवी ऋचाओं के विषय में कहा गया है कि इनका छन्द या तो जगती है अथवा त्रिष्टुप्। जो इस संभावना को वास्तविकता में बदल देता है। अब हम पूरे विश्वास से कह सकते हैं कि छंदों के प्रयोग तो वैदिक कवियों के हैं पर उनका नामकरण बाद के आचार्यों द्वारा किया गया है।

अनुमानतः सभी छन्दों का आधार अनुष्टुप है। इसी में कुछ जोड़-तोड़ करते हुए दूसरे छंद बनाए गए हैं। ऐसा लगता है कि छंदों के प्रयोग पुराने कवियों द्वारा भी किए जा रहे थे। इसी के चलते अनुष्टुप के आठ आठ वर्णों के चार पदों में से 1 को कम कर के 24 वर्णों का गायत्री छंद बनाया गया था। इसको एक पाद कम होने को लेकर एक कहानी भी गढ़ ली गई थी, जिसमें यह स्पष्ट कहा गया है गायत्री के दोनों चरण समान वर्णों के थे। इस कहानी में छंद के चरणों को पक्षी के पंखों की तुलना में रखा गया है। कहानी बहुत रोचक है और उससे जुड़े कई वैज्ञानिक तथ्य और काल्पनिक कथाएं भी मिल जाती हैं परंतु यहां हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि इस कहानी में यह बताया गया है पक्षी का एक पंख कट गया था।

मुझे डर है कि मैंने अनुष्टुप को आधार बनाकर सभी छन्दों की रचना को संभव मानते हुए इकहरेपन से काम लिया है। कारण यह संभव है अनेक छन्द लोकगीतों के आधार पर चुने गए या अपनाए गए हो सकते हैं। मैं ऐसा संशय इसलिए प्रकट कर रहा हूं कि गायत्री से मिलता-जुलता एक राग भोजपुरी में दिखाई देता है और वह है कहँरवां । यह बहुत गेय छंद है जिसे पालकी धोते हुए कहार अपने श्रम से ध्यान हटाने के लिए बड़े उल्लास से गाते थे। असंभव नहीं कि छन्द बहुत पुराना हो और गायत्री छंद लोक से अपनाया गया हो। इसमें चार की जगह कि तीन ही पाद होते हैं इसलिए यह कहानी गढ़ ली गई हो।

एक रोचक बात यह है कि हमारे जातीय छन्द वेद से प्रेरित हैं, न कि संस्कृत से जो प्रयत्न पूर्वक लोक से दूर किए जाने के बाद भी लौकिक संस्कृत इसलिए कही जाती है कि वेद की भाषा को देववाणी माना जाता रहा है जब की स्थिति ठीक उल्टी है। वैदिक भाषा लोक व्यवहार की भाषा थी उसके छंद और मुहावरे लोक के सर्वाधिक निकट है और आज तक भाषा में परिवर्तन के बावजूद वे लोग में प्रचलित हैं जबकि संस्कृत केवल ब्राह्मणों के बीच और वह भी सौभाग्य से सुशिक्षित ब्राह्मणों के बीच ही सीमित रही है इसलिए उसका लोक से संबंध कभी रहा ही नहीं। यह सवाल बार-बार उठाया जाता है कि संस्कृत किसी क्षेत्र की बोली रही ही नहीं। सच यह है कि ब्राह्मणों के स्वार्थ के कारण वह शिष्ट व्यवहार की भाषा रहने नहीं दी गई।

परन्तु इस आरोप के पीछे पश्चिमी विद्वानों की एक शरारत है। वे यह दिखाना चाहते रहे हैं कि संस्कृत किसी भारतीय क्षेत्र की भाषा कभी रही नहीं, इसलिए यहां नहीं बोली जाती थी, कहीं अन्यत्र से आई है और इसी के चलते, यह जानते हुए कि वैदिक उससे बहुत पुरानी है वे बार-बार तुलना के लिए संस्कृत का नाम लेते हैं, न कि वैदिक का। वे अपने गहन अध्ययन के माध्यम से यह जान चुके थे कि वैदिक तो लोक व्यवहार की भाषा थी और उसके निर्माण में अन्य भारतीय भाषाओं की सक्रिय भूमिका रही है। यदि वैदिक बोल चाल की भाषा न होती तो भारत से लेकर यूरोप तक किताबों के माध्यम से नहीं पहुंच सकती थी, क्योंकि यदि कोई जमाने में नहीं थी तो वह थी व्यापक साक्षरता।

Post – 2018-06-07

जो गालियों के बिना बात नहीं कर पाते, विचारभिन्नता को भी गालियों में बदल देते हैं वे गलीज होते हैं। उनसे संवाद संभव नहीं।

Post – 2018-06-06

#वैदिककविता
ऋग्वेद में नई कविता(ख)

मैंने कल जो उद्धरण दिए थे, वे परिचयात्मक हैं, समापी नहीं। हम कविता पर बात करने से बचना चाहते हैं, क्योंकि इसका सम्यक विवेचन एक पुस्तक की अपेक्षा रखता है, और इससे भाषा के काम में बाधा पैदा होगी। परंतु यदि, प्रसंगवश ही सही इसकी चर्चा चल ही गई, तो यह बताना जरूरी है की बीसवीं शताब्दी के नई कविता आंदोलन से वैदिक कवियों की नई कविता आंदोलन का क्या अंतर था। दूसरा केवल यह कह देने से कि मैं नई कविता कर रहा हूं, यह पता नहीं चलता कि कवि सचमुच, सचेत रूप में, कविता में नए प्रयोग कर रहा था। इस दावे की परख तो तब होती जब हमें पुरानी कविता के कुछ नमूने प्राप्त होते, पर उनके अभाव में हमें छन्द, अलंकार, शब्द चयन, भाव और विचार संयोजन के क्षेत्र में किए गए ऐसे प्रयोगों से ही संतोष करना पड़ेगा।

बीसवीं शताब्दी का प्रयोगवाद हो या नई कविता आन्दोलन दोनों नवस्वतंत्र भारत की ‘catch up with the West’ की भाववादी लालसा की अभिव्यक्ति और पश्चिमी साहित्य से प्रेरित थे। नाम से लेकर काम तक वही। उसे समझने की कोशिश करने वाले को पश्चिमी आन्दोलनों से जुड़े कलाकारों, वास्तुकारों और रचनाकारों के कृतित्व से ही नहीं उनके आलोचकों की सैद्धान्तिकी और व्यावहारिक आलोचना तक से परिचित होना पड़ता था। हिन्दी की नई कविता की आलोचना पश्चिमी आलोचना का अनुवाद करते हुए की जाती थी, केवल उदाहरण के लिए हिंदी कवियों की पंक्तियां जड़ दी जाती थी। इस मूलोच्छिन्नता की एक परिणति यह थी कि इसमें ‘नयामाल’ ‘ताजामाल’ की ऊंची पुकार के साथ पहले के कवियों को ‘बासी’ और ‘गुजरे जमाने का कवि, उनकी रुचि और सौन्दर्यबोध’ को पिछड़ा सिद्ध करने अन्दाज में उनके महत्व को नकारने का बाजारू प्रयत्न किया गया था।

इसके विपरीत वैदिक कवि यह दावा तो करता है कि वह नई रचना कर रहा है (उक्थं नवीयो जनयस्व यज्ञैः, 6.18.15; इदं ब्रह्म क्रियमाणं नवीयः, 7.35.14) परन्तु उसके मन में अपने पूर्ववर्ती कवियों के प्रति गहरा सम्मान और यह स्वीकार भाव है कि वह उन्हीं की परंपरा को आगे बढ़ा रहा9 हैः
(अनु प्रत्नास आयवः पदं नवीयो अक्रमुः, 9.23.2) ’प्राचीन काल की अमर रचनाओं की तरह ही मैं नई रचना का निर्माण कर रहा हूं।’

देव शक्तियों तक का अनुस्मरण वे उसी भावना से करते हैं जैसे पूर्वज किया करते थे (अनु प्रत्नस्यौकसो हुवे तुविप्रतिं नरम्, यं ते पूर्वं पिता हुवे, 1.30.9) ‘अप्रतिभट इन्द्र तुम्हें, जिसे हमारे पुरखे, अपने पुराने निवास से पुकारते थे, हम भी उन्हीं की तरह गुहार रहे हैं।’

यह ऋचा कुछ दृष्टियों से काफी रोचक है। इसके रचयिता विश्वामित्र के दत्तक पुत्र देवरात बताए गए हैं। इसमें तीन शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। पुरातन निवास, (प्रत्न ओकस), पूर्वं (प्राचीन काल) और पिता (पूर्वज)। इससे इतना तो स्पष्ट है कि जहां से रचना की जा रही है वहां से पितरों का निवास दूर था, परंतु उसकी ठीक स्थिति क्या थी, यह स्पष्ट नहीं हो पाता। कवि कितनी प्राचीनता की बात कर रहा है यह भी स्पष्ट नहीं है। परंतु यह भाव स्पष्ट है कि वह अपने पितरों की परंपरा का निर्वाह कर रहा है।

प्रथम मंडल को अपेक्षाकृत नया मंडल माना जाता है इसलिए एक संभावना यह पैदा होती है कि कवि का अपना निवास क्षेत्र सिंधु घाटी में है और ऐसी स्थिति में संभव है यह पूर्ववर्ती निवास सरस्वती घाटी में या उससे भी पीछे के किसी क्षेत्र में रहा हो। यही स्थिति एक दूसरी पंक्ति की भी है जो नवे मंडल में आई है और जिस में भी प्राचीन निवास की याद की गई है, (स प्रत्नवन्नवीयसा ऽग्ने द्युम्नेन संयता । बृहत्ततन्थ भानुना । 6.16.21) ।

परन्तु यदि यह सोचना चाहें कि नए कवियों के प्रयोग क्षेत्र परिवर्न के कारण थे तो यह सही न होगा। पहली बात यह कि जनसमाज वही हो, परम्परा से जुड़ाव इतना गहरा हो तो स्थान परिवर्तन से फर्क नहीं पड़ता। दूसरे यह कि यह दावा उन ऋचाओं में भी है जिनकी रचना निस्सन्देह सरस्वती की उपत्यका में हुआ है. इसलिए इसकी प्रेरणा का स्रोत कोई भिन्न है और उसकी पहचान पश्चिमी जगत के नई कविता आन्दोलन और वैदिक आन्दोलन की समानता और नई कविता के समय से चले आ रहे पश्चिम के छायाजीवी भारतीय साहित्य के खोखलेपन और अपने ही समाज से इसके उखड़ेपन को समझने में सहायक हो सकता है।

ऋग्वेद का काल विज्ञान, उद्योग, व्यापार, और इनसे जुड़े (नागर योजना, वास्तु निर्माण, नौवहन आदि) क्षेत्रों में असाधारण सक्रियता का काल है और अपने शिल्पियों की तरह ही रचनाकार भी अपने क्षेत्र में उसी दक्षता से काम करना चाहता है और अपनी रचना में इसका दावा भी करता है – (अस्मा इदु स्तोमं सं हिनोमि रथं न तष्टेव तत्सिनाय । गिरश्च गिर्वाहसे सुवृक्तीन्द्राय विश्वमिन्वं मेधिराय ।। 1.61.4) जैसे बढ़ई माल ढोने के लिए (तत् सिनाय) लिए रथ को बनाता है, उसी तरह कवित्व के वाहक मेधावी इन्द्र (मेधिराय) को वहन करने के लिए ऐसी सुन्दर रचना कर रहा जो उनके यश को पूरे विश्व में फैला दे। (इमं स्वस्मै हृद आ सुतष्टं मन्त्रं वोचेम कुविदस्य वेदत् । 2.35.2) मैं पूरे मनोयोग से सुन्दरता से गढ़े ( हृद आ सुतष्टं) मंत्र का पाठ कर रहा हूं, क्या इसे कोई समझ पाएगा (कुवित् अस्य वेदत् )। (आ ते अग्न ऋचा हविर्हृदा तष्टं भरामसि । 6.16.47)’अग्निदेव, मैं पूरी हार्दिकता से रचेी हुई ऋचा तुम्हें अर्पित कर रहा हूं।’

विस्तार में न जाकर हम केवल यह क’हना चाहते हैं कि पश्चिम की कविता अपने परिवेश प्रतिस्पर्धा भरी सरगर्मी की उपज थी, वैदिक कविता के नए प्रयोग अपने समय की तकनीकी और औद्योगिक गतिविधियों की, अपने भौतिक यथार्थ की उपज थी। मध्य उन्नीसवीं सदी से अबतक के हिन्दी साहित्य के प्रयोग कहीं और के भौतिक यथार्थ में रचे जाने वाले साहित्य के दर्पण प्रतिबिंब की उपज हैं – भीतर से निःसत्व ऊपर से कलात्मक आयास और रचनाकारों की अपनी क्षमता के कारण कौंधती हुई, अपने ही यथार्थ और समाज से कटी हुई।

(आगे कविता की चर्चा कभी और के लिए स्थगित रखनी होगी)व

Post – 2018-06-05

#वैदिककविता

ऋग्वेद में नई कविता आंदोलन

एक बार मैंने ज्ञानोदय में एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था ‘ऋग्वेद में नई कविता आंदोलन।’ वास्तव में पूरा उपलब्ध ऋग्वेद उनके अपने समय की नई कविता है। यह शीर्षक मैने सनसनी पैदा करने के लिए नहीं दिया था, अपितु पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद दिया था। आज उसे फिर इसलिए चुना कि यह दावे के साथ कह सकूं किः
1. ऋग्वेद धर्मग्रन्थ नहीं साहित्यिक कृति है, जिसके वर्ण्यविषय देवता,अर्थात् प्राकृतिक शक्तियां हैं। कवि का दर्जा उस समाज में स्रष्टा से ठीक नीचे था, इसलिए देवशक्तियां (प्रकृति की चालक शक्तियां) और ऐसी विभूतियां ही जिनमें देवत्व का निवास था, काव्य का विषय हो सकती थीं। यह विश्वास तो बहुत बाद तक, सच कहें तो किसी हद तक आजतक बना रह गया है कि काव्यबद्ध कथन यदि सच्चे भाव से व्यक्त हो तो वह निष्फल नहीं हो सकता यह रहस्य हनुमानचालीसा का पाठ करने वाले तक जानते हैं जिसे वाल्मीकि ने सलीके से रखा था – पादबद्धोSक्षर समो तन्त्रीलय समन्वितः, शोकार्तस्य प्रवृत्तो मे श्लोकः भवतु नान्यथा। इसी के कारण यह विश्वास बना रहा, और इस विश्वास को जिलाए रखने का प्रयास किया गया कि वेदोक्त गलत नहीं हो सकता। नैतिक आदर्श और कतिपय सृष्टि विषयक दार्शनिक प्रतीत होने वाली रचनाओं ने और वेद को अपना मालघर बनाने के ब्राह्मणों के आग्रह के कारण इसे धर्मग्रन्थ की रंगत मिली। पर यह भी सच है कि विश्व के सभी धर्मों का प्रेरणास्रोत भी वेद ही रहा है।

2. ऋग्वेद में उपलब्ध ऋचाएं एक अकल्पनीय प्राकृतिक आपदा में नष्ट हो चुके विशाल साहित्य का क्षुद्र अंश है जिनका रचनाकाल ढाई हजार साल की लंबी अवधि में फैला हुआ है। इसका प्राचीन अंश सारस्वत प्रदेश में और नया भाग सिन्धु घाटी क्षेत्र में रचा साहित्य है।

3. यह पूरा साहित्य नई कविता है, फिर पुरानी कविता का क्या हुआ? हम यह मानने को विवश हैं कि इससे पहले के दौर में लेखन का इस स्तर का विकास नहीं हो पाया था कि वाणी को संकेतबद्ध किया जा सके इसलिए यदि वह उपलव्ध था भी तो श्रुत रूप में ही, इसलिए आपदा के लंबे दौर में वह पूरी तरह नष्ट हो गया, जब कि लिखित का क्षुद्र अंश दुर्धर्ष प्रयत्न से जहां तहां से जुटाया जा सका।

4. नई कविता का यह दौर पुरानी कविता के दौर की तुलना में सभी दृष्टियों से अनुर्वर काल है। जिन मिथकों, रूपकों का प्रयोग नए कवि कर रहे थे यहां तक कि जिन घटनाओं को वे दुहरा रहे थे वे भी उसी इतिहास का हिस्सा थीं। तकनीकी दृष्टि से भी यह ठहराव का काल था, क्योंकि लगभग सभी आविष्कार इस समय तक पूरे हो चुके थे। यह परिष्कार, कलात्मक निखार, क्षेत्रीय विस्तार और समृद्धि का और उस समृद्धि में अपने अपने हिस्से की होड़ का काल था। जब हम वैदिककाल का आस्थागर्भित पाठ करते हैं तब इस यथार्थ से मुंह नहीं मोड़ सकते कि एक वैदिक कवि का नाम कुशीदी (व्याज वसूलने वाला) काण्व था, न ही दानस्तुतियों पर दाता का यशगान और गोष्ठियों और सभाओं में दूसरों को मात देने की होड़ की उपेक्षा कर सकते हैं। नये कवियों की छन्द, अलंकार के प्रयोग ही नहीं अपनी नवीनता की बखान को भी इसी सन्दर्भ में रख कर देखना जरूरी हो जाता है।

5. हम प्रस्तुत लेखमाला में भाषा पर विचार कर रहे हैं इसलिए यह भी याद रखना होगा कि भाषा का यह रूप सारस्वत क्षेत्र में दो तीन हजार साल के बाद का है जब देववाणी का चरित्र बहुत बदल चुका था, इसलिए इससे आरंभिक समस्याओं का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हमने ऋचाओं का बाहुल्य यह दिखाने के लिए किया कि यह समझा जा सके कि पहले मंडल से लेकर दसवें तक केवल नए कवि ही भरे पड़े हैं।

1. स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा 1.12.11
2. तं नव्यसी हृद आ जायमानमस्मत् सुकीर्तिर्मधुजिह्वमश्याः, 1.60.3
3. अस्येदु प्र ब्रूहि पू्र्व्याणि तुरस्य कर्माणि नव्य उक्थैः, 1.61.13
4. नव्यमतक्षद्ब्रह्म हरि योजनाय, 1.62.13
5. स्तोमं जनयामि नव्यम्, 1.109.2
6. प्र तव्यसीं नव्यसीं धीतिमग्नये वाचो मतिं सहसः सूनवे भरे, 1.143.1
7. तं वां रथं वयमद्या हुवेम स्तोमैरश्विना सुविताय नव्यम्, 1.180.10
8. अनर्वाणं वृषभं मन्द्रजिह्वं बृहस्पतिं वर्धया नव्यमर्कैः, 1.190.1
9. तदस्मै नव्यमंगिरस्वदर्चत शुष्मा यदस्य प्रत्नथोदीरते, 2.17.1.
10. स्तुषे यद्वां पृथिवि नव्यसा वचः स्थातुश्च वयस्त्रिवयाः उपस्तिरे, 2.31.5
11. समानमर्थं चरणीयमाना चक्रमिव नव्यस्या ववृत्स्व, 3.61.3
12. इयं ते पूषन्नाघृणे सुष्टुतिर्देव नव्यसी, 3.62.7
13. प्र सू महे सुशरणाय मेधां गिरं भरे नव्यसीं जायमानाम्, 5.42.13
14. प्र सू महे सुशरणाय मेधां गिरं भरे नव्यसीं जायमानाम् ।
य आहना दुहितुर्वक्षणासु रूपा मिनानो अकृणोदिदं नः, 5.42.13
15. सुवीरं त्वा स्वायुधं सुवज्रमा ब्रह्म नव्यमवसे ववृत्यात्, 6.17.13
17. तं वो धिया नव्यस्या शविष्ठं प्रत्ना प्रत्नवत्परितंसयध्यै, 6.22.7
18. स्तुषे जनं सुव्रतं नव्यसीभिर्गीर्भिर्मित्रावरुणा सुम्नयन्ता, 6.49.1
19. प्र पूर्वजे पितरा नव्यसीभिर्गीर्भिः कृणुध्वं सदने ऋतस्य, 7.53.2
20. उक्थं नवीयो जनयस्व यज्ञैः, 6.18.15
21. धियो रथेष्ठामजरं नवीयो रयिर्विभूतिरीयते वचस्या, 6.21.1
22. तं वो धिया नव्यस्या शविष्ठं प्रत्ना प्रत्नवत्परितंसयध्यै, 6.22.7
23. इदं ब्रह्म क्रियमाणं नवीयः, 7.35.14
24. इमां वां मित्रावरुणा सुवृक्तिमिषं न कृण्वे असुरा नवीयः, 7.36.2
25. इयं त ऋत्वियावती धीतिरेति नवीयसी, 8.12.10
26. विद्मा ह्यस्य सुमतिं नवीयसीं गमेम गोमति व्रजे, 8.51.5
27. परि त्रिधातुरध्वरं जूर्णिमति नवीयसी, 8.72.9
28. नू नव्यसे नवीयसे सूक्ताय साधया पथः, प्रत्नवद् रोचया रुचः, 9.9.8
29. अनु प्रत्नास आयवः पदं नवीयो अक्रमुः, 9.23.2
30. इदमकर्म नमो अभ्रियाय यो पूर्वीरन्वानोनवीति, 10.68.12
31. इमां प्रत्नाय सुष्टुतिं नवीयसीं वोचेयमस्मा उशते शृणोतु नो,10.91.13

Post – 2018-06-05

#राजकिशोर का जाना

राजकिशोर पंचतत्व में लीन हो गए। उनकी मृत्यु और अंत्येष्टि का समाचार विलंब से मिला। अपनी युवा और होनहार पुत्र की मृत्यु के वज्रपात को दार्शनिक तटस्थता से सहन करने का प्रयत्न कर रहे थे,जिसे देख कर मुझे डर लगा और उन से अनुरोध किया था कि सार्वजनिक रूप से नहीं तो एकांत में ही सही जी भर कर रो अवश्य लें। दबे हुए आवेग, अपनी निकास के खतरनाक रास्ते तैयार कर लेते हैं जिससे होने वाली क्षति का हम पूर्वानुमान नहीं कर सकते।

कई साल पहले, ज्ञानपीठ के एक साहित्यिक आयोजन में उनसे मुलाकात हुई थी तो मुझे वह भीतर से टूटे हुए और निराश लगे थे। स्वास्थ्य की चिंता न करते हुए वह पाइप का इतना लंबा कश लेकर धुंए को निगलने का प्रयत्न कर रहे थे जो मुझे परेशान करने के लिए काफी था, परंतु मैं इसके लिए उन्हे टोक नही सकता था न इसका कुछ लाभ था , क्योंकि जो बातें मैं उन्हें समझा सकता था, वे उन्हें वे स्वयं जानते थे। अनुमान है सहज, स्वाभाविक और अविचलित दिखने के प्रयास में उनका धूम्रपान और सांध्य पान बढ़ गया होगा। खराबी पहले की थी, चोर दरवाजे से दबी वेदना के साथ एक दूसरे वज्रपात के रूप में आघात, हुआ संभल न पाए।

वह निर्भीक और अपनी सीमा में वस्तुपरक सोच रखने वाले लेखक थे। उनसे पहली मुलाकात कोलकाता के काफी घर में हुई थी । शंभूनाथ अध्यापक हो चुके थे और उन्होंने उनका परिचय एक तेजस्वी युवा के रूप में कराया था। उनका नाम स्मृति में बचा रह गया था। बाद में सुरेंद्र प्रताप सिंह के सहकर्मी के रूप में उन्होंने पत्रकारिता आरंभ की। मैं तब से उनको यदा कदा पढ़ता आया था और उनकी लोहियावादी सोच, समझ, आतुरता और प्रखरता का प्रशंसक था।

उनके विचारों में गहराई नहीं थी, पर निर्भीकता थी, समाज को बदलने की बेचैनी थी, किसी प्रकार की संकीर्णता से परहेज था और इसके चलते उन्होंने स्वयं एक संकीर्णता का निर्माण कर लिया था, जिससे वह मुक्त नहीं हो सकते थे।

इतिहास की समझ की कमी लोहिया में भी थी। अतीत का एक कामचलाऊ ज्ञान लोहिया में भी था जिसे वह पर्याप्त मानते थे। यह कमी लोहियावादियों में भी दिखाई देती है। वेअपने ध्येय के अनुसार, इतिहास की उसी कामचलाऊ जानकारी के आधार पर, एक ठोस और अपरिवर्तनीय इतिहास तैयार कर लेते हैं, जिसमें किसी परिवर्तन की संभावना नहीं होती, इसलिए उससे टकराकर प्रमाण भी व्यर्थ हो जाते हैं। अतीत की विरासत हो या वर्तमान की जटिलता, सभी की कसौटी लक्ष्यों की पूर्ति में उनकी उपयोगी भूमिका रह जाती है, इसलिए ऐसे लोग किसी समस्या का समाधान नहीं करते, अपितु नई समस्याएं पैदा करते हैं और पुरानी समस्याओं को अधिक उलझा देते हैं। जिस लक्ष्य को लेकर चलते हैं उनकी सिद्ध नहीं हो पाती, बल्कि व्यवधान पैदा होता है।

यदि कोई पूछे, इसके बाद भी आप उनको महत्व क्यों देते हैं, उनके अभाव से इतना आहत क्यों अनुभव करते हैं, तो मैं कहूंगा, उनकी निष्कपटता, निर्भीकता और ईमानदारी के कारण, क्योंकि सही होना किसी के सही होने की कसौटी नहीं है। वह सही या गलत एक विचार या विश्वास से जुड़े लोगों को ही प्रतीत होता है। सही फैसले तो इतिहास किया करता है जिसमें सैद्धांतिक रूप में सही व्यवहार में गलत हो जाता है और सैद्धांतिक रूप में जघन्य तक अपने कारनामों के कारण शिरोधार्य हो जाता है। सही लोगों ने दुनिया को गलत लोगों सो भी अधिक बर्वाद किया है।

इसलिए विचारों की भिन्नता को जीवित रखना और अपने से भिन्न विचारों का सम्मान करना, ज्ञान के सभी स्तरों के, पर अपने अपने तरीके से सोचने वालों का सम्मान करना, विचारों को जीवित रखने की पहली शर्त है। इसलिए सही नहीं, बिना किसी प्रलोभन और दबाव के अपने विचारों को निर्भीकता से प्रकट करने वाला, वह मेरी आलोचना करता है तो भी, मेरा विरोध करता है तो भी, मेरे लिए सम्मान का पात्र बना रहता है। ऐसे लोगों की कमी होती जा रही और केवल इस दृष्टि से राजकिशोर का चला जाना एक खालीपन पैदा करता है और मुझे विचलित करता है।

मैं हिंदू हूं। मैं हिंदू हितों की चिंता करता हूं। परंतु हिंदू हित यदि किसी के अनिष्ट का कारण बनते हैं तो वह हिंदू का भी अहित करते हैं। मानवता के समक्ष हिंदुओं की छवि को मलिन करते हैं, हमारे इतिहास को भी कलंकित करते हैं और वर्तमान को भी। इसलिए मैं हिंदुत्व के प्रति सम्मान के कारण दूसरे समुदायों के हित का ध्यान और उनके विश्वास का आदर करता हूं।

मेरे मित्रों में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो अपना परिचय देते हुए ‘हिन्दू कुल में जनमिया, हिन्दू मगर न आहि’ जोड़ना जरूरी मानते हैं। उनके मन में महामानव का एक सपना है जिसे छूने की कोशिश में वे हिन्दू समाज को और केवल हिन्दू समाज को महामानवों का एक विराट क्लब बनाना चाहते हैं। समाज कोई भी हो, उसे निर्धारित योग्यता प्राप्त सदस्यों का क्लब बनानेवालों के सोच को मैं बचकाना मानता हूं, पर उनके सपनों का आदर करता हूं। इसके कारण उनके ऐसे विचार और काम और विश्वास यदि हिंदू के लिए अहितकर सिद्ध होते हैं तो मैं उनकी आलोचना करता हूं, विरोध करता हूं, उनसे सावधान रहने की आवश्यकता भी अनुभव करता हूं।

हिंदू होना मेरा चुनाव नहीं है, न भारत में पैदा होना मेरा चुनाव था, इसके बावजूद जिस परंपरा और परिवेश में पैदा हुआ हूं उसका सम्मान करना, उसके हित की चिंता करना मेरा दायित्व बन जाता है। सामाजिकता का दायित्व बुरे लोगों के साथ भी अच्छे बर्ताव और अच्छे संबंध की मांग करता है। जिनको मैं गलत कहता हूं उनकी नजर में मैं गलत हो सकता हूं, यह छूट देने का दायित्व मेरा बनता है।

हमारे मित्रों में बहुत से ऐसे हैं जो कुछ हिंदू परिवार में पैदा हुए परंतु अपने परिवार, जाति, समाज और इतिहास से बाहर चले गए और हिंदू समाज के प्रति उग्र और आक्रामक विचार रखते हैं एक ओर तो वे विश्वमानवता की नागरिकता के लिए अपनी सामुदायिक पहचान को छोड़ने के सपने देखते हैं और अपनी कसौटी पर अपने समाज को पूरा न उतरते देख अपने ही समाज को तोड़ते भी हैं। तोड़ने का काम तोड़ी जाने वाली चीज से बाहर रहकर ही किया जा सकता है, शायद इसी विवशता में उन्हें बाहर जाना पड़ता है और दूर होे होते कभी लौट नहीं पाते या कुछ और बन जाते हैं। परन्तु जब तक वे अपने सद्विवेक से, भय और प्रलोभन से मुक्त होकर ऐसा करते हैं, वे मेरे सम्मान के पात्र बने रहते हैं। विचार से लेकर आत्मसम्मान तक की सौदेबाजी के इस युग में ऐसे लोगों की भी कमी होती जा रही है। राजकिशोर इसी कोटि में आते हैं।

Post – 2018-06-05

संस्कृत की निर्माण प्रक्रिया (11)

ऋग्वेद की रचना से मतलब उपलब्ध ऋग्वेद की ऋचाओ की रचना से है इन सभी में ऐसा भाव है ये कवि अपने को नया कवि बता रहे थे। अपने से पहले के कवियों की रचनाओं का उन्हें पता था, उनका भी नाम भी लेते हैं, परंतु वे किसी कारण सुरक्षित नहीं रखी जा सकी थीं। एक बार मैंने ज्ञानोदय में एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था ऋग्वेद में नई कविता आंदोलन। वास्तव में पूरा उपलब्ध ऋग्वेद उनके अपने समय की नई कविता है, इसकी याद वे स्वयं किसी ना किसी बहाने दिलाते रहते हैंः
स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा 1.12.11
तं नव्यसी हृद आ जायमानमस्मत् सुकीर्तिर्मधुजिह्वमश्याः, 1.60.3
अस्येदु प्र ब्रूहि पू्र्व्याणि तुरस्य कर्माणि नव्य उक्थैः, 1.61.13
नव्यमतक्षद्ब्रह्म हरि योजनाय, 1.62.13
स्तोमं जनयामि नव्यम्, 1.109.2
प्र तव्यसीं नव्यसीं धीतिमग्नये वाचो मतिं सहसः सूनवे भरे, 1.143.1
तं वां रथं वयमद्या हुवेम स्तोमैरश्विना सुविताय नव्यम्, 1.180.10
अनर्वाणं वृषभं मन्द्रजिह्वं बृहस्पतिं वर्धया नव्यमर्कैः, 1.190.1
तदस्मै नव्यमंगिरस्वदर्चत शुष्मा यदस्य प्रत्नथोदीरते, 2.17.1.
स्तुषे यद्वां पृथिवि नव्यसा वचः स्थातुश्च वयस्त्रिवयाः उपस्तिरे, 2.31.5
समानमर्थं चरणीयमाना चक्रमिव नव्यस्या ववृत्स्व, 3.61.3
इयं ते पूषन्नाघृणे सुष्टुतिर्देव नव्यसी, 3.62.7
प्र सू महे सुशरणाय मेधां गिरं भरे नव्यसीं जायमानाम्, 5.42.13
प्र सू महे सुशरणाय मेधां गिरं भरे नव्यसीं जायमानाम् ।
य आहना दुहितुर्वक्षणासु रूपा मिनानो अकृणोदिदं नः, 5.42.13
सुवीरं त्वा स्वायुधं सुवज्रमा ब्रह्म नव्यमवसे ववृत्यात्, 6.17.13
तं वो धिया नव्यस्या शविष्ठं प्रत्ना प्रत्नवत्परितंसयध्यै, 6.22.7
स्तुषे जनं सुव्रतं नव्यसीभिर्गीर्भिर्मित्रावरुणा सुम्नयन्ता, 6.49.1
प्र पूर्वजे पितरा नव्यसीभिर्गीर्भिः कृणुध्वं सदने ऋतस्य, 7.53.2

उक्थं नवीयो जनयस्व यज्ञैः, 6.18.15
धियो रथेष्ठामजरं नवीयो रयिर्विभूतिरीयते वचस्या, 6.21.1
तं वो धिया नव्यस्या शविष्ठं प्रत्ना प्रत्नवत्परितंसयध्यै, 6.22.7
इदं ब्रह्म क्रियमाणं नवीयः, 7.35.14
इमां वां मित्रावरुणा सुवृक्तिमिषं न कृण्वे असुरा नवीयः, 7.36.2
इयं त ऋत्वियावती धीतिरेति नवीयसी, 8.12.10
विद्मा ह्यस्य सुमतिं नवीयसीं गमेम गोमति व्रजे, 8.51.5
परि त्रिधातुरध्वरं जूर्णिमति नवीयसी, 8.72.9
नू नव्यसे नवीयसे सूक्ताय साधया पथः, प्रत्नवद् रोचया रुचः, 9.9.8
अनु प्रत्नास आयवः पदं नवीयो अक्रमुः, 9.23.2
इदमकर्म नमो अभ्रियाय यो पूर्वीरन्वानोनवीति, 10.68.12
इमां प्रत्नाय सुष्टुतिं नवीयसीं वोचेयमस्मा उशते शृणोतु नो,10.91.13

अनु प्रत्नस्यौकसो हुवे तुविप्रतिं नरम्, यं ते पूर्वं पिता हुवे, 1.30.9
प्रत्नवज्जनया गिरः शृणुधी जरितुर्हवम्, 8.13.7
अनु प्रत्नस्यौकसः प्रियमेधास एषाम्, 8.69.18
प्रत्नवद् रोचयन्वरुचः, 9.49.5
धन्वन्निव प्रपा असि त्वमग्न इयक्षवे पूरवे प्रत्न राजन्,10.4.1
प्राचीनेन मनसा बर्हणावता यदद्या चित्कृणवः कस्त्वा परि, 1.54.5
ये अर्वाञ्चस्ताँ उ पराच आहुर्ये पराञ्चस्तॉ उ अर्वाच आहुः । 1.164.19
अर्वाचीनं सु ते मन उत चक्षुः शतक्रतो । 3.37.2
अर्वाची सुभगे भव सीते वन्दामहे त्वा ।
यथा नः सुभगाससि यथा नः सुफलाससि ।। 4.57.6
अर्वाची ते पथ्या राय एतु स्याम ते सुमताविन्द्र शर्मन् ।। 7.18.3

असाधु प्रयोग – धैथे धारयथः, हुवतः अभिष्टुवतो, हुवन्यति आह्वयति, हुवानः स्तूयमानः, ूमद पदअवामकय हूमहे आह्वयामः, ामय 0इमस्य (8.13.21) अस्य, वि जीपेय एवथा न भन्दनास्तुत्या
स्पूर्धन्स्पर्धमानाः, चिष्चा, कयस्यकस्य, आगासि आगच्छसि,
कृतिदेव यहां

के बारे में हम आश्वस्त हैं इनमें से एक देव समाज के लोग थे और दूसरे सारस्वत क्षेत्र में बसे हुए योग जो अभिजात वर्ग की भाषा सीख रहे थे परंतु उसके उच्चारण में गलतियां कर रहे थे। यह तीसरा समुदाय उन कुशल कर्मियों का था जो खनन, धातु विद्या और, उपयोगी वस्तुओं के निर्माण की दक्षता रखते थे जीने के ऊपर उनकी नागरिक सुविधाएं और उद्योग तथा व्यापार निर्भर करता था

ऋग्वेद में दो तरह के नामकरण मिलते हैं 1 व्यक्तियों के नाम से और दूसरा कौशल के नाम से जो सामूहिक नाम है, ऋभुगण, अश्विनी कुमार, रुद्र गण, वसु गण, इसी कोटि में आते हैं। इनके लिए जातिवाचक शब्दों का प्रयोग होता है परंतु कुशल कर्मियों मैं एक बर्ग ऐसा है जिसके व्यक्ति जिसके सदस्यों के लिए व्यक्तिवाचक संज्ञा का प्रयोग किया गया। हम कह सकते हैं ये या तो बहुत पहले से देव समाज के सहयोगी बन चुके थे, अथवा इनकी भूमिका अर्थव्यवस्था में दूसरे सहयोगियों की तुलना में अधिक प्रधान थी। महत्वपूर्ण बात यह है यह इंद्र की प्रधानता को नहीं स्वीकार करते यज्ञ यज्ञ का विरोध करते हैं परंतु अग्नि की उपासना करते हैं इनमें भृगु गण और आंगिरस आते हैं। शिक्षा दर्शन विज्ञान विविध क्षेत्रों में इनके योगदान को या सम्मान के साथ याद किया जाता है। अरायुक्त पहिए का आविष्कार, रथ का आविष्कार यह मोटे तौर पर बढ़ईगीरी से जुड़े
सभी उपक्रमों में इनकी भूमिका दिखाई देती है

ऋग्वेद की भाषा केवल स्थानीय भाषा के प्रभाव से बदली हुई भाषा नहीं है। इस चरण पर है नगर सभ्यता का विकास वह चुका था और हुआ है तनाव की स्थिति में थी। उद्योग धंधों का विकास आगे बढ़ चुका था और विश्व बाजार में इसके सो देतो पहुंचते थे उन देशो से सोने चांदी की अतिरिक्त केवल सूखे मेवे जिनम में खजूर प्रमुख घोड़ों का आयात अवश्य होता था। परंतु वहां का निर्मित सामान यदि आता था तो उसका हम है ना तो साहित्य से पता चलता है नहीं हड़प्पा के पुरातत्व से। इस तथ्य को हम इसलिए रेखांकित कर रहे हैं यह याद दिला सके यह समाज विभिन्न कौशलों में दक्ष जनों की विशेषज्ञता का लाभ उठा रहा था और वे यहां तो इसके नागर बस्तियों मैं रहते थे यहां यदि उनकी बसावट अलग थी
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. वृत, वृक, , वृक्ष, वृत्त, ववृत्, आवृत्, निवृत, संवृत, विवृत (सुविवृतं), वृध, वृण, वृक्त, वृजिन, वृज्यते, वृश्चत्, परीवृतम् ,त्रिवृतं, वृश्च, वि वृहामि, वृक्तबर्हिषः, वृष्णि, वृक्षि, अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपं, सहोवृधं,अभि स्ववृष्टिं मदे अस्य युध्यतो रघ्वीरिव प्रवणे सस्रुरूतयः ।प्रवृक्त,
अपावृतम्, अवासृजो निवृताः सर्तवा अपः, वृथा, नि वावृतुः,
परावृजं प्रान्धं श्रोणं चक्षस एतवे कृथः

आस्नो वृकस्य वर्तिकामभीके युवं नरा नासत्यामुमुक्तम् ।
वृतेव यन्तं बहुभिर्वसव्यैः, 6.1.3
वर्तिर्याथस्तनयाय त्मने च ।। 6.49.5

न या अदेवो वरते न देव आभिर्याहि तूयमा मद्य्रद्रिक् ।। 6.22.11
वृणते नान्यं त्वत् ।। 10.91.8

मा न इन्द्र परा वृणक् ।। 8.97.7
वृकश्चिदस्य वारणं, 8.66.8
वृष्णर्वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन्,1.32.7

वर्ष्मन्तस्थौ वरिमन्ना पृथिव्याः ।
एतत् त्यत् त इन्द्र वृष्ण उक्थं वार्षागिरा अभि गृणन्ति राधः,1.100.17
वृषा ते वृष्ण इन्दुर्वाजी सहस्रसातमः ।। 1.175.1

या जामयो वृष्ण इच्छन्ति शक्तिं नमस्यन्तीर्जानते गर्भमस्मिन् ।
अच्छा पुत्रं धेनवो वावशाना महश्चरन्ति बिभ्रतं वपूंषि ।। 3.57.3
प्र धेनवः सिस्रते वृष्ण ऊध्नः
वृष्णस्ते वृष्ण्यं शवो वृषा वना वृषा मदः ।
सत्यं वृषन् वृषेदसि ।। 9.64.2
अंजन्त्येनं मध्वो रसेनेन्द्राय वृष्ण इन्दुं मदाय ।। 9.109.20
शिरो बिभेद वृष्णिना ।। 8.6.6

विश्वायु शवसे अपावृतम् ।। 1.57.1
अपावृणोदिष इन्द्रः परीवृता द्वार
तष्टेव वृक्षं वनिनो निवृश्चसि परश्वेव नि वृश्चसि ।। 1.130.4
इषः परीवृताः