Post – 2019-01-15

लायबिलिटी बनता समुदाय

मुस्लिम अतीतबद्धता के चार चरण प्रतीत होते हैं। पहला इस्लाम का जन्म काल जिसमें कुरान की इबारतें और मोहम्मद साहब का अपना आचरण नजीर बनता है; दूसरा खिलाफत का दौर; तीसरा मुस्लिम आक्रमणकारियों के दुर्दांत कारनामों का दौर और चौथा मुगलकालीन वैभव और जीवन शैली।

शिया मुसलमानों के लिए फिक्सेशन का एक बिंदु कर्बला भी है, परंतु उसे एक विषादपर्व के रूप में मनाया जाता, जिसके कारण सुन्नी शिया मुसलमानों को और शिया सुन्नी मुसलमानों को इस हद तक नफरत करते हैं कि दूसरे को, कादियानियों और अहमदियों की तरह मुसलमान मानने तक से इनकार कर दें, परंतु वर्तमान जीवन में प्रेरक बिंदु के रूप में इसका कोई महत्व नहीं है इसलिए हमने इसका अलग से उल्लेख नहीं किया।

अल्लामा इकबाल ने कहा था इस्लाम लोकातीत और कालातीत है, जिसका अर्थ है, न वह किसी स्थान से बंध कर रह सकता है, न समय के साथ बंध कर रह सकता है। देश काल निरपेक्ष व्यक्ति या समुदाय जहां भी रहे दूसरों के लिए समस्या बना रहता है। वह अपने भौतिक परिवेश से कटा और खयालों की दुनिया में बंद रहता है ( The idea of Islam is, so to speak, our eternal home or country wherein we live, move and have our being. इकबाल,124) उसके लिए कुछ भी प्राचीन नहीं है। आधुनिकता उसकी परिभाषा में एक भ्रम है।

इस तरह के व्यक्तियों के लिए लैंग ने जन्नत के परिंदे (बर्ड्स आफ पैराडाइज) का प्रयोग किया है। इनमें असाधारण कलात्मक प्रतिभा के लोग भी हो सकते हैं जिनकी मनोव्याधि को कई बार कलाकार की झक मान कर उनका आदर भी किया जाता है और कई बार प्रतिभाशाली युवक उसे कलाकार बनने की जरूरी शर्त मान कर सचेत रूप में अपनी आदत बना लेते है जब कि दूसरे मामलों में वे खासे दुनियादार होते हैं।

लैंग ने इनकी जिस विशेषता को रेखांकित किया है वह यह यह कि इनको समझाया नहीं जा सकता। दुनिया की नजर में जिसे लाभ-हानि समझा जाता है वह उनके लिए माने नहीं रखता। वह उनके रीयल सरोकारों में नहीं आता (To Islam matter is spirit realising itself in space and time. 9)। तर्क ही, नहीं जिंदगी की ठोकरों से भी ये न सीख पाते हैं, न सीख सकते हैं। इसलिए तर्कों और प्रमाणों से इन्हें किसी बात का कायल नहीं बनाया जा सकता। जैसा हमने व्यक्तियों के मामले में देखा, किन्हीं विशेषताओं ( क्योंकि वे इसे दोष मानते ही नहीं) का सामाजीकरण या समुदायीकरण हो सकता है और उस समाज या समुदाय का विचार और आचार अन्य मामलों में दूसरों जैसा होते हुए भी कुछ खास मामलों में ऐसा अभेद्य (इंपर्वियस) हो सकता है कि उस पर किसी तर्क, प्रमाण का कोई असर न हो। ऐसा उस दशा में अवश्य होगा जब उसके फिक्सेशन के साथ अपराध बोध जुड़ा हो, या वह उसके बचाव में कोई ऐसा तर्क न दे सके जो दूसरों के गले उतर सके । पहली स्थिति में वह किसी तरह की जिज्ञासा तक को हस्तक्षेप मान सकता और उग्र प्रतिक्रिया कर सकता है।

हमने मुस्लिम समुदाय के फिक्सेशन के जिन चार जिन चार चरणों का उल्लेख किया है उनमें पहला आस्था, विश्वास, सादगी और संयम से जुड़ा है। इस दृढ़ता पर उसे गर्व होता है और इस गर्व के अनुरूप ही वह ऐसे समस्त ज्ञान, विज्ञान और प्रमाण का निषेध करता या उल्टी व्याख्या करता है जो एक और अनन्य अल्लाह, फरिश्तों, इल्हाम, दोजख और जन्नत के अस्तित्व में या मुहम्मद साहब के चरित्र पर संदेह करता या तर्क-वितर्क करता है। ज्ञान विज्ञान से उसका विरोध इसी दायरे में है। इससे बाहर इनसे उसका कोई टकराव नहीं और सच कहें तो इस तरह की आस्था और विश्वास के शिकार महानतम वैज्ञानिक भी रहे हैं, जिनमें न्यूटन जैसी प्रतिभाएं भी आती हैं। भौतिकवादी विज्ञान से टकराने के बाद भी इस्लामी जगत ने कुछ प्रतिभाशाली वैज्ञानिक पैदा किए हैं, यद्यपि अनुपाततः कम, अतः इसे न ग्लानि का विषय बनाया जा सकता है न गर्व का, फिर भी फिक्सेशन किसी प्रकार का हो वह बौद्धिक विकलांगता पैदा करता है; सोचने का रास्ता ही रोक देता है, यह तो मानना ही होगा।

अब्बासी खलीफाओं के युग का दूसरा फिक्सेशन आधुनिक शिक्षा प्राप्त और आधुनिक सोच रखने वाले मुसलमानों के लिए ही है और इस दर्प से जुड़ा है कि हम से ही ज्ञान संपदा लेकर, यूरोप में नवजागरण पैदा हुआ और पश्चिमी सभ्यता के जनक हम हैं। जनक होने के धर्म के कारण हम उन्हें सिखा सकते हैं परंतु उनसे सीख नहीं सकते। सीखेंगे केवल इतना कि हम पिछड़कर भी तुम से आगे और तुमसे श्रेष्ठ है। पश्चिम ने अरबों की ज्ञान संपदा को उसी तरह अपना बना लिया जिस तरह अरबों ने यूनान, रोम, हिंदुस्तान की ज्ञान संपदा को अपना कर अपनी ऊंचाई हासिल की थी। यहां महत्व दाता का नहीं है, संग्रह करने वाले का है। धर्म युद्धों के आघात ने यूरोप में जिस तरह की खलबली पैदा की वही उसके नवजागरण का कारण बनी। ऐसा ही बोध एशिया में उत्पन्न होना चाहिए न कि अपने शून्य काल में लौटकर तस्कीन अनुभव करना और निरंतर दूसरों के जाल फंसकर आत्मविनाश करना।

इसलिए सबसे महत्वपूर्ण प्रेरक चरण यदा कदा शान बघारने के काम तो आता है परंतु आगे बढ़ने की ललक पैदा नहीं करता। इस पस्तहिम्मती के कारण कि हम पश्चिम का सामना नहीं कर सकते, क्षतिपूर्ति के रूप मे हमारे पास जो कुछ है उसी के साथ हम पश्चिम के समक्ष उपस्थित होकर उसकी बराबरी का दर्जा हासिल करना चाहते हैं या अतीत में लौट कर अपने को उससे अधिक महान मान लेते है । हिंदू अध्यात्मवादियों के पास भी ऐसा ही एक सांत्वना का बिंदु है कि हमारे पास अध्यात्म है और इसके बल पर गिरावट की ओर बढ़ रहे पश्चिम को हम ही संभाल सकते हैं। अतः नाम को भले हो, खिलाफत का चरण प्रेरणा का स्रोत नहीं है।

इसके ठीक विपरीत शौर्य के नाम पर बर्बरता को पालने और दिखाने की एक आंतरिक लालसा मुस्लिम समाज में दबे और खुले रूप में विस्तार पाती गई है। इसी के कारण मुस्लिम समुदाय जहां भी है अपने उपद्रवकारी
कारनामों के लिए जाना जाता है न कि किसी बौद्धिक या कलात्मक उत्कर्ष के लिए। उसको बर्बरता वाला पक्ष आच्छादित कर लेता है। इसी के कारण जिन भी देशों में मुस्लिम समुदाय है उनके शासकों की एक गंभीर चिंता मुस्लिम समुदाय को नियंत्रित करने की बनती जा रही है।

मुगलकालीन विरासत के रूप में सल्तनत तो हासिल नहीं की जा सकती, परंतु अपनी आर्थिक हैसियत के भीतर ऐयाशी और झूठी शान की प्रवृत्ति अवश्य बनी रही है। इन विविध कारणों से मुस्लिम समुदाय किसी भी देश में ऐसी कोई भूमिका नहीं निभा पा रहा है जिससे उसका छवि सुधर सके .या मानवता का कोई लाभ हो सके। इस बात को समझा जा सकता है, मुसलमानों को समझाया नहीं जा सकता।

Post – 2019-01-13

फिक्सेशन बनाम दूरदृष्टि

हम यहां फिक्सेशन का प्रयोग मनोरोग विज्ञानी के रूप में नहीं अपितु समाज विज्ञानी के रूप में कर रहे हैं । पिछड़ा हुआ समाज भीतर से उपेक्षित और बाहर से कुसमायोजित अनुभव करता है। इससे उसमें जो बेचैनी पैदा होती है उससे मुक्ति पाने के लिए वह अपने अतीत के किसी ऐसे चरण या चरणों की तलाश करता है जिसमें वह दूसरों से आगे था, या जब उसने कुछ ऐसे कारनामे किए थे जिनके कारण दूसरे उसका सम्मान करते या उससे डरते थे। सम्मान और डर में वह अंतर नहीं कर पाता। मानो दोनों का अर्थ एक ही होता हो। यदि उसका वर्तमान एक घाव है तो अतीत के ये चरण मरहम। वर्तमान के घाव में बदल जाने के कारण, हल्का से हल्का स्पर्श, वह एक बाल का ही क्यों न हो, उसमें तिलमिलाहट पैदा करता है। अतीत के उन चरणों में वापसी, वह काल्पनिक ही क्यों न हो, यदि सुकून देती है तो वापस लौटना उसे अपनी समस्त समस्याओं का समाधान प्रतीत होता है और वह आगे बढ़ने की जगह उन बिंदुओं से चिपका रहना चाहता है, वहीं पहुंचने का प्रयत्न करता है, उन्हीं कारनामों को दोहराते हुए उसी युग में पहुंचना चाहता है और जहां है वहां से आगे बढ़ने की जगह और भी पीछे लौटना चाहता है। हमने फिक्सेशन का जिस आशय में प्रयोग किया है वह यही है। मुस्लिम समाज को मैं इसी फिक्सेशन का शिकार मानता हूं।

आगे पढ़ता हुआ समाज पीछे मुड़कर देखना नहीं चाहता, क्योंकि उसके वर्तमान में, अतीत का निचोड़ घुला होता है। वह जहां पहुंच चुका है उसके सामने उसका अतीत तुच्छ लगता है। वह अपने पूर्वजों को नकारता नहीं, उनके युग में रखकर देखता और उसी के अनुरूप उनका सम्मान करता है और अपने युग को देखते हुए उन्होंने जो उपलब्धियां हासिल कीं उनके अनुरूप उनके सम्मुख नतशिर भी होता है, परंतु उस काल में लौटने की न तो सोचता है, न उसके प्रति आसक्ति पालता है। अतीत के प्रति आसक्ति फिक्सेशन है, जिसे हम इतिहासबद्धता कह सकते हैं और इससे मुक्ति की चिंता और भविष्य की दृष्टि का दूसरा नाम विजन है, जिसे दूरदृष्टि या क्रांतदर्शिता कह सकते हैं। मुस्लिम समाज ने दूरदृष्टि खो दी है। अतीत से आसक्त है, पिछड़ते जाने को गौरव की बात मानता है और आगे बढ़ने की जगह बिछड़ते रहने के लिए तैयार है, तो हम चाह कर भी, उसे, उसके इरादों से विमुख नहीं कर सकते। परंतु उसको अपना बनाने के प्रयास में उसके मनोबंधों का शिकार होने से अपने को बचा भी नहीं सकते। मंदिरवाद, तीर्थाटनवाद, दूर दृष्टि को नहीं दर्शाते, दूरदृष्टि की कमी को प्रमाणित करते हैं। क्या प्रतिस्पर्धा इसकी होनी है कि कौन किससे अधिक पिछड़ा है या कौन किससे आगे बढ़ा हुआ है। पहली प्रतिस्पर्धा में दोनों को अधोगति का सामना करना होगा दूसरा दोनों की मुक्ति का उपाय है।

Post – 2019-01-09

हम नहीं जानते हैं ऐ हमदम
तेरा कोई कसूर है कि नहीं।
पास इतना कि रगड़ होती है
फिर भी तू मुझसे दूर है कि नहीं।

Post – 2019-01-09

जितने खुदा बना के पूजते थे हम नदीम
उतनी जगह नहीं थी किसी आसमान में।
जिस दर से बढ़ रहे हैं आदमी पर आदमी
उतनी जगह नहीं है हमारे जहान में।

Post – 2019-01-08

बहुबंसे निर्बन्स

ऋग्वेद के जिस सूत्र का उल्लेख हम ऊपर कर आए हैं, उसका एक भोजपुरी संस्करण है – बहु बन्से निर्बन्स। इसका ज्वलंत उदाहरण है मुगल वंश जिसका कोई नामलेवा नहीं रह गया। मध्यकालीन भारत का सबसे चमकीला, रोबीला वंश, जिसे उस दुनिया की बादशाहत का गुमान था, उसका कोई नामलेवा नहीं!

सैकड़ों हजारों की संख्या में पुश्त-दर-पुश्त बसने वाले हरम। कितनी सन्तानें पैदा हुईं? उनका क्या हुआ? इसकी ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। लखनऊ के नवाब का वंशधर होने का दावा करने वाले हजारों में हैं। उनमें से कुछ कभी तांगा चलाया करते थे, आज भी कुछ करते होंगे। हो सकता है, वजीफे की रकम का धेला पाने के लिए सजते हुए रुपया खर्च करते थे, उन पर दया करते हुए इंदिरा जी ने राजाओं का प्रीवीपर्स बंद करते हुए उनका वजीफा भी बंद कर दिया हो। ऐसा ही हाल टीपू सुल्तान की बच्चों का जो, सुना, रिक्शा चलाया करते हैं। तंगहाली में ही सही, कोई तो होता इस दिल्ली शहर में, जो अपने को मुगल खानदान का उत्तराधिकारी घोषित करता!

जवाब मुश्किल नहीं है। 1857 के दमन में अंग्रेजों ने बर्बरता से मुगल खानदान का ही नहीं दिल्ली के मुसलमानों का भी सफाया करने का प्रयास किया था। वे जीवित रह ही नहीं सकते थे।

हमारे सामने जो प्रश्न है वह यह कि जब मुगल सल्तनत कायम थी, जब बादशाहों की कई तरह की औलादें हुआ करती थीं, जब उनकी कुछ ही बीवियों की संतानों को उनका जायज पुत्र माना जाता था और उनमें सत्ता का संघर्ष होता था, तब उन्हीं के हरम से, उन्हीं की एक रात की सुहागनों और असंख्य रखैलों से पैदा हुई संतानों की नियति क्या होती थी? इसे समझने में इतिहासकार हमारी मदद नहीं कर पाते।

दिल्ली के लोगों का एक मनोरंजन मुग़ल बादशाहों के अंत:पुर की कहानियों को सुनना और सुनाना था । सैकड़ों सुंदरियों से भरे हुए हरम पर बंदिशें जितनी ही लगाई जाएं, कुछ किस्से तो बाहर निकलेंगे ही। परंतु इन शगूफों में भी उन अभागों को शायद ही जगह मिलती हो, जो शाही औलाद होने के दावेदार तो थे, पर जिनकी हालत महल के नौकरों से भी बुरी थी। सवाल खानदानी इज्जत का था। भीतर का सच बाहर न जाने पाए, इसलिए उनको रहने के लिए किले के भीतर एक जेलनुमां घेरा बनाकर बंद कर दिया जाता था, भले उसे जेल न कहा जाता हो। उर्वरता में कोई किसी से कम न था। सूफीमिजाज बहादुर शाह जफर के 31 संतानें थी।

पूरा मुगल वंश लाल किले में ही रहता था। यह कुनबा नाजायज या जायज समझे जाने वालों का था, यह मुश्किल सवाल है, क्योंकि जायज माने वाले जाने वाले लड़कों में से एक बादशाह बनता था, जो दूसरे भाइयों को खत्म कर देता था। यदि जीवित रह भी गया तो अपनी जिंदगी जैसे भी गुजारे उसके वंश का वही हाल होना था जो उपेक्षित लड़कों का। विवाह भी आपस में ही करते रहे होंगे। इनको सलातीन के नाम से जाना जाता था। इनकी दशा क्या थी इसे एक इतिहासकार (विलियम डालरिंपल, दि लास्ट मुगल, 2008) के शब्दों में रखना चाहेंगे :
Life for the senior princes could be extremely comfortable and Zafar’s own children had a fair degree of freedom to live their own lives and follow their own interests and amusements, whether these lay in scholarly and artistic directions, or in hunting, pigeon flying and quail fighting. But the options open for junior salatin or Palace-born princes and princesses could be extremely limited. Besides the senior princes, there were over 2000 poor princes and princesses – and grandchildren, and great grandchildren and great great grandchildren of previous monarchs- most of whom lived a life of poverty in their own walled quarter of the palace, to the southwest of the area occupied by Zafar and his family. This was the darker side of the life of the Red Fort, and its greatest embarrassment; for this reason many of the salatin were never allowed out of the Gates of the Fort, least of all on so ostentatious an occasion as the very public festivities in Daryaganj. according to one British observer:
The salatin quarter consists of an immense high wall so that nothing can overlook it. Within this are numerous mat huts In which these wretched objects live. When the gates were opened there was a rush of miserable half naked, starved beings who surrounded us. Some men apparently nearly 80 years old were almost in a state of nature. (Major George gunningham, quoted in T.G.P. Sapir. The Mughal family and court in 19th century Delhi, journal of Indian history Volume 20, 1941 page 40.

मुगलों ने बादशाहत की, अपने को दुनिया का बादशाह समझते रहे। उनसे नसीहत लेकर अंग्रेज दुनिया के बादशाह बनने की चाह पाल बैठे और एक ऐसा साम्राज्य सचमुच स्थापित किया जिसमें सूरज कभी डूबता नहीं था, और जब डूबा तो भी इस तरह नहीं डूबा की ब्रिटेन कहीं दिखाई ही न दे। यह मुगल थे जो अपने विशाल हरमखानों की छाया में अपना ही सर्वनाश करते रहे और सल्तनत रहते हुए भी जब दूसरे अच्छी भली हालत में थे, वे अपने महल के नौकरों से भी दयनीय थे और कंगाली की दशा में पहुुंच गए थे और अंततः उनका कोई नाम लेवा तक न बचा। बादशाहों ने यतीम पैदा किए, अपनी संतानों को अपने ही भाइयों को, अपने ही कुनबे को, यातनाएं देते रहे। उनके एक हाथ में बादशाहत थी दूसरे हाथ में अपना ही सर्वनाश। 57 के दमन में यदि अंग्रेजों ने उनके पूरे वंश का सफाया कर दिया तो यह उनकी योजना नहीं थी, इसकी पूरी तैयारी मुगलों ने खुद कर रखी थी।

हमें इसका ध्यान नहीं आता यदि एक नई सुगबुगाहट की ओर ध्यान न जाता। यह है मुसलमानों में नितांत गरीबी की स्थिति में रहने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी। ईसाइयों में सुना अविश्वसनीय तरीके अपनाकर कुछ को नितांत विपन्नता में पहुंचाने का प्रयत्न किया जा रहा है। मुसलमानों और ईसाइयों में भी यह दावा कि वर्णव्यवस्था तो उनमें भी है इसलिए उनको भी संरक्षण दिया जाना चाहिए बहुत महत्वपूर्ण। सभी मतों के अपने आधारभूत सिद्धांत होते हैं। भारत में कोई ऐसा मत नहीं है जो वर्ण व्यवस्था का समर्थन करता हो, परंतु एक अर्थव्यवस्था है जिसका प्रवेश समाज व्यवस्था में हो गया है, और इसे केवल हिंदुओं का लक्षण माना जाता है, जिसके लिए सबसे अधिक गालियां ब्राह्मणों को दी जाती हैं और उन्हें दी भी जानी चाहिए, परंतु ब्राह्मणों ने ही इसके विरोध में विद्रोह भी किया है । जो भी हो केवल इस बुराई या लक्षण को हिंदुत्व से जोड़ा जाता है। यदि यह दोष मुसलमानों और ईसाइयों में भी है, तो ऐसे मुसलमानों और ईसाइयों को हिंदू मानना चाहिए, उन्हें हिंदू धर्म, रीतिनीति अपनानी चाहिए और उसके बाद आरक्षण का दावा भी करना चाहिए। इससे पहले नहीं। यह पद-व्याघात है।

ध्यान भले इस कारण आया हो, पर इसका दूसरा पक्ष है कि यह बताया जाता है हिंदू समाज की वर्ण व्यवस्था से प्रताड़ित व्यक्तियों ने इस्लाम या ईसाईयत स्वीकार किया, जब कि सच्चाई यह है कि हमारे पास इसको समझने का कोई भरोसे का जमीनी अध्ययन है ही नहीं, और हम खयालों को हकीकत में बदलने की आदत डाल चुके हैं। मजहब बदल भी जाए तो भी रोटी की समस्या मजहब की समस्या नहीं है । सभी लोग हिंदू धर्म अपना लें और उनकी प्रवृत्ति न बदले, पूरा देश हिंदुओं का देश हो जाए तो क्या समस्या का समाधान होगा।

गरीबी नई चीज नहीं है परंतु वह रफ्तार, जिससे विभिन्न धार्मिक समुदायों में सबसे गरीब तबके में आबादी का अधिक तेजी से विस्तार हुआ है, नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए ।

जो लोग अभागे, गरीब, और आत्मसम्मान के लिए अपनी धार्मिकता पर विश्वास करते हुए मुल्लों की पकड़ में आ जाते हैं जनसंख्या उनसे बढ़वाई जाती है, राजनीतिक लाभ इनको मिलता है। यह एक ऐसी त्रासदी है जिसका बोध सताए हुए लोगों में पैदा तक नहीं किया जा सकता।

Post – 2019-01-06

महालीला

संभव है यह मेरा भ्रम हो कि जिन दिनों दिल्ली दरबार के शायर भाषा को ऐसी बनाना चाहते थे जिसमें एक कहे तो दूसरा समझ जाय, उन्हीं दिनों ऐसे प्रयोग भी हो रहे थे कि या तो लिखने वाला अपने लिखे को स्वयं समझे या कोई समझ ही न सके, क्योंकि निश्चयात्मक ढंग से ऐसा दावा करने के लिए जैसे निर्णायक प्रमाण होने चाहिए वैसे मेरे पास नहीं हैं, यद्यपि पार्श्विक साक्ष्यों का अभाव भी नहीं है।

यह मात्र भाषा से जुड़ा प्रश्न नहीं है, मिजाज से जुड़ा प्रश्न है, इस भावना से जुड़ा प्रश्न है कि आप इस देश और समाज के साथ हैं, या इनसे अपने को ऊपर समझते हैं । आपकी भाषा देश के लोगों के लिए है, या नफीस महफिलों के लिए। विविध कारणों से दिल्ली के नाममात्र के बादशाह और लखनऊ के नवाब जितना मुसलमान रह सकते थे, उतना मुसलमान रहते हुए, जितना हिन्दुस्तानी बन सकते थे, उतना हिन्दुस्तानी बनने का प्रयत्न कर रहे थे। इसी का नतीजा था उस समय जब दिल्ली के बादशाह दूसरों की मर्जी से बनाए जाते थे, हिंदुओं ने भी 1857 बहादुरशाह जफर को बादशाह माना था। विदेशी मूल के मुसलमानों का धार्मिक अलगाव के होते हुए भी देश से जुड़ाव विदेशी शासकों के लिए खतरे की घंटी थी, इसलिए मुसलमानों को साथ लेने के लिए वे उनमें भी इस देश में बाहर से आए हुए विजेता का भाव उभारते हुए ‘पराजितों से ऊपर और अलग’ होने की चेतना को उभारने का प्रयत्न कर रहे थे।

इसी का सुदूर इतिहास में प्रक्षेपण करते हुए अंग्रेजी शासन के विरुद्ध अपने अधिकारों का क्रमिक विस्तार करने के लिए पूरे देश को एकजुट करने को तत्पर नेतृत्व को हिंदू और फिर हिंदुओं को आर्यों की संतान और आर्यों को स्वयं विदेशी आक्रान्ता और आदिम अवस्था से आगे न बढ़ पाए आटविक जनों को उनसे पहले से बसा, परंतु फिर भी बाहर से आया सिद्ध करने का महाजाल रचते हुए, इसका मूल निवासी निगरों या ठिगने कद के काले जनों को सिद्ध किया जाता रहा (जिनके लिए सुनीति बाबू ने नीग्रोवत (negrito) का प्रयोग किया था और प्रूफ की गलती से नीग्रोबटु हो गया था।) ये केवल अंडमान निकोबार में नाममात्र को बचे रह गए हैं। अंडमान निकोबार, कालापानी का दंड पाए हुए भारतीयों की आबादी के कारण, आज भले भारत का एक भाग है, पर भौगोलिक रूप में यह कभी भारत का हिस्सा रहा ही नहीं। अर्थात् भारत का आदिम निवासी वह है जो यहां है ही नहीं। यहां सदा आक्रमणकारियों का निवास और राज रहा है, इस तर्क से किसी को अंग्रेजी राज्य का विरोध करने का नैतिक अधिकार है ही नहीं।

इस तरह दो कुतर्कजालों को वे एक साथ साथ रचते रहे। इसमें विविध विशेषज्ञताओं के विद्वान और इनके कायल, अपना पाठ तैयार करने, और मंच पर उतरने वाले भारतीयों को हर तरह का संरक्षण, प्रोत्साहन और पहचान देते रहे, जिनमें से एक परदे का काम करता रहा और दूसरे को मंचित किया जाता रहा। परदे के पीछे के परदे एक दूसरे की काट करते थे, और जरूरत के अनुसार कभी-कभी उठा कर उपकथा को दिखा दिया जाता था। यह महालीला हमारी मनोरचना और राजनीतिक सक्रियता को नियंत्रित करती रही; आज भी करती है।

Post – 2019-01-03

भूला हुआ रास्ता

भारत के सामने, और सच कहे तो दक्षिण एशिया के सामने, आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह अपने समय में पहुँचना चाहता है या बीते हुए समय में कहीं न कहीं लौट कर, अपने आप से टकराता, टूटता-बिखरता रहना चाहता है। पश्चिमी देशों से तुलना करने पर लगता है कि उनका पिछड़ा से पिछड़ा देश इक्कीसवीं शताब्दी में जी रहा है, जब कि तीसरी दुनिया के देश उनकी अठारहवीं शताब्दी में भी नहीं पहुंचे हैं और उससे पीछे ले जाने वाली समस्यायें उनके सरोकार के केन्द्र में है।

कुछ भी अकारण नहीं होता। आज की दुनिया, जिसमें प्रचार हथियार से अधिक मारक क्षमता रखता है, बाजार का माल भी हमारी सोच को बदलने में शिक्षा संस्थाओं से अधिक कारगर भूमिका निभाता है, आपका कोई निर्णय केवल आपका निर्णय नहीं होता। हमारे मन में पलने वाले आग्रह और आवेग पूरी तरह हमारे नहीं हैं। उन्हें प्रेरित और उत्तेजित करने वाली ताक़तों के बारे में हम सतर्क तक नहीं रह पाते। चुनौतियाँ जितनी ही बड़ी हों, हमारी स्वतंत्रता को बाधित करने वाली शक्तियाँ जितनी ही प्रबल हों, उनके दबाव से बाहर निकलने का हमारा संकल्प उतना ही दृढ़ हो तो ही हम अपने लिए हितकर दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।

कालक्रम की दृष्टि से आगे या पीछे होना, हमेशा प्रगति या पिछड़ेपन का सूचक नहीं होता। अरब की विरासत पर गर्व करने वाला मुस्लिम जगत, अपने मध्यकाल से भी पीछे उस युग में जा चुका है, जिसे वह जाहिलिया कहा करता है, जिसमें फसाद होते रहते थे, पर हार या जीत नहीं होती थी। वह अपने भविष्य के रूप में उस चरण को देखता है जो इस्लाम का आरंभ है । हिंदू समाज पश्चिम की समकक्षता में आने की चुनौती का सामना करना चाहता है और मध्यकाल से बाहर निकलने का प्रयत्न तक नहीं करना चाहता।

हमें यह भ्रम है कि हम अग्रणी देशों द्वारा तैयार नए से नए माल का उपयोग और उपभोग करते हैं, जिनका वे करते हैं, इसलिए हम उनसे नाममात्र को ही पीछे हैं। जब कि यदि किसी भी युक्ति से ऐसे माल के उत्पादन का तरीका सीख कर स्वयं उसका उत्पादन करने तक इससे अपने को रोक रखते तो यह सचमुच उनसे स्पर्धा का सही तरीका होता।

हम इस पिछड़ेपन को पहल, मनोबल, अध्यवसाय, जिजीविषा, और जीवन मूल्यों के मानक पर रख कर देखना चाहते हैं न कि केवल उपभोक्तावादी विलासिता के स्तर की कसौटी पर। आज के भारत के भविष्य पर कब्ज़ा जमाने वाले पतनशील मुगलकालीन रास्ते पर चल रहे हैं। औरंगज़ेब के अवसान काल का चित्रण करते हुए इराली लिखते हैं :
Outwardly, the Mughal Empire still glittered mesmerizingly, but within the golden, jeweled Chrysalis, the flesh was rotting the spirit was dead. The land was desolate, the empire crumbling, it’s economy shattered, its government inefficient, and irredeemably corrupt,… its culture effete, its people broken and spiritless. only the Marathas displayed any vitality. But there was no future with the Marathas either. They could have seized the Imperial scepter: it was theirs to take. But they had no vision. India seemed to be a land where the future had died.
आज की अवस्था से साम्य इतना अधिक है कि एक दो अपवादों के साथ, जहां तहां से संज्ञा बदलने की जरूरत पड़ेगी।

मुगल काल का सब कुछ नकारात्मक नहीं था। शहरीकरण और मुद्रा का चलन बढ़ा था। राज्य विस्तार के साथ मुद्रा का मानकीकरण, माप तोल में सुधार से व्यापार को बढ़ावा मिला था। इससे किसानों को राहत नहीं मिली थी। परंतु इन सब के बावजूद भारत यूरोप से ही नहीं चीन जापान और प्राचीन रत से भी पीछे था। और इसका सबसे दारुण पक्ष नैतिक स्खलन थाः
Most shocking of all was the debasement of the character of man in Mughal India. From the highest amir, indeed from the emperor himself, down to the man in the street there was a near total absence of civic morality and personal integrity. “No one ever says a word to be relied upon,” writes Manucci . “ it is continuously requisite to think the worst and believe the contrary of what is said… They deceive both the acute and the careless.” … Adds Pelsaert, “Everything in the kingdom is uncertain: wealth, position, love, friendship, confidence, everything hangs on a thread.”
Hypocrisy and sycophancy where the characteristic traits of the Indian ruling class. ….The amir probably viewed sycophancy nearly as good manners, a formal courtesy, and had therefore no feelings of personal degradation in being a sycophant, especially as the practice was universal. But sycophancy was not just good manners. Lack of earnestness in speech – using words to dress up and disguise thoughts and feelings – rather than to reveal them led to lack of earnestness in thought and action, corrupted values and perverted both individual characters and social process.

मुगल मौज मस्ती और वैभव प्रदर्शन की पतनशील प्रवृत्ति स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले केवल अमीरों, राजाओं, नवाबों, जमींदारों, में संक्षेप में कहें तो गुलाम मानसिकता के लोगों में बनी हुई थी। कांग्रेस ने, विशेषत: गांधी के प्रवेश के बाद, सचेत या अचेत रूप में, मर्यादावादी हिंदू मूल्यों को अपना आदर्श बनाया था। यह था साध्य की पवित्रता के साथ, साधन या तरीके की पवित्रता का निर्वाह। नफीस विदेशी माल की जगह स्वदेशी का उत्पादन और उपभोग। यह एक किसान की स्वाभिमानी सोच है जो अपने रूखे सूखे उत्पाद की जगह बाजार से उम्दा किस्म के चावल आदि खरीदने को अपनी तौहीन समझता था। इसे राष्ट्रवादी सोच भी कह सकते हैं और चाहें तो प्राचीन भारतीय दृष्टि भी कह सकते हैं।

इसकी ओर, इस प्रसंग में, इराली ने ही ध्यान दिलाया है। उसने मध्यकाल की भारत की तुलना यूरोप के अंधकार युग से की है:
The jungle itself of course antedated the Mughals. It in fact antedated even the establishment of the first Muslim Empire in India at the end of the twelfth century for then the Dark Ages in India, which roughly coincided with a similar epoch in Europe, were already some 500 years old.

इससे बाहर निकलने की कोशिश अकबर ने अवश्य की थी, पर यह कोशिश उनके शासनकाल में विलंब से आया और उनके बाद ही समाप्त हो गया। अकबर का सच्चा उत्तराधिकारी दारा शिकोह था और ‘यदि’ के लिए इतिहास में जगह होती तो भारत का उससे बाद का इतिहास क्या होता, इसकी जुगाली की जा सकती थी। नहीं है, इसलिए जो सचमुच था और जिसे हमने मध्यकाल में खो दिया और जो पश्चिमी जगत में भी नहीं था, जिसे उसने भारतीय जीवनमूल्यों से परिचय के बाद आत्मसात करके अपना कायाकल्प किया, उसकी ओर ध्यान अवश्य दे सकते हैं।

उनकी आगे की टिप्पणी इस संदर्भ में रोचक हैः
The decline of India’s position relative to the rest of the civilized world, especially Europe is reflected in the contrasting perceptions of travelers in ancient and medieval India. Some 2000 years before Mughal times Megasthenes, the Greek envoy in the Mauryan Court, said of Indian character: “ truth and virtue they hold alike in esteem.” seven hundred years after Megasthenes, Fa Hsien, A Chinese Traveler add about the same thing to say of Indians as did Hsuan Tsang In the seventh century, who wrote: “ they do not practice deceit, and they keep their sworn obligations … they will not take anything wrongfully, and they yield more than fairness requires.

These are no doubt sweeping generalizations, expressions of sentiment rather than statement of fact – and this is equally true of the blanket condemnations of Mughal India by European travelers. Yet undeniably they contain substantial elements of truth.
Abraham Eraly, The Mughal Throne, 2004, pp. 517-21.

गांधी उन्हीं स्रोतों अपनी शक्ति ग्रहण करते थे जिन्हें मध्यकाल में ध्वस्त कर दिया गया। मध्यकालीन जीवन मूल्य मुग़लों की देन नहीं थे, मध्य एशियाई बर्बरता की देन थे, जिनमें हिंसा, छल, फरेब, विश्वासघात, रिश्वत, वादाखिलाफी, सब कुछ जायज था, क्योंकि सही और गलत का फैसला सफलता से तय होता था। दारा शिकोह को पराजित करने के लिए औरंगज़ेब द्वारा ईश्वर की और मुहम्मद की कसम खाते हुए, सहयोग के लिए मुराद को लिखा गया संधि पत्र और उसके बाद उसके साथ किया गया सलूक, इसका कुछ आभास दे सकता है। इसकी अंतिम पंक्तियाँ देना ही पर्याप्त होगा:
As soon as the idolater is routed out and the bramble of his tumult has been weeded out of the garden of the empire – in which work your help and comradeship is necessary – I shall without the least delay give you leave to this territory. As to the truth of this desire I take God and the prophet as witness.

अन्यथा कुछ मामलों में औरंगज़ेब गांधी जैसी सादगी का परिचय देता है।

इस्लाम से केवल सादगी और भाईचारा ग्रहण किया जा सकता है जो हिंदुओं के लिए भी उतना ही जरूरी है जितना मुसलमानों के लिए। प्राचीन भारत से जीवनमूल्य जो मुसलमानों के लिए भी उतना ही जरूरी है जितना हिंदुओं के लिए। इनका किसी धर्म से कोई संबंध नही। ईसाई होते हुए भी पश्चिम ने इसे अपनाया, हम अपने ही घर का रास्ता भूल गए। यह एशियाई जरूरत है।

सामुदायिक सौहार्द की तात्कालिक आवश्यकता है मुगलकालीन खुमार से मुक्ति। इसी में सामाजिक सौहार्द की संभावना भी छिपी है। अभी तक राजनीतिक दल अपने स्वार्थ साधन के लिए मुसलमानों की चापलूसी करते हुए उनकी सामाजिक विकृतियों का समर्थन करते हुए, प्रतिगामी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे रहे हैं और उसी के समानान्तर हिंदुओं में मध्यकालीनता को उत्तेजित किया जा रहा है। दोनों राष्ट्र के लिए अहितकर हैं।

Post – 2019-01-01

खयालों में समूचा आसमां है पर जमीं गायब

(यह लेख माला भारतीय मुसलमान पर है। इसके लिए मुस्लिम समाज की बात प्रायः आती है। इसका उद्देश्य उन तत्वों की पहचान करना है जिन्होंने एक समुदाय के रूप में मुस्लिम चेतना को प्रभावित किया है।)

हम सभी में बहुत सी बातें दूसरों से अलग होती हैं। इनसे हमारा व्यक्तित्व (indiduality) निर्धारित होता है। निजी विशेषताओं में प्रेरणा का हाथ होता है जिसके कारण हम अपने परिवार, पड़ोस या समाज के व्यक्तियों की अपेक्षा दूसरे देशों, कालों, या संस्कृतियों के कतिपय लोगों से अधिक निकटता अनुभव कर सकते हैं, जबकि हमारे बीच कुछ बातें ऐसी हो सकती हैं जो अपने परिवार,समुदाय, समाज या मजहबी लोगों से मेल खाती हों, और इस मामले में हम दूसरे परिवारों समुदायों या समाजों से हम अलग पड़ते हों।

ऐसा इसलिए होता है कि हम अपने संपर्क विस्तार के साथ इन विविध संस्थाओं का प्रभाव ग्रहण करते हैं। हमारा इतिहास यदि दूसरों के इतिहास से अलग है, तो हमारे प्रेरणा के स्रोत उन लोगों से मिलेंगे जो उसे अपना इतिहास मानते हैं। यह इतिहास भी अपने व्यापक रूप में विश्व इतिहास और संकुचित रूप में वंश परंपरा तक आ सकता है और हम सचेत हों या नहीं, परंतु हमारे ज्ञान के अनुरूप सभी स्तरों पर हमें बदलता है।

इतिहास से भी अधिक गहरा असर पुराणकथाओं और पौराणिक चरित्रों, यहां तक कि काल्पनिक चरित्रों का होता है। इतिहास वह नहीं है जो किसी समय का सच रहा है, अपितु वह है जिसे हम सही मानते हैं और इसलिए हमारे निजी और सामूहिक चरित्र के निर्माण में मिथकों की भूमिका अधिक प्रधान होती है।

समान इतिहास होते हुए भी धर्म और विश्वास के कारण हम अपने इतिहास को नकार देते हैं। सभी धर्मों के लोग अपने इतिहास में उसके प्रवर्तक से पहले के इतिहास को अपना इतिहास नहीं मानते, या उसमें रुचि नहीं रखते। उसकी जानकारी होती है तो उसकी व्याख्या भिन्न रूप में करते हैं।

इस तरह व्यक्तित्व, पारिवारिकता, कुलीनता ( कुल-परंपरा), जातीयता, और राष्ट्रीयता के अनेक समान लक्षणों वाले समावर्ती कुलक और संकुल बनते हैं। ये हमारे चित्त के आवर्त हैं।

इनका एक अन्य रूप दिक् से अर्थात् भौगोलिकता से निर्मित होता है। यह ग्राम, जनपद, अंचल, प्रदेश, देश, और महादेश के रूप में पहचाना जाता है, और इसके साथ भी गुणों दोषों को जोड़ लिया जाता है। यह विशिष्टों की पहचान पर निर्भर नहीं करता, समग्र के औसत पर निर्भर करता है ।

इन सभी आवर्तों और चक्रों में कुछ यांत्रिकता रहेगी इसे मानने के बावजूद, इनके महत्व को कम नहीं किया जा सकता। यह दोष सभी वैज्ञानिक वर्गीकरणों में होता है।

भारत से बाहर के देशों में आज भी भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के निवासी हिंदी हैं, उसके बाद या तो हिंदू हैं, या मुसलमान। मुसलमान हैं तो उनसे कुछ नियमों का कठोरता से पालन करने की मांग की जाती है।

यूरोपीय देशों के लिए यह सीमा और फैल जाती है। एशिया के निवासी जो पीछे रह गए हैं, एशियाई रूप में पहचाने जाते हैं, उसके बाद देश और धर्म भी आता है, अन्यथा कुछ देशों में भारतीयों को वीजा की छूट न होती और कुछ में हिंदुओं के लिए जो छूट है, उसे मुसलमानों के लिए अधिक कठोर न किया जाता।

यह हमारा सामाजिक यथार्थ है। जो इसे नहीं मानता, नहीं जानता, और सब कुछ एक जैसा, सभी भले, सभी बुरे, सभी ऐसे-वैसे के रूप में सोचता है वह अपने यथार्थ से कटा हुआ मनोरोगी है, भले यह मनोरोग सदाशयता के कारण हो। सच तो यह है कि अपने अतिरेकी रूप में सदाशयता और प्रेम अपने विरोधी दुर्गुणों से अधिक खतरनाक हो जाते हैं, और यह भी मनोव्याधि ही माने जाते हैं। जो इसे नहीं समझते, और सदायतावश बचकानी बातें करते हैं, उन्हें अपने डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए, कि ‘वयस्कता के बाद के बाद भी मेरा भावात्मक विकास क्यों नहीं हो रहा है?’

मुस्लिम समाज को शिक्षित, प्रेरित और नियंत्रित करने वाले चार तत्व रहे हैं-

पहला, उनकी किताब, जिसके सामने पड़ने पर दूसरे सारे ग्रंथ, ग्रंथागार, शिक्षा संस्थान, यहां तक की विज्ञान तक व्यर्थ हो जाता है।

दूसरा, धर्म गुरु या मुल्ला, जिसने किताब की व्याख्या करने का अधिकार अपने पास सुरक्षित रख रखा है और जिसके बल पर वह मध्यकालीन जहालत में बादशाहों तक को गुलाम बनाता आया है। वह अपना अधिकार छोड़ नहीं सकता। आधुनिक बनने के लिए, अपने दिमाग से काम लेने के लिए, उससे पंगा ले कर ही दूसरे मुसलमान उससे अपना दिमाग और अपनी समझ वापस पा सकते हैं। आदमी बनने के लिए सबसे पहले उन्हें अपनी गुलामी की बेड़ियों को पहचानना, उनको तोड़ना और अपनी आंतरिक स्वतंत्रता प्राप्त करनी होगी।

तीसरे, राजनीतिक नेता, जो उन्हें दहशत में रखते आए हैं और आज भी यही कर रहे हैं। भारत में अल्पसंख्यता के असंख्य रूप हैं, जिनकी अपनी समस्याएं हैं। वे अपनी समस्याओं के समाधान के लिए संघर्ष करते हैं, जब तक वे सुलझ नहीं जातीं, अपना असंतोष व्यक्त करते हैं। संघर्ष इसलिए करते हैं, क्योंकि वे देश में थे, इसे अपना मानते हैं, इससे भाग नहीं सकते, इसलिए यहीं रह कर अपने अधिकारों के लिए लड़ना होगा। दुर्गति में रहते हुए भी वे निरंतर दहशत और असुरक्षा में नहीं रहते। यह भावना केवल मुस्लिम नेतृत्व ने पैदा की है। उसने लड़ने की जगह भागकर जान बचाने का रास्ता चुना, जो भाग नहीं सकते थे उनको उनके रहम और करम पर छोड़ कर जिनसे वे असुरक्षित अनुभव करते थे। विभाजन इसी भगोड़ेपन की अभिव्यक्ति थी। नेतृत्व ऐसा मिला जिसने अपने घर में ही आग लगा दी, अलग घर बसाने के लिए। यह उसका रईस तबका नहीं था, वे अपनी जमीन जागीर छोड़कर भागने के लिए तैयार नहीं थे। यह धर्मांतरित कामकाजी मुसलमानों का तबका भी नहीं था जिनमें से अधिकांश को यह समझ भी नहीं थी कि राजनीति होती क्या है। यह मोहम्मद इकबाल के प्रभाव में आंदोलित शिक्षित मुस्लिम मध्य वर्ग था जिसने अपनी सही भूमिका का निर्वाह नहीं किया, लोगों को गुमराह किया, भाग खड़ा हुआ, पर दूसरों को उसी जले हुए घर में रहने के लिए मजबूर किया ।

चौथा है, इतिहास और जीवन शैली। इन्हीं के प्रभाव के कारण पूरे समुदाय का व्यवहार दूसरे समुदायों से अलग होता है। सामान्य जनों की जीवन शैली को उस समाज का भद्र वर्ग प्रभावित करता है (यत् यत् आचरति श्रेष्ठ: तत् एव इतरे जना:, स यत् प्रमाणं कुरुते लोक: तत् अनुवर्तते), जो स्वयं राजाओं की जीवन शैली से प्रभावित होता है। इस पर अंकुश केवल आर्थिक सीमाएं लगाती हैं। आकांक्षा में गरीब आदमी भी अपने बच्चे को राजा या राजकुमार बनाना चाहता है और अपने अतिथि को सोने की थाली में जेवना परोसना चाहता है। सूखी रोटी खिलाते समय भी 64 प्रकार के व्यंजनों की बात करता है।

इन विविध कारणों से हम जिस सामाजिक यथार्थ का सामना करते हैं उसे अपने शब्दों में न रखकर एक इतिहासकार के शब्दों में रखना चाहेंगे और उसी के माध्यम से आज की कुछ विडंबनाओं को भी सामने लाना चाहेंगे। परंतु पाठकों के धैर्य का ध्यान रखते हुए यहां हम उसका केवल एक अंश देंगे और एक अन्य पोस्ट में उसके दूसरे निष्कर्षों को प्रस्तुत करना चाहेंगे।
What the Mughals were, was what the rich and powerful everywhere in India aspired to be. In customs and manners, dress and cuisine, architecture and gardening, Language and literature, art and music and dance, the standards of excellence for a long time thereafter would be Mughlai….

What changed was lifestyle, not life, and that too only of a minuscule elite…There was no transmutation of civilization. Behind the Mughal facade, lay the immense body of Hindu culture ancient and torpid, but still breathing. The Hindu world did not change under Muslim influence, nor did the Muslim world change under Hindu influence, despite their 600-odd-year coexistence…

लेखक को यह भी बताना चाहिए था, कि मुस्लिम अभिजात वर्ग आज तक मुगल काल में जीवित रहा, मुग़लों के संपर्क में आने वाले दूसरे जन अकबर के उत्तरकालीन सर्वजन समावेशी मानसिकता से अभिभूत होने के कारण, चेतना के स्तर पर बहुत पहले से ही धर्मनिरपेक्ष थे, जिससे मुसलमानों को चिढ़ थी, जब कि वे अपनी धर्मनिरपेक्षता के बावजूद उन मुसलमानों से ब्राह्मणों की अपेक्षा अधिक निकटता अनुभव करते रहे क्योंकि अपने जातिभेद और अस्पृश्यता के कारण परंपरावादी हिंदू उन्हें परंपरावादी मुसलमानों से अधिक पिछड़ा प्रतीत होता था, जो एक सच्चाई भी है, और इससे हिंदुओं को और ब्राह्मणों को स्वयं भी शिक्षा लेनी चाहिए थी। मध्यकालीन ब्राह्मण दुनिया का सबसे पिछड़ा हुआ व्यक्ति है जो अपनी परंपरा से भी कटा हुआ है और अपने आप से भी। तीन कनौजिया 13 चूल्हा का मुहावरा मध्यकालीन भारत की उपज है।