Post – 2020-01-19

स्पष्टीकरण

मैं जेएनयू के वी.सी. को जो पत्र ई-मेल से भेज चुका था उसकी प्रतिलिपि मैंने फेसबुक पर इसलिए पोस्ट की थी कि मैं मानता हूँ कि सामाजिक सरोकार के विषयों पर जो कुछ कहता या लिखता हूं वह निजी नहीं हो सकता। उसके प्रति मेरी जिम्मेदारी है, और दूसरे यदि जानना चाहें कि मैंने क्या और क्यों लिखा है तो अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना चाहिए। न्याय विचार यह है कि यह जाने बिना किसी को मेरे विषय में कोई फैसला नहीं लेना चाहिए पर हम अपने व्यवहार में न्याय अन्याय का इतना सूक्ष्म निर्वाह नहीं करते इसलिए रूठने और आज से मेरी कुट्टी (संबंध कट गया) का विकल्प तो होना ही चाहिए।

यह बताना जरूरी है कि यदि पूछा होता कि आप इनका समर्थन क्यों कैसे कर सकते हैं तो मैंने उसका जवाब दिया होता, इसके लिए ही मैंने उसे प्रकाशित किया था, कि यदि किन्हीं को आपत्ति हो तो वे आपत्ति करें और मैं अपना पक्ष रखूँ, भले उससे भी उनका असंतोष बना रहे।

एक महिला ने जो कुट्टी की सूचना देते हुए एक मजमून भेजा, जिसमें अनेक दूसरे लोगों के नाम थे। एक दूसरे व्यक्ति ने उसी मजमून के साथ मैत्री समापन की सूचना दी, तब मुझे लगा कि यह एक अभियान है न कि अलग अलग लोगों को नागवार गुजरी कोई चीज और मैंने इसीलिए ऐसे सभी लोगों से जो अपनी ओर से अपनी मित्रता समाप्त करने का आमंत्रण पोस्ट किया।

कुछ मित्रों ने जवाब चाहा, अलग-अलग जवाब देना संभव न था, इसलिए सबके विचार जानने के बाद नीचे के स्पष्टीकरण।

कुछ मित्रों के आक्षेप की भाषा कुछ दूसरों को क्षोभकर लगी, इस पर आपत्ति दर्ज कराई, इसके लिए धन्यवाद, परन्तु मुझे स्वयं उनकी भाषा से कोई शिकायत नहीं। भाषा की परुषता इसका पैमाना है कि मेरे विचारों से वे स्वयं कितने आहत हुए।

यह बात मैं समय समय पर दुहराता कि कोई, ईश्वर भी, इतना सही नहीं हो सकता कि सभी को उससे सहमत होना चाहिए, या जो असहमत है वह गलत है। अपना यह विचार मैंने कल फिर दो तुकबन्दियों से दिया था, पहली ‘सुनो, उसकी भी सुनो, जो कि गलत लगता है….।’ और परुष भाषा के विषय में ‘गालियाें, जख्मों से, बदनामियों, गुमनामियों से।
बच के रहते हैं जो, सड़ने को भी तैयार हैं वे ।।’

ऐक्टिविज्म की बात भी तीसरी में इसलिए की थी यदि लिखना यदि किन्हीं गलतियों, विकृतियों और शक्तियों के विरुद्ध समर है तो इसमें उतरते हुए आप यह सोच कर न उतरें कि आपको खरोंच न आएगी। ऐसा सोचते हैं तो आप ऐक्टविस्ट हैं ही नहीं। उसी को ऊपर दुहराया है।

1970 की उसी कविता की कुछ आगे की पंक्तियाँ हैं ‘मैं जानता हूँ/ मैं कई बार भाग खड़ा हुआ था कई मोर्चों से/ पर आज खड़ा होता हूँ / अपने विरुद्ध एक नए समर में/ मैं तोड़ूँगा कुछ नहीं/ सिर्फ परिभाषाएँ सुधार दूँगा/ और धुँए के पहाड़ बिखर जाएँगे। तुम देखना/ बेकार नहीं जाएगी मेरी फुसफुसाहट/ नहीं धरती धँसेगी नहीं/ नहीं झुकेगा आसमान/ पर इसके स्पर्श से/ गर्व में तने कँगूरे/ हवामुर्ग में बदल जाएँगे।’ और मुझे सन्तोष है कि मैने अपने इतिहास में हस्तक्षेप से गर्व में तने कँगूरों को हवामुर्ग में बदलते देखा है।

मेरे पत्र लिखने के तीन कारण थे। पहला मैं 5 जनवरी की घटना को एक गंभीर दुर्घटना मानता था और प्रतीयमान रूप से मुझे पुलिस की सहमति लग रही थी, जो पुलिस को ऐसे लोगों को भीतर घुस कर गिरफ्तार करने का आदेश देने में शिथिलता के कारण वी.सी. के विषय में जुगुप्सा पैदा कर रही थी। पुलिस के विषय में मैंने 6 की पोस्ट में लिखा और वी.सी. के विषय में उनको लिखे पत्र में पहला वाक्य इसी धारणा से संबंधित था एक पत्रकार के साथ टहलते हुए बात करते हुए भावहीन चेहरे को देखकर लगा था इतनी बड़ी घटना के बाद उनके चेहरे पर किसी तरह का अफसोस नहीं । मैंने अपनी पुत्रवधू को, जो कुछ दिनों के लिए अमेरिका से आई है, बुला कर चेहरा दिखाते हुए निरे अगंभीर, लाठी छाप चेहरे को दिखाते हुए कहा था इस व्यक्ति को अभी तक इस पद से नहीं हटाया क्यों नहीं गया? लगा यह संघ से संबंध रखता होगा।

दूसरों की पोस्टों को खँगालते हुए हैं मुझे वह लंबा पत्र मिला जिसको मैने शेयर भी किया जिससे पता चला कि यूनियन के लोग जब सर्वर आदि को तोड़ रहे थे उस समय भी वी.सी. ने पुलिस को भीतर घुसने को नहीं कहा था और तोड़फोड़, मार-पीट, की शुरुआत भी उन्होंने की थी। मेरी पोस्ट 10 जनवरी की और संलग्न पत्र जिसकी कुछ पंक्तियाँ हैं, Alas ! Media has finally waken up with half truths ….. JNU is again flashing back in the headlines …..
Where were the media when JNU website was hacked for two days by the agitating students with masks (except the one, who perhaps is pursuing the ambition of being another Kanaiya Kumar)? Where were the media when the windows were broken, when the central server of JNU was vandalized, lakhs of rupees of optic fiber wires were cut and destroyed, staffs were evicted from the Communication & Information Service Centre (CIS), by a group of students, in order to disrupt the registration process of the willing students ? This is the heinous crime I ever heard of from the student community ….. this is incredible that some of our students like terrorists are hiding their faces and destroying the public properties of the University of national eminence. Ironically the media selectively and briefly shared the news. Ironically the JNU Teachers’ Association (JNUTA) instead of condemning remained mysteriously silent about this act of vandalism. Even after that some of us were surprised to learn that no police was called inside the campus and no action has been taken so far against those students who committed this crime. Only the internal security somehow cleared the blokage and we heard that students guarding the gate were beaten up. We heard (and saw the pictures) that the central server is damaged so much that it is still under restoration and the registration could not be started even today. We have learnt that JNUSU have strongly condemned the assault towards the students who were guarding the CIS. Curiously I asked one of the agitating student whom I taught, that “you talk about democratic rights and you condemned the assault of some students but you are not condemning this act of vandalism ? He replied “this was done by some miscreant students whom we don’t have control”. I asked then why you condemn the assault ? Don’t you think they deserve some punishments ? The answer is obviously blowing in the wind ……

इसी क्रम में वी.सी. को हटाने की माँग के समर्थन में एक बयान आया जिससे पता चला कि यह वी.सी. जेएनयू के सांस्कृतिक माहौल को नष्ट कर रहे हैं, क्योंकि यहाँ अध्यापक और छात्र मित्र भाव से रहते आए हैं, क्लास में छात्र सिगरेट पीते रहते हैं। कहने वाला कहता है अर्थ हम ग्रहण करते हैं। (चरस भी पीते रहें तो रोकने वाला कोई है नहीं होगा, रोका तो बेइज्जत कर देंगे।) मुझे लगा कि यहाँ अध्यापकों की कायरता या उदासीनता से मनचलापन इतना बढ़ गया है कि ऐसे छात्रों और अध्यापकों को सुधारगृह भेजा जाना चाहिए।

धूम्रपान तो सिम्प्टम है, व्याधि गहरी है, लालेसनेस को संस्कृति बनाया जा चुका है: (क) छात्रों और अध्यापकों को यह तक नहीं मालूम या है तो चिंता नहीं कि सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान अपराध है; (क) अपराध इसलिए है कि आप किसी को पैसिव स्मोकिंग का शिकार नहीं बना सकते। मैं चार साल पहले अपने पड़ोस के पार्क में पास के ही कालेज के कुछ लड़कों को जो शगलबाजी के लिए आकर बैठते थे, सिगरेट पीने से रोक देता था, पास जाकर सिगरेट की जगह लेक्चर पिला देता था, सिगरेट पीते हुए कोई घुसा तो इशारे से बाहर निकाल दिया करता था और कभी कोई समस्या नहीं पैदा हुई।

इसके बाद ही जब इंडियन एक्सप्रेस में अध्यापकों और छात्रों के विभिन्न स्तरों से इंटरव्यू से जगदेश जी का परिचय मिला तो मुझे लगा जिस पैनी सोच, समझ, योग्यता और साहस वाले चिकित्सक की जेएनयू को जरूरत थी वह बड़े भाग्य से मिला है। एक ऐसे समय में जब उस पर प्रहार हो रहा है, यदि में उसका नैतिक समर्थन नहीं करता हूँ तो मैं अपने दायित्व के निर्वाह में प्रमाद करता है।

एक मित्र ने अपेक्षा की है कि हंगामेबाजी को परिभाषित करूँ। मेरी यह धारणा है कि आपात काल के दौर से ही यूनियन के अध्यक्षों को आदत पड़ी कि यूनिवर्सिटी के वी.सी., प्राक्टर, डीन, अध्यापक, सभी उनके निर्देशों का पालन करेंगे। आपात में हर तरह का दुस्साहस सही लगता है। अध्यक्ष डीपीटी थे। नामवर जी आपात काल का विरोध नहीं कर रहे थे, क्योंकि उनका सीपीआई से जुड़ाव था, और तब सीपीआई और सोवियत संघ आपात काल के समर्थक थे। इस अपराध के लिए नामवर जी को सरेराह धोती खींच कर नंगा करने का प्रयत्न किया गया।

यूनियन के लोग और उनकी सह पर छात्र किसी का अदब लिहाज नहीं रखते, जिसे वे कहते हैं कि यहाँ अध्यापकों और छात्रों में याराना चलता है, मेरी समझ से उसका सारसत्य यूनियन के माध्यम से पैदा किया गया यह दहशत का माहौल है और इसमें किसी को पहनी मर्यादा की जिंता नहीं।

इसके बाद कोई न कोई हंगामा करके अटपटे आचरण की न्यूजवैल्यू के कारण प्रचार पाने का रास्ता अपनाने और राजनीतिक दलों में सुरंग बनाने का एक क्रम चल रहा है। कथन या करनी जितनी अधिक उत्तेजक, अनर्गल और गैरजिम्मेदाराना हो नाम उतनी ही तेजी से उछलेगा। भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्ला इंशा अल्ला, या आजादी आजादी, कश्मीर का फैसला. सीएए, रजिस्ट्रार ने यूनियन की अनुमति के बिना, फीस कैसे बढ़ा दी । कारण कोई भी हंगामा ऐसा होना चाहिए कि लंबे समय तक सुर्खियों में छाए रहें। जेएनयू से आरंभ हुई यह व्याधि संक्रामक रूप ले कर कितनी तेजी से हैदराबाद, यादवॉपुर आदि में फैली है, इससे हम अवगत हैं। अध्ययन का कितना समय बर्वाद हुआ है, गैरजिम्मेदाराना काम और बयान और मनचलापन कितना बढ़ा है इसका हिसाब जिन्हें करना हो करें। इसे मैं हंगामेबाजी मानता हूँ।

शिक्षा के दो काम हैं ज्ञान देना और संस्कार देना और लोकतांत्रिक देश में अधिक समझदार और जिम्मेदार नागरिक पैदा करना। इसके अभाव में देश का क्या हाल है, हमारे सामने है।

मैं कोई काम या कथन जल्दबाजी में, उत्तेजना में नहीं करता, इसलिए जहाँ भी मतभेद हो बहस की जानी चाहिए। फेसबुक से अच्छा मंच इसके लिए नहीं है।

Post – 2020-01-18

गलतफहमी यह है कि कबीर, तुलसी, भारतेंदु, राहुल, रामविलास शर्मा की तरह मैं अपने समय का अकेला ऐक्चिविस्ट साहित्यकार हूँ, जिसकी लिखित और प्रकाशित घोषणा मैंने 1970 में प्रकाशित ‘अपने समानान्तर’ की पहली कविता में की थी, जिसमें रचे हुए जुमले दुहराने वालों के विषय में लिखा था ‘कोढ़ियों की तरह शब्द थूकने वाले लोग, और स्वयं के पूर्ववर्ती रचना कर्म को भी उसी में गिना था :
लो मैने बन्द कर दिया कोढ़ियों की तरह
शब्द थूकते रहना
मैं खोलने जा रहा हूँ
कुछ खतरनाक शब्दों की जंजीरें
ये तुम्हें काटेंगे
और जिन्दा छोड़ देंगे
ताउम्र भौंकने के लिए।

भौंकने वालों से इतनी देर में पाला पड़ा, हैरानी इस बात की है।

Post – 2020-01-18

गालियाें, जख्मों से, बदनामियों, गुमनामियों से।
बच के रहते हैं जो, सड़ने को भी तैयार हैं वे ।।
सोचते हैं नहीं, हैं मानते लश्कर बन कर ।
फौज बन कर भी हैं, अनसेफ, और लाचार हैं वे।।

Post – 2020-01-18

सुनो, उसकी भी सुनो, जो कि गलत लगता है।
तुम सही कब थे कि औरों को सही चाहते हो।।
नहीं, भगवान को, अपना न बना पाओगे
जैसे तुम हो, वही, वह भी हो, यही चाहते हो!

Post – 2020-01-18

मैं ऐसे सभी लोगों को अनफ्रेड करने को आमंत्रित करता हूँ जो जेएनयू को हंगामेबाजी का ट्रेनिग कैंपस बनाने पर आमादा हैं।

Post – 2020-01-17

इतिहासदर्शन की समस्या

इतिहास दर्शन (फिलॉसॉफी ऑफ हिस्ट्री) पद का प्रयोग सबसे पहले वॉल्तेयर ने किया था, इतिहास तलाशने वाले इसकी खोज में हरिदत्त (Herodotus) तक पहुँच जाते है, परंतु यह सोचने की जरूरत नहीं समझते कि उनका इतिहास किसका अगला चरण है। क्या गाथा, पुराण और नाराशंसी का इतिहास से कोई संबंध है जिसका उल्लेख ऋग्वेद में आया है।[1]

आरंभ परिपक्वता से नहीं होता , होता किसी बीज या शुक्राणु, परागरेणु से ही है। फूल आकाश से नहीं टपकता है, फल स्वयं फलीभूत नहीं होता है, आदमी जवान पैदा नहीं होता है, सभ्यताएं लगभग परिपक्व पैदा नहीं होती हैं।

पाश्चात्य अहंकार का एक रूप यह भी है अपनी परिपक्व अवस्था में भी आज तक किसी ने यह सोचने की कोशिश नहीं की कि बनी बनाई ग्रीक सभ्यता कहां से टपक गई? उसका कोई, पूर्वरूप, कोइ इतिहास तो होना चाहिए।

इतिहास को किस डर से तलाशने की कोशिश नहीं की गई? नहीं यह भी अधूरा सच है, पूरा सच यह है कि, डरते कांँते हुए ही सही, विलियम जोंस ने, ग्रीक सभ्यता की पूर्वपीठिका के रूप में हिन्दू (भारतीय) चिंतन और ब्राह्मणों (भारतीय संस्कृत भाषाभाषियों) को तलाश तो किया था, फिर ज्ञान के आवेश में,अहंकारवश, उसे मिटाने की लगातार कोशिशें क्यों की जाती रहीं। भाषाविज्ञान को नई तरकीबों से विश्वसनीय बनाने की कोशिश में, वाहियात बनाने का काम उन्होंने किया जो समझते हैं कि ज्ञान विज्ञान की दृष्टि से वे आज शिखर पर पहुंचे हुए हैं।

नहीं, शिखर पर नहीं अपने संसाधनों के बल पर अनेक तकरीरों, तस्वीरों की बाढ़ में असहमति की आवाज को दबाने की तरकीबों, तकरीरों, लेखों, पुस्तकों संचार माध्यमों पर प्रत्यक्ष और परोक्ष नियंत्रण से (क्या कोई बता सकता है कि हमारे संचार माध्यमों में से किनको कहाँ कहाँ से कितना पैसा किन किन तरीकों से ऐंकर से ले कर चैनल तक कैसे पहुँचता है) दबंगई के शिकार हुए हैं और कई तरह की मूर्खता बहुत आसानी से उनके चिंतन में आ सकती हैं और रेखाकित की जा सकती हैं।

पश्चिम हमसे बहुत आगे बढ़ा हुआ है यह सच है; पश्चिम से बच कर नहीं, शिष्यभाव से उससे सीखकर और आत्मसात् करके, जिसके लिए मुक्तिबोध ने आभ्यन्तरीकरण, अर्थात् अपने बौद्धिक उपापचयतंत्र से अनुकूलित करके ही अपने लिए उपयोगी बनाने की बात की थी और इसी तरह कुछ दृष्टियों से उनसे आगे बढ़ते हुए, अपनी नई सैद्धान्तिकी विकसित करते हुए उनकी समकक्षता में आया और आगे बढ़ा जा सकता है, न कि नकल करके, जिसको अंग्रेजी पत्रकारिता ने बढ़ावा ही नहीं दिया है. अपितु यह प्रचारित किया है कि इसके अतिरिक्त कोई रास्ता ही नहीं है।

इतिहास-दर्शन की जरूरत सूचना के विभिन्न स्रोतों के माध्यम से उस विकास रेखा को समझने के लिए इसलिए पड़ती है कि हम जाने हुए को अधिक बारीकी से जान सकें और जो कुछ मानते रहे हैं उसके बंधनों से यथासंभव बाहर आ सकें।

यह समस्या पहली बार सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उस समय उभरी थी, जब, सर विलियम जोंस ने, अपने अनुमान के आधार पर एक स्थापना दे दी थी और स्थापना के समर्थन में अपने ऊहापोह में ऐसे स्रोतों से उन कालों के यथार्थ को जानने की कोशिश कर रहे थे, जिनमें से किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता था, और फिर भी उन्हीं के माध्यम से उनके यथार्थ की, यथासंभव, सही तस्वीर उकेरने की जरूरत थी। उपलब्ध सामग्री से उस सत्य तक पहुंचना, और इस तरह पहुँचना कि सुनने वालों या पढ़ने वालों को यह विश्वास हो सके कि सच्चाई यही है, संभव हो सके । नाम जिसने भी दिया हो, संदिग्ध सामग्री के अनर्गल के परिष्कार से सचाई तक पहुंचने की चुनौती इससे पहले नहीं आई थी।

[इस चुनौती को और भी चुनौती पूर्ण जेम्स मिल के इतिहास में बना दिया। जहां विलियम जोंस का प्रयत्न पाश्चात्य वर्चस्व को बनाए रखते हुए, एक भिन्न मूल्य व्यवस्था में अतीत के अनुभवों को अपने विशेष ढंग से सुरक्षित करने की युक्तियों के माध्यम से सत्य तक पहुंचने का था, वहां वर्चस्व की व्याधि से पीड़ित जेम्स मिल की झक उस अपमान का बदला लेने और उन सभी मामलों में जोंस को गलत और भारतीय सभ्यता को गर्हित सिद्ध करने के इरादे से ही भारत का इतिहास लिखने को कटिबद्ध हो गए थे।

इससे जानने और जाने हुए को नकारने के बीच एक ऐसा द्वन्द पैदा हुआ जिससे यह चुनौती अधिक उग्र हो गई के इतिहासकार के अनुग्रह, आग्रह, दुराग्रह, परिग्रह और निषेध के कारण आधार सामग्री वही होते हुए भी, उनके द्वारा लिए गए निष्कर्षों के कारण, उस पर उससे अधिक संदेह पैदा होता है, जितना अविश्वसनीय स्रोत के कारण। ऐसे में इतिहास दर्शन की परिधि में सूचना के स्रोत ही नहीं, इतिहास के अपने नियम और विधान ही नहीं, इतिहासकार की नीयत और विचार दृष्टि को भी परखना इतिहास दर्शन की परिधि में आता है। इसी तरह विविध सीमाओं और चुनौतियों के क्रम में इतिहास पर विचार करने की इतनी विविध दृष्टियाँ हो गई कि उनका नाम गिनाने चलें तो, न तो नामों की संख्या पूरी होगी, न ही आप के पल्ले कुछ पड़ेगा। सत्य से भटक कर हम सत्य की परिभाषा में उलझ जाएंगे। इतिहासदर्शन की व्याख्या करना हमारा प्रयोजन ही नहीं है ना हम अपने को इतिहास दार्शनिक मानने का भ्रम पाल सकते हैं।

फिर भी इतिहास पर कलम चलाने वाले को यह तो सोचना ही पड़ता है इतिहास से उसका मतलब क्या है। जिस तरह अपनी याददाश्त खो चुका व्यक्ति अपने को सँभाल नहीं सकता, व्यग्र रहता है, उसी तरह अपने इतिहास को भूलने वाला समाज भी व्यग्र और और विभ्रमित रहता है।
जिन समाजों ने किसी भी चरण पर महान उपलब्धियाँ की हों, महान सभ्यताओं को जन्म दिया हो, उसके पास इतिहास तो अवश्य था, भले उसकी इतिहास की समझ ठीक वही न हो जो किसी दूसरे समाज की हो या किसी दूसरे चरण पर हो। आपकी काल की अवधारणा और उसकी काल की अवधारणा में अंतर हो।

प्राचीन काल की किसी भी सभ्यता में उस तरह का इतिहास नहीं था जिसे आज हम इतिहास कहते हैं। सफल समाज अपने सभी मूल्यों को आदर्श मान बैठता है और इन्हीं कारणों से पिछड़ गए समाजों को उन मानकों के अभाव का परिणाम मान लेता है। यह आत्मरति का एक रूप है।

अपने से भिन्न मूल्य व्यवस्था, जलवायु, रूचि, परिवेश, भाषा, संस्कृति और जीवनशैली को समझने की योग्यता एक परिपक्व समाज की पहचान है और इसका अभाव उसकी अपरिपक्वता को दर्शाता है, भले ही वह कितना भी आगे क्यों न बढ़ा हो। सईद ने अपने लेखन में इसी कारण प्राच्यवाद को चुनौती दी थी।[2]

जहां विलियम जोंस अपनी सीमा में अन्य समाजों की विशिष्टताओं को समझने का प्रयत्न करते हैं वहां मिल इसे असह्य पाते हैं। वह शुरू ही इस बात से करते हैं कि असभ्य समाजों में हर चीज को बढ़ा चढ़ाकर कर बयान किया जाता है, और यह प्रवृत्ति सभी सभ्यताओं पाई जाती है, इसलिए वे सभ्यताएं नहीं हैं, असभ्यताएँ हैं।
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[1] सना पुराणं अध्येमि आरात् महः पितुः जनितुः जामि तत् नः, 3.54.9
अयं पन्था अनुवित्तः पुराणो यतो देवा उदजायन्त विश्वे ।
अतश्चिदा जनिषीष्ट प्रवृद्धो मा मातरम् अमुया पत्तवे कः ।। 4.18.1
चाक्लिप्रे तेन ऋषयो मनुष्या यज्ञे जाते पितरो नो पुराणे ।
पश्यन् मन्ये मनसा चक्षसा तान् य इमं यज्ञमयजन्त पूर्वे ।। 10.130.6
तं गाथया पुराण्या पुनानमभ्यनूषत् ।
उतो कृपन्त धीतयो देवानां नाम बिभ्रतीः ।। 9.99.4
रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी नि ओचनी ।
सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथया एति परिष्कृतम् ।। 10.85.6

[2] The ideas of Oriental despotism, Asian overpopulation, and Chinese stagnation have encouraged a cartoonish replacement of the intricate and diverse processes of development of different parts of Asia by a single-dimensional and reductive set of simplifying frameworks of thought. This is one of the points of Edward Said’s critique of orientalism (Said 1978). So doing “global” history means paying rigorous attention to the specificities of social, political, and cultural arrangements in other parts of the world besides Europe.
So a historiography that takes global diversity seriously should be expected to be more agnostic about patterns of development, and more open to discovery of surprising patterns, twists, and variations in the experiences of India, China, Indochina, the Arab world, the Ottoman Empire, and Sub-Saharan Africa. Variation and complexity are what we should expect, not stereotyped simplicity. (Stanford Encyclopedia of historiography)

Post – 2020-01-16

शुरू जहाँ भी हुई बात यहाँ पहुँची है-

सामना हो तो कहेंगे हजार साल जिओ
पर गरेबाँ का, गिरह का हिसाब रखते हैं।
यह मुहब्बत है तो नफरत भी पशेमाँ हो जाय
नाम नफरत का भी प्यारा जनाब रखते हैं।।
जिन्दगी अपनी किसी शर्त पर अपनी तो न थी
खयाल उन पर छोड़ कर भी ख्वाब रखते हैं।।
आप ले जाएँ, रोशनी को अगर सह पाएँ
हम आप का दिया अपना सुराब रखते हैं।।
चाँद प्यारा है हमें आपकी खुशी के लिए
हम अपने पास सिर्फ आफ़ताब रखते है।।
हुस्न की वादियों में फूल हर कदम पर हैं
गमक हर एक की हम ही सँभाल रखते हैं।।
याद किस दौर की जोड़े है आज भी हमको
क्या कभी आप भी इसका खयाल रखते हैं?

Post – 2020-01-16

शायरी सूझी तो दिमाग बन्द। आज की पोस्ट गई।

सामना हो तो कहेंगे हजार साल जिओ
पर गरेबाँ का, गिरह का हिसाब रखते हैं।
यह मुहब्बत है तो नफरत भी पशेमाँ हो जाय
नाम नफरत का भी प्यारा जनाब रखते हैं।।

Post – 2020-01-15

इतिहास के खुले खेत में साँड़ (3)
परिचय (2)

मिल के व्यक्तित्व का दूसरा पक्ष यह है कि वह डूगल्ड स्टीवर्ट के शिष्य थे। स्टीवर्ट के बारे में हम जानते हैं कि वह असाधारण प्रतिभा के विद्वान थे। एक शिक्षक के रूप में उनकी ख्याति ऐसी कि अनेक देशों के छात्र उनके आकर्षण से ग्लासगो विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए आया करते थे। वह दार्शनिक थे, इसके बावजूद वह इतनी बेतुकी बात सोच सके कि संस्कृत भाषा का निर्माण भारत के धूर्त ब्राह्मणों ने, ग्रीक की नकल कर के, किया था। हैरानी इस बात पर होती है कि वह मानते हैं कि इसमें लंबा समय नहीं लगा होगा, यह एक झटके में किया जा सकता था।

हम देख आए हैं कि ठीक उसी स्वर में मिल भी पंचत्रंत जैसी कहानियों की रचना के आधार पर ब्राह्मणों को परले सिरे का धूर्त सिद्ध करने लगते हैं । अपने समय की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा के दावेदार इन विद्वानों की यह व्याकुलता, जिसमें वे सभी मर्यादाएँ लाँघ जाते हैं, यहां तक कि अपनी विश्वसनीयता भी दांव पर लगा देते हैं, किस बात का प्रमाण है?

यह बेचैनी इन दो व्यक्तियों की नहीं हो सकती, यह उस ग्लानि और अपमान बोध का परिणाम है जो पूरे यूरोप में या कहें पूरे ईसाई जगत में हिंदुत्व, और इसके मानवीय मूल्यों-मानोंं के समक्ष अंतर्ध्वस्त हो रही थी। पुरातात्विक और अभिलेखीय प्रमाणों के तब तक सुलभ न होने के बाद भी, उसकी उन्नत भाषा के अकाट्य प्रमाणों से कल्पनीय सभ्यता के सामने सुदूर अतीत में अपनी सर्वमुखी हीनता को सहन करना भारी पड़ रहा था। कारण भाषा के अतिरिक्त देव शास्त्र, ज्ञान- विज्ञान दर्शन सभी मामलों में ग्रीक सभ्यता भी, जिस पर उन्हें गर्व था, भारत की ऋणी सिद्ध हो रही थी और यह गोरी चमड़ी के लोगों के उस अहंकार को, एक आघात में चूर चूर कर रही थी, जिसमें निगर या काला अपमान सूचक पद था। यह उसी की छटपटाहट थी।

यदि दूसरे सभी मामलों में पिछड़े सिद्ध होने के बाद भी मजहब के मामले में ईसाइयत को प्रथम दृष्टि में हिंदुत्व से उत्कृष्ट सिद्ध किया जा सकता तो संभव है यह अपमान बोध इतना असह्य न प्रतीत होता। धर्म की श्रेष्ठता के लिए उन्होंने एक पर एक जाने कितने धर्मयुद्ध ठाने थे और अन्तिम के अलावा जो विजय गाथों की पहल से मिली जो रक्त से एशियाई थे, लगातार हार का मुँह देखना पड़ा था। इसका दंश पूरे यूरोप में व्याप्त था। पर इस बार बिना किसी बलप्रयोग के, हिंदुत्व की मात्र उपस्थिति ही उसे ध्वस्त कर रही थी।

यह अकारण नहीं था कि वे अपनी झुंझलाहट में दूसरे सभी बयानों को खारिज करते हुए केवल मिशनरियों की भारत संबंधी रपटों के आधार पर अपना मंतव्य प्रकट कर रहे थे। मिशनरियों की परेशानी यह थी कि उनके धर्म प्रचार के मार्ग में, उनकी समझ से, ब्राह्मण सबसे अधिक बाधक थे। यही कारण है की सामान्य बोध से परे जाकर, दार्शनिक कहे जाने इन दोनों लोगों ने, और विशेषकर डूगल्ड स्टीवर्ट ने, जो सामान्यबोध के दर्शन (आत्मवादियों और बुद्धिवादियों के विरोध में उत्पन्न कामनसेंस फिलॉसॉफी के प्रख्यात दार्शनिकों में थे) ठीक उस मौके पर मोटी समझ से काम न लिया, जब इसकी सबसे अधिक जरूरत थी।

मिल को क्षमा किया जा सकता है क्योंकि वह उपयोगितावादी दर्शन के प्रवर्तकों में से एक थे और दर्शन के मामले में अपने गुरु के आलोचक भी थे। संभवत यही कारण होगा कि, यद्यपि संस्कृत भाषा से उत्पन्न समस्या पर उन्होंने अपने अंतिम दिनों में अपने विचार प्रकट किए थे, जबकि इसे 1820 में पक्षाघात से उबरने के बाद, लगभग अपने अंतिम समय में लिखा था, जो उनकी ग्रंथ माला के अंतिम खंड में संग्रहीत है। उससे पहले मिल का इतिहास प्रकाशित हो चुका था पर उन्होंने मिल का एक बार भी हवाला नहीं दिया है जबकि दूसरों के विचारों पर अपनी टिप्पणियाँ दी हैं, और अपनी पुस्तक में विभिन्न प्रसंगों में, मिल ने उनको तीन बार याद किया है।

मिल उपयोगितावादी दर्शन के दो प्रणेताओं में से एक हैं, दूसरे चिंतक थे जर्मी बेंथम जो कुछ दिनों तक उनके साथ भी रहे थे और उसी बीच उन्होंने इस दर्शन का प्रतिपादन किया था।[1] इस दर्शन को अपनी पूर्णता में उनके पुत्र ने पहुंचाया और जिसके नाम की समानता के कारण कई बार पुत्र का श्रेय पिता को भी मिल जाता है, परंतु उनके समय में दर्शन का रूप यह था कि ‘मनुष्य दुख से बचना चाहता है और सुख पाना चाहता है, अपनी सभी क्रियाओं – सोचने, बोलने, काम करने और अभियान करने- में इसका निर्वाह करता है, इसलिए यही आदर्श जीवन-दर्शन होना चाहिए। आचार दर्शन, मॉरल फिलासफी के प्रोफेसर को यदि यह मौज-मस्तीवाद (हेडोनिज्म) अरुचिकर लगा हो तो यह गलत न होगा। इस दर्शन में अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख की आड़ तो ली गई थी, परंतु जहाँ अपने आनंद और दूसरे के आनंद में टकराव हो जाए, वहाँ पराए सुख और सम्मान के लिए इस दर्शन में कोई स्थान नहीं था, और निर्णय के क्षणों में अपने और पराए सुख के बीच चुनाव अपने सुख के पक्ष में ही जा सकता था।

कहते हैं मार्क्स स्टूअर्ट मिल के प्रभाव में इस सीमा तक थे कि इंग्लैंड प्रवास के दिनों में उनकी अनेक डायरियों में से एक डायरी मिल के उद्धरणों से भरी हुई थीं।[2]

विचित्र विडंबना है, मार्क्स ने मिल को आत्मवादियों और सामान्य बुद्धि वादियों के खिलाफ पाकर, अपने लिए, अनुकरणीय पाया, क्योंकि भारत के विषय में उनकी जानकारी गौण साक्ष्यों के आधार पर ही हो सकती थी और उसमें वह उन्हें विश्वसनीय लगे। दोनों ने एक ही जुमले में प्राचीन भारत की विशेषताओं को रेखांकित किया था – प्राच्य स्वेच्छाचारिता और आधुनिक हिंदू मार्क्सवादियो ने उसी मिल को अपना आदर्श बना कर प्राचीन भारत का इतिहास लिखा और आज तक, यह सिद्ध हो जाने के बाद भी, कि जेम्स मिल कंपनी के हितों के लिए गोरी जाति की प्रतिष्ठा के लिए, और अपने को दूसरों से अलग दिखाने के लिए, किसी सीमा तक आगे बढ़ सकता था और उसकी इसी निष्ठा के कारण, उसे कंपनी में भारतीय मामलों के सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था, उसी का अनुसरण करते रहे।

इतिहास का वर्तमान से गहरा रिश्ता है। वर्तमान के अनुभवों से हम इतिहास को समझते हैं और इतिहास के विश्लेषण से वर्तमान को समझते हैं।

ऐसी स्थिति में. हिंदू और हिंदुत्व के प्रति मार्क्सवादी परहेज और सोनिया संचालित कांग्रेस के हिंदुत्व विरोध को समझना जरूरी हो जाता है। क्या इसका कारण यह नहीं है कि हिंदू संगठन वनांचलों से लेकर पिछड़े वर्ग तक ईसाइयत के प्रचार और धर्मांतरण अभियान में बाधक बन रहे हैं? आशंका मेरी है। उत्तर आप को तलाशना है। मुझे पता चले तो कायल होने पर मैं अपने विचारों में परिवर्तन करूंगा।
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[1] The Classical Utilitarians, Jeremy Bentham and John Stuart Mill, identified the good with pleasure, so, like Epicurus, were hedonists about value. They also held that we ought to maximize the good, that is, bring about ‘the greatest amount of good for the greatest number’.
[2] मुझे यह समझने में कठिनाई होती रही है कि यह जेम्स स्टुअर्ट मिल है या उनके पुत्र जान स्टुअर्ट मिल, परंतु मिल के ओरिएंटल डेसपोटिज्म ( प्राच्य प्राधिकारवाद) की अवधारणा जेम्स स्टुअर्ट मिल की थी और इसे भारतीय इतिहास की मिल की समझ और इस मुहावरे के साथ मार्क्स ने अपना लिया था. इसलिए मानना होगा कि जेम्स मिल ही थे।

Post – 2020-01-14

इतिहास के खुले खेत में साँड़ (2)
परिचय

मिल एक साधारण परिवार में पैदा हुए थे। पिता मोची का काम करते थे। शिक्षा से उनका विशेष लगाव न था। मां शिक्षित और बहुत दूरदर्शी थीं। छोटी उम्र से ही उन्हें, अन्य विषयों की तरह लातिन और ग्रीक की भी शिक्षा आरंभ करा दी थी। वह बहुत कुशाग्र थे।

कुशाग्रता, प्रतिभा के अन्य रूपों की तरह, प्रकृति का वरदान है; शक्ति का एक रूप है और इसे नियंत्रित करने के लिए उतने ही प्रबल आत्मसंयम और विनम्रता की आवश्यकता होती है, जिसके अभाव में यह विजिगीषा (विजय की कामना) को भी जन्म देती है, और व्यक्ति जीत कर भी हार जाता है, क्योंकि विजय की आकांक्षा में वह तर्क और कुतर्क सबका सहारा लेकर विरोधी को ध्वस्त तो कर देता है, परंतु सदा न्याय के पक्ष में अडिग नहीं रह पाता। वह जो भी है, जैसा भी है, सही है। दूसरों को वही स्वीकार करना पड़ेगा, जिसे वह सही मानता है।

यह कमी जो दूसरे पक्ष के, दृष्टिकोण को समझने में बाधक ही नहीं बनती, अपने को, हर हालत में, किसी भी कीमत पर, सही सिद्ध करने की आदत का रूप ले लेती है। दूसरी लतों की तरह, यह भी एक व्याधि है। ऐसी उपलब्धि अस्थाई होती है, आतंक पैदा करने वाली होती है, पर खोखली होती है। संभवतः धार्मिकता के कारण नहीं, दूसरों को अपनी मान्यता का कायल करने की क्षमता में अतिविश्वास के कारण, मिल ने पहले धर्म प्रचारक होने की तैयारी की थी; उनकी तार्किकता ने उन्हें अनीश्वरवादी बना दिया। उनको समझने में दामोदर धर्मानंद कोसंबी हमारी मदद कर सकते हैं, क्योंकि मिजाज की अकड़ में, जबान के तीखेपन में, छिद्रान्वेषण में वह उनके निकट ही नहीं पड़ते, बल्कि उनके मुरीद भी लगते हैं।

कोसंबी को संभवतः मुहम्मद हबीब ने हिस्ट्री आफ ब्रिटिश इंडिया पढ़ने की सलाह दी, तो मिल उन्हें इतने पसंद आए कि वह अपने क्षेत्र को छोड़कर, इतिहास के मैदान में कूद पड़े और ठीक मिल के ही नमूने पर, उन्हीं की तरह, प्रत्यक्ष की उपेक्षा कर, मॉडल तलाशते हुए, भारतीय इतिहास का कल्याण कर दिया, और यही मार्क्सवादी इतिहास का मानक बन गया। मुहम्मद हबीब इस बात पर जोर देते थे कि प्रामाणिक इतिहास के लिए स्रोत भाषा का आधिकारिक ज्ञान जरूरी है, और मूल स्रोत की समझ जरूरी है। कोसंबी ने उनकी इस सलाह पर भी ध्यान दिया, परंतु अवांतर क्षेत्र के लिए जितना समय दे सकते थे, उसी सीमा में अपनी प्रतिभा के बल पर हर उलझन का वारा-न्यारा करते रहे। हमारी जानकारी में इस पक्ष पर जोर देने वाले पहले व्यक्ति विलियम जोंस हैं, जिनका मानना था कि किसी देश या समाज का इतिहास उसकी भाषा या भाषाओं का आधिकारिक ज्ञान हुए बिना लिखा ही नहीं जा सकता, तारतारी के मामले में उन्हें भी गौण स्रोतों का सहारा लेना पड़ा और वहीं उन्होंने सबसे बड़ी चूक की।

जो भी हो, कोसंबी को भी ठीक उसी अभाव का सामना करना पड़ा, जिसका सामना मिल ने किया था। उन्होंने पाया कि भारत में कहने को इतिहास तो है, परंतु वह इतिहास हो ही नहीं सकता, क्योंकि वह जनवादी इतिहास तो, है ही नहीं। उन्हें भी प्राचीन भारत की सामग्री में ऐतिहासिक सामग्री के अभाव का वही संकट सामने आया था, जो मिल के सामने आया था । यदि वह किसी इतिहासकार का नाम लेते हैं तो वह मिल हैं और किसी इतिहास-दार्शनिक का नाम लेते हैं तो वह कार हैं। इस पर हम आगे विचार करेंगे। मिल को ब्रिटिश उपनिवेश का इतिहास लिखना था, कोसंबी को अपने देश का। मिल को अंग्रेजी प्रभुत्व के अनुसार भारत को समझना था और कोसंबी को सर्वहारा को इतिहास के रचयिता की भूमिका में रखते हुए अपना इतिहास लिखना था।

उपनिवेशवाद और जनवाद में क्या इतनी निकटता होती है कि एक के औजार से दूसरे का इतिहास लिखा जा सके?

मॉडलों के आधार पर लिखा गया इतिहास, इतिहास का सत्यानाश होता है। धरती संतरे का तरह गोल है, गोल पर सिरों पर पिचकी हुई, यह धरती की बाह्य आकृति को समझने में सहायक है, परंतु यदि हम संतरे के गुणों के अनुसार धरती को समझने चलें तो प्रकृति को और प्राकृतिक उपद्रवों को भी नहीं समझ पाएँगे और त्रासदी के जनक बन कर रह जाएँगे। प्राचीन भारतीय इतिहास का सत्यानाश केवल दो ही बार किया गया, पहली बार मिल के द्वारा, दूसरी बार कोसंबी के द्वारा; परंतु दोनों अपनी अनूठी तार्किकता के कारण सत्ता के बल पर लंबे समय तक इतिहासकार न होते हुए भी ‘मूर्तिमान इतिहास’ बन कर छाए रहे। [1]

यदि हम विलियम जोंस से मिल की तुलना करें तो तार्किकता में, सोच की आधुनिकता में, वह जोंस से बहुत आगे पड़ेंगे। परन्तु अगला सच यह भी है कि वह विलियम जोंस से एक पीढ़ी बाद पैदा हुए थे। सचाई का दूसरा आयाम यह है कि विलियम जोंस अपनी सीमाओं में भी जितने बड़े लगते हैं, क्योंकि उनमें प्रतिभा, तत्कालीन ज्ञान पर अधिकार के साथ, उनमें विनम्रता भी थी, अपर पक्ष को समझने की सदाशयता भी थी . इसके कारण जोंस जहाँ गलत हैं वहाँ भी सत्यान्वेषी लगते हैं और मिल जहाँ सही हैं वहाँ भी इसके अभाव के कारण धूर्त लगते हैं। इतिहासकार की सबसे बड़ी निधि उसकी विश्वसनीयता है। इस कसौटी पर अपनी विफलताओं के बाद भी विलियम जोंस बहुत ऊपर सिद्ध होते हैं।

कल्पना करें, एक आदमी किसी समाज को देखे बिना भी उसका सही इतिहास लिखने का दावा करता है। यह पूरी तरह गलत नहीं है। यदि इस बंधन को मान लें तो उन कालों का इतिहास उस देश के लोग भी नहीं जानते। पर समाज को जानना जिन लोगों को हम देख और समझ पाए हैं, उसके आधार पर समझना नहीं है, यह उस मूल्य प्रणाली को समझना और यह पड़ताल करना है कि किन परिस्थितियों में इनका निर्माण हुआ था और कहाँ तक वर्तमान समाज में उनका निर्वाह किया जा रहा है। मिल को अपनी प्रतिभा पर इतना भरोसा है कि वह दोनों की उपेक्षा करते हुए अपने निर्णय पर पहुँचना चाहते थे।

दूसरी समस्या भाषा को जानने की थी। जोंस ने संस्कृत का परिचयात्मक ज्ञान प्राप्त करने से पहले प्राचीन भारत के विषय में कुछ नहीं कहा। मिल इसको जरूरी ही नहीं मानते। इसका अर्थ है पकवानों से पकवान बनाना। गौण स्रोतों के बीच अपने इरादे के अनुसार विचारों का संयोजन करना।
इन स्रोतों में भी ईसाई मिशनरियों की रपटों को प्रमाण मानना,जो ईसाइयत से भिन्न किसी समाज को समझ ही नहीं सकते थे, इसलिए वे उन्हें बर्बर दिखाई देते थे।

सबसे रोचक है उनकी यह मान्यता कि दूर रह कर, उन अभिलेखों और पार्लमेंट के अभिलेखों के आधार पर भारत का अधिक निष्पक्ष इतिहास लिखा जा सकता है। सचाई यह है कि इससे कंपनी की लूट की योजनाओं को एक सीमा तक समझा जा सकता था, परंतु प्राचीन भारत को नहीं समझा जा सकता था।

मिल को ऐसा लगता था कि भारत के विषय में इतनी विपुल सामग्री यूरोपीय भाषाओं में एकत्र हो चुकी है कि भारत की किसी भाषा को जानने की आवश्यकता नहीं, जब कि उस समय तक हिमशैल की चोटी तक दिखाई नहीं दे रही थी।

साहित्य को समझने की क्षमता का मिल में इस सीमा तक अभाव था, या भारत के विषय में उनके पूर्वाग्रह इतने प्रबल थे, कि जिस पंचतंत्र को दूसरे देश ज्ञान का कोश मानते थे, उन्हें वह ब्राह्मणों की दुःसाहसिक धूर्तता का प्रमाण मानते थे। जिस कालिदास के शाकुंतलम् को पढ़ कर दांते विभोर थे, वह उन्हें वाहियात प्रतीत हो रहा था।

[1] हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया आई सी एस के कोर्स में थी। इसी कारण यह जिसके लिए मोहम्मद हबीब तैयारी कर रहे थे (जिसे मौलाना मोहम्मद अली के सुझाव पर छोड़ दिया था और इतिहासकार के अध्ययन और अध्यापन को वरीयता दी थी, क्योंकि इतिहास मनुष्य के मस्तिष्क को नियंत्रित करने वाला वाला ज्ञान है) कुछ साल जामिया मिलिया में अध्यापन करने के बाद वह रीडर के रूप में अलीगढ़ वि.वि. में आए थे और दो साल बाद प्रोफेसर हो गए थे। कोसंबी के अलीगढ़ में अध्यापक के रूप में पहुँचने के समय में, वह सबसे प्रभावशाली व्यक्ति थे, उनके चुंबकीय आकर्षण से कोसंबी बच ही नहीं सकते थे। कोसंबी के इतिहास में रुचि उनके संपर्क में ही हुआ लगता है। जो भी हो वह मार्क्सवादी इतहास के जनक के रूप में राजकीय सहयोग से ज्ञान-सत्ता पर मार्क्सवादी एकाधिपत्य के चलते पढ़े पढ़ाए जाते रहे।

( जारी)