हिन्दी का भविष्य – १०
“अंग्रेजी को तुम गाली देने की भाषा मानते हो । इस महान भाषा को, जिसका लोहा इसके दुश्मन तक मानते हैं। कल तक हम इस बात का रोना रोते थे हमे औपनिवेशिक दासता से गुजरना पड़ा, आज भी तुम जैसे शाविनिष्ट जार-जार रोते हैं कि मैकाले ने अंग्रेजी लाद कर हमें मानसिक रूप से गुलाम बना दिया। वे यह नहीं जानते कि एशिया के आगे बढ़ने वाले देश भारतीयों से इस लिए खम खाते हैं कि भारतीयों को औपनिवेशिक दाय के रूप में अंग्रेजी मिली और वे इतनी आसानी से अंग्रेजी बोल लेते हैं जब कि वे सिर धुन कर सीखने के बाद भी सही अंग्रेजी नहीं बोल पाते । तुम विश्वास नहीं करोगे मैंने न्यूयार्क के चाइना टाउन में एक दो दिन बिताए हैं और उनके साथ घूमा फिरा हूँ। पचास साठ साल से वहीं बसे हुए हैं। उनकी दूसरी तीसरी पीढियों को जो कालेजों में पढ़ रही है ऐसी अंग्रेजी बोलते सुना है और वह भी धड़ल्ले के साथ कि अपना सिर फोड़नेको जी करे।”
मैं उसकी बात सुनता रहा और जब वह चुप हुआ तो पिलखल के पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहा, “इन किशलयों की क्षटा तो देखो, माघ की पंक्ति है या पता नहीं किसी और की – नव पलाश पलाशगतं पुरः नव परग परागत पंकजम् – ”
वह खीझ उठा, ” अब बोलती बन्द हो गई तो संस्कृत की याद आने लगी ?”
“जब तुम अपना ज्ञान बघार रहे थे, तब मेरा मन इतना कलुषित हो गया कि सोचने लगा कि यदि तुमने अपना सिर फोड़ लिया होता तो रक्त में सना हुआ वह लाल फूल की तरह कितना प्यारा लगता। तभी इन किशलयों की ओर ध्यान चला गया और सोचने लगा ये अधिक मनोरम हैं या तुम्हातरा अंग्रेजी की चिन्ता् में फटा हुआ सिर जो मेरी कल्पना में था। मन की शुद्धि के लिए प्रकृति के अवलोकन से अच्छा कोई उपचार नहीं।‘’
‘’मैंने जो कहा है वह तथ्य और अनुभव पर आधारित है। तुम्हारी तरह की तीरन्दा्जी नहीं।‘’
‘’तुम गलत कहते ही नहीं, जस का तस रख देते हो, कंकड़ स्था ने कंकड़: । दुर्भाग्य हमारा कि हमें तुम्हारी कोई बात सही लगती नहीं । तुम्हें भी ईश्वर ने मेरी तरह दिमाग तो दिया पर तुम उसका इस्तेमाल माल गोदाम की तरह करते हो, मन्थन के कठाले की तरह नहीं । तुम खुद मानते हो कि एशिया के केवल वे ही देश प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़े हैं जिनको औपनिवेशिक दासता से गुजरने और मानसिक रूप से पराश्रयी नहीं होना पड़ा । जिनको अपनी भाषा की अवज्ञा करने और मालिकों की जबान सीख कर गुलामों के सुर में उनके शब्द दुहराते हुए गर्व करने की आदत नहीं डाली गई । तुम स्वयं कहते हो कि जिनसे तुम्हारा पाला न्यूयार्कके चाइना टाउन में पड़ा उनकी कई पीढ़ियाँ वहीं पलने बढ़ने के बाद भी अपनी भाषा और संस्कृति पर इतना गर्व करती और उससे इतना लगाव रखती हैं कि परिस्थितियों के दबाव के कारण अंग्रेजी का मात्र कामचलाऊ या अर्थग्राही ज्ञान ही रखती हैं। उसके आधिकारिक ज्ञान के माया जाल में नहीं पड़तीं, क्यों कि जानते हैं दूसरे की भाषा अपनाने का मतलब है उसकी मेधा को अपनी मेधा पर हावी होने का अवसर देना। तुम्हारा पाला उनकी एक टुकड़ी से नयूयार्क में पड़ा था, और फिर भी वे जो टूटी फूटी स्थानीय भाषा बोलते हैं उसका सही नाम तक तुम्हें पता नहीं । उसे अंग्रेजी नहीं अमेरिकन कहते हैं और अंग्रेज भी जब अमेरिका पहुँचते हैं तो उन्हें अमेरिकन समझने और बोलने में कठनाई होती है। तुम्हें यह पता तो होगा, पर ठीक उस मौके पर जब दिमाग से काम लेना होता है तब, याद नहीं आएगा कि अमेरिकन का विकास तो वहाँ शरण लेने वाली यूरोपीय बहुजातीयता के घोल से हुआ था और बोलते वे अमेरिकन थे, पर अंग्रेजी उपनिवेश होने के कारण लिखते अंग्रेजी थे। औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए उन्हें संग्राम करना पड़ा और उन्हें ही विजय नहीं मिली, उन्होंने औपनिवेशिक देशों में भी यह मन्त्र फूँका कि ठान लो तो औपनिवेशिक दासता से मुक्ति पाई जा सकती है। कि अपनी मुक्ति के बाद उन्होंन दो काम किए । पहला था ‘मेक इन अमेरिका’ अर्थात् जो माल तुम इंगलैंड से मँगाते हो उसे अमेरिका में बनाओ। यदि यह सूत्र समझ में आ जाए तो तुम्हें मोदी का ‘मेक इन इंडिया’ समझ में आ जाएगा और इसकी खिल्ली् उड़ाना छोड़ दोगे। इसके साथ ही उन्होंने स्वदेशी प्रेम का मन्त्र भी फँूका। वह कौन था, जेफर्सन या कोई और जिसने कहा था, जब तुम बाहर से लोहे की एक बीम खरीदते हो तो तुम्हारा पैसा बाहर चला जाता है और उसके बदले बीम मिलता है, परन्तु जब तुम अमेरिका में बना बीम खरीदते हो तो तुम्हें बीम भी मिलता है और तुम्हारा पैसा भी तुम्हारे पास रह जाता है।
‘’और जो दूसरा काम उन्होंेने किया वह था अंग्रेजी से मुक्ति पाने के लिए अपनी वर्तनी में सुधार। वेब्स्टर का नाम जानते हो न, उसकी भूमिका भी जानते होगे। अब सारी दुनिया अमेरिकन सीखती है, इसलिए नहीं कि यह ज्ञान की भाषा है, बल्कि इसलिए कि यह कारोबार की भाषा है, माल पर लगे ठप्पे की वह भाषा है जिसे सबसे अधिक लोग समझते हैं। केवल उपनिवेशों के गुलाम है जो आज भी इंग्लिश वर्तनी का अनुगमन करते हैं। ज्ञान की भाषा उन देशों की अपनी भाषा है और उनकी आधारभूत तैयारी हमारे स्वनतन्त्र होने के समय बहुत पिछड़ी थी, जापान अवश्य इसका अपवाद था, परन्तु आज वे अपनी इस भाषा के कारण और दुनिया का ज्ञान अपनी भाषा में ढालने के कारण इतने आगे बढ़ गए हैं। इतने पिछड़ गए हैं हम कि मेक इन इंडिया के लिए भी हमें उनकी मदद और तकनीक की जरूरत पड़ रही है।‘’
‘’यार मोदी का जादू बोल रहा है या तुम खुद बोल रहे हो। सॉंस लेने के लिए तो बीच बीच में रुक जाते।‘’
‘’मैंने अपनी कविता सुनाई थी न तुम्हें ‘मैं फिर तोड़ता हूँ उस तिलस्म को जिसमें मैं कैद था।‘ याद है या भूल गए। मुझ पर किसी का जादू नहीं चल सकता और तुम उस तिलस्म से इतने अभिभूत हो कि उससे बाहर निकलना तक नहीं चाहते जिसमें तुम कैद हो। मैं मोदी को बता सकता हूँ कि तुम्हारा मेक इन इंडिया अधूरी समझ पर निर्भर है। इसके लिए थिंक इंडिया जरूरी है और थिंक इंडिया के लिए भारतीय भाषाओं का वर्चस्व जरूरी है। पर मुझे पहली बार यह विश्वास पैदा हुआ है कि यदि मोदी को मेरी बात समझ में आ गई तो वह इस दिशा में प्रयत्न करेंगे और तुम उस प्रयत्न को विफल करने का प्रयत्न करोगे पर यह पहला अवसर है जब जनता अपने भाग्योदय के लिए संघर्ष करना सीख रही है और अब तक जो प्रच्छन्न गान गाया जाता था, सिंहासन ऊँचा करो कि नेता आता है, का स्थान दिनकर की वह पंक्ति लेगी, ‘सिंहासन खाली करो की जनता आती है।‘’
13.3.16