#वैदिककविता
छंद विधान
लगभग सभी प्रयोगशील कवियों ने छंदों में प्रयोग किए है । ऐसा लगता है कि छंद में प्रयोग पुराने कवियों द्वारा भी किए जा रहे थे। नए कवियों ने उसे पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया। प्रश्न यह नहीं है कि वे नए छंद रचने का प्रयत्न कर रहे थे, बल्कि ऐसा सचेत रूप में कर रहे थे। प्रयोग के लिए प्रयोग कर रहे थे। अपने को दूसरों से कुछ बढ़कर या अलग दिखाने के प्रयत्न करते हुए प्रयोग कर रहे थे।
छंदशास्त्र को लेकर मेरा अलग से कोई अध्ययन नहीं है, इसलिए मैंने सोचा अधिकारी विद्वानों ने जो कुछ लिखा है उस पर एक सरसरी दृष्टि डाल लें। इसी तैयारी में 2 दिन मौन रहना पड़ा। परंतु जो कुछ पढ़ा वह समस्या को सुलझाने की जगह और उलझाता है। इसके अनुसार वैदिक छंद शास्त्र पर सबसे आधिकारिक काम आचार्य पिंगल का है। उन्होंने छन्दशास्त्र पर आठ अन्य आचार्यों के नाम गिनाए हैं और बताया है इनके ग्रंथ तो नहीं मिलते परंतु इन्होंने एक एक छन्द का नामकरण किया था। यह निम्न प्रकार हैः
क्रौष्टुकिकृत – स्कन्धोग्रीवी
यास्ककृत – उरोवृहती
वाण्डिकृत – सतोवृहती
सैतवकृत – विपुलानुष्टुप और उद्धर्षिणी
काश्यपकृत – सिंहोन्नता
शाकल्यकृत – मधु माधवी
मांडव्यकृत – चंड वृष्टिप्रपात
रातकृत — चंड वृष्टिप्रपात
मांडव्य और रात के नाम से एक ही छन्द है। वैदिक साहित्य के संदर्भ में छन्द का महत्व यह था कि इसे वेद के छह अंगों मैं स्थान दिया गया था। जिस साहित्य में उच्चारण और गायन का इतना महत्व हो कि वे जादू का सा असर रखते हों, उसके अनेक अध्येताओं का होना बहुत स्वाभाविक है। परंतु हमारी समस्या यह है की ऊपर के आचार्यों द्वारा सुझाए गए छन्दों में से 3 को छोड़कर शेष ऋग्वेद में नहीं आए हैं। उन्होंने छंदों का निर्धारण चारों वेदों के संदर्भ में किया है इसलिए संभवतः वे दूसरे वेदों में प्रयोग में आए होगे।
वैदिक कवियों ने अपनी रचनाओं में छन्जोदों के जो प्रयोग किए थे उनके लिए संज्ञा बाद के आचार्यों द्वारा दी गई प्रतीत होती है। इससे मेरी इस धारणा को बल मिलता है ( हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, 1987) कि सूक्तों के साथ आए ऋषि नाम और देवता नाम प्रयत्न से जुटाए गए सूक्तों मैं नहीं थे, अपितु संपादकों ने सूक्तों की अंतर्वस्तु के आधार पर स्वयं निश्चित किया। छन्दों के नामकरण पर पहले मेरा ध्यान नहीं गया था। अब लगता है इनको वर्तमान संज्ञा वेदों के छन्शादस्त्र पर काम करने वाले मनीषियों ने दी है।
ऋग्वेद के सभी छंद वर्णिक है। आचार्य राम किशोर मिश्र के जिस लेख (वेद के विविध छन्द और छन्दोनुशासन-ग्रन्थ) से मैंने ऊपर के शास्त्रकारों का उल्लेख किया है उसमें ऋग्वेद में मात्र तेरह छन्द प्रयोग में आए हैं। हमने उनके द्वारा दी गई तालिका के शाथ उदाहरणस्वरूप एक एक छन्द जोड़ दिए । इनकी वर्णसंख्या पर ध्यान देना जरूरी हैः
गायत्री- 24
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् । 1.1.1
2. उष्णिक् 28
आ याह्यद्रिभिः सुतं सोमं सोमपते पिब ।
वृषन्निन्द्र वृषभिर्वृत्रहन्तम ।। 5.40.1
3. अनुष्टुप् 32
उरोष्ट इन्द्र राधसो विभ्वी रातिः शतक्रतो ।
अधा नो विश्वचर्षणे द्युम्नं सुक्षत्र मंहय ।। 5.38.1
4. बृहती- 36
त्वमंग प्र शंसिषो देवः शविष्ठ मर्त्यम् ।
न त्वदन्यो मघवन्नस्ति मर्डितेन्द्र ब्रवीमि ते वचः ।। 1.84.19
5. पंक्तिः – 40
शर्यणावति सोममिन्द्रः पिबतु हा ।
बलं दधान आत्मनि करिष्यन् वीर्यं महदिन्द्रायेन्दो परि स्रव ।। 9.113.1
6. त्रिष्टुप – 44
आ ते हनू हरिवः शूर शिप्रे, रुहत्सोमो न पर्वतस्य पृष्ठे ।
अनु त्वा राजन्नर्वतो न हिन्वन्गीर्भिर्मदेम पुरुहूत विश्वे ।। 5.36.2
7. जगती-48
वैश्वानराय धिषणामृतावृधे, घृतं न पूतमग्नये जनामसि ।
द्विता होतारं मनुषश्च वाघतो, धिया रथं न कुलिशः समृण्वति ।। 3.2.1
8. अतिजगती- 52
कथा दाशेम नमसा सुदानूनेवया मरुतो अच्छोक्तौ प्रश्रवसो मरुतो अच्छोक्तौ ।
मा नोऽहिर्बुध्न्यो रिषे धादस्माकं भूदुपमातिवनिः ।। 5.41.16
9. शक्वरी – 56
त्वं शतान्यव शम्बरस्य पुरो जघन्थाप्रतीनि दस्योः ।
अशिक्षो यत्र शच्या शचीवो दिवोदासाय सुन्वते सुतक्रे भरद्वाजाय गृणते वसूनि ।। 6.31.4
10. अतिशक्वरी- 60
प्रप्रा वो अस्मे स्वयशोभिरूती परिवर्ग¬ इन्द्रो दुर्मतीनां दरीमन् दुर्मतीनाम्
स्वयं सा रिषयध्यै या न उपेषे अत्रैः ।
हतेमसन्न वक्षति क्षिप्ता जूर्णिर्न वक्षति ।। 1.129.8
11. अष्टि- 64
त्वं नो वायवेषामपूर्व्यः सोमानां प्रथमः पीतिमर्हसि सुतानां पीतिमर्हसि ।
उतो विहुत्मतीनां विशां ववर्जुषीणाम् ।
विश्वा इत् ते धेनवो दुह्र आशिरं घृतं दुह्रत आशिरम् । 1.134.6
12. अत्यष्टि- 64,
अग्निं होतारं मन्ये दास्वन्तं वसुं सूनुं सहसो जातवेदसं विप्रं न जातवेदसम्
य ऊर्ध्वया स्वध्वरो देवो देवाच्या कृपा ।
घृतस्य विभ्राष्टिमनु वष्टि शोचिषाऽऽजुह्वानस्य सर्पिषः ।। 1.127.1
13. धृति – 70-72
अवर्मह इन्द्र दादृहि श्रुधी नः शुशोच हि द्यौः क्षा न भीषाँ अद्रिवो घृणान्न भीषा अद्रिवः ।
शुष्मिन्तमो हि शुष्मिभिर्वधैरुग्रेभिरीयसे ।
अपूरुषघ्नो अप्रतीत शूर सत्वभिस्त्रिसप्तैः शूर सत्वभिः ।। 1.133.6
वैदिक संशोधन मंडल पुणे द्वारा प्रकाशित ऋग्वेद संहिता मे कुछ और छन्दों और उनके प्रभेदो का उल्लेख है जिससे यह प्रकट होता है की पिंगल शास्त्र के रचयिता के बाद भी दूसरे अध्येताओं ने नए प्रयोगों की खोज की और उन्हें संज्ञा दी। जिन छन्दों का मैं उल्लेख कर रहा हूं वे निम्न प्रकार हैः
विराट् ।
अग्ने दिवः सूनुरसि प्रचेतास्तना पृथिव्या उत विश्ववेदाः ।
ऋधग्देवाँ इह यत्रा चिकित्वः ।। 3.25.1
विराटस्थाना
बतो बतासि यम नैव ते मनो हृदयं चाविदाम ।
अन्या किल त्वां कक्ष्येव युक्तं परि ष्वजाते लिबुजेव वृक्षम् ।।10.10.13
एकपदा विराट
असिक्न्यां यजमानो न होता ।। 4.17.15 {23}
द्विपदा विराट् ।
परि प्र धन्वेन्द्राय सोम स्वादुर्मित्राय पूष्णे भगाय ।। 9.109.1
सतोबृहती
इमं नरो मरुतः सश्चता वृधं यस्मिन् रायः शेवृधासः ।
अभि ये सन्ति पृतनासु दूढ्यो विश्वाहा शत्रुमादभुः ।। 3.16.2
महाबृहती।
नवानां नवतीनां विषस्य रोपुषीणाम्
सर्वासामग्रभं नामाऽऽरे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ।। 1.191.13
अतिधृति ।
स हि शर्धः न मारुतं तुविष्वणिरप्नस्वतीषूर्वरास्विष्टनिरार्तनास्विष्टनिः ।
आदद्धव्यान्याददिर्यज्ञस्य केतुरर्हणा ।
अध स्मास्य हर्षतो हृषीवतो विश्वे जुषन्त पन्थां नरः शुभे न पन्थाम् । 1.127.6
प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
बृहदु गायिषे वचोऽसुर्या नदीनाम् ।
सरस्वतीमिन्महया सुवृक्तिभिः स्तोमैर्वसिष्ठ रोदसी ।। 7.96.1
पदपक्तिः
आभिष्टे अद्य गीर्भिगृणन्तोऽग्ने दाशेम ।
प्र ते दिवो न स्तनयन्ति शुष्माः ।। 4.10.4
महापंक्तिः 48
इयत्तिका शकुन्तिका सका जघास ते विषम् ।
सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामाऽऽरे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ।। 1.191.11
भद्रमिद्भद्रा कृणवत्सरस्वत्यकवारी चेतति वाजिनीवती ।
गृणाना जमदग्निवत्स्तुवाना च वसिष्ठवत् ।। 7.96.3
महापदपंक्तिः
तव स्वादिष्ठाऽग्ने संदृष्टिरिदा चिदह्न इदा चिदक्तोः ।
श्रिये रुक्मो न रोचते उपाके ।। 4.10.5
पुरस्तारज्योतिः48
आ सूर्या यातु सप्ताश्वः क्षेत्रं यदस्योर्विया दीर्घयाथे ।
रघुः श्येनः पतयदन्धो अच्छा युवा कविर्दीदयद् गोषु गच्छन् ।। 5.45.9
जगती त्रिष्टुब्वा 48
स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः ।
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना ।। 5.51.11
अति जगती
स भ्रातरं वरुणमग्न आ ववृत्स्व देवाँ अच्छा सुमती यज्ञवनसं ज्येष्ठं यज्ञवनसम् ।
ऋतावानमादित्यं चर्षणीधृतं राजानं चर्षणीधृतम् ।। 4.1.2
निचृत्। 28
आ वां रथो रथानां येष्ठो यात्वश्विना ।
पुरू चिदस्मयुस्तिर आङ्गूषो मर्त्येष्वा ।। 5.74.8
पादनिचृत्।
अभी सु णः सखीनामविता जरितृणाम् ।
शतं भवास्यूतिभिः ।। 4.31.3
इससे भी प्रकट है, छंदों का नाम बाद के आचार्यों द्वारा दिया गया है और कुछ के विषय में वे भी, अनिश्चय में रहने के कारण, दो संभावनाओं का संकेत करते हैं । उदाहरण के लिए मंडल 5 के सूक्त 51 की ग्यारहवी से तेरहवी ऋचाओं के विषय में कहा गया है कि इनका छन्द या तो जगती है अथवा त्रिष्टुप्। जो इस संभावना को वास्तविकता में बदल देता है। अब हम पूरे विश्वास से कह सकते हैं कि छंदों के प्रयोग तो वैदिक कवियों के हैं पर उनका नामकरण बाद के आचार्यों द्वारा किया गया है।
अनुमानतः सभी छन्दों का आधार अनुष्टुप है। इसी में कुछ जोड़-तोड़ करते हुए दूसरे छंद बनाए गए हैं। ऐसा लगता है कि छंदों के प्रयोग पुराने कवियों द्वारा भी किए जा रहे थे। इसी के चलते अनुष्टुप के आठ आठ वर्णों के चार पदों में से 1 को कम कर के 24 वर्णों का गायत्री छंद बनाया गया था। इसको एक पाद कम होने को लेकर एक कहानी भी गढ़ ली गई थी, जिसमें यह स्पष्ट कहा गया है गायत्री के दोनों चरण समान वर्णों के थे। इस कहानी में छंद के चरणों को पक्षी के पंखों की तुलना में रखा गया है। कहानी बहुत रोचक है और उससे जुड़े कई वैज्ञानिक तथ्य और काल्पनिक कथाएं भी मिल जाती हैं परंतु यहां हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि इस कहानी में यह बताया गया है पक्षी का एक पंख कट गया था।
मुझे डर है कि मैंने अनुष्टुप को आधार बनाकर सभी छन्दों की रचना को संभव मानते हुए इकहरेपन से काम लिया है। कारण यह संभव है अनेक छन्द लोकगीतों के आधार पर चुने गए या अपनाए गए हो सकते हैं। मैं ऐसा संशय इसलिए प्रकट कर रहा हूं कि गायत्री से मिलता-जुलता एक राग भोजपुरी में दिखाई देता है और वह है कहँरवां । यह बहुत गेय छंद है जिसे पालकी धोते हुए कहार अपने श्रम से ध्यान हटाने के लिए बड़े उल्लास से गाते थे। असंभव नहीं कि छन्द बहुत पुराना हो और गायत्री छंद लोक से अपनाया गया हो। इसमें चार की जगह कि तीन ही पाद होते हैं इसलिए यह कहानी गढ़ ली गई हो।
एक रोचक बात यह है कि हमारे जातीय छन्द वेद से प्रेरित हैं, न कि संस्कृत से जो प्रयत्न पूर्वक लोक से दूर किए जाने के बाद भी लौकिक संस्कृत इसलिए कही जाती है कि वेद की भाषा को देववाणी माना जाता रहा है जब की स्थिति ठीक उल्टी है। वैदिक भाषा लोक व्यवहार की भाषा थी उसके छंद और मुहावरे लोक के सर्वाधिक निकट है और आज तक भाषा में परिवर्तन के बावजूद वे लोग में प्रचलित हैं जबकि संस्कृत केवल ब्राह्मणों के बीच और वह भी सौभाग्य से सुशिक्षित ब्राह्मणों के बीच ही सीमित रही है इसलिए उसका लोक से संबंध कभी रहा ही नहीं। यह सवाल बार-बार उठाया जाता है कि संस्कृत किसी क्षेत्र की बोली रही ही नहीं। सच यह है कि ब्राह्मणों के स्वार्थ के कारण वह शिष्ट व्यवहार की भाषा रहने नहीं दी गई।
परन्तु इस आरोप के पीछे पश्चिमी विद्वानों की एक शरारत है। वे यह दिखाना चाहते रहे हैं कि संस्कृत किसी भारतीय क्षेत्र की भाषा कभी रही नहीं, इसलिए यहां नहीं बोली जाती थी, कहीं अन्यत्र से आई है और इसी के चलते, यह जानते हुए कि वैदिक उससे बहुत पुरानी है वे बार-बार तुलना के लिए संस्कृत का नाम लेते हैं, न कि वैदिक का। वे अपने गहन अध्ययन के माध्यम से यह जान चुके थे कि वैदिक तो लोक व्यवहार की भाषा थी और उसके निर्माण में अन्य भारतीय भाषाओं की सक्रिय भूमिका रही है। यदि वैदिक बोल चाल की भाषा न होती तो भारत से लेकर यूरोप तक किताबों के माध्यम से नहीं पहुंच सकती थी, क्योंकि यदि कोई जमाने में नहीं थी तो वह थी व्यापक साक्षरता।