Post – 2016-09-07

निदान – 43
एकान्‍तवादी सोच की सीमा
”तुम नाहक अपना भी समय बर्वाद करते हो और हमें भी बोर करते हो। तुम्‍हारी बात कोई नहीं मानने वाला । सबके अपने अपने विचार हैं और उन्‍हें उसी से काम लेना है। तुम एक दिन में उनकी मान्‍यताओं को नहीं बदल सकते । देखा नहीं, एक आदमी गोडसे को हत्‍यारा कह रहा है, और वह अकेला नहीं है, वह देश के नब्‍बे प्रतिशत का प्रवक्‍ता है, और दूसरा गांधी को काइयॉं बनिया, और उनका जो सबसे कारगर हथियार, अनशन का था उसे हिंसा। मजा तो तब आया जब एक ने तुम्‍हें गांधी का चेला भी बना दिया। ” मेरे मित्र को लंबे समय बाद फेस बुक से अपना मौन तोड़ने का मसाला मिला था।

”मैं भी यही चाहता हूँ कि कोई मेरी बात न माने, सही प्रतीत होने वाले की भी बौद्धिक गुलामी, गुलामी ही हुआ करती है। जब हम उस सही को समुचित ऊहापोह से अपना सत्‍य बना लेते हैं, तक वही बात किसी दूसरे की नहीं रह जाती, अपनी खोज बन जाती है। यह बात मैं पहले भी दुहराता रहा हूँ कि आपके पास देखने को अपनी ही ऑंखें हैं, सोचने के लिए अपना ही दिमाग है। वह प्रखर या मन्‍द जैसा भी है, काम आप को उसी से लेना है। न लिया तो ऑंख रहते अन्‍धे और दिमाग रहते भी मूर्ख बने रहेंगे। काम लेने से उनमें प्रखरता भी आएगी। परन्‍तु ज्ञान के अहंकार में वे दूसरो की नजर और दूसरों केे दिमाग से काम लेते हैं और उनके ही काम आते हैं। तुमने देखा तो असहमत होने वालों में किसी के पास अपना दिमाग था ही नहीं, न अपनी आंख थी। वे किसी न किसी के कहे को दुहरा रहे थे और यह भी नहीं देख रहे थे कि उसका आधार क्‍या था। अपने को अपने ही मुंह से भगवान कहने वाला, अपने को बुद्ध का अवतार कहने वाला, ओसो कहने वाला वाक्‍चतुर मनमौजी जो जिसकी समझ ऐसी कि हिप्पियों को सच्‍चा बौद्ध बता कर अरबों की संपदा और अन्‍धभक्‍तों का काफिला तैयार करले, बौद्ध चिन्‍तन को पंचमकार पर उतार दे जो वह अपनी दुर्गति के दिनों में हुआ था परन्‍तु करनी ऐसी कि जिस अमेरिका में लंपटता के दर्शन से इतना वैभव अर्जित किया उसमें प्रवेश तक पर प्रतिबन्‍ध लगा दिया गया, वह गांधी के अनशन पर फैसला देने का अधिकारी हो गया और आपने अपनी बुद्धि उसके हवाले कर दी। यदि आपको स्‍वयं अपने विवेक से ऐसा लगता है कि कोई व्‍यक्ति या विचार गलत है उसे बिना किसी की बैसाखी के प्रस्‍तुत करें । फतवा न दें, उसका तर्क दें और उस तर्क से लगे कि आप ने इस पर सोचविचार किया है तो उसका महत्‍व है। जब तुम कहो, नब्‍बे प्रतिशत लोग किसी को ऐसा मानते हैं इसलिए तुम भी मानते हो, तो तुमने अपनी अक्‍ल से काम ही नहीं लिया, संख्‍या के दबाव में आ गए। और संख्‍या जितनी ही बढ़ती जाती है विचार पक्ष उतना ही घटता जाता है, यह हम पहले समझा चुके हैं।
”देखो, तुम्‍हें एक बार फिर याद दिला दूँ कि मैं यदि इस बात में सफल हो जाऊँ कि सभी लोग मेरी बात मान लें, तो यह मेरे लिए दुर्भाग्‍य की बात होगी।
अमुक ने कहा इसलिए मैं भी मानता हूॅे मार्का लोग सुपठित और वाचाल मूर्ख होते हैं जिन्‍हें अपना दिमाग और आंख होते हुए भी उससे काम लेने तक का शऊर नहीं होता और सारी दुनिया को अपने अनुसार चलाने की ठाने रहते हैं। और तुम उन मूर्खों के शिरोमणि तो नहीं कहूँगा, पर उसी माला में पिरोए हुए मनके हो जो अपने धागे से बाहर नहीं जा सकते।”

मैं चाहता हूँ लोग मानना छोड़ें, देखना और सोचना आरंभ करें और उसके बाद किसी बात से तब तक के लिए सहमत हों जब तक कि किसी अन्‍य कसौटी पर वह गलत नहीं सिद्ध हो जाती। विज्ञान में यही होता है, इसलिए विज्ञान समाज को आगे ले जाता है। विश्‍वास में यह नहीं होता, इसलिए विश्‍वास, समाज को पीछे ले जाता है। विश्‍वासों के टकराव से कलह पैदा होता है, हिंसा होती है, भाषा, आचार, व्‍यवहार, आपसी लगाव सभी में गिरावट आती है। आदमी तर्क को भी गुर्राहट में बदल कर अपरिभाषित और बोझिल शब्‍दों में बात करने लगता है और यह जानता नहीं कि उसने जो कहा उसका अर्थ क्‍या है । मुझे यदि यह सौभाग्‍य प्राप्‍त होता कि मैं गांधी या मार्क्‍स का शिष्‍य बन जाता तो अपने को सौभाग्‍यशाली समझता । पर विचारक चेले नहीं बनाते, उनके अनुयायी होते हैं। जिस आदमी का भी यह कथन है उसके पास दिमाग नहीं है, जहॉं विचार होना चाहिए वहॉं घ़ृणा भरी है और यह स्‍थानान्‍तरित घृणा है। वह मुसलमानों से घृणा करता है और उन मुसलमानों केे साथ खड़ा होता है जो इसी तरह हिन्‍दुओं से घृणा करते हैं । यदि गांधी मुसलमानों से, कम से कम नोआखाली की यात्रा के बाद ही घृणा करते तो उसे उनमें शायद कोई कमी नहीं दिखाई देती, नहीं करते इसलिए मुसलमानों के लिए घृणा गांधी के प्रति घृणा में बदल गई । गोडसे को एक बार ध्‍यान से पढ़ो, वह लगातार इस बात की शिकायत करता है कि गांधी मुसलमानों से प्रेम करते थे, पूरा इतिहास इसी बात को सिद्ध करने के लिए, और इसीलिए मैं कह रहा था कि जिस व्‍यक्ति के मन में विचार का स्‍थान घृणा ले लेगी, वह मानसिक रूप में सन्‍तुलित नहीं रह जाएगा ।”

शास्‍त्री का धैर्य जवाब दे गया, ”डाक्‍साब, आप विज्ञान का इतना नाम लेते हैं, विज्ञान में जो प्रयोग विफल हो जाते हैं उन्‍हें दुबारा दुहराया जाता है। गांधी जी जैसा आदमी जिस प्रयत्‍न में विफल हो गया, उसी को आप जारी रखना चाहते हैं?”

मैंने उत्‍तर में कुछ कहना चाहा कि शास्‍त्री जी ने राेक दिया, ”एक बात और, यदिप्रेम एक आवेग है तो घृणा भी एक आवेग ही तो है। प्रेम के पीछे पागल होने वाले घृणा से विक्षुब्‍ध होने वालों को गलत कैसे कह सकते हैं ? आप गांधी जी के मुस्लिम प्रेम को भी विक्षिप्‍तता क्‍यों नहीं कहते ?”

”शास्‍त्री की बात में दम है भाई।” मित्र के मुँह से भी शास्‍त्री जी का समर्थन आज कल कुछ अधिक ही देखने में आने लगा है।
”और तुम तो स्‍वयं कभी अपनी अक्‍ल से काम नहीं लेते यार। जो पसन्‍द आ गया उसके अवगुण भी तुम्‍हें गुण दिखाई देने लगते हैं।”

मेरे सामने दो विरोधी थे, ”शास्‍त्री जी, जिसमें आदमी पागल होता है उसे प्रेम नहीं आसक्ति कहते हैं, लव नहीं, इनफैचुएशन। आवेग मात्र बुरे नहीं होते, प्रेम को उन शत्रुओं में नहीं गिना गया है जिन पर विजय पा कर मनुष्‍य पशु से आदमी बनता है। रही बात विज्ञान की, विज्ञान में प्रयोग के विफल होने के बाद प्रयत्‍न नहीं छोड़ दिया जाता। बार बार विफल होने के बाद भी अपनी पद्धति में परिष्‍कार करके, पुरानी गलतियों से बचते हुए प्रयत्‍न जारी रहता है। जब तक समस्‍या है, उसका समाधान नहीं मिलता तब तक प्रयत्‍न जारी रहेगा अन्‍यथा समस्‍या हमारी निष्क्रियता के कारण अधिक उग्र होती चली जाएगी। सच्‍चे प्रेम में समझदारी होती है, सन्‍तुलन होता है, उसका चरित्र व्‍यक्तियों और संबंधों के अनुसार बदलता रहता है, वह अन्‍धा नहीं होता। इतनी विफलताओं के बाद भी, गांधी जी की विफलता के बाद भी यदि मैं सोचता हूँ कि निराश होने से काम नहीं चलेगा तो कारण तीन हैं:

पहला, हमने इस समस्‍या को सही सन्‍दर्भ में रखा ही नहीं। समस्‍या के समाधान के लिए पहली जरूरत है उसके चरित्र को समझना। हमारी जो भी शिकायतें हैं उनके कारण को समझना। हम बहुत पहले की अपनी ही बात तो दुहरायें तो मनुष्‍य में गर्हित से देवोपम आचरण की अनन्‍त संभावनाऍं हैं और वह परिस्थितियों के दबाव में इनमें से कुछ भी हो सकता है। व्‍यक्ति ही नहीं पूरा का पूरा समाज। यदि उसका वैसा बना रहना हमारे लिए समस्‍या पैदा करता है तो हमे उसे उससे बाहर लाने या दूरी बना कर रहने का प्रयत्‍न करना होगा। मिटाने का तरीका आप अपना नहीं सकते। यह आपका तरीका भी नहीं है। आप के अनुसार यह उनका तरीका है और इसलिए ही आप उनसे घृणा करते हैं, परन्‍तु यह नहीं समझ पाते कि आपकी घृणा उनकी व्‍याधि को बढ़ा तो सकता है, घटा नहीं सकता। जहॉं साथ रहना एक विवशता हो वहॉं प्रेम नहीं, समझदारी की जरूरत होती है, जैसा आप यात्रा में करते हैं, एक ही प्रकार के संकट में घिर जाने पर करते हैं।

”विज्ञान की दुहाई देने वाला और कुछ न सीखने वाला मूर्ख तो हमारे पास बैठा हुआ है जो आज जब सूचना का तन्‍त्र इतना प्रबल है कि उसके सामने पड़ने पर तोपों का रुख मुड़ जाता है विचार की स्‍वतन्‍त्रता की लड़ाई में भी शामिल हो जाता है और किसी को असहमति का मौका भी नहीं देता। असहमत होने वालों पर गुर्राने लगता है। और इसके छोटे भाई आज भी नहीं समझ पाते कि यदि आपका ध्‍येय स्‍पष्‍ट और योजना व्‍याव‍हारिक हो तो सूचना तन्‍त्र से परिवर्तन लाया जा सकता है। वे आज भी गोली चला कर दुनियाा बदलने का काम कर रहे हैं और जहां तक उनकी पहुंच है वहां तक की जिन्‍दगी को नरक बना चुके हैं और नरक बनाए रखना चाहते हैं।

”हमें गुर्राना छोड़ कर समझने और समझाने का तरीका अपनाना होगा जिसका यह सोच कर कि मुसलमानों की भावनाऍं विचारों से आहत हो जाती हैं, कभी प्रयत्‍न किया ही नहीं गया। प्रयत्‍न केवल अपने को सही और दूसरे को गलत, अपने को ऊँचा और दूसरे को गया बीता सिद्ध करने का किया जाता रहा जिससे दूरियॉं बढ़ती हैं, समस्‍यायें जटिल होती है, खुले रास्‍ते भी बन्‍द होते हैं। हमें अपने एकान्‍तवादी सोच के दायरे से बाहर आने की चुनौती का सामना करना होगा।”

Post – 2016-09-06

निदान – 42
गांधी का नाम आए तो खुद को संभालिए
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”शास्‍त्री जी आपने कल इतनी विचित्र बातें कीं, कि लगा आप जल्‍दबाजी में कोई लेख पढ़ कर आए हैं जिसे अच्‍छी तरह समझ भी नहीं पाए हैं। एक का दूजे से मेल न था।”
शास्‍त्री जी ने कुछ कहा नहीं, केवल उत्‍सुकता से मेरी ओर देखने लगे।
”आपने कहा, ‘धार्मिक व्‍यक्ति को राजनीति नहीं करनी चाहिए। धर्म के क्षेत्र में काम करना चाहिए। राजनीति अपने चरित्र से ही धर्मनिरपेक्ष होने को बाध्‍य है अन्‍यथा देश का प्रशासन चल ही नहीं सकता।’ यह आपका वाक्‍य नहीं हो सकता। दूसरे आपने धर्म को सांप्रदायिकता समझ लिया, जिससे अापकी समझ पर मेरा भरोसा कुछ कम हुआ। शायद गोडसे को विक्षिप्‍त कहे जाने से आप इतने उद्विग्‍न हो गए थे कि जहाँ तहॉं के विचारों को ईंट पत्‍थर की तरह फेंक रहे थे, न कि न्‍याय विचार कर रहे थे।”
शास्‍त्री जी कुछ अव्‍यवस्थित लगे और सोच-विचार में पड़ गए।
”गांधी जी धार्मिक थे, इसमें सन्‍देह नहीं। ईश्‍वर में और ईश्‍वरीय प्रेरणा में उनका गहन विश्‍वास था। न होता तो वह अहंकारी हो जाते। अपने निर्णयों के पीछे किसी अदृश्‍य शक्ति की प्रेरणा और विश्‍वास ही उन्‍हें अडिग और नम्र बनाए रखती थी। उन्‍होंने अपने जीवन को ही प्रयोगशाला बना दिया था। प्रयोग करने वाले गलतियॉं करते हैं, उन्‍होंने भी कई गलतियां कीं जिन्‍हें उन्‍होंने छिपाया नहीं, परा सबसे बड़ी गलती की अली बन्‍धुओं को धार्मिक मान कर । वे धार्मिक नहीं थे, वे उस अमीर वर्ग के वर्चस्‍व की राजनीति के लिए अपने सम्‍प्रदाय की भावनाओं का इस्‍तेमाल कर रहे थे। वे कुरान के पाबन्द रहे हो सकते हैं। धर्मग्रन्‍थों का अपने वर्चस्‍व के लिए इस्‍तेमाल करने वाले धार्मिक नहीं होते, वे सही अर्थ में सेक्‍युलर होते हैं और इसीलिए मन्दिरों, मठों, गिरजो, मकतबों के लोग, मुल्‍ला और मौलवी लोग विरल मामलों में ही धर्मनिष्‍ठा वाले लोग होते हैं। वे अपनी सत्‍ता और संपत्ति की राजनीति करते हैं। अली बन्‍धुओं को धार्मिक मानना गांधी जी की बहुत बड़ी चूक थी। इसी तरह खिलाफत का आन्‍दोलन पान इस्‍लामी राजनीति का आन्‍दोलन था, धार्मिक आन्‍दोलन नहीं। यदि आप कहते राष्‍ट्रीय मुक्ति का नेतृत्‍व करने वाले को सांप्रदायिक राजनीति का साथ नहीं देना चाहिए; इसके परिणाम अनिष्‍ठकर होने को बाध्‍य हैं, तो बात अधिक सही होती।
”गांधी ने अपने राजनीतिक जीवन के आरंभ में ही अपने अहं पर विजय पा ली थी। उनके लिए हार और जीत दोनो फालतू के शब्‍द हैं। सिद्धि और सिद्धि में बाधक का कुछ अर्थ हो सकता था। इस सिद्धि में अपने लिए कुछ नहीं था, अपना जैसा कुछ नहीं था। वह हार नहीं सकते थे, हारे वे जो जीतना और पाना चाहते थे और अपनी जीत के क्षणों में ही हारे ।
”गांधी तब हारते जब इतनी उपेक्षाओं और दुर्घटनाओं के बाद भी ईश्‍वर में उनका विश्‍वास डिग जाता। या उनका यह निर्णय गलत सिद्ध होता कि धर्मनिरपेक्ष और नास्तिक व्‍यक्ति सत्‍ता के लिए कुछ भी कर सकता है, इसलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। जिन्‍ना इसी सोच के थे और यही उन्‍होंने सिद्ध किया। नेहरू इस माने में उनसे अलग न थे। पटेल भी न रहे हों तो आश्‍चर्य नहीं। इन्‍हें विफल नहीं होना पड़ा पर हारे ये सभी अपनी विजय के क्षण में ही। गांधी विफल हुए और अपने अपरिपक्‍व सहयोगियों के कारण कई बार हुए, परन्‍तु मनुष्‍य के चित्‍त को बदला जा सकता है, इसके लिए प्रयत्‍न जारी रखना होगा, यदि उनका यह विश्‍वास डिग जाता, ईश्‍वर में उनका विश्‍वास डिग जाता तो अवश्‍य यह उनकी हार थी। मुसलमानो को, उन मुसलमानों को भी, जो हिंसा में लिप्‍त थे, शैतान मान लेते तो उनकी हार हो सकती थी। वे जहां विफल हैं वहॉं भी अपराजित हैं।
”आप ने कहा, उन्‍होंने तिलक के साथ विश्‍वासघात किया । जिन्‍ना जो उनके सचिव थे, जिन्‍होंने गांधी का दक्षिण अफ्रीका से आने पर भव्‍य स्‍वागत किया था, जो विचारों में सेक्‍युलर थे, उन्‍हें मुसलमानों का प्रतिनिधि न मान कर अली ब्रदर्स काे उनका प्रतिनिधि कैसे मान लिया । मेरे एक दूसरे मित्र, कमलेश जी, भी जाे गए साल हमारा साथ छोड़ गए, बहुत आवेश में यह कहा करते और गांधी को कुटिल बताया करते थे। गांधी का स्‍वागत गांधी के लिए माने नहीं रखता था। गांधी व्‍यक्ति नहीं ध्‍येय थे। तिलक का सचिव बनने के बल पर एक ऐसा मुसलमान जो इस्‍लाम का पाबन्‍द नहीं है, नाम का, दुर्घटनावश मुसलमान था, उसकी मुस्लिम समाज में पैठ नहीं थी। उसकी योजना में यह रहा हो सकता है और ऐसी दूर की योजनाऍं बनाने वाले क्‍या कर सकते हैं इसकी समझ गांधी को थी। अली बन्‍धुओं को महत्‍व देना बिल्‍कुल गलत नहीं था, खिलाफत आन्‍दोलन को कांगेस का आन्‍दोलन बना देना सरासर गलत था और इसी के लिए गांधी ने हिमालयन ब्‍लंडर शब्‍द गढ़ा था। यह उनका ही आत्‍मस्‍वीकार था। प्रसंग चाहे जो हो ।
”और जो तिलक के साथ विश्‍वासघात का प्रश्‍न है, या उनके उद्देश्‍य को आगे बढ़ाने का प्रश्‍न है, उनका उद्देश्‍य जिन्‍ना को मुसलमानों का प्रतिनिधि बनाना था या पूर्ण स्‍वराज्‍य ? उस दिशा में क्‍या गांधी ने कोई ढील दी ? नहीं, गांधी इतने सरल हैं कि उनको समझना उन लोगों को मुश्किल पड़ता है जो यह नहीं जानते कि नन्‍हा सा बच्‍चा कैसे समझ लेता है कि यह आदमी मुझे प्‍यार नहीं करता और उसके हाथ बढ़ाने पर भी वह उससे बचने का प्रयत्‍न करता है, जब कि दूसरे अपरिचित की गोद में हँसते हुए चला जाता है। गांधी किताबों को उलट पलट लेते थे, परन्‍तु उनके ज्ञान भंडार से बहुत कम काम लेते थे। जो भारत के प्राचीन ज्ञान का पारंगत है वह गॉंधी को नहीं समझ सकता । वह भारत नहीं हैं, न प्राचीन हैं। जो पश्चिम के ज्ञान का गधा है वह अपनी लादी तक नहीं सँभाल सकता क्‍योंकि भारतीय यथार्थ उसे इधर उधर फेंकता रहेगा, वह गांधी को समझ ही नहीं सकता और अपने को आधुनिक तो कह सकता है, आधुनिक बन नहीं सकता। अपने समय में ही नहीं, आज तक के आधुनिकतम व्‍यक्ति गॉंधी है और मानवता का भविष्‍य भीगांधीवाद है । जो सभी ज्ञानों अज्ञानों को आदर देते हुए भी अपने प्रयोग में उन्‍हें किनारे रख कर व्‍यर्थ कर देता और मानवता का मंत्र देता है वह गांधी है। मानवीय होना यदि गांधीवाद का पर्याय बन जाय तो गांधीवाद से मानवता कैसे बच सकती है। गांधी हमारा वर्तमान न बन पाया परन्‍तु विश्‍व का भविष्‍य गांधी है।
”अाप कह रहे थे जिन्‍ना सेक्‍युलर थे। आज कल अपने को सेक्‍युलर कहने वालों का सरकस गोष्‍ठी-दर- गाेष्‍ठी, अखबार-दर-अखबार, चैनल-दर-चैनल मिल जाएगा, पर क्‍या हम जानते हैं सेक्‍युलर हो कौन सकता है, सेक्‍युलरिज्‍म का अर्थ क्‍या है? सेक्‍यलरिज्‍म का अर्थ है राज्‍य अपनी सीमा में प्रचलित मतों, धर्मो और संप्रदायों के प्रति न आसक्ति रखेगा, न किसी का दमन करेगा, न किसी का पक्ष लेगा। व्‍यक्ति का धार्मिक होना, न होना, आस्तिक होना, न होना राज्‍य के लिए कोई अर्थ नहीं रखता, न ही इस आधार पर कोई भेदभाव किया जा सकता है। इसका विधान हमारे संविधान में थाफ
”अाप स्‍वयं देखिए, ये इतने गधे हैं, मेरा मतलब अपने को सेक्‍युलर कहने वालों से है। और यदि आपको लगता है कि मैं उन्‍हें गधा कह कर उनका अपमान कर रहा हूँ तो इस बात पर ध्‍यान दीजिए कि मैं उनके अपमान काे सह्य बना रहा हूँ, क्‍योंकि यदि गधा न कहता तो उनको कमीना कहना पड़ता जो उन्‍हें सचमुच बुरा लगता क्‍योंकि यही उनकी सचाई बयान करता है। सोचो, य‍दि सेक्युलर राज्‍य हो सकता है तो क्‍या अपने को सेक्‍युलर कहने वाला प्रत्‍येक व्‍यक्ति अपने गधेपन या कमीनेपन के कारण अपने को सत्‍ता नहीं मानने लगा है और उसके बात, व्‍यवहार, और लेखन से यह नहीं लग रहा है कि राज्‍य उसके निर्णय के अनुसार नहीं चल रहा है इसलिए वह कम्‍युनल है।
”और सोचिए इस सेक्‍युलर राज्‍य का जिसमें हज के लिए राज्‍य प्रोत्‍साहित करता है, इफ्तार पार्टियों की स्‍पर्धा खड़ी हो जाती है, जाली टोपी लगाने की होड़ लग जाती है, जब कि मुसलमान भी जानते हैं कि ये नाटक करने वाले कमीने लोग हैं और हमें आदमी से वोटबैंक बनाने काे सेक्‍युलरिज्‍म कह कर अपने को भी ठगते हैं और अपने देश और समाज को भी। ठगों को देश बना कर हम किसका भला करेंगे और कैसा भारत बनाएंगे । नहीं, गलत कह गया मैं, कहना था ‘ठगों को देश सौंप कर हमने किसका भला किया और कैसा भारत बनाया ?’ जिसमें समझदारी का दावा करने वाले बौद्धिक कारोबारी ही नहीं, गिरे हुए कारोबारी बन गए हैं और वे ही देश को दिशा दिखाना चाहते हैं।”
इतनी खिंचाई के बाद तो भींगी रस्‍सी भी सॉप की तरह तन जाती है, गो रहती रस्‍सी ही है। शास्‍त्री भी तन गए , ”क्षमा करें डाक्‍साब। आप हमारे सामने बोलते हैं तो विश्‍वविजेता की तरह बोलते हैं, और हम उसे सह भी लेते हैं, परन्‍तु आपको पता है आप हिन्‍दी संसार नहीं हैं, न हो सकते हैं। वह संसार आपको क्‍या समझता है, इसे आप जानते हैं, न जानते हों तो मैं बता दूँ।”
”य‍दि आत्‍मविक्रयी बुद्धिजीवियों को हिन्‍दी संसार मानते हैं तो मुझे आप पर तरह आता है, और तरस नहीं भी आता है जब सोचता हूँ आप ठहरे संस्‍कृत के आचार्य जो न अपने प्राचीन को जानते हैं न नवीन को, जानते केवल यह है कि कोई कथन व्‍याकरण की दृष्टि से शुद्ध है या अशुद्ध । यदि शुद्ध है तो सही है, नहीं है तो गलत है। खैर आप संचार माध्‍यमों पर अधिकार जमाए लोगों को हिन्‍दी संसार मानते हैं तो उसमें जो कुछ लिखा जा रहा है, जो बहसें चल रही हैं, उनका एक एक शब्‍द और उसकी पृष्‍ठभूमि जानने के कारण मैं उन्‍हेंं मैं कूड़ा समझता हूँ और जो मैं कहता या लिखता हूँ उसको समझने की योग्‍यता उनमें हैं नहीं, न इसका उन्‍होंने प्रयत्‍न किया, इसलिए वे मेरे लिखे को कूड़ा मानें तो मुझे लगेगा कि अब भी उनमें इतना आत्‍मसम्‍मान तो बाकी है कि उसे बचाने का तरीका न मालूम होने के बाद भी वे उसे बचाना चाहते हैं।”
”शास्‍त्री जी, आप और अापकी संस्‍था गांधी को नहीं समझ सकती। कांग्रेसी गांधी काे नहीं समझ सकते, कम्‍युनिस्‍ट गांधी को नहीं समझ सकते, जो गांधी के नाम पर चल रहे उद्योगों और प्रतिष्‍ठानों पर विराज रहे हैं वे गांधी को नहीं समझ सकते, परन्‍तु अपने इतने हत्‍यारों के बीच मानवता का भविष्‍य तो वही है। आश्‍चर्य मुझे यह है कि आप गोडसे तक को नहीं समझ पाए । वह विक्षिप्‍त था, जिसे वह सही समझता था उसके लिए बिना किसी व्यक्तिगत लाभ के अपने प्राण और मरणोत्‍तर सम्‍मान तक दे सकता था और उन बलिदानियों की कोटि में कुछ आगे आता था जो जान देते हुए यह भरम पाले हुए थे कि ‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का यही नामो निशां होगा’ यह तो उस मरणोत्‍तर यश की भी बलि चढ़ा रहा था। अपना उल्‍लू साधने और सत्‍ता पर अधिकार जमा कर अपना इतिहास लिखवाने वालों की तुलना में वह बहुत महान था पर गांधी का नाम आए तो खुद को संभालिए।’

Post – 2016-09-05

निदान – 41
शासकीय इतिहास का सत्‍य

”आप को किस बात पर आपत्ति थी शास्‍त्री जी”, मैंने स्‍वयं कुरेदा ।

”आपत्ति कहना भी ठीक न होगा, ”पहली बात तो यह कि मुझेे नहीं लगता कि नाथूराम गोडसे को विक्षिप्‍त कहा जा सकता है। उसके बयान को पढि़ए, उसने प्रत्‍येक घटना का बहुत बारीकी से अध्‍यन किया था और उसका दृष्टिकोण आस्‍थावादी न हो कर वस्‍तुपरक था। यह सुविचारित फैसला था।

”दूसरी बात मैं कहना यह चाहता था कि यदि पश्चिमी मतों की प्रेरणा का स्रोत भारत ही था तो उनकी प्रकृति इतनी हिंसावादी क्‍यों हो गई कि उनमें हिंसा धर्म बन जाती है और धर्म हिंसा का कवच।”

”और तीसरी बात मैं यह कहना चाहता था, कि गांधी के प्रति द्वेष भावना रखने वाले दो थे । एक तो हमारे संगठन में भी और हिन्‍दू महासभा में भी गांधी जी के अली भाइयों के हाथ का खिलौना बन जाने के बाद उनसे दूरी बनाने के बाद भी मुसलमानों को खुश करने के लिए जिस तरह उनकी बीन पर सॉंप की तरह नाचते रहे कि वे किसी तरह खुश हो जायँ और उनकी इन समझौतावादी नीतियों के बाद भी, या शायद इससे बिदक कर मुसलमान हिन्‍दुओं पर बहाने तलाश करके और बहाने गढ़ कर कत्‍ल करते रहे उसे देखते हुए लगता कि अपने हिन्‍दू होने का गांधी जी लाख दावा करें, उनकी दृष्टि में हिन्‍दू की पीड़ा पीड़ा थी ही नहीं, इसलिए उनके कारण हिन्‍दुओं को जितना अपमानित होना पड़ा, जितना उत्‍पीड़न सहना पड़ा उसे देखते गांधी के प्रति वितृष्‍णा पैदा होना स्‍वाभाविक था। यह हिन्‍दू संगठनों में ही हो सकता था, क्‍योंकि दूसरे सभी हिन्‍दू की भावनाओं और यातनाओं की कीमत पर अपनी राजनीति कर रहे थे, जब कि हिन्‍दू महासभा और संघ समर्पित भाव से अपने समुदाय की वेदना को अनुभव कर रहे थे। डाक्‍साब, आप कुछ भी कहें, गांधी अतिकर्षित, ओवररेटेड, नेता हैं और उन्‍होंने कांग्रेस, देश का, और समाज का अधिक अहित किया। आप कहते हैं नेहरू ने देश का अधिक अहित किया, मैं कहता हूँ गांधी उस अहित की जड़ हैं।” शास्‍त्री जी आज पूरी तैयारी से आए थे।

मैंने कहा, ”शास्‍त्री जी आप प्रश्‍न कब पूछेंगे ?”

शास्‍त्री जी चकित, ”क्‍या मेरे प्रश्‍न आपको प्रश्‍न जैसे नहीं लगते ?” आज शास्‍त्री जी गोडसे की मुद्रा में आ गए थे। मेरे प्रति जो थोड़ा सा विनम्र भाव था, उस पर मान्‍यता की दृढ़ता हावी हो गई थी।

”प्रश्‍न होता तो जवाब देता । यह तो प्रश्‍नावली थी । और प्रश्‍नावली के अन्‍त में जो केन्‍द्रीय प्रश्‍न था उसका समाधान भी आपने पेश कर दिया था, इसलिए वह प्रश्‍न रह ही न गया था। अब आपको अपनी प्रश्‍नोत्‍तरी में से चुनाव करना है कि आपका पहला प्रश्‍न क्‍या है ?”

शास्‍त्री जी इसके लिए तैयार हो कर तो आए नहीं थे। हताशा में निकला ”डा..क्… स…आ…ब।” यह पूरा उत्‍तर था । निरुत्‍तर होने का । परन्‍तु इसी में से एक ऐसी लौ फूटी कि वह तन कर खड़े हो गए, ”यदि उत्‍तर है तो उत्‍तर से आरंभ करूँ । अनुमति है ?”

मैं खुश था कि अब मुझे उत्‍तर देने के लिए सोचना नहीं पड़ेगा, केवल सुनना पड़ेगा। मैंने हामी भर दी।

”पहली बात यह कि गांधी जी में आत्‍मबल बहुत था। जो ठान लिया उसे करके दिखाना है यह संकल्‍प अनन्‍य था। दक्षिण अफ्रीका में उनको जो सफलता मिली थी वह किसी अन्‍य के लिए दुर्लभ थी। विषम परिस्थितियों में उन्‍होंने अपने चित्‍त को जिस तरह अप्रभावित रखा उसका उदाहरण आधुनिक जीवन में मिलता नहीं और अतीत के बारे में हम इतना कम जानते हैं कि उसका दावा किसी के विषय में नहीं कर सकते। परन्‍तु इससे उनके मन में जो आत्‍मविश्‍वास पैदा हुआ था वह तानाशाही वाला था, यह कि वह दूसरे सभी लोगों के फैसलों के ऊपर अपने फैसले लाद सकते हैं और उससे पीछे हट नहीं सकते। उन्‍हें अपना निर्णय मानने को बाध्‍य कर सकते हैं । क्‍या मैं उनके प्रति अनुदार हो रहा हूँ ?”

”आप ठीक कह रहे हैें।” मैंने समर्थन किया ।

”गांधी जी राजनीतिज्ञ थे । राजनीतिज्ञ जब सत्‍य और न्‍याय काे अपना आयुध बनाता है तो भी उसका रणनीतिक महत्‍व अधिक होता है, तात्विक महत्‍व कम।
इसके अपवाद गांधी जी भी नहीं हो सकते थे और न थे। तिलक ने उन्‍हें कांग्रेस का भार सौंपा था और उन्‍होंने दावा किया था कि वह तिलक की विरासत को आगे बढ़ाएंगे। तिलक के सचिव मुहम्‍मद अली जिन्‍ना थे जिनका दृष्टिकोण राष्‍ट्रवादी था। यह वह व्‍यक्ति था जिसने गांधी के भारत आने पर महासभा का आयोजन किया था और गांधी ने उसे ही मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधि मानने की जगह मुहम्‍मद अली और शौकत अली को मान लिया। स्‍वतन्‍त्रता के धर्मनिरपेक्ष आन्‍दोलन को खिलाफत में साथ दे कर उसको पथभ्रष्‍ट कर दिया। जिस सांप्रदायिक विभाजन की तैयारी ब्रितानी राजविद उन्‍नीसवीं शताब्‍दी से करते आए थे और भारतीय सामाजिक ताने बाने के कारण सफल नहीं हुए थे, उसकी सफलता का रास्‍ता गांधी जी ने अपने अहंकार में खोल दिया और उससे आगे का इतिहास यह रहा कि उसी जिन्‍ना के सामने उन्‍हें वे दंड पेलने पड़े कि एक अवसर पर वह जिसे मक्‍खी की तरह निकाल बाहर कर चुके थे, उसे ही अविभाजित भारत का प्रथम प्रधानमंत्री बनाने को भी तैयार हो गए थे, परन्‍तु इस समय तक उनका उपयोग करने वाले उनका आदेश मानने को तैयार नहीं थे।” शास्‍त्री जी हमारी दत्‍तचित्‍तता से इतने मगन हो गए कि मेरी उपस्थिति को भूल कर मुझसे ही सवाल कर र‍हे थे, ”‍कि मैं झूठ बोल्‍या , कि मैं जहर घोल्‍या?”

जवाब में मुझे उन्‍हीं के सुर में सुर मिला कर कहना पड़ा, ”कोइ ना, भाइ कोइ ना।”

शास्‍त्री जी अपनी लय में थे, ”यदि आप गांधी की जिद से होने वाली राष्‍ट्रीय क्षति को देखें तो नेहरू से हाेने वाली क्षति नगण्‍य थी। वह धार्मिक थे, धर्म के क्षेत्र में क्रान्तिकारी थे, परन्‍तु उन्‍हें यह क्रान्ति धर्म के क्षेत्र में करनी चाहिए थी। राजनीति अपने चरित्र से ही धर्मनिरपेक्ष होने को बाध्‍य है अन्‍यथा देश का प्रशासन चल ही नहीं सकता। मुस्लिम समाज को अपना बनाने के प्रयत्‍न में उन्‍होंने अंग्रेजो को इसके बाद खुल कर मुस्लिम कार्ड खेलने और स्‍वतंत्रता आंदोलन से उनको अलग रखने के हथकंडे आजमाने का अवसर दे दिया। बाद की समस्‍त त्रासदियों के लिए मैं गांधी को ही जिम्‍मेदार मानता हूँ वह शब्‍दों से कुछ भी कहें। वह सत्‍यनिष्‍ठ होते तो सबसे पहले वह यह घोषित करते कि मैंने तिलक की गद्दी ली है परन्‍तु उसकी न‍ीतियों से प्रस्‍थान कर रहा हूँ । यह उन्‍होंने नहीं कहा। सत्‍य उनका रणनीतिक हथियार था, जिसका अवसर देख कर वह प्रयोग करते थे और जो सबसे निर्णायक बिन्‍दु थे, उन पर वह मौन साध लेते थे।”

”मतलब आप गोडसे को अपना नायक, अपनी विचारधारा का उन्‍नायक मानते हैं और यह स्‍वीकार करते हैं कि आप का नेतृत्‍व इसे मानता है पर स्‍वीकार करने का साहस नहीं कर पाता ?”

शास्‍त्री जी उठ खड़ हुए, ”डाक्‍साब, आप स्‍वयं कहते हैं, सभी प्रश्‍नों का उत्‍तर हॉं या नहीं में नहीं होता। कुछ के साथ कुछ उपवाक्‍य भी जुडते हैं। इसलिए यदि आप उपवाक्‍यों को समझ सकें तो मुझे न हॉं कहना होगा, न ना।”

आज पहली बार चलते हुए मेरे पांवों का स्‍पर्श किया। पता नहीं चला, श्रद्धा में या व्‍यंग्‍य में ।

Post – 2016-09-05

निदान – 41

”आप को किस बात पर आपत्ति थी शास्‍त्री जी”, मैंने स्‍वयं कुरेदा ।

”आपत्ति कहना भी ठीक न होगा, ”पहली बात तो यह कि मुझेे नहीं लगता कि नाथूराम गोडसे को विक्षिप्‍त कहा जा सकता है। उसके बयान को पढि़ए, उसने प्रत्‍येक घटना का बहुत बारीकी से अध्‍यन किया था और उसका दृष्टिकोण आस्‍थावादी न हो कर वस्‍तुपरक था। यह सुविचारित फैसला था।

”दूसरी बात मैं कहना यह चाहता था कि यदि पश्चिमी मतों की प्रेरणा का स्रोत भारत ही था तो उनकी प्रकृति इतनी हिंसावादी क्‍यों हो गई कि उनमें हिंसा धर्म बन जाती है और धर्म हिंसा का कवच।”

”और तीसरी बात मैं यह कहना चाहता था, कि गांधी के प्रति द्वेष भावना रखने वाले दो थे । एक तो हमारे संगठन में भी और हिन्‍दू महासभा में भी गांधी जी के अली भाइयों के हाथ का खिलौना बन जाने के बाद उनसे दूरी बनाने के बाद भी मुसलमानों को खुश करने के लिए जिस तरह उनकी बीन पर सॉंप की तरह नाचते रहे कि वे किसी तरह खुश हो जायँ और उनकी इन समझौतावादी नीतियों के बाद भी, या शायद इससे बिदक कर मुसलमान हिन्‍दुओं पर बहाने तलाश करके और बहाने गढ़ कर कत्‍ल करते रहे उसे देखते हुए लगता कि अपने हिन्‍दू होने का गांधी जी लाख दावा करें, उनकी दृष्टि में हिन्‍दू की पीड़ा पीड़ा थी ही नहीं, इसलिए उनके कारण हिन्‍दुओं को जितना अपमानित होना पड़ा, जितना उत्‍पीड़न सहना पड़ा उसे देखते गांधी के प्रति वितृष्‍णा पैदा होना स्‍वाभाविक था। यह हिन्‍दू संगठनों में ही हो सकता था, क्‍योंकि दूसरे सभी हिन्‍दू की भावनाओं और यातनाओं की कीमत पर अपनी राजनीति कर रहे थे, जब कि हिन्‍दू महासभा और संघ समर्पित भाव से अपने समुदाय की वेदना को अनुभव कर रहे थे। डाक्‍साब, आप कुछ भी कहें, गांधी अतिकर्षित नेता हैं और उन्‍होंने कांग्रेस, देश का, और समाज का अधिक अहित किया। आप कहते हैं नेहरू ने देश का अधिक अहित किया, मैं कहता हूँ गांधी उस अहित की जड़ हैं।” शास्‍त्री जी आज पूरी तैयारी से आए थे।

मैंने कहा, ”शास्‍त्री जी आप प्रश्‍न कब पूछेंगे ?”

शास्‍त्री जी चकित, ”क्‍या मेरे प्रश्‍न आपको प्रश्‍न जैसे नहीं लगते ?” आज शास्‍त्री जी गोडसे की मुद्रा में आ गए थे। मेरे प्रति जो थोड़ा सा विनम्र भाव था, उस पर मान्‍यता की दृढ़ता हावी हो गई थी।

”प्रश्‍न होता तो जवाब देता । यह तो प्रश्‍नावली थी । और प्रश्‍नावली के अन्‍त में जो केन्‍द्रीय प्रश्‍न था उसका समाधान भी आपने पेश कर दिया था, इसलिए वह प्रश्‍न रह ही न गया था। अब आपको अपनी प्रश्‍नोत्‍तरी में से चुनाव करना है कि आपका पहला प्रश्‍न क्‍या है ?”

शास्‍त्री जी इसके लिए तैयार हो कर तो आए नहीं थे। हताशा में निकला ”डा..क्… स…आ…ब।” यह पूरा उत्‍तर था । निरुत्‍तर होने का । परन्‍तु इसी में से एक ऐसी लौ फूटी कि वह तन कर खड़े हो गए, ”यदि उत्‍तर है तो उत्‍तर से आरंभ करूँ । अनुमति है ?”

मैं खुश था कि अब मुझे उत्‍तर देने के लिए सोचना नहीं पड़ेगा, केवल सुनना पड़ेगा। मैंने हामी भर दी।

”पहली बात यह कि गांधी जी में आत्‍मबल बहुत था। जो ठान लिया उसे करके दिखाना है यह संकल्‍प अनन्‍य था। दक्षिण अफ्रीका में उनको जो सफलता मिली थी वह किसी अन्‍य के लिए दुर्लभ थी। विषम परिस्थितियों में उन्‍होंने अपने चित्‍त को जिस तरह अप्रभावित रखा उसका उदाहरण आधुनिक जीवन में मिलता नहीं और अतीत के बारे में हम इतना कम जानते हैं कि उसका दावा किसी के विषय में नहीं कर सकते। परन्‍तु इससे उनके मन में जो आत्‍मविश्‍वास पैदा हुआ था वह तानाशाही वाला था, यह कि वह दूसरे सभी लोगों के फैसलों के ऊपर अपने फैसले लाद सकते हैं और उससे पीछे हट नहीं सकते। उन्‍हें अपना निर्णय मानने को बाध्‍य कर सकते हैं । क्‍या मैं उनके प्रति अनुदार हो रहा हूँ ?”

”मैंने कहा, आप ठीक कह रहे हैें।” मैंने समर्थन किया ।

”गांधी जी राजनीतिज्ञ थे । राजनीतिज्ञ जब सत्‍य और न्‍याय काे अपना आयुध बनाता है तो भी उसका रणनीतिक महत्‍व अधिक होता है, तात्विक महत्‍व कम।
इसके अपवाद गांधी जी भी नहीं हो सकते थे और न थे। तिलक ने उन्‍हें कांग्रेस का भार सौंपा था और उन्‍होंने दावा किया था कि वह तिलक की विरासत को आगे बढ़ाएंगे। तिलक के सचिव जैसे मुहम्‍मद अली जिन्‍ना थे जिनका दृष्टिकोण राष्‍ट्रवादी था, यह वह व्‍यक्ति था जिसने गांधी के भारत आने पर महासभा का आयोजन किया था और गांधी ने उसे ही मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधि मानने की जगह मुहम्‍मद अली और शौकत अली को मान लिया, स्‍वतन्‍त्रता के धर्मनिरपेक्ष आन्‍दोलन को खिलाफत में साथ दे कर उसको इतना पथभ्रष्‍ट कर दिया। जिस सांप्रदायिक विभाजन की तैयारी ब्रितानी राजविद उन्‍नीसवीं शताब्‍दी से करते आए थे और भारतीय सामाजिक ताने बाने के कारण सफल नहीं हुए थे, उसकी सफलता का रास्‍ता गांधी जी ने अपने अहंकार में खोल दिया और उससे आगे का इतिहास यह रहा कि उसी जिन्‍ना के सामने उन्‍हें वे दंड पेलने पड़े कि एक अवसर पर वह जिसे मक्‍खी की तरह निकाल बाहर कर चुके थे, उसे ही अविभाजित भारत का प्रथम प्रधानमंत्री बनाने को भी तैयार हो गए थे, परन्‍तु इस समय तक उनका उपयोग करने वाले उनका आदेश मानने को तैयार नहीं थे।”
शास्‍त्री जी हमारी दत्‍तचित्‍तता से इतने मगन हो गए कि मेरी उपस्थिति को भूल कर मुझसे ही सवाल कर र‍हे थे, ”‍
कि मैं झूठ बोल्‍या ?”

जवाब में मुझे उन्‍हीं के सुर में सुर मिला कर कहना पड़ा, ”कोइ ना, भाइ कोइ ना।”

आज विज्ञान की प्रेरणा का स्रोत पश्चिम बना हुआ है। बहुत सी बातें हमने उससे ली हैं। उस ज्ञान का उपयोग काफी दूर तक हमारी समस्‍याओं का समाधान करने के लिए किया जाता है और कुछ मामलों में हम उनसे भी आगे बढ़ जाने का या उनसे अलग कुछ नया करने का दावा भी करते हैं। परन्‍तु इस ज्ञान का उससे भी अधिक उपयोग मिलावट, हिंसा, व्‍यभिचार, अपदोहन, घटिया उत्‍पादन आदि में किया जा रहा है। इसके उदाहरण उन अग्रणी देशों में न मिलेंगे क्‍योंकि इस बीच उन्‍होंने सभी दृष्टियों से उन्‍नति की है और केवल ज्ञान के क्षेत्र में ही नहीं, मानवमूल्‍यों के स्‍तर पर वे बहुत आगे जा चुके हैं। अर्थव्‍यवस्‍था से नैतिकता का कितना गहरा संबन्‍ध है इसे समझने में शायद आपको इससे मदद मिले। ज्ञान और अनुसंधान के साथ भी अर्थव्‍यवस्‍था का बहुत गहरा संबन्‍ध है। हम एक राष्‍ट के रूप में अतीत में भी उतने सुसंस्‍कृत कभी नहीं रहे जितना आज पश्चिमी जगह हो चुका है ।”

मेरा मित्र इस बीच कुछ कहने के लिए दो बार होठों को जुंबिश दे चुका था, जिसकी ओर मेरा ध्‍यान गया तो था पर अपनी बात कहता गया था। अब उसकी ओर मुड़ा तो उसने हँसते हुए मेरे कन्‍धे पर थाप दी और बोला, ”तुम कुछ नहीं जानते। बहुत भोले हो। भोले भी और बदहवास भी । कभी कहोगे आज के समस्‍त अपराधों और खुराफातों की जड़ पश्चिम है और आज कह रहे हो कि…”

”देखो मैं समाज की बात कर रहा हूँ तुम व्‍यवस्‍था की बात कर रहे हो। वहाँ के पूँजीवादी तन्‍त्र का और पोपवादी तन्‍त्र का जिनका चेहरा इतना पैशाचिक है जितना इतिहास में पहले कोई हुआ नहीं। परन्‍तु विचित्र यह है कि साम्‍यवादी प्रसार के खतरे के कारण उसी व्‍यवरूथा ने अपने समाज केे विक्षोभ को कम करने के लिए जो रियायतें दीं उनके कारण वहा का पूरा समाज एक राष्‍ट्र बन चुका है, पश्चिमी अर्थ में नहीं और हमारे अति प्राचीन अर्थ में भी नहीं, एक सुगठित और व्‍यवस्थित समाज केे रूप में जिसकी परिकल्‍पना ले कर हमने अपने दलों के साथ राष्‍ट्र का प्रयोग किया था। इससे पहले उसका संभ्रान्‍त वर्ग जिसने लूट में साझेदारी की थी या जिसे औपनिवेशिक प्रसार से अवसर मिले थे, वह भी हमसे बहुत आगे था, परन्‍तु समाज के दबे कुचले जनों की‍ स्थिति उससे भी खराब थी जो हमारे यहॉं उन दौरों में परिगणित समुदायों की थी। उन्‍हें यह लाभ साम्वादी चुनौती के कारण मिला इसलिए नैतिक दृष्टि से उनके समाज का स्‍तर हमसे बहुत ऊॅॅचा है। अपराधी वहॉं भी मिलेंगे, मनोविकृत जन वहॉं भी मिलेंगे, बीमार और अपाहिज वहॉं भी मिलेंगे। उनकी तुलनात्‍मक संख्‍या कम मिलेगी।
उनकी तुलनात्‍मक संख्‍या कम मिलेगी। देखो, मैंने मात्र एक उदाहरण दिया था कि हमारी सोच, नैतिकता, आचरण, बोध सभी पर हमारेे अर्थतन्‍त्र का और उसमें अपनी आर्थिक हैसियत का प्रभाव पड़ता है इसलिए एक सांस्‍कृतिक सन्‍दर्भ से उठाए गए मूल्‍य, आदर्श और विचार दूसरी में उसके स्‍तर और गठन के अनुसार परिष्‍कृत या विकृत हो जाते हैं। हाल की सदियों में पश्चिम ने हमसे जितना ग्रहण किया उतना अपनी पूरी परंपरा से ग्रहण न किया होगा, परन्‍तु उन सभी का उसने ऐसा परिष्‍कार किया और इस तरह आत्‍मसात् कर लिया कि वे उसकी अपनी चीज लगते हैं। हमने कला, सौन्‍दर्यमान, कौशल और ज्ञान और आचार के क्षेत्र में उनसे जो पाया था उसका भी ह्रास या सत्‍यानाश कर दिया। औपनिवेशिक काल की संस्‍थाएंं, विभाग और हमारी अपनी पहल से स्‍थापित उनके प्रतिरूप आज की तुलना में अधिक लोकतान्त्रिक थे । हमने औपनिवेशिक काल के सीमित लोकतन्‍त्र को भी माफियातन्‍त्र में बदल दिया।

”ठीक ऐसा ही हुआ था, भारतीय दार्शनिक और धार्मिक विचारों के साथ । पश्चिम एशिया के उर्वर अर्धचन्‍द्र की महिमा जितनी भी गाई जाए, आहार उत्‍पादन के मामले में वह भारत के सिन्‍धु गंगा मैदान की तुलना में नहीं रखा जा सकता। अरब और मिश्र और सामी क्षेत्र मुख्‍यत: चारणजीवी रहा ह और इसलिए बाइबिल में भी शेफर्ड, हई, लैंब की उपमाऍं ही आती हैं। उनमें हिंसा और आपसी कलह सामान्‍य रहा है। बेबीलोन और मसोपोटामियाई क्षेत्र पर विजय करने वालों ने जिस तरह के नरसंहार किए थे उसकी कल्‍पना से ही रोमांच हो जाता है। एेसा एक बार नहीं हुआ कि पूरे नगर के नगर का कत्‍लेआम कर दिया गया हो और खून नालियों में बह रहा हो। आहार की समस्‍या मनुष्‍य को क्रूर और असहिष्‍णुुु बना देती है और यदि किसी अन्‍य सभ्‍यता से हिंसा, अस्‍तेय आदि काेे श्रेष्‍ठ मूल्‍य के रूप में स्‍वीकार कर ले तो भी उसका निर्वाह नहीं कर पाता । इसलिए किताबी स्‍तर पर समानताऍं अधिक मिलेंगी और आचरण के स्‍तर पर उनके ठीक विपरीत उदाहरण मिलेंगे। इस अन्‍तर को ध्‍यान में रखते हुए निम्‍न पंक्तियों की समानता या निकटता को समझनेे का प्रयत्‍न होना चाहिए।

Post – 2016-09-04

निदान – 40

‘मिट जाऍगे पर अक्‍ल से हम काम न लेंगे।
‘हां, दाम तो लेंगे पर सरेआम न लेंगे।’

”तुम बहुत बहादुर आदमी हो यार। जो किसी से नहीं हुआ, वह तुम अकेले अपने दम पर कर सकते हो ।”

मेरी समझ में उसका फिकरा नहीं आया। बताया तो बोला, ”पहले तुम कहते थे कि विश्‍व सभ्‍यता जन्‍म भारत में हुआ और इसका ही प्रसार पुरानी सभ्‍यताओं के माध्‍यम से उनकी स्‍थानीय मेधा के अनुसार उसमें परिष्‍कार करते हुए पूरे जगत में हुअा तब विश्‍वास नहीं होता था और आज भी वह विश्‍वास करने लायक बात नहीं है। पर मैं तब समझता ही नहीं था कि तुम खुराफात को ही सभ्‍यता की कसौटी मानते हो। जब तुम यह सिद्ध करने जा रहे हो कि दुनिया की सारी खुराफात की जड़ भारत है तो लगा तुम अपनी समझ से ठीक ही कह रहे थे। मैं तो यह प्रस्‍ताव रखता हूँ कि भारत को, अर्थात् भारत के हिन्‍दुओं को आज की सारी खुराफातों की जिम्‍मेदारी अपने ऊपर लेनी चाहिए और …” वह शायद सोच कर नहीं बोल रहा था नही तो इतनी जल्‍द गड़बड़ा नहीं जाता। वाक्‍य उससे पूरा हो ही नहीं रहा था।

मैंने वाक्‍य पूरा किया, ”और यदि वे खुराफात के जनक ही हैं तो आज के दिन पहला काम उन्‍हें यह करना चाहिए कि तुम्‍हारा सिर तोड़ दें।”

वह हँसने लगा, ”इसकी कोशिश में तुम लम्‍बे समय से लगे हो पर यह तुम्‍हारे तोड़े टूटने वाला नहीं।”

”मैं भी जानता था कि पत्‍थर की बनी चीजें विचारों से नहीं टूटती हैं, जिनसे टूटती हैं वह मेरा हथियार नहीं। इसीलिए कह रहा था कि जिन हिन्‍दुओं काे तुम खुराफात की जड़ मानते हो वे तो ऐसा कर ही सकते हैं। परन्‍तु वे करेंगे नहीं, क्‍योंकि तुम उन्‍हें जो समझते हो वह वे हैं नहीं।”

”वे तो उस महात्‍मा की हत्‍या कर सकते हैं, जिनको तुम मानवता का एक आश्‍चर्य मानते हो और जिनके बताए मार्ग को विश्‍व और मानवता की रक्षा का एकमात्र साधन।”

”यदि तुम कहते वे महात्‍मा के जीवित शव को, उसकी गरिमा को पुन:स्‍थापित करते हुए समाधि दे सकते थे और सच्‍चे सपूतों का काम – पितरों को नरक से बाहर निकालने काम – कर सकते थे, और अपनी परंपरा की सीमा में ही थे तो अधिक उचित होता। नेहरू ने अपनी उपेक्षा से गांधी को जीवित शव बना दिया था और गोडसे ने उस शव को पुन: वह गरिमा प्रदान की कि वह एक कालजयी प्रतिष्‍ठा के साथ हमारे नैतिक विवेक पर छा गये। सिवाय कम्‍युनिस्‍टों के जो भारत को सोवियत नजर से देखते थे और विश्‍व के सभी कम्‍युनिस्‍ट भारतीय कम्‍युनिरूटों को प्रमाण मान कर भारत को समझते थे अर्थात् भारत होते हुए भी उन्‍हें दिखाई नहीं देता था, सोवियत संघ जो देखना चाहता था वही भारत बन जाता था। इसलिए गांधी के विषय में उनकी मृत्‍यु के बाद उनके आलोचकों की भी दृष्टि बदली, परन्‍तु कम्‍युनिस्‍टों की नहीं बदली, फिर भी वे गांधी की मृत्‍यु का स्‍यापा मनाते रहे और उनकी नजर में अपने को सही सिद्ध करने की चिन्‍ता में एक दिन के स्‍यापे के बाद नेहरू ने भी वही उपेक्षा भाव अपना लिया। गांधी की मृत्‍यु तो होनी ही थी, गांधीवाद जो भारत को रास आनेवाला एकमात्र दर्शन था उसकी मृत्‍यु अधिक पीड़ा दायी है और भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था की अधोगति का कारण है। इसका गांधीवादी सूत्र था ‘कर बहियां बल आपनी, छोड़ परायी आस।”

मैं कुछ और कहने जा रहा था कि बीच में ही उसने लपक लिया, ”मैं तो इतने लंबे अरसे से जाल बिछा रहा था कि तुमको पकड़ूँ जरूर, जानता तो बहुत पहले से था, पर आज तुम्‍हारे मुँह से उगलवा लिया कि गोडसे तुम्‍हारे लिए महान था। तुम उन लोगों के साथ हो जो आज भी गोडसे की प्रतिमा बनाना चाहते हैं और यदि उन्‍होंने बनाया तो मैं उनसे पत्र लिख कर अनुरोध करूँगा कि उसकी प्रतिमा का अनावरण किसी दूसरे से नहीं तुमसे कराऍं। बातों से गांधी के साथ हो, मन से गोडसे के साथ।”

”मूर्ख तो तुम लोगों को समझता था जिन्‍होंने इतिहास में इतने परिवर्तन हुए परन्‍तु जो अपनी मान्‍यता पर अड़े रहे – न हिले, न डुले, न बढ़े । एक गलती होते होते रह गई। तुक के दबाव में मैं कहने जा रहा था, ‘न घटे’। पर तुम ही सोचो यह कितनी गलत बात हुई होती। तुम तो जड़ हो, तुम बचे रहो यही तुम्‍हारी चिन्‍ता का केन्‍द्र है। तुम्‍हारा तो अघोषित नारा ही है, ‘मिट जाऍगे पर अक्‍ल से हम काम न लेंगे। हां, दाम तो लेंगे पर सरेआम न लेंगे।’ यह छोटा सा फर्क तुम्‍हें कांग्रेस कल्‍चर से बचाए रहा है परन्‍तु वह भी खत्‍म हो रहा है।”

”मैं लफ्फाजी में तुम्‍हारा मुकाबला नहीं कर सकता, परन्‍तु साफ बताओ, तुम गोडसे को अपना हीरो मानते हो या नहीं ।”

एक सन्‍तुलित आदमी किसी विक्षिप्‍त को अपना हीरो कैसे मान सकता है। परन्‍तु वे सभी लोग मुझे अवसरवादी और कमीने लगते हैं, जो उस व्‍यक्ति को जो पर पीड़ा से इतना कातर है, अपने बन्‍धुओं की पीड़ा को इतनी गहराई से अनुभव करता है कि उसके लिए वह अपने प्राण भी देना चाहता है, अपनी कीर्ति की भी आहुति देना चाहता है, पाने को यश तक नहीं, यह त्‍याग समझ की चूक से कम तो नहीं हो जाता। कहो, द्विगुणित हो जाता है। उसने अपना प्राणत्‍याग किया, प्राण रक्षा के लिए दयायाचिका तक नहीं डाली, क्‍योंकि वह जानता था कि उसे इतने महान व्‍यक्ति का वध न करना था, इसलिए वदनामी ली, नरकवास को चुना, अपनी कीर्ति को भी दांव पर लगा दिया, इसलिए कि दूर क्षेत्रों में जिससे महाराष्‍ट्र प्रभावित भी नहीं, उसके अपने बन्‍धु मारे जा रहे, अपमानित हो रहे हैं। वह व्‍यक्ति जो हिन्‍दुओं की पीड़ा अपने भीतर अनुभव करता था और इतनी प्रखरता से अनुभव करता था कि वह विक्षिप्‍तता के कगार पर पहुँच गया था। मैं विक्षिप्‍त न होना चाहूँगा। विषम परिस्थितियों में विवेक खोना न चाहूँगा। शत्रु को शत्रु मान कर उसका बध करने की जगह यह समझना चाहूँगा कि उसमें यह शत्रुभाव पैदा कैसे हुआ । क्‍या उसका निवारण संभव है और जो कुछ संभव लगेगा उसे करने का प्रयत्‍न करूँगा। यही मुझे भगवान बनाता है, गांधीवादी बनाता है जिसका अभाव गोडसे को गोडसे। परन्‍तु यदि दो विकल्‍पों में एक को अपने सम्‍मान का पात्र बनाना हो, नेहरू या गोडसे को, तो मैं गोडसे को नमन करूँगा जिसकी व्‍यक्तिगत आकांक्षा थी ही नहीं, इसलिए उसकी पूर्ति के लिए उसने देश को कोई क्षति नहीं पहुँचाई, जब कि नेहरू का प्रत्‍येक कार्य इसी से परिचालित था।”

वह कुछ कहने की तैयारी कर रहा था कि मैंने कहा, ”यार मैं तो सोच रहा था तुम सही दिशा में, इतिहास को समझने के लिए, सोच विचार कर कोई प्रश्‍न करोगे कि आगे की कुहा छँटे। गो इसमें तुम्‍हारा भी हाथ रहा है। परन्‍तु तुम्‍हारा यह हीनताबोध कम करने के लिए मैं कुछ कर सकता हूँ कि तुम बातों को घुमा कर चीत्‍कार को ललकार बनाने का प्रयत्‍न करते हो और ललकार की ऊँचाई को संभाल न पाने के कारण ही धड़ाम की आवाज किए गिना नीचे गिर जाते हो।”

ऐसे मौके पर शास्‍त्री जी को उसके साथ खड़ा न होना था, पर उनके मुँह से निकला, ”आपत्ति तो मुझे भी है डाक्‍साब ।”

मैं कुृछ तैश में आ गया था। आगे विचार करता भी तो उसका कोई लाभ न होता। मैंने कहा, ”आपकी आपत्तियॉं कल सुनेंगे।” और इस फैसले के साथ मुझे सर्वोच्‍च न्‍यायालय के फरमान जारी करने जैसा आनन्‍द आया ।

Post – 2016-09-04

निदान – 39
सांस्‍कृतिक समुद्रमन्‍थन

मैं जो कहना चाहता था वह आप दोनों के हस्‍तक्षेप के कारण अधूरा रह गया। आज चुपचाप सुनें ।

यह सभ्‍यता जिसे कई बार कई रूपों में बदनाम करने की कोशिश की गई इसका प्रतीक चिन्‍ह है संगम । महासंगम । इस महासंगम का इतिहास आहार संग्रह के उस प्राचीन चरण तक जाता है जब नदी या जलाशय में निकट आहार की प्रचुरता के दिनाें में दूर दूर के लोग आकर कुछ समय के लिए परस्‍पर मिलते, नाचते और क्रीड़ा करते थे । सहवास भी। हो सकता है यह शब्‍द भी उतना ही पुराना हो। बीज रूप में यहीं से आरंभ होती है सहभागिता और एक मुख्‍य धारा की निर्माण प्रक्रिया। स्‍थान ऐसा चुना जाता जो आसानी से पहचान में आ जाए। नदी का मोड़, या जहां से वह पर्वत से धरती पर उतर रही हो, या जहॉं दो या अधिक नदियों का संगम हो। तीर पर स्थित यह स्‍थल तीर्थ था और फिर बाद में ज्ञान को भी मस्तिष्‍क को स्‍वच्‍छ करने के उपक्रम के साथ सतीर्थ, स्‍नात और निष्‍णात और पारंगत आदि का चलन हुआ।

मैं जिस बात पर बल देना चाहता था वह यह कि हमारे उन्‍नत समाज में और सभ्‍यता की निर्माण प्रक्रिया में आरंभ से ही विविध जातियों, स्‍तरों, कौशलों और मान्‍यताओं के लोग सम्मिलित तो होते रहे साथ ही उनकी इस सहभागिता को कभी प्रतिबन्धित नहीं किया गया, इसलिए उन्‍नत चरण पर भी इसमें कई तरह के नये पुराने, परिष्‍कृत और अपरिष्‍कृत आचार, विचार और रीत‍ि -रिवाज चलते रहे जो कुछ समय तक उस समुदाय तक सीमित रहते और उनके प्रति दुराव न होने के कारण वे इस तरह फैल जाते जैसे किसी योजना के अनुसार उनका निर्माण किया गया हो।

हम बहुदेववाद और मूर्तिपूजा और परम सत्‍ता की अवधारणा पर बात कर रहे थे, और यह भी कि हमारे यहॉं इसका जन्‍म राजसत्‍ता के स्‍थापित होने के बाद किसी राजा या महाराजा की नकल पर मानवता पर शासन करने वाले महाप्रभु के रूप में नहीं की गई, अपितु जीवन और जगत के रहस्‍यों को समझने के क्रम में हुए मानसिक ऊहापोह से हुई, विकास के विविध चरणों पर उसके रूप और उसकी शक्ति और कार्यों की अवधारणा बदलती रही, इसलिए यहॉं वह सहचर या पालक की अपनी भूमिका से ही जुड़ा रहा, दंड और पुरस्‍कार देने वाली सत्‍ता और हमसे बहुत दूर हमारी पहुंच से बाहर नहीं।

यदि आदि देव किसी को कहें तो शिव या उस शिलाखंड को ही कह सकते हैं जो नदी के कटाव से खंडित और आपसी रगड़ से सुथरी होती बटिकाओं या शरकर / शर्करा के रूप में नदी की पेंदी में पाई जाती थी और इनकी सुलभता के ऊपर ही आदिम सांस्‍कृतिक क्षेत्र बने । इस दृष्टि से मध्‍यप्रदेश, विशेषत: नर्मदा का प्रवाह क्षेत्र सबसे प्राचीन रहा लगता है। उत्‍तर भारत में यह नदी के उतरने या अवतरण क्षेत्र में सुलभ था जिससे बाद में शिव शंकर का निवास पर्वत की चोटी पर कल्पित किया गया ।

यह शिव शंकर ढोकर ले जाये जाते थे, परस्‍पर टकराकर, तोड़ कर, तराश कर हथियार और औजार बनाए जाने के लिए। पत्‍थर के उन औजारों से आहार की आपूर्ति की जाती थी इसलिए वह शिव और शंकर है, कल्‍याणकारी, भोले हैं और कुछ कुछ नासमझ या बे-गम भी, कोई उनके साथ कुछ भी करे उनको बुरा नहीं लगता। आप उनको तोड़ रहे हैं, हथियार गढ़ रहे हैं, औजार बना रहे हैं, और वह इन स्थितियों में भी बेपरवाह और खुश।

इनसे जानवरों का और मनुष्‍यों का भी वध किया जाता था, जिससे उसी शंकर का रुद्र, रुलाने वाला, रूप बना है, और सर्वप्रथम होने के कारण महेन्‍द्र, महादेव, ज्‍येष्‍ठ और श्रेष्‍ठ । वह पत्‍थर की बटिया का दैवीकरण है ही और यदि दुनिया के उस बावरेपन को समझना है कि वह घर की चकिया को क्‍यों नहीं पूजती जिसका पीसा खाती है ता उसका उत्‍तर यह है कि कबीर उस इतिहास को नहीं जानते थे जिसमें पत्‍थर की असाधारण उपयोगिता के कारण इसकाे अन्‍यत्र इतना संभाल कर रखा जाता था जिसमें पूजाभाव का बीजरूप छिपी है।

खैर वह शिकार के उपकरण या हथियार होने के कारण गोघ्‍न, पूरुषघ्‍न भी है। बाद में सभ्‍य समाज में महामारियों और बीमारियों का भी जनक उनको ही माना गया और उनसे मुक्ति दिलाने वाला या जलाषभेषज भी वही बने। उनसे प्रार्थना की जाती है कि वह अपनी कृपा से दूर ही रखें, हमारी ओर रूख न करें, उनकी पीठ ही हमारी ओर हो। कृषि से पूर्व के चरण के देवता इसलिए असुर। पूजा इनकी पहले इस रूप में की जाती कि इन्‍हें प्राय: जल स्रोत के निकट रखा जाता था। बाद में लोग इसे पानी भी चढ़ाने लगे।

अग्नि के जनक भी यह महादेव ही हैं। वह इनकी तीसरी ऑंख से फूटती है जब पत्‍थर को पत्‍थर से टकराया जाता है तब । इनके तांडव नृत्‍य की कल्‍पना तो जलते हुए वन या बस्‍ती को देख कर ही की जा सकती है। सब कुछ नष्‍ट, लगभग प्रलय।

कृषि के साथ अग्नि जिसका ही एक नाम विष्‍णु था, धरती की का झाड़ झंखाड़ जला कर साफ करता है, सफाई के क्रम में देवत्‍व प्राप्‍त करता है। इसकी फूटती चिनगारी ही इसका वामन रूप है जो प्रज्‍वलित हो जाने पर ईंधन सुलभ है इतनी तेजी से फैलता है कि संभालना मुश्किल। यह आगे चलकर सकल ब्रह्मांड काे भी घेर लेता है और दूर इसके स्‍थान या पद या निवास (विष्‍णो: परमं पदं) की कल्‍पना की जाती है। इस्‍लाम में इसे सातवें आसमान के रूप में कल्पित किया गया। धरती या समस्‍त संसार इसके पावों की धूल जैसी है (समूळ्हं अस्‍य पांसुरे)। अत: स्‍वर्ग की कल्‍पना सूर्यलोक/ज्‍योतिर्लोक के रूप में (यत्र ज्योतिरजस्रं यस्मिन् लोके स्वर्हितम् । … यत्र राजा वैवस्वतो यत्रावरोधनं दिवः, 9.113.7)।

नरक की कल्‍पना अन्‍धकार से भरे लोक के रूप में हुई और साधना में भी ज्‍योति से तम के निवारण की साधना । उपनिषद की भाषा में ‘अन्‍धं तमं प्रविशति य असंभूतिं उपासते ।’

परन्‍तु यह कहना गलत न होगा कि एक ही साथ सभी विषयों पर एकाधिक विचार हर समय प्रचलित रहे हैं। भोग-विलास के लोक के रूप में स्‍वर्ग की कल्‍पना हड़प्‍पाकालीन सुदूर देशों में जिनमें समाज भी मातृप्रधान था, व्‍यापारिक केन्‍द्रों माध्‍यम से आई लगती है। परन्‍तु इसे तब मुख्‍य चिंतनधारा में स्‍थान न मिला था।

हमने केवल मूर्तिपूजा के जन्‍म को और विकास को समझने का प्रयत्‍न किया है कि यह मूर्खता के कारण या कल्‍पनाशक्ति के अभाव के कारण नहीं, उपयोगिता और उपयोगी तत्‍वों के प्रति सम्‍मान और उनकी विविध क्रियाओं या अवस्‍थाओं को शब्‍दों और क्रियाओं द्वारा मूर्त करने का प्रयास रहा है। शाब्दिक अभिव्‍यक्ति कीर्तन या गुणगान का रूप लेती है, कथाओं को जन्‍म देती है और कार्मिक चित्रों, मूर्तियों और उत्‍खचनों का।

यह जानना रोचक होगा कि मूर्तीकरण की प्रक्रिया में प्रकृति की शक्तियों को पशुजगत के गुणों से जोड़ कर उन्‍हें पशु के रूप में कल्पित किया गया। उदाहरण के लिए अग्नि के पार्थिव, मध्‍याकाशीय और आकाशीय रूपों को त्रिमूर्ध तीन सिरों वाले प्राणी के रूप में कल्पित है, जिसका चित्रण हड़प्‍पा की उस मुहर में हुआ है जिसमें पशु की एक काया में तीन ग्रीवाएं हैं, एक ऊपर उठा हुआ, दूसरा सामने और तीसरा नीचे झुका हुआ। इसी तरह सोम को एक तिग्‍मशृंग वृषभ के रूप में और उनका अंकन एकशृंग वृषभ या यूनीकार्न के रूप में। इन्‍द्र स्‍वयं वर्षा कराने वाले, धरती का सेचन करने वाले वृषभ है जिनको बड़ उदग्र रूप में चित्रित किया गया। इनका मानवीकरण भी था, परन्‍तु मानवाकृति में मूर्ति निर्माण एक अलग समस्‍या है।

इसलिए परमेश्‍वर की हमारी कल्‍पना आरोपित या अनुकृत नहीं है। उसका भौतिक आधार है जिसका विकास हुआ है और वह अमूर्तन की ओर बढ़ता हुआ,
एक ही तत्‍व की सर्वत्र विद्यमानता की धारणा को जन्‍म देता है, जैसे ऋग्‍वेद के प्रथम मंडल के 31 वें सूक्‍त में हिरण्‍यस्‍तूप अग्नि को विविध रूपों में देखते हैं और दूसर मंडल के पहले सूक्‍त में जिसमें पहली ही ऋचा में अग्नि के निवास और उत्‍पत्ति का वर्णन है कि वह आकाश से, पानी से, पत्‍थर से, काठ से, ओषधियों से उत्‍पन्‍न हो जाते हैंं और मनुष्‍यों में राजा के रूप में अवतरित होते हैं। राजा के दैवीकरण को भी इससे समझने में मदद मिलेगी। त्‍वमग्‍ने द्युभि: त्‍वं आशुशुक्षणि: त्‍वं अद्भ्‍य: त्‍वं अश्‍मनस्‍परि । त्वं वनेभ्यस्त्वमोषधीभ्यस्त्वं नृणां नृपते जायसे षुचिः ।। 2.1.1

और इसी की परिणमि है विष्‍णु या अग्नि की सर्वत्र उपस्थिति और संकट के समय उनका प्रकट हो जाना, जैसे पत्‍थर में से चिनगारी बन कर, या नृसिंह का अवतार बन कर । ध्‍यान रहे कि ऋग्‍वेद में अग्नि की तुलना घर में निवास करते सिंह से की गई है – रक्षो अग्निमशुषं तूर्वयाणं सिंहो न दमे अपांसि वस्तोः ।। 1.174.3

यहॉे विस्‍तार से बचते हुए मैं कुछ बातों को रेखांकित करना चाहूँगा:
पहला यह कि चिन्‍तन के स्‍तर पर भी एक ही समस्‍या के कई तरह के समाधान अलग अलग दक्षताओं और स्रोतों से आए लोगों द्वारा दिए जाते रहे और वे आगे जारी भी रहे, उनका उन्‍मूलन या निषेध नहीं किया गया। जैसे सृष्टि को ले कर ही ऋग्‍वेद में एक विचार यह कि जैसे लोहार धौकनी से फूूक कर आग दहका कर चीजें बनाता है, उसी तरह धमन प्रक्रिया से विश्‍वप्रपंच रचा गया, सं कर्मार इवाधमत्। दूसरा विखर समस्‍त सृष्टि ब्रह्म से अलग नहीं है, जो कुछ हुआ और जो होगा – यद् भूतं यच्‍च भव्‍यं – सब कुछ ब्रह्म ही है। और उसी में वह नासदीय सूक्‍त है जो चिन्‍तन और काव्‍यनिरूपण की पराकाष्‍ठा है ।

दूसरे कोई समय ऐसा नहीं था जब हमारी सांस्‍कृतिक महाधारा में अ‍ादिम, अविकसित अवस्‍था में अपनी कुरीतियों और विश्‍वासों के साथ जीने वालों में से कुछ का प्रवेश न हो जाता रहा हो । यह क्रम आज तक जारी है। जब कोई इतर समाज, विशेषत: वह जो अपनी हीनता के कारण या अपने को श्रेष्‍ठ सिद्ध करने के लिए हमारी आलोचना करता है तो उसका ध्‍यान इन तत्‍वों पर ही जाता है जो हमारी सांस्‍कृतिक परंपरा के अंग नहीं रहें हैं, परन्‍तु जिनका दृ‍ढ़ता से निषेध नहीं किया गया।

और अन्‍तत: सामीधर्मो में पाई जाने वाली मान्‍यताओं का बीज रूप भारतीय चिन्‍तन में उससे बहुत पहले के समय से पाया जाता है। अब आप लोग इस पर विचार करते हुए आगे यदि कोई जिज्ञासा हो तो प्रश्‍न कर सकते हैं, परन्‍तु अभी नहीं।

Post – 2016-09-03

तुम भी मानोग कि यह शख्‍स बुरा है तो नहीं ।
नाम भगवान है पर उतना बुरा है तो नहीं ।
तुम भी मानोगे कि यह हँसता भी है रोता भी
तुम भी मानोगे कि यह तुमसे जुदा है तो नहीं ।
तुम भी मानोगे इसे जानने वाले कम हैं
तुम भी मानोगे मानते हैं वे कम हैं तो नहीं ।
तुम भी मानोगे कि औरों से अलग दीखता है
तुम भी मानोगे कि अपने से बड़ा है तो नहीं ।
तुम भी मानोगे जो कहते थे अाज सुनते हैं
तुम भी मानोगे ही कि इसका जवाब है तो नहीं ।
मैंने भी माना कि अंधों का जमाना था वह
बन्‍द ऑंखों के लिए कोई कहीं है तो नहीं ।।

Post – 2016-09-02

निदान – 38
खुद को मैं ‘गर आपके ही आईने में देखता.

‘डाक्‍साब, एक छोटा सा हस्‍तक्षेप । कल आप कह रहे थे कि प्रकृति के तत्‍वों का मूर्तन करते रहे तो मुझे एक तो यह लगा कि आप मूर्तिपूजा में विश्‍वास करते हैं और दूसरे यह कि मूर्तिपूजा बहुत प्राचीन काल से प्रचलित रही है, जब कि मैंने जो पढ़ा था वह यह कि मूर्तिपूजा बौद्धों ने आरंभ की । हॉं एक अन्‍य मान्‍यता सुनीति कुमार चाटुर्ज्‍या की थी कि पूजा द्रविड़ों से अपनाई गई और यज्ञविधान आर्यों का था।”

”आज भी हम अपने विषय पर न आ सकें, यदि यही ठान रखा है आपने तो…”

”यह अलग नहीं है। सच कहें तो यह प्राथमिक समस्‍या से जुड़ा प्रश्‍न है ।”

”प्रश्‍न नहीं है शास्‍त्री जी, यह प्रश्‍नावली है और प्रश्‍नों का उत्‍तर बहुत कम मौकों पर ही हॉं या ना में होता है। उनके समाधान के क्रम में भी प्रश्‍न खड़े हो जाते हैं जिनका समाधान किए बिना उस मुख्‍य प्रश्‍न का उत्‍तर नहीं दिया जा सकता। मैं जब तक आगे कुछ पूछने को न कहूँ आप केवल श्रोता बन कर रहें तो अच्‍छा होगा। पहला प्रश्‍न कि मैं मूर्तिपूजक हूँ या नहीं। मैं मूर्ति पूजा की बात नहीं मूर्ति विधान की बात कर रहा था। एक लेखक या विचारक मूर्तिविधान का विरोध कर ही नहीं सकता। वह अमूर्त भावों और विचारों को विविध सादृश्‍यों, दृष्‍टान्‍तो, पहले के विचारों आदि से मूर्त करता है जिससे वे हमें ग्राह्य हो सकें। कथाकार अपने पात्रों को किसी मान्‍यता या भावना का मूर्त प्रतिनिधि बना कर अपनी बात कहता है और कई बार तो उनका अपना नियंत्रण इतना बढ़ जाता है कि वे अपने प्रवाह, तर्क संगति के चलते ऐसी दिशा में बढ़ जाते हैं कि उसकी पहले की सोची हुई कहानी के परखचे उड़ जाते हैं। मूर्तन के बिना सर्जना संभव ही नहीं । इसीलिए मूर्तिपूजा के विरोधियों ने अपनी बदहवासी में विनाश अधिक किया निर्माण कम। निर्माण के लिए उन्‍हें भी मूर्तिविधान की आवश्‍यकता पड़ी ।

”कल्‍पना कीजिए कि आदिम समाज में पितरों का निवास, अर्थात् उनकी आत्‍मा का निवास पड़ोस के वृक्ष पर माना जाता था। कुछ पेड़ों का इसलिए पवित्र भी माना जाता था। अपने यहॉं गॉंव के बाहर पीपल के पेड़ पर उनका तब तक निवास माना जाता था जब तक महापात्रों के माध्‍यम से उनके सुख भोग का सामान स्‍वर्ग तक पहुँचा नहीं दिया जाता। दूसरे उनकी कब्र को उनका निवास मान लेते हैं और उस पर दिया बाती कर के या फूल चढ़ा कर अपनी श्रद्धा का प्रकाशन करते हैं, सूफियों में उनका मजार ही बन जाता है और नित्‍य पूजा का आयोजन होता है। ईसाई मेरी का, ईसा का चित्र बनाते हैं, गले में क्रास लटकाते हैं । ये आयोजन उसी नैसर्गिक अभिव्‍यक्ति के रूप है जो मूर्तिविधान में और उनके माध्‍यम से अपने लिए कल्‍याणकारी शक्तियों या परम देव में ध्‍यान केन्द्रित करने में दिखाई देता है। मूर्तिपूजा का विरोध और मूर्तिनिर्माण का विराेध करने वालों को मूर्तिकला से भी परहेज करना चाहिए और चित्रविधान से भी ये सभी मूर्तन के रूप हैै इस्‍लाम में यह होता रहा पर मकबरे का क्‍या करते। मूर्तिपूजा विरोध सभ्‍यता विरोधी है और इसने अपने उदय के साथ सभ्‍यता के स्‍तंभों को ही ध्वस्‍त किया, मूर्ति, मन्दिर, पुस्‍तक, ज्ञान, विज्ञान, सबका संहार ताकि विश्‍वास और भावोच्‍छ्वास को पागलपन की सीमा तक पहुँचाया जा सके। इससे अर्धविक्षिप्‍तों का समाज पैदा होता है और यात्रा मानवता से पशुता की ओर होती है।”

”परन्‍तु आधुनिक जगत से सभी दार्शनिक मूर्तिपूजा की निन्‍दा करते रहे हैं, यहॉं तक कि हमारे अपने देश में भी आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज तक ।” शास्‍त्री जी अपने को रोक नहीं पाए।

”इसके साथ दो बातें हैं, पहला यह कि अपनी भौतिक सफलता, आधिपत्‍य और ज्ञान पिपासा के माध्‍यम से पश्चिम ने हमारे आत्‍मविश्‍वास पर विजय हासिल करली। हमने उनकी सफलता के साथ उनके धर्म को जोड़ कर देखा और समायोजन की स्थिति में आ गए और किसी न किसी तरह से एकेश्‍वरवाद की श्रेष्‍ठता के कायल हो कर अपने यहॉं इसकी तलाश करते रहे जो एक: सद् विप्रा बहुधा वदन्ति में तलाश लिया गया, एको‍हं द्वितीयो नास्ति में पा लिया गया और फिर मूर्तिपूजा के स्‍थान पर ध्‍यान आदि और कर्मकांड आदि का सहारा लिया जाने लगा। जब कि ये सरलीकरण हैं।

”एक ही सत्‍य असंख्‍य रूपों और असंख्‍य छटाओं में व्‍यक्‍त होता है और इस व्‍यक्‍त रूप में ही हमें ग्राह्य हो पाता है, अन्‍यथा कोSहं सोSहं के चक्‍कर से आगे नहीं बढ़ा जा सकता। यह समझ लें कि मूर्तिपूजक समाज समावेशी रहे हैं, सहिष्‍णु रहे हैं, भिन्‍नताओं का सम्‍मान करते रहे हैं और मूर्तिभंजक असहिष्‍णु, मानवद्रोही और तर्क और विज्ञान के शत्रु और इसलिए सम्‍यताद्रोही रहे हैं।

”परन्‍तु महान से महान चिन्‍तक भी स्‍वतन्‍त्र नहीं होता, सहमति के दबाव में आ जाता है। पश्चिम में धर्मनिष्‍ठा में कमी बहुत मन्‍द गति से आई है। विरल अपवादों को छोड़ कर पश्चिम का पूरा समाज धर्मभावना से प्रेरित रहा है। इसकी व्‍याख्‍या में जाने पर हम लौट कर अपने विषय पर नहीं आ सकेंगे।

”दूसरा भ्रम कि बुद्ध से बुतपरस्‍ती का संबंध है, यह इस्‍लाम और ईसाइयत के भारत विषयक अधूरे ज्ञान के कारण है। यहॉं पुन: कह दूँ किसी भिन्‍न सभ्‍यता का अध्‍ययन करने में दूसरी सम्‍यता के प्रकांड से प्रकांड विद्वानों से चूक होती है और फिर वे क्रमश: एक स्थिर मान्‍यता का रूप ले लेती है। बुद्ध ने तो कहते हैं अपनी प्रतिमा बनाने या पूजा करने से अपने अनुयायियों को मना किया था । मना किया था यही इस बात का प्रमाण है कि मूर्तिपूजा उनसे बहुत पहले से प्रचलित थी।

”ऋग्‍वेद में तो इन्‍द्र, अग्नि, वायु, पर्जन्‍य, पृथिवी, आकाश, उषा, निशा सबका ऐसा ऐन्द्रिक और मूर्त वर्णन है चाहें तो चित्र उकेर लें, चाहें तक्षण कर लें और मूर्ति बना लें। इन्‍द्र पृथुग्रीवो वपोदरो इन्‍द्र: वृत्राणि जिग्‍घ्‍नते । मोटी गर्दन और निकला हुआ पेट, समझ में न आए तो सूमो महलवानों का ध्‍यान कीजिए। समझ में आ जाएगा। जब वे यज्ञ के समय देवताओं का आह्वान करते हैं, अग्नि से कहते हैं वह उन्‍हें ले कर आऍं, और उनसे अपना स्‍थान ग्रहण करने को कहते हैं तो यह किसी तरह की प्रतिमा या कल्पित आकार के रूप में ही रहा होगा। पुराने ख्‍यात विद्वान जब वेद का नाम लेते हैं तो यह न समझ लें कि उसका उन्‍होंने गहन अध्‍ययन भी किया था। सभी से गलतियां हुई हैं। यज्ञ को मूर्ति पूजा से इतना अलग नहीं किया जा सकता। अब हम अपनी बात पर लौटें ?”

”शास्‍त्री जी हाथ जोड़ दिए ।” ‘अनुमति है’, कहना न पड़ा ।

”शास्‍त्री जी, आप जानते हैं, खैर, इतनी मोटी बात तो मेरा यह मित्र भी जानता होगा कि ऋग्‍वेद दुनिया का प्राचीनतम ग्रन्‍थ है। परन्‍तु आपको यह भी मालूम होगा कि यह सभ्‍यता के प्रथम उत्‍थान की पराकाष्‍ठा का साहित्‍य है, जिसे न मेरा मित्र जानता है, न वे जानते या मानते हैं, जिन्‍होंने इसे विश्‍व की महान धरोहर के रूप में मान्‍यता दी, क्‍योंकि इसका अध्‍ययन जिन्‍होंने आज के दौर में किया वे सभ्‍यताद्रोही और इतिहास द्रोही थे, भले वे इस प्रचार में जुटे रहे कि भारत में न इतिहास था, न इतिहासबोध । और उनकी धौंस में हमारे अपने लोग भी उन मूर्खताओं का कायल हो गए।”

मेरे मित्र से रहा न गया तो वह बौखला उठा, ‘तुम जैसा वक्ता हो और शास्‍त्री जैसा श्रोता हो तो तुम यह भी समझाने से बाज न आओगे हि सूर्य या विवस्‍वान् पुत्र मनु और उनकी सन्‍तान इक्ष्‍वाकु और उनकी संतान तुम्‍हारा पोंगापंथी समाज और इसे ही इतिहास का चरम ज्ञान और इससे पैदा जहालत को इतिहासबोध कह कर प्रचारित करोगे तो मुझ जैसों को जहर खाने का मन करेगा, पर तुम्‍हारी बातें सुनने का नहीं। ”

”यार तुमने तो हमारी धारा ही मोड़ दी । मुझे आज लगा कि मैं जो कभी-कभी तुमको गधा कह देता हूँ उससे गधे अपमानित अनुभव करते होंगे। तुमतो काव्‍यविधान या कथनभंगी और तथ्‍यनिरूपण में फर्क ही नहीं कर पाते हो । और यह तुम्‍हारा दोष भी नहीं है । तुमने जिन्‍हें गुरु बनाया और जिनके गुरुडम को पहले किसी ने चुनौती नहीं दी, उसमें वे जो दिखाते रहे उसे तुम देखते रहे। तुमको इसी बेंच पर आज से एक साल पहले अपनी एक तुकबन्‍दी अर्ज की थी, ठीक एक साल तो नहीं, 10.9.2015 को उसकी कुछ पंक्तियॉं दूहरा दूँ:

खुद को मैं ‘गर आपके ही आईने में देखता.
मानिए सच आप जो कुछ देखते हैं देखता.
आप दिखलाते अगर दिन में भी तारे चाँद तो
मैं भी कहता मरहवा जो कुछ दिखाते देखता.
रात में कहते की सूरज को अभी हाज़िर करो
मैं क़ज़ा को याद करता आप का मुंह देखता.

”क्‍या तुम्‍हें नहीं लगता कि मैं तुम्‍हारे और अपने बीच का फर्क ही नहीं बता रहा था, तुम जो कर रहे थे उसे भी बयान कर रहा था। उन्‍होंने, हमें गुलाम बनाने वालों ने, जो दबाया, छिपाया, मिटाया और दिखाया उसे ही तुम सत्‍य समझते रहे और उसके ही आधार पर तुम अपना मूल्‍यांकन करते रहे क्‍योंकि तुम पदों, सुविधाओं के लोभ में उनसे तादात्‍म्‍य स्‍थापित कर चुके थे, परन्‍तु सुखी वे थे जिन तक वह ज्ञान, उससे मिलने वाली सुविधाएं और सम्‍मान न पहुंच सका और उनके कारण हमारी अपनी सोच, समझ और आजादी बची रही, परन्‍तु उसी तरह दीन हीन बनी।

”तुमने आज की चर्चा में एक ही समझदारी की बात की है, मेरी बात सुनने की अपेक्षा तुम जहर खाना पसन्‍द करोगे, और समझदारी यह कि तुम जानते ही नहीं कि तुम अभी तक जहर ही खाते और उसके बल पर ही पलते, फलते और फूलते आए हो। दो एक दिन पहले हम गीता पर बात कर रहे थे, आगे हो सकता है, उसी पर आएँ भी। उसके ग्‍यारहवें अध्‍याय में जहॉं अर्जुन श्रीकृष्‍ण के विराट रूप को देखने का अनुरोध करते हैं तो श्रीकृष्‍ण जो कुछ कहते हैं उसको मामूली पैरोडी के साथ कहूँ तो:
न त्वं शक्यसे द्रष्टुं बन्‍धु पाश्‍चात्‍य चक्षुसा । दिव्यं ददामि ते चक्षु पश्य ज्ञानपुरातनम्।। 11.8

”मैं जो कहता हूँ उसे ध्‍यान से सुनो। शिष्‍यभाव से आत्‍मसात् करो, और जब किसी विषय का समाहार करूँ केवल तभी अपनी आशंकाऍं प्रकट करो। आज की चर्चा का कबाड़ा तो कर ही दिया। कल का भगवान ही मालिक है ।”

Post – 2016-09-02

तुम्‍हीं क़ातिल हो तो हम सर कटा के देखेंगे।
गर न जन्‍नत मिली दोजख्‍ा में जा के देखेंगे ।
सिर्फ अपने को उठाया निजाम में अपने
जिन्‍होंने उनका जनाजा उठा के देखेंगे ।
तुम पर मरने की तमन्‍ना थी सो जीते ही रहे
तुम्‍हारे हुश्‍न का जल्‍वा भी आ के देखेंगे ।
मिट गए, लुट गए, कोई हिसाब है उनका
उनकी आहों की नई धुन बना के देखेंगे ।
जो भी भगवान ने अब तक किया अच्‍छा ही किया
यह नया काम भी उससे करा के देखेंगे ।।

Post – 2016-09-01

निदान – 37
विराट का दर्शन

”डाक्‍साब, आपका उत्‍तर तो नहीं दे पाता, परन्‍तु आपकी कुछ बातें गले नहीं उतरती हैं।”

”गले में उतारिएगा भी नहीं, सीधे पेट में चली जाएँगी। जिसे सिर में पहॅुचना चाहिए उसके लिए मुंह नहीं, ऑख-कान खोल कर रखिए। लेकिन आप ठहरे ब्राह्मण, उस परम पुरुष के मुँह, जो खा सकता है सोच नहीं सकता। आप रस तक की चर्वणा करते हैं, उससे भावविभोर नहीं होते। और ज्ञान तक को चबा गए पर पचाया नहीं। कारण, परम पुरष नं अपना दिमाग तो उसने चारों वर्णों में किसी को दिया ही नहीं।”

शास्‍त्री जी की जगह मेरा दोस्‍त बोल उठा, ”वह उसने तुम्‍हारे लिए छोड़ रखा था, जिसके पास इतना है कि वह उसे सँभाल नहीं पाता । हिस्‍टीरिया के रोगी की तरह।”

मैं हँसा, पर शास्‍त्री जी मुस्‍करा कर रह गए। उन्‍हें खासी राहत अनुभव हुई होगी। अब मैं कुछ गंभीर हो गया, ”आपका कहना सही है शास्‍त्री जी। मुझे स्‍वयं भी अपनी अधिकांश बातें सही नहीं लगतीं। वे अनेक संभावनाओं में एक संभावना होती हैं और जिस समय कह रहा होता हूँ उस समय वह संभावना सच के अधिक निकट लगती है। इसलिए मेरा सच या गलत होना मानी नहीं रखता, सचाई को जानने की कोशिश मानी रखती है। वह जारी रहनी चाहिए । मेरी इस पुस्‍तकमाला के एक खंड का उपशीर्षक ही है सही कुछ नहीं है सिवाय जिज्ञासा के।

”,गीता के महाकाल की अवधारणा से सात आठ हजार या हो सकता है उससे पहले से ही दार्शनिक चिन्‍तन आरंभ हो गया था। जब मैं कह रहा था, ‘सभ्‍यता का उत्‍स भारतीय भूभाग में हुआ’, तो उस सभ्‍यता में केवल नगर निर्माण और कारोबार और उसे आंकने टांकने के तरीके ही नहीं थे । वे अमूर्त प्रश्‍न भी थे जिसका भौतिकता से सीधा संबन्‍ध नहीं है । हम कौन हैं? क्‍यों है? वह क्‍या है जिसके निकल जाने पर हम मर जाते और धीरे धीरे सड़ने गलने लगते हैं? हमारे शरीर से अलग हो कर वह कहॉं किस अवस्‍था में रहता है ? यह हवा विविध गतियों से कैसे चलती है, इसे कौन चलाता है, संसार कैसे अस्तित्‍व में आया ? ब्रह्मांड का प्रसार क्‍या है ? इसके नक्षत्र, ग्रह पिंड क्‍या हैं ? दिन में ये कहा चले जाते हैं ? किसी भी कृति के लिए कुछ उपादानों की आवश्‍यकता होती है, उसका एक कर्ता होता है, उस कर्ता में भी पहले कुछ करने की इच्‍छा पैदा होती है तब वह निर्माण करता है, इसके लिए उसमें चेतना होनी चाहिए। वह कौन सा उपादान था जिससे यह सृष्टि रची गई, रचने वाला कौन था ? जब सृष्टि थी ही नहीं तो वह किस रूप में, कहां स्थित था? जिन उपादानों से उसने सृजन किया वे कहाँ थे ? क्‍या उसके भीतर ही? वही चेतना और वही उपादान ? इस तरह के प्रश्‍नों का अन्‍त नहीं जिनका उत्‍तर कोई एक समुदाय नहीं अनके समुदाय अपने अपने ढंग से तलाश कर रहे थे और परस्‍पर निकट आने के साथ उन्‍होंने इन विचारों का साझा किया।

”यह देश एक साथ कई स्‍तरों पर जीवित रहा है। संभव है आहार संग्रह के दिनों में भी क्‍योकि जलवायु के अनुसार भी आजीव की भिन्‍नता थी, और उसके बाद कुछ जनों के कृषि की दिशा में बढ़ने और क्रमश: एक महान सभ्‍यता के निर्माण के क्रम में प्रत्‍येक चरण पर तो निश्‍चय रूप से जिसमें कुछ समुदाय उच्‍च संस्‍कृति का विविध रूपों और विशेषज्ञताओं, आर्थिक स्थितियों के साथ जुड़ते और ठहराव के शिकार रहे और शेष आगे बढ़ने से इन्‍कार करते रहे। इनमें से अधिकांश अपने अपने ढंग से इन प्रश्‍नों से टकराते रहे और अपना समाधान तलाशते रहे और इनके वृहद् सांस्‍कृतिक अन्‍तर्क्रिया में सहभागी होने के साथ, उनके पुराने विश्‍वास भी सकल सांस्‍कृतिक महाप्रवाह के बीच प्रवाहित और सकल दाय का हिस्‍सा बनते चले गये। अत: एक ही समस्‍या के अलग अलग समाधान हैं और इनको जब हास्‍यास्‍पद समझा गया तब भी इनको बहिष्‍कृत नहीं किया गया, इसलिए हम कह सकते हैं कि नयी वैज्ञानिक खोजों या समाधानों के बाद भी रीति, विश्‍वास या संस्‍कृति के किसी न किसी विधान में इनके अंश बने रह गए। धरती यदि है तो किसी आधार पर टिकी होगी इसके उत्‍तर देखें:
1- महाकच्‍छप की पीठ पर ।
2- महासर्प के फनों पर ।
3- गुरुत्‍वाकर्षण तो बोध में न था पर इसके निकट की एक उद्भावना कि विष्‍णु ने रश्मियों के सहारे धरती और आकाश को टिका रखा है – व्यस्तभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः ।। ऋ. 7.99.3।”

”डाक्‍साब, हम लोग तो …”

”मैं जानता हूॅें आपको विषयान्‍तर लग रहा होगा। परन्‍तु मुझे कोई बात तरीके से कहने आती नहीं। इसलिए यहाँ देखिए विचार धरती के टिकने पर हो रहा है और भूचालों को उन शेषनाग या कमठ के हिलने का परिणाम माना जा रहा है, इसे संतुलित रखने के लिए महादिग्‍गजों या दिग्‍पालों की कल्‍पना की जा रही है और धरती की एक कल्‍पना चपटे रूप में हो रही है और चिन्‍तन गे बढ़ता है तो इसका आकार गोल मान लिया जाता है, इसके विविध गतियों में घूमने की कल्‍पना की जाती है, अपनी कक्षा पर और अपनी धुरी पर घूमने और आकाश के भी घूमने की भी कल्‍पना की जा रही है, – विवर्तेते रोदशी चक्रियेव । विवर्तेते का अर्थ आप तो जानते होंगे, परन्‍तु मैं अपने इस नालायक दोस्‍त को समझा दूँ कि इसका अर्थ है विविध गतियों से घूमना। एक जिससे दिन रात का चक्र चलता है, दूसरा जिससे मास चक्र चलता है, तीसरा जिससे ऋतु चक्र और संवत्‍सर चक्र चलता है। अौर ध्‍यान रहे एक स्‍थल पर ऋग्‍वेद में ही कहा है कि जिस समय हमारे यहॉं अँधेरा होता है, उस समय सूर्य दूसरे भूभाग को प्रकाशित कर रहा होता है, परन्‍तु इस समय वह स्‍थल याद नहीं आ रहा है। तो पृथ्‍वी गोल है, यह स्‍वयं भी घूमती है और द्युलोक भी और इनकी गति एक ही नहीं होती, इसमें भिन्‍नता होती है, यह बोध भारत में पांच हजार साल पहले था, जब कि यूरोप में अरबों के माध्‍यम से आर्यभट्ट से परिचय के बाद यह बोध पैदा हुआ और भारत पहुँचने के मार्ग में अरबों के व्‍यवधान के कारण कोलंबस ने पहली बार साहस किया सोचा यदि धरती गोल है और सीधे पूर्व की ओर चल कर भारत पहुँचने में बाधा है तो पश्चिम की दिशा में चल कर भी तो भारत पहुँचा जा सकता है और चल पड़ा अपना जहाज और जहाज पर सवार नाविकों की जान और रसद पानी साथ ले कर। भाग्‍य ने साथ दिया कि आत्‍महत्‍या से पहले उसे स्‍थल मिल गया। आगे की कहानी आप जानते हैं।”

मेरा मित्र मेरे वाक्‍य की समाप्ति की प्रतीक्षा कर रहा था। तुरत आ धमका, ”तुम गधे हो, तुम भारत देश महान की चिन्‍ता में यह भूल जाते हो कि धरती के गोल होने और घूमने का ज्ञान यूनानियों को भी था। मिस्रियों को भी रहा होगा।”

मैं उससे सहमत हो गया, ”यूनानियों में था, इससे सहमत। मिस्रियों में भी रहा होगा इसका न विरोध कर सकता हूँ न समर्थन । परन्‍तु तुम्‍हारे हस्‍तक्षेप के पीछे क्‍या भारत देश को गर्हित सिद्ध करने की चिन्‍ता नहीं है । उनकी समझदारी यह कि उन्‍होंने अपना इतिहास की नष्‍ट कर डाला, अपना पुरातन ज्ञान ही नष्‍ट कर डाला और तुम जैसे उल्‍लू हैं जो कहते हैं वे सभ्‍यता के मामले में हमसे आगे थे और हमें इतिहास को कूट पीट कर यही सिद्ध करना है। गाेरों ने अपना इतिहास अरबों के माध्‍यम से जाना और बहुत बाद में यह समझ पाए कि उस काल का कहीं कुछ अन्‍यत्र भी बचा हो तो उसे जुटाया जाना चाहिए। जो काम वेदव्‍यास नाम से प्रतीकबद्ध चिन्‍तकों ने तीन साढ़े तीन हजार साल पहले किया था, उसे संयोगवश उन्‍होंने धर्मयुद्धों से पुंजीभूत यूरापीय या ईसाई ऊर्जा से किया और फिर आगे ही आगे बढ़ते गए। परन्‍तु यह देखो कि इस नवउन्‍मोचित यूरोपीय ऊर्जा की दिशा क्‍या थी? लक्ष्‍य क्‍या था ? दिशा थी पूरब, और लक्ष्‍य था भारत। अौर ध्‍यान दो वे अपना माल बेचने नहीं आ रहे थे। यहॉं का माल खरीदने आ रहे थे। यहॉं के बारे में प्रचलित कहानियों से आकृष्‍ट हो कर कितने सारे अन्‍वेषियों ने कितने खतरे उठा कर यहॉं की यात्रा की थी, यह देखने के लिए कि वह विचित्र और वैभवपूर्ण देश कैसा है और तुम्‍हारे टुकड़खोर विद्वान यह सिद्ध करते रहे कि इससे गर्हित कोई देश हो नहीं सकता। देशों में देश, ईरान जहॉं से भारत को सभ्‍यता मिली। वे अपने को मार्क्‍सवादी कहते हैं और यह तक भूल जाते हैं कि सम्‍यता का आर्थिक आधार हुआ करता है और जिस तरह की सनक कल तक ब्रिटेन पहुँचने की हुआ करती थी, आज अमेरिका पहुँचने की है वैसी ही सनक, नहीं, उस समय के खतरों को देखो तो उससे भी बड़ी सनक भारत पहुँचने की हुआ करती थी।”

मित्र फिर सामने हाजिर, ”यार मुझसे गलती हो गई। तुम्‍हें गधा कह दिया। नहीं कहना चाहिए था और तुम तबसे मुझे लगातार जो गालियाँ दे रहे हो उसका भी बुरा नहीं मानता। यह कहाे, तुम्‍हे गधा न कह कर बैल कहता तब तो गोजाति की पवित्रता का सम्‍मान करने हुए तुम बुरा नहीं मानते न ?”

”तुम्‍हारे पास अपनी अक्‍ल होती तो बुरा मानता, परन्‍तु तुम्‍हारे पास विश्‍वास है जो अक्‍ल को धक्‍का दे कर बाहर कर देता है। तुम स्‍वयं बताओ कि तुमने कितने साल पहले अपनी पार्टी लाइन को भूल कर अपने दिमाग से काम लिया था? जिसके पास जो है ही नहीं उसका बुरा क्‍या मानना । इसी पर तो हमारी दोस्‍ती लाख तकरारों के बाद भी कायम है? मैं तुम्‍हारे किसी कहे का बुरा नहीं मानता पर पीड़ा तो तुम्‍हारी बौद्धिक अपंगता पर होती ही है, जिस पर तुम गर्व करते हो, जैसे भीख मॉगने वाले अपंग अपनी अपंगता पर गर्व करते है और अपने को अधिक अपंग यहां तक कि कुष्‍टगलित दिखा कर अपंगता की बढ़त को गौरव का विषय बना देते हैं। मुझे तुम पर क्रोध आता तो साथ निभता ? मित्रता के नाते तुम्‍हारे उद्धार की चिन्‍ता है और यह ग्‍लानि भी कि मैं इसमें अभी तक सफल न हो पाया, क्‍योंकि तुम अपनी सुनाते हो किसी की सुनते नहीं।”

शास्‍त्री जी व्‍यग्र हो रहे थे, ”डाक्‍साब, आप दोनों के बीच जो अनुराग और विराग है उसका मैं साक्षी हाे कर भी उस पर कुछ कह नहीं सकता। परन्‍तु मेरा विचार है कि आप बहुत प्राचीन अवस्‍था से ले कर आज तक विचार की असंख्‍य श्रेणियो और रूपों के बारे में और नये ज्ञान के बाद भी, पुराने विश्‍वासों के विषय में कुछ कह रहे थे। वहॉं से विषयान्‍तर हो गया। ”

मुझे लगा, गलती तो हो गई, हार मानना भी नही चाहता था, इसलिए लफ्फाजी से काम लिया, ”‍विषयान्‍तर भी विषय के अन्‍दर ही होता है। अन्‍तर और अन्‍दर में अ‍धिक फर्क नहीं हैं। पर मैं उस समय यह कह रहा था कि उन्‍नत विचार समस्‍त विचार संपदा का अंग या एक ही समय में विविध स्‍तरों पर मान्‍य हो कर चलते रहते हैं और समय समय पर सबका साहित्यिक उपयोग भी हो जाता है। मैं अपनी ओर से इसे सुलझे रूप में रखना चाहता हूँ पर सामाजिक और सांस्‍कृतिक विविधता के बीच की क्रिया प्रतिक्रिया इतनी जटिल है कि संभव है आपको मेरे कहने में ही दोष दिखाई दे रहा हो । खैर इसी चिन्‍तन में विष्‍णु जाे समस्‍त विश्‍व प्रसार को या ब्रह्मांड को सँभाले हुए हैं या उसी के स्‍वरूप हैं, उपस्थित हो जाते हैं।
इसीलिए मैं आपके उस कथन से सहमत हो गया था कि हमारे यहॉं परमात्‍मा या सर्वोच्‍च सत्‍ता की कल्‍पना किसी राजा के रूप में नहीं की गई है, सच्‍चे बादशाह के रूप में भी नहीं, निर्गुण ब्रह्म के रूप में भी नहीं, अपितु विश्‍वप्रपंच के रहस्‍यों को समझने के क्रम में सृष्टि का संचालन करने वाली, हमारी अपनी रक्षा और पालन करने वाली शक्तियों ने देववाद का रूप लिया और इसके एक व्‍यवस्‍था में ढलने या जुड़ने के कारण परम शक्ति या परमात्‍मा और ब्रह्म आदि की कल्‍पनाएं और उनके गुणों या गुणातीत होने की अवधारणाऍं आईं और इनके साथ सख्‍य या क्रीड़ा भाव विकसित हुआ, उनके लक्षणों को मूर्त करने का या किसी छवि में ढालने का प्रयत्‍न किया गया। क्रीड़ा भाव उन मूर्तनों में भी होता था।”

”बात जिस विषय पर करनी थी वह तो हो नहीं पाई, डाक्‍साब ।”

”कल प्रयत्‍न करेंगे । प्रयत्‍न ही हमारे वश में है, परिणाम तो नहीं। इसे आपसे अच्‍छी तरह कौन जान सकता है।”