Post – 2019-07-18

कितना मुश्किल है मुसलमाँ का मुसलमाँ होना

इस्लाम के सभी अध्येता बद्र की जंग को एक निर्णायक मोड़ मानते हैं। मुसलमानों द्वारा इसके लिए प्रयुक्त यौम अल फुरकान, निर्णय का दिन, भी इसी बात की पुष्टि करता है।

यदि यह यह मोड़ है तो किससे मुड़ा या मुकरा जा रहा है?

जो कुरान मक्का में उतरा था वह यदि कुरान है तो जो मदीना में और खास कर हिजरी 2 के 17वें रमजान के बाद उतरता रहा वह क्या था और वह किस आसमान पर रखा गया था कि पहले का सब कुछ उलट गया, सिर्फ नाम नहीं उलटा।

एक को मानने वाला दूसरे को नहीं मान सकता। यदि मानता है तो खंडित चेतना से ग्रस्त, दोहरे व्यक्तित्व और विरोधी आचरण के जैकिल और हाइड की जिंदगी जीने को मजबूर होगा।

मुस्लिम समाज की समस्या यही से आरंभ होती है। मुल्लों, इमामों, और मदरसों द्वारा अपने पूरे समाज को बीमार बना कर रखना, उनके साथ भेड़ बकरियों जैसा व्यवहार करना, उनके हित में तो है परंतु उस समाज के हित में नहीं। इनके द्वारा समाज के दिमाग का नियंत्रण बुद्धिजीवियों का अपमान है। जिस देश में मुल्लों की चलती हो, महंतों की चलती हो उसमें बुद्धिजीवियों की नहीं चल सकती। उसका बुद्धिजीवी भी गुलाम की तरह काम करेगा। अदाओं से रिझाएगा, परंतु रास्ता नहीं दिखा पाएगा,न स्वयं रास्ता ढूंढ पाएगा। मुस्लिम समाज बंधुआ समाज है। उसे उद्धारक की प्रतीक्षा है। उद्धारक उसका बुद्धिजीवी वर्ग ही हो सकता हे जो नजाकत को बौद्धिक दायित्व का निर्वाह मानता है।

आतंकवादियों के साथ कोई समस्या नहीं है। उन्होंने मक्का में उतरी आयतों को अपनी किताब से निकाल दिया है। फाड़ कर फेंक दिया है, परंतु यदि अफवाह भी उठ जाए कि किसी ने उन फेंके हुए पन्नों को फाड़ दिया है, तो इस अपमान का बदला लेने के लिए, यह जानने से पहले कुछ ऐसा करेंगे जिससे लगेगा मक्का और मदीना दोनों की रखवाली वे ही करते हैं।

परंतु उनके कुरान में मक्का गायब है मदीना ही मक्का तक सैलाब की तरह फैला है, और मक्का उसमें डूब गया है।

बाढ़ रेगिस्तान में भी आती है। रेत के तूफान भी वही काम करते हैं, जो रेत की परत के नीचे दब गया वह दबा भले रहे, है तो। मक्का की आयतें तालिबानी कुरान इसी तरह दफ्न हैं, पर है और फसाद के लिए जरूरी होने पर खोद कर सतह पर लाई जा सकती हैं।

अमल वे मदीना की आयतों पर ही करते हैं और इसके कारण लोग उनसे डरते भी हैं, नफरत भी करते हैं।

उनके विषय में बनी हुई धारणा पूरे मुस्लिम समाज के विषय में न बन जाए इसलिए सभी देशों को उनके कारनामों के बाद अपने समाज की शांति और व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए क्षुब्ध जनों को शांत करने के लिए यह ज्ञापित करना होता है कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, जो सही है।

[]यदि हो जाएं तो दुनिया का नक्शा ही बदल जाए। एक के रहते हैं दूसरों का अस्तित्व संकट में पड़ जाए और यह इतने बड़े दमन चक्र का रूप ले ले कि यह सामाजिक समस्या न रह कर सर्वराष्ट्रीय राजनीतिक समस्या बन जाए। उस विभीषिका की हम कल्पना तक नहीं कर सकते।[]

मुस्लिम आतंकवाद मानवता के हित में नहीं है, स्वयं आतंक का रास्ता अपनाने वालों के हित में नहीं है, इसका विस्तार मुसलमानों के हित में नहीं है।

मैंने ‘मुस्लिम आतंकवाद’ शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रयोग पर समझदार लोगों को आपत्ति होगी। वे कहेंगे, कहते भी हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। मुस्लिम आतंकवाद हिंदू आतंकवाद जैसे प्रयोग गलत हैं।

मजहब का प्रयोग उसी दशा में गलत जहाँ मजहब आतंकवाद न सिखाता हो। हिंदू आतंकवाद इसलिए गलत है कि कोई भी हिंदू ग्रंथ आतंक का समर्थन नहीं करता। मक्का का इस्लाम शांति और सद्भाव का मजहब है वह आतंकवाद का समर्थन नहीं करता। मुसलमान (शांति और सद्भाव के पक्षधर) हैं जो अपने जीवन व्यवहार में मक्का थे कुरान को अपना कुरान मानते हैं। परन्तु वे भी मदीने के कुरान का विरोध नहीं करते। जब तक विरोध नहीं करते हैं तब तक मुस्लिम आतंकवाद के प्रयोग का विरोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि मुसलमान बात-बात पर कुरान की दुहाई देते हैं। कुरान न केवल आतंकवाद का समर्थन करता है बल्कि इसे जरूरी कर्तव्य भी बताता हैः
Fighting is ordained for you, though it is hateful unto you; but it may happen that ye hate a thing which is good for you, and it mayhappen that ye love a thing which is bad for you. Allah knoweth, ye knownot. 2.216

मोहम्मद को भी पता था, लड़ाई झगड़े से बचना मनुष्य के स्वभाव में। कलह-प्रिय व्यक्ति से लोग नफरत करते हैं, इसके बावजूद वह इसी को संभावित अच्छाई बता कर मुस्लिम समाज को अल्पकालिक लाभ के लिए, मनुष्यता से दूर ले जा रहे थे और और अल्लाह का इस्तेमाल सोचने विचारने से विरत करने के लिए कर रहे थे। दुर्भाग्य से इसमें उन्हें सफलता भी मिली।

इसलिए जो लोग मुस्लिम आतंकवाद को बुरा मानते हैं, उन्हें अल्ला के दिए हुए दिमाग का इस्तेमाल करते हुए, आतंकवादी अंशों को इस्लाम विरोधी मानना चाहिए।

मानसिक द्वंद की लड़ाई बाहर जाकर नहीं लड़ी जाती, इसे अपने भीतर लड़ना होता है। हाइड को जैकिल से लड़ना और उसे परास्त करना होता है। यहाँ भीतर से हमारा आशय अपने भीतर और अपने समाज के भीतर, और उस पर कब्जा जमाने वालों के विरुद्ध तीनों से है। बाहर के लोग तो उनके भुक्तभोगी हैं। जेकिल किल करता है, हाइड उस पर परदा डालता है, जब किलिंग इतना बड़ा आकार ले लेती है कि परदा भी लिथड़ जाए तो उस पर चर्चा करने से बचता है और उस ओर ध्यान दिलाने वालों को ही उपद्रवी करार दे देता है या स्वयं असुरक्षित होने का इजहार करने लगता है।

मुस्लिम बुद्धिजीवियों को चुनना होगा कि कुरान पर भरोसा करें या अपने विवेक पर। यदि कुरान पर भरोसा जरूरी है तो तय करें कौन सा कुरान। मक्के वाला या मदीने वाला। एक ही जिल्द में बँधे होने के कारण या एक ही व्यक्ति की रचना होने के कारण, ये दोनों परस्पर विरोधी पुस्तकें एक नहीं मानी जा सकतीं। एक के फैसले अल्लाह करता है, दूसरे का फैसला तलवार करती है, एक का अल्लाह सिरजनने वाला है, दूसरे का अल्लाह सत्यानाश करने वाला है।

ऐसा ही चुनाव उन्हें मोहम्मद के दो रूपों में करना होगा। एक कुछ सीमाओं के बाद भी साधक, सत्याग्रही और मर्यादित आचरण वाला, दूसरा बद्र के जंग के बाद का जो किसी मर्यादा को नहीं मानता। अपने गलत कामों को सही सिद्ध करने के लिए अल्ला को भी अपना सहयोगी बना लेता है, और बचाव के लिए अल्ला की जगह शैतान पर दोष मढ़ देता है।

चुनाव इसलिए भी जरूरी है कि कुरान की आयतों की तरह मुसलमानों को मोहम्मद साहब के कथनों और कामों को प्रमाण बनाने की बाध्यता बनी रहती है। जिस सिद्धांत पर मोहम्मद बद्र से पहले अमल करते रहे, वह यदि वह इस्लाम था, तो उसे नकार कर दूसरे रास्ते पर चलने को इस्लाम नहीं कहा जा सकता। दूसरा नाम आतंकवाद ही रह जाता है।

बद्र के बाद अल्लाह के हुक्म से या शैतान के हस्तक्षेप से आतंक का दौर आरंभ हुआ जिसका पालन आज के आतंकवादी करते हैं । इसके कारण ही वे पूरी दुनिया से और पूरी दुनिया में लोग उनसे नफरत करते हैं।

बद्र इस्लाम का अंत है जो विफलताओं के बीच भी, विरोध के होते हुए भी, उदात्त लक्ष्य के लिए, बिना किसी दुर्भावना के, संघर्ष करने का, और इसलिए जो असहमत हैं उनसे भी सद्भाव बनाए रखने का अभियान था।

सभी उत्पादन और निर्माण धैर्य, आध्यवसाय, और सतर्कता की अपेक्षा रखते हैं। त्वरित सफलता चाहने वाले अनैतिक और प्रायः गर्हित तरीके अपनाते हैं जैसे जुआडी, लुटेरे, तस्कर, अपराध के अंधलोक, या अंडर-वर्ल्ड के लोग करते हैं। त्वरित सफलता या बड़े भूभाग पर अधिकार किसी उपक्रम के सही होने की कसौटी नहीं हो सकता। यह काम जंगी खान और हलाकू ने मुहम्मद से भी अधिक सफलता से किया था। यदि सफलता अल्ला के रहमो करम से आता है तो अल्ला का रहमो-करम सदा सभ्यता के विरुद्ध और दरिंदों के साथ रहा है।

हलाकू ने मुस्लिम जगत को रौंद कर रख दिया था। इस्लाम की सफलता अल्ला द्वारा सत्य का पक्ष लेने के कारण थी या वहशत के कारण यह तय करने के लिए बहस जरूरी है, परंतु इस पर किसी बहस की जरूरत नहीं कि जितने बड़े साम्राज्य पर जंगी खाँ या हलाकू का अधिकार अपने बल पर हुआ था उतने पर अल्लाह की मदद से भी मोहम्मद को हासिल नहीं हुआ था।[]
[]२९ जनवरी १२५८ में मंगोलों ने बग़दाद को घेरा डाला और ५ फ़रवरी तक वह शहर की रक्षक दीवार के एक हिस्से पर क़ब्ज़ा जमा चुके थे। अब ख़लीफ़ा ने हथियार डालने की सोची लेकिन मंगोलों ने बात करने से इनकार कर दिया और १३ फ़रवरी को बग़दाद शहर में घुस आये। उसके बाद एक हफ़्ते तक उन्होंने वहाँ क़त्ल, बलात्कार और लूट की। जिन नागरिकों ने भागने की कोशिश की उन्हें भी रोककर मारा गया या उनका बलात्कार किया गया। उस समय बग़दाद में एक महान पुस्तकालय था जिसमें खगोलशास्त्र से लेकर चिकित्साशास्त्र तक हर विषय पर अनगिनत दस्तावेज़ और किताबें थीं। मंगोलों ने सभी उठाकर नदी में फेंक दिये। जो शरणार्थी बचकर वहाँ से निकले उन्होंने कहा कि किताबों से बहती हुई स्याही से दजला का पानी काला हो गया था। महल, मस्जिदें, हस्पताल और अन्य महान इमारतें जला दी गई। यहाँ मरने वालों की संख्या कम-से-कम ९०,००० अनुमानित की जाती है।
ख़लीफ़ा पर क्या बीती, इसपर दो अलग वर्णन मिलते हैं। यूरोप से बाद में आने वाले यात्री मार्को पोलो के अनुसार उसे भूखा मारा गया। लेकिन उस से अधिक विश्वसनीय मंगोल और मुस्लिम स्रोतों के अनुसार उसे एक क़ालीन में लपेट दिया गया और उसके ऊपर से तब तक घोड़े दौड़ाए गए जब तक उसने दम नहीं तोड़ दिया। (विकीपीडिया)[]

[][]कहते हैं कि मुसलमानों के लिए तो चंगेज खान और हलाकू खान अल्लाह का कहर था। कहा जाता है कि उसके पास इतना पैसा और जमीन थी कि वह अपने जीवनकाल में भी न तो इसका उपयोग कर पाया और न ही कभी हिसाब-किताब लगा सका। चंगेज खान पर लिखी एक प्रसिद्ध किताब के लेखक जैक वेदरफोर्ड का कहना है कि जीवनभर लूटकर सारी दुनिया से पैसा इकट्‍ठा करने वाले चंगेज खान ने कभी खुद या परिजनों पर खर्च नहीं किया। मरने के बाद भी उसे साधारण तरीके से दफनाया गया था।…
समझा जाता है कि उसके हमलों में तकरीबन 4 करोड़ लोग मारे गए। उसने अपने विजय अभियान के बाद धरती की 22 फीसदी जमीन तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया था।[][]

Post – 2019-07-17

जंगे बद्र का शेष

बद्र के जंग का निचोड़ एक मुसलमान के लिए कुछ और है और एक तटस्थ अध्येता के लिए कुछ और ।
मुहम्मदन के लिए यह भुला देना आसान था कि बद्र का जंग लूटपाट के प्रयत्न का परिणाम था। लूट के ळिए घात एक ऐसे काफिले पर में लगाया गया था जो बहुदेववादियों का था और लुटेरे मुसलमान थे इसलिए यह हको-बातिल का जंग हो गया। यहां से अपना बचाव करने वाला निरपराध गैर मुस्लिम होने के कारण अपराधी या झूठ का सहारा लेने वाला हो गया क्योंकि वह मुसलमान नहीं था, और लूट की तैयारी करने वाले, घात लगाने वाले, सत्य के पक्षधर हो गए। []इसके बाद से किसी गैर मुस्लिम के साथ मुसलमान लूटपाट, हत्या, बलात्कार कुछ भी करे वह धर्म का काम है, और दूसरा अपना बचाव करे तो भी यह अपराध है। इसी कसौटी को अमल में लाते हुए कांग्रेस अध्यक्ष के विश्वस्त सलाहकार के सुझाव पर वह कानून बनने जा रहा था कि हिंदू और अहिंदू के बीच में कभी कोई विवाद होने पर हिंदू को अपराधी मानकर कार्यवाही आरंभ की जाएगी। मध्यकाल के समस्त अत्याचार धर्म का पालन करने के लिए किए जा रहे थे, इसलिए वे अत्याचार थे ही नहीं। []

यह सोचकर कि काफिले की सुरक्षा के लिए एक दस्ता आ रहा है लुटेरे इस उम्मीद में थे कि कारवां देर-सबेर इसी रास्ते आएगा। यह बाद में पता चला कि काफिले का अनुभवी सरदार, सुफियान खतरे को भांप कर उन्हें चकमा देकर दूसरे रास्ते से निकल गया। खाली हाथ रह गए इसलिए ‘यह किसी आर्थिक प्रलोभन के कारण छिड़ा जंग नहीं था। यह मात्र धर्मयुद्ध था, और क्योंकि थोड़ी संख्या में रहते हुए भी जीत मुसलमानों की हुई थी इसलिए सत्यमेव जयते के सिद्धांत के अनुसार सत्य की विजय विजय हुई थी- “हको-बातिल की कशमकश में यही होता है, हक हमेशा ही फतहयाब हुआ करता है।”

कारवाँ भले निकल गया हो परंतु 1000 लोगों के लिए महीनों का रसद और दूसरे सामान, हथियार और ऊँट तंगी झेल रहे मुहाजिरों के लिए कम न थे। परन्तु अंसर भी माले गनीमत की उम्मीद में ही साथ आए थे। दावा उनका भी था इसलिए बहस छिड़ी कि माले-गनीमत में किसका कितना है हिस्सा होना चाहिए। जिसने जान जोखिम में डालकर माल को कब्जे में लिया उसका हिस्सा उनके बराबर कैसे रह सकता है जो पीछे रह गए। खींचतान इतनी बढ़ गई मोहम्मद को अल्लाह की जरूरत पड़ गई। वैसे भी मुसलमानों का कोई फैसला अल्लाह या मुल्ला के हुक्म या हामी के बिना पक्का नहीं होता, इसलिए मोहम्मद को इलहाम हुआः
They will question thee about the spoils. Say: the spoils are God’s and the Apostle’s. Therefore, fear God and settle this among yourselves; and obey God and his Apostle, if you are true believers. Suratu’l-Anfal (viii) 1.
(ऐ रसूल) तुम से लोग अनफाल (माले ग़नीमत) के बारे में पूछा करते हैं तुम कह दो कि अनफाल मख़सूस ख़ुदा और रसूल के वास्ते है तो ख़ुदा से डरो (और) अपने बाहमी (आपसी) मामलात की इसलाह करो और अगर तुम सच्चे (ईमानदार) हो तो ख़ुदा की और उसके रसूल की इताअत करो। Hindi translation by Suhel Farooq Khan and Saifur Rahman Nadwi

शायद इतने से झगड़े का निपटारा नहीं हो सका, इसलिए एक और इल्हाम जरूरी हुआ जिसका आज तक पालन किया जाता है:
When ye have taken any booty, a fifth part belongeth to God and to the Apostle, and to the near of kin, and to orphans, and to the poor, and to the wayfarer, if ye believe in God, and in that which we have sent down to our servant on the day of discrimination, the day of the meeting of the hosts. Anfal (viii) 42.
और जान लो कि जो कुछ तुम (माल लड़कर) लूटो तो उनमें का पॉचवॉ हिस्सा मख़सूस ख़ुदा और रसूल और (रसूल के) क़राबतदारों और यतीमों और मिस्कीनों और परदेसियों का है अगर तुम ख़ुदा पर और उस (ग़ैबी इमदाद) पर ईमान ला चुके हो जो हमने ख़ास बन्दे (मोहम्मद) पर फ़ैसले के दिन (जंग बदर में) नाज़िल की थी जिस दिन (मुसलमानों और काफिरों की) दो जमाअतें बाहम गुथ गयी थी और ख़ुदा तो हर चीज़ पर क़ादिर है।

जंग हक के लिए मोल लिया गया था, और कशमकश हिस्से को लेकर चल रही थी। मुहम्मदन थे इसलिए अल्लाह का फैसला तो मानना ही था। बँटवारा इसी आधार पर हुआ। पांचवें हिस्से के ऊपर से मुहब्बत को अबू जह्ल का ऊँट मिला। मिली उसकी तलवार भी जिसे उन्होंने अली को दे दिया।

कहते हैं मुनाफिकून ने इल्जाम लगा दिया कि मोहम्मद ने एक खूबसूरत लाल पोशाक अपने पास रख ली। इसके विषय में भी फैसला किसी इलहाम से ही हो सकता था। सेल ने इस संदर्भ में सूरा 3.155 उद्धृत किया है और समर्थन में Tirmidhi, vol. ii, p. 341 and H. D. Qur’an, p. 144, note. का हवाला दिया है।
It is not the Prophet who will defraud you .Sura ‘Imran (iii) 155.

अनुवादों में अंतर है, और संख्या में भी। छानबीन में 155 में तो नहीं पर 3.161 में अवश्य कुछ ऐसे संकेत हैं जिससे यह आरोप सही लगता है:
“और (तुम्हारा गुमान बिल्कुल ग़लत है) किसी नबी की (हरगिज़) ये शान नहीं कि ख्यानत करे और ख्यानत करेगा तो जो चीज़ ख्यानत की है क़यामत के दिन वही चीज़ (बिलकुल वैसा ही) ख़ुदा के सामने लाना होगा फिर हर शख्स अपने किए का पूरा पूरा बदला पाएगा और उनकी किसी तरह हक़तल्फ़ी नहीं की जाएगी।”

अगली घटना जिससे क्रूरता की एक नई प्रवृत्ति को जन्म दिया वह है अबू जह्ल के सिर को काट कर पेश किया जाना और पैगंबर का इस पर खुशी जाहिर करना है:
After the battle was over Muhammad inquired whether Abu Jahl was dead. A servant went forth and saw him wounded but still alive. He then cut off his head and took it to the Prophet who is reported to have said: ‘It is more acceptable to me than the choicest red camel in all Arabia.’

इस तरह की निर्ममता मुहम्मद ने इससे पहले कभी न दिखाई थी। मक्का के मुहम्मद के अल्ला की सलाह थीः
And if you punish [an enemy, O believers], punish with an equivalent of that with which you were harmed. But if you are patient – it is better for those who are patient. मदीने के अल्ला ने भी पहले निर्ममता की हिमायत न की थी। पर अब यह खब्त का रूप लेती चली गई और उसके साथ मुहम्मद का एक नया अवतार हुआ। यह धोखा खाने और माल हाथ से निकल जाने का दबा आक्रोश रहा लगता है क्योकि बाद में सूफियान की हत्या ऐसी ही निर्ममता से की गई।

Post – 2019-07-15

जंगे बद्र

बद्र की जंग इस्लामी इतिहास में एक नए युग का आरंभ था। यह भी रमजान के महीने में 17वें दिन लड़ा गया था। इस दिन को यौम अल फुरकान या फैसले का दिन भी कहते हैं, जिसके साथ कयामत के दिन के फैसले की छाया है। भले हमला लूट के इरादे से किया गया हो, मुस्लिम इसे धर्मयुद्ध के रूप में पेश करते हैं, “The Battle for the sake of Truth. By the people of Truth. Of the purpose of Truth.The battle between Haqq and Baatil, Truth Vs Falsehood. Islam Vs Kufr.

हमारे लिए मुहम्मद के हमलों और विशेषतः, बद्र का महत्व यह है कि हम जिन मुस्लिम आक्रमणकारियों और शासकों और आज के आतंकवादियों के कारनामों की भर्त्सना करते हैं वे बद्र की जंग के समय से ही मुहम्मद की रणनीति और कारनामों से प्रेरित हैं और रहे है। यह प्रमुख कारण है कि उदारता और इंसानियत की बातें करने वाले किसी मुस्लिम नेता, विचारक, सुधारक, इतिहासकार, साहित्यकार या कलाकार ने कभी उनमें से किसी की निंदा नहीं की।
विषयान्तर होने के डर से हम इसके विस्तार में नहीं जा सकते। केवल कुछ पहलुओं को उजागर करना ही पर्याप्त होगा।

इस बात की जानकारी मिलने के बाद कि काफिले की सुरक्षा का पूरा इंतजाम कर लिया गया है मोहम्मद ने बहुत सूझ- बूझ से तैयारी की। लूटपाट का रास्ता मोहम्मद में मुहाजिरों की फटेहाली से चिंतित होकर अपनाया था, इसलिए अभी तक उन्हीं का दस्ता इस काम पर लगाया जाता था। पहली बार उन्हें अंसरों की मदद की जरूरत अनुभव हुई। उनके दल में इस बार 350 लोग थे, इनमें मुहाजिरों की संख्या केवल 87 थी, जब कि अंसर 236 थे।

कुरैश ने अबू सुफ़ियान की मदद के लिए 1300 जवानों, 100 घोड़ों और ऊंटों की एक लश्कर रवाना की। इनका नेता अबू जह्ल था। जब इनको यह सूचना मिली सूफियान रास्ता बदलकर इस बार भी आगे निकल गया है, अब मदद की जरूरत नहीं, तब तक वे बद्र के करीब पहुंच चुके थे। जह्ल ने यह तय किया कि बद्र पहुंचकर आराम करेंगे फिर वापस लौटेंगे।[]

[] इस प्रलोभन को गर्मी के दिनों में किसी पहाड़ी पर्यटन स्थल के निकट पहुंचने पर वहां जाने के प्रलोभन के समकक्ष रख कर भी नहीं समझा जा सकता। रेगिस्तान में उत्सव – (क्या आप उत्सव शब्द का अर्थ जानते हैं? =धरती से अपने आप पानी का ऊपर निकलना।
इसका इतिहास जानते हैं?
यह शब्द उसी भाषा में पाया जा सकता है जो अरब के जल-उद्रेकों के सम्मोहन से परिचित हो।
उद्रेक भी उसी अनुभव की उपज है।
परंतु उपद्रव के लिए विदेश नहीं जाना पड़ेगा। पानी के लिए कुआं खोदिए और गलती से उस जगह खोद बैठिए जहाँ ठीक नीचे या आस पास से कोई अंतःसलिला प्रवाहित हो रही हो और उस गहराई पर छेप दे बैठें कि अंतसलिला का ऊपरी बंध टूट जाए और उसके नीचे का पानी सोती या सोते के रूप में नहीं, मुसलाधार ऊपर फूटे। खोदने वाले जीवित वापस नहीं आएंगे।

पर मुझे शक है कि आप मुस, मूसना और मूसल का अर्थ भी नहीं जानते होंगे। कोश मे मिलेगा मुस/मुष- चोरी करना और मूषक- चोरी करने वाला, जिससे क्रिया रूप मुषायति भी बन गया पर यह औखली के मुसल की व्याख्या नहीं कर सकता, इसलिए धातुपाठ और कोश भी भरोसे के नहीं।

अतः मुस का अर्थ हुआ गहराई में उतरना, छेद करना और इसी तर्क से मुसल किसी पौधे की जड़ों में उस प्रधान जड़ को कहते हैं जो चारों ओर फैलती नहीं सीधे नीचे, बहुत नीचे जाती है। पातालभेदी। फैलने वाली जड़ों से सोती और सोते ही निकल सकते हैं. पर नीचे से फूटने वाली धार मूसलधार।
और जब आप मूसलाधार वृष्टि की बात करते हैं तो इसी मूसल(जड़ी बूटियों के मामले में मुसली का प्रयोग करते हैं) जैसी धारा की बात करते हैं। अंग्रेजी के क्लाउड बर्स्ट के लिए हम आसमान फटने और मूसलाधार वृष्टि का प्रयोग करते हैं।[]

बद्र अपने जलोत्सवों के कारण प्रसिद्ध था और यही वह बाध्यता थी कि जाने और लौटने वाले काफिलों को बद्र से होकर गुजरना पड़ता था।

जो भी हो यह सूचना मिलने के बाद कि किसी सहायता की जरूरत नहीं है, किसी के लौटने पर कोई बंदिश नहीं रह गई। उनमें से 300 लोग वापस चले गए। जह्ल के पास केवल 1000 का सैन्य बल रह गया जो लुटेरों के किसी हमले के लिए बहुत काफी था।

सुफियान का काफिला बहुत बड़ा था। इसमें 1000 ऊँट थे जिन पर कीमती सामान लदा हुआ था। यदि वह हाथ आ जाता तो इतिहास की दिशा कुछ और होती। फटेहाल मुहाजिरों की पाचन क्षमता से अधिक की प्राप्ति उन्हें वाणिज्य व्यवसाय की ओर भी मोड़ सकती थी।

युद्ध में सैन्य बल से अधिक महत्व सही मुकाम पर मोर्चेबंदी का होता है और सही रणनीति का होता है योद्धाओं के मनोबल का होता है। हमलावर को सभी घटक उपलब्ध होते हैं , बचाव करने वाले को नहीं।

इसका मुहम्मद को भरपूर लाभ मिला। उन्होंने पानी के सभी उद्रेकों और कुओं पर अधिकार कर लिया और ऐसे मौके पर घात लगाए रहे जहां से बच निकलना असंभव था।

हम इस इतिहास में इतनी गहराई में नहीं जा सकते जो विषय से मेल नहीं खाता,परंतु यह याद दिला सकते हैं कि अनेक बार छोटी सेनाएं लेकर योद्धाओं ने बहुत बड़ी सेनाओं को परास्त किया है या उनके दांत खट्टे किए हैं या उन्हें तबाह कर दिया है। सिकंदर ने दारा तृतीय की विशाल सेना को अपनी छोटी सेना के बल पर जैसी शिकस्त दी थी वैसा ही हाल मोहम्मद और जह्ल के बीच हुए हुई मुठभेड़ का देखने में आता है।

परंतु मोहम्मद साहब को जीत इस कारण मिली कि उनके एक और जिब्रील और दूसरी ओर मिखाइल सफेद बानो में खड़े थे और इसराइल एक हजार फरिश्तों के साथ युद्ध कर रहे थे।
(अधूरा)

Post – 2019-07-14

फितरत, हिंसा और क्रूरता का दौर (3)

मुझे अरबी का ज्ञान नहीं है इसे आप मेरे कहे बिना भी जानते हैं, सरिया और शरिया/ शरीयत के बीच कोई संबंध है या नहीं यह भी नहीं जानता और इसे बताना पड़ रहा है । जानने की कोशिश की तो इतना ही पता चला कि सरिया का प्रयोग उन अभियानों के लिए किया जाता था, जिनका नेता या सिपहसालार कोई मुसलमान होता था जिसे उसकी जिम्मेदारी मोहम्मद सौंपते थे। शरिया/शरियत/ शरीयत की परिभाषा कोलिंस शब्दकोश ने यूँ दिया है: the body of canonicalanonical law based on the Koran that lays down certain duties and penalties for Muslims.

लगता है, दोनों में संबंध है, और यदि हो तो मुस्लिम शरिया मुस्लिम समाज को दंडित करने के अधिकार को मुल्लों को सौंपने का दूसरा नाम है। इसमें न्याय के लिए कम जगह है अत्याचार के लिए खुला दायरा है।

गजवा का प्रयोग उन अभियानों के लिए किया गया जिनका नेतृत्व, या जिनकी सिपहसालारी मोहम्मद करते थे।

मैं असमंजस में हूं कि मैं इसका अर्थ सही समझता हूं या नहीं। कारण जब गजवा ए हिंद जैसे जुमलों का सामना होता है , तो लगता है इस जिम्मेदारी को अपने ऊपर लेने वाले अपने को पैगंबर समझते हैं, या यह मानते हैं कि पैगंबर की जिम्मेदारी निभा रहे हैं अर्थात उनकी समझ के अनुसार और हमारी नासमझी के कारण, यह संदेश जाता है कि मोहम्मद शांति दूत नहीं थे। धार्मिक नहीं थे। मानवतावादी नहीं थे। सिर्फ और सिर्फ उपद्रवकारी थे।
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कौन कर रहा है ऐसे काम! मुहम्मद या उनके प्रतिनिधि ?
बच्चे स्कूल में पढ़ रहे हैं, जिहादी चुपके से घुसकर गोलियों से उन्हें भून देते हैं। नमाजी मस्जिद में नमाज पढ़ रहे हैं उनको गोलियों से भून दिया जाता है। लोग तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं, घात लगाकर उनकी हत्या कर दी जाती है। हम चारों ओर से यह शोर सुनते हैं कि पवित्र महीने में ऐसा नहीं होना चाहिए था । यह शरीयत के अनुकूल नहीं हैं। मजहब निरीह बच्चों की हत्या की इजाजत नहीं देता। मगर सच यह है कि ऐसी घटनाओं पर परेशान होने वाले मुसलमान यह नहीं जानते कि क्यों उनका आचरण इस्लाम के विरुद्ध और जाहिलिया के अनुरूप है।

इस तरह के कायरतापूर्ण काम जाहिलिया के दौर में ही नहीं किए जाते थे। अरब, राजपूतों की तरह, स्वभाव के सरल, बहादुर और आन के पक्के हुआ करते थे। मक्का में. और कुछ महीनों तक मदीना में भी. मोहम्मद का यही स्वभाव था। इसी का नाम इस्लाम था। इसी का पैगाम. अपनी अंतःसंज्ञा या इलहाम के बल पर दुनिया को एक नई दिशा दिखाने के लिए जो पैगंबर आया था, उसकी मदीना में हत्या हो गई, वह मरा नहीं पुनर्जीवित हुआ एक नए पैगंबर के रूप में। एक नए अल्लाह के साथ, एक नई नैतिकता के साथ जिसमें नैतिकता के लिए जगह नहीं थी। जिसमें वह जो जी में आए करे, वही नैतिकता की कसौटी बन जानी थी। इसे समझना हिंदू या मुसलमान की समस्या नहीं है समूची मानवजाति की समस्या है।

प्रश्न यह है कि कितने प्रतिशत मुसलमान मक्का के अल्ला और मक्का के पैगंबर के साथ अपने को जुड़ा समझते हैं और कितने मदीने के अल्ला और पैगंबर और उनके उन प्रतिनिधियों के साथ जो अपने को मुसलमान नहीं समझते पैगंबर के दर्जे का समझते हैं। यदि ऐसा न होता तो गजवा ए हिंद जैसे शब्द की जरूरत न होती।
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मोहम्मद साहब ने मदीना में अपने विश्वस्त लोगों की संख्या कम होने के कारण, एक संकटकालीन स्थिति में, जो रास्ता अपनाया उसने उनके अनुयायियों को ऐसे फितरती, धोखेबाज और कायरों की जमात में बदल दिया जिसके सही होने की एकमात्र कसौटी उसका सफल होना था। इसके लिए वे कुछ भी कर सकते थे। इसके लिए वह कुछ भी करते रहे हैं।

मुसलमानों में सबसे बड़ी संख्या उन लोगों की है जो मक्का के पैगंबर और मक्का के अल्ला को अपना पैगंबर और अल्ला मानते हैं, परंतु यह साहस नहीं जुटा पाते कि कह सकें कि हम मदीना के अल्ला को अल्ला नहीं मानते वह मुसलमानों का नहीं मुल्लों और जिहादियों का अल्लाह है जिसकी चले तो मुसलमान इंसान न रह जायें, और मुसलमान इस्लाम के पाबंद हो जाएं, मक्का के इस्लामी मूल्यों को मानकर चलें, तो आज की उन समस्याओं का निराकरण हो जाए जिन्हें पैदा करके पश्चिमी देश एशिया को, विशेषतः मुसलमानों को, क्योंकि अल्लाह की मेहरबानी से उनकी धरती से पिघला सोना बाहर आने लगा जिस पर इस्लाम विशेष की कृपा से वे अधिकार कर बैठे हैं और इसे छोड़ना नहीं चाहते।

आज की समस्याएं इस्लाम के कारण नहीं है, पूंजीवादी षड्यंत्र के कारण हैं, जिसे न हिंदुत्ववादी समझ पाते हैं न इस्लामपरस्त। दोनों की आवेश गर्भित नामझी वह कंपोस्ट है जिसे पश्चिमी कूटनीति हमारी खेती के लिए अपनी जरूरत से तैयार करती है।
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इसी पृष्ठभूमि में हम मदीने के मोहम्मद को समझने का प्रयत्न कर सकते हैं।
अरबों के बीच प्राचीन परंपरा से कुछ महीनों को ( पहला, सातवाँ, ग्यारहवां और बारहवां) बहुत पवित्र माना जाता था। इनमें उन कबीलों के बीच भी, जिनमें आपस में ठनी रहती थी किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं होती थी। लोग बिना हथियार के कहीं भी आ जा सकते थे। ऐसा लगता है कि मक्का के व्यापारी प्रायः इन्ही महीनों में माल-असबाब के साथ दिसावर के लिए निकलते और वापस लौटते थे। हमारा यह अनुमान इस बात पर आधारित है कि मोहम्मद ने मक्का के काफिलों पर प्रायः इन्हीं महीनों में हमले किए, इसके लिए अल्ला के हुक्म का बहाना भी तलाश लिया। हम पीछे हमजा की सरदारी में लूट की नाकाम कोशिश का उल्लेख कर आए हैं जो रमजान के महीने में किया गया था।

पिछली तीन विफलताओं के बाद हमले की कमान मुहम्मद ने स्वयं सँभाली। इससे पहले के तीनों हमले दूसरे मुहाजिरों के नेतृत्व में किए गए थे, इन्हें सरिया कहा जाता है। अबवा के गज़वा इस्लामी इतिहास का पहला गजवा था। इसके लिए जिल हज्ज का महीना चुना गया था जिसकी पवित्रता के विषय में कहते हैं स्वयं पैगंबर ने कहा था, “No good deeds done on other days are superior to those done on these (first ten days of Dhal Hajja).” Then some companions of the Prophet said, “Not even Jihad?” He replied, “Not even Jihad”, except that of a man who does it by putting himself and his property in danger (for Allah’s sake) and does not return with any of those things.”(Bukhari 15: 86)।

यह हमला भी कुरेशियों के कारवां पर ही ही किया गया था। इसमें भी विफलता हाथ लगी। यही हाल बुवात और उशैरा के गज़वा का रहा। पर इस बीच एक समझौता उन्होंने कुरेशियों के एक कुनबे बानी धमरा से किया कि धनी कुरेशियों पर हमला हो तो वह उलकी सहायता न करे।बानू मुआलिज से संधि की कि मक्का वालों से टक्कर होने पर वे किनारा कस लेंगे। जिस एकमात्र हमले में कुरेशियों के एक काफिले को लूटने मे सफलता मिली वह नखला का सरिया था, पर इसे भी छोटे हज का बहाना बना कर अब्दुल्ला ने उनके तंबू के करीब तंबू लगा कर या उस समय किया जब वे खाना खा रहे थे। जो भी हो इस बार उनके हाथ पहली बार लूट का माल लगा।

बद्र का युद्ध भी कारवाँ लूटने की तैयारी में और पवित्र महीने में हुआ। सीरिया जाते समय अबू सूफियान कुरैश को उशैरा में घेरने का मुहम्मद का जाल बिछता इससे पहले ही वह हाथ से निकल गया था इसलिए वापसी पर सामना होगा इसका उसे अनुमान था। उसने पहले से मक्का से अपने बचाव के लिए मदद मांग रखी थी और बचाव दल रवाना भी हुआ पर उसने अपना रास्ता बदल लिया और यह सोच कर कि वह अब सुरक्षित है बचाव दल को वापस जाने का संदेश भेज दिया। दूसरे सभी लौट गए केवल एक सरदार अबू जह्ल था जिसने बद्र तक जाने का निश्चय किया।

बद्र के जंग का और इसकी पृष्ठभूमि पर विस्तार से विचार करना होगा क्योंकि इस्लामी इतिहास में यह एक निर्णायक मोड़ है।

Post – 2019-07-13

फितरत, हिंसा और क्रूरता का दौर (2)

शुरुआत
मुहम्मद मक्का में शांति और सद्भाव के ही पक्षधर थे इसका एक प्रमाण यह भी है कि मदीना से आने वाले जिन पाँच लोगों को उन्होंने 620 के हज के अवसर पर दीक्षित किया था, उनके माध्यम से वहां के लोगों को जो संदेश मिला था वह यह था कि वह सामाजिक शांति और सौहार्द के प्रचारक हैं और इसलिए अगले साल आपसी कलह में डूबे रहने वाते खजराज के साथ अबस कबीले के दो लोग इस आशा और अनुरोध के साथ आए कि वह यथ्रीब चल कर अपनी मध्यस्थता से उनके आपसी कलह का अंत करें।

अगले वर्ष आए पचहत्तर जन भी नया मजहब अपनाने नहीं अपितु अपनी तकरार खत्म करने में उनकी मध्यस्थता की आशा में ही आए थे, यह दूसरी बात है कि उनके साथ संधि में एक दूसरे की प्राणपण से रक्षा करने की शर्त भी थी जो मदीना के इतिहास सामाजिक अशांति को देखते हुए जरूरी थी।

मक्का से रवाना होते समय या मदीने की रास्ते में उन्होंने या दूसरे मुहाजिरों ने ऐसा कुछ नहीं किया जो उपद्रव की श्रेणी में आता हो।

उन्होंने मदीना पहुंचने के बाद की आरंभ में शांति का ही रास्ता अपनाया। यद्यपि उन्होंने तत्काल स्थानीय कलह को कम करने की दिशा में सीधे कुछ नहीं किया, फिर भी जिन दो समुदायों के बीच में सबसे अधिक तकरार दो सौ साल से चलती आई थी उनके कुछ सदस्यों के इस्लाम कबूल कर लेने के कारण आपसी सद्भाव का एक वातावरण तैयार हुआ।

मदीना में पहुंचने वाले मुहाजिरों की आर्थिक दुर्दशा उनकी तात्कालिक समस्या थी। इसे दूर करने के लिए उन्होंने अंसरों (इस्लाम कबूल कर चुके स्थानीय लोगों )से मुहाजिरों का मेलजोल कराते हुए एक दूसरे का दुख सुख बांटने रास्ता निकाला। यतीमों के लिए रहने और गुजारा करने की व्यवस्था उन्होंने मस्जिद इलाके में की थी और मुहाजिरों को एकत्र बसाया था जिसे वे संगठित रह सकें। इन हथकंडों के कारण उनकी लोकप्रियता में और इस्लाम की स्वीकार्यता में बहुत तेजी से वृद्धि हुई।

इस्लाम के प्रसार में कितनी मेल मिलाप की भावना काम कर रहीं थी, कितने जन्नत में अपनी सीट रिजर्व कराने और हूरों के साथ रंगरेलियां करने के सपने कितने सहायक थे, मोहम्मद आप सचमुच पैगंबर हैं इसका प्रचार कितना कारगर था, इसका सही आकलन नहीं किया जा सकता, परंतु यह कहा जा सकता है मोहम्मद साहब के पास कोई ऐसा विचार नहीं था जिसके आधार पर वह लोगों को अपना अनुयायी बना सकें। एकमात्र विचार राष्ट्रीय एकता शांति और व्यवस्था का था, परंतु कबीलों के सरदारों की अहंमन्यता के कारण उसकी स्वीकार्यता बहुत सीमित थी ।

इसलिए मदीना में उनका आरंभिक प्रयत्न ‘ईमान वालों को’ अधिक ‘ईमानदार’ बनाने अर्थात् अधिक अंधविश्वासी बनाने तक सीमित था जिसका उनसे भी पहले उपयोग भारतीय परिदृश्य में ब्राह्मणों ने किया था और जिसकी चेतना आज भी समाज में विद्यमान है। इनमें स्वर्ग नरक का पुरस्कार और दंड भी था, ईश्वरीय संबंध या विधान से श्रेष्ठता का दावा भी था और उस के बल पर अपने कथन, आशीर्वचन, शाप की शक्ति में अनन्य विश्वास पैदा करने का प्रयत्न भी था। इसी प्रयत्न में मुहम्मद ने ‘ईमान वालों’ को कुछ कठिन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने की शर्त भी रखी।

पहले रमजान के पवित्र महीने में कुछ लोग यदा-कदा उपवास भी करते थे, प्रायश्चित के लिए साधना भी करते थे, परंतु बहुदेववादी समाज में जैसे किसी भी देवता को मानने की और न मानने की छूट होती है, उसी तरह किसी व्रत- नियम को मानने या न मानने की बाध्यता नहीं होती। यह और केवल यह स्वतंत्रता ही बहुदेववाद की सबसे बड़ी शक्ति है, और इसका अभाव इस्लाम को गुलामों की फौज तैयार करने की कूट-योजना में बदल देता है जिसके बाद इसमें धर्मतत्व की छाया तक मिट जाती है। जो भी हो, गुलामों ने मालिकों के हुक्म का सदा पालन किया है, इसलिए जितनी आसानी से वह महाशक्ति में बदल जाते हैं वह स्वतंत्र लोगों के लिए असंभव होता है। मुहम्मद ने पूरे महीने रोजा रखने को अनिवार्य बना दिया।

मदीना में सबसे अधिक संगठित और शक्तिशाली समुदाय यहूदियों का था। मोहम्मद ने उनको नाराज किए बिना, बल्कि उनका सहयोग प्राप्त करते हुए एक करार किया, जिसका मुख्य लक्ष्य था मुसलमानों को संगठित करना और उनमें इस विश्वास को प्रबल बनाना था कि वह अल्लाह के पैगंबर हैं और उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना महा पातक है। यहूदी उनको पैगंबर मानने के लिए तैयार नहीं थे इसलिए उन पर यह बंदिश नहीं थी। कुछ इतिहासकारों ने इसे जिस रूप में पेश किया है उसमें उनकी ओर से किया गया कुछ फेरबदल भी हो सकता है, फिर भी इसकी निम्न पंक्तियां ध्यान देने योग्य हैं:
Whosoever is rebellious, or seeketh to spread iniquity, enmity, or sedition, amongst the believers, the hand of every man shall be against him, even if he be the son of one of themselves. No believer shall be put to death for killing an infidel; nor shall any infidel be supported against a believer. Whosoever of the Jews followeth us shall have aid and succour; they shall not be injured, nor shall any enemy be aided against them. Protection shall not be granted by any unbeliever to the Quraish of Mecca, either in their persons or their property. Whosoever killeth a believer wrongfully shall be liable to retaliation; the Muslims shall join as one man against the murderer.
‘The Jews shall contribute with the Muslims, so long as they are at war with a common enemy. The several branches of the Jews — those attached respectively to the Bani ‘Auf, Bani Najjar, Bani Aws, etc., are one people with the believers. The Jews will maintain their own religion, the Muslims theirs. As with the Jews, so with their adherents; excepting him who shall transgress and do iniquity, he alone shall be punished and his family. No one shall go forth but with the permission of Muhammad. None shall be held back from seeking his lawful revenge, unless it be excessive. The Jews shall be responsible for their own expenditure, the Muslims for theirs. Each, if attacked, shall come to the assistance of the other. Madina shall be as sacred and inviolable for all that join this treaty.

आरंभिक अवस्था में जब उनकी और उनके अनुयायियों की संख्या बहुत कम थी, तब शांति और मेलजोल के मार्ग पर चलने के अलावा उनके पास और कोई चारा भी नहीं था।

मदीने में अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ने के साथ उनको गैर-मुसलमानों को उत्पीड़ित करने की छूट दी गई या मदीना के लोगों के खड़जंगी स्वभाव के अनुरूप उन्होंने ऐसा करना आरंभ किया, यह पता नहीं । परंतु इसका यह परिणाम हुआ कि यहूदियों को छोड़कर दूसरे सभी अरब या तो इस्लाम कबूल कर बैठे या या दिखावा करने को मजबूर हुए कि वे मुसलमान हैं जबकि वे अपने पुराने रीति रिवाज को छोड़ने के लिए वे तैयार नहीं थे और इसलिए जिनको मोहम्मद भरोसे लायक नहीं मानते थे। उनकी स्थिति भारत के मेवाती राजपूतों जैसी थी जिन्हें हाल के दिनों में पक्का मुसलमान बनाने के प्रयत्न होते रहे।

मदीना के लोगों में लूटपाट खून खराबा शर्म नहीं गर्व की बात समझी जाती थी। मोहम्मद की अपनी और दूसरे मुहाजिरों की आर्थिक तंगी और मक्का के कुरेशियों के प्रति क्रोध, उनके द्वारा मक्का की अपनी परिसंपत्तियों से वंचित किए जाने के क्षोभ का मिला-जुला परिणाम था कि उन्होंने रमजान के पवित्र महीने में यह पता चलते ही कि कुरेशियों का बहुत बड़ा काफिला सीरिया से मक्का को लौट रहा है, उन्होंने इस महीने की पवित्रता की चिंता किए बिना हम्जा को तीस मुहाजिरों के साथ उस पर कब्जा करने के लिए रवाना किया। रमजान के महीने की पवित्रता भंग करने का आदेश अल्ला से मिलना ही था, इसलिए इसका इलहाम भी हुआ भी था:

They will ask thee concerning war in the sacred mouth: say, ‘To war therein is bad, but to turn aside from the cause of God, and to have no faith in Him and the sacred Temple, and to drive out its people, is worse in the sight of God; and civil strife is worse than bloodshed.’ Suratu’l-Baqara (ii) 214.
अल्लाह के हुक्म के बाद भी लूट के इस प्रयत्न में उन्हें सफलता नहीं मिली। सेल ने इस पर टिप्पणी की है:
There was nothing seriously wrong from an Arab point of view in one tribe attacking the property of another. Muhammad did nothing more than any other Arab chief, and such he now was, would have done; so there seems no reason to ignore the historic fact that the Muslims began the strife of arms, that they, and not the Meccans, were the first to seek for plunder. The former sorely needed it; the latter did not. This is a simple explanation of the fact and nothing is gained by disguising it. In some way or other means of sustenance had to be provided, and so on the seventh day of the month Ramadan, that is, seven months after his arrival in Madina, Muhammad appointed Hamza bin ‘Abdu’l-Muttalib to the charge of a small expedition.

इसके बाद ऐसे ही लूट के छोटे मोटे दो प्रयत्न उबैदा और साद की अगुआई में हुए। ये भी विफल रहे। जो भी हो हथियार उठाने की यही आरंभिक घटनाएं हैं। इन्हें भले मजहबी रंगत देने की कोशिश की गई हो परंंतु ये आर्थिक कारणों से की गई लूटपाट की घटनाएँ, जिसमें हाथ कुछ नहीं आया। एक अधिकारी विद्वान मांटगोमरी वैट्स के अनुसार “Most of the participants in the [early Islamic] expeditions probably thought of nothing more than booty … There was no thought of spreading the religion of Islam.” Ahmed Al-Dawoody (2011), The Islamic Law of War: Justifications and Regulations, p. 87. Palgrave Macmillan. द्वारा उद्धृत, विकीपीडिया, जिहाद.

Post – 2019-07-11

फितरत, हिंसा और क्रूरता का दौर

भूमिका
मोहम्मद के जीवन में आए इस निर्णायक मोड़ की चर्चा इससे पहले दो बातों को जिनका उल्लेख पीछे कर आए हैं दोबारा दोहराना चाहते हैं। पहला उनके ऐसा हो और बचपन से संबंधित है और दूसरा उस योजना से जिसके लिए मोहब्बत को सबसे उपयुक्त पाया। उनके पिता का देहांत जन्म से पहले ही हो गया। जन्म के बाद माता ने नहीं, मां की नजरों से दूर, एक बद्दू स्त्री इनाम की उम्मीद में दूध पिलाया। ऐसी स्त्री तंगहाल ही हो सकती थी। उसे दो बच्चों को पालना पड़ रहा था। आदर्श स्थिति में भी वह अपने बच्चे का दूध भले बांट दे, आश्रित समझकर पोषित बच्चे की देखभाल करे, परंतु मातृस्नेह नहीं बांट सकती थी, जिसका नियंत्रण उसके हाथ में नहीं, महामाया के हाथ में है।

पुरस्कार की आशा में उचित देखभाल के बावजूद सगे शिशु की तुलना में अपने को उपेक्षित अनुभव करने की उस शिशु की पीड़ा को हम समझ नहीं सकते। दो साल की उम्र के बाद जब पोषिका उसको सगी मां के पास लेकर आती है तो मां उसके स्वास्थ्य को देखते हुए मां को इतनी प्रसन्नता हुई कि उन्होंने आगे के पालन पोषण संतुष्ट होकर उसे इनाम इकराम देकर बच्चे को दुबारा उसी के हवाले कर देती है। एक भी विधवा जिसके भावनात्मक संतोष के लिए सबसे जरूरी उसकी संतान होती है, जिसे अभिजात्य की जरूरतों के अनुसार दूसरे का स्तनपान कराने बाध्यता थी, उस बाध्यता के पूरे होने के बाद भी वह उसे अपने साथ नहीं रखना चाहती। दो साल और गुजरने के बाद हलीमा बच्चे को लेकर फिर मक्का आती है। मां ने उसे फिर रेगिस्तानी जिंदगी के अनुभव के लिए उसके हवाले कर देती है। अपने स्वजनों के द्वारा ही ठुकराए जाने की पीड़ा के साथ यह बोध कि मुझे कोई नहीं चाहता, और फिर पाँच साल के बाद पालिका उसके व्यवहार में आई ऐसे परिवर्तनों से जिससे उसके जीवन में भी समस्या पैदा होने लगती है, उसे मां को यह कह कर लौटाती है क्यों उसने कुछ ऐसी विचित्र घटनाएं देखी है जिसके बाद वह इस बच्चे को अपने पास रख ही नहीं सकती। कोई चारा न रह जाने के बाद मां को उसे रखना पड़ता है, परंतु उसका स्नेह और संरक्षण भी उसे नहीं मिल पाता। कुछ यूं जैसे कोई प्यासा पानी का प्याला मुंह से लगाए कि घूंट मरने से पहले ही प्याला हाथ से छूटकर नीचे गिरे और टूट जाए। साल भर के भीतर ही मां भी चल बसी।

पारिवारिक दासी के हाथों दो साल तक दादा की देखरेख में पला कि दादा भी चल बसे। यह बोध कि मैं अवांछित हूं, मेरा कोई नहीं, मैं अपशकुन हूं, मुझे कोई नहीं चाहता, उस शिशु की मानसिकता को कितनी गहराई से प्रभावित करता है इसे कोई दूसरा नहीं जान सकता। पूरी दुनिया में मेरा सगा कोई नहीं, यह दुनिया मेरी नहीं है, एक ओर यह आंतरिक भटकाव और दूसरी ओर आजीवन किसी संरक्षक की तलाश। कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढे बन माहि। कवि सत्य है परंतु कई बार कविसत्यों के माध्यम से मानव मन की ग्रंथियां जिस तरह उस तरह कोई विश्लेषक उन्हें बयान कर सकता है। पिता के संरक्षण की तलाश मां की ममता की तलाश, जो है नहीं उसकी तलाश, वो मिले तो भी अतृप्ति बनी रहे, नेदं नेदं नान्यं विद्यते (यह नहीं, यह भी नहीं, पर और कुछ न है न संभव है) समझौता करो, जो है उससे अधिक कुछ सुलभ नहीं है। अनाथ होने और अनाथता के बोध की असंख्य अनुभूतियाँ हैं। कोई नहीं जानता कि कौन, किस को, कहां ले जाएगी।

मोहम्मद को संरक्षक दो मिले। अबू तालिब जिनमें वह अपने पिता की छवि ढूंढता पचीस साल तक बच्चे की तरह उनके साथ लगा रहा। अपनी तंगी में उन्हें कहना पड़ा अब बड़ा हो गया, कुछ काम कर और काम कहां मिलेगा यह भी बताया।

संरक्षिका उन्हीं की पत्नी बनकर मिली। कुछ लोगों को यह समझने में दिक्कत होगी कि मोहम्मद ने अनमेल विवाह क्यों किया, और कुछ इसका समाधान उस दौलत में तलाशेंगे जिसकी स्वामिनी खादिजा थीं। परंतु यह दुनिया मेरी नहीं है, इसमें कोई मेरा नहीं है, इस उदासीनता में भटकने वाले युवक की दिलचस्पी दौलत में नहीं हो सकती थी, मोहम्मद की भी कभी नहीं रही। यह खादिजा का निश्छल विश्वास और उसमें दिखाई देने वाली मां की छवि थी जिसने उन्हें अभिभूत कर दिया।

उनकी मृत्यु के बाद मोहम्मद से किसी ने पूछा, ‘आपको उनका अभाव बहुत खल रहा होगा’. तो जवाब में उन्होंने कहा, वह मेरी पत्नी की थी और मां भी। इस जवाब में उन सभी प्रश्नों का हल छिपा है कि खादिजा के जीवन काल में मोहम्मद क्यों उनके आज्ञाकारी पति क्यों बने रहे।

जिस दूसरे तथ्य को दोहराना चाहता हूं, वह है, वह योजना जो खादिजा के दिमाग में थी और जिसके लिए उन्होंने मोहम्मद को सबसे उपयुक्त पाया था। यह थी कबीलाई अहंकार और आपसी तकरार में डूबे हुए अरब जगत में शांति और राष्ट्रीय एकता की भावना पैदा करना, और अबीसीनिया, रोम और फारस के बढ़ते हुए दबाव से मुक्ति, जिसके साथ गौण रूप में यहूदी, ईसाई और ईरानी अग्निपूजकों धार्मिक हस्तक्षेप से मुक्ति अपने आप जुड़ जाती थी।

प्रसंग वश, याद दिला दें, यमन पर अबीसीनिया का 75 साल तक अधिकार रहा था। जब सना में उसने एक विशाल कैथेड्रल बनवाया और उसे मक्का से बड़ा तीर्थ बनाने की कोशिश की और इसके लिए वहां के शासक अब्राहा ने हाथी पर सवार होकर अपनी सेना का संचालन करते हुए काबा को ध्वस्त करने के लिए आक्रमण किया, जिसके कारण आक्रमण के वर्ष को ही हाथी-वर्ष के नाम से जाना जाता है, उसमें उसको भारी पराजय मिली।

जानते हैं कैसे? मक्का की सेना बहुत मामूली थी उसका सामना कर ही नहीं सकती थी। दैव कृपा से पक्षियों का एक बहुत बड़ा झुंड एकाएक आया। एक-एक पक्षी ने तीन-तीन पत्थर ले रखे थे – दो दोनों पंजों में और एक चोंच में। उन्होंने सेना पर पत्थर बरसाए और उसी ने अब्राहा घायल होकर मरते मरते बचा और उसकी सेना का सफाया हो गया। यह उस वर्ष की घटना है जिसमें मोहम्मद का जन्म हुआ बताया जाता है। आप चाहे तो इसे उनके चमत्कार से भी जोड़ सकते हैं।

खैर इसके साथ अबीसीनिया की ताकत घट गई। अरबों ने उन्हें भगाने के लिए फारस से मदद माँगी। वे मदद को आए और ईसाइयों को वहां से भगा दिया, परंतु खुद कब्जा जमा बैठे। मक्का पर कब्जा जमाने के लिए रोम के सम्राट हेराक्लियस ने भी उस्मान को, जो पहले हनीफ था, पर बाद में ईसाई बन गया था, 610 में मक्का का गवर्नर बना कर भेजा था, लेकिन मक्का वालों ने विदेशी शासन कबूल न किया और उसे भागना पड़ा था। मक्का के राजनीतिक और धार्मिक माहौल में यही परिस्थितियां थीं जिनमें एक नया प्रयोग किया जा रहा था, इसलिए मैं इस बात को दोहराना चाहता हूं कि यह अभियान शांति-व्यवस्था, स्वतंत्रता और अरब जगत की एकता के लिए आरंभ हुआ था। राजनीतिक आंदोलन आरंभ नहीं किया जा सकता था क्योंकि उस दशा में कबीलों का अपना अहंकार किसी अन्य के नेतृत्व को स्वीकार करने में बाधक था और इसलिए मोहम्मद की साधना और असाधारण सिद्धि को ओट के रूप में इस्तेमाल किया गया। यह एकेश्वरवाद के विरुद्ध बहुदेववादियों का प्रतिरोध था जिसके कारण अपने मत के प्रचार के लिए उन्हें मदीना उपयुक्त दिखाई दिया और मदीने के धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक यथार्थ ने पूरा रास्ता ही बदल दिया।

यहां हम मोहम्मद की मनोग्रंथि के उस पहलू को लेना चाहेंगे जिसमें उन्हें लगता था कि इस दुनिया में कोई मुझे नहीं चाहता। यह दुनिया मेरी नहीं है। इस हीनता ने अपने दोनों संरक्षकों के न रहने पर अवरुद्ध आवेग के जलाशय के टूटे हुए तटबंध का अनियंत्रित रूप ग्रहण कर लिया और जिससे वंचित रहे उसको हर कीमत पर पाने और अपने अधिकार से बाहर न जाने देने की झक क्रमशः उग्र से उग्रतर होती चली गई। एक सुंदर, नवोढ़ा और दूसरी अनुभवी और समर्पित प्रौढ़ा के होते हुए 52 साल के, ढलती उम्र के, किसी व्यक्ति को सुखी रहने ने के लिए कोई और झंझट पालने की जरूरत नहीं थी। झमेला तो एक के बाद दूसरी के आने के साथ ही आरंभ हो गया था, परंतु जो कुछ भी है उस पर कब्जा जमा कर अपना बनाने की वह भूख ही थी जिसने सभी उपलब्ध स्त्रियों को अपनी पत्नी बनाने और उनके अतिरिक्त भी रखेलों का हरम बसाने का कारण बना। यह काम उद्वेग नहीं था, तीतर के खालीपन को भरने का अवचेतन दबाव था, जिसने उनको अपनी समस्याएं बढ़ाने के लिए बाध्य किया।

इसी पृष्ठभूमि में हम उनके निरंतर मानव द्रोही होते जाने वाले आचरण की पड़ताल करेंगे।

Post – 2019-07-10

रीतियां, रूढ़ियां और विश्वास (अन्तिम)

कामदेव की मारक शक्ति की पहचान
मोहम्मद साहब को मनुष्य की है सीमाओं और शक्तियों की बहुत अच्छी समझ थी। वह जानते थे की महान से महान योद्धा सुंदरियों के आगे घुटने टेक देता है। इसे वह अपनी मानवीय दुर्बलता के कारण जानते थे, या मानव स्वभाव की बहुत अच्छी समझ के आधार पर, यह तय करना कठिन है। उन्होंने स्वयं उस ढलती आयु में आत्म संयम खो दिया, जब महिलाएं अनासक्ति का शिकार हो जाती हैं परंतु इसके अतिरिक्त उनका यह आचरण उनकी युवावस्था के संयम को देखते हुए भी अविश्वसनीय प्रतीत होती है।

संभवतः यह भी एक कारण है जिससे मुस्लिम व्याख्याताओं ने उनकी कामान्धता को पर-दुख-कातरता के दुर्लभ नमूने के रूप में पेश किया है। मोहम्मद साहब ने जिस तरह अपने जीवन में सभी मर्यादाओं से मुक्त होकर स्वछंदता का रास्ता अपनाया और अपनी दुर्बलता के लिए अल्लाह को जिम्मेदार ठहराया, उसी तरह उन्होंने प्राणिमात्र की इस दुर्बलता को समझते हुए स्वर्ग की ऐसी कल्पना की जिसमें एक-एक बंदे के हिस्से में बहुभोग्या चिरकिशोरी हूरों का हरम हासिल हो, बल्कि इस जीवन में भी इतनी खुली छूट धार्मिक समर्थन के साथ दी जो आदिम अवस्था के पाशविक स्वैराचार की याद दिलाती है।

विवाह और विवाहेतर संबंध
अरब समाज में पहले विवाहेतर संबंध कुछ पारिवारिक दायरों के बाहर ही चलन में थे। सभी को सामाजिक मर्यादाओं का ध्यान रखना होता था। मोहम्मद भी इनका तब तक निर्वाह करते रहे जब तक उनकी निरंतर उग्र होती लालसा में कोई वर्जना बाधक नहीं बनी, क्योंकि उस दशा में अल्लाह का फरमान आ जाता जिसका उल्लंघन वह नहीं कर सकते थे, इसलिए दूसरों पर वह प्रतिबंध लागू रहता, केवल उन्हें उसकी छूट मिल जाती ; –
तुम्हारे लिए हराम है तुम्हारी माएँ (विमाताएं और दादियाँ) बेटियाँ (और पोतियाँ), बहनें (पिता से पैदा, पिता से विवाह से पहले उसी माँ से पैदा) फूफियाँ, मौसियाँ, भतीतियाँ, भाँजिया, और तुम्हारी वे माएँ जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया हो और दूध के रिश्ते से तुम्हारी बहनें और तुम्हारी सासें और तुम्हारी पत्नियों की बेटियाँ जिनसे तुम सम्भोग कर चुक हो (परन्तु यदि सम्भोग नहीं किया है तो इसमें तुम पर कोई गुनाह नहीं), और तुम्हारे उन बेटों की पत्नियाँ जो तुमसे पैदा हों और यह भी कि तुम दो बहनों (साथ ही उसकी भतीजी, बुआ और मौसी) से एक साथ निकाह कर सकते हो; जो पहले जो हो चुका सो हो चुका। निश्चय ही अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है।[]

यह छूट तो सामान्य मुसलमानों के लिए थी। मोहम्मद साहब के लिए ये बंधन लागू नहीं होते थे, पैगंबर बनने के बाद वह सामान्य मनुष्य नहीं रह गए थे। इसलिए:
ऐ नबी हमने तुम्हारे वास्ते तुम्हारी उन बीवियों को हलाल कर दिया है जिनको तुम मेहर दे चुके हो और तुम्हारी उन लौंडियों को (भी) जो खु़दा ने तुमको (बग़ैर लड़े-भिड़े) माले ग़नीमत में अता की है और तुम्हारे चचा की बेटियाँ और तुम्हारी फूफियों की बेटियाँ और तुम्हारे मामू की बेटियाँ और तुम्हारी ख़ालाओं की बेटियाँ जो तुम्हारे साथ हिजरत करके आयी हैं (हलाल कर दी और हर ईमानवाली औरत (भी हलाल कर दी) अगर वह अपने को (बग़ैर मेहर) नबी को दे दें और नबी भी उससे निकाह करना चाहते हों मगर (ऐ रसूल) ये हुक्म सिर्फ तुम्हारे वास्ते ख़ास है और मोमिनीन के लिए नहीं और हमने जो कुछ (मेहर या क़ीमत) आम मोमिनीन पर उनकी बीवियों और उनकी लौंडियों के बारे में मुक़र्रर कर दिया है हम खू़ब जानते हैं और (तुम्हारी रिआयत इसलिए है) ताकि तुमको (बीवियों की तरफ से) कोई दिक़्क़त न हो और खु़दा तो बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है (33.50)

[] Muhammad Farooq Khan and Muhammad Ahmed के अनुवाद में कुछ अंश छूट गए थे, उन्हे हमने पूरा कर दिया है इसलिए अंग्रेजी अनुवाद : 4.23. Forbidden to you (O believing men) are your mothers (including stepmothers and grandmothers) and daughters (including granddaughters), your sisters (including full sisters and half-sisters), your aunts paternal and maternal, your brothers’ daughters, your sisters’ daughters, your mothers who have given suck to you, your milk-sisters (all those as closely related to you through milk as through descent), your wives’ mothers, your stepdaughters – who are your foster-children, born of your wives with whom you have consummated marriage; but if you have not consummated marriage with them, there will be no blame on you (should you marry their daughters) – and the spouses of your sons who are of your loins, and to take two sisters together in marriage (including a niece and her aunt, maternal or paternal) – except what has happened (of that sort) in the past. Surely God is All-Forgiving, All-Compassionate.

इस्लाम के साथ जन्नत बनी
इस्लामी पुराण शास्त्र के अनुसार नरक पहले से था, स्वर्ग की स्थापना इस्लाम कबूल करने वालों में अल्लाह और पैगंबर के कहने के अनुसार चलने वालों के लिए हुई। कहा जाता है कि खादिजा ने मोहम्मद से अपने उन दोनों बच्चों के भविष्य के बारे में पूछा जिनका मोहम्मद को इल्हाम होने से पहले इंतकाल हो गया था, तो पैगंबर ने कहा, वे नरक में हैं, क्योंकि वे इस्लाम से पहले पैदा हुए थे, और मुसलमान बनने से पहले मर गए थे।
[] On the authority of ‘Ali a Tradition is recorded stating that Khadija once asked about the present condition of her two children, who died before the days of Islam. The Prophet said they were in hell, but that her children born after Islam, that is, his children, would be in paradise. Mishkatu’l-Masabih (Madras ed., A.H.1274), p. 23. cited by Sell.

यही हाल मोहम्मद के माता, पिता, दादा और चाचा का भी था। इस्लाम की जन्नत कायनात में सबसे बाद में जुड़ने वाली बस्ती है जिसमें केवल मुसलमान ही प्रवेश कर सकते हैं।

रोजा
रमजान का महीना पहले भी पवित्र माना जाता था और इसमें कुछ लोगों व्रत भी रखते थे और आत्म शुद्धि के लिए साधना भी करते थे यह हम देख आए हैं। परंतु मुसलमानों के लिए इसे अनिवार्य बनाने का मदीना पहुंचने के डेढ़ साल बाद यहूदियों से तालमेल बैठाने के प्रयत्न में आरंभ किया गया और संबंध सुधारने के लिए केवल इतना ही जरूरी नहीं लगा अपितु नमाज काबे की ओर रुक कर के करने की जगह यरुशलम की तरफ करके की जाने लगी क्योंकि यहूदी हर दृष्टि से मदीना में अधिक प्रभावशाली और दूसरों से आगे बढ़े हुए थे।
The change of the Qibla and the appointment of the Ramadan fast were made in the second year at Madina, about seventeen or eighteen months after the Hijra.
fn. The change of the Qibla and the appointment of the Ramadan fast were made in the second year at Madina, about seventeen or eighteen months after the Hijra. Other changes were also made [See RabbiGeiger in Judaism and Islam (S.P.C.K., Madras), pp 157-9.]. The law laid down in Suratu’l-Baqara (ii) 230 is opposed to Deut, xxiv. 1-4. See H. D. Qur’an, pp. 122-3. Sell, p. 103.

चालीस की संख्या
चालीस की संख्या का इस्लाम में बहुत महत्त्व है, इसका धार्मिक और वैज्ञानिक विश्लेषण करने का भी प्रयत्न किया गया परंतु वास्तविक कारण यह है कि मोहम्मद साहब को 40 वर्ष की आयु में पैगंबरी प्राप्त हुई थी ।

नामकरण
मुसलमानों में नाम के कुछ प्रमुख स्रोत दिखाई देते हैं। एक है इब्रानी परंपरा- इब्राहिम (अब्राहम), इजराइल, याकूब, इद्रीस, इसहाक (आइजैक), दाऊद (डेविड), सुलेमान, हारू, यूसुफ (यीकूब का बेटा) फिरवान (फराऊन), सारा, आसिया, अज़ीज़आदि।

दूसरा है, वे मानवीय गुण जिनकी मुहम्मद ने मक्का के दौर में प्रशंसा की : रज्जाक – रोजी दोनेवाला (अल्लाह), रफीक- मित्र, सहायक, सादिक – सत्यनिष्ठ, सलीम- शांत, शांतिप्रिय,>सलमा>सलामत (हुसेन), सलमान, गफ्फार – क्षमाशील> गफ्फूर> गफरुल्लाह, रफीकुद्दीन। इसी तरह, रहीम, करीम आदि जो एक ओर तो ईश्वरीय गुणों से जुड़े हैं, दूसरी ओर मनुष्यों से जिनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे इन गुणों को अपनाते हुए आत्मोत्थान करेंगे। नाम के गुण के अनुसार यदि संतान बन पाती तो मेरी चारों ओर पूजा हो रही होती, प्रभाव नहीं होता इसलिए इससे इतना ही पता चलता है किसी समाज की आकांक्षाएं क्या है? परंतु यदि ऐसे ही शब्दों के साथ दीन ( गफूर उद्दीन), करीमुद्दीन लग जाए तो आशय बदल जाता है। सदाकत हुसैन हुसैन के प्रति सत्यनिष्ठ हो सकते हैं, दूसरों के साथ उनके व्यवहार का अनुमान नहीं किया जा सकता।

एक तीसरी परंपरा मुहम्मद साहब के जीवन और उसके दौरान घटित घटनाओं और पात्रों से संबंधित है जिसका विस्तार अपेक्षित नहीं है- उस्मान, जाफर, अब्बास, तालिब,आयशा, कुलसुम, फातिमा, जुवैदा, जैनब, अली, हाशिम, कुरैशी, आदि ।
यहां हम दो बातों ओर ध्यान दिलाना चाहते हैे। पहला है, इब्राहीमी और उसके बाद ईसाई प्रभाव अरब में इतना गहरा हो चुका कि लोग उससे जुड़ने में गर्व अनुभव करते थे, पृष्ठभूमि में भारतीय आकर्षण काम कर रहा था, जिसे अयूब, मरियम, हिंद जैसे नामों में देखा जा सकता ।
दूसरा अल्लाह के पर्यायों का नामकरण में वृद्धि और उसके साथ दासता, दीनता और समर्पण भाव प्रकट करने वाले विशेषण या संज्ञाओं की भरमार। इस्लाम के भारत में आगमन के बाद इस प्रभाव से हिंदुओं में भी देवों देवियों का नामकरण में प्रवेश और उनके साथ दास भाव का गौरवान्वित होना- कबीरदास, तुलसीदास, सूरदास, नाभादास, हरिदास, रविदास, रामदास, राम चरण, शिचरण, कालीचरण – आदि।

Post – 2019-07-08

रीतियां, रूढ़ियां और विश्वास (5)

हलाला

तलाक और तिहरे तलाक पर पिछले कुछ सालों में इतनी बहस होती रही है कि सामान्य शिक्षित व्यक्ति यह जानता है कि तलाक बहुत गंभीर निर्णय है इसलिए यह क्षणिक आवेश में नहीं लिया जा सकता। कुरान के अनुसार तलाक शब्द का प्रयोग दो बार किया जा सकता है। इसके बाद अनुकंपा दिखाते हुए, मेलजोल से रहने का प्रयत्न करना चाहिए, और उसके बाद भी यदि दोनों को इस बात का अंदेशा बना रहे वे मर्यादा के भीतर नहीं रह सकते वी संबंध विच्छेद का निर्णय ले सकते हैं और ऐसा करने पर उन्हें कोई आंच नहीं आएगी। यदि ऐसा नहीं करते हैं तो गुनाहगार होंगे:
[2.229] Divorce may be (pronounced) twice, then keep (them) in good fellowship or let (them) go with kindness; and it is not lawful for you to take any part of what you have given them, unless both fear that they cannot keep within the limits of Allah; then if you fear that they cannot keep within the limits of Allah, there is no blame on them for what she gives up to become free thereby. These are the limits of Allah, so do not exceed them and whoever exceeds the limits of Allah these it is that are the unjust.

यदि मुसलमान कुरान का पालन करते हैं तो एक झटके में दिया गया तिहरा तलाक स्वयं इस बात का प्रमाण है कि यह निर्णय आवेश में लिया गया था इसलिए तलाक है ही नहीं। इसके साथ संबंध खत्म होता ही नहीं।

संबंध विच्छेद के बाद भी, तलाकशुदा दंपति को यदि बाद में अपनी भूल समझ में आए तो वे आपसी समझ से अपनी समस्या का समाधान कर सकते हैं। यह नैसर्गिक न्याय के अनुरूप भी हैं। उनके इस निर्णय को नाजायज ठहराना और निकाह हलाला की अपमानजनक शर्त पूरा करने के बाद ही स्वीकार्य बनाना किसी मनोरोगी के दिमाग में तो आ सकता है, सुलझे दिमाग के व्यक्ति की समझ से परे है?
[2.230] So if he divorces her she shall not be lawful to him afterwards until she marries another husband; then if he divorces her there is no blame on them both if they return to each other (by marriage), if they think that they can keep within the limits of Allah, and these are the limits of Allah which He makes clear for a people who know.

यह शर्त न केवल नैसर्गिक न्याय के विरुद्ध थी, दंपति के आत्मसम्मान के विरुद्ध थी, बाद के जीवन में पारस्परिक सद्भाव के विरुद्ध थी, पुरानी परंपरा के भी विरुद्ध थी और स्वयं मुहम्मद साहब के आचरण के विरुद्ध थी। इंजील के पुराने विधान के अनुसार परित्याग के बाद दूसरे से विवाह कर लेने वाली स्त्री से पुनर्विवाह संभव ही नहीं था, क्योंकि दूसरे व्यक्ति के संपर्क में आने के बाद वह दूषित हो जाती थी:
When a man takes a wife and marries her, if she finds no favor in his eyes because of ervat davar (some fault or indecency) and he writes her a bill of divorce and puts it in her hand and sends her out of his house–and she marries another man, and the latter… writes her a bill of divorce… or dies–then her former husband cannot marry her again because she has been defiled… (Deuteronomy 24:1-4).

स्वयं मुहम्मद के जीवन में ऐसी तीन परिस्थितियां पैदा हुईं जब तलाक की नौबत आई। पहली बार आयशा से निकाह करने के बाद जब मुहम्मद उसके साथ अधिक रातें बिताने लगे तो गृह कलह। हमेशा की तरह इस बार भी अल्लाह ने उनकी समस्या का हल निकाला। उन्हें इलहाम हुआ कि भले दूसरे मुसलमानों के लिए बीवियो के साथ बराबरी का बर्ताव जरूरी हो परंतु पैगंबर होने के नाते वह जिसके साथ अधिक समय गुजारना चाहें गुजार सकते हैे:-
[33.51] You may put off any of your wives you please and take to your bed any of them you please. Nor is it unlawful for you to receive any of those whom you have temporarily set aside. That is more proper, so that they may be contented and not vexed, and may all be pleased with what you give them.

अल्लाह के जो पैगाम आम आदमी की समझ में आ जाते हैं, वे भी सौतों की समझ में नहीं आते, इसलिए सौदा की समझ में भी नहीं आ सकते थे। कलह जारी रहा तो मुहम्मद साहब ने उसे दो बार तलाक कह दिया। (यह मेरी समझ है। वैसे पैगंबर पर आम मुसलमानों के लिए बने नियम लागू ही नहीं होते थे)। मुल्ले इसे तलाक नहीं तलाक की धमकी कहते हुए बहस करते रहे हैं कि उसी कुरान में अगले ही आयत में हलाला की अनिवार्यता है, इसलिए इससे गुजरने के बाद ही वह सौदा को दुबारा अपनी पत्नी बनाकर नहीं रख सकते थे।

हम नहीं जानते कि दो बार तलाक कहने के बाद शारीरिक संबंध जारी रख सकते हैं या नहीं, परंतु जो बात खुदाई पैगाम से भी सौदा की समझ में न आई थी, तलाक कहने के बाद पूरी तरह समझ में आ गई और उसने अनुनय किया कि भले मुहम्मद उसके हिस्से की रातें भी आयशा के साथ गुजारें, परंतु उसका परित्याग न करें। और मुहम्मद ने न केवल ऐसा किया बल्कि बाद में भी वह उसकी पूरी खोज खबर लेते और उसके साथ कभी कभी रातें भी गुजारते रहे। हम इसके विस्तार में न जाएंगे।

दूसरी घटना तब की है जब तक उनके सात विवाह हो चुके थे। सभी पत्नियों के साथ समानता के व्यवहार की कोशिश मुहम्मद भी करते थे। वह रोज सभी का हाल-चाल लेने उनके पास जाते थे उन्हें चूमते थे, परंतु रातें उसी के साथ गुजारते थे जिसकी बारी होती थी। यदि कभी किसी अभियान पर बाहर जाना होता था तो लॉटरी से तै किया जाता था उनके साथ कौन जाएगी।

बानू मुस्तलिक कबीले के सरदार ने कुछ दूसरे कबीलों को उकसा कर मदीना पर चढ़ाई की तैयारी की। मुहम्मद को पता चला तो वह एक बड़ी फौज लेकर उसको सबक सिखाने के लिए निकले, इस बार लूट के माल के प्रलोभन में मुनाफिकून (पाखंडी मुसलमान) भी साथ हो लिए थे । बीवियों में साथ जाने की बारी आयशा की निकली।
[ यदि आपको अभी तक यह समझ में नहीं आता था कि मुगल बादशाह अपने साथ अपना हरम भी क्यों ले जाते थे तो उसका रहस्य इसी से खुल जाएगा। वे अय्याशी के कारण नहीं, पैगंबर के आदर्शों पर चलने के कारण ऐसा करते थे।]

मुसलमानों ने उसे परास्त कर दिया। बहुतों को बंदी बना लिया। लूट में बहुत सारा माल मिला, और मिली हैरिस की बहुत सुंदर और नफीस पुत्री, जुवैरा, जिसकी फिरौती की रकम बहुत ऊंची लगाई गई थी। वह अपनी शिकायत लेकर मुहम्मद साहब के पास पहुंची तो उन्होंने उसे अपनी आठवीं पत्नी बना लिया। इसके बाद उन्होंने बानू मुस्तलिक को अपना ससुर मानते हुए सभी युद्ध बंदियों को आजाद कर दिया। उसकी सुंदरता से, और संभवतः उस पर मुहम्मद की विशेष कृपा दृष्टि से आयशा को जलन अनुभव हुई।[]
[‘Ayisha describes her as very beautiful and graceful. Muhammad listened to her story, proposed marriage to her and was accepted. She thus became his eighth wife. The people then looked upon the Bani Mustaliq as relatives, and set all the prisoners free, on which ‘Ayisha declared that no woman was ever such a blessing to her people as
Juwaira…. ]

वापसी के समय वह अपने ऊँट के हौदे में नहीं बैठी, ऊंट हांकने वाले गुलामों को भी इसका भान नहीं हुआ, वे ऊँट लेकर आगे बढ़ गए। वह पीछे रह गई। उनके ही कहने के अनुसार उनका कंगन (या एक दूसरी कथा के अनुसार हार) खो गया था और वह उसे ही खोजने में लगी रहीं । उन्होंने अपनी ही कुर्ती में अपने को ढक लिया और बैठ गईं। कुछ देर बाद मुहम्मद की लश्कर के एक जवान सफवान ने उन्हें पहचान लिया कि यह तो पैगंबर की बीवी हैं और उनके पास आकर उन्हें अपने ऊंट पर बैठाया और उसकी बाग पकड़े वापस लाया और इस घटना ने प्रवाद का रूप ले लिया।
[ the fact that ‘Ayisha had stated that on seeing Juwaira the ‘fire of envy arose in her heart’ may have given rise to suspicion about her conduct. ]
इसके बाद आयशा बीमार पड़ गई और अपने पिता अबू बक्र के घर चली गईं। [After her return ‘Ayisha fell sick and retired to her father’s house.]

अफवाहों का बाजार गर्म था। मुहम्मद ने ओसामा बिन जैद और अली से मशवरा किया। ओसामा आयशा के पक्ष में तरह-तरह की दलीलें देता रहा, और अली की सलाह थी कि मुहम्मद को लड़कियों की कमी न थी इसलिए उन्हें आयशा को तलाक दे देना चाहिए। मुहम्मद आयशा को छोड़ना नहीं चाहते थे, इसलिए अल्लाह ने कुछ दिन बाद उन्हें इल्हाम भेजकर बचा लिया। मुहम्मद उनके पास गए और कहा, आयशा, खुश हो जा। अल्लाह ने जाहिर कर दिया कि तू निष्कलंक है। [ ‘O ‘Ayisha rejoice, Verily the Lord hath revealed thine innocence.’ ] और जनप्रवाद को रोकने के लिए सूरा नूर की आयद हुआ [The
opening verses of the Suratu’n-Nur (xxiv) were then delivered to the people.] Sell, p.159

[This is] a surah which We have sent down and made [that within it] obligatory and revealed therein verses of clear evidence that you might remember.
The [unmarried] woman or [unmarried] man found guilty of sexual intercourse – lash each one of them with a hundred lashes, and do not be taken by pity for them in the religion of Allah, if you should believe in Allah and the Last Day. And let a group of the believers witness their punishment.
And those who accuse chaste women and then do not produce four witnesses – lash them with eighty lashes and do not accept from them testimony ever after. And those are the defiantly disobedient,
The fornicator does not marry except a [female] fornicator or polytheist, and none marries her except a fornicator or a polytheist, and that has been made unlawful to the believers.
Except for those who repent thereafter and reform, for indeed, Allah is Forgiving and Merciful. Suratu’n-Nur 24.1-5.
दुष्प्रचार करने वालों को कोड़े लगे और दुष्प्रचार बंद हो गया और प्रशस्तिगान आरंभ हो गया।

मौका एक तीसरा भी आया था, जब जैनब से निकाह करने के बाद दावत पर आए मेहमान विदा होने का नाम ही नहीं लेते थे, जिसका कुछ विस्तार से उल्लेख हम पहले कर आए हैं, इसलिए उसकी आवृत्ति करने की जरूरत नहीं.

मुसलमान मुहम्मद से शिक्षा ग्रहण नहीं करते, अरबी की जानकारी न होने और आयतों की व्याख्या में कुछ हेरफेर करने की गुंजाइश होने के कारण मुल्लों और काजियों के मोहताज बने रहते हैं, जिनमें से कुछ को हलाला के नाम पर धार्मिक व्यभिचार और आर्थिक लाभ दोनों मिलता है।

Post – 2019-07-06

रीतियां, रूढ़ियां और विश्वास (4)

मनचलापन
हिंदू मूल्य-प्रणाली में देवता और ईश्वर भी नैतिक मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं कर सकते। यदि करते हैं तो पूज्य होते हुए भी, उस आचरण के लिए निंदा के पात्र रहेंगे। उनका उपहास किया जाएगा। महापुरुषों या देवताओं का अमर्यादित आचरण समाज के लिए अनुकरणीय नहीं हो सकता।

सामाजिक आचरण का आदर्श क्या है यह विवाद का विषय हो सकता है। अलग-अलग कालों, समाजों में अनेक कारणों से, सामाजिक रीतियां और आचार बदल जाते हैं। इसे प्राचीन विचारकों ने युग-धर्म की संज्ञा दी। जिस युग में दी उसमें उनका भूगोल का ज्ञान बहुत कमजोर था। जहां बाहर की यात्राओं पर ही रोक लग जाए, बाहर का ज्ञान अज्ञान से मिलता जुलता ही होगा। यदि ज्ञान होता तो वे देश-काल-सापेक्ष धर्म की बात करते। अपने समय की सीमाओं में उनका यह विवेक भी कम सराहनीय नहीं है।

किसी काल में, समाज विशेष में जो भी नियम हैं सभी पर लागू होते हैं। केवल इस्लाम है जिसमें न तो अल्लाह न्याय और नियम पर टिका रहता है, न पैगंबर, न ही उस रीति नीति को अपनाने वाले समाज के लोग। उन्हीं वाक्यों का अपनी जरूरत के अनुसार अलग अलग पाठ करते हैं। इस पर किसी मुसलमान को कोई हैरानी नहीं होगी, क्योंकि इससे उसकी इस धारणा की पुष्टि ही होगी क इस्लाम जैसा दूसरा कोई धर्म नहीं है और मुसलमानों जैसा कोई इंसान नहीं है। समस्या दूसरों की है कि वे इस्लाम की खूबियों को समझें और तय करें कि इंसानियत को इस्लामियत से कैसे बचाया जा सकता है।

मोहम्मद अरब समाज की सामाजिक मर्यादाओं का निर्वाह करते थे, परंतु जहां उनको कोई लाभ दिखाई देता था, उनको अल्लाह के आदेश के बहाने तोड़ने में देर नहीं लगाते थे। हमें इस बात की पक्की जानकारी नहीं है कि इस्लाम से पहले अरब समाज में बहुविवाह का चलन था या नहीं, विधवा और विधुर पुनर्विवाह अवश्य र सकते थे। महिलाओं को आजादी थी, इसका उल्लेख हम पीछे कर आए हैं। चौथे सूरा की जिस आयत में मुसलमानों को 4 पत्नियां रखने का विधान है, वह उनके चौथे विवाह के बचाव में उतरा था।

उन्हें स्वयं इस मर्यादा का सम्मान करना चाहिए था, लेकिन संभवतः जेनब को देखने के बाद यह मर्यादा उन्होंने तोड़ दी, पहली लोक में प्रचारित हो चुकी थी इसलिए उसका निषेध नहीं हो सकता था। उन्होंने एक नया तरीका निकाला कि पैगंबरों के लिए अल्लाह ने पहले से ही खुली छूट दे रखी है कि जितनी शादियां चाहे कर सकते हैं :
“it seems a very great pity that the Prophet not only did not himself follow it, but even exceeded the liberty given to his followers, for at a time when he had nine wives, a revelation was produced to sanction this excess over the legal four. See Suratu’l-Ahzab (xxxiii) 49, 52”.(Canon Sell, 203)

बात यहीं खत्म नहीं हुई। प्राचीन अरब समाज से लेकर मुस्लिम समाज तक में महिलाओं को विधवा हो जाने के बाद दूसरा विवाह करने की छूट थी। उन्होंने अपनी पत्नियों से मरने के बाद किसी दूसरे से विवाह करने का अधिकार भी छीन लिया। “And you should never cause the Messenger of God hurt, in any way; nor ever marry his wives after him.” Sura 33.53

हमें अक्सर पढ़ने को मिलता है कि मुसलमान पैगंबर की बीवियो को मां के समान समझते हैं। पर उनके पास कोई विकल्प ही नहीं है, क्योंकि इसका विधान स्वयं पैगंबर कर गए थे। जो कुरान में यकीन करते हैं उन्हें उनको माता मानना ही होगा।

मानवीय दृष्टि से देखने पर यह उन महिलाओं पर अत्याचार था, क्योंकि तत्कालीन आयुष्य को देखते हुए उन्होंने बाद के लगभग सभी विवाह बुढ़ापे में किए थे। इनमें से सभी महिलाएं उम्र में उनसे कम थींं। अकेली सौदा थी जिसके विषय में अलग अलग लेखक अलग अलग तरह की कहानियां गढ़ते हुए सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि वह बूढ़ी थीं पर वह भी मोहम्मद साहब से 10 साल छोटी थीं। विवाह के समय उनकी उम्र 50 साल थी। इसका मतलब है सौदा की उम्र 40 वर्ष थी। यह वही उम्र है जिसमें खदीजा से उनका विवाह हुआ था। विवाह की रस्म खदीजा के मरने के बाद शोक की अवधि पूरा होते ही आरंभ हो गई थी। पहले छह या सात साल की आयशा से सगाई और फिर सौदा से विवाह।[]

[] इसके विषय में भी 4-5 तरह की किस्से मिलते हैं। एक के अनुसार: According to the Raudatu’l-Ahbab he was now much dejected, when a friend said: ‘Why do you not marry again?’ He replied: ‘Who is there that I could take?’ ‘If thou wishest for a virgin there is ‘Ayisha, the daughter of thy friend Abu Bakr; and if thou wishest for a woman there is Sauda, who believes in thee.’
He solved the dilemma by saying, ‘Then ask for both.’ (Canon Sell)

दूसरे के अनुसार, यह प्रस्ताव रिश्ते की एक महिला ने रखा था: They waited till the mourning period of Khadeejah, was over and Khawlah bint Hakeem, the wife of `Uthmaan ibn Math’oon, went to him, and said: “O Prophet of Allah! I see you feel the loss of Khadeejah.”; “Yes,” he said. “She was both mother and housewife”. Khawlah suggested that he, should marry and she offered to find him a bride. Muhammad said, “Who could be that bride?” Khawlah suggested `Aa’ishah bint Abu Bakr, the daughter of the first man to believe in Muhammad’s Message, and also his best friend. But `Aa’ishah was very young so he engaged her and left her in her parents’ house till she matured. But Khawlah and the other Companions didn’t want a delayed marriage, and wanted someone to comfort him and assist him in taking care of his children, especially at that time when his days were burdened with heavy struggle and toil.

She mentioned Sawdah bint Zam’ah, the widow of as-Sakran ibn `Amr with him.

इस पाठ में उसे एक ओर तो बूढ़ी और कुरूप बताया गया है, “She was old and lacked beauty and wealth, moreover her father and brother were pagans so it was very difficult for her to survive and retain her faith in this environment.” और दूसरी ओर मुहम्मद की कामनाएं पूरी करने वाली।
एक अन्य कहानी में विवाह का प्रस्ताव मोहम्मद ने सौदा के पिता के पास भेजा था और उन्होंने खानदान को देखते रजामंदी जताते हुए सौदा की भी राय लेने का सुझाव दिया।

एक अन्य पाठ में प्रस्ताव मुहम्मद ने सौदा के सामने रखा था जिसके पहले से पांच छह बच्चे थे, उसने कहा मेरे लिए तो यह खुशी की बात होगी पर ये बच्चे ऊधम मचाएंगे जिससे आप को परेशानी होगी जिसके जवाब में मोहम्मद ने कहा था, मुसलमानों के बच्चे तहजीबवाले होते हैं। उनसे हमें कोई परेशानी नहीं होगी।

एक अन्य के अनुसार मोहम्मद से उनकी कोई संतान नहीं, पहले पति से केवल एक पुत्र था।
Hazrat Sawdah (Radhiyallahu-Anha) had no children from the Prophet (Sallallahu-Alayhi-Wasallam ) However, from her first husband (Hazrat Sakran ) she had a son named Hazrat Abdur-Rahmaan (Radhiyallahu-Anhu). He fell a martyr fighting in the battle of Jalula.UMMAHATUL MUMINEEN.

एक ही घटना को लेकर इतने तरह की कहानियों का आधार हदीस ही हो सकता है, जिससे दो बातों का पता चलता है। पहला यह कि इनका मोहम्मद के जीवन से सीधा संबंध नहीं है। उनकी और इस्लाम की और स्वयं अपनी जरूरतों के अनुसार लोगों ने कहानियां गढ़ कर हदीस में भर दीं। सबसे अधिक कहानियां आयशा की गढ़ी हुई हैं, और वे कितनी भरोसे की हैं इसका एक उदाहरण यह है:
It is recorded, on the authority of ‘Ayisha, that a brightness like the brightness of the morning came upon the Prophet. According to some commentators this brightness remained six months, and in some strange way Gabriel through this brightness made known the will of God.

परन्तु आयशा उस नूर या आभा मंडल की गवाह बन ही नहीं सकतीं, क्योंकि वह अभी पैदा ही नहीं हुई थीं। हदीस की कहानियों की काल्पनिकता पर, इससे अच्छी टिप्पणी नहीं हो सकती।

सौदा की आयु के विषय में केवल इतना ही कि आयशा की साथ 3 साल बाद निकाह होने से पहले उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखद। आयशा के आने के बाद, मोहम्मद उनकी उपेक्षा करने लगे, इससे गृह कलह पैदा हुआ और मोहम्मद ने उन्हें तलाक तक दे दिया। इस पर दो मत हैं- 1. दे दिया; 2.[] देने का इरादा जताया, जिसके बाद उन्होंने कहा अपने हिस्से की रात में भी मैं आयशा को दे देती हूं, परंतु मुझे बेसहारा न छोड़िए अपने आप पे मेरे पल

[]वकार अकबर चीमा (The Prophet’s conduct with his wife Sawdah: The issue of divorce) ने अनेकानेक क्यों का हवाला देते हुए, इस पर विचार किया है।

ऐसी टिप्पणियों का लक्ष्य केवल यह दिखाना होता है कि मोहम्मद साहब ने इतने सारे विवाह कामुकता के वशीभूत होकर नहीं किए थे, अपितु निराश्रितों को सहारा देने के लिए किया था। परंतु आयशा के प्रति आसक्ति के कारण सौदा को तलाक देने की नौबत आना, इनकी सच्चाई खोल कर रख देता है। जो कमी रह जाती है उसे जैनब का प्रकरण पूरा कर देता है।
आयु
सबसे दुखद पक्ष यह है कि मोहम्मद साहब की चौथी शादी के बाद के सारे विवाह 55 की उम्र के बाद हुए। सभी में महिलाओं की आयु काफी कम थी। एक मामला मिस्र का है। अरब पर कब्जा कर लेने के बाद उन्होंने फारस, बाइजेटाइन ( Byzantines)और मिस्र को संदेश भेजा कि वे इस्लाम कबूल कर लें। ़
दूसरों ने क्या किया इसे छोड़ दें, मिस्र की बात लें जिस के गवर्नर ने जो कदम उठाया वह निम्न प्रकार है: Then followed a letter to the Maquqas, the governor of Egypt, who returned a courteous reply and sent as a present two Coptic damsels, Mary and her sister Sherin,1 and a white mule for the Prophet’s use. Mary was the fairer of the two sisters and was kept by Muhammad for his own harem. Sherin was bestowed on the poet Hasan.
fn. The Raudatu’l-Ahbab, quoted in the Mudariju’n-Nabuwat {vol. ii, p. 699) says: ‘The gifts of the Maquqas were four damsels, one of them was Mary and another her sister Sherin’ Sell, p. 184
खास बात यह कि किसी दूसरी पत्नी से उन्हें कोई संतान न हुई, मेरी से 60 साल की उम्र में उन्हें एक पुत्र की भी प्राप्ति हुई जिसका नाम इब्राहिम रखा गया । []
[] Towards the end of the eighth year of the Hijra, Mary the Copt bore a son to the Prophet.
Tabari (series 1, vol. iii, p. 1561) says: ‘The Maquqas gave the Prophet four damsels, amongst whom was Mary, mother of Ibrahim.’ Sell, p. 184

हम यह दिखाने के प्रयत्न में अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए मोहम्मद ने पहली बार बहुविवाह का समर्थन किया, और सभी मुसलमानों के लिए 4 विवाह जायज ठहराया। परंतु सीमा पर टिके ना रखिए अपने को सभी सीमाओं से ऊपर रख कर सेक्स मेनियाक की तरह आचरण करते रहे। इसका लाभ उठा मुसलमानों में जो शक्तिशाली थे, कुरान की पाबंदियों की आज्ञा करते हुए मनमानी करते रहे। भारतीय इतिहास में इसका सबसे नंगा रूप मुगल काल में दिखाई देता है।

सल्तनत काल में किसी सुल्तान ने उस तरह के हरम नहीं बसाए जैसे मुगलों ने। सैकड़ों की संख्या में पत्नियों के अतिरिक्त रखैलों का मजमा और उनके ऊपर से तवायफों की ललक। इसके संदर्भ में याद दिला दें कि वैध पत्नियों के अतिरिक्त रखैलों की परंपरा मोहम्मद ने ही आरंभ की थी। मिस्र के गवर्नर द्वारा भेजी गई युवतियों के अतिरिक्त, पहले से उनकी दो रखैलें थीं अल जरिया और तुकाना।
परंतु मोहम्मद साहब के चरित्र के मामले में, मैं इसका अलग से मूल्यांकन जरूरी मानता हूं। यह उनका वह व्यवहार था जिसके लिए अंग्रेजी में cumpulsive behaviour का प्रयोग होता है, जिसके लिए व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जाता। मोहम्मद के व्यक्तित्व का मूल्यांकन समय रहा तो हम करेंगे।

यह उनकी मनोव्याधि रही हो या हार्मोनों का उपग्रह रहा हो, इसके साथ न तो शैतानी आयतों के माध्यम से न्याय किया जा सकता है न ही रंगीले रसूल के रूप में पेश करके।

यह जो कुछ भी था, हम इसके समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को समझना चाहते हैं। सल्तनत काल का कोई बादशाह चार की सीमाओं को पार कर चुका हो, इसकी जानकारी हमें नहीं है। सल्तनत काल में मुगल काल की तुलना में हिंदुओं पर कुछ अधिक अत्याचार किए गए, परंतु हिंदू समाज की मानसिकता पर उनका कोई गोचर प्रभाव नहीं पड़ा।

सल्तनत काल के सुल्तान मुसलमान थे, मुगल काल के शासक पैगंबर थे जिन पर कोई नियम लागू नहीं होता था। उन्हीं की विरासत को हिंदुस्तान ने अपनाया है, जिसमें शक्तिशाली पर कोई भी अंकुश लागू नहीं होता। समरथ को नहिं दोष गुसाईं, लिखने वाला मुगल काल में ही पैदा हो सकता था।

एक बात गौर करने की है। मोहम्मद की इतनी बीवियों के होते हुए भी, उनके द्वारा उनका अपमान किए जाने के बाद भी, मोहम्मद ने किसी को तलाक नहीं दिया। जिस एक को तलाक देने की कहानी कही जाती है, उसको भी तलाक नहीं दिया या देकर रफा दफा कर दिया, जबकि वह उनको नई पत्नी के आ जाने के बाद कम पसंद या नापसंद करने लगे थे। मुगल बादशाहों की बीवियों और रखैलों में भी कभी किसी को न तो तलाक दिया गया, न ही किसी ने विधवा होने के बाद इस्लाम में उपलब्ध विधवा विवाह के अधिकारों का प्रयोग किया। वे पैगंबर की विधवाओं की तरह मुसलमानों कीअघोषित माताएं बन चुकी थीं या बना दी गई थीं।
मोहम्मद के जीवन काल में, मदीना में उनके पहुंचने के बाद, युद्ध और बल-प्रयोग के एकमात्र हथियार को छोड़कर दूसरे कूटनीतिक हथियारों का प्रयोग बहुत कम देखता हूं।
यही भारतीय परंपरा में मुगलकालीन धरोहर के रूप में हिंदू और मुसलमान दोनों में छन कर आया है और इसी के कारण नियम और आचरण की मर्यादा की शक्ति संपन्न लोगों द्वारा अवहेलना हमारे सामाजिक और राजनीतिक व्यवहार का अंग बन चुकी है।

Post – 2019-07-05

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