Post – 2019-08-08

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी: #ज्योतिपर्व


पूरी भारतीय संस्कृति. इसका समस्त कर्मकांड, इसका ज्योतिर्विज्ञान, पल-मुहुर्त का विचार, मकर संक्रांति, होली, रामनवमी, दशहरा, दिवाली, गोवर्धन पूजा, नवान्न, समस्त साहित्य कृषि क्रांति से फूटा, जब कि कला-कौशल, चिकित्सा, पशुपालन में किसानी से बचने वाले फिर भी कृषि उत्पाद पाने के लिए अपनी सेवाएँ अर्पित करने वाले आहारसंग्रही और आखेटजीवी चरण से निकले लोगों की भूमिका थी।

हमें इनकी चर्चा में आगे बढ़ने से अपने को इसलिए रोकना पड़ता है कि एक तो हम द्विवेदी जी पर विचार कर रहे हैं न कि कृषिक्रांति पर। कृषि क्रांति का संदर्भ केवल इस कारण आया, कि हमारी समझ से, दीपावली का पर्व आरंभ में दरिद्रता के निवारण और समृद्धि के आगमन से संबंधित था और इसका आयोजन स्थाई निवास अपनाने के बाद आरंभ हुआ; दूसरे कृषि क्रांति के सभी आयामों को समझने की योग्यता मुझ में नहीं है।

फिर भी कुछ प्रतीकों को स्पष्ट करने का प्रलोभन होता है। कृषि क्रांति पश्चिम एशिया में नहीं भारत में संपन्न हुई थी, इसका दावा और प्रमाण प्रस्तुत करने का आग्रह मेरा रहा है। बाद ने प्रख्यात पुरातत्व विद् जैरिज ने लहुरादेवा के साक्ष्यों का अवलोकन करने के बाद घोषित किया था कि दुनिया का पहला किसान भारतीय था The first farmer was Indian. लहुरादेवा के साथ जुड़ा उत्तर पद ‘देवा’ अर्थात् ‘ देवास या देवों की बस्ती जहां ऋग्वेद और ब्राह्मणों में आए उन संकेतों की पुष्टि करता है कि कृषि का आरंभ जिन लोगों ने किया था वे अपने को देव कहते थे (अन्नं वै कृषिः एतत् वा अस्मिन् देवाः संस्करिष्यन्तः पुरस्तात् अन्नं अदधुः तथा एव अस्मिन् अयं एतत् संस्करिष्यन् पुररस्तात अन्नं दधाति- मा.श. 7.2.2 18; सर्वं एतत् अन्नं यती सर्वौषधं सर्वेण एव एनं एतत् अन्नेन प्रीणाति अथो सर्वेण एव एनं एतत् अन्नेन अभिषिञ्चति, 7.2.4.14) वहीं इसका पूर्व पद ‘ लहुरा’ इस बात की पुष्टि करता है कि यह छोटी बस्ती, इससे पहले बसी देवों की किसी पुरानी बस्ती से अलग होने वाले लोगों ने बसाई थी, जो कृषि की और भी दीर्घ प्राचीनता का द्योतक है।

प्राचीन भारत की उपलब्धियों की अवज्ञा औपनिवेशिक हितों से जुड़े हुए लोग लगातार करते रहे और किसी न किसी बहाने आज भी करते हैं, क्योंकि नई रोशनी में उनके जीवन भर का काम अंधकार में चला जाता है।

दूसरे लोग अध्ययनशीलता की कमी के कारण, या तो जानते ही नहीं कि प्राचीन धारणा में कोई परिवर्तन हुआ है, या आदतवश पुरानी कहानियों को दोहराते रहते हैं। कहानियाँ मैं इसलिए कह रहा हूं कि यह प्रस्ताव एक व्यक्ति (चाइल्ड ) की कल्पना की उपज है। पश्चिम एशिया के पौराणिक प्रमाण भी इसी बात की पुष्टि करते हैं की आनंद कानन या ईडन गार्डन पूरब में कहीं था और वहां से निकाले गए आदम मियां पश्चिम में पहुंचे थे।

यह निष्कासन उसी आदिम संघर्ष का परिणाम था जिसमें देवों को कृषि कर्म अपनाने के अपराध में असुरों द्वारा आरंभ में प्रताड़ित किया जा रहा था. और वे इधर उधर भाग कर अपनी जान बचाने का प्रयत्न कर रहे थे परंतु एक बार खेती के लाभ से परिचित होने के बाद वे किसी भी कीमत पर इसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे।

यदि कोई दूसरा विद्वान खेती के आविष्कार को भारत से जोड़कर नहीं देख रहा था, गरीबी और अंधकार के अमावस में समृद्धि और प्रकाश की इस उपासना के रूपक को नहीं समझ पा रहा था, तो द्विवेदी जी को इस बात के लिए दोष नहीं दिया जा सकता कि उनका ध्यान इस तथ्य की ओर क्यों नहीं गया।

ऋग्वेद में दसवें मंडल में पाँच ऋचाओं का एक पूरा सूक्त है जिस का विषय है अलक्ष्मीनाशनं, अर्थात् दरिद्रता का विनाश, जिस के कवि हैं शिरिम्बिष्ट भरद्वाज:
अरायि काणे विकटे गिरिं गच्छ सदान्वे ।
शिरिम्बिठस्य सत्वभिस्तेभिष्ट्वा चातयामसि ।। 10.155.1
चत्तो इतश्चत्तामुतः सर्वा भ्रूणानि आरुषी ।
अराय्यं ब्रह्मणस्पते तीक्ष्णशृङ्गोदृषन्निहि ।। 10.155.2
अदो यद् दारु प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम् ।
तदारभस्वदुर्हणो तेन गच्छ परस्तरम् ।। 10.155.3

मैं इस सूक्त की पहली और तीसरी ऋचा का भाव स्पष्ट करना चाहूंगा। पहली ऋचा में इस दरिद्रता की दानवी को कंगाल बनाने वाली (अरायी), कानी (काणे), विकराल (विकट) के रूप में चित्रित किया गया है। शिरिम्बिठ का अर्थ मोनियर विलियम्स ने बादल किया है, उसके सत्व अर्थात अनुकूल वर्षा से कवि दरिद्रता को कुचलने (चांतने) की बात करता है। ( चाँतना का प्रयोग भोजपुरी में आज भी चलता है । जिस नियम से तमिल में स्वामी> सामी>चामी हो जाता है, उसी के उल्टे नियम से चातना>सातना (सं. सातयति> हिं. सताना), जातना > हिं. जाँत और ज>य के तर्क से > यातना का विकास हुआ।)

तीसरी ऋचा में नदी में ऊपर से बह कर आने वाले और समुद्र पार पहुंचने वाले लट्ठे/ लट्ठों के अट्टाल पर चढ़ कर अपना देश छोड़कर सुदूर विदेश में जाने का आग्रह कर रहा है। इसके विस्तार में जाएं तो वैदिक कालीन लकड़ी के अंतरराष्ट्रीय व्यापार तंत्र को समझना होगा जिसकी अनुमति यहां नहीं है। परंतु यह कहने की छूट है कि हमारी समृद्धि का एक स्रोत लकड़ी का व्यापार था- जो जैसा कि लड़कमंडी, मंडी, काठगोदाम, काठमांडो से प्रकट है, आधुनिक काल तक जारी रहा है।

जिस कारण यह पंक्ति मुझे बहुत आकर्षित करती है वह यह है कि भोजपुरी क्षेत्र में दिवाली की आधी रात के बाद पुराने सूप काे हँसिए से पीटते हुए स्त्रियां घर के कोने कोने में इस्सर पइठें, दलिद्दर निकलें का रट लगाती गाँव के बाहर तक जाती हैं। पीटने से सूप की धज्जियाँ ताे पहले ही उड़ चुकी होती हैं। सूप को फेंक कर, हँसिये को लिए वापस आती हैं। उसे पिछवाड़े की देहरी में डाल देती थीं जो शुद्धि के बाद ही पुनः प्रयोग में आता था। मुझे ऋग्वेद की ऋचा और मेरे बचपन के अनुभवसत्य के बीच इतना सादृश्य दिखाई देता है कि मैं चकित रह जाता हूं।

ऋग्वेद में अंधकार के निवारण और प्रकाश के प्रवेश, प्रकाश की कामना, अंधकार से भय पर इतनी पंक्तियां मिलती हैं जिनका उल्लेख करना उचित नहीं होगा परंतु यह सभी उषा या सूर्य के उदय रात के अंध कार को आग के सहारे के मिटाने से ही संबंधित हैं कहीं भी दिया जलाने का संकेत नहीं मिलता। हडप्पा के अवशेषों में भी कुल्हड़ों के टुकड़ों के अंबार तो पाए गए हैं परंतु दीयों के टुकड़ों के विषय में हमें कोई जानकारी नहीं है, इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि प्रकाश वर्ष के रूप में इसे कैसे बनाया जाता रहा होगा।

परंतु ज्योति का संबंध कृषिकर्म से है इसके संकेत मिलते हैं। मनु जो कृषि क्रांति के प्रतीक पुरुष हैं उनके द्वारा मनुष्यों में ज्योति का प्रसार करने के लिए आग की प्रतिष्ठा का उल्लेख मिलता है – नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते । 1.36.18

ज्योति का एक अनिवार्य संबंध कृषि उत्पादन जनित समृद्धि से है इसकी पुष्टि अन्यत्र भी होती है – यवं वृकेण अश्विना वपन्तेषं दुहन्ता मनुषाय दस्रा । अभि दस्युं बकुरेणा धमन्तोरु ज्योतिश्चक्रथुरार्याय ।। 1.117.21
यो वर्धन ओषधीनां यो अपां यो विश्वस्य जगतो देव ईशे । स त्रिधातु शरणं शर्म यंसत्त्रिवर्तु ज्योतिः स्वभिष्ट्यस्मे ।। 7.101.2

द्विवेदी जी का ध्यान इस ओर नहीं जा सकता था। बाधाएं कई तरह की थीं। मान्यताओं की, ऋग्वेद से उनके स्वल्प परिचय की, और साधनों की। यदि मैं कंप्यूटर पर काम न कर रहा होता, चुटकी बजाते जरूरी सूचना केवल ऋग्वेद से ही नहीं दूसरी वैदिक कृतियों से भी जुटाने की सुविधा न होती तो मैं भी इन प्रसंगों को लक्ष्य न कर सका होता।

एक और सच है जिसकी और हमें ध्यान अवश्य देना चाहिए। द्विवेदी जी का समग्र लेखन विद्वान के रूप में उनके परिपक्व हो जाने के बाद का नहीं है। आरंभ से ही उन्हें अपने आर्थिक अभावों की पूर्ति के लिए पत्रों पत्रिकाओं में है यथा आवश्यकता लेख लिखने पड़ते थे। अपने समय को देखते हुए यह बहुत महत्वपूर्ण लेख है। द्विवेदी जी किसी विषय को अपने कल्पना विलास के लिए प्रयोग में लाते हैं, और भारतीय संस्कृति से जुड़े गंभीर प्रश्नों की ओर मुड़ जाते हैं। जैसे ज्योति पर्व वाले अपने लेख में वह लक्ष्मी को देवी मानने के विवेचन में बहुदेववाद की समस्या की ओर बढ़ जाते हैं और सप्रमाण सिद्ध करते हैं कि “वेदों में पाया जाने वाला बहुदेववाद, बहुदेववाद है ही नहीं। और अपने साक्ष्य में मैक्स मूलर का भी प्रयोग कर लेते हैं। वह शोध निबंध नहीं लिखते हैं, ललित निबंध लिखते हैं और अपने समय को देखते हुए अपनी सीमाओं में बहुत आगे हैं और उस समय तक उनसे आगे कोई दूसरा नहीं था। इस दृष्टि से वासुदेव शरण अग्रवाल भी नहीं।

Post – 2019-08-07

अनंततः
(जब तक न होश आए यही सिलसिला चले)
संपाद्य


द्यूत क्रीड़ा की तरह ही दीपावली का इतिहास बताते हुए वह मार्कंडेय पुराण से आरंभ करते हैं ( आलोक पर्व की ज्योतिर्मयी देवी)। इस पर उनके दो निबंध और है ( अंधकार से जूझना और दीपावली: सामाजिक मंगलेच्छा का प्रतिमा पर्व)। इनमें एक प्रतीति सी दिखाई देती है ज्योति के प्रति भारतीय परंपरा में बहुत पहले से आकर्षण बना रहा है, और इस प्रसंग में लोकप्रिय तमसो मां ज्योतिर्गमय को भी बृहदारण्यक उपनिषद का उल्लेख किए बिना याद करते हैं परंतु इससे पीछे के इतिहास के विषय में उनको कोई जानकारी है इसका पता नहीं चलता ।

यह पर्व बहुत पुराना है, यह द्विवेदी जी को भी पता था। इसका रूप बदलता रहा है। आरंभ प्राचीन अवस्था में हुआ जब मनुष्य दिया बनाना तक नहीं जानता था। कृषिकर्म के आरंभ के साथ मनुष्य ने आहार-संग्रह युगीन दरिद्रता पर रोगों को और व्याधियों पर विजय प्राप्त की। इस सफलता को कई तरह से दोहराया और मनाया जाता रहा। भारत में खेती धान से आरंभ हुई इसलिए यह पर्व बरसाती फसल के तैयार होने के बाद आयोजित किया किया जाता था।

खेती का आरंभ होने से पहले जिन घासों के दाने को खाया जाता था उनके लिए औषधि शब्द का प्रयोग होता था- ओषधि अर्थात् शक्ति प्रदान करने वाली घासें – इसकी मोटी परिभाषा है कि जो वनस्पतियां फल पक
जाने के बाद सूख जाती हैं, वे औषधि हैं – ओषधयः फलपक्वान्ता ।

इनको तथा आहार के उपयोग में आने वाली बदरियों, कंदों, फलों को एक निश्चित विकास से पहले नोचने-खसोटने को वर्जित माना जाता था। यदि कोई व्यक्ति किसी भी कारण से इस मर्यादा का उल्लंघन करे तो उसे जान से भी हाथ धोना पड़ सकता था। इस सामाजिक प्रतिबंध को वरुण देवता ( वारण या वर्जना के देवता) के रूप में कल्पित किया गया।

इसलिए जिन औषधियों या घासों के दानों को मनुष्य अपने उपयोग में लाता था उन्हें वरुण प्रघास कहा जाता था। वरुण प्रघास का अर्थ है व्रीहि और यव। इसमें यव तो तब जुड़ा जब खेती करने वाले नए कछारों की ओर बढ़ते हुए सरस्वती आपया और दृषद्वती के कछार में पहुंचे जहां की समस्या यह थी कि यहां वर्षा के औसत की कमी के कारण जाड़े की फसल उगाना ही संभव था।

यह एक अलग प्रसंग है। इसके विस्तार में जाना उचित न होगा। परंतु वे सभी ग्रंथ जिनका हमें अपने अतीत को समझने के लिए सहारा लेना पड़ता है कुरुक्षेत्र में पहुंचने के बाद, अधिकांश तो बहुत बाद में रचे गए इसलिए प्रस्तुति में घालमेल हो गया। पहला युग्म था, व्रीहिश्यामकौ जिसे बदल कर व्रीहियवौ बना दिया गया।

इस आर्थिक रूपांतरण को कई रूपों में प्रस्तुत किया गया है और इसके कुछ रूप सांस्कृतिक प्रतीक बन गए जिनमें वारुणी मर्यादाओं का निर्वाह मेरे बचपन तक चलता रहा, आज भी गांव में इसका निर्वाह किया जाता है या नहीं, मैं नहीं जानता। दीपावली के दिए से भी अधिक का महत्वपूर्ण था दिवाली का भोजन। इसका अनिवार्य अंग था, जिमीकंद, जिसे पूर्वांचल में ओल कहते हैं। यहां में कल्पना से काम लेना चाहता हूं – कंदों में यही कंद क्यों? क्योंकि इसके लिए कई साल तक प्रतीक्षा करनी होती थी ।

यदि खेती का आरंभ उस समुदाय ने किया जो अपने को देव कहता था, तो उसके देवता इन्द्र ही हो सकते थे। परंतु थे क्या? आरंभिक खेती कछारों तक सीमित थी। उसकी वृष्टि पर निर्भरता कम थी। यह नया देवता उसके बाद पैदा हुआ जब किसानों ने कछार की भूमि से आगे की जमीन को खेती के काम में लाना जरूरी समझा।

परंतु जमीन को खाली करने के लिए झाड़ झंखाड़ को जलाने के लिए आग का सहारा लेने की जरूरत पड़ी। यहां एक नया देवता पैदा हुआ, विष्णु। अग्नि का वह रूप जो भले एक स्फुलिंग से पैदा हुआ हो, एक बार इस ने अपना विराट रूप धारण किया और अपने डग भरने शुरू किए तो आज के वैज्ञानिक युग में भी इसे नियंत्रित कर पाना असंभव नहीं तो भी दुष्कर तो होता ही है। इसी से जुड़ा है विष्णु का अवतार, उत्पादन अर्थात् यज्ञ से और आग से विष्णु का संबंध:
वामनो ह विष्णुः आस।
अग्निर्वै विष्णुः।
यज्ञो वै विष्णुः ।
उसी कथा में एक रोचक घटना का उल्लेख है कि अचानक विष्णु गायब हो गया। एक दूसरे से लोग पूछने लगे, विष्णु का क्या हुआ? कहां गया? फिर पता चला कि वह औषधियों की जड़ों में छिप गया है, और उसके बाद उन्होंने जमीन को खोदकर उसे प्राप्त किया ।

और लीजिए जब वही विस्तृत भू-भाग जल संकट से जूझने लगा तो एक नए देवता का अवतार हुआ। यह था इंद्र। इसके बाद पहले का देवता विष्णु उपेंद्र बन गया। परंतु यह नौबत कुरुक्षेत्र में आने के बाद सामने आई।
अब हम देव शास्त्र के विकास में तीन चरणों को लक्ष्य कर सकते हैं- 1. वर्जना का देवता, जो आज भी, गन्ने, टिकोरे, मटर आदि के मामले में लागू है, इसलिए वरुण देवता गौण हो गए, दृश्यपट से आज तक ओझल नहीं हुए हमारी वर्जनाए आज तक काम करती हैं और हैं इतनी प्रबल हैं कि उनके लिए प्राण दिया और प्राण लिया जा सकता है, इनके वरण में कालक्रम से अंतर आता रहा है, जिस के विस्तार में नहीं जाना चाहेंगे।

विष्णु जंगलों की सफाई के चरण का सबसे प्रधान देवता है, जो इन रखें प्राधान्य के साथ, वर्षा जल पर कृषि निर्भरता के साथ, गौण होकर उपेंद्र बनता है, परंतु इंद्र की भूमिका वाणिज्य व्यवसाय को बचाने की तरफ मुड़ जाती है, तो वह राम के रूप में अवतरित होता है। वैदिक इंद्र की सभी भूमिकाएं, उनके सभी संघर्ष, स्थानांतरित होकर राम पर आरोपित हो जाते हैं।

सीता जो ऋग्वेद में भी कृषि की देवी या हलाई ( जोतने से बनी लकीर) के रूप में दिखाई गई हैं, जो खेती के स्वामी इंद्र – इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु के द्वारा ग्रहण की जाती है। बाद में जब इंद्र का स्थान राम ले लेते हैं, उन्हें पुराने विष्णु का अवतार मान लिया जाता है, तो सीता या हराई, राम की पत्नी बन जाती है। राम का अर्थ है किसान, और इसी रूपक के इर्द-गिर्द 360 रानियों या चांद्रवर्ष के दिनों, तीन पटरानियों वर्ष के तीन मौसमों के स्वामी दशरथ, और कुशलता की देवी कौशल्या के पुत्र बनते हैं राम। मैं पुनः इसके विस्तार में नहीं जाऊंगा, इसके कई पहलू हैं।

इतना ही कहना पर्याप्त है कि इंद्र के विषय में जो रूप कथाएं गढ़ी गई थी उनका इंद्र के व्यावसायिक जगत से संबंध के बाद, किसी के एक नए अवतार राम आरोपण हो जाता है। (जारी)

Post – 2019-08-06

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
मैने चाहा था कि ऐसा हो पर ऐसा न हुआ

कुछ बातें सूत्र रूप में रखते हुए आज इस शृंखला की समाप्ति का इरादा था, अब कल भी झेलने को तैयार रहेे:


1. द्विवेदी जी के शिष्यों में लगभग सभी वाग्विलासी थे। किसी में किसी गंभीर क्षेत्र में उसी निष्ठा से काम करने का धैर्य नहीं था। किसी ने उन क्षेत्रों में आगे कोई काम नहीं किया। कोई भी चीज पढ़ने से नहीं समझ में आती है। सही समझ काम करने से आती है। न तो कोसंबी के कार्यक्षेत्र में सक्रिय रुचि लेकर किसी मार्क्सवादी इतिहासकार ने काम किया, न द्विवेदी जी के कार्य क्षेत्र में उनके किसी शिष्य ने काम किया। जिस तरह मार्क्सवादी इतिहासकार स्रोत सामग्री से अनभिज्ञता के कारण कोसंबी को समझने की योग्यता नही रखते थे, इसलिए उनका मुग्ध भाव से कीर्तन करते रहे, उसी तरह द्विवेदी जी के शिष्य उन्हें समझने की योग्यता न रखने के कारण उनका कीर्तन करते रहे – एकोदेवः महादेवः नान्यः तत्समं भवेत् ।

2. बिना समझे किसी की प्रशंसा करना स्वयं उसके लिए सुखद अनुभव नहीं है – असझवार सराहिबो, समझवार को मौन।
इससे व्यक्ति की महिमा नहीं बढ़ती, उसे समझने की रास्ते में बाधा पड़ती है। पढ़ने वाले आग्रहमुक्त भाव से उसका अवगाहन नहीं कर पाते; उसकी रचना या अनुसंधान के अछूते पहलुओं की ओर ध्यान नहीं दे पाते।
सही दाद के अभाव में वह व्यक्ति प्रशंसा के बीच भी उपेक्षित अनुभव करता है। उसे अपनी तारीफ सुनने की इतनी जरूरत नहीं होती जितनी अपनी कमियों को समझने की।
उन्होंने द्विवेदी जी को भी क्षति पहुँचाई, हिंदी आलोचना को भी विषाक्त किया और हिंदी की सृजनशीलता को भी कुंठित किया। जो अपना काम न कर सके वह उसका उद्धार कैसे कर सकता है जो अपने काम के बल पर ही जाना जाता है।
द्विवेदी जी अंडा नहीं थे कि उनको सभी ठोकरों और प्रहारों से बचा कर रखा जाए :
खुरुचि खरोंचि के घटावै कोई कितना भी
बाकी के बचे में शिष्य सकल समाइहैं।
जगह बची है ढेर सारी घुसो दायें बायें
पलड़ा झुका कि उठा पारखी बताइहैं।

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1. कबीर की तरह द्विवेदी जी भी मुझे एक संधिभूमि पर दिखाई देते हैं। उन तक हिंदी, हिंदी प्रेमियों और हिदी सेवको की भाषा थी। उसके बाद यह हिंदी-सेवियों की भाषा हो गई। सामाजिक और साहित्यिक भाषा नहीं रह गई, राष्ट्रभाषा और राजकाज की भाषा हो गई और इस चेतना के कारण हिंदी भाषियों में अपने ही देश के उन लोगों की भाषा की अवज्ञा आरंभ हुई जिन्होंने हिंदी को पूरे देश के लिए व्यावहारिक भाषा मान कर इसकी वकालत की थी। हम इसके परिणामों से परिचित हैं इसलिए इस पर समय व्यर्थ न करेंगे।

2. हावी होने की इस प्रवृत्ति से पैदा हुई वह जमात जिसके हाथ में कुदाली नहीं थी, टोकरी थी। यह पैदा करना नहीं जानती थी, परिश्रम करने से बचती थी, टोकरी में भरने को आतुर थी। मार्क्सवाद के नाम पर हो, प्रयोगवाद, नई कविता या दूसरे कई नामों से हो, पारस्परिक विरोधों के बावजूद, ये सभी मूलोच्छिन्न, पश्चिमाभिमुख थे और इन सभी में अपने अतीत के प्रति विरोध या अवज्ञा का भाव था, इसलिए सबका अपने अतीत का ज्ञान सतही था, सभी पश्चिम के वर्तमान को अपना भविष्य बनाना चाहते थे। कलावादी भी और साम्यवादी भी जब कि पश्चिम उनका इस्तेमाल करना चाहता था, इसलिए दोनों ओर से पूरा एकात्म्य था।
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1. द्विवेदी जी के सही मूल्यांकन के लिए उनकी सीमाओं को जानना जरूरी है। द्विवेदी जी साहित्याचार्य नहीं थे, ज्योतिषाचार्य थे। उसके लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान होना जरूरी था, संस्कृत वांग्मय का नहीं। 23 वर्ष की आयु में वह हिंदी के शिक्षक हो कर विश्व भारती चले गए थे। वहां उन्हें हिंदी भाषा सिखानी थी, जिसके लिए व्याकरण और हिंदी के प्रचलित प्रयोगों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत थी, साहित्य पर ध्यान देने की जरूरत इसके साथ पैदा हुई, और उन्होंने आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक के साहित्य के ही अवगाहन का ही प्रयत्न नहीं किया, पृथ्वीराज रासो से भी पीछे नाथों और सिद्धों की ओर लौटते हुए अपभ्रंश भाषा तक पहुंचे और इससे ही हिंदी की उत्पत्ति की कल्पना की।

2. मैं द्विवेदी जी से दूर रहकर भी उन्हें उनके शिष्यों से अधिक इसलिए समझ सकता हूं कि मुझे भी बिना किसी अनुकूल परिवेश के अपना रास्ता खुद बनाना पड़ा और गलतियों के बीच से सही समझ विकसित करनी पड़ी। उनसे विश्व भारती में कई तरह की अपेक्षाएं थीं। रवींद्र उनको ज्योतिषाचार्य के रूप में महत्व नहीं देते थे, संस्कृतज्ञ हिंदी विद्वान के रूप में उनको जानते थे। उनकी अपेक्षाओं को भाँपते हुए द्विवेदी जी ने संस्कृत साहित्य का भी बड़े मनोयोग से अध्ययन किया और उसकी दुर्लभ सामग्री का ऐसा संकलन और उपयोग किया जो इससे पहले किसी से संभव न हुआ था।

3. पूजा करने वालों को अपने आराध्य की अनंत शक्ति में इतना विश्वास होता है कि वे समझते हैं वह जिन चीजों का नाम लेता है उनका पारंगत अवश्य होगा । मनुष्य की सीमाओं को जानने वाले, ऐसे व्यक्ति का सम्मान करते हुए भी, यह समझने का प्रयत्न करते हैं वह अपने दबाव और सीमाओं के बीच क्या कर सकता था, और कहां से आगे बढ़ने पर, अन्यथा ईमानदार होने के बावजूद किन परिस्थितियों में, कितने गलत दावे करने पड़ सकते थे। भक्तों के लिए यह अकल्पनीय है, तत्वदर्शियों के लिए ये विचलनें प्राकृत नियम का अंग हैं, इसलिए सही दिशा में बढ़ने का उसका प्रयत्न ऐसी विचलनों से अधिक महत्वपूर्ण है।

3. इन तमाम व्यस्तताओं के बीच द्विवेदी जी को वैदिक साहित्य के लिए समय नहीं मिला था। यहां तक उपनिषद काल को समझने के लिए भी वह यथेष्ट समय नहीं निकाल पाए थे। इसके बाद भी उन्हें संस्कृतज्ञ मानकर रवींद्र जब वेद के मार्मिक अंशों का चयन करने का उत्तरदायित्व सौंप देते थे तो वह यह स्वीकार नहीं कर सकते थे कि उन्हें ऋग्वेद का ज्ञान नहीं है, प्रयत्न करके अपने संस्कृत ज्ञान के बल पर अपना चयन और व्याख्या दोनों उनके सम्मुख प्रस्तुत करते थे, और द्विवेदी जी के अनुसार ही गुरुदेव उनका जितना स्वच्छ चयन और अनुवाद करते थे उस पर द्विवेदी जी स्वयं मुग्ध हो जाते थे।

रवींद्र को दो संस्कृतज्ञों का सानिध्य प्राप्त था। संभव है, यही काम वह क्षितिमोहन सेन को भी सौंपते रहे हों, और उनका चयन और अनुवाद दोनों के समन्वय का परिणाम होता रहा हो। द्विवेदी जी के नम्र निवेदन को इस बात का प्रमाण नहीं बनाया जा सकता, कि उन्हें वैदिक साहित्य का ज्ञान नहीं था।

4. मैं इस नतीजे पर इसलिए पहुँचा कि उनके निबंधों में प्राचीन इतिहास का जो उल्लेख आता है वह अपने प्राचीनतम रूप में महाभारत से कुछ आगे पीछे ही आरंभ होता है, उससे पीछे नहीं पहुंच पाता। उदाहरण के लिए ग्रंथावली के नवें खंड में द्यूतक्रीडा पर एक निबंध है. भारत में द्यूतक्रीड़ा। आरंभ होता है मृच्छकटिक में जुए के विषय में मिलने वाली जानकारियों के साथ। पीछे के इतिहास का पता नहीं चलता। इस बात का उल्लेख तक नहीं कि ऋग्वेद में जुए की भर्त्सना में एक पूरा सूक्त (अक्ष-कितव निन्दा,ऋ. 10.34) है, और ऋग्वेद की सूचनाओं के अनुसार आरंभ में यह बुराई बुराई नहीं थी। प्रतिस्पर्धा का रूप थी जिससे नई चुनौतियों का सामना करने की प्रेरणा मिलती है।

इसकी पुरानी झलक शतपथ 3.6.2 में कद्रू और स्पर्णी की प्रतिस्पर्धा में मिलती है। इसके विस्तार में हम नहीं जाएंगे परंतु यह याद दिलाना जरूरी है कि विचारों की इस स्पर्धा ने शास्त्रार्थ में पराजित होने वाले को विजेता की शर्तों को मानने की बाध्यता उत्पन्न हुई और यह परंपरा बहुत बाद तक शास्त्रार्थ में जीवित रही जिसके कारण विचारों में परिवर्तन के लिए भारत मैं कभी हिंसा या बल प्रयोग की जरूरत नहीं समझी गई।

वैदिक सभ्यता के उस खास चरण पर जिसका भौतिक पक्ष हमें हडप्पा सभ्यता के पुरावशेषों में मिलता है, इसने जल्द से जल्द धनी बनने की आकांक्षा में चालाकी और फरेब वाले उस जुए का रूप ले लिया जिसका विवरण मृच्छकटिक में मिलता है जहां से वह आरंभ करते हैं।

हमारे लिए जो महत्वपूर्ण है वह यह कि द्विवेदी जी की सहायता के बिना में बाद के विकास को समझ ही नहीं सकता था।

Post – 2019-08-04

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
कवि या विद्वान

द्विवेदी जी का मन, उनके अनुसार जितना शोधकार्य में लगता था, उतना सर्जना में नहीं। यह विश्वभारती का प्रभाव था। उनकी प्रकृति सर्जक की थी। उनकी आरंभिक रचनाओं में वैसा ही निरालापन, वैसा ही उल्लास है जैसा बाद की रचनाओं में – ऐसा, जैसा, नहीं किसी ने लिक्खा, उनके बाद, न पहले। नागार्जुन कुछ करीब अवश्य पहुँचते हैं, परंतु वह वैविध्य कहाँ है। ग्रंथावली के 11वें खंड में संकलित आरंभ की कुछ कविताओं के अंश:
1….सारी उमर लेखक ने की ज्योतिष की पढ़ाई,
पर बंबई वाले ने फतह कर ली लड़ाई।
शुभलाभ, मेष-वृष-मिथुन-फल सबका हाँकता
साहित्य का सेवक मगर है धूल फाँकता।।…
****
2
यदि मैं होता रसिक बिहारी कवि के युग में.
ललित कलित अलिपुंज रहे जब
मिलित मालती कुंज रहे जब
यमुना पुलिन सुवासित होता था वसंत के संग में…
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3
नंद के दुलारे चकचके से थके से खरे मानो कोऊ रेडियो विलोक्यो गाँव वारो है।
काजर की पूतरी कबूतर सी आँखिन सों मुल्हकि मुल्हकि ताको रंग कौं बघारो है।
छूटि गई मुरली लकुट कहूँ छूटि गई पीत पर तनु पै गुलाल लाल धारो है।
डूबिगो गचाक सौं मजाक के मजाक में यथा समुद्र मध्य कोऊ पोत मोह वारो है।।

उनके शोध कार्यों में कमी निकाली जा सकती है। यह कमी उनकी निजी नहीं है। हमारे इतिहास और भाषा विमर्श पर उन्होंने कब्जा कर लिया जो हमें अनंत काल तक अपने कब्जे में रखना चाहते थे, इसके लिए हमें ही नहीं अपने बच्चों को भी उल्टा पाठ पढ़ाते रहे। उनके कुछ पायकों ने विनय के सम्मोहन से विश्व भारती को भी कब्जे में ले लिया था। विंटरनित्ज ने तो भारतीय साहित्य का इतिहास ही गुरूदेव को समर्पित किया था। ब्यौरों में मामूली असहमति के बाद भी सभी की मान्यताएँ एक ही थीं। इसके कारण द्विवेदी जी ही नहीं, दुनिया के सभी विद्वानों के भारत विषयक शोध कार्य व्यर्थ हो गए। इनकी बुनियाद ही गलत हो गई, आधारशिला अपनी जगह से हटाई ही नहीं गई, बल्कि दिशा भी उलट दी गई।

उजड्डों को सभ्यता का जनक बना दिया गया, उनके अनुरूप हुए बिना वे भारत में उनके देश से लाए नहीं जा सकते थे, इसलिए अपने पूरे साहित्य में शांतिपाठ करने वालों को, त्राहि माम्, पाहि माम् की गुहार लगाने वालों को, सभ्यताद्रोही लंपट, लुटेरा बना दिया गया। हमारी अपनी समझ तो वर्णवादी और संस्कृत-केंद्रित होने के कारण औंधी पहले से थी। संस्कृत के विद्वान होने के कारण, द्विवेदी जी उस मनोबंध को तोड़ ही नहीं सकते थे जिसके कई आवर्तों ने उन्हें घेर रखा था।

एक विचित्र संयोग था, द्विवेदी जी का संस्कृत ज्ञान और रवींद्र नाथ का प्रखर संस्कृति बोध। वह विशेष अवसरों पर वेद की रचनाओं के पाठ से आयोजन का आरंभ करते थे। ऐसी परिष्कृत भाषा, अंतर्वस्तु और कलात्मक निखार जिस सांस्कृतिक स्तर का प्रमाण था उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी, परंतु उन तथ्यों और तर्कों का खंडन करने की तैयारी भी किसी में नहीं थी, इसलिए आधे मन से सभी ने यह मान रखा था कि उनके द्वारा तैयार किया गया इतिहास फरेब नहीं है। वैदिक> संस्कृत> प्राकृत>अपभ्रंश का वंशवृक्ष संस्कृत के विद्वानों के भी दिमाग में पहले से था।

कोई गलत मान्यता जितने भी लंबे समय से चली आ रही हो, और उसे किसी भी कारण से जितना भी व्यापक समर्थन क्यों न मिला हो, जांचने पर वह पहला प्रहार तक नहीं झेल पाती। इस मान्यता के साथ भी यही हुआ।

सत्य के संधान में ज्ञान की भूमिका से हम परिचित हैं, परंतु अज्ञान की शक्ति से परिचित नहीं। ज्ञानी को उससे तेज तर्रार धूर्त अपना कायल बना सकता है, ज्ञानी को शास्त्रलिखित के दबाव मैं, या समकालीन ज्ञानियों की सहमति से मूर्ख बनाया जा सकता है, अज्ञानी ऐसे झाँसों में नहीं आता। जब ज्ञानी लोग कई तरह से राजा की पोशाक की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे होते हैं, तो अज्ञानी ही बताता है कि राजा नंगा है और फिर उन्हें भी उसका नंगापन दिखाई देने लगता है।

भारतीय भाषा चिंतन ब्राह्मणों के हाथ में था। वर्चस्व की वही कामना जो पश्चिमी जगत में चार सौ साल पहले पैदा हुई थी, ब्राह्मणों में चार हजार साल से विद्यमान थी। नीति कथा के धुनिया और गीदड़ की सोच के अनुसार ‘बड़ों की बात बड़ों ने जानी’ में ‘जानी’ के स्थान पर ‘मानी’ लगा दीजिए और पिछले ढाई सौ साल के भारतीय इतिहास की समझ का नंगा रूप सामने आ जाएगा। पता चलेगा कि क्यों अभिजात हिंदू विद्वान, मुस्लिम अशराफ और पश्चिमी उपनिवेशवादी और नस्लवादी उसी समस्या पर एक तरह से सोचते थे और अंबेडकर दूसरी तरह से सोचते थे। और क्यों तथाकथित मार्क्सवादी और अंबेडकरवादी लौटकर वर्णवादियों, अशराफों और उपनिवेशवादियों ही तरह सोचने लगेे हैं। आत्मेत्थान की तलाश करने वाले, सत्य की तलाश नहीं कर सकते। उसमें उनकी कोई रुचि नहीं होती।

हम युगो से मानी जाने वाली या पूरी दुनिया में स्वीकार कर ली जाने वाली मान्यताओं के खोखलेपन को जांचने के लिए एक उदाहरण लेते हैं:
भाषा के मर्म को समझने की दृष्टि से विश्व के सबसे अग्रणी माने जाने वाले विद्वान मानते थे कि संसार की सभी भाषाएँं संस्कृत से निकली हैं, क्योंकि सृष्टि का आरंभ ही यज्ञ का आयोजन होने के बाद हुआ जिस में बाकायदा वेद के मंत्र पढ़े गए। वेद वाक्य को गलत कहा नहीं जा सकता, इसके बाद तर्क करने को कुछ रह नहीं जाता।

तर्क करने को फिर भी रह जाता है। यदि यज्ञ हुआ, उसमें हवि डाली गई तो उस हवन सामग्री में अनाज भी रहा होगा। अनाज तो द्विज पैदा ही नहीं करते, उसे पैदा करने वाला शूद भी रहा होगा। गरज कि सृष्टि से पहले शूद्र भी रहा होगा। चाहे ब्राह्मण स्वयं शूद्र रहा हो, या ब्राह्मण शूद्र से बाद में पैदा हुआ हो, परंतु उसी पुरुष सूक्त से इस सचाई तक पहुंचा तो जा सकता है। मैंने अंबेडकर की तरह पुरुष सूक्त की व्याख्या नहीं की है, फिर भी एक बार पुरुष सूक्त की अंबेडकर द्वारा की गई व्याख्या पर नजर डालें। उनसे पहले किसी दूसरे ने इतना वस्तुपरक, इतना तार्किक विश्लेषण नहीं किया है। अगली बात यह कि इतिहास ने अंबेडकर को ही सही सिद्ध किया।

ज्ञानियों की इस नासमझी का मजाक भी करने चलें तो रोना आएगा कि एक अनपढ़ जुलाहा जानता है की मुंह से कोई पैदा नहीं हो सकता, परंतु ब्राह्मण इसे नहीं समझ सकता। आज जब सृष्टि के विषय में, भाषा की उत्पत्ति के विषय में हमारी समझ साफ हो चुकी है, फिर भी ब्राह्मणवादी इसे जानते हुए भी पुरुष सूक्त से आगे नहीं बढ़ सकता।

अन्य लोगों की तरह क्षितिमोहन सेन और हजारी प्रसाद द्विवेदी दोनों का भाषा विमर्श भी इसी विडंबना का शिकार था, इसलिए वही काम जिसके लिए वे सबसे अधिक योग्य समझे जाते थे – भाषा, व्याकरण, शब्द विचार, उसे वे सही सही कर ही नहीं सकते थे।

परंतु विश्व भारती के बौद्धिक पर्यावरण के कारण वे मानते जो भी रहे हो, असमंजस से ग्रस्त थे। इसका मैं अनुमान ही कर सकता हूं। अनुमान का आधार क्या है इसका संकेत हम बाद में देंगे।

इससे पहले, यह याद दिला दें, कि द्विवेदी जी के बौद्धिक आतंक के कारण उनके शिष्य अपनी संभावनाओं को हासिल नहीं कर सके। वे अपनी विदग्धता के बावजूद, द्विवेदी जी के संपर्क में कुछ अलग तो बने, परंतु अपनी सकल उपलब्धि में औसत से ऊपर नहीं उठ सके। विडंबना यह कि केदार नाथ सिंह को छोड़कर वे सभी अपने अपने ढंग से, द्विवेदी जी का उद्धार करने के लिए तो विकल थे, परंतु दिवेदी जी को समझने की योग्यता से रहित थे। वे सभी आरती वंदना से आगे उनका सम्मान नहीं कर सके, उपयोग अवश्य किया।

आपसी द्वेष से वे इतने ग्रस्त थे, कि उनके दो पट्ट शिष्यों में से एक, शिवप्रसाद सिंह ने, द्विवेदी जी के आरती वंदन ग्रंथ ‘शांतिनिकेतन से शिवालिक तक’ में बहुत सारे लोगों को स्थान दिया, परंतु उसमें नामवर सिंह गायब है। नामवर जी ने ऐसा ही कोई आयोजन किया होता तो उसमें शिवप्रसाद सिंह नदारद मिलते हैं।

आपसी विद्वेष जब इतना था तब रामचंद्र शुक्ल का पुतला खड़ा करके, जो दिवेदी जी के बनारस पहुंचने से 9 साल पहले ही दिवंगत हो चुके थे, शुक्लविरोध, शुक्ल समर्थकों का विरोध इसलिए कि और कोई योग्यता न होने के कारण अपने को गुंडों का सरताज मानने वाले अध्यापक शुक्ल जी की आड़ लेकर अपने स्वार्थ साधन के लिए, द्विवेदीजी के साथ कमीनेपन के स्तर पर उतर कर पेश आते थे। उनके कमीनापन को उजागर करने की जगह, उन्होंने शुक्ल जी के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया।

उनकी रचनाओं को पढ़ने पर ऐसा भ्रम पैदा होता है कि द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य का अपना इतिहास शुक्ल जी को तुच्छ सिद्ध करने के लिए लिखा था और तुलसी की जगह कबीर को इसलिए महत्व दिया था कि तुलसी रामचंद्र शुक्ल को प्रिय थे। जिन मूल्यों के पोषक थे, द्विवेदी जी ने उससे अलग एक नई परंपरा का आधार रखा था।

वखेड़े से बचते हुए, इतना ही निवेदन करें कि द्विवेदी जी रवींद्र के निकट परिक्रमा लगाने वाले यूरोपीय विद्वानों से और विशेषतः विंटरनित्ज से प्रभावित थे। 1937 में ही जब बनारस आने का कोई योग तक नहीं बना था, बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे एक पत्र में उन्होंने यह आकांक्षा जताई थी कि वह विंटरनिट्स के हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर की तर्ज पर हिंदी में साहित्य के इतिहास की एक पुस्तक लिखना चाहते हैं। उन्होंने अपनी समस्याएं भी गिनाई थी जिनमें एक प्रति सप्ताह 35 कक्षाएँ लेने के बाद उदर पूर्ति के लिए दूसरे काम करने के कारण इस के लिए समय का अभाव था। हिंदी साहित्य की भूमिका 1947 से पहले प्रकाशित हो गई थी। इसका न तो किसी स्पर्धा से संबंध था, न ही बनारस के कड़वे अनुभव की प्रतिक्रिया स्वरूप इसका लेखन हुआ था।

जहां तक मानसिकता का सवाल है शांतिनिकेतन में पहुंचने वाले द्विवेदी जी सभी दृष्टियों से शुक्ल जी से इतने पिछड़े थे कि वह उनका उपहास नहीं कर सकते थे। जिसे दूसरी परंपरा कहा गया, वह द्विवेदी जी का आविष्कार नहीं थी। उसकी पूरी सामग्री, उन्हें क्षितिमोहन सेन से विरासत में मिली थी। उसका उन्होंने पूरी निष्ठा से निर्वाह किया, जबकि द्विवेदी के शिष्यों में कोई भी उसी तल्लीनता से शोध कार्य में अपने को अर्पित न कर सका।

Post – 2019-08-03

दिगंत तक फैला अट्टहास

द्विवेदी जी का संदर्भ आने पर कोई उनके विचारों की बात करे या न करे मुक्त भाव से हंसने की बात अवश्य करता है। मैंने उन्हें केवल 3 अवसरों पर केवल कुछ क्षणों के लिए देखा। उनका वह हास्य देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, परंतु मैंने उनके जिस हास्य को देखा है उस पर दूसरों की नजर नहीं पड़ी। कुछ चीजें मेरे सौभाग्य से दूसरों की नजर से ओझल रह जाती हैं।

मुझे उनका समस्त लेखन दिगंत तक फैले अट्टहास जैसा लगता है। वह दूसरों पर ही नहीं, अपने आप पर भी हँस लेते थे। वह बहुत, अधिक, विभिन्न, विविध आदि के लिए ‘नाना’ का प्रयोग करने के आदी थे। जब इस पर ध्यान गया तो नाना एक चरित्र बन गए। अपने ऊपर भी हँसने की यही विशेषता अधिक प्रखर रूप में तुलसीदास में है, “तुलसी गुसाँई भयो भौंड़े दिन भूलि गयो।” परंतु निश्छल हास्य और अट्टहास के पीछे क्या है, इसे जीकर ही जाना जा सकता है, अन्यथा उस ओर नजर नहीं जाती। मैं अपने शब्दों में कुछ न कहूँगा। तीन उद्धरण पर्याप्त हैं:
अट्टहास कर, अट्टहास कर, अट्टहास से
मन को गड़ने वाले दर्द डूब जाते है
दुक्खों का दुरतिक्रम घेरा
अट्टहास ही तोड़ सका है अभियानों में।
त्रिलोचन

2. कबहुँ न नाथ नींद भरि सोयो।
तुलसी

3. ‘Humour in the essays of Lamb is the humour of life. It is most akin to pathos. We can say that it is saving grace for him, for after all it enables him to detach himself from the painful realities, or rather to view them as things apart from himself.”

मुझे उनके व्यक्तिगत जीवन की जानकारी नहीं, परंतु ऊपर से संतुलित दीखते हुए भी वह भी भीतर किंचित उद्विग्न थे और उस ऊद्विग्नता पर काबू करने के लिए उन्होंने एक छद्म आवरण तैयार कर लिया था जो उनके स्वभाव का अंग बन गया। मैं नहीं जानता कारण क्या था।

परिस्थितियां समान होने पर भी हमारी प्रतिक्रियाएँ समान नहीं होती है। दिवेदी जी ने अपनी विलक्षण प्रतिभा के होते हुए भी ज्योतिष में आचार्य किया था, जिसे मैं अर्थकरी विद्या के रूप में रेखांकित कर आया हूं।

लगता है, आरंभ में विद्या से उनकी एकमात्र आकांक्षा पारिवारिक दैन्य को दूर करना था। कोई अन्य महत्वाकांक्षा थी ही नहीं। एक सुलझा हुआ (नॉर्मल) आदमी सुख और लाभ की आकांक्षा से परिचालित होता है। इसमें कुछ भी अशोभन नहीं है। ऐसा सदा से और सभी समाजों में होता है। मैंने जिस नीतिवाक्य के एक अंश का उपयोग किया था उसका पूरा पाठ निम्न प्रकार है:
अर्थागमो नित्यमरोगिता च, प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यस्य पुत्रोsर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्।।

दुख की तलाश तो आत्मपीड़क (sadist) ही कर सकते हैं, जिसका ए्क अपसामान्य (abnormal) रूप है जो मनोव्याधि में प्रकट होता है, और दूसरा अतिसामान्य (super-normal) जो अतिकर्ष या नए कीर्तिमान स्थापित करने की महत्वाकांक्षा से परिचालित होता है। इसमें कष्ट सहकर भी, यहां तक कि प्राण तक देकर किसी महान लक्ष्य की प्राप्ति इतना आकर्षित करती है कि कोई भी कष्ट कष्ट नहीं रह जाता, आनंदानुभूति बन जाता है। यह प्रतिभा के उत्कर्ष से ही संभव हो पाता है। भौतिक दृष्टि से सफलता की कामना करने वाले लोग सपने नहीं देखते वे लालसाएँ पालते हैं, सपने केवल वे ही देखते हैं जो दुनिया को या इसके किसी पहलू को बदलना चाहते हैं।

द्विवेदी जी ने अपना क्षेत्र ज्योतिष चुना था, इसमें नया कुछ करने को था ही नहीं, इसलिए वह सपने नहीं पाल सकते थे। जीविका चला सकते थे, परंतु प्रतिभा के उत्कर्ष ने उनकी दिशा ही बदल दी। नामवर जी में यह आरंभ से ही थी, द्विवेदी जी में असमंजस का रूप लिया और उनके भाग्य का फैसला मालवीय जी ने कर दिया।

ज्योतिषाचार्य को ही पता होगा कि एक होनी के पीछे कितने नक्षत्रों , कितने ग्रहों, और उनसे चालित कितने मनुष्यों का हाथ होता है। शांतिनिकेतन को 1921 में विश्वविद्यालय की मान्यता मिल गई थी और वह विश्व भारती बन गया था। पुराना नाम नए के साथ चलता रहा और आज तक चल रहा है भले वहां शांति न हो।

क्या 1930 में ही अर्थात विश्वविद्यालय बनने के 9 साल बाद ही रवींद्र को यह सूझा कि यहां हिंदी की शिक्षा की भी व्यवस्था होनी चाहिए। ग्रहों की बात कर रहे हैं, इसलिए रवींद्र को न तो श्रेय दे रहे हैं न दोष। विश्व भारती की आर्थिक दशा ऐसी न थी, कि रवींद्र जिसे उचित समझते उसके लिए अर्थव्यवस्था भी कर पाते। हिंदी भी पढ़ाई होनी चाहिए, यह विचार उन्हें तब आया जब बनारस के शिव प्रसाद गुप्त ने विश्व भारती को 60 रुपए प्रतिमाह हिंदी को स्थान देने के लिए देना आरंभ किया। यह वादा उसी वर्ष होना था जिस वर्ष दिवेदी जी ज्योतिषाचार्य बने थे। रवींद्रनाथ टैगोर को क्या मालवीय जी से ही इसका अनुरोध करना था और मालवीय जी को हिंदी पढ़ाने के लिए एक ऐसे व्यक्ति का ही ध्यान आना था जिसके पास ज्योतिष के ज्ञान का प्रमाणपत्र तो था, हिंदी के ज्ञान का दावा तक न था। ग्रहों का सबसे बड़ा खेल है ज्योतिष को विश्वभारती के प्रभाव में अविश्वसनीय मानने के बाद भी द्विवेदी जी का ग्रहों के खेल में, पूजा पाठ के प्रभाव में विश्वास बना रह जाना। वह हिंदी शिक्षक बन कर गए थे, हिंदी के भाग्य विधाता बनकर नहीं। इतने विरोधी ग्रहों के होते हुए भी जो होना था वह हुए और अगला आश्चर्य यह कि वह हिंदी के स्नातक हुए बिना भी काशी विवि में विभागाध्यक्ष के रूप में आमंत्रित किए गए और बने ही नहीं हिंदी साहित्य के भविष्य को भी नया मोड़ दिया।

यह नया मोड़ क्या था? अब तक का हिंदी साहित्य सौंदर्य की कसौटी पर कसा जा रहा था, जिसमें विचारधारा गौण थी, इसलिए शुक्ल जी ने संत कवियों को ज्ञानमार्गी कह कर अवर कोटि में रखा था। इसके बाद ज्ञानमार्ग प्रधान हो गया, विचार और विचारधारा प्रधान हो गई। साहित्य साहित्य न रहा, इन्कलाब जिंदावाद बन गया और अपनी स्वायत्तता खोकर राजनीति का सेवक और साहित्यकार अपने टुच्चेपन के लिए कुख्यात राजनीतिज्ञों का दुमछल्ला बन कर रह गया।

पता नहीं मै सही दिशा में बढ़ा हूँ या नहीं। दुबारा सोचना होगा, परन्तु यदि द्विवेदी जी जीवित होते और उनके सामने मैं यही सवाल करता तो उनका जवाब क्या होता?

अट्टहास। वह अपने पर भी हँस सकते थे, अपनों पर भी हँस सकते थे, अपनी अधौगति पर भी, अपनी परिणति पर भी।

Post – 2019-08-02

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
द्विवेदी जी नामवर को भारतविद बनाना चाहते थे

नामवर जी से न तो मैंने कभी यह प्रश्न किया, न ही उन्होंने अपनी ओर से ऐसा ऐसा कहा, परंतु मुझे पूरा विश्वास है कि द्विवेदी जी उन्हें भारतविद बनाना चाहते थे। उस काल की सभी महान विभूतियां भारत विद थीं। मिलने में इतना आसान लगता है, बनने में उतनी यह उतनी कठिन साधना की मांग करता था । भाषा के क्षेत्र में अपभ्रंश, प्राकृत और संस्कृत पर अधिकार, किसी भारतीय बोली पर अधिकार, यह तो बुनियाद हुई, इसके बाद आरंभ होती थी वह तपस्या जिसमें आप किसी चुने हुए क्षेत्र में उस गहराई तक पहुंचते हैं, जहां से समाज, उसका अतीत-वर्तमान सब कुछ एक नए आलोक में उजागर होने लगता है। और यह दृष्टि अनन्य होती है,आपको कुछ ऐसा दिखता है जैसा कभी किसी को दीखा ही नहीं। यह आनंद की वह अवस्था होती है, जिसमें भौतिक उपलब्धियाँ तुच्छ लगती है- धन, मान, कीर्ति सभी। वे स्वतः आएँ तो उदासी भाव प्रधान होता है, सत्य साक्षात्कार का आनंद सभी को तुच्छ बना देता है। नामवर जी में ये सभी प्रवृत्तियां थीं। इनके विकास में संभव है, द्विवेदी जी द्वारा इस क्षेत्र की विभूतियों के जीवन और कार्यनिष्ठा के विषय में समय समय पर दोहराई गई कहानियों की भूमिका रही हो ।
नामवर जी जब किसी भारतीय भारतविद के विषय में बात करते तो उनकी जानकारी पर विस्मय में होता था, मेरे लिए भी वे जानकारियाँ मूल्यवान होतीं। ऐसी जानकारियाँ डॉ. महादेव साहा को छोड़ अन्य किसी के पास नहीं थीं। जिन के कारनामों पर वह मुग्ध रहते थे, उनके पास भी नहीं। कर्म के लिए, सिर्फ अपनी समस्या का ज्ञान और संकल्प की आवश्यकता होती है। मैंने उन लोगों के विषय में कभी जानने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं की।

मुझे बड़े विद्वानों से डर लगता था, उनकी महिमा से घबराहट पैदा होती थी। आज भी होती है। उनके विषय में जानना, अपने विषय से हट जाना या उनकी छाया बन जाना होता। अपनी उपलब्धि से संतुष्ट पिता की संतानों का विकास, पूरी सुरक्षा और सुविधा के बावजूद, अपेक्षा से नीचे रह जाती है।

वृक्ष के नीचे वृक्ष नहीं उगा करते, महा वृक्ष के नीचे तो घास तक नहीं उग पाती। छाया लेने वालों का जमघट अवश्य होता है।

वृक्ष को दूसरे वृक्षों से कुछ नहीं मिलता, अवरोध के सिवा। उसे अपने बीज से ही उगना होता है, अपनी जड़ों के बल पर ही खड़ा होना होता है, अपनी जमीन से ही रस ग्रहण करना होता है, और दूसरे वृक्षों से अपेक्षित दूरी बनाने पर ही उसे भरपूर धूप मिल पाती है।

महान विभूतियों की महिमा का ‘ग्रहण’ महादेव साहा पर नामवर जी से अधिक था। वह अपने विश्वकोशीय ज्ञान के होते हुए और आजीवन ज्ञान-साधक बने रहकर भी, कोई ऐसा काम नहीं कर सके जिसके लिए उन्हें याद किया जाए।

नामवर जी ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान’ के बाद, उस दिशा में कोई काम नहीं कर सके जिसके लिए द्विवेदी जी उन्हें तैयार कर रहे थे।

स्वयं द्विवेदी जी टैगोर से अधिक क्षितिमोहन सेन से प्रभावित थे, इसलिए आजीवन उनका अनुसरण करते रहे, इसे द्विवेदी जी के अनुसंधान कार्यों को क्षितिमोहन सेन के अनुसंधानों को सामने रखकर, समझा जा सकता है। क्षितिमोहन सेन की उल्लेखनीय कृतियां निम्न हैं: कबीर (चार खंडों 1910-11), भारतीय मध्ययुगेर साधनार धारा(1930), भारतीय संस्कृति (1943), बोंग्लार साधना (1945), युगगुरु राममोहन (1945), जातिभेद (1946), बांग्लार बाउल (1947), हिंदू संस्कृतिर स्वरूप (1947), भारतेर हिंदू-मुसलाान युक्त साधना, प्राचीन भारतेर नारी (1950), चिन्मय बंग (1957), साधक ओ साधना 92003) । मैं इस प्रश्न का उत्तर नहीं दूंगा कि द्विवेदी जी दूसरी परंपरा की खोज करने वाले थे. या दूसरी परंपरा की खोज करने वालों के छाया-ग्राही बन कर रह गए थे।

द्विवेदी जी क्षितिमोहन सेन नहीं बन सकते थे, तब के नामवर जी बन सकते थे। एक दौर था जिसमें फाकाकशी में भी, जब रोटी के लिए पैसा नहीं होता था तब भी कहीं से देने पैसे का जुगाड़ हो जाए तो पैसा पहले किताब पर खर्च होता था, फिर रोटी की याद आती थी। ऐसा द्विवेदी जी के जीवन में कभी नहीं हुआ। दोनों आर्थिक दृष्टि से निम्न मध्यवर्गीय परिवारों से ही आते थे। परंतु दिवेदी जी की पहली प्राथमिकता थी दारिद्र्य निवारण। इसीलिए उन्होंने अपनी निसर्गजात प्रतिभा की दिशा को तोड़ते हुए ज्योतिष का चुनाव किया था। अर्थकरी विद्या का। दिशा बदली, देश बदला, बौद्धिक पर्यावरण बदला, परंतु यह अंतः प्रेरणा बनी रही, जब कि क्षितिमोहन सेन विद्यया अमृतं अश्नुते में प्रवेश करने के बाद, बाहर निकले ही नहीं । दिवेदी जी कभी इस परिवेश में पूरी तरह संतुष्ट हुए ही नहीं । इससे न वह कामचलाऊ पांडित्य से ऊपर उठ सके, न हिंदी जगत में दिवेदी जी का सही मूल्यांकन हो सका।

Post – 2019-08-01

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
अधूरी रचना

महत्वाकांक्षी, परंतु जो कुछ बन सके उससे असंतुष्ट, पिता या गुरु अपने प्रतिभाशाली पुत्र और शिष्य के माध्यम से अपनी आकांक्षा पूरी करना चाहता है। आत्मोत्थान के इस नियम से वह अपने पुत्र और शिष्य को अपने से छोटा नहीं बहुत-बहुत बड़ा बनाना चाहता है। इतना बड़ा कि लोग उसे भूल जाएं । वह उसका पुत्र या शिष्य नहीं होता, उसका भविष्य होता है, उसकी अपूर्णता की पूर्ति होता है, उसकी चरम उपलब्धि। नामवर जी द्विवेदी जी को, दैव कृपा से ( क्योंकि इसमें उनका विश्वास था) , ऐसे ही शिष्य मिल गए थे। उनकी संभाव्यता को, द्विवेदी जी ने नहीं पैदा किया था, यह उनमें थी, मारकंडे सिंह के स्पर्श से यह निखरी थी, द्विवेदी जी को उपलब्ध हुई थी और उसका वह अपनी अधूरी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे।

कच्चे लोंदे को कल्पित आकार देना आसान होता, परंतु बनी-बनाई कृति का गीलापन (नम्यता) को देख कर उसे इच्छित आकार में ढालना और अपने सपनों की ऊंचाई तक पहुंचाना, लगभग असंभव होता है । नामवर जी की संभावित ऊंचाई तक पहुंचने में, गुरुदेव की आकांक्षाएं बाधक बनी, परंतु व्यर्थ नहीं गईं ( व्यर्थ कुछ नहीं जाता, दुख और आघात भी नहीं)। उनसे उनके नैसर्गिक विकास में जो खम पैदा हुआ उससे उनकी शोभा बढ़ी परन्तु आधानता (भीतर का आयतन) मे संकुचन आया। ऐसा ही संकुचन पार्टी निर्देशित मार्क्सवाद के कारण आया, परंतु इस दूसरे दबाव से उनके प्रभाव क्षेत्र का विस्तार हुआ, रुतबा बढ़ा। इस विरोधाभास को समझना जरूरी है क्योंकि इसके बिना नामवर जी में प्रकृति प्रदत्त ऊर्जा की संभावनाओं को नहीं समझा जा सकता। वह जो हो सकते थे, न हो सके; जो बन गए उसे अपनी उपलब्धि मानते रहे जब कि समग्र उपलब्ध औसत से भी कम रही।

मैं नामवर जी का सम्मान करता था, आज भी करता हूँ, परंतु हमारी कभी पटी नहीं, कई बार उन्हें झेलना पड़ता था, और कई बार धैर्य खो जाने के कारण विरोध भी करना पड़ता था, और एक बार मैंने कठोर शब्दों में उनके किसी कथन या कार्य का जो मेरी नजर में उनके लिए अकीर्तिकर था फोन पर विरोध प्रकट किया तो उनका जवाब था, ‘ऐसा आप ही कह सकते हैं।’ मैं इसका अर्थ समझाऊं इससे पहले यहां से आगे पढ़ना छोड़ कर इस वाक्य का अर्थ तलाश कीजिए फिर कुछ रुक कर पढ़िए कि मेरी समझ में इसका अर्थ क्या था।

इस वाक्य का अर्थ था, “ऐसी बदतमीजी तुम ही कर सकते हो।”

परंतु आप कह सकते हैं, बात तो दिवेदी जी की चली थी, नामवर ने इतनी जगह क्यों घेर ली। इसका उत्तर है द्विवेदी जी के दो संदर्भ बिंदु हैं, एक रवींद्र और दूसरे नामवर। इनमें से किसी को छोड़ दिया जाए, द्विवेदी जी को नहीं समझा जा सकता, उनकी सफलताओं और विफलताओं को ही नहीं, नामवर जी की संभावनाओं, उपलब्धियों और अनुपलब्धियों को भी नहीं समझा जा सकता।

यह बात मैं नामवर जी के जीवन काल में कहता कि मेरी दृष्टि में प्रतिभा के मामले में गुरू-शिष्य दोनों समान ऊर्जा के धनी थे फिर भी वजन नामवर जी की तरफ झुका दिखाई देता है, तो नामवर जी से मुझे फटकार ही सुनने को मिलती। वह द्विवेदी जी के प्रति ही इतने विनम्र नहीं थे, उन पाश्चात्य आलोचकों के प्रति भी उतने ही विनम्र थे, जिनसे उन्होंने नई आलोचना का ककहरा सीखा था और दुर्भाग्य से यह ककहरा ही गलत था और इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह कि नामवर जी को श्रद्धा वश न द्विवेदी जी की सीमाओं का बोध था न अपने पाश्चात्य प्रेरणा स्रोतों की सीमाओं का। विनम्रता और श्रद्धा भाव ने उन्हें अपनी प्रतिभा, जमीन और दिशा के अनुरूप विकसित होने में बाधा पहुंचाई।

नामवर जी मुझे विस्मित करते हैं और हताश भी, क्योंकि वह अपने बौद्धिक जुए उतार फेंकने के बाद ही अपनी गर्दन सीधी कर सकते थे। वह द्विवेदी जी की लालित्य की अवधारणा और पाश्चात्य सौंदर्यशास्त्र के दबाव में इधर-उधर गर्दन हिलाते रहे। विचारों के क्षेत्र में दो प्रभावों के बीच वह अव्यवस्थित अनुभव करते थे फिर भी दोनों में से किसी को झटक कर फेंकने का इरादा तक नहीं था, यदि था तो उनके अनुसार अपने को सही सिद्ध करने का जो संभव न था।

जो भी हो बनारस में पहुंचने के बाद, असंख्य मर्मभेदी, विषाक्त, बाणों को झेलते हुए भी, काशी आने के अपने निर्णय पर पछताते हुए दिवेदी जी को एक ही सान्त्वना थी कि उन्हें नामवर जैसा शिष्य मिला। नामवर जी के लिए उनका स्नेह, उनका संरक्षण, उनका मार्गदर्शन, तब तक के किसी अन्य छात्र के लिए अलभ्य था।

द्विवेदी जी ने दुर्बलता के एक क्षण में शांतिनिकेतन की जगह काशी का चुनाव किया। दुख पाया पर, असंतुष्ट नहीं रहे, क्योंकि उन्हें जैसे छात्र काशी में मिले, शांतिनिकेतन में दुर्लभ थे। द्विवेदी जी की अधूरी आकांक्षा की पूर्ति काशी में ही संभव लग रही थी, शांतिनिकेतन में संभव नहीं थी।

हमने पीछे द्विवेदी जी की एकमात्र दुर्बलता (पारिवारिक आर्थिक विपन्नता) से उपजे दैन्य और पलायन की जिस श्रृंखला हवाला दिया था, उसमें उनका यह पक्ष छूट गया था कि द्विवेदी जी में एक दुर्लभ नैतिक दृढ़ता भी थी। इंदिरा जी से उनका सीधा संपर्क था, परंतु अपने दुर्दिन में भी उन्होंने उसका उपयोग नहीं किया। आपातकाल में उन्होंने उस समय जब इंदिरा जी पर चारों ओर से विष बुझे बाण दागे जा रहे थे, स्नेहासिक्त दयाद्र समर्थन किया था जिसके पीछे किसी स्वार्थ-सिद्धि की कल्पना तक न थी। यह दूसरी बात है कि डॉ नगेंद्र जैसे दुनियादार लोग यह जानकर कि उनके सीधे संबंध इंदिरा जी से हैं उनको अपने अनुकूल बनाने के लिए उन्हें कई तरह से कृतार्थ करते रहे। द्विवेदी जी इसे जानते हुए, इसका लाभ अवश्य उठाते रहे, परन्तु किसी तरह का समझौता किए बिना।

द्विवेदी जी कहते थे शांतिनिकेतन में पहुंचने के बाद मेरा नया जन्म हुआ। उनके कई शिष्यों ने इस नए जन्म का संबंध रवींद्र से संपर्क के रूप में ग्रहण किया है। द्विवेदी जी ने इसका भाष्य किया हो तो इसकी मुझे जानकारी नहीं, परंतु जहां तक मैं समझता हूं, यह रवींद्र नहीं थे, रवींद्र के चतुर्दिक, उनके चुंबकीय आकर्षण से निर्मित, सांस्कृतिक, बौद्धिक और कलात्मक परिवेश था, जिससे वह अभिभूत हो गए थे।

यह परिवेश जितना रवींद्र से प्रभावित था स्वयं रवींद्र अपने परिवेश, या उन विभूतियों से प्रभावित थे, जो उपग्रह की तरह उनकी परिक्रमा कर रहे थे। धरती सूरज से ही प्रकाश नहीं पाती, अपने उपग्रहों से भी प्रकाशित होती है। रातों में रोशनी चांद ही दे सकती है, भले सूरज का प्रकाश ही उससे परावर्तित हो कर हमारे पास आता हो।

इस परिवेश का दायरा इतना बड़ा था कि इसमें द्विवेदी जी की पुरानपंथी सोच और जीवन शैली के लिए भी जगह थी, परंतु समर्थन नहीं था – ‘हम आपको अपनी जीवनशैली बदलने को बाध्य नहीं करेंगे, यदि आपको कभी लगे कि इसमें परिवर्तन जरूरी है, तो आप ऐसा कर सकते हैं।’ रवींद्र का प्रभाव नहीं, रवींद्र के प्रभाव से निर्मित सांचा या पर्यावरण, उस में पहुँचने वाले को, वह जैसा था, वैसा रहने नहीं देता था। द्विवेदी जी का नया जन्म इसी रूप में हुआ था। सोच में, रूढ़वादिता में, जातिगत श्रेष्ठताबोध परिवेश की हवा से हवा होने लगे।

इस पर्यावरण में मास्टर मौसाय जैसे पुरातन ज्ञान के अधिकारी और नई सोच की दिशा में उन्मुख व्यक्ति थे, नंदलाल बोस जैसे कृती थे जो आधुनिक होते हुए भी भारतीय कला परंपरा का सम्मान करते थे और इसे आधुनिकता की अपेक्षाओं से जोड़ते हुए, एक नई कला विधा का आविष्कार करना चाहते थे, रवींद्र को अपने विचारों का कायल बनाने के लिए प्रयत्नशील ब्लॉख, सिलवियाँ लेवी, जीन प्रैजिलुस्की, विंटरनित्ज जैसे यूरोपीय विद्वान थे, और इनकी मान्यताओं को नकारने वाले भारतीय चिंतकों के अपने विचार थे जो दबे हुए लगते थे पर बेतुके नहीं। रवींद्र और उनकी परिधि के लोग सभी तरह के विचारों के प्रति खुले पर असमंजस की स्थिति में थे, यह असमंजस भी द्विवेदी जी के भीतर इसी परिवेश के कारण आया।
दुर्भाग्य की बात है कि अपने समस्त प्रतिरोध के बावजूद रवींद्र भी उनसे अभिभूत थे, द्विवेदी जी भी अभिभूत थे, परंतु मन में गहरी आशंका भी थी। कहीं कुछ गड़बड़ है। द्विवेदी जी संभवत इससे पार जाना चाहते थे, स्वयं सभी मामलों में सक्षम नहीं अनुभव करते थे और उम्र का तकाजा था, द्विवेदी जी अपने ढंग से अपने शिष्य को नए रूप में गढ़ते-बनाते हुए अपनी आशंकाओं से पार पाना चाहते थे।