सभ्यता का दंड (असंपादित )
मैंने सोचा था शास्त्री जी आते ही अपने सवालों का जवाब मांगेंगे। पर अपेक्षा के विपरीत वह उदास से बैठ गए और मेरी बैठक की बदहाली की पड़ताल करने लगे। निगाहों से, बिना कुछ बोले। वह गहरे आवेश में थे पर वह उन्हें भीतर से इतना पीस रहा था कि वह कुछ बोलने से बच रहे थे। चाय आई तो एक चुस्की अनमने भाव से ली और फिर उसे किनारे रख दिया और भूल गए। बिस्किट को हाथ ही नहीं लगाया। कुछ देर इस नि:शब्दता का सहन करने के बाद मैंने ही छेड़ा, ”आप किसी बात से परेशान लग रहे हैं। उत्तर में उन्होंने मेरी ओर देखा और फिर निगाह फेर ली। पर चेहरे पर आमर्षजनित रक्त प्रवाह लहरा ऐसा कि लगा वह दृष्टि न फेरते तो रो देते। छेड़ना बेकार था। एक तरह का निजता भंग, अश्लील । मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इस अबोलेपन काेे सहन कैसे किया जाय।
शायद ऐसी स्थिति से आपका कभी पाला न पड़ा हो! घर मेरा था, मैं किसी आगन्तुक के रहते भाग कर बाहर भी नहीं जा सकता था! देखा चाय ठंढी हो गई है तो कुछ न सूझा तो प्याली उठाया और वाशबेसिन में डाल आया! दुबारा चाय की प्लेट उठा कर रसोई में रख आया! और जब कुछ करने को न रह गया तो उस दमघोटू माहौल को झेलने के लिए अपनी उंगलियां चटकाने लगा!
इस बीच शास्त्री जी ने अपने को संयत कर लिया था षायद! वह स्वयं मेरी ओर मुड़े, ‘‘डाक्साब, क्या सभ्य होना अपराध है ?’’
उनके कल के प्रश्नों के बारे में तो कुछ तीर तुक्के बैठाए भी थे, और वह उन पर आते तो जैसा भी बन पड़ता जवाब देता, परन्तु इस प्रष्न के लिए तो मैं तैयार ही नहीं था ! बचाव का रास्ता निकाला, ‘‘आप ने तो कल कुछ प्रश्न किए थे जिनका उत्तर मैं दे नहीं पाया था। आज आपने यह दार्शनिक प्रश्न क्यों उठा दिया ?’’
अब शास्त्री जी पूरी तरह संयत हो चुके थे । उनके स्वर में स्थिरता थी, चेहरा निरुद्वेग था, और अपनी बात आवेग मुक्त स्वर मे रख रहे थे, ‘‘चला तो कल के प्रष्नों का उत्तर पाने के लिए ही था, परन्तु चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथी वलवद् दृढं । उस पर तो वश है नहीं, रास्ते में एकाएक उन घटनाओं की ओर ध्यान चला गया जो एक समाचार चैनल में आई भी तो इतने दिन बाद और इस शब्दावली में कि ईदुन्नबी के दिन से ही एक समुदाय के द्वारा दूसरे समुदाय के द्वारा दूसरे समुदाय के घरों को उजाड़ा, दूकानों को लूटा, लोगों को मारा जा रहा है और यह समुदाय ऐसा है जिसके कुकृत्यों पर मौन या उसके समर्थन का दूसरा नाम सेक्युलरिज्म है और जिस पर तनिक भी आंच आ जाय तो उसकी वास्तविकता को जाने बिना भी हाहाकार मचाने का भी नाम सेक्युलरिज्म है और यह सेक्युलरिज्म ऐसे अवसरों पर हिन्दूू मूल्यों की रक्षा की दुहाई देते हुए हिन्दुओं पर, केवल उस घटना से जुड़े व्यक्तियों को ही नहीं, पूरे हिन्दू समाज को रौंदने, बदनाम करने के लिए चीत्कार करने लगते हैं और जब पूरी सचाई सामने आती है और भुक्तभोगी माना गया व्यक्ति अपराधी सिद्ध होता है तो चुप लगा जाते हैं मानो कुछ किया ही न हो। इसमें हमारा समस्त बुद्धिजीवी वर्ग जो लिखने, बोलने, प्रचारित प्रसारित करने के धन्धों से जुड़ा है, वह सहभागी कैसे हो जाता है। इस चिन्ता में मैं खोया हुआ ही आप की घंटी बजाई और दरवाजा खुला तो आकर बैठ गया पर उस आवेष से मुक्त नहीं हो पाया!
बैठा तो फिर आपका ही कभी का लिखा हुआ वह पोस्ट याद आने लगा जिसमें गोरे सोचते थे कि गुलामों के आत्मा नहीं होती है! वे उन्हें चैटल या ढोर या चल संपत्ति समझते थे इसलिए मानते थे कि इनके साथ कुछ भी करो, इन्हें पीड़ा नहीं होती और वे उनको यातनाएं देते हुए किसी तरह की ग्लानि अनुभव नहीं करते थे और उनके यातनावध का तमाशा देखने वालों की भीड़ जुट जाती थी जो किलकारियां भरती, फब्तियां कसती, आह्लाद से भर जाती थी और तभी मुझे लगा कि हमारी स्थिति हमारे ही लोगों ने क्या वैसी ही नहीं कर दी है । अपने को संभालना मुष्किल हो गया। फिर भी प्रश्न का चरित्र तो बदल ही गया, कि हमारी ही सभ्यता के जिन मूल्यों की आड़ में हमारे ही ऊपर जिस तरह के प्रहार उन जमातों के समर्थन में किए जा रहे हैं जिनके आचार, संस्कार और मूल्य परंपरा में इनके लिए स्थान ही नहीं, तो मुझे लगा कि क्या हमें इतना मूल्य अपने अधिक सभ्य होने के कारण चुुकाते आए हैं और अपने ही सिरफिरों की उस समझ के कारण चुका रहे हैं जिसमें पीड़ा के कई रूप होते हैं। हिन्दू की पीड़ा पीड़ा नहीं होती, यदि वह किसी को पीड़ा जैसी लगती है तो वह संकीर्ण सोच वाला हिन्दुत्ववादी होगा और उसको इस संवेदनषीलता के कारण ही जघन्य सिद्ध किया जा सकता है और किया जा रहा है। हम उन उच्च आदर्षों का पालन करते रहे जिन तक आज भी संयुक्त राष्ट्र अपनी आकांक्षा के बाद भी नहीं पहुंच पाया है जिन्हें सभ्यता का उच्चतम मूल्यमान माना जा सकता है और फिर भी उनका निर्वाह करने के कारण हमें लगातार अपमान सहना, प्राणदान करना और गुलाम रहना पड़ा है उनका जो पाषविक मूल्यों को श्रेष्ठमूल्य समझते थे और आज भी स्थिति में बदलाव नहीं आया है, या आया है तो यह कि हमारे अपने ही लोग दरिंदगी के समर्थन में हमारे मूल्यों का नाम लेकर हमारे ऊपर ही आक्रमण कर रहे हैं, हमारी उपेक्षा कर रहे हैं, हमारे ही समाज में आत्मविमुखता पैदा कर रहे हैं और इसके बाद भी उनकी साख बनी हुई है और हमारी आवाज कोई सुनने को तैयार नहीं ।
आप इस रिपोर्टिंग का तरीका तो देखिए । यदि कोई मुसलमान हो, ईसाई हो, यहां तक कि दलित हो, कहें उनमें से कोई हो जिनका
”हथियार के रूप में हमारी साख और मान मर्दन के लिए काम में लाया जा रहा है तो उनका नाम सबसे पहले आएगा और उसका निहितार्थ होगा उन पर सारे अत्याचार हिन्दू समाज कर रहा है, और जब हिन्दू समाज के साथ जघन्यतम कृत्य बड़े से बड़ेे पैमाने पर हो रहा हो तो वह अपराधियों को बचाने के लिए दो समुदायों के बीच टकराव का रूप ले लेगा कि तड़पते और मरते हुए लोगों की आह तक किसी को न सुनाई दे।”
इसलिए यह प्रश्न इतना वेधक हो कर सामने आया कि क्या सभ्य होना अपराध है । हमारी सभ्यता की कौन सी परिभाषा है कि हम दरिन्दगी के पक्ष में खड़े हो कर सभ्यता की परिभाषा बदल रहे हैं । हमारे बुद्धिजीवी जो वैज्ञानिकता की दुहाई देते अघाते नहीं, वे अपनी सोच, समझ और प्रस्तुति में वस्तुपरक क्यों नहीं रह पाते और अपनी अल्पतम बुद्धि का उपयोग क्यों नहीं कर पाते हैं। उनकेे इस दिवालियापन के बाद भी हमारे समाज के पढ़े लिखे लोगों का उनसे मोहभंग क्यों नहीं हाेे पाता कि वे समाज काेे सही दिशा दे सकें ।”
मेरे पास शास्त्री जी के किसी प्रश्न का उत्तर नहीं था या था तो वह मैं बहुत पहले कई बार कई बहानों से तर्क और प्रमाण देते हुए दे चुका था कि सेक्युलरिज्म मुस्लिम लीग का बदला हुआ नाम है आैैर इसलिए अपने को सेक्युलर कहने वाले हिन्दुओं और कट्टर मुसलमानों के बीच की खाई मिट चुकी है क्योंकि नव धर्मान्तरित अपने को सच्चा सिद्ध करने के लिए अधिक कट्टरताा से काम लेते हैं। परन्तु यह उत्तर तो शास्त्री जी को पता था, इससे उनका क्षोभ दूर नहीं हो सकता था। मैंने स्थिति को संभालते हुए कहा, ”अब कल के प्रश्नों पर आज चर्चा तो हो नहीं सकती। क्या कल भी आप हमारे ही इलाके में हैं ।”
शास्त्री जी मुझसे सहमत हो गए, ”आप ठीक कहते हैं । आज तो किसी विषय पर बात करने का मन ही नहीं है।” इसके साथ ही वह उठ कर खड़े भी हो गए । ”कल की कौन कह सकता है।”