Post – 2015-09-12

लोग हर बात को क्यों दिल से लगा लेते हैं
जगह छोटी सी मालखाना बना देते हैं
कोई तो पूछे क़ि बतला तो तेरा दिल है कहाँ
पेश्तर इसके ही सीने से लगा लेते हैं.
ऐ मुहब्बत तुझे अंधों ने ही पाला पोसा
बात दिल की करें पर जाँ से लगा लेते हैं
हमने तो इश्क़ में बर्बादियाँ देखीं, झेलीं
लुटाया अपने को क्या आप से कुछ लेते हैं.
9/12/2015 9:27:20 PM

Post – 2015-09-12

न रात थी न तो दिन था न अँधेरा न उजास
महज़ क़यास था, धुँधलाया हुआ एक क़यास.
जो जैसा है उसे वैसा ही मानते हैं लोग
यह बस क़यास था अब तक है महज़ एक क़यास.
क्यों सच को मानने-कहने से लोग डरते हैं
क्यों सच को सुनते ही खो बैठते है होशोहवास.
इस पशोपेश में लो ज़िन्दगी तमाम हुई
न जीर्ण शीर्ण मगर घिस तो चला है ही लिबास.
नाउमीदी के सिरे पर है उमीदों की किरन
आखिरी साँस से पहले तो मिलेगा ही जवाब.
मेरे क़यास मेरी आबरू तेरे हाथों
मैंने भगवान को देखा न कभी होते उदास.
9/12/2015 8:29:35 PM

Post – 2015-09-12

जो लोग अपनी प्रतिक्रियाओं को तत्काल सुलभ माध्यमों से व्यक्त नही करते वे भी व्यथित होते हैं. परन्तु जो लोग इसमें तत्परता दिखाते हैं उनका नितांत संवेदनशील मुद्दों पर चुप रहा जाना खलता है. उदय प्रकाश ने लेखकों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर भारत में भी पाकिस्तान व बांग्लादेश की नक़ल पर लेखकों की ह्त्या की प्रवृत्ति के विरोध में अपना क्षोभ प्रकट करते हुए और साहित्य अकादमी द्वारा अपने पुरस्कृत लेखकों तक की ह्त्या पर चुप्पी साधने के विरोध में अकादमी सम्मान लौटाते हुए एक प्रशंशनीय उदहारण पेश किया. काम से काम इसके बाद तो हिन्दी के बुद्धिजीवियों की चुप्पी टूटनी चाहिए थी. हम सुरक्षित कभी नहीं रहे पर अपनी उदासीनता से अपनी असुरक्षा स्वयं बढ़ाते हैं.

Post – 2015-09-12

एक दस्तक और बे-आवाज़
तने फैले पंख बे-परवाज़
एक मरकज़ दायरों से दूर
दायरों की तुच्छता का राज़
आसमानों की तरफ है दीठ
उपेक्षा उपहास पर भी नाज़
कई मोर्चों पर खड़ा बस एक
तने सर पर बर्छियों का ताज
होश में मदहोशियों के बीच
देखिये भगवान के अंदाज़.
9/11/2015 9:35:56 PM

वक़्त बेवक़्त उभर आता है जाने क्योंकर
यह मेरा अपना है या दर्द किसी और का है.
सूद-दर-सूद चुकाता ही चला आया हूँ
लिया मैंने नहीं यह क़र्ज़ किसी और का है.
सज़ा चुकाने की बस यह कि चुकाते ही रहो
जिस महाजन की बही है वह किसी और का है
‘तुम भी भगवान हो लाचार और बेबस इतने ?’
‘जिसको भगवान समझते हो गए दौर का है.’
9.11.2015

Post – 2015-09-11

वही दो चार जुमले हैं न कहने को बचा कुछ भी
कभी चुप रह न पाते थे यह सच तक भूल जाते हैं
ज़माने भर के नग़मे और ज़माने भर के अफ़साने
हमारे गिर्द मंडराते थे ख़ुद क़ासिद बताते हैं
मुहब्बत में अदावत कैसे आकर हो गई शामिल
तुम्हे जब याद करते हैं तो दुश्मन याद आते हैं.
2015-09-11

Post – 2015-09-10

खुद को मैं ‘गर आपके ही आईने में देखता.
मानिए सच आप जो कुछ देखते हैं देखता.
आप दिखलाते अगर दिन में भी तारे चाँद तो
मैं भी कहता मरहवा जो कुछ दिखाते देखता.
रात में कहते की सूरज को अभी हाज़िर करो
मैं क़ज़ा को याद करता आप का मुंह देखता.
देखने को क्या बचा है इस निज़ामे हुस्न में
कौन कब तक देखता हाँ कौन क्या क्या देखता.
मैंने जब भगवान से पूछा कि क्या दीखा तुझे
हंस के बोला ‘खुद ही गुम हूँ मैं भला क्या देखता’-
2015-09-10

Post – 2015-09-10

लोग कहते हैं कि कुछ चूक हुई थी मुझसे
तुम ही बतलाओ वक़्त क्या था माज़रा क्या था
सही जगह तो बताओ कि होश में आऊँ
मैं भी तो याद करूँ क्यों हुआ, हुआ क्या था
जगह अपनी तो बताओ कि कहाँ हो तुम खुद
तुम्हारे शोर का घाटा और फायदा क्या था
अब यकीन हम नहीं करते हैं किसी पर देखो
हिसाब की बही खोलो कहो लिखा क्या था.
2015-09-10
कहने को हम कुछ चले थे और क्या क्या कह गए
कह रहा था कौन किसके सामने चुप रह गए
किस अँधेरे से निकल कर कौंध सी फूटी उजास
भरना चाहा अंजली में, छूते छूते रह गए .
2015-09-10

Post – 2015-09-09

मैं सोचता हूँ कि फेसबुक को अपनी पद्य रचनाओं का अभिलेखागार बना दूँ. कोई न पढ़े तो भी वायरस से तो बची रहेंगी सो :2015-09-09

मैं सोया नहीं था
न जाग रहा था
बस जी रहा था
जैसे जीते आये हैं शताब्दियों से हम
महामानव बनने की उम्मीद में
एक परिभाषा के पीछे भाग रहा था
समायोजित करता अपने को
सभी की उम्मीदों के अनुसार
अपनी उम्मीद से बाहर निकल कर
ऐंठता कुनमुनाता
करवटें बदलता लगभग पूरे होश में
बदहवासी की सतह से ठीक ऊपर.
‘हम किसी से कम नहीं ‘
अभुआता हुआ.
9.9.2015

दिया क्या ज़िंदगी ने छीन ले जिसको क़ज़ा मुझसे
फ़क़त एक नाम वह भी देखिये भगवान का ठहरा.
9.9.2015

हम सुख़नफ़ह्म थे पर अब तो नहीं हैं साहब
आप ही सोचिये क्यों इस मुक़ाम तक पहुंचे
तनी गर्दन थी धड़कनें मिलीजुली सी थीं
आप की चाह थी गर्दन सलाम तक पहुंचे
यूं ही नज़दीकियां दूरी में बदलती तो नहीं
आप नाज़िम थे इसी इंतज़ाम तक पहुंचे
हम भी भगवान से पूछेंगे की क्या सोचता है
वह नामुराद भी अपने क़याम तक पहुंचे.
9.9.2015