Post – 2018-07-19

यहाँ सब लोग सब कुछ जानते हैं
जिसे सच मानते हैं वह कहो अब।
न कोई है तुम्हारी सुनने वाला
उठो बिस्तर सँभालो घर चलो अब।

Post – 2018-07-18

#आइए_शब्दों_से_खेलें(२४)
पांव, चरण, लात,

पांव के डग बहुत लंबे हैं। यह बोलियों से लेकर यूरोप की भाषाओं तक में पा सकते हैं। चाहें तो तमिल के पो – जाना से, जल की एक ध्वनि (पा/पी/पे/पो) से सिद्ध कर सकते हैं, और यदि मेरी मानें तो चलते समय पाँव के जमीन पर रक्खे जाने के साथ उत्पन्न ध्वनि ‘पत्’ से भी
#आइए_शब्दों_से_खेलें

Post – 2018-07-18

गोरक्षा हो या देशरक्षा किसी भी बहाने से सामूहिक हिंसा करने वाले भाजपा शासन के़, हिन्दुत्व के, लोकतंत्र के और स्वयं अपने सबसे बड़े शत्रु हैे। वे मुस्लि संगसार को हिन्दुत्व का आदर्श मानते है, लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलना चाहते है, इस अंदेशे को पमाणित करते हैं कि आगे चलकर भाजपा शासन गुंडातंत्र में बदल दिया जाएगा,इसलिए भाजपा के हाथों में देश का भविष्य सुरक्षित नहीं है। चुनाव वर्ष में विरोधियों को वे इससे बड़ा कौन सा तोहफा दे सकते हैं? ऐसे लोग मेरे मित्र नहीं हो सकते अतः उन्हें ब्लाक करना विवशता है।

Post – 2018-07-18

विचार को प्रहार से दबाने वाले मारे जाते हैं अपने ही हथियार से। जिन्हें इस भौतिक नियम का ज्ञान नहीे कि आग पीटने से फैलती भी है और अधिक प्रचंड भी होती है, वे अपनी रक्षा नहीं कर सकते। अग्निवेश को जो भी शारीरिक चोट लगी हो, वह जल्द भर जाएगी, उनके ऊपर प्रहार करने वाले जिस दल या संगठन से जुड़े हैं उसे होने वाली क्षति उन्हें उसके द्वारा उन्हें दंडित करने से ही पूरी हो सकती है।

Post – 2018-07-17

#आइए_शब्दों_से_खेलें(२३)
गोड़, पांव, चरण, लात,

गोड़
आप चाहें तो गोड़ को ‘गम्’ धातु से व्युत्पन्न कर सकते हैं, परन्तु संस्कृत में तो इसे स्थान मिला ही नहीं। अब आप उल्टी यात्रा करके गम् धातु की व्युत्पत्ति गोड़ के सहारे जांचने का प्रयास कर सकते हैं। हम पाते हैं कि गतिशील प्राणियों में जिनके आदि में गो/ग आया उनके लिए यह धातु नियत कर दी, परन्तु देशज या दूसरी बोलियों के ऐसे शब्द और क्रिया व्यापार छूट गए जो संस्कृत में नहीं आए थे।

‘गोड़’ किस बोली का शब्द है, यह हम नहीं जानते, परन्तु यह जानते हैं कि भोजपुरी में यह अधिक प्रचलित है और संभव है देववाणी में भी प्रचलित रहा हो। परन्तु एक कठिनाई यह है कि क्रिया के रूप में इसका प्रयोग दिखाई नहीो देता नहीं। इसके योग से केवल पांवों के एक आभूषण – गोड़हरा का निर्माण होता है इसलिए भोजपुरी में भी यह किसी अन्य बोली से आया लगता है। गमन, गति, गो, गव्य, गय, गविष्टि, गवेषण आदि और अं.goat, cow, go, come, calm, cool/cold, gate, game, guest आदि शब्द जलपरक को/ गो से व्युत्पन्न हैं, इससे भी ऊपर की आशंका की पुष्टि होती है। अत: मानना होगा कि गोड़ की संकल्पना का गति से नहीं, नीचे के हिस्से से है, कुचलने या धँसने से है और गोड़ना या कोड़ना इसका अर्थविस्तार है। अं goad, gorge का संबंध भी इससे हो सकता है।
गोड़ के दो स्रोत हैं, एक है कच्ची पहाड़ियों आदि से किसी प्राकृतिक हलचल से होने वाले स्खलन से नीचे गिरनेवाले पत्थरों की आवाज या गड़गड़ाहट जिसका उपयोग भाववाचक संज्ञा (गड़गड़ाहट), क्रियाविशेषण (गड्ड), संज्ञा (गड्डी,- किसी चीज की ढेरी; गड्डर -भेंड़ों का झुंड), पूर्व पद के (गड़, जैसे गड़बड़), परसर्ग (रायगढ) आदि रूपों में हुआ है।

दूसरा स्रोत गड्डर या या कहें पहले स्रोत का उपस्रोत, उसके पावों के जमीन पर पड़ने से उत्पन्न आवाज, जिससे तीन आशयों का विकास हुआ। १. पांव की संज्ञा और उसका अर्थविस्तार, जिसके चलते यह किसी के पांवों लिए प्रयोग में आने लगा। २. पावों के कच्ची मिट्टी में गड़ने से गड़ने का निशान, जिससे गड़ने और गोड़ने के लिए शब्द निकले । ३. किसी गड्ढे या गर्त के लिए संज्ञा । पर गति के मामले में गड का वर्णविपर्यय हो गया। अब निकला डग और डगर।

अब हम डगराने, डग्गे, डिगने आदि के विषय में जो सुझाव पहले रख आए हैं, वह सन्दिगेध हो गया। दोनों में कौन अधिक समीचीन है यह तय करना अभी आसान नहीं।

शेष पर्यायों पर विचार को आज फर स्थगित करना होगा।

Post – 2018-07-17

जावेद अख्तर तथा दूसरे ‘रौशन खयाल’ मुस्लिमों को एक सहभोज देते हुए निदा का साथ देना चाहिए।

Post – 2018-07-17

निदा खान के साथ कौन है? नारीवादी संगठन? मानवतावादी संगठन? उसके साथ हुए बर्ताव की भर्त्सना में नैतिक समर्थन के लिए हस्ताक्षर अभियान तो चलाएं। यहां नहीं तो जहां जहां संभव हो।

Post – 2018-07-16

टुकड़े टुकड़े कर फरमाने लगे
जुड़ न सकता हो तो कीमा ही बना.

Post – 2018-07-16

#आइए_शब्दों_से_खेलें(22)

जब हम ‘उदर’ पर विचार कर रहे थे तो क्या आपका ध्यान ‘उदार’ की ओर गया था? यदि हां, तो क्या यह सोचा कि इसका प्राथमिक अर्थ फूला हुआ, फैला हुआ, भरा-पूरा रहा हो सकता है? जैसे सिकुड़ा हुआ, दबा हुआ का लाक्षणिक भाव साधनहीन, कृपण आदि होता है उसी तरह फूले और फैले या उदार के साथ दानशील, सहायक आदि का भाव आ जुड़ता है। धनात् धर्म:|

हम उदर के नीचे ‘कटि’ पर आएं। ‘गट्टा’ की तरह ‘कटि’ का अर्थ जोड़ होता है, यह हम कह आए हैं। भोजपुरी में कटि को कर्रहिआँव कहते हैं। इसमें ‘कर्रहि’ का अर्थ वही है जो कलाई के ‘कल्ल’ और कटि के ‘कट्ट’ का है। समस्या बोलियों के अनुसार ध्वनि परिवर्तन का है। यह कर्र ही ‘करधनी’ या ‘करधन’ – कटिबन्ध में ‘कर’ रह गया है और ‘धन’ या ‘धनी’ बन्ध या रज्जु का द्योतक है।

‘अंग’ को ‘लंग’ कहा जाता तो कोई हरज होता? अर्थ तब भी वही रहता जो लंग की ओर से असावधान लोग, इसके संस्कृतीकरण के बाद, ‘लग्न’ कहने पर समझ पाते है, अर्थात् लगा या जुड़ा हुआ हिस्सा। मेरे घर में दो परिवार रहते थे, आधे आधे बँटे हुए? यदि उधर कोई चीज पड़ी होती तो कहते, ‘चाचा के अलंगे’, अपने हिस्से के लिए ‘हमरे अलंगे’। जुड़े हुए, निकले हुए, लगे हुए हिस्से के लिए ही अंग और लंग का प्रयोग होता है। दोनों के मूल में प्रकट होने, दिखाई देने, अलग होने का भाव प्रबल है।

हमारे दोनों पांव धड़ से जुड़े होने के करण लंग कहे गए, जैसे अभी हम जिस कटि की बात कर रहे थे, उसे ‘लंक’ कहा जाता है। ‘लंक’, ‘लंग’, ‘अंग’ सबका अर्थ जोड़ है। लेकिन लंक पर एक जिम्मेदारी लचकने की डाल दी गई, और जिम्मेदारी डाली भी गई युवतियों की कमर पर जिनसे चलने के साथ अपेक्षा की जाती थी कि वे इठलाती हुई, बल खाती हुई, नागिन की तरह लहराती हुई चलेंगी और इस अपेक्षा की पूर्ति वे जिन्दगी में न सही, विज्ञापनों में कर भी लेती हैं। लचकने के लिए कमर पतली होनी चाहिए इसलिए यदि लंक में जुड़ने का भाव है तो उस तराश का, क्षीणता का भाव भी है जिसके कारण कुछ लोग ‘रंक’ कहलाते हैं। ‘रंक’ और ‘लंक’ में फर्क ही कहां है। यहां तक कि यह अंग्रेजी के लैंक और लैंकी (lank, lanky) और ब्लैंक (blank) छरहरेपन और खालीपन तक पहुंची लगती है और जो अंग वाला सादृश्य है वह एंकल (ankle) में दिखाई देगा।

कहें, यह शब्द-प्रतिशब्द (cognates) का मामला नहीं, शब्द-शृंखला और आर्थी प्रतिवेश (semantic domain)के निर्गमन और स्वायत्तीकरण का मामला है। यूरोप में कमर के लचकने का सवाल ही न था क्योंकि उनके नृत्य तक में इसकी गुंजायश नहीं जब कि भारतीय नृत्य और लास्य में भंगिमा और लोच (उंगलियों, पैरों, हाथों, कमर, ग्रीवा, होंठ, आँखों,भवों, नासिका, माथे की रेखाओं सभी में) सर्वव्यापी हैऔर नृत्य की अंतरात्मा है। कलात्मक सौन्दर्यबोध का यही तत्व स्त्री में, जिसकी शक्ति का स्रोत सौन्दर्य है, नैसर्गिक मान कर उस पर लाद दिया जाता रहा है।

‘टाँग’ में टँगे होने का भाव अधिक स्पष्ट है। टाँग का दुर्भाग्य कि इसे सं. में स्थान न मिला। एक मछली का नाम ‘टेंगरा’ है जिससे इस बात की संभावना पैदा होती है कि इसके पीछे जल की टगर-मगर ध्वनि का हाथ है। भो. में टाँग को टङरी कहते हैं। बांग्ला में इसे टेंग कहते है। पहली नजर में यह टङरी की अपेक्षा अधिक सही लगता है क्योंकि बूढ़े आदमी के झुकी कमर के साथ धीरे धीरे चलने को ठेघना कहा जाता है, और टेंगरी मछली के एकार से भी इसकी पुष्टि होती है, परन्तु टांग का टग ही डग, डगर, डिगना, डिगाना, डग्गा (लोहे की सरिया का बना गोल पहिया जिससे हम डगराते हुए दौड़ते थे) और ढंग – चलन, तरीका , बना इसलिए टँग, टाँग रूप अधिक सही लगता है। इसी से ठेघना से भिन्न टघरना > टहलना, टहल- सेवा, टहलुआ-सेवक की व्युत्पत्ति हुई लगती है।
(जारी)

Post – 2018-07-15

#आइए_शब्दों_से_खेलें (21)

पेट
पेट के बारे में क्या कभी आपने सोचा है यह इसका मतलब क्या होता है। ठीक कहा आपने, पेट भरने के लिए होता है अर्थ लगाने के लिए नहीं। यह काम सिर के हि स्से में आता है। मैंने सुना है किसी चीज का अर्थ पता चल जाए तो पेट में इससे मरोड़ नहीं पैदा होती। यूं तो कहते हैं पेट में भी एक छोटा दिमाग होता है और वह अपने फैसले स्वयं करता है।

जो भी हो, पेट के बारे में जो सबसे दुखद बात है वह यह कि यह आपका पालन करता है और इसके बदले मे लोग इसे अक्सर पापी कहते रहते हैं। पापी पेट के लिए। हमने अपना उपकार करने वालों के साथ हमेशा कृतघ्नता ही प्रकट की है। तिरस्कार के बाद भी यह अपना काम करता रहता है।

पेट के बारे में एक सचाई यह है कि इसमें दो रोटी पड़ी रहे तो ही दिमाग भी काम करता है, अन्यथा वह भी काम करना बंद कर देता है। खाली दिमाग शैतान का घर होता है और खाली पेट शैतान के काम आता है।

पेट का भरा होना और पेट का खाली होना कुछ इस तरह कहा जाता हैं मानो पेट न हुआ माल गोदाम हुआ। लेकिन अगर कहा जाता है उसके पीछे सचाई भी होगी। पेट का नाम आते ही आपके सामने माल गोदाम न सही पिटारी का या पेटी का चित्र आ ही गया होगा।

वक्ष के विषय में हमने पीछे कहा है कि यह एक बाक्स है परंतु यदि आप गौर करें तो पाएंगे पेट की माल गोदाम से उपमा वक्ष की अपेक्षा अधिक सही है।

कुछ लोग ‘पेट’ को ‘पोट’ बोलते हैं और लीजिए हमें पोटली -सामान सहेजने की मोटरी – की याद आ गई । हमारे पेट का जो निचला हिस्सा है उसे पेड़ू कहते हैं। इसका मतलब हुआ छोटी पिटारी। संस्कृत में पेट शब्द को जगह नहीं मिली और मिली तो पेटिका बन कर। पेट की तुलना में तो पीठ तक को अघदिक सम्मान मिला लगता है

संस्कृत में सामान्यतः पेट के लिए उदर का प्रयोग देखने में आता है। उदर का अर्थ हमारे मित्रों में शायद ही किसी को पता हो। परंतु कुछ को यह पता होगा की उदर के साथ भी भरने का मुहावरा चलता है उदरंभर, भर्तृहरि का तो कहना था कि पेट एक ऐसी चीज है जिस् भरते रहे फिर भी भर नहीं पाता। वह पापी पेट को बहुत मुश्किल से भरने वाला मानते थे — दुष्पूरोदरपूरणाय रात दिन पिसते रहो। आज जिसे तुंद होने के कारण तोंद कहा जाता है ऐसे लोगों काे पहले खासा रोबदाब था। उन्हे वृकोदर कहा जाता था। यहां वृक का अर्थ भेड़िया नहीं बृहद है।तोंद का पूर्वरूप जो देववाणी में चलता था, धोंध था जो गुड़ की चाशनी में लाई के बड़े आकार के लड्ड, (धोंधा) और चावल के आंटे के बने लड्डू (ढोंढ़ी) में बचा रह गया है। अर्थात गोललाकार।

वास्तव में उदर अनाज रखने की डेहरी या अन्नागार को कहते थे। ऋग्वेद में अन्नागार के लिए ऊर्दर का प्रयोग देखने में आता है- तमूर्दरं न पृणता यवेन – जहां प्रयोग राजकोष के लिए है इसलिए यदि इस शब्द के साथ मोंएं जोदड़ो केअन्नागार की याद आ जाए तो अपराध क्षम्य है।

उदर देव भाषा का शब्द होना चाहिए।परन्तु हमें ऐसा लगता है कि देवसमाज में पेट के लिए ढींढ़ा का प्रयोग किया जाता था जिसका अर्थ संकोच होने के कारण आज भोजपुरी में इसका प्रयोग गर्भ के कारण फूले हुए पेट के लिए होता है और जो स्त्रियों की व्यंग्य भाषा तक सीमित रह गया है। हम जानते हैं , सारस्वत बोली में घोष महाप्राण ध्वनियों का अभाव था। इनका उच्चारण वे बहुत कष्ट से कर पाते थे। यदि दो घोषमहाप्राण ध्वनियां पास पास आ जाती थीं तो पहले का महाप्राणन हट जाता था। हम आदि इकार के साथभी उनकी समस्या से परिचित हैं, जिसमें इकार ऋकार में बदल जाता था। इन्हीं के कारण ढीढ़ा दृढ़ बन गया। अर्थात् ढीढ़ा दृढ़ का अपभ्रंश नहीं, दृढ़ ढींढ़ा का संस्कृतीभवन है और इसका मूल अर्थ मजवूत नहीं, बृहदाकार रहा है।
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टिप्पणीः सरिता शर्मा ने बताया कि पंजाबी में पेट के लिए ढिढ का ही प्रयोग होता है। जिन शब्दों को हम नितान्त स्थानीय मानकर उन्हें तुच्छ समझते हैे उनकी महिमा और व्याप्ति का हमें बोध नहीं होता।