Post – 2019-12-09

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (34)
नवजागरण की प्रतीक्षा

सच अधूरा नहीं होता, वह केवल होता है। सच का कोई भी घटक अपने आप में पूरा सच होता है। जहां उसे नष्ट कर दिया जाता है वहाँ भी वह यह व्यक्त करता है कि वह किसी समग्र का टूटा हुआ हिस्सा है। वह स्वतः प्रमाण होता है। उसे प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। मूल रूप में इस बात की मांग करता है कि यदि उसे जानना है तो, उसके खोए हुए, बिखरे हुए, टूटे हुए, समग्र को खोजों, उससे मिलाओ, जोड़ो। जहां उसके अपने खंड मिलते हैं वहां एक दूसरे से इस तरह जुड़ जाते हैं कि उनको चिपकाने के लिए बीच में गोंद तक की भी जरूरत नहीं पड़ती। उनके बीच सुई तक घुसाने की फाँक नहीं बचती। सत्य आत्मदीप होता है।

प्रमाण की जरूरत झूठ के लिए होती है जिसके पास प्रमाणिकता का दावा होता है, दम नहीं होता। उन प्रमाणों के सिरे एक दूसरे से मेल नहीं खाते – अंतर्विरोधी होते हैं। कहावत है, झूठ के पांव नहीं होते। वह अपने दम पर खड़ा नहीं हो सकता। उसको टिकाए रखने के टेकों की जरूरत पड़ती है। वे टेक भी गढ़कर तैयार किए जाते हैं, इसलिए उनके भी पाँव नहीं होते, वे स्वयं भी टिक नहीं पाते, तनिक भी दबाव पड़ने पर लुढ़क जाते हैं और उन्ही के साथ वह वह पहला झूठ भी लुढ़क जाता है जिसे सहारा देने के लिए उसे गढ़ा गया था। इसलिए सहारा देने के लिए जिस झूठ को गढ़ा गया था उसे भी रुके रहने के लिए एक नए झूठ की जरूरत होती है। इस तरह झूठ को सच सिद्ध करने के लिए झूठ पर झूठ तैयार करने पड़ते हैं। इनकी ढेर लग जाती है, ढूह तैयार हो जाता है, परंतु वह किसी वास्तु का रूप नहीं ले पाता। सत्य के पिरामिड बनते हैं। झूठ का मलबा तैयार होता है और इसी को सच्चाई के ऊपर लाद कर एक ऐसा पहाड़ तैयार किया जाता है कि हम मलबे के उस पहाड़ को हटाने का साहस तक नहीं जुटा पाते। सोचते हैं कि मलबा हटाकर सत्य तक पहुंचने का रास्ता बनाया तो ऊपर का मलबा गिर कर हमें तो पीस देगा, पर सत्य सामने नहीं आ पाएगा। आत्मविश्वास की यह कमी भी उन्हीं के द्वारा पैदा की जाती है जो झूठ को सच और सच को झूठ सिद्ध करना चाहते हैं। जो लोग इसके बाद भी सच तक पहुँचने की ठानते हैं, उन्हें वे पागल करार देते हैं, बदनाम करते हैं, उनका उपहास करते हैं, उन्हें दंडित करते हैं। इसके विपरीत वे झूठ को स्वीकार कर लेने वालों को सम्मानित, पुरस्कृत और लाभान्वित करते हैं।

यही वह तरीका था, जिसका आविष्कार विलियम जोन्स ने किया था। इसके कारण सबसे पहले बंगाल के सुशिक्षित ब्राह्मणों ने यह सोचकर कि सत्ता के झूठ के सामने झुकना अधिक लाभकर है, इसे स्वीकार किया, इसके फायदे उठाए और एक आंतरिक उपनिवेशवाद आरंभ किया। इसे बंगाल पुनर्जागरण का नाम दिया गया। पुनर्जागरण के कुछ तत्व इसमें थे भी। पर क्या राजशक्ति का कारिंदा बन कर उसकी योजनाओं को क्रियान्वित करने और पुरस्कृत होने को नवजागरण कहा जा सकता है? जिसे बंगाल नवजागरण कहा जाता है, वह उपनिवेशवाद से अनुकूलित होकर, अपने लिए एक आंतरिक उपनिवेश कायम करने की कोशिश से आगे नहीं बढ़ पाया। बंगाल रेनेसां अपनी अंतर्वस्तु में अवसरवाद प्रतीत होता है। यह मेरा ख्याल है। इसकी गहराई से पड़ताल किए बिना कुछ कहने का अधिकार नहीं है, परंतु असंतुष्ट होने और अपनी आशंका प्रकट करने का अधिकार तो है ही।

इसका केवल एक उदाहरण देना चाहता हूं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह प्रस्ताव किसके द्वारा आया था, इसका भी सही हवाला नहीं दे सकता, परंतु आया था, और इसके अनुसार राष्ट्रीय ग्रंथागार की चार और शाखाएं खोलने की व्यवस्था की। इनमें से एक दिल्ली दूसरा मद्रास तीसरा मुंबई में खुलनी थी चौथे की मुझे याद नहीं। इसके अनुसार प्रकाशकों से यह अपेक्षा की गई थी कि वे जो भी पुस्तकें प्रकाशित करते हैं उनकी 5 प्रतियाँ इन पुस्तकालयों के लिए मुफ्त में भेजेंगे।

इसका विरोध करने वाले, सुनील कुमार चटर्जी थे। उनका तर्क था यदि राष्ट्र एक है तो पाँच राष्ट्रीय ग्रंथागार कैसे हो सकते हैं । जितनी अक्ल से ऐसे मामलों में अक्सर काम लिया जाता है , इस आपत्ति को स्वीकार करते हुए राष्ट्रीय ग्रंथागारों की योजना को समाप्त कर दिया गया। इस योजना को उन लोगों ने समाप्त किया, जो आगे चलकर इस देश में बहुत सारी राष्ट्रभाषाओं को स्वीकार करने जा रहे थे या कर चुके थे और हिंदी के लिए , जिसे राष्ट्रभाषा बनाने का अभियान स्वतंत्रता संग्राम का एक हिस्सा था, राज भाषा या राजकाज की भाषा का नाम चुना गया, और नाम ही रहने दिया गया। हर चंद कोशिश की गई कि राजकाज की भाषा भी न बनने पाए । इसके पीछे कौन लोग से, यह हमारे विचार की परिधि से बाहर है।

नवजागरण अपनी भाषाओं के माध्यम से आता है। ऐतिहासिक या भौगोलिक दृष्टि से दूर की कोई भाषा न नवजागरण की भाषा बन सकती है, न नए विचारों को उस पूरे समाज तक ले जा सकती है जो केवल अपनी मातृभाषा ही जानता है, और व्यापकतम साझेदारी के बिना नवजागरण नहीं आ सकता।

ऐतिहासिक या भौगोलिक दृष्टि से दूर (संस्कृत या अंग्रेजी) भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने के बाद संपन्न लोग इतना अधिक जाग जाएंगे कि अनिद्रा की बीमारी हो जाए, और बाकी समाज इस तरह सोया पड़ा रहेगा है कि उसकी आंख ही न खुले।

रामविलास जी ने, लगता है, बंगाली पुनर्जागरण की तर्ज पर ही हिंदी नवजागरण की अवधारणा पेश की। यह भी नवजागरण नहीं था। इसमें दिशा नहीं थी, सत्ता से मुक्ति की कामना मात्र थी। मुक्ति के बाद क्या? इसका खाका किसी के सामने नहीं था। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत स्वामी दयानंद थे, परंतु उन्हें भी अपने पाँव टिकाने की जमीन तलाशते हुए, जो वेद मिला, वह इतना पीछे था कि वहां अपने पाँव टिकाने पर आप सतह से नीचे चले जाते हैं।

इसलिए अनेक दबावों और आघातों के बीच बदलाव हुए, परंतु नवजागरण आने ही नहीं पाया। इसकी एक ही संभावना थी। एक ही अग्रदूत था। उसकी सही पहचान नहीं हो पाई। वह हिंदू था और उससे पहले भारतीय था, उसके सामने हिंदू मुस्लिम का भेद नहीं था। अकेला वह (गांधी) था जिनके सामने भविष्य का एक खाका था। स्वतंत्रता की सही समझ थी और उसके लिए एक ऐसी कार्ययोजना थी जिसके माध्यम से भारतीय समाज के अंतिम सिरे तक चेतना का विस्तार किया जा सकता था। परंतु, भारतीय नवजागरण का हाल यह कि वह सुविधाओं के लिए सत्ता में जगह बनाने के लिए जोगाड़ करने के लिए बनी हुई एक राष्ट्रीय संस्था के माध्यम से अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए बाध्य हुआ जिसमें दूसरे सभी उनकी महिमा के आगे झुकने को तैयार थे, परंतु अंतर्मन से उनको समझने और उनके सुझाए रास्ते पर चलने को तैयार नहीं थे।

भारतीय मानसिकता की टोह लेने के लिए और कुछ छोटी-मोटी रियायतें देकर अपनी पकड़ मजबूत रखने के लिए कांग्रेस की स्थापना 1885 में की गई, गाँधी (1893 में) अफ्रीका पहुंचे थे और वहां पर उन्होंने स्वतंत्र रूप में एक ऐसा आंदोलन आरंभ किया जिसमें नवजागरण के सभी तत्व थे। परंतु, भारतीय नवजागरण का हाल यह कि देश आंतरिक विसंगतियों और विरोधों के चलते, औपनिवेशिकता से मुक्ति के एकमात्र लक्ष्य को पाने के लिए कई रास्ते अपनाता रहा। इनमें आवेश था, पर समझ का अभाव था। कांग्रेस स्वराज्य प्राप्ति का आंदोलन बन कर रह गई, सुराज का वाहक नहीं बन सकी। नवजागरण इस देश में हुआ ही नहीं। हम आज तक सोए पड़े हैं।

बौद्धिक नेतृत्व के लिए, हमें कल के उपनिवेशवादियों, और आज के वर्चस्ववादियों पर निर्भर रहना पड़ता है। सच कहें तो इस देश में ही नहीं, उपनिवेशवाद से मुक्त हुए सभी देशों में, यदि किसी आंदोलन की जरूरत है तो वह है नवजागरण का आंदोलन, परंतु उसकी नीव ही नदारद है। यह काम बौद्धिक वर्ग का होता है, जिसका अभाव है। अपनी प्रतिभा का सौदा करके उसका लाभ उठाने वाले बुद्धिजीवी वर्ग को जो सूचना के मामले में आगे होता है और चेतना के मामले में सबसे पिछड़ा होता है, हम बौद्धिक वर्ग समझ लेते हैं। चेतना ही न रही चढ़ि चित्त तो जो गति होनी वही गति है जी।

Post – 2019-12-07

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध(33)
आनुवंशिकी और भाषाविज्ञान

आनुवंशिकी की महिमा स्वीकार करते हुए भी, मैं अपने अध्ययन से भारतीय समाज रचना को जिस रूप में समझता हूं उससे यदि वह मेल न खाए तो उसे स्वीकार करने में संकोच होता है। इसके दो कारण हैं। एक तो आनुवंशिकी के अध्येताओं को एक सीमित नमूनों के विश्लेषण के आधार पर अपने निष्कर्ष निकालने होते हैं इनमें भौगोलिक और ऐतिहासिक दृष्टि से पर्याप्त नमूने सुलभ नहीं हो सकते। भाषा विज्ञान समाज रचना को समझने में आनुवंशिकी के अध्ययनों की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय प्रतीत होता है इसे समझने में पौराणिक वृत्त भी पूरक का काम करते दिखाई देते हैं। यह संतोष की बात है कि आनुवंशिकी के अध्ययनों से भी हमारी उन मान्यताओं की पुष्टि होती है जिन्हें हमने पहली बार 1973 में अपनी पुस्तक आर्य द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता में प्रकट किया था। उस समय तक पूरा चित्र मेरे सामने उतना साफ नहीं था जितना बाद के अध्ययनों से क्रमशः होता चला गया फिर भी यह सुझाया था कि भारत में असंख्य बोलियां बोली जाती थी और पारस्परिक संपर्क के चलते सभी में कतिपय समान लक्षणों का विकास हुआ था। सभी का रूप बदला । सामाजिक आर्थिक कारणों से इनमें कुछ का कुछ बडे़ क्षेत्रों में संपर्क के लिए व्यवहार होने लगा और इस क्रम में बहुत बड़े क्षेत्र में मानक भाषाओं का उदय हुआ जिनमें अलगाव के बाद भी बहुत गहरी साझेदारियाँ हैं।

भाषाओं में यह मेलजोल सामाजिक मेलजोल को प्रकट करता है। स्थायी बस्तियों बसाने से पहले उत्तर से दक्षिण तक ही नहीं किसी न किसी अनुपात में मध्यभारत से लेकर पश्चिम की ओर भूमध्य सागर तक एक विचरण क्षेत्र था। ब्राहुई पहाड़ियों के चरवाहे कुछ समय पहले तक मध्य एशिया से लेकर पश्चिमी पाकिस्तान के मैदानी भाग विचरण किया करते थे। आहार संग्रह के दिनों में यह विचरण क्षेत्र भूमध्य सागर तक पहुंचता था परंतु यह अपवाद था।

पर्वतीय बाधाओं के कारण केवल असाधारण स्थितियों में ही कोई जत्था अलग होकर दूर तक जाता था। इस तरह एक गहन संपर्क का क्षेत्र बनता था, और दूसरा शिथिल लेन देन का दायरा तैयार होता था। गहन संपर्क के भारत में 3 क्षेत्र थे। एक पूर्वी क्षेत्र था जिसका शिथिल संपर्क एक और को सुदूर दक्षिण पूर्व एशिया (न्यूगिनी) तक था। दूसरी ओर बर्मा से लेकर तिब्बत और चीन तक। इनमें जीवन यापन के दो आधार थे। एक मनुष्य से लेकर पशु तक का शिकार कर सकता था। दूसरा बागबानी और मछियारी के मामले में आगे था। सबसे प्रधान दो संपर्क क्षेत्र थे, जिनके लिए मद्रास इंडस्ट्री और सोन इंडस्ट्री का प्रयोग किया जाता रहा है। इनके औजारों में कुछ भिन्नता लक्ष्य की गई इन दोनों का संगम स्थल मध्य भारत था। दोनों के बीच दूसरों की अपेक्षा अधिक निकटता थी।

भारत की बोलियाँ में संपर्क के इन कसे और ढ़ीले धागों के कारण सामाजिक और भाषाई अंतः-संबंधों के कई तरह के दायरे बनते हैं। भाषा विज्ञान में आदान प्रदान के कुछ क्षेत्र मिलते हैं, जिनको समवाक क्षेत्र कहा जाता है। अर्थात इनमें भाषाएं अलग है, भिन्नता इतनी है कि उन्हें भाषा विज्ञानियों ने अलग अलग परिवारों का मान लिया। इसके बाद भी कुछ साझेदारियां ऐसी है जो इन सभी में देखने में आती हैं और इनकी विशेषता यह है कि ये परिवारों की सीमा तो लाँघ जाती हैं परंतु भारत की सीमा को नहीं लग पातीं। यहां हम भारत में अविभाजित भारत की बात कर रहे हैं जिसे दक्षिण एशिया जाने लगा है।

इसे लक्ष्य करते हुए इमेनो नाम के भाषा विज्ञानी ने भारत को एक-भाषाई-क्षेत्र (India as a Linguistic Area) घोषित किया था और भाषा परिवारों में विश्वास करने के कारण वह अपनी खोज को उसकी तार्किक परिणति पर नहीं पहुंचा सके थे।

हम कह सकते हैं कि भारत लगभग समान गुणसूत्रों वाला क्षेत्र है जिसमें आंतरिक भिन्नता पाई जा सकती हैं इसके बाद भी इन सब का एक संकुल बनता है जो किसी दूसरे से अलग है । और इसका आधार बहुत प्राचीन है।
अध्ययन और ज्ञान की दो शाखाएँ एक ही विषय पर निष्कर्षो पर नहीं पहुंच सकतीं। इसलिए मैं आनुवंशिकी के अध्ययन को विनम्रता पूर्वक स्वीकार करते हुए भी, अलग-अलग अध्ययनों में यदि अलग-अलग निष्कर्ष निकाले जाते हैं तो आनुवंशिकी के वे अध्येता मेरे लिए स्वीकार्य नहीं है जिनके निष्कर्ष भाषा के अपने निष्कर्षों से मेल नहीं खाते।

मुझसे एक गलती हो रही है। यह है भाषा को नृतत्व के निकट ले जाने की, जिससे नस्लवादी सिद्धांत पैदा होता है। परंतु हमारे भाषा वैज्ञानिक अध्ययन में भाषाओं के तत्व सभी में मिले दिखाई देते हैं इसलिए इसका सामाजिक संपर्क से संबंध होते हुए भी नस्ल से कोई संबंध नहीं है।

इस मामले में हमारे पुराण भी हमारी सहायता करते हैं जो यह बताते हैं कि देव और असुर एक ही प्रजापति की संतानें हैं, जिसका मेरे लिए अर्थ होता है कि वे एक ही जनजातीय पृष्ठभूमि से निकले हैं जिनमें सभी के तत्व सभी में विद्यमान हैं। एक ही आदि पुरुष की दो पत्नियों से उनका जन्म हुआ है। यहां पत्नियाँ जीववैज्ञानिक आशय में पत्नियाँ नहीं है बल्कि जीविका के दो रूपों से संबंध रखती हैं एक है कृषि उत्पादन, श्रम और उद्योग और दूसरा है प्रकृति पर निर्भरता और मौज-मस्ती।

सामाजिक मेल मिलाप कितना गहरा रहा है इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करना चाहेंगे। बहुत प्राचीन चरण पर जब अंकगणना आदिम अवस्था में थी, एक के लिए ओं का प्रयोग होता था जिसका अर्थ ‘आदि, सबसे छोटा।. आदि के लिए प्र का प्रयोग किसी दूसरी में होता था। किसी तीसरी मे इक का। इक ने एक का रूप लिया, पर क्रमांक में प्रतम > प्रथम आ जाता है। प्र का ही किसी बोली में पह था जो पहल और पहला बना। एक से इकला/ एकला बनना चाहिए था। बना भी, चलन में भी रहा पर आपसी संपर्क से पहला एकता दोनों प्रयोग में रहे, फिर पहला भारी पड़ा, पर एक का एकमात्र में अकेला ही बचा। अं- का फर्स्ट प्र से निकला है जो लातिन और अं. में भी प्री/प्रो रूपों में पहुँचा। ओं >ओन/ ऊन के रूपों मे ढल कर एक ओर त- ओन्र -एक हुआ ऊन के रूप में संस्कृत में ही छोटा, कम या एक कम के आशय में जारी रहा। यह ऊनविंशत, उन्नीस आदि में देखा जा सकता है। लातिन मे और उसके माध्यम से अंग्रेजी में भी ओन/ऊन, वन, ओनली तथा यूनिट में बचा रहा। नव के लिए सही ऊनदश होना चाहिए था, पर ऊन वर्णविपर्यय (अक्षरों के उलटफेर) से नव हो गया। चेतना में यह बना रहा कि पहले यह ओं हुआ करता था। ओंकार के प्र-णव कहने के पीछे यही तर्क काम करता दिखाई देता है।

अभी कुछ विचारणीय पहलू और हैं। तीन से लेकर दस तक की सभी संख्याओं का अर्थ (सबसे बड़ी/ ऊँची या अंतिम भी रहा है। क्योंकि उन चरणों पर उन-उन से बड़ी संख्या की अवधारणा न थी। कहते हैं संख्याओं का विकास उंगली के पोरों, उँगलियों की संख्या, फिर अंगूठे सहित एक हाथ की उँगलियों की संख्या, दोनों हाथ गलियों और फिर हाथ पैर सभी की गलियों की संख्या के क्रम में विकसित हुई। इसमें मामूली सुधार की आवश्यकता हो सकती है। परंतु नामकरण के लिए सही ध्वनि का निर्धारण आसान नहीं था। षट – सत – शत तो मात्र सकार के तालव्य और मूर्धन्य भेद पर आधारित हैं। अष्ट तो षट ष्+अ+ट के ष-कार के स्वर-व्यंजन विपर्यय से बना है। यही परिवर्तन सत के साथ करने से अस्त बनता है जिसका अर्थ है अन्त/ सबसे बड़ा। यह अँगूठा छोड़ दोनों हाथों की उँगलियों की संख्या। इसके बाद अंगूठे सहित दोनों हाथों की उँगलियों की सबसे बड़े अंक की संभावना दिखी. इसके लिए सत अर्थात शत से काम चलाया गया। पहले शत का अंकमान 10 था। विंशत, त्रिंशत आदि में बचा रह गया। परंतु जब इन अंकों के जोड़ तोड़ से सबसे बड़ी संख्या 100 हो गई तो उसी शत का 100 के लिए प्रयोग करना पड़ा और 10 के लिए वर्ण विपर्यय से तश> दश का प्रयोग आरंभ हुआ।
हम फिर तीन पर लौटें जो त्रय या त्रि नहीं ती और ती था। इसका सबसे बड़ी संख्या के लिए प्रयोग जारी रहा लगता है और इसने भी 10 के अंक मान के लिए कभी जगह बनाई थी। 60 के बाद दाशमिक आशय में इसका प्रयोग किया गया -षष्-टि, असी-ति, नव-ति, अंग्रेजी में तो यह 20 से लेकर 90 तक की गणना में जारी रहा, इसका अर्थ है कि मानक संपर्कभाषा में भी बोलचाल के स्तर पर का चलन था।
रोचक है तेलुगू का ओकटि – इसमें संस्कृत का एक तमिल (ओन्र) के प्रभाव में ओक हो गया है, और इसमें वही ‘-टी’ जुड़ गया
जो बांग्ला में लालित्य के लिए लगाया जाता है परंतु, जिसका अर्थ था सबसे बड़ा। और यह बड़प्पन संस्कृत के इति में भी बचा है। इत्यादि में इति अर्थात अंत या सबसे बड़ा और आदि अर्थात्, आरंभिक/ सबसे छोटा, दोनों का योग दिखाई देगा। भाषा का विकास गुणसूत्रों से उभरने वाले चित्र की पुष्टि तो करता ही है उसकी विकास रेखा को भी समझने में मददगार होता है जो कि आनुवंशिकी के आधार पर संभव नहीं होता। इससे भी भारत से यूरोप की दिशा में प्रसार की वैसी ही पुष्टि होती है जैसे गुणसूत्रों के प्रवाह से।

Post – 2019-12-07

राजनीति करने वालों को मुख्यमंत्री का इस्तीफा चाहिए, वे दुखी नहीं हैं, उनकी लाटरी खुली है।
किसी ने नहीं कहा कि उस जज को सहअपराधी मान कर उसके विरुद्ध मुकदमा चलाया जाना चाहिए जिसने रेप के अपराधी को जमानत दी जब कि रेप के अपराधी हमेशा बदले की कार्रवाई करता है इस कारण ही रेप के मामले में जमानत पर रोक है।

Post – 2019-12-06

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (32)
पुराण भाषा विज्ञान और पुरातत्व -2

सूचना और ज्ञान का कोई क्षेत्र भरोसे का नहीं – वह व्यक्ति हो, ग्रन्थ हो या शास्त्र (ज्ञान की शाखा); फिर भी कोई ऐसा नहीं जो सत्य तक पहुँचने में सहायक नहीं। यहाँ तक कि झूठ और अफवाह तक सत्य की कई दबी परतों को समझने में सहायक होते हैं। सचाई पर परदा डालना और उस परदे को ही सचाई के रूप में पेश करना एक कला है। सभी कलाएँ सत्य को छिपाती भी हैं और उसकी गहराइयों को समझने में सहायक भी होती हैं; साथ ही छिपाने के पीछे काम करने वाले इरादों और ताकतों की भी सच्चाई को उजागर करती हैं। जैसे अन्य कलाओं को समझने के लिए उनके कला-विधान को जानना जरूरी होता है उसी तरह झूठ की इस कला को भी उसके विधान को समझकर ही सत्य तक पहुंचा जा सकता है।

हमारे अपने प्रसंग में विलियम जोंस ने एक झूठ को सचाई में बदलने का प्रयत्न किया। उसे विश्वसनीय बनाने के प्रयत्न में उस सचाई को ही नहीं प्रकट कर बैठे, अपितु एक ऐसे पक्ष पर भी प्रकाश डाल दिया जिस तक अन्य किसी स्रोत से पहुँचा ही नही जा सकता।

पूरे पश्चिमी जगत ने उस झूठ को सिर पर उठा लिया जिसे वह ठीक से गढ़ भी नहीं पाए थे । उनके अंतर्विरोध की ओर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया या ध्यान दिया भी तो उसे खतरनाक मानकर आगे कभी उसकी चर्चा ही नहीं की। कहावत है झूठ के पांव नहीं होते, इसलिए उसे खड़ा करने के लिए एक के बाद एक झूठों की मीनारें तैयार की जाती हैं। कुछ लोगों का ध्यान टेक के रूप में गढ़े हुए, नए झूठ के अंतर्विरोध की ओर जाता है और वे इसे मानने से इन्कार करते हैं तो, उनकी आवाज को दबा दिया जाता है। जो बातें असंभव प्रतीत होती हैं उनको चर्चा से बाहर कर दिया जाता है लेकिन कहानी नहीं बदली जाती।

हम ज्ञान की कुछ ही शाखाओं को आप्त मानते हैं। केवल कुछ ही नहीं, ज्ञान की सभी शाखाएँ आप्त होती हैं। स्वार्थी लोग, निजी या जातीय सरोकार से जुड़े हुए हों तो, उनकी आप्तता को नष्ट कर देते हैं। प्राचीन लोग इसे वाणी में पाप का प्रवेश कहते थे। पापियों के कारण कोई विधा, कोई अनुशासन, आप्त नहीं रह पाता; फिर भी उनमें से कुछ के आप्त होने की बात बार-बार की जाती है और कुछ को सिरे से अविश्वसनीय मान लिया जाता है। यहां हम उन्हीं की परीक्षा करेंगे।

पुरातत्व
पुरातत्व के क्षेत्र में आजीवन काम करने वालों को इसका पक्का भरोसा होता है कि पुरातत्व दूध का दूध और पानी का पानी कर देता है। परंतु दूध का दूध पानी का पानी करने की जगह पानी इतना मिलाया जा सकता है कि दूध दूधिया पानी बनकर रह जाए। उनको भरोसा इस बात का होता है कि उनके सामने तो, टूटे-फूटे रूप में ही सही, पूरी संस्कृति उपस्थित है। समस्या वहां आती है जहां यह तय करना होता है यह संस्कृति किसकी है। आप की चीज को आपसे छीन कर कोई दूसरा व्यक्ति यह दावा तो कर ही सकता है कि यह आप की नहीं उसकी है। तय इससे होता है कि लाठी किसके हाथ में है। इस लाठी के बल पर ही पुरातत्व में जितना झूठ बोला गया है जितनी बातों को छुपाया गया है उतना अन्यत्र कहीं नहीं।

हड़प्पा की पूरी सभ्यता को पश्चिम के बहुत बड़े और ईमानदार कहे जाने वाले पुरातत्वविदों ने मिल कर इस तरह नष्ट किया कि केवल सभ्यता ही नष्ट नहीं की गई, पूरे समाज को धरती से मिटा दिया गया। सभ्यता का निर्माण करने वाले वालों के लिए यह सिद्ध करना मुश्किल हो गया कि यह सभ्यता उनकी ही है। उस कालावधि में हैवानियत की अवस्था में जीने वालों ने यह विश्वास दिलाने का सफल प्रयास किया कि अपने को सभ्य कहने वाले लोगों ने उस सभ्यता का निर्माण किया ही न होगा क्योंकि वे तो उनके घर से आए थे उनके जैसे ही हैवान थे। सभ्यता से नफरत करते थे। उन्होंने ही उस सभ्यता को जिसे वे अपनी मानते आए थे नष्ट किया था। अगला व्यंग्य यह कि उन सभ्यताद्रोही लोगों ने भारत में सभ्यता की आधारशिला रखी।

जिस शाखा में इतनी बेसिर पैर की बातें की जा सकती हों, क्या उसे पुराणों से अधिक विश्वसनीय माना जा सकता है? अपराध पुरातात्विक वस्तुओं का नहीं है। अपराध वर्चस्व कामना से और औपनिवेशिक स्वार्थों से ग्रस्त समाज का है। जिस तरीके से संस्कृत भाषा और संस्कृत भाषियों को इस देश से उजाड़ कर अज्ञात देश में फेंक दिया गया था, उसी तरह इस सभ्यता को भी उन्होंने भारतवासियों से छीन कर अज्ञात लोगों के हवाले कर दिया जो कहां रहते थे, कब और क्यों आए थे, कैसे उस अवस्था तक पहुंचे थे, इसे कोई नहीं जानता था, न जान सकता था।

पुराण
पुराण तो अपने झूठ के लिए बदनाम हैं ही। उनमें पुरातत्व से कम बे सिर पैर की बातें तो हो ही नहीं सकती। उनमें अकेला एक आदमी, बिना किसी की सहायता के, शौर्य के लिए ही जाने जानेवाले क्षत्रियों का पूरी दुनिया से संहार कर देता है। एक बार पूरा संहार कर देने के बाद तो संहार करने को कुछ बचा ही नहीं रहना चाहिए, पर इक्कीस बार यही काम करता है, और आकाश के तारे गिनने वालों को इस गणित में कहीं कोई कमी नहीं दिखाई देती। वचन मात्र से असंभव को संभव करने की शक्ति का दावा करने वालों ने ऐसी अनगिनत कहानियां पुराणों में भर रखी हैं और ज्ञानी से लेकर अज्ञानी तक इनमें विश्वास करता चला आया। जितनी असंभव बातें पुरातत्व में की जा सकती है उनसे अधिक पुराणों में की जा सकती है। लोग दोनों पर विश्वास भी करते रहे, यह हमारी बुद्धि का कमाल है।

परन्तु यदि हम पौराणिक वृत्तों के कला विधान से परिचित हैं तो उन हास्यास्पद अतिरंजित कहानियों के पीछे बौद्धमत के प्रभाव के कारण ब्राह्मणों की उपेक्षा का सत्य भी सामने आएगा जो इस दौर के सामाजिक इतिहास को समझने के लिए जरूरी है; यज्ञ मंत्र की प्रभावकारिता में सामाजिक विश्वास के उठ जाने के बाद, ब्राह्मण का शाप और आशीर्वाद – वाचि वीर्य द्विजानाम् – के प्रभाव की कहानियाँ गढ़ कर, इन्हें धर्म और पुण्य के काम बताते हुए लगातार दुहराते हुए समाज को सम्मोहित करके अपनी साख जमाई गई। बुद्ध को और बौद्धों और श्रमणों समाज की नजर में गिराने के लिए किस किस तरह की कहानियां रची जाती हैं, कैसी गालियां आविष्कार की जाती हैं, इसे हम पुराणों की गहराई में उतर कर ही समझ सकते हैं।

परंतु पुराण कथाएं केवल पुराणों में नहीं मिलतीं। ऋग्वेद में, संहिताओं में ब्राह्मणों और उपनिषदों में, यहां तक कि पंचतंत्र की कहानियों में, महाभारत में भी पौराणिक वृत्तांत बिखरे हुए हैं।

इनसे प्राचीनतम अवस्थाओं से लेकर बाद के विकास का जो सामाजिक इतिहास सामने आता है वह उनकी सहायता के बिना संभव ही नहीं है। कहें पुराण के झूठ का भी अपना सच है और उसके सही विवरणों का भी इतिहास है। जिस विवेक की आवश्यकता पुरातत्व की उपादान संस्कृति को समझने में होती है उसी की आवश्यकता पुराणों से इतिहास का सच बाहर लाने में होती है।

आनुवंशिकी
जर्मनों को अपने से नीचा दिखाने के लिए फ्रांसीसी विद्वानों ने उनके सिर की बनावट, आँखों और बालों के रंग आदि की तुलना करते हुए उन्हें संकर नस्ल का सिद्ध करने के लिए जिन फब्तियों का आरंभ किया उसका विकास नृतत्व में हुआ और भाषा विज्ञान से कुछ बाद में आरंभ हुआ यह अध्ययन उतनी ही तेजी से लोकप्रिय हुआ और इसकी शाखाएंँ प्रशाखाएँ पैदा हो गईं।

आगे चलकर इसने अधिक वैज्ञानिक आधार लेते हुए इसी नेआनुवंशिकी की नीव रखी, जिसे हाल के दिनों में इतनी विश्वसनीयता मिली है कि इनके आधार पर किसी व्यक्ति का हजारों साल पहले का इतिहास अर्थात उसका आनुवंशिक संबंध तैयार किया जा सकता है। जहां इस रूप में इसे चुनौती नहीं दी जा सकती, वहीं इतिहास और समाज रचना को समझने में इसका सीधा उल्टा एक समान इस्तेमाल किया जा सकता है। हेंफिल के दल ने व्यापक जांच करने के बाद (1991) नतीजा निकाला था कि 4500 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व के बीच न तो भारत से बाहर किसी बड़े पैमाने पर निर्गमन हुआ, न ही आगमन हुआ। इससे दो बातें एक साथ सिद्ध हुईं। पहली यह कि भारत पर आर्यों के आक्रमण की कहानी बकवास है। दूसरी, हड़प्पा सभ्यता का निर्माण तथाकथित आर्यों ने किया है।

इसके बाद 2001 और 2003 में आनुवंशिकी के 3 अध्ययनों को यह सिद्ध करने के लिए कि इनकी यात्रा पश्चिम से पूर्व की ओर हुई है और भारतीय आबादी में उनसे मिलते-जुलते कुछ भेदक गुण सूत्र मिलते हैं, विटजेल द्वारा दबे हुए स्वर में आर्यों के आक्रमण की दलील तलाश की गई। कुछ अध्ययनों से यह प्रमाणित हुआ कि भारत में आनुवंशिक आधार पर उत्तर और दक्षिण आर्य और द्रविड़ के बीच कोई भेद नहीं। हाल में राखीगढ़ी के अवशेषों के अध्ययन से एक दल ने यह नतीजा निकाला कि यह सभ्यता पूरी तरह भारतीय है, मध्येशिया से इसका कोई संबंध नहीं है। इस तरह के निष्कर्षों के पीछे कई तरह की सीमाएं होती है परंतु नितांत निजी में और व्यापक सामुदायिक निष्कर्षों के रूप में आनुवंशिकी का निष्कर्ष वही होता है जिसे दूसरे स्रोतों से सही पाया जाता है। अब तक का सबसे विश्वसनीय अध्ययन हमें Toomas Kivisild, Surinder S. Papiha, Siiri Rootsi, Jüri Parik, Katrin Kaldma, Maere Reidla, Sirle Laos, Mait Metspalu, Gerli Pielberg, Maarja Adojaan, Ene Metspalu, Sarabjit S. Mastana, Yiming Wang, Mukaddes Golge, Halil Demirtas, Eckart Schnakenberg, Gian Franco de Stefano, Tarekegn Geberhiwot, Mireille Claustres & Richard Villems के द्वारा 2000 में किया गया अध्ययन An Indian Ancestry: a Key for Understanding Human Diversity in Europe and Beyond प्रतीत होता है, जिसके निष्कर्ष निम्न प्रकार हैं:

Summing up, we believe that there are now enough reasons not only to question a ‘recent Indo-Aryan invasion’ into India some 4000 BP, but alternatively to consider India as a part of the common gene pool ancestral to the diversity of human maternal lineages in Europe. Our results on Y-chromosomal diversity of various Indian populations support an early split between Indian and east of Indian paternal lineages, while on a surface, Indian (Sanskrit as well as Dravidic speakers) and European Y-chromosomal lineages are much closer than the corresponding mtDNA variants.

Post – 2019-12-05

मनुष्य के दिमाग का इस्तेमाल उसी के विरुद्ध किया जा सकता है, उसी की बुद्धि का इस्तेमाल करके उसका सर्वनाश कराया जा सकता है, उसे अपमानित करके अपने अपमान में ही गौरव अनुभव कराया जा सकता है, यह पहली नजर में बुद्धि की भूमिका पर सन्देह जगाता है, परन्तु इसका असल कारण है, बुद्धि को किसी किसी मादक पदार्थ से अचेत कर दिया जाना- मादक पदार्थों के बारे में हम सभी जानते हैं पर यही काम हमारे आवेग भी करते हैं – राग, द्वेष, काम, क्रोध, अहंकार, भय, लोभ – यह भी हमें पता है। विश्वास जीत कर आप की बुद्धि की भूमिका नष्ट करके ही विश्वासघात किया जाता है। भक्तिभाव भी अतिविश्वास और अन्धविश्वास पर ही आधारित होता है। इन सभी में बुद्धि का प्रयोग आवेग को सही सिद्ध करने या कारगर बनाने के लिए किया जाता है। इसलिए जब हम बुद्धि का प्रयोग करते हैं तो यह देखना जरूरी होता है कि हम अपनी बुद्धि से काम ले रहे हैं या हमारा कोई आवेग हमारी बुद्धि को अपना औजार बना रहा है। यह तय करना आसान नहीं होता, इसलिए बुद्धि पर भरोसा न करके, इस बात पर नजर रखनी चाहिए कि हम जो सोचते हैं या करते हैं उसका परिणाम क्या होता है। पहले बुद्धिमानों का जमाना था, वे बहुत ऊँची ऊँची और इसके बाद भी मूर्खता की बातें करते थे। फिर चार सौ साल पहले किसी को सूझा, बात पर क्या जाना, नतीजा देखो। यहाँ से आरंभ हुआ विज्ञान युग.- खयाल और उसका परीक्षण – हाईपोथेसिस-एक्सपेरिमेंट- रेजल्ट इस कसौटी को ही अमल में ला कर आप समझ सकते हैं कि आप बुद्धि से काम ले रहे हैं या कोई दूसरा आप की बुद्धि का अपने लिए और आपके विरुद्ध, समाज से विरुद् काम में ला रहा है। यह है शुद्ध बुद्धि की मीमांसा।

Post – 2019-12-05

मै आज आज यह दिखाना चाहता हूँ कि हमें हमारी आँखों के रहते अंधा बनाया जा सकता है, सारी दुनिया हमारे सामने है और लफ्फाजी के कमाल से इसे भ्रम सिद्ध करके जिसके बारे में आप कुछ नहीं जानते है, जिसका न कोई रूप है न आकार उसे एकमात्र सत्य सिद्ध किया जा सकता है और आप उसके पीछे पागल हो कर दुनिया से मुँह फेर सकते हैं और इस पागलपन के कारण ही अपने को दूसरों से अधिक समझदार मान सकते हैं, यहाँ तक कि उनसे नफरत भी कर सकते है। सभी धर्म और विश्वास अपने अपने ढंग से, किकी न किसी अनुपात में यही काम करते हैं। इस व्यवस्था के मालिक और इसे चलाते रहने वाले निठल्ले और निकम्मे लोग होते है निठल्लेपन को भी महिमा मंडित करने के लिए वे सबसे अधिक गर्हित काम करने वालों को मानते हैं, जिसका सबसे बड़ा प्रमाण है हिन्दू वर्णव्यवस्था।

Post – 2019-12-05

आस्था, विश्वास ज्ञान विरोधी है, निजी, साझे की नहींं। साझेदारी केवल ज्ञान की संभव है। भावनाओं का प्रदर्शन उनकी गरिमा और पवित्रता को नष्ट, तमाशा और घटिया कारोबार का रूप लेता है। ज्ञान की साझेदारी ही संभव है। आवेगों के प्रसार से उपद्रव होते है, ज्ञान के प्रसार से समस्याओं का हल निकलता है। मेरे मित्र केवल भावविह्वल लोग हों तो भी मेरी हानि होगी, अमित्र रहें तो मेरी कोई हानि नही। उन्हें स्वयं किनारा कस लेना चाहिए।

Post – 2019-12-04

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (31)
पुराण, भाषा विज्ञान और पुरातत्व

हमने इस लेख माला की तीसवीं किश्त में विलियम जोंस के माध्यम से पश्चिमी एशिया के तटीय भाग में हिंदू देवों- देवियों को पूजने वाले, भारतीय भाषा बोलने वाले, लोगों के बसे होने की बात की थी। इसके लिए लेवान्त [1]और अनातोलिया का प्रयोग किया जाता है। दोनो का अर्थ सूर्योदय का देश हुआ करता था। अंतर केवल यह कि पहला फ्रेंच का शब्द है, दूसरा ग्रीक का।

हमने इस बात की भी चर्चा की थी कि विलियम जोंस ने इथोपिया में भारतीय भाषा बोलने वाले, भारत से आकर वहां बसने वाले हिंदुओं का प्रमाण दिया था । उन्होंने यह भी कहा था कि इथोपिया में बसने वाले भारतीय व्यापारियों ने लाल सागर से भी आगे भूमध्य सागर को नौकायन से पार करके, यूरोप से संपर्क स्थापित किया था और वहां के निवासियों को सभ्यता का पाठ पढ़ाया था। उनका यह कथन सुनी सुनाई बातों पर आधारित था। सुनी सुनाई बातों को लिख दिया जाता है तो उसे पुराण कहते हैं। परंतु इस पुराणवृत्त को समझे बिना यह नहीं समझा जा सकता कि लातिन और ग्रीक दोनों संस्कृत से उससे अधिक निकटता रखती हैं, जितनी एक दूसरे से, अर्थात दोनों के निवासी संस्कृत से सीधे प्रभावित हुए न कि एक दूसरे से।

पुराण में कई बातें सटीक नहीं होती हैं इसलिए इतिहास के स्रोत के रूप में उसका भारत में बहुत कम उपयोग किया गया है, जहाँ किया गया है, नासमझी से किया गया है। हमारी विवशता है कि उन युगों का इतिहास जब लोग लिखना जानते ही नहीं थे, केवल पुराणों से ही मिल सकता है। आधुनिक पश्चिम पौराणिक स्रोतों का इस्तेमाल नहीं करते क्योंकि वह समृद्ध नहीं है और जितनी है वह पूर्व से प्रेरित और विकृत लगती है।

यह सच है कि पुराण विश्वसनीय नहीं है, परंतु यदि पुराणों के कई स्रोतों में कई तरह से एक ही बात को दोहराया गया हो, तो उसे सच मानने का आधार मजबूत होता है। ज्ञान की दूसरी शाखाओं से यदि उसकी पुष्टि करने वाली सूचनाएं मिलती है, तो सत्य प्रमाण बन जाता है।

ज्ञान की कोई भी शाखा अपने तई विश्वसनीय नहीं है। इसमें पुरातत्व भी आता है नृतत्व भी आता है आनुवंशिकी के अध्ययन भी आते हैं । ताम्रपत्रों और पुस्तकों पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। इसके कुछ प्रमाण संभव है आगे हम दे भी सकें। सभी एक दूसरे से वाद करते हुए ही सचाई पर पहुंच सकती हैं जो किसी शाखा की सचाई नहीं होगी इतिहास की विजय अवश्य होगी।

पुराणों की विश्वसनीयता का एक अच्छा प्रमाण है यह है कि बीसवीं शताब्दी की खोजों से पता चला कि सचमुच इथोपिया में पुंट नाम से भारतीय व्यापारियों का अड्डा था। यह अड्डा सिंधु सभ्यता के निर्यात और आयात केंद्रों में से एक था। सभी का उल्लेख मेसोपोटामियाई अभिलेखों से सामने आया। यह एक साथ दो विवादास्पद सवालों का अपने आप में जवाब बन जाता है।

पहला सवाल संस्कृत के विस्तार से जुड़ा हुआ है; वैदिक सभ्यता के प्रसार से और दोनों यहां पर आकर अनन्य हो जाते हैं। दूसरी यह कि हड़प्पा सभ्यता के सभी केंद्रों की भाषा में एकरूपता नहीं थी क्योंकि इथोपिया में गुजराती प्रभाव बहुत स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है।

विलियम जोंस ने अपने चौथे व्याख्यान में यमन में भारतीयों की उपस्थिति का प्रमाण दिया था इसलिए यह कहा जा सकता है की उनके माध्यम से भारतीय आर्य भाषा ने अरब की भाषा को बहुत पहले से प्रभावित करना शुरू कर दिया था।

इथोपिया से मिलती-जुलती बात उन्होंने भूमध्य सागर के पूर्वी तटीय क्षेत्र फिनिशिया, लेवांत, और फ्रीजिया के विषय में भी कही थी। प्रमाण ऐसे थे जिनसे इस बात से इंकार न किया जा सके वे भारत छोड़कर किसी अन्य देश से संबंध रखते हैं। इनका आधार सुनी हुई कहानियां थीं। इसमें उन्होंने अपनी ओर से भारत में अपनी आंखों से देखे हुए रीति रिवाज अर्थात् पुराण और कर्मकांड सहारा लिया था।

उनकी नोवा की संतानों की भाषा से दुनिया की सभी भाषाओं की उत्पत्ति की वाहियात कल्पना से तो यूरोप में इतनी गहमागहमी पैदा हो गई थी, कुछ समय तक तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषाशास्त्र को ही भाषा विज्ञान माना जाता रहा, परंतु उनसे अधिक भरोसे के स्रोतों के आधार पर उन्होंने जो व्याख्या दी थी उसका भूलकर भी कभी नाम नहीं लिया गया क्योंकि इससे उनके अपने वर्चस्व के मिथ्या विश्वास का खंडन होता था।

विलियम जोंस ने अपनी व्याख्या में हंसने के बहुत सारे मौके दिए हैं। इस पर भी हँसा जा सकता है। पर ध्यान रहे, जहां वह अपनी ओर से तोड़ मरोड़ किए बिना स्त्रोतों के आधार पर कोई बात कहते हैं वहाँ पुरातत्व हमें हँसने नहीं देगा, और पुरातत्व की कमियों को भी सुधारा जा सकता है।

विलियम जोंस के समय में किसी को अनुमान भी नहीं हो सकता था एशिया माइनर में भारतीयों की उपस्थिति कभी रही होगी। मैक्स मूलर को पहली बार जब एक अध्येता के द्वारा प्रस्तुत किए गए भाषाई आंकड़ों का पता चला तो उन्होंने इस संभावना पर विस्मय प्रकट करते हुए यह भी कहा था इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, परंतु इस दौरान कोई काम नहीं हुआ।

बीसवीं शताब्दी में ह्यगो विकलर द्वारा बोगाज़कोई के लेखों का उद्धार किया गया और ह्रोजनी ने उनका पाठ करते हुए यह स्वीकार किया यह भारतीय मूल के आर्य भाषा भाषी लोगों की भाषा है तो पश्चिम में भीतर ही भीतर खलबली मच गई, क्योंकि इससे पहले का जो पाखंड रचा गया था, इससे उसका भंडाफोड़ होता था। यह मान लेने के बाद कि आर्य भाषा बोलने वाले, वैदिक देवताओं को पूजने वाले, अश्वपालन करने वाले भारतीय एशिया माइनर में 2000 इसापूर्व में पहुंच गए थे, दो बातें एक साथ सिद्ध होती थीं।

पहली यह कि भारत में उनकी जितने प्राचीन काल से उपस्थिति सिद्ध होती है उसने प्राचीन काल में दुनिया के किसी दूसरे क्षेत्र में संस्कृत भाषियों की उपस्थिति या उन से मिलती-जुलती भाषा बोलने वालों की मौजूदगी नहीं सिद्ध की जा सकती। अर्थात भारत पर आर्य भाषा बोलने वालों के आक्रमण के विपरीत भारत से बाहर की ओर जाने वाले और आक्रमण करने वालों की पुष्टि पुरातत्व द्वारा हो रही थी। सारे किए कराए पर पानी पर जा रहा था।

इसलिए पहले इसका नाम इंडो-हिताइत तो रखा गया, परंतु यह सिद्ध करने के प्रयत्न प्रारंभ हो गए कि आदि भारोपीय के सबसे निकट यही भाषा रही होगी और इसी से संस्कृत भी निकली होगी। यहां तक दावा किया जाने लगा कि वेदों के कुछ अंश उस अवस्था के हो सकते हैं जब आर्य आक्रमणकारी भारत में नहीं पहुंचे थे। गोएबेल्स तो उसके बाद पैदा हुआ, झूट मूठ बदनाम किया जाता रहा, उसके बाप विलियम जोंस के समय से ही अलग-अलग रूपों में दिन रात काम कर रहे थे और लगातार एक ही बात को दुहराते हुए उन्होंने उसे सचमुच सचाई में बदल दिया था।
(अधूरा)
[1] पहले लेवन्त में आज के सीरिया, जोर्डन, लेबनान, इजराइल और फिलिस्तीन को पूरा इलाका आता था।
इसका एक रोचक पक्ष है, अक्सर देशों और समुदायों का नामकरण दूसरों द्वारा किया जाता है कभी-कभी अनादर प्रकट करने के लिए किया जाता है और इसके बाद भी वे खुद उसे अपना नाम मान लेते हैं। निगर कहने वालों ने अफ्रीका के इस देश का नाम नाइजीरिया रखा नदी का नाम नाइजर रखा या वह स्वयं अपने को निगर कहते थे, इसका पता तो हमने नहीं लगाया परंतु नेटिव शब्द का प्रयोग वह किसी क्षेत्र के पौधों जानवरों और आदमियों के लिए किया करते थे और लंबे समय तक भारत के कुछ लोग भी अपने को नेटिव के रूप में स्वीकार करते थे हिंदू हमारा अपना चुना हुआ नाम नहीं है नहीं इंडिया हमने गढ़ा। हमने दूसरों के दिए नाम को खुद स्वीकार कर लिया।]

Post – 2019-12-04

मेरे कोश मे जय श्रीराम का शाब्दिक अर्थ है निम्न अर्थ दिए गए हैं 1. जय बजरंगबली, 2. अल्लाहु अकबर, 3. बाह गुरू का खालसा; 4.अशान्ति।

Post – 2019-12-03

सवाल उनका आसपास हैं जो
आप उनको समझ नहीं पाते।

जैसे कि आर्य, इस ओर एक सेमिनार के लिए पेपर लिखते हुए गया जिसकी कुछ बातें आप की रुचि की हो सकती हैे, पर उनका अनुवाद आज संभव नहीं इसलिए अंग्रेजी में ही सही:
I must, at the outset, submit that the Aryan problem is a hoax. It was contrived firstly as a damage control measure: secondly as an assault gun to morally defeat and mentally entrap Indians; and finally to promote Company’s interests.

It worked beyond expectation. We have not recovered culturally. We won our freedom and retained the defeatist mentality. We follow, do not take lead. Jones must be laughing in his grave without stop.

He praised Sanskrit language but gave a twist to show that it was a kin, not the adopted language. All of them “sprung from some common source, which, perhaps, no longer exists” and thus became the father of linguistic families. The parent language was irretrievable in each case.

He lifted Sanskrit along with its speakers in the Noah’s ark and dumped them in Iran, making India a land free-for-all. It belonged to those who could win and control it.

The idea of central Iranian home had no support other than its centrality, but even that failed as it did not apply to its two immediate neighbors – the Arabs and Tartars.

He was a judge of no mean order, but, in this case, he first passed the verdict and then started examination of the case file, and at the long last, submitted that “the primitive language, the language of NOAH ,from which all others were derived… is lost irretrievably…”

The ‘linguists’ have been busy to retrieve that irretrievable language from oblivion for more than two centuries but coming to no conclusion. As you know some of them jumped 15000 years back and emerged with a concoction of all and something more. They named it Nostratic (our language).

This brief and honest presentation of facts may appear to be a mockery but that is what the problem was, although we took it so seriously as to loose our head.

Now we shall have a cursory look at some of the aspects as we find them in Vedic sources.
Arya
As, you know and every one agreed, is an adjective, denoting nobility, respectability, purity, seniority as it is still used – (आजा), aajii (आजी), aiya (ऐया), aiyar (ऐयर); ajii (अजी), are (अरे) with synonyms shreshtha (श्रेष्ठ> setha (सेठ)/ sethi सेठी/ sethna (सेठना); and sajjan (सज्जन) >sajanavaa (सजनवा), sajanii (सजनी) and vallabh/ baalam/ balamaa/ balamawaa (वल्लभ > बालम/ बलमा/बलमवा).
You also know that this adjective was injected bad blood to change it into noun denoting a race and in order to appropriate, was cast into European self-image of a rascal which was made to march to India with all the belongings plus more that was jointly shared by all who remained at home or close by.

This nonsense was cooked for you and you consumed it log-stock-and-barrel with the effect that you lost your head, made it the touchstone to test the real which had to pass for real only in case it was accordant and reject if it failed.. Was the Indus civilization yours? No, because it does not match the date of your coming to India from the land which is yet to be found. You seriously believed the civilized to be rascals, responsible for destruction of the very civilization that they had built.

The funniest thing is that all along, a double game was played switching from adjective to noun, civility to notoriety and back. You actively participated in this snake and ladder game. And today you are meeting to rediscover you’re lost self. Please know yourself and believe yourself to be yourself.

Allow me to state in one line the difference between East and West, which according to Kipling could never meet, and we wish that the twain must never meet so long the West remains powerful savage aiming at destruction of the world.

Orients destroyed nothing, They went around the world civilizing the savages, introducing agriculture, horticulture, animal husbandry, dairy farming, mining, water-management, enlightening them, humanizing them, spreading message of peace, belief in a Supreme God manifest in innumerable forms in order to be tolerant to other belief systems. This is what they called Arya vrata – (ब्रह्म गांमश्वं जनयन्त ओषधीः वनस्पतीन् पृथिवीं पर्वताँ अपो । सूर्यं दिवि रोहयन्तो सुदानव आर्या व्रता विसृजन्तो अधि क्षमि, 10.65.11). It was this determination to civilize the entire world that gave them the moral courage to soften the turbulent, although they resorted to force as well, if peaceful measures failed (इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम् । अपघ्नन्तो अराव्णः, 9.63.5). In sort they spread peace, prosperity and enlightenment which endeared them to all and others readily emulated their languages, cultures, mythology, deities and lifestyle. They lived in wall protected areas which, like civil lines of the British, was called (आर्यावर्त) which survived in Aaryaanaa (आर्याना), Iran, Armenia, Ireland. They civilized Italians and Greeks and through them the rest of Europe that did not come in direct contact of Indians.

But what did the West do? It transformed the civilized into fearsome barbarians and sent them back to India with the mission to destroy cities and civilization and yet holding them responsible for civilization in India. Even to day they export destruction and misinformation, distorted truth manufactured only for export.