आसमानों में किले बाँधते हैं, जब भी करने को कुछ नहीं होता.
हम भी कुछ अपनी हवा बाँधते हैं, जब भी करने को कुछ नहीं होता.
भूले बिसरों को याद करते हैं, जब भी करने को कुछ नहीं होता.
तुम्हारा इंतज़ार करते हैं जब भी करने को कुछ नहीं होता.
हमको कोई न निकम्मा समझे ठाले बैठे हैं यह अलग है बात
हम तेरा नाम लिया करते हैं जब भी करने को कुछ नहीं होता
कुछ भी ऐसा न जो बचा रह जाय, आ न जाए हमारी मुट्ठी में
तनहा दुनिया पर राज करते हैं जब भी करने को कुछ नहीं होता
कमाल हाथ की सफाई का जिसके अदना गवाह हम ठहरे
आँधियों के भी पर कतरते हैं जब भी करने को कुछ नहीं होता.
पस्त इतने कि उठ नही सकते, चुस्त इतने कि सितारे हाज़िर
व्यस्त इतने कि गिनाते न बने, जब भी करने को कुछ नहीं होता.
आसमाँ पर जमीं को रखकर हम दिन को रातों में घोल देते हैं
सुबह को यूं ही शाम करते हैं जब भी करने को कुछ नहीं होता.
9/22/2015 9:45:26 PM- 9/23/2015 8:18:42 PM
Month: September 2015
Post – 2015-09-22
आसमानों में किले बाँधते हैं जब भी करने को कुछ नहीं होता
हम भी कुछ अपनी हवा बाँधते हैं जब भी करने को कुछ नहीं होता
देखो तुमसे ही प्यार करते हैं जब भी करने को कुछ नहीं होता
तुम्हारा इंतज़ार करते हैं जब भी करने को कुछ नहीं होता
9/22/2015 9:45:26 PM
Post – 2015-09-21
हम सहम कर सोचते हैं, बोलते हैं सोचकर
बन्दापरवर आप को कैसा लगेगा, सोचकर.
दर्द होता है तो खुलकर आह तक भरते नहीं
आप इस पर क्या समझ बैठेंगे, बस यह सोचकर,
गो गुलामी हम इसे कहते, न खुदमुख्तार हैं
कोई मौजूँ लफ्ज़ बतलायेंगे खुद यह सोचकर.
‘सोचने की बंदिशों को मान लो ज़ेवर अगर
‘क़ीमती हैं, चमकती हैं, काम की हैं सोचकर.
‘फिर तो कितनी शान से अकड़े हुए घूमोगे तुम
‘अब भी तो कुछ कम नही है आन ऐसा सोचकर’.
9/21/2015 10:15:18 AM
दिल का आईना है देखें तो आपका चेहरा.
साफ़ हो दिल तो चमकता है आपका चेहरा.
बहुत मुश्किल नहीं, मुन्ने इसे पढ़ लेते है
लहू को आब बनाता है आपका चेहरा.
छिपाओ लाख तहे दिल की धूल मैल भले
सतह पर खींच कर लाता है आपका चेहरा.
जाली टोपी को छिपाने को मैंने देखा कल
लगा लेता है वह ऊपर से मार्क्स का चेहरा.
9/21/2015 10:12:17 AM
दिलों की बात देखो दिलजलों के पास जा पहुँची
पहुँचना उसको था, रोका बहुत, पर आप जा पहुँची.
बुढ़ापे तक दबा रक्खा था अपनी बद्हवाशी को
मगर नाचारगी में देखो ऊपर वह ही आ पहुँची.
मैं जिनको प्यार करता था कभी क्या प्यार कर पाया
जिसे मैं नाम कहता बनके दुश्नामी कहाँ पहुँची.
ग़ज़ब है मरने के पल तक मुहब्बत साथ देती है
मिली भी जो न देखो, उसकी भरपाई कहाँ पहुँची.
कोई पूछे पता मेरा तो ऐ क़ासिद बता देना
ठिकाना उस जगह नज़रे क़यामत है जहाँ पहुँची.
9/19/2015 9:49:15 PM
Post – 2015-09-19
उस गली में कल जो पहुँचा एक तमाशा हो गया
ऐसा वैसा मत समझिए अच्छा खासा होगया
जिनसे छनती थी वे बिन छाने ही छुपकर पी गए
जब वमन करते मिले तो शक ज़रा सा हो गया.
पूछ बैठा,‘जब अंधेरों पर अँधेरों का था राज
‘लोग आकुल, मौन ओढ़े आप, अब क्या हो गया.
‘कितना खाया था, पिया था, किनसे बतलाएँ ज़नाब?’
इतना सुनना था कि उनका मुँह ज़रा सा हो गया.
फिर ज़रा संभले तो देखो तोहमतों की दस्तकें
तुमको ऐसा मानते थे, कैसे ऐसा हो गया.
ऐसा वैसा जैसा जब चाहोगे, सोचोगे, बनूँ
नाम, नामा, डर, डगर का तुम पर कब्ज़ा हो गया.
मुझको आँखें दी खुदा ने और बीनाई भी दी
उतना ही मुझको बहुत है, मैं खुदा सा हो गया.
9/19/2015 8:58:39 PM
Post – 2015-09-17
तुम खाद हो या फूल या तितली बने यहाँ.
या उड़ते परिंदे हो चहकते यहाँ वहाँ
तुम एक चमत्कार हो महिमा विराट की
जैसे भी, जो भी, जिस भी तरह हो जहाँ जहाँ
कुछ भी नहीं मिलेगा तुम्हें आसमान में
बस आग और आग के गोले जहाँ तहाँ.
हाँ धूल है और धूल के अंधड़ भी बेहिसाब
सूरज निगलने वाले अँधेरे जहाँ तहाँ .
धरती ने जो दिया न मिलेगा बिहिश्त में
हाँ गन्दगी मिलेगी यहाँ की जहाँ तहाँ.
2015-09-16/17
Post – 2015-09-17
टाइम्स ऑफ़ इंडिया में IS पर इरफ़ान की टिप्पणी के बाद जिसमें उन्हें IS की याद आते ही वैदिक काल की याद आती है.
उलझन में हूँ सचमुच कहूँ मैं किसको सितमग़र
जब तुम भी सामने हो और जल्लाद भी हाज़िर.
बतलाओ तो मैं किससे लिपट जाऊं मेरे दोस्त
जब कुर्सी सामने हो और इंसान भी हाज़िर.
बीते दिनों में जीने के खतरे तो कम नहीं
जब वर्तमान सामने इतिहास भी हाज़िर.
दो नावों पर चढ़ने के नतीजे तो करो याद
जब पहने मार्क्सवाद हो इस्लाम भी हाज़िर.
भगवान से मैंने कहा क्यों छिप रहा है तू
है वेद का बोझा लिए इरफ़ान भी हाज़िर.
बोला ‘कहा मेरा न मानते हैं सिरफिरे
दीवानापन भी आप को, दीवान भी हाज़िर.
9.15/16.2015
Post – 2015-09-16
टाइम्स ऑफ़ इंडिया में IS पर इरफ़ान की टिप्पणी के बाद जिसमें उन्हें IS की याद आते ही वैदिक काल की याद आती है.
उलझन में हूँ सचमुच कहूँ मैं किसको सितमग़र
जब तुम भी सामने हो और जल्लाद भी हाज़िर.
बतलाओ तो मैं किससे लिपट जाऊं मेरे दोस्त
जब कुर्सी सामने हो और इंसान भी हाज़िर.
बीते दिनों में जीने के खतरे तो कम नहीं
जब वर्तमान सामने इतिहास भी हाज़िर.
दो नावों पर चढ़ने के नतीजे तो करो याद
जब पहने मार्क्सवाद हो इस्लाम भी हाज़िर.
भगवान से मैंने कहा क्यों छिप रहा है तू
है वेद का बोझा लिए इरफ़ान भी हाज़िर.
बोला ‘कहा मेरा न मानते हैं सिरफिरे
दीवानापन भी आप को, दीवान भी हाज़िर.
9.15/16.2015
Post – 2015-09-15
कौन कहता है कि लो भगवान भी बूढा हुआ
वह अगर माने तो हमको मान लेना चाहिए.
2015-09-15
बात तो कुछ भी न थी कल फिर भी हंगामा हुआ
शोर चारों और से यह क्या हुआ यह क्या हुआ
हमने तो पूछा था खुश खुर्रम तो हैं इस दौर में
आप चीखे ‘लो सरे बाजार मैं रुस्वा हुआ’
‘दोस्त को दुश्मन बनाने का नया अंदाज़ है
‘किसकी सोहबत में रहे इतना असर गहरा हुआ’
‘अब मिटाकर खाक कर देंगे’ कहा क्या आपने?
‘हाथ क्या आएगा, सोचें तो अगर ऐसा हुआ.’
बेवज़ह होता ज़माने में नहीं भगवान कुछ
हमने भी हंसकर कहा ‘जो कुछ हुआ अच्छा हुआ’.
9.15.2015.
Post – 2015-09-14
उनकी महफ़िल में जो हिटलर का मैंने नाम लिया.
डर गए लोग कई ने तो जिगर थाम लिया.
मैंने हंसकर कहा वह मर भी गया सड़ भी गया
काँपते बोले कि कुछ होगा इंतज़ाम किया
मैंने पूछा कि है कितनों को मिटाया तुमने?
कितने सरसब्ज़ इलाक़ों को बियाबान किया.
सिर्फ तोहमत व हिकारत व ज़लालत दरपेश
तुमने इतना ही कलामो-सुखन के नाम किया
सिर्फ गोबेल के निशाने क़दम पर चलते रहे
न कहीं ईंट न पत्थर न क़त्लेआम किया.
न दारो रस्न, न जल्लाद, न खंज़र, न लहू
बस लिखा नाम और काटा और राम राम किया.
अपने चेहरे से उतारो ये मुखौटे तो सही
वह सुपारी तो दिखाओ कि जिस पर काम किया.
2015-09-14
Post – 2015-09-13
कई चिराग़ जलाए थे रास्ते में तेरे
कई निशान लगाए थे रास्ते में तेरे
भटक न जाये, फिसल जाये न ठोकर खाए
कई रहबर भी बिठाए थे रस्ते में तेरे
हुनर की दाद दें तूने बना लिए काँटे
फूल जो मैंने बिछाए थे रास्ते में तेरे
दुश्मने जान छिपा बैठा है तेरे भीतर
वह खुद-फरोश न आ जाए रास्ते में तेरे.
2015-09-13