Post – 2016-03-13

हिन्दी का भविष्य – १०

“अंग्रेजी को तुम गाली देने की भाषा मानते हो । इस महान भाषा को, जिसका लोहा इसके दुश्मन तक मानते हैं। कल तक हम इस बात का रोना रोते थे हमे औपनिवेशिक दासता से गुजरना पड़ा, आज भी तुम जैसे शाविनिष्ट जार-जार रोते हैं कि मैकाले ने अंग्रेजी लाद कर हमें मानसिक रूप से गुलाम बना दिया। वे यह नहीं जानते कि एशि‍या के आगे बढ़ने वाले देश भारतीयों से इस लिए खम खाते हैं कि भारतीयों को औपनिवेशिक दाय के रूप में अंग्रेजी मिली और वे इतनी आसानी से अंग्रेजी बोल लेते हैं जब कि वे सिर धुन कर सीखने के बाद भी सही अंग्रेजी नहीं बोल पाते । तुम वि‍श्वास नहीं करोगे मैंने न्यूयार्क के चाइना टाउन में एक दो दिन बिताए हैं और उनके साथ घूमा फिरा हूँ। पचास साठ साल से वहीं बसे हुए हैं। उनकी दूसरी तीसरी पीढियों को जो कालेजों में पढ़ रही है ऐसी अंग्रेजी बोलते सुना है और वह भी धड़ल्ले के साथ कि अपना सिर फोड़नेको जी करे।”

मैं उसकी बात सुनता रहा और जब वह चुप हुआ तो पिलखल के पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहा, “इन किशलयों की क्षटा तो देखो, माघ की पंक्ति है या पता नहीं किसी और की – नव पलाश पलाशगतं पुरः नव परग परागत पंकजम् – ”

वह खीझ उठा, ” अब बोलती बन्द हो गई तो संस्कृत की याद आने लगी ?”

“जब तुम अपना ज्ञान बघार रहे थे, तब मेरा मन इतना कलुषित हो गया कि सोचने लगा कि यदि तुमने अपना सिर फोड़ लिया होता तो रक्त में सना हुआ वह लाल फूल की तरह कितना प्यारा लगता। तभी इन किशलयों की ओर ध्यान चला गया और सोचने लगा ये अधिक मनोरम हैं या तुम्हातरा अंग्रेजी की चिन्ता् में फटा हुआ सिर जो मेरी कल्पना में था। मन की शुद्धि के लिए प्रकृति के अवलोकन से अच्छा कोई उपचार नहीं।‘’

‘’मैंने जो कहा है वह तथ्य और अनुभव पर आधारित है। तुम्हारी तरह की तीरन्दा्जी नहीं।‘’

‘’तुम गलत कहते ही नहीं, जस का तस रख देते हो, कंकड़ स्था ने कंकड़: । दुर्भाग्य हमारा कि हमें तुम्हारी कोई बात सही लगती नहीं । तुम्हें भी ईश्वर ने मेरी तरह दिमाग तो दिया पर तुम उसका इस्तेमाल माल गोदाम की तरह करते हो, मन्थन के कठाले की तरह नहीं । तुम खुद मानते हो कि एशिया के केवल वे ही देश प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़े हैं जिनको औपनिवेशिक दासता से गुजरने और मानसिक रूप से पराश्रयी नहीं होना पड़ा । जिनको अपनी भाषा की अवज्ञा करने और मालिकों की जबान सीख कर गुलामों के सुर में उनके शब्द दुहराते हुए गर्व करने की आदत नहीं डाली गई । तुम स्वयं कहते हो कि जिनसे तुम्हारा पाला न्यूयार्कके चाइना टाउन में पड़ा उनकी कई पीढ़ियाँ वहीं पलने बढ़ने के बाद भी अपनी भाषा और संस्कृति पर इतना गर्व करती और उससे इतना लगाव रखती हैं कि परिस्थितियों के दबाव के कारण अंग्रेजी का मात्र कामचलाऊ या अर्थग्राही ज्ञान ही रखती हैं। उसके आधिकारिक ज्ञान के माया जाल में नहीं पड़तीं, क्यों कि जानते हैं दूसरे की भाषा अपनाने का मतलब है उसकी मेधा को अपनी मेधा पर हावी होने का अवसर देना। तुम्हारा पाला उनकी एक टुकड़ी से नयूयार्क में पड़ा था, और फिर भी वे जो टूटी फूटी स्थानीय भाषा बोलते हैं उसका सही नाम तक तुम्हें पता नहीं । उसे अंग्रेजी नहीं अमेरिकन कहते हैं और अंग्रेज भी जब अमेरिका पहुँचते हैं तो उन्हें अमेरिकन समझने और बोलने में कठनाई होती है। तुम्हें यह पता तो होगा, पर ठीक उस मौके पर जब दिमाग से काम लेना होता है तब, याद नहीं आएगा कि अमेरिकन का विकास तो वहाँ शरण लेने वाली यूरोपीय बहुजातीयता के घोल से हुआ था और बोलते वे अमेरिकन थे, पर अंग्रेजी उपनिवेश होने के कारण लिखते अंग्रेजी थे। औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए उन्हें संग्राम करना पड़ा और उन्हें ही विजय नहीं मिली, उन्होंने औपनिवेशिक देशों में भी यह मन्त्र फूँका कि ठान लो तो औपनिवेशिक दासता से मुक्ति पाई जा सकती है। कि अपनी मुक्ति के बाद उन्होंन दो काम किए । पहला था ‘मेक इन अमेरिका’ अर्थात् जो माल तुम इंगलैंड से मँगाते हो उसे अमेरिका में बनाओ। यदि यह सूत्र समझ में आ जाए तो तुम्हें मोदी का ‘मेक इन इंडिया’ समझ में आ जाएगा और इसकी खिल्ली् उड़ाना छोड़ दोगे। इसके साथ ही उन्होंने स्वदेशी प्रेम का मन्त्र भी फँूका। वह कौन था, जेफर्सन या कोई और जिसने कहा था, जब तुम बाहर से लोहे की एक बीम खरीदते हो तो तुम्हारा पैसा बाहर चला जाता है और उसके बदले बीम मिलता है, परन्तु जब तुम अमेरिका में बना बीम खरीदते हो तो तुम्हें बीम भी मिलता है और तुम्हारा पैसा भी तुम्हारे पास रह जाता है।

‘’और जो दूसरा काम उन्होंेने किया वह था अंग्रेजी से मुक्ति पाने के लिए अपनी वर्तनी में सुधार। वेब्स्टर का नाम जानते हो न, उसकी भूमिका भी जानते होगे। अब सारी दुनिया अमेरिकन सीखती है, इसलिए नहीं कि यह ज्ञान की भाषा है, बल्कि इसलिए कि यह कारोबार की भाषा है, माल पर लगे ठप्पे की वह भाषा है जिसे सबसे अधिक लोग समझते हैं। केवल उपनिवेशों के गुलाम है जो आज भी इं‍ग्लिश वर्तनी का अनुगमन करते हैं। ज्ञान की भाषा उन देशों की अपनी भाषा है और उनकी आधारभूत तैयारी हमारे स्वनतन्त्र होने के समय बहुत पिछड़ी थी, जापान अवश्य इसका अपवाद था, परन्तु आज वे अपनी इस भाषा के कारण और दुनिया का ज्ञान अपनी भाषा में ढालने के कारण इतने आगे बढ़ गए हैं। इतने पिछड़ गए हैं हम कि मेक इन इंडिया के लिए भी हमें उनकी मदद और तकनीक की जरूरत पड़ रही है।‘’

‘’यार मोदी का जादू बोल रहा है या तुम खुद बोल रहे हो। सॉंस लेने के लिए तो बीच बीच में रुक जाते।‘’

‘’मैंने अपनी कविता सुनाई थी न तुम्हें ‘मैं फिर तोड़ता हूँ उस तिलस्म को जिसमें मैं कैद था।‘ याद है या भूल गए। मुझ पर किसी का जादू नहीं चल सकता और तुम उस तिलस्म से इतने अभिभूत हो कि उससे बाहर निकलना तक नहीं चाहते जिसमें तुम कैद हो। मैं मोदी को बता सकता हूँ कि तुम्हारा मेक इन इंडिया अधूरी समझ पर निर्भर है। इसके लिए थिंक इंडिया जरूरी है और थिंक इंडिया के लिए भारतीय भाषाओं का वर्चस्व जरूरी है। पर मुझे पहली बार यह विश्वास पैदा हुआ है कि यदि मोदी को मेरी बात समझ में आ गई तो वह इस दिशा में प्रयत्न करेंगे और तुम उस प्रयत्न को विफल करने का प्रयत्न करोगे पर यह पहला अवसर है जब जनता अपने भाग्योदय के लिए संघर्ष करना सीख रही है और अब तक जो प्रच्छन्न गान गाया जाता था, सिंहासन ऊँचा करो कि नेता आता है, का स्थान दिनकर की वह पंक्ति लेगी, ‘सिंहासन खाली करो की जनता आती है।‘’
13.3.16

Post – 2016-03-11

हिन्दी का भविष्य (9)

‘’आज राजनीतिक दलों के सामने कोई ऐसा बड़ा मुद्दा नहीं है जिससे व्यापक जनसमाज को जोड़ा जा सके और एक बड़ा जन-आन्दोलन खड़ा किया जा सके और राष्ट्रीय ऊर्जा को एकिदश करके उस आत्मबोध और आत्समविश्वास को जगाया जा सके जिसके अभाव में व्यक्ति, संगठन, संस्थाएँ और राजनीतिक दल सभी गिरावट और गलाजत के शिकार हो चुके हैं और अपने को चर्चा में बनाए रखने के लिए नितान्त घटिया, आत्मघाती और देशघाती बयान देने और काम करने के लिए तैयार ही नहीं हो जाते अपितु इस पर गर्व भी करते हैं। बदहवासी का आलम यह कि जिन्हें हम समझदार समझते चले आए थे वे भी ऐसी गतिविधियों का समर्थन करते हुए ताली बजाने उऔर झूमने लगते हैं जिनके लिए सान्निपातिक प्रलाप से अलग कोई शब्द मुझे उपयुक्त नहीं लगता। सर्वव्यापी गिरावट के इस दौर में बुद्धिनाश की पराकाष्ठा यह कि सुनना और देखना तक बाहरी संकेत से नहीं संबन्धित पक्षों की आकांक्षा के अनुसार सुनाई पड़ता और दिखाई देता है। वस्तुसत्य का ऐसा लोप मनोविच्छिन्नता में ही संभव है और सामाजिक मनोविच्छिन्नता यदि उस चरम पर पहुँच जाए जहॉं लोगों को पता हो कि उन्हें किस रंग का, किस काट का, कितना सस्ता या मँहगा, कितना टिकाउू और जड़ाउू सत्य चाहिए तो पक्ष समझ में आ सकते हैं, सत्य समझ में नहीं आ सकता।‘’

‘’तुम रोज रोज कोई न कोई रोना लेकर क्यों बैठ जाते हो यार, थकते नहीं हो? उूबते भी नहीं ? जो है सो है, रोने से कम हो जाएगा या बदल जाएगा ?’’

‘’तुम चिन्ता को रोना मान लोगे तो इस अधोगति से उबरने का उपाय तलाशने की जगह जो-होगा-देखा-जाएगा-वाद के अनुयायी हो जाओगे। मार्क्सवाद अपनी हताशा में यहीं पहुँच गया है। इसने इस देश और समाज को समझे बिना ही अपने पवित्र आवेश में जितने भी प्रयोग किए सभी हल्की सी सुगबुगाहट पैदा करने के बाद ठंडे पड़ गए और आज वह जुआड़ियों की तरह ब्लाइंड खेल रहा है। यह उस भाग्यवाद की पराकाष्ठा है जिसका उपहास करना तुम्हारे मनोविनोद का हिस्सा रहा है। अपनी नासमझी के कारण आजकल दूसरों के मनोविनोद का सामान बन चुके हो।‘’

‘’तो आओ हम उधर जो लोग बैठे हैं और जो घूम टहल रहे हैं सबको इकट्ठा कर लें और एक सुर से भारत-दुर्दशा नाटक का वह कोरस गाऍं, ‘आओ और सब मिलि रोओ भारत भाई । हाहा भारत दुर्दशा न देखी जाई!’ कुछ ऐसा ही है न ?

‘’तुम यह भी नहीं कर सकते । अपने को बदलने का संकल्प अपनी अधोगित के बोध से ही आरंभ होता है । दुनिया बदलने वाले आसमान से टपकते नहीं हैं हमारे बीच से ही पैदा होते हैं । उन्हें तलाशना नहीं है वे हैं और सही नेतृत्व और दिशाबोध के अभाव यथास्थिति से अपने क्षोभ और कुछ न कर पाने की आकुलता के कारण परिणाम की चिन्ता किए बिना कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो जाते हैं ।‘’

’’ तुम्हें उनके ऐसे कार्यों और उद्गारों पर क्रोध आता है, तिलमिला उठते हो और हम कहते हैं मौत के सन्नाटे से तूफान भरी जिन्दगी ही सही। कुछ हो तो रहा है।”

‘’क्योंकि तुम हुड़दंग और काम का अन्तर नहीं जानते। हुड़दंग न हो तो सोचते हो मौत का सन्नानटा छा गया है। यह मेरी समस्या नहीं है, तुम्हारी और तुम्हारे चिकित्सक की समस्या है। तुमने पहला पाठ ही गलत पढ़ा और जो भी तुम्हारे संपर्क में आया उसे वही पाठ पढ़ा कर अर्धविक्षिप्त बना कर छोड़ दिया।‘’

वह हँसने लगा, ‘’क्या था मेरा पहला पाठ ?’’

‘’यह कि शोषण, उत्पीाड़न, विषमता भी युगों से चली आ रही हिंसा के रूप हैं और इनको समाप्त करने के लिए हिंसा जरूरी भी है और न्याँयोचित भी।‘’

‘’तुम शोषण, उत्पीड़न, विषमता को हिंसा नहीं मानते ? इनसे घृणा नहीं करते?’’

‘’घ़ृणा नहीं करता, इनको निर्मूल करना चाहता हूँ। तुम इन्हेंं निर्मूल नहीं करना चाहते, बनाए रखना चाहते हो और इसकी कमाई खाना चाहते हो।‘’

वह इस तरह उछला मानो बिच्छू ने डंक मार दिया हो, ‘’मैं बनाए रखना चाहता हूँ और तुम उन्हें मिटाना चाहते हो। तुम, तुम…’’ उसके चेहरे के तनाव और खिंचाव से ही प्रकट था कि वह अपनी उत्तेाजना में कोई ऐसी गाली तलाश करना चाहता था जो मर्मान्तक भी हो पर इतनी अपमानजनक न हो कि संबन्ध ही टूट जायँ।
हिन्दी में उस पाये की गाली नहीं मिली और वह कुछ निराश होने लगा कि तभी चेहरे पर चमक आ गई और बोला, ‘’यू रैस्क‍ल।‘’

वह कुछ आगे कहने जा रहा था, कि मैं हॅस पड़ा तो वह नर्वस हो गया। भौचक सा मेरी ओर देखने लगा कि मैं हॅस किस बात पर रहा हूँ।

मैंने कहा, ‘’यार, मैं तो यह कहना चाहता था कि यदि सामाजिक न्या य को दूसरी स्वतन्त्रता का मुद्दा बनाया जाये, गरीबी रेखा से नीचे के लोगों के गरीबी रेखा से उूपर की श्रेणी की समकक्षता में लाने के संघर्ष में बदला जाय जिसका विरोध एपीएल या एबव पावर्टी लाइन नहीं कर सकेंगे और यह इस नारे के साथ आरंभ हो कि हमें मुफ्त एलपीजी सिलेंडर देने की जगह मेरी जबान दो, मेरी जबान को उसका सम्मान दो, इसे ही शि‍क्षा और उच्चतम पदों की एकमात्र जबान बनाओ जिससे अक्षर ज्ञान के बाद हमारे ज्ञान के दरवाजे और अवसर की समानता के रास्ते खुल जायँ तो हमें एक बड़ा मुद्दा मिल जाएगा और जो भी इस दिशा में पहल करेगा वह वर्ण, धर्म, संप्रदाय, जाति और क्षेत्र की संकीर्णताओं को तोड़ कर कम से कम न्यांय, सम्मान और उन्‍नयन का एक मार्ग तो खोलेगा। पहले सोचा था तुम्हें मेरा प्रस्ताव सही लगेगा पर तुम्हारी गाली सुनने के बाद लगा, जब अंग्रेजी को हटा कर भारतीय भाषाओं को उनका स्थान दिलाने का निर्णायक क्षण आएगा तो तुम कहोगे, ‘’हमने तो कभी नहीं कहा कि अंग्रेजी ज्ञान की भाषा है। ज्ञान तो चुगद भी जानते हैं कि अपनी ही जबान में प्राप्त हेा सकता है, पर अगर अंग्रेजी चली गई तो हम गालियॉं किसमें देंगे। ज्ञान के लिए न सही, गालियॉं देने के लिए तो हमें अंग्रेजी को यथावत बनाए रखना ही होगा।”

Post – 2016-03-10

विषयान्त र
जामिया में नौ साल पहले छात्रसंघ भंग कर दिया गया था । अब वहाँ इसे बहाल करने की माँग की जा रही है, जब कि विचार इस पर होना चाहिये कि क्या छात्रसंघ छात्रों के हित के किसी सवाल को उठाते हैं और क्या जेएनयू छात्रसंघ को भी भंग करके यह देखा जाना चाहिए कि इससे इसका शिक्षा और शोध कार्य का स्तर सुधरता है या नहीं ।

दूसरे देशों के अध्येता हमारी समस्याओं का अध्ययन करते हैं। हम इस मामले में कोरे हैं । एक अध्ययन इस बात को लेकर होना चाहिए कि यूनियनबाजी में – तैयारी, प्रचार, आन्दोलन में कितने शिक्षा दिवस व्यर्थ चले जाते हैं और इनकी उपलब्धि क्या आती है?

एक तुलनात्मक अध्ययन इस बात का भी होना चाहिए कि पिछड़े देशों में छात्रों की राजनीतिक सक्रियता का अनुपात आगे बढ़े हुए देशों की तुलना में क्या है और उनके ही शीर्ष संस्थानों में राजनीतिक सक्रियता का अनुपात अन्य संस्थाओं की तुलना में क्या है और देश हित में उन्हें मि कर किसी निर्णय पर पहुँचना चाहिए ।

मैं जानता हूँ यह सुझाव किसी के गले नहीं उतरेगा क्योंकि किसी दल के पास कोई ऐसा कार्यक्रम नहीं है जिसे लेकर वह जनता के पास जाए और इस क्रम में उसका व्यापक जनाधार तैयार हो इसलिए शिक्षा केन्दों को वे अपने काडर की प्रयोगशाला बनाने में समान रुचि रखते हैं शिक्षा का सत्यानाश होता है तो हो। यह व्यवस्था अध्यापकों को भी रास आती है । उन्हें अपने विषय की तैयारी नहीं करनी पड़ती और क्लास लेने की झंझट से भी मुक्ति मिल जाती है।

अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा की समस्या अभिव्यक्ति की निष्कलुषता से जुड़ी हुई है। कलुषित अभिव्यक्ति – गाली, अपमान, दुष्प्रचार, मानहानि आदि – आपराधिक परिधि में आती है। यह प्रभावित व्यक्ति की निजता और सम्मान की रक्षा से जुड़ी है, जिसे सुनिश्चत करना राज्य का दायित्व है। यह कानून और व्यवस्था का प्रश्न है जिसे बनाए रखने में असमर्थ शासक को सत्ता में बने रहने का अधिकार नहीं ।

आपात काल की छोटी सी अवधि को छोड़ कर किसी शासक ने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन नहीं किया । इसका हनन केवल कम्युनिस्ट विचारधारा करती रही है जो अपनी मान्ताओं से असहमत व्यक्तियों को लांछित, अपमानित करती रही है और इस बात के लिए बाध्य करती रही है कि उससे भिन्न कोई विचार पनपने न पाए । इसके खेदजनक उदाहरण भी उसी जनेवि से आए जिसमें एबीवीपी के निर्वाचित पदाधिकारी को अपने संगठन से इस्तीफा देने को बाध्य होना पड़ा, क्योंकि उसकी मखौल उड़ाई जाने लगी। अंग्रेजी के एक अधयापक केे अपनी अलग राय रखने के कारण हूट कर दिया गया । एबीवीपी से जुड़े एक छात्र को यह सिद्ध करने के लिए कि वह मनुवादी नहीं है उस मनुस्मृति की प्रति, नारी दिवस पर, जलानी पड़ी, जिसमें यह कहा गया है कि जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है वहाँ देवता विराजमान रहते हैं और जहाँ उनकी उपेक्षा होती है वहाँ सभी क्रियायें निष्फल होती हैं । जिसमें कहा गया है कि यथा स्थिति पिता, पति, पुत्र को स्त्री की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए क्योंकि स्वतः वह असुरक्षित है । बिना पढ़े, जाने और समझे ही आग के हवाले कर दिया, यह प्रमाणित करने के लिए कि वह भी किसी से कम प्रगतिशील नहीं है। शिक्षाकेन्‍द्रों को हुड़दंग केन्द्र बनाने वाले अपनी समझ से देश और समाज का कल्याण कर रहे हैं । इन्हें और इनके पक्षधरों को जेल की नहीं चिकित्सकों की जरूरत है जो इनके धुले हुए दिमाग में पुरानी स्मृतियों और संस्कारों को जाग्रत कर सकें ।

जो छात्रसंघ अपने परिसर में रैगिंग तक नहीं रोक सकते वह देश की निर्वाचित सरकार को उखाड़ फेंकने का आन्दोलन चलाते और बदहवासों की भाषा में बात करते हैं? वे सभी चिकित्सा के पात्र हैं जो ऐसों के साथ हैं।

Post – 2016-03-09

हिन्दी का भविष्य (8)

‘’आज तो तुम्हें दम मारने की भी फुर्सत न होगी, सुना अपनी किताब की अनुक्रमणी तैयार कर रहे हो। बैठूँ या किसी दूसरी मंडली का सहारा लूँ।‘’

’’बैठो । जो काम करता है उसे समय का कभी अभाव नहीं होता। उस कसे हुए समय में से दूसरों के लिए भी समय निकाल लेता है! जो आलसी और ऐयाश होते हैं वे कुछ नहीं करते फिर भी उन्हें किसी न किसी तरह दम मारो दम से ही फुर्सत नहीं मिलती। जो लोग काम करना नहीं जानते वे भी अपना बहुत समय तरीके ढूढ़ने में बर्वाद कर देते हैं। तुम जानते हो जब दूसरे सभी नेताओं को सॉंस लेने की फुर्सत न होती थी, एक गांधी ऐसे थे जिनके पास समय ही समय था। इतने सारे लोगों और सरोकारों के लिए, यहॉं तक कि बकरी की महरहम पट्टी तक के लिए, कोढि़यों और अपाहिजो तक के लिए, बच्चों और अनपढ़ों को रहने का सलीका, स्‍वस्‍थ जीवन जीन का तरीका सिखाने के लिए, अपना सारा काम करने के बाद सूत कातने और भविष्‍य की योजनाऍं बनाने के लिए समय निकाल लिया करते थे और इन्हीं को करते हुए उन्हें उन सवालों के भी जवाब मिल जाया करते थे जिनको ले कर माथापच्चीं करने वाले दूसरे नेता सारे पसीने पसीने हो जाते थे पर खाली हाथ रह जाते थे।

”मेरे पास समय का कभी अभाव नहीं होता, पर तुम्हें ध्यान से सुनने तक की फुर्सत नहीं मिलती। आधे मन से सुनते हो और सुनने के साथ ही भूल जाते हो। समय बर्वाद होता है, कुछ हाथ नहीं आता।”

’’अरे यार, मैंने तो मजाक किया था, तुम इतने सीरियस हो गए और इसी बहाने अपने को गांधी जी के बराबर का दर्जा भी दे दिया। विनम्रता की हद है।‘’

’’ यह बताओ, तुम तो कम्युनिस्ट हो, तुमने अप्टन सिन्क्‍लेयर का उपन्यास ‘दि जंगल’ पढ़ा है ? जरूर पढ़ा होगा। उसका एक चरित्र है ग्रिगोरी। याद है ? याद न सही, पर यह जरूर पता होगा कि पेशीय बल का स्थान यन्त्रबल ने लिया तो मनुष्य की पीड़ा कम न हुई, अन्याय और सह्य उत्पीाड़न की मर्मान्तोक सचाइयॉं सामने आने लगीं। बच्चा सस्ते मोल मिल जाएगा, वटन ही तो दबाना है, इसके लिए युवाओं को लगाने की क्या आवश्यकता, और वे बालक जब तक जवान होते थे, उन्हें काम से निकाल दिया जाता था, और वे अपने ही बालकों के अवलंबी बने जीने को बाध्य होते थे। उनसे सोलह घंटे काम लिया जाता था। ग्रिगोरी को एक लड़की से प्यार हो जाता है। वे दोनों शादी करना चाहते हैं और इसके लिए कुछ दावत और मेहमानबाजी में खर्च की भी जरूरत होती है। पैसा है नहीं। ग्रिगरी सुझाता है, कर्ज ले लेंगे। प्रेमिका कहती है, कर्ज ले तो लेंगे, पर चुकाएंगे कैसे ? वह कहता है, ‘ओवरटाइम कर लेंगे।‘ तुम जानते हो, सोलह घंटे खटने के बाद भी अपने प्रेम के लिए ओवरटाइम करने वाला यह चरित्र आज से ठीक अड़तालीस वर्ष पहले जब मैंने यह उपन्याेस पढ़ा था, तब से मेरा ज्योतिस्तम्भ रहा है। गांधी की याद तो अभी अकस्मात आगई। उस उपन्यानस में मुझे इससे अलग कुछ दिखाई ही न दिया। अप्टन सिन्लेकसलेयर को आगे पढ़ने की जरूरत तक न हुई।

’यह बताओ, तुम्हें आजादी से इतना डर क्यों लगता है । तुम कल अनुपम का समर्थन कर रहे थे।‘’

’मैं आजादी का नहीं, मनचलेपन का विरोध कर रहा था। एक व्याधि का विरोध कर रहा था। आजादी व्याधि नहीं है पर नशे का कारोबार करने वाले इसको एक नशे में बदल सकते हैं और बदल रहे हैं। मैं उसका विरोध करता हूँ। तुम जानते हो इस शब्द का अर्थ क्या है!’’

’’हद करते हो यार! यह भी कोई सवाल हुआ। तुम नहीं जानते हो तो कोई कोश उठा कर देख लेना। मैं नहीं बताउूँगा।‘’

’’देखो, शब्दोंँ का अर्थ कोश में नहीं होता। शब्दों का काम चलाउू परिचय ही कोश से मिलता ह। हाल यह है कि वह अर्थ हर जगह लागू नहीं होता। जब एक लड़की लाड़ से इतराती हुई अपनी सहेली को खसमा खॉंणी कहती है तो इनमें से किसी शब्द का वह अर्थ नहीं होता जो तुम्हें किताब में मिलेगा। इसका अर्थ होता है अगाध आत्मीयता और प्यार और यह अर्थ तभी तक है जब तक दोनों कुँमारियॉं है। व्याह होने के बाद यदि यही वाक्य कहा गया तो वह पत्थ र से उसका सिर तोड़ देगी। व्याहता हो गई और सहेली कुमारी रह गई तो उसके मुँह से यह वाक्य निकलेगा ही नहीं। अब वह इसके जिस अर्थ से परिचित हो चुकी है वह इतना विषादयुक्त है कि उसकी कल्पना से भी सिहर जाएगी। और अब उस अनव्याही लड़की के लिए प्रकारान्त‍र से यह व्यंवग्य भी बन जाएगा, देख मेरा ब्याह हो गया तू अभी कुँवारी बैठी है। इस देश में शब्दों के अर्थ पर, भाषा पर जितना गहन चिन्तन हुआ है और इसकी चेतना अनपढ़ों तक मे इतनी समृद्ध है जिसकी तुम कल्प ना भी नहीं कर सकते। और इसके बाद भी पढ़े लिखों तक को बोलने की तमीज नहीं।

‘हमारे दार्शनिक कहते हैं, किसी शब्द का सन्द र्भ निरपेक्ष अर्थ व्यवहार में कोई अर्थ नहीं रखता। यह उस पूरे कथन और सन्दंर्भ में निहित होता है। ये सन्दर्भ है, किसने कहा, कब कहा, किससे कहा, कैसे कहा, क्यों कहा और किन शब्‍दों में कहा। अब तुम उसी आजादी का अर्थ पागलपन कर सकते हो, मनमौज कर सकते हो, उपद्रव कर सकते हो, और देशद्रोह भी कर सकते हो, यदि यह आवाज ऐसी पृष्ठ भूमि में लगाई गई तो । शब्द का एक इतिहास भी होता है और एक माहौल भी होता है जिससे उसका अर्थ निर्धारित होता है। आजादी शब्द का निकट इतिहास यह है कि यह नारे के रूप में कश्मीर में उन लोगों के द्वारा लगाया जाता रहा है जो अलगाववाद के लिए पाकिस्ताान से पैसा पाते रहे हैं। यह शब्द भारतीय कूटनीतिक अपरिपक्वता के कारण इसलिए भी बहुत लोकप्रिय रहा है कि एक उत्तरदायी व्यक्ति ने बताया था कि उन उपद्रवी तत्वों को चुप रहने के लिए भी रकम सेना द्वारा दिया जाता रहा है। अब रकम बढ़ानी होगी तो नारे लगेंगे ही। आजादी जो एक सार्थक शब्द था अब नारे के रूप में वहीं से फैल रहा है। ये इतने सारे लोग, एक साथ बिना किसी उत्ते जना के, स्वयं उदद्रवकारी आयोजन करके, आजादी की पुकार करने लगें तो इसका अर्थ मुझे बताने की जरूरत नहीं रह जाती।

यह हैरानी की बात है कि इतने सारे लोग एक साथ इनकी पैरवी में आ गए हैं जो यह जानते हुए भी कि जाट उपद्रव आन्दोलन नहीं था, इसी योजना का हिस्‍सा था क्‍याेंकि इसका कोई नेता नहीं था, मॉंग की कोई अपरिहार्यता न थी, इसे भड़काया गया था और भड़काने वाली कांग्रेस रही है जिसके सबूत उनके पास मिले, इतने जघन्य और अमानवीय घटना पर चुप है, क्‍योंकि ये नसी कांग्रेस से लाभान्वित रहे हैं ओर इसलिए उसके साथ रहे हैं। इतनी ताबड़तोड़ बहस या मीडिया में हंगामा एक मूर्ख को निर्दोष सिद्ध करने के लिए जो आवेश में नहीं जानता कि उसका और उस जैसों का शातिर लोगों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा हैा इतने सारे आला दर्जे के लोग इसे निर्दोष सिद्ध करने की आड़ में उस भयंकर षड्यन्त्र को और उन नारों को उचित ठहराने के लिए बौद्धिक व्या्याम कर रहे हैं। ये कौन लोग है। क्या ये 14 के चुनाव के फैसले आने से पहले ही देश छोड़ने, मोदी को किसी कीमत पर सहन न करने की बात नहीं कर रहे थे। क्या उनकी असुरक्षा उसी अनुपात में बढ़ती नहीं गई है जिस अनुपात में अपनी कूटनीतिक परिपक्वता द्वारा इस व्यक्ति ने अपने घर के दुश्मनों से ले कर बाहर के दुश्मनों तक की उपेक्षा करते हुए लगातार और बिना किसी चूक के शब्दों और कार्यों द्वारा यह दिखाने और लोगों का विश्वाेस जीतने में सफलता पाई है कि वह सबको साथ ले कर विकास की दिशा में चलना चाहता है। ’’

”तुम आवेश में आ गए हो। हो सकता है इस समय मोदीनामा का लेखक बोल रहा हो, पर इतना तुम जानते हो कि कोर्ट ने भी उसे देशद्रोह का दोषी नहीं पाया।‘’

’’मैं कोर्ट से भी आगे जा कर यह मानता हूँ कि वह देशद्रोहियों का शिकार है, उसके द्वारा उपयोग में लाया जा रहा है और अपने हितों के विरुद्ध इस्ते माल किया जा रहा है।‘’

”उसका अपना हित क्या है यह तो बताओ।”

” यदि उसे अपने हित का ध्यायन होता तो वह मात़ृभाषा में उच्चतम शिक्षा और चयन में मातृभाषा और केवल उसके बल पर चुने जाने, और आन्तरिक उपनिवेशवाद के विरुद्ध किसी अभियान का नायक बनता या उसका हिस्सा बनता। वह अपने बाद के बचाव वाली लफ्फाजी में जिन चीजों से आजादी की बात करता मिला उनसे आजादी दबे हुए पिछड़े हुए, गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले समाज के अभ्युदय के बिना संभव नहीं और यह अभ्युदय मातृभाषा में शिक्षा के बिना असंभव है। यदि देशद्रोही तय करना हो तो सचमुच वे सभी लोग हैं जो अंग्रेजी के माध्यम से नव ब्राह्मणवाद का सृजन और विस्तार कर रहे है, देश द्रोहियों को बचाने के लिए बयान देते और बयान बदलते रहे हैं, और आज भी सत्ता से वंचित होने पर देश को, इसकी संस्थाओं को बर्वाद करने के आयोजन कर रहे हैं। इनमें वे बुद्धिजीवी भी शामिल हैं जो इन दुरभाग्यपूर्ण घटनाओं के समर्थन में दलीलें दे रहे थे और देंगे भड़काने वालों का साथ दे रहे थे। देश को इनसे मुक्ति की आजादी लड़नी है और सही नेतृत्व विकसित हुआ तो यह सही दिशा भी लेगी। यह मत भूलना कि नवब्राह्मणवाद में अपने को दलित कहने वाला एक तबका भी शामिल हो चुका है और उसके हित दबे और सताए लोगों से भिन्नस हैं।‘’

^’यह तो सही सवाल से भटकाने वाली बात हुई।‘’

’’यह एक अकेली बात है जो एक आजाद देश में आज भी आजादी और मानवीय गरिमा से वंचितों और अनगिनत खानों में बॉंट कर रखे गए और इस तरह एक जुट हो कर महाशक्ति बनने से रोके गए समाज की आन्तरिक आजादी की लड़ाई हो सकती है जो धर्म, संप्रदाय, जाति, क्षेत्र, गर्हित राजनीति सभी को तोड़ती हुई पूरे देश को एक स्वतन्‍त्र और स्वाभिमानी देश बना सकती है और इन दीवारों को मिटा नहीं तो इतना कमजोर अवश्य कर सकती है कि व्यक्ति का मूल्यां कन उसकी योग्योता और प्रतिभा के आधार पर हो सके।‘’

Post – 2016-03-07

विषयान्तर

‘’तुम लेखक हो, तुम भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रंता का विरोध करते हो?’’

’’यह भ्रम तुम्हें कैसे हो गया?’’

‘’कल तुमने फेस बुक पर अनुपम खेर के भावोद्गार का समर्थन किया था या नहीं?’’

’’अरे यार, छोड़ो उस बात को । हम हिन्दी के भविष्य पर बात करलें, उसके बाद मैं अपनी तारीफ भी सुन लूँगा। अभी उधर मुड़ेंगे तो विषयान्तर होगा। वैसे मैं अपने नाम के कारण अपनी महिमा का इस हद तक कायल हूँ कि कोई दूसरा तारीफ करे तो घबरा जाता हूँ। सोचता हूँ, इतना तो मैं खुद ही चढ़ा चुका था, इसने इतना बिना पूछे जॉंचे उड़ेल दिया। पॉंवों के लड़खड़ाने का इन्तजाम कर चुका था, दिमाग को डगमगाने का काम मेरे हितैषी कर रहे हैं।

’’अजीब घामड़ आदमी हो। मैं तुम्हारी तारीफ की बात नहीं कर रहा था। उस समर्थन की बात कर रहा था, जो तुमने अनुपम खेर को दिया।‘’

’सिर्फ इतनी बात तुम्हारी समझ में आई और यह समझ में नहीं आया कि अनुपम मेरे ही विचारों को दुहरा रहा था, और मैं अपने ही विचारों का समर्थन कर रहा था।‘’

वह अकबकाया हुआ मेरा मुँह देखने लगा। बोला भी, ‘’कह क्या रहे हो।‘’

’’तुमसे जो बातें करता हूँ उन्हें गटक तो जाते हो पर पचा नहीं पाते इसलिए फिराक साहब की शब्दावली में पश्चात्तााप करते हो पर समझ में कोई सुधार नहीं आता। अनुपम खेर मेरे बहुत पहले कहे वाक्यों को दुहरा रहा था और जरूरी नहीं कि मेरे विचारों को पढ़ कर ऐसा कर रहा था, पर उसने जिस निडरता से जिस आत्मविश्वांस से जस्टिस गांगुली को किनारे डालते हुए अपनी बात पूरी की वह तो मेरे वश का था ही नहीं, मैं उसका विरोध कैसे कर सकता था।

‘ऐक्ट र चिन्ततक नहीं होता,‍ फिर भी वह विचारों को अपने आवेग भरे शब्दों, आविष्ट तेवरों और अंगचेष्टा‍ओं और आलापों द्वारा मूर्त कर देता है। संचार के क्षेत्र में जहॉं विचार लुप्तं हो चुके हैं, विचारक भेड़ों और मुर्गो और सॉड़ों के दंगल के बीच अपने पक्ष के प्रति समर्मण से आगे की सारीमान्य ताऍं भूल चुके हैं, किसी संचार माध्य म पर पहुँचने से पहल आप को पता होता है इसे किसने खरीद रखा है, इसका मालिक किसका एहसान चुका रहा है और वह विचार के मंचन में किन को बुला कर क्या सिद्ध करके नमक अदा करेगा, वह किस घटना को कितनी बार किन कोणों से दिखाता रहेगा, और किनको गुल कर जाएगा, यहॉं तक कि कुछ लोगों को यह भी पता होता है कि कितना और खाने को मिलने पर किस बहाने वह कब पलटी मारेगा, वहॉं जब कोई व्यक्ति अपनी बात तर्क और प्रमाण और आवेश से कहे तो लगता है इस सच को इस तरह ही उजागर किया जा सकता था कि दबाने वालों के पैंतरे बेकार हो जायँ।”
”’तुम्हे यह नहीं मालूम कि उसकी पत्नी बीजेपी की सांसद है, और उसने खुद ही बताया कि उसे राजकीय सम्मान भी मिल चुका है?’’

’’मुझे पता है, पर तुम्हें पता नहीं है कि कितनी त्रासदी भोगने के बाद उसने अपना निर्णय किया होगा और कितने पापियों को वैतरणी पार कराने के प्रसास मे हमारे ज्ञानी-ध्यानी और मुकुटधारी विद्वान अपनी साख तक मिटा चुके हैं।

‘’राज सत्ता के सामने, उसे झुकाने वाली, एक विचार सत्ता होती है जिसके स्वामी बौद्धिक जन होते हैं। इस सत्ता का लंबा इतिहास है जिसमें अकेला एक तेजस्वी राजदरबार के कोप को चुनौती देता हुआ कह सकता था कि महाराज आप के राज में अन्याय हो रहा है। और महाराजों को उसके सामने झुकना पड़ता था। हमने वह विचार सत्ता खो दी है। अपमान सह कर भी अप्रिय सच को कहने का साहस खो दिया है।‘

‘’अरे यार यही काम तो वे लोग कर रहे हैं जो दमन के विरुद्ध अपने अधिकारों की मॉंग कर रहे हैं, तानाशाही के विरुद्ध छाती तान कर खड़े हो रहे हैं।‘’

’’जिस व्यवस्था में लोग छाती तान कर खड़े हो सकते है, वह तानाशाही नहीं हो सकती। तानाशाही में कानून नहीं तानाशाह की इच्छा का पालन होता है। छाती तान कर खड़े होने वाले तानाशाही में नहीं मिलते। वे दुबक जाते हैं और बुरे दिनों के बीतने की प्रतीक्षा करते हैं। उन्हें उनकी मॉदों तक से निकाल बाहर करके यातना गृहों में डाल दिया जाता है। अब तक का इतिहास यही रहा है।

इतिहास में बदलाव आया है और आज लोग छाती तान कर मूर्खतापूर्ण बातें भी कर सकते हैं। कानून तय करेगा वे सही हैं या गलत। परन्तु अपने नारों से जनता द्वारा चुनी गई सरकार को गिराने के नारे लगाने वालों को यदि भाजपा का वश चले तो भारतरत्न दे दे क्योंकि ऐसे लोग उस क्षति की पूर्ति तो कर ही रहे है जो जोगियो, साधुनियों, और साधुओं ने ही नहीं, सत्ता सुख से वंचित अवसरवादियों ने की है, उनके मुहावरे लाख बचाव के बाद भी जिस समाज में पहुँचते हैं वहॉं लोगों की सोच बदल जाती है।‘’

’’यदि मैं कहूँ यह सब यही सोच कर भाजपा द्वारा कराया जा रहा है तो?’’

‘’मैं कहूँगा तुम उन गधों को समझदार समझते हो और उनका साथ देते हो जो यह तक नहीं जानते कि उनके बड़बोले बच्चे जिन्हें उन्हों ने सिखा पढ़ा कर तैयार किया वे उनका बेड़ा गर्क करने का काम कर रहे है और मोदी की तरह चुप रह कर अपनी खीझ भी नहीं छिपाना जानते। सोचो ऐसे मनबढ़ों को देश को सौंप कर कोई निश्चिन्त हो सकता है । ये सभी मिल कर यह सिद्ध करने पर उतारू हैं कि इस देश की रक्षा और विकास की चिन्ता् केवल भाजपा को है, भले वह तुम्हारी मूर्खता के कारण ही हो।‘’

Post – 2016-03-06

अनुपम खेर को मैं एक अच्‍छा कलाकार मानता था। बडी इज्‍जत थी। आज वह कई गुना बढ गर्इ। आप भी जानते हैं क्यों ? वह समझ और अभिव्‍यक्ति में खरे सिद्ध हुए।

Post – 2016-03-06

हिन्दी का भविष्य (7)

‘’अब मैं तुम्हें बताता हूँ कि नये ऐतिहासिक चरण के लक्षण क्या हैं। नया ऐतिहासिक दौर गोली बारूद के सहारे पुराने को लहूलुहान करता हुआ नहीं आता, अपितु पिछले की थकान और अन्तर्ध्वसन से आता है। यह मैं पहले भी कह चुका हूँ फिर भी इसे दुबारा इसलिए दुहरा रहा हूँ कि जो कुछ हम जानते या पहले सुन चुके है उसका प्रत्येक निर्णायक मौके पर ध्यान नहीं रख पाते। मार्क्सवाद की प्रतिज्ञा क्या है? एक न्यायपूर्ण और मानवीय व्ययवस्था की स्थापना! इसके मूल में है यह स्वीकार कि इससे पहले की सभी व्यवस्थाऍं अन्यायपूर्ण और अमानवीय रही है। इसके बाद भी उन व्यवस्थाओं के शक्तिशाली रहते उनको मिटाया नहीं जा सकता था । वे अपने भीतर से ही व्यर्थ हो जाती रही है। शस्त्रलबल तो केवल सत्ता पर अधिकार है, व्यवस्था में परिवर्तन नहीं। व्यवस्था में परिवर्तन के लिए शस्त्रबल की आवश्यसकता नहीं होती। व्यर्थप्राय व्यवस्था के स्थान पर नयी उच्चतर व्यवस्था की समझ पैदा करने और उस दिशा में सचेत हो कर प्रयत्न करने की जरूरत होती है। पुरानी व्यवस्था जब समस्याओं का हल देने की जगह ऐसी समस्यायें पैदा करने लगती है जिनके समाधान के बिना वह चल नहीं सकती, तब अपने आप इतनी नि:सत्वं हो जाती है कि उसे स्थानान्तरित करना आसान हो जाता।‘’

मैंने उसकी ओर देखा तो उसने कहा, ‘’बोलो, बोलो। मैं हॉं या ना तक नहीं करूँगा नहीं तो तुम्हें बहकने का बहाना मिल जाएगा।‘’

‘’तुमसे नोक झोंक के बिना मजा कैसे आएगा। बस एक काम करना, जब मैं पूछूँ तभी जवाब देना या आपत्ति करना। ठीक रहा?’’

“वह कुछ बोला नहीं, हामी में सिर हिला दिया और यदि कोई तमिल मेरे साथ बैठा होता तो वह समझता कि वह नहीं कर रहा है, क्योंकि हॉं को वे आम् बोलते हैं और आम् आम् के साथ‍ जिस तरह सिर हिलाते हैं उस तरह हम नहीं नहीं के लिए हिलाते हैं। तो समझ लीजिए कि संकेत भाषा में भी अर्थभेद होते हैं।

“खैर, मैने पूछा, ‘तुम्हे याद हैं वे दिन जब उत्तर भारत में सरकारी नौकरियों में ही नहीं, शिक्षा लभ्य व्यवसायों – वकालत, डाक्टेरी, यहॉं तक कि होमियोपैथी – पर बंगाली प्रभुत्व इस सीमा तक था कि बंगाली डाक्टर या वकील किसी अन्य, डाक्टर या वकील से अधिक योग्य माना जाता था। यहॉं तक कि बंगालियों में भी यह बोध बना रहा और पड़ताल करोगे तो पाओगे यह आज तक समाप्त नहीं हुआ है कि बंगाली शेष भारतीयों की तुलना में अधिक मेधावी, अधिक सुसंस्कृ त, अधिक कलाविद ‘रेस’ या जाति है।

” नेशन के लिए जाति का प्रयोग पहली बार किस अर्थ में किसने और कब किया था, इसका मुझे ज्ञान नहीं, पर एक मोटा अनुमान था। बंग जाति जैसी कोई जाति नहीं और बंग जन बॉंगड क्षेत्र जिनकी भाषा को हम उत्तरी राजस्थान में बॉंगड़ू कहते हैं और जिसका प्रभाव हिन्‍दी के चरित्रनिर्धारण पर भी पडा है, पूर्वी भारत में बंग, अर्थात् उन जनों के कुछ क्षेत्रों में प्रभाव को प्रकट करता है। ये तथाकथित द्रविड़ बहुल क्षेत्र में भी फैले थे यह बंगल उूरु (बंगलूरु या बंगलौर) – बंग जनों की बस्ती से प्रकट है । बंगारू लक्ष्मण अधिक बंग हुए बनिस्बत किसी बंगाली के। यह वंग कुछ समुदायों द्वारा बंक भी बोला जाता था और बॉंका, बॅांकीपुर, बंका जिसे अंग्रेजीमें बैंकाक लिखा जाता है में इसे पहचाना जा सकता है। तो यह समझो कि नृजातीय विशेषता जैसी न तो कोई बात है, न ही इस रूप में इसका दावा किया गया है, अपितु इसे क्षेत्रीय बना दिया गया जिसका कुछ प्रभाव रॉंगा माटी का गीत गाने वाले रवि बाबू में भी तलाशा ज सकता है। परन्तु क्षेत्रीय रूप में भी इसके पीछे लौटने पर कुछ खास नहीं मिलता। जो भेदक बात है वह यह अंग्रेजी शिक्षा यहॉं से आरंभ हुई और शेष भाग शैक्षिक दृष्टि से पिछडे़ रहे इसलिए शिक्षित मध्यंवर्ग का उदय और सत्ता में सहभागी या सहयोगी के रूप इसकी पहुँच हुई और वे अवसर मिले जिसमें यह दूसरों से आगे रहा। तुलनात्मक अग्रता स्वतन्त्रँता प्राप्ति तक बनी रही। लोक कल्पनाऍं करते कि बंगाली दूसरों से इसलिए अधिक मेधावी होता है कि वह मछली खाता है। यह ठीक उसी तरह का खयाल था जैसे जब सीराम पुर आदि में फ्रेच जनों की अग्रता को देखकर बंगालियों ने यह अनुमान किया था कि फ्रांसीसी दूसरों से अधिक मेधावी इसलिए होता है कि वह सुँघनी का प्रयोग करता है जिससे उसका दिमाग खुल जाता है और यह बीमारी ऐसी लगी कि इसे अंग्रेजों की सिग्रेट भी नहीं छुड़ा सकी जिसके धुँए के बारे में यह भरम पाल लिया जाता रहा है कि इससे लिखने की प्रेरणा मिलती है या इसका मूड बन जाता है। यही खयाल शराब और पुराने लोगों में भॉंग के सेवन को लेकर था। मूल कारण को न समझ कर हम कैसे कैसे भ्रमों और लतों के शिकार हो जाते हैं इसका यह अच्छाू नमूना हैा

”शिक्षा का दूसरा केन्द्र मद्रास में एलिस के प्रयत्न से स्थापित हुआ । दक्षिण भारत में ठीक वैसी ही अग्रता मद्रासियों या तमिल भाषियों को मिली और उन्हें भी यह खुशखयाली थी कि वे दूसरे भारतीयों से अधिक मेधावी है।

”स्वतन्त्रता प्राप्ति तक केन्द्रीय नौकरियों में और दक्षिण भारत में दूसरे सभी मामलों में मद्रासियों की अग्रता बनी रही। इस बीच शिक्षा के विस्तार तथा अन्य‍ कारणों से मध्यनवर्ग का भौगोलिक विस्तार हुआ और अब किसी भी क्षेत्र को जहॉं शिक्षा का समुचित प्रबन्ध है, किसी अन्य् से पीछे नहीं माना जाता।

”परन्तु सभी क्षेत्रों में एक उूपर से नीचे का विभाजन है जिससे वर्णवाद का भ्रम पैदा होता है, परन्तु इसका मूल कारण दूसरा है। वर्णव्यवस्था के दायरे में इसका रहस्य नहीं खुलता।

”यदि तुम एक तुलनात्मवक तालिका बनाओ जिसमें विभिन्न वर्णो की संख्या और नौकरियों और व्यवसायों में उनके अनुपात का अध्‍ययन हो तो पाओगे अभी पचास साल पहले तक हिन्दी प्रदेश में शिक्षा और राजकीय सेवा के क्षेत्र में सर्वोपरि स्थान कायस्थों का था और हो सकता है वह आज भी हो। इसके बाद ब्राह्मणों का स्थान आता था और अब यह लगता है पर सच नहीं भी हो सकता है कि वे अपनी संख्या के अनुपात में सबसे आगे हैं। कुछ समय पहले तक बनिया शिक्षा को गुलामी मानता था और उससे उपलब्ध होने वाले पदों से होने वाली आय को अपनी दूकान से होने वाली आय से दयनीय मानता था। यह प्रवृत्ति पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है, फिर भी अपनी आर्थिक आत्मनिर्भरता के कारण बनिया शिक्षा से वंचित नहीं रह सकता था। अल्पतम शिक्षा उसकी जरूरत भी थी। फिर कुछ मेधावी बच्चों को दूकान की मनहूसियत और उच्च शिक्षा और उससे खुलने वाले अवसरों के कारण उच्च शिक्षा और प्रशिक्षण के प्रति आकर्षण पैदा होने लगा और जिसकी ओर डोनेशन प्रणाली ने उनके लिए सबसे अधिक अवसर पैदा किए। इसका नतीजा है इस तालिका में ब्राह्मणों और कायस्थों के बाद अपनी आबादी की तुलना में बनियों का प्रतिनिधित्व आएगा। मैं वर्ण से क्षत्रिय हूँ। मेरी स्थिति वर्ण से नहीं जीविका के स्रोत से निर्धारित होती है। मोटे तौर पर हमारी आय का स्रोत वह भूमि रही है जिसकी सीमित आय के बाद भी किसी का नौकर न होने और अपनी जमीन का मालिक होने का भ्रम था और यह भ्रम क्षत्रियों, भूमिहारों और जाटों में एक समान था इसलिए इन्होंने पहले शिक्षा पर कम ध्यान दिया। स्वतन्त्रता आन्दोलन तक में इनकी भूमिका नाममात्र को रही, इसलिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व में ये समान स्तर पर आते हैं, जिनमें से एक, जाटों को, ओबीसी हैसयित के लिए उस हद तक भड़काया जा सकता है कि वे दंगे पर उतारू हो जायँ। भूमिहारो को दलित उत्पीड़क माना जाता है और वह कभी अपने लिए किसी आरक्षण की सोच भी नहीं सकता। क्षत्रिय तो उन गुनाहों का भी प्रतीक मान लिया जाता है जिनसे उसका सीधा संबंध न था। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में या कहें तथाकथि‍त सामन्ती अर्थतन्त्रो में उसे ही उत्पी,ड़क माना जाता रहा इसलिए छूत और बराव के लिए भी उसी को प्रतीक के रूप में प्रयोग में लाया जाता रहा जिसका एक उदाहरण ठाकुर का कुऑं है । इसे मुस्लिम समुदाय पर स्थानान्तरित करें तो शिक्षित मध्य वर्ग उसी दायरे में सिमटा सा रहा है जिसे संभ्रान्त या अशराफ कहा जाता रहा है। अब इसे इस सिरे से समझने का प्रयत्न करो कि जो लोग मनुवाद आदि की बात करते है, वे वर्तमान का सामना नहीं कर सकते। जो वर्तमान का सामना नहीं कर सकता या जिसने इसकी योग्याता विकसित नहीं की है, वह उनका काम करेगा जो उसको अपनी चालाकी से अपने पोषित जानवरों की तरह उन्हीं के अपने हित के विरुद्ध इस्तेमाल करेगा।‘’

’’एक छोटा सा सवाल कर सकता हूँ। ज्ञान के इस महारास में मुद्दा ही गायब है। कहना क्याज चाहते हो तुम। मनुवाद का विरोध न किया जाय?’’

‘’मनुवाद यदि हो तो उसका विरोध किया जाना चाहिए। यदि खत्म हो गया हो, जैसा कि मैं बता रहा था और उसमें ब्राह्मण का स्थान शिक्षित मध्य वर्ग ने ले लिया हो तो मनुवाद से लड़ना उन शक्तियों के हाथ का खिलौना बनना है जो अंग्रेजी के माध्यम से शैक्षिक मध्यवर्ग का दायरा अपने तक या अपने जैसों तक सीमित रखना चाहते हैं। जब तक अंग्रेजी का वर्चस्व रहेगा, पूरे भारत में पिछड़े वर्गों, वर्णक्रम में आगे गिने जाने वाले लोगों के दरिद्रों, दरिद्र मुसलमानों या अन्य उपेक्षित जनो को भाग्योेदय का अवसर नहीं मिल सकता। अपनी आर्थिक विववशता के कारण वे अशिक्षित या अल्पशिक्षित रहने को विवश है, जब कि अपने को दलित कहने वालों में से वे जो आरक्षण का लाभ उठा कर उस हैसियत में आ चुके हैं जिनके लिए शिक्षित मध्य वर्ग का रास्ता सुलभ हो गया है अपने ही समाज के दरिद्रों के संख्या बल का अपने लिए इस्तेमाल तो कर सकते हैं परन्तु उसे न्याय और सम्मान दिलाने के अभियान का वैसे ही विरोध कर सकते हैं और करते हैं जैसे जिसे वे मनुवादी कह कर अपना दायरा बढ़ाना चाहते हैं, वे करते थे।

‘’अत: दलित आन्दोेलन इकहरा है, यह इतिहास में जा कर वर्तमान से लड़ने का मूर्खतापूर्ण प्रयास है, जो भूत बन चुका है उससे लड़ोगे तो भूत आपको पछाड़ देगा। कारण आप उससे लड़ रहे हो जो है ही नहीं। जो है ही नहीं उस पर कितने भी तरह से कितने भी प्रहार करो उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा। आप की जुझारू उूर्जा की बर्वादी होगी और सही दुश्मन की पहचान न कर पाने के कारण आप उसके हाथ के खिलौने बन जाओगे। दलित आन्दोलन की सकल उपलब्धि है जिसे उपलब्धि कहने के लिए दिमाग के कुछ पुर्जे ढीले होने चाहिए ।‘’

”मैं फिर भी नहीं समझ पाया कि इसका हिन्दी से क्या संबन्ध है। मैं जानता था, इतनी मोटी बातें भी तुम्हारी समझ में नहीं आ सकती। कल बात करेंगे।”

Post – 2016-03-04

हिन्दी का भविष्य (6)

‘’जो बातें मैं पहले से जानता हूँ और मजे की बात यह कि जिन्हेंं तुम भी कई बार कई तरह से दुहरा चुके हो, उन्हीं को तर्ज बदल कर दुहराने लगते हो तो उूब होती है। कल मैंने किसी को समय नहीं दिया था, तुम्हारी डफली से बच कर भागना चाहता था।‘’

‘’तुमने कभी इस बात पर गौर किया है कि जिन बातों को नितान्त सरल ढंग से समझाया जा सकता था, जो सरल थीं ही, उनको पुराने लोग कूट भाषा में, पहेलियों में, उलटबॉंसियों में, कथाओं में पिरो कर क्यों प्रस्‍तुत करते थे ? या जैसा कि भिखारी दास ने कहा है कि अभिधा उत्तंम काव्य है फिर भी कविता में लोग व्यंजना, व्येतिरेक, अपह्नुति, विरोधाभास, व्याज कथन, अतिरंजना आदि का सहारा क्योंं लिया करते थे?’’

’’कभी इस पर सोचा नहीं।‘’

’’कमाल है, जिन्द’गी भर हिन्दी’ पढ़ाते रहे और इन बुनियादी सवालों पर सोचा तक नहीं। फिर सोचते किस विषय पर रहे, आय कर बचाने के तरीकों पर?’’

वह झुँझला गया। मैंने उसे छेड़ा भी इसीलिए था। ‘’इसमें सोचने की ऐसी क्या बात है। यह तो कोई आदमी बता सकता है कि कूट भाषा और पहेलियों में विचित्रता की भूख रही हो सकती है और अलंकारों में भी चमत्कारप्रियता प्रधान कारण रही हो सकती है। एक और कारण समझ में आता है, उनके पास समय बहुत अधिक था, आज जैसी भागमभाग न थी, समय काटने के लिए सीधी बातों को भी टेढ़ी बना कर कहने की आदत डाल ली होगी।‘’

’’तुम्हारी हर एक बात सही है और कोई इतनी सही नहीं कि उसे मान लिया जाय।‘’

वह मुझे उस अकड़ से देखने लगा कि उसकी रीढ़ एक फुट लंबी हो गई, ‘’सही है, पर सही नहीं है। सच कहूँ भी तो तुम मानोगे नहीं। फिर बात करने को रह क्या जाता है?’’

’’रह जाता है यह समझना कि इनमें से हर बात गलत है। मनुष्य के पास कभी समय बहुत अधिक नहीं था। और एक ऐसे समय में जब विकास सभी क्षेत्रों में इतना कम था कि आज जिसे हम घंटों में कर लेते हैं उसमें वर्षों का समय लग जाता था, फालतू समय उनके पास हो कैसे सकता था।‘’

’’क्यों कि उनकी आकांक्षाऍं कम थी, आवश्यकताऍं पेट भरने और बाद में तन ढकने और उसके बाद मौसम की मार से बचने के लिए छाया तक सीमित थी। छोड़ो इसे तुम। मैं देख रहा हूँ तुम कुछ कहने को तैयार हो यह तुम्हारे होठों पर उभरी सिकन से ही मालूम है, पर यवह तो बताओ जिसे बताने के प्रलोभन में मुझे लगातार घसीटते रहे वह क्याा है? इतिहास का वह चरण। उसके निशान तुम्हें उसके आने से पहले कब और कैसे दिख गए?’’

‘’बताता हूँ, पर पहले तुम्हें यह बता दूँ कि जब औजार अविकसित थे तब उसी काम को करने के लिए बरसों लग जाते थे जिन्हें आज लम्हों में कर लिया जाता है। आवश्यकताऍं कम थीं क्योंकि उनकी पूर्ति में ही इतना समय और श्रम करना होता था कि फालतू समय को बिताने का सवाल ही नहीं था। दूसरे आज जब वर्षों का काम लम्हों में, हजारों का काम केवल एक व्यक्ति द्वारा कर लिया जाता है, भागमभाग इतनी है कि किसी को खाने और सोने तक का पूरा समय नहीं मिलता और इस कमी को पूरा करने के लिए लोगों को टानिक और शामक ओषधियों का सहारा लेना पड़ता है समय बर्वाद करने और अपने को भीतर से खाली होते हुए बाहर से चमकदार दिखने के युग में भी शिक्षा और अभिरुचि के नाम समय बर्वाद करने का एक विज्ञान विकसित किया जा चुका है जो वीडियो गेम्सु, कार्टून फिल्स्ए , से आरंभ हो कर कैसिनो, कैब्रे, ड्रग डेन और स्ट्रिपटीज तक पहुँचता है। वक्‍त काटने वाले हर युग में रहे है और आज के भागमभाग युग में अधिक विकृत रूप में पाए जा सकते हैं।

और जहॉं तक एक ही बात को कई तरह से या आवृत्ति के साथ प्रस्तुत करने का प्रश्न है, तुमने देखा है, समाचार पत्रों में वही समाचार शीर्षक बन कर आता है, फिर संक्षिप्त सार बन कर आता है, और फिर विस्ता्र से उसको बयान किया जाता है। कहें, आज भी आदमी के पास अपनी बात को प्रभावशाली ढंग से पाठक या श्रेाता तक पहुँचाने के आवृत्तिपरक तरीके अपनाये जाते हैं। इसलिए गुजरे जमाने के लोगों को निरा मूर्ख समझ कर जो पहली तरंग में सूझ गया, उसे ही उनका सत्य बताने के अहंकार पर विजय पाओ तब तुम पाओगे कि वे अपने समय में भी कुछ मामलों में हमारे जमाने से कुछ आगे बढ़ हुए थे और उनके आविष्कार किए गए तरीकों का हम इस्तेमाल तो करते हैं पर कृतघ्न भाव से। इतिहास को नष्ट करने वालों की जमात में शामिल हो कर तुम इससे अलग कुछ कर भी नहीं सकते, इसलिए प्रथम दृष्टि में तुम्हारी जो बातें सही लगती है वे गहरी छानबीन के बाद अधकचरी समझ का परिणाम लगती हैं। अब तुम समझना चाहो तो समझा सकता हूँ कि जिस ज्ञान या बोध के साथ हम जितना समय गुजारते हैं, वह हमारी चेतना और ज्ञान-व्यवस्था और संवेदना तक में गहरे उतरता जाता है। तुरत जाना और तुरत भुला दिया और जरूरत पड़ने पर डींग हॉंकने लगे कि मुझे मत समझाओ, इसे मैं जानता हूँ, पर अपने विवेचन और आचरण में नहीं उतार सके। ज्ञान या संवेदन को चेतना में गहरे उतारने, उनके साथ उूहापोह में लंबा समय गुजारने और कथाओं में पिरोकर उन्हें बार बार सुनाने की जो सर्वशिक्षा प्रणाली विकसित की गई उसका उपहास करने से पहले यह बताना कि ऐसी सर्वशिक्षा योजना किन सभ्याताओं में रही है और जिनमें नहीं रही है उनकी तुलना में अपना समय बर्वाद करने वालों का समाज किस उूँचाई पर सिद्ध होता है। इतिहास में जाओ तो उसकी कालरेखा पर जाओ, अन्‍यथा इतिहास को समझ ही नहीं सकते।

”मैं तुम्हे यह बताउूँ कि बहाना किसी भी विषय का हो, मैं उस विषय पर बात करते हुए अपने समय की चुनौतियों, समस्याओं और बाधाओं पर भी बात कर रहा हूँ। मैं जो किताब लिख रहा हूँ उसका शीर्षक है इतिहास का वर्तमान। मैं कई बहानों से तुम्हें थकाते और उबाते हुए भी तुम्हारी चेतना में यह उतारना चाहता हूँ कि तुम जानने और समझने तक से डरते हो, ज्ञान के भी छोटे रास्ते निकालते हो, इसलिए स्मार्ट दीखते हुए भी निरे गधे हो, आदमी बनने के लिए तुम्हेे अपने को, अपने समाज को, इसके इतिहास को, इसकी विश्वास धारा को, इसके मूल्यों को, इसकी विकृतियों को, इसकी व्याधियों को समझना होगा, किसी की भी उपेक्षा करने से अनर्थ होगा। कई बहानो से मैं यही कर रहा था। अब यदि तुम इसे सुन कर उूब गए हो तो अभी जा सकते हो, और यदि उस मोड़ को समझने की इच्छा है तो मैं बोलूँगा, तुम सुनोगे और बीच में चीं चपड़ नहीं करोगे।‘’

वह कुछ बोला नहीं, ऐंठ से मुस्कराता रहा।

’’देखो, मैं पहले कह आया हूँ कि अपना ऐतिहासिक चरण पूरा करने से पहले संस्थाओं, व्यवस्थाओं और तन्त्रों में जीवट बना रहता है और वे विरोध को स्वल्‍प प्रयास से ध्वमस्त या निष्प्रभाव करने में समर्थ होते हैं। उनका काल पूरा हो जाने के साथ उनकी जिजीविषा तक चुक जाती है, वे बाहर के हमले से नहीं टूटतीं, भीतर से टूटती हैं, अन्तर्ध्वस्त हो जाती हैं, एक्सप्लोड नहीं करतीं, इम्लोड करती हैं, और इसके लक्षणो को जो पहचानता है वह नये युग के चरणचिन्हों को उसके आने से पहले ही पहचान लेता है।‘’

वह ‘’तारीफ करूँ क्या उसकी जिसने तुम्हें बनाया’’ गाते हुए उठा और बिना और कुछ बोले रवाना बना।
०४/०३/१६

Post – 2016-03-03

हिन्दी का भविष्य (5)

‘तुम जानते हो, मैं कितना चिन्तित रहा तुम्हारे दिमाग की हालत पर। तुम अपना संतुलन खोते ही नहीं जा रहे हो, उसमें तुम्हें मजा भी आने लगा है। इसके बाद मेरे कहने को कुछ रह नहीं जाता, जो होना है वह होने को ही रह जाता है।‘

मैं हँसते हुए अपनी झेंप छिपाने लगा। मैं गलत कुछ नहीं कह रहा था, पर सत्‍य को प्रिय न भी बनाया जा सके, आवेगमुक्त तो रखा ही जा सकता है। इसके बिना तो वह सच होते हुए भी सच नहीं रह जाता, उसके अर्थ बदल जाते हैं। मैंने कहा, ‘देखो, मैं एक व्यक्ति के रूप में तुमसे बहस कर रहा था और इतिहास आ कर सर पर सवार हो गया। तुमने ठीक कहा था, ‘भूत उतर गया या अभी भी सवार है?‘

”कितनी पतली झिल्ली विचार को आवेग की धारा से अलग करती है। एक मामूली सी खरोंच, एक नगण्य सी घटना से उस झिल्ली में तनिक सा छेद हुआ कि आवेग उसे चीर कर विवेक पर हावी हो जाता है। हम संयत रूप में, सतर्कता के साथ कुछ कहते या करते या सोचते हैं और एक क्षणिक प्रमाद या उकसावे के कारण हम अपना आपा खो देते हैं। हमारे चेतन, अवचेतन और अचेतन में संचित घोल, जिसका बहुत कुछ हमारी समझ में कभी आ ही नहीं सकता, आवेग बन कर हमारे उूपर हावी हो जाता है। हम जानते तक नहीं कि हम किसी महाशक्ति के द्वारा प्रयोग में लाए जा रहे हैं और कर्ता प्रतीत होते हुए भी निमित्त में बदल चुके होते हैं। हम दोष या श्रेय व्यक्तियों को देते हैं जब कि काम इतिहास कर रहा होता है।‘’

’’तुम इतिहास की आड़ उसी तरह लेते हो जैसे बहुत सारे लोग भाग्य की आड़ लेते हैं या जैसे तुलसी कलिकाल की आड़ लेते थे। जो लोग अपने कामों का दायित्व स्वयं नहीं लेना चाहते हैं, वे ही इस तरह के बहाने तलाशते हैं। हम इसे पलायनवाद कहते हैं।‘’

‘’सच तो यह है कि तुमने अपने किये का दायित्‍व कभी लिया ही नहीं। अपना दोष किसा और के मत्‍थे डालते रहे । पक्‍के पलायनवादी तो तुम हो और साथ ही तुम अधकचरे मार्क्सवादी भी हो, फैशनपरस्त, डमडम डीगा डीगा वाले, जैसा बोलने पर लोग चौंके, क्या बात कही है कह कर पीठ ठोकने वाले मिल जाय, तेवर विद्रोही का लगे, वैसे मार्क्सवादी, नहीं तो जानते कि मार्क्स ने भी अपने दर्शन का नाम ऐतिहासिक और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद रखा था। जिसमें ऐतिहासिक द्वन्‍द्वात्‍मक से पहले आता हैा वह भी मानते थे कि जब जी में आये, जो कुछ भी करना चाहो, वह तुम केवल ठान कर नहीं कर सकते। जिस समाज में तुम रहते हो उसमें एक दूसरे की काट करती अनेक शक्तियॉं, विचार और संगठन काम कर रही होत है और उनकी सही पहचान या जब तक स्थितियॉं अनुकूल नहीं हो जाती तब तक तैयारी में लगा रहना भाग्यावाद नहीं है। इसकी सही समझ के लिए तटस्थ और वैज्ञानिक सोच जरूरी होती है। तुम्हारे भीतर इसकी इतनी कमी है कि तुम्हारे किए के सभी परिणाम तुम्हारी योजना और आशा के विपरीत गए हैं, फिर भी यह समझ नहीं कि सच्चे मन से स्वीकार कर सको कि तुम्हारी भाषा की, समाज की, इतिहास की, और राजनीति तक की समझ गलत रही है। मैं तुम्हें यह याद दिलाना चाहूँगा कि कुछ चरण ऐसे होते हैं जिनमें कुछ गलत, विनाशकारी शक्तियॉं या विचार और उनसे जुड़े जन और संगठन इतने प्रबल हो जाते हैं कि उनका विरोध होता है और पूरे तर्क और औचित्य के साथ होता है, तो भी उनके दबदबे के कारण विरोध का स्वर भी लोगों तक नहीं पहुँच पाता। आलोचना या विरोध करने वालों को, दुष्ट, विद्रोही, नासमझ या पिछडा बता कर उनका सफाया कर दिया जाता है और उनके प्रति सहानुभूति में कोई आह भरने वाला तक नहीं मिलता। अक्सर तो वे बाद के लोगों की याद से और इसलिए इतिहास से भी लुप्त हो जाते हैं। परन्तु इस डरावनी शक्ति के बावजूद वे अपने इकहरेपन के कारण भीतर से खोखला और व्यर्थ होते चले जातेहै और इसका पता होता भी है तो वे और उग्र और विनाशकारी खेल खेलते हुए इस पर परदा डालने की कोशिश करते हैं। भारतीय वाम की स्थिति मुझे ऐसी ही लगती है। तुलसी ने इसे अन्‍त काल निज रूप दिखावा कहा है।

‘’इतिहास के चरण को निर्णायक बताते हुए मैं व्यवक्ति विशेष को श्रेय या दोष देने का विरोध कर रहा था क्योंकि दृश्य और अदृश्य शक्तियों के दबाव में वह वही कर सकता था जिससे अलग कुछ कर ता भी तो निष्‍फल होता। एक व्यक्ति के रूप में वह इसी अर्थ में महत्वपूर्ण है कि अपने समय और इसकी शक्यताओं की नाड़ी को वह दूसरों से अधिक अच्छीं तरह पहचानता है। इसलिए इतिहासकार को व्यक्ति को नहीं, किसी खास परिघटना को समझने के लिए दो बातों पर ध्यान देना चाहिए, उसमें प्रतापी विचार या शक्तियों का संकेन्द्रण कैसा था और कैसे हुआ और यदि वह अनिष्टकर था तो उससे बचने का तरीका क्या हो सकता है। इतिहास यदि विज्ञान है तो इसी रूप में हो सकता है। अभी तक तो हम वर्चस्ववादी इतिहास की झड़प देखते आए हैं जिसमें इतिहास ही गायब है।‘’

’’फिलसफी बघारने का क्या यही सही समय है?’’

’’मैं इस बहाने यह बताना चाहता था कि हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ नहीं बनाया गया, बल्कि हिन्दुहस्तानी जबान को हिन्दी और उूर्दू में बॉंटते हुए ब्रिटिश कूटनीति के तहत उर्दू को पहले अरबी फारसी बोझिल बनाने के लिए उकसाया गया। मैं 1973 में प्रकाशित अपनी ही पुस्तक के कुछ वाक्यों को उद्धृत करूँ तो, ‘’बीम्स के मत से सीह नस्र ए जौहरी की भाषा ही भारत की सभी उत्कृष्ट रचनाओं की भाषा हो सकती थी। … उनका विचार था कि वादी या फरियादी की तुलना में मुद्दई, प्रतिवादी की तुलना में ‘मद्द आ अलयहि (मुद्दालेह), जैसा कि नीचे लिखा है की जगह ‘हस्ब-ए-तफ्सील-जैल’ अधिक श्रेयस्कर प्रयोग हैं। उनके विचार से बाद इन्किजा-ए-मोहलत (अवधि समाप्त होने पर) का हिन्दी में अनुवाद हो ही नहीं सकता। कहें यह बीमारी अंग्रेज कूटनीतिज्ञों की चालाकी से उर्दू के माध्यम से हिन्दीे में फैलाने की कोशिश की गई, परन्तु हिन्दी के लेखकों और कवियों ने इस विषय में सावधानी बरती थी। हिन्दी में तत्सम प्रियता दो कारणों से आई । पहली उस तेवर के कारण जिसमें फारसीकरण को श्रेष्‍ठता की कसौटी बना कर हिन्दीे को गॅवारों की भाषा बताया जा रहा था और यह उकसावा दिया जा रहा था कि हिन्दी में परिष्कृत व्यंजनाओं के लिए शब्द हैं ही नहीं और इसका पहला नमूना हरिऔध जी का प्रियप्रवास और शुक्ल जी की आलोचना की भाषा हो सकती है। परन्तु कविता में तत्सम-प्रेम ‘नव गति नव लय ताल छन्द नव’ के घोष के साथ बंगला के प्रभाव से आरंभ हुआ न कि उर्दू से मुकाबला करने के लिए। इस भाषा को संस्कृतनिष्ठ नहीं कहा जा सकता था। यह बहुत सधी हुई, ओजस्वी भाषा थी।

‘’पहली बार हिन्दी भाषा का सत्यानाश करने का, इसे भाषा से जार्गन बनाने का काम उस खास चरण पर आरंभ हुआ जब इसको एक बहुत बड़ी चुनौती का सामना करना था और यह काम साहित्यकारों के द्वारा नहीं, भाषाविज्ञानियों द्वारा किया गया। विशेषज्ञ इतने मूर्ख क्यों होते हैं, कि भाषा का विज्ञान उनके पास है पर भाषा के स्वाभाव का ज्ञान और ध्यान है ही नहीं। जानते हो बांग्‍लादेश के एक बहुत बडे भाषाविज्ञानी थे और उनका विचार था कि पाकिस्‍तान की भाषा अरबी होनी चाहिए, इससे कोई विवाद न पैदा होगा। ऐसे ही लोगों ने भारत की राष्‍ट्रभाषा संस्‍कृत को बनाने का सुझाव रखा था जिनमें बाबा साहब भी थेा‘’

’’मैं तुम्हारी मूर्खता को सराहूँ जो लगातार इतिहास के चरण की दुहाई देते हुए जाने कितने दिन खराब कर गया पर यह न बता सका कि उस चरण पर हुआ क्या और हमारा आज का चरण उससे किस माने में भिन्न है, या भाषाविज्ञानियों की मूर्खता को जिन्होंने दवा की आड़ में बीमारी को बढ़ाया और बीमार को पहले से अधिक लाचार बनाते चले गए।”

” मेरे पास सिर्फ पॉंच मिनट का समय है, इसमें तुम मेरे सवाल का जवाब दे सको तो ठीक, वर्ना मैंने किसी को समय दे रखा है।‘’

’’देखो इस समय तीन तरह की घटनाऍं हुईं। देश विभाजन से पहले भाषा को हिन्दुस्‍तानी बनाया जा रहा था। भाषा भी विभाजन का मुद्दा बनी और उर्दू पाकिस्तान की भाषा बन गई, इसलिए हिन्दी को अब संस्कृत निष्ठ बनाने का वैध रास्ता तैयार हुआ। एक नई राजनीतिक मॉंग यह हुई कि हिन्दी को सर्व-स्वीकार्य बनाने के लिए दूसरी भाषाओं के भी कतिपय पारिभाषिक शब्दों को अपनाना चाहिए। यह सब एक हड़बड़ी और नासमझी में प्रयोग की तरह किया जा रहा था और एक साथ कई विरोधी आकांक्षाऍं पाली जा रही थीं। भाषा सरल भी होनी चाहिए, सटीक भी होनी चाहिए, तकनीकी अभिव्यक्तियों में एकरूपता होनी चाहिएए आदि। जिस एक बात का ध्यान नहीं रखा गया वह यह कि जिन शब्दों को आम जन समझते हैं, उनके स्थान पर दूसरा नया और अटपटा शब्द न लाया जाय।

इतनी मामूली सी समझ से बहुत सारा श्रम तो बचा ही होता, भाषा की स्वाभाविकता नष्ट न हुई होती।‘’

’’अब मैं चलूँगा।‘’ उसके साथ ही मैं भी उठ खड़ा हुआ ।

Post – 2016-03-01

हिन्दी का भविष्य (4)

“तो फिराक साहब की तरह तुम भी मानते हो कि हिंदी को संस्कृतनिष्ठ नहीं होना चाहिए?”

“संस्कृतनिष्ठ हिन्दी हिन्दी नहीं होती, यह तुम जानते हो? संस्कृतनिष्ठ का अर्थ जानते हो?”

वह मुझे यूँ देख रहा था जिसमें कुछ कहने की आकांक्षा तो थी पर यह डर भी था कि जवाब देना खतरे से खाली नहीं है। मुझे उसका उल्लूं खींचने में मजा आ रहा था। एक मिनट प्रतीक्षा के बाद बताना पड़ा, “देखो इसमें दो भाषाओं के नाम है, संस्कृत और हिन्दी । एक तीसरा पद है निष्ठ । इस निष्ठ शब्द के दो तरह से अर्थ लगाए जा सकते हैं, एक , जिसका अर्थ है, निष्ठा रखना और इस निष्ठा का अर्थ है श्रद्धा, विश्वास आदि। इसमें संस्कृत पूज्य भाषा बन जाती है और हिन्दी उसकी सेविका या भक्तिन। यह हिन्दी के गौरव के अनुकूल नहीं है, यह तो मानोगे ही ?’”

उसने बुझे स्वर में कहा, ‘’यह बात तो समझ में आती है।‘’

’’चलो, कुछ तो तुम्हारी भी समझ में आया। दिमाग खुलेगा तो बहुत कुछ समझ में आएगा। हॉ, निष्ठ का दूसरा अर्थ नि: स्थ से बनता है जिसका अर्थ हुआ नि:शेष रूप से स्थित। अब यदि हिन्दी संस्कृत निष्ठ हो गई तो उसे किसी भी सिरे से हिन्दी न कहोगे?’’

उसने लम्बी सॉंस ली, ‘’यार इस तरह तो कभी सोचा ही नहीं था।‘’

’’देखो, इस तरह अपनी तौहीन मत किया करो। सोचने का काम तो तुम पार्टी निष्ठा में कभी का बन्द कर चुके हो, जब कहते हो इस तरह तो सोचा ही नहीं था, तो तुम पार्टी के साथ विश्वासघात करते हुए यह बताते हो कि किसी और तरह से सोचने का काम तुम बीच बीच में करते रहे हो। मैं तुमसे इस गद्दारी की उम्मीद ही नहीं करता।‘’

उसने तमाचा जड़ने वाली भंगिमा में हाथ उठाया तो मैंने बाअदब सिर नीचा कर लिया। फिर उसे समझाने की कोशिश की,”देखो, भाषा पवित्र चीज नहीं है, यह झाडू़, चक्की, बरतन की तरह जरूरी चीज है। वे सीमित उपयोग के उपकरण हैं, इसलिए कुछ परिस्थितियों में उनके बिना हमारा काम चल सकता है, परन्तु भाषा असंख्य उपयोगों में आने वाले औजारों का भंडार है और मजे की बात यह कि इसमें ऐसे औजार भी है जो सफाई नहीं करते, कई बार गन्दगी भी करते हैं, या उनसे यह भ्रम पैदा होता है कि ये गन्दे हैं, परन्तु वे भी एक उपयोगी काम करते हैं। उनके बिना भी हमारा काम नहीं चल सकता। जैसे गालियॉं, जैसे विकृतियॉं, जैसे उन अंगों के नाम या उन क्रियाओं के नाम जिनका हवाला दे कर गालियॉं दी जाती हैं, या जिनकी चर्चा आने पर साहित्य को अश्लील करार दे दिया जाता है।

‘’रौ में हो, बोलते जाओ। नशा उतरेगा तो बात करूँगा।‘’

’तुम्हें एक वाकया सुनाउूँ। एक सज्जन भोजपुरी का एक शब्दकोश बनाना चाहते थे। राहुल जी से चर्चा करते हुए उन्होंने पूछा अमुक शब्द को उसमें रखना ठीक होगा। राहुल जी घबरा गए, कहा, नहीं, ऐसे शब्दों को रखना ठीक न होगा। हिन्दी में बताउूँ तो तुम भी घबरा जाओगे और मुझसे भी कहते न बनेगा पर अंग्रेजी में उसका आशय ‘प्यूबिक हेयर’ बताउूँ तो झेल जाओगे। राहुल जी, मेरी या तुम्हारी घबराहट का कारण यह है कि हमने भाषा को पवित्र मान लिया, उपयोगी औजार नहीं जिसे पवित्र नहीं, प्रभावकारी होना चाहिए। जिनसे और जितने अधिक लोगों से वह संवाद करना चाहती है, अपनी बात पहुँचाना चाहती है उन तक पहुँचाने में सक्षम होनी चाहिए।‘’

’’मैं चलूँ?’’ उससे कोई और उत्तर देते न बना तो आखिरी धमकी से काम लिया।

’’मैं तुम्हारी पीड़ा को समझता हूँ। तुम्हारी समझ ही गड़बड़ नहीं है, समझने की ललक और योग्यता तक खत्म कर दी गई है। नारों और नक्कारों की भाषा से आगे की भाषा तक की समझ खत्म कर दी गई है, इसलिए जब कोई बात समझाई जाय तो तुम्हें घबराहट होती है। तुम बौद्धिक ऐयाशों की ऐसी जमात में शामिल हो जिसने अपने क्षेत्र में श्रम करने से लगातार परहेज किया, किसी की जमी हुई खेती देखी तो असमय नोच चोंथ कर उसे भी बर्वाद कर दिया।‘

वह हँसने लगा, ‘’अरे भाई, अपने को सँभालो। ये अच्छे लक्षण नहीं हैं। किसकी खेती उजाड़ी है हमने और यदि उस खेती को तुम पूँजीवादियों की खेती समझते हो तो उस पर हमें गर्व है।‘’

’’तुम अपराध के मनोविज्ञान से परिचित हो? नहीं होगे। जब तुम अपना काम तक नहीं करते, बार बार वही करते हो जिसका नुकसान झेलना पड़ रहा है और फिर भी नहीं समझते, तो मनोविज्ञान के लिए तो तुम्हारे दर्शन में ही स्थान नहीं है। बुद्धि पदार्थ के खमीर से फफूँद की तरह पैदा होती है और जब पैदा हो जाती है तब खुराफात करती है इसलिए बुद्धिजीवी तुम्हा्रे मूल्यांकन में सबसे खतरनाक प्राणी होता है और उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। इसलिए तुम्हें समझा दूँ कि यदि किसी सज्जन से अपराध हो जाय तो वह तुरत उसे स्वीकार कर लेता है, उसकी ग्लानि भी अनुभव करता है, परन्तु यदि अपराध में संलिप्‍त कोई व्यक्ति अपना अपराध या अपनी गलतियॉं स्वीकार करने लगे तो वह मिट जाएगा, क्योंकि इसके अतिरिक्त उसने और कुछ किया ही नहीं। इसलिए पक्का अपराधी कभी कोई अपराध स्वीकार नहीं करता, अपराध दर्शन अवश्य तैयार कर लेता है जिससे अपने को अपराध मुक्त सिद्ध कर सके। इसलिए तुम्हें वह अपराध नजर भी न आएगा जिससे तुमने देश का सत्यानाश किया है। अपनी ऐयाशी के कारण तुम अपना जनाधार तैयार नहीं कर सके। लीगी सोच के कुछ लोगों ने सुझाया, एकमुश्त जनाधार हम देंगे, तुम द्विराष्ट्र सिद्धान्त को स्वीकार कर लो। तुम को खूनी क्रान्ति का नशा है, तुम्हें जितना खून चाहिए, उतना बहा कर हम देंगे। और तुम उस मॉंद में चले गए जिधर जानवरोंके जाने के निशान तो मिलते थे, वापस लौटने के नहीं।

तुमने सोचा, रक्तक्रान्ति न सही हुड़दंग ही सही, और हुड़दंग को क्रान्ति का पर्याय बना दिया। इतने बड़े देश में क्रान्ति तो नहीं की जा सकती इसलिए इसे तोड़ दिया जाय तो उस छोटे से इलाके में क्रान्ति करके मुक्त क्षेत्र बना कर कम्युनिस्ट देशों से मदद ले कर क्रान्ति की जा सकती है इसके लिए कितने बार कितने तरीकों से देश को तोड़ा। कम्युनिस्टों का पाकिस्तान तो एक ऐसे छोटे देश के रूप में ही बना था जिसमें क्रान्ति अधिक आसानी से हो सकती थी और जिस तक रूस की मदद पहुँच सकती थी। दूल्हे दूलहराज भाई भी वहॉं क्रान्ति का सपना ले कर ही तो पहुँचे। कितनी बचकानी रही है तुम्हारी समझ। फिर तेलंगाना, फिर नक्सलबाड़ी की गर्दन काट कर मुक्त क्षेत्र बनाने का सपना और अब दसियों साल से वनांचलों को अलग करके उनकी जनता को दुर्गति में रख कर अपनी वसूली का कारोबार। कल कारखानों के कारण मजदूरों की एकत्र जमात को हथियाकर पूँजीवाद को मिटाने की लड़ाई में तुमने राष्ट्रीय पूॅजीवादी विकास को कुंठित कर दिया। जिन मजदूरों के दोस्त बने थे उनको बेकारी में ढकेल दिया। पॅूजीपतियों का कुछ नहीं बिगड़ा, वे देश का पैसा विदेशों में लगा कर कहॉं से कहॉं पहुँच गए। जिन सामानों को देश स्वयं बना सकता था उनके लिए भी वह विदेशों का बाजार बन गया। देश का धन अपने पूँजीपतियों के माध्य‍म से विदेशों में पहुँचा, वहॉं की बेकारी कम हुई हमारी बेकारी बढ़ी, और देश का पैसा बाजार बनने के कारण दूसरे देशों को पहॅुचने लगा और उससे भी उनकी बेकारी कम हुई हमारी बढ़ी, यह तुम्हारी मूर्खता से हुआ या अपराधवृत्ति से यह तुम तय करो। पर अब मजदूरों का साथ छूटा या नाम मात्र को रह गया तो एकत्र भीड़ विश्ववविद्यालयों में दिखाई दी तो शिक्षा के लिए आए हुए प्रतिभाशाली नौजवानों से बिना किसी समस्या के शौकिया हुड़दंग कराने लगे, हुड़दंग के बहानों का आविष्कार करने लगे और इसे ही अभिव्यक्ति की स्वतन्‍त्रता बता कर पूरे देश में किसी न किसी अधिकार की आड़ मे पीछे से भड़का कर आग लगाने लगे या आग लगाने वालों के साथ हो लिए।‘’

मैं सचमुच तैश में आ गया था, ” दुनिया के किस देश में, सिर्फ उन देशों को छोड़ कर जिनमें अमेरिकी तन्त्र मानवाधिकार से ले कर जाने किन किन अधिकारों की आड़ में दंगे भड़काने पर लगा हुआ है और जहॉं की संपदा को किसी न किसी बहाने अपनी मुट्ठी में करने के इरादे बना चुका है, इस तरह के बवाल किए जाते हैं? और जहॉं ये सफलता पूर्वक कर लिए जाते हैं उन देशों की बौद्धिक दुर्गति का कुछ अनुमान है तुम्हें ? तानाशाही के हिमायती दर्शन में विश्वास करने वाले अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता हुड़दंगतन्त्र से सर्वसुलभ कराना चाहते है? तुम किसका काम कर रहे हो?, किस देश में तुम लोगों की पूछ हाल के दिनों में बढ़ी है? मैं तुम पर छोड़ता हूँ तुम तय करो कि तुम देश का हित कर रहे हो या देशद्रोह कर रहे हो और करा रहे हो और उसको जायज ठहरा रहे हो।‘’

’’भूत उतर गया या अभी भी सवार है। बात भाषा की हो रही थी कहॉं से कहॉं पहुँच गए। बताओ होश में मैं हूँ जो तुम्हारी भडॉंस सहता रहा या तुम ।‘’

वह उठ खड़ा हुआ और इतनी सारी गलतियों के बावजूद मात्र चुप्‍पी साध कर उसने मुझे धूल चटा दी है।