Post – 2016-12-24

सभ्‍यता का दंड (असंपादित )

मैंने सोचा था शास्‍त्री जी आते ही अपने सवालों का जवाब मांगेंगे। पर अपेक्षा के विपरीत वह उदास से बैठ गए और मेरी बैठक की बदहाली की पड़ताल करने लगे। निगाहों से, बिना कुछ बोले। वह गहरे आवेश में थे पर वह उन्‍हें भीतर से इतना पीस रहा था कि वह कुछ बोलने से बच रहे थे। चाय आई तो एक चुस्‍की अनमने भाव से ली और फिर उसे किनारे रख दिया और भूल गए। बिस्‍किट को हाथ ही नहीं लगाया। कुछ देर इस नि:शब्‍दता का सहन करने के बाद मैंने ही छेड़ा, ”आप किसी बात से परेशान लग रहे हैं। उत्‍तर में उन्‍होंने मेरी ओर देखा और फिर निगाह फेर ली। पर चेहरे पर आमर्षजनित रक्‍त प्रवाह लहरा ऐसा कि लगा वह दृष्टि न फेरते तो रो देते। छेड़ना बेकार था। एक तरह का निजता भंग, अश्‍लील । मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इस अबोलेपन काेे सहन कैसे किया जाय।
शायद ऐसी स्थिति से आपका कभी पाला न पड़ा हो! घर मेरा था, मैं किसी आगन्तुक के रहते भाग कर बाहर भी नहीं जा सकता था! देखा चाय ठंढी हो गई है तो कुछ न सूझा तो प्‍याली उठाया और वाशबेसिन में डाल आया! दुबारा चाय की प्लेट उठा कर रसोई में रख आया! और जब कुछ करने को न रह गया तो उस दमघोटू माहौल को झेलने के लिए अपनी उंगलियां चटकाने लगा!
इस बीच शास्त्री जी ने अपने को संयत कर लिया था षायद! वह स्वयं मेरी ओर मुड़े, ‘‘डाक्साब, क्या सभ्य होना अपराध है ?’’
उनके कल के प्रश्‍नों के बारे में तो कुछ तीर तुक्के बैठाए भी थे, और वह उन पर आते तो जैसा भी बन पड़ता जवाब देता, परन्तु इस प्रष्न के लिए तो मैं तैयार ही नहीं था ! बचाव का रास्ता निकाला, ‘‘आप ने तो कल कुछ प्रश्‍न किए थे जिनका उत्तर मैं दे नहीं पाया था। आज आपने यह दार्शनिक प्रश्‍न क्यों उठा दिया ?’’
अब शास्त्री जी पूरी तरह संयत हो चुके थे । उनके स्वर में स्थिरता थी, चेहरा निरुद्वेग था, और अपनी बात आवेग मुक्त स्वर मे रख रहे थे, ‘‘चला तो कल के प्रष्नों का उत्तर पाने के लिए ही था, परन्तु चंचलं हि मनः कृष्‍ण प्रमाथी वलवद् दृढं । उस पर तो वश है नहीं, रास्ते में एकाएक उन घटनाओं की ओर ध्यान चला गया जो एक समाचार चैनल में आई भी तो इतने दिन बाद और इस शब्दावली में कि ईदुन्नबी के दिन से ही एक समुदाय के द्वारा दूसरे समुदाय के द्वारा दूसरे समुदाय के घरों को उजाड़ा, दूकानों को लूटा, लोगों को मारा जा रहा है और यह समुदाय ऐसा है जिसके कुकृत्यों पर मौन या उसके समर्थन का दूसरा नाम सेक्युलरिज्म है और जिस पर तनिक भी आंच आ जाय तो उसकी वास्तविकता को जाने बिना भी हाहाकार मचाने का भी नाम सेक्युलरिज्म है और यह सेक्युलरिज्म ऐसे अवसरों पर हिन्दूू मूल्यों की रक्षा की दुहाई देते हुए हिन्दुओं पर, केवल उस घटना से जुड़े व्यक्तियों को ही नहीं, पूरे हिन्दू समाज को रौंदने, बदनाम करने के लिए चीत्कार करने लगते हैं और जब पूरी सचाई सामने आती है और भुक्तभोगी माना गया व्यक्ति अपराधी सिद्ध होता है तो चुप लगा जाते हैं मानो कुछ किया ही न हो। इसमें हमारा समस्त बुद्धिजीवी वर्ग जो लिखने, बोलने, प्रचारित प्रसारित करने के धन्धों से जुड़ा है, वह सहभागी कैसे हो जाता है। इस चिन्ता में मैं खोया हुआ ही आप की घंटी बजाई और दरवाजा खुला तो आकर बैठ गया पर उस आवेष से मुक्त नहीं हो पाया!
बैठा तो फिर आपका ही कभी का लिखा हुआ वह पोस्ट याद आने लगा जिसमें गोरे सोचते थे कि गुलामों के आत्मा नहीं होती है! वे उन्हें चैटल या ढोर या चल संपत्ति समझते थे इसलिए मानते थे कि इनके साथ कुछ भी करो, इन्हें पीड़ा नहीं होती और वे उनको यातनाएं देते हुए किसी तरह की ग्लानि अनुभव नहीं करते थे और उनके यातनावध का तमाशा देखने वालों की भीड़ जुट जाती थी जो किलकारियां भरती, फब्तियां कसती, आह्लाद से भर जाती थी और तभी मुझे लगा कि हमारी स्थिति हमारे ही लोगों ने क्या वैसी ही नहीं कर दी है । अपने को संभालना मुष्किल हो गया। फिर भी प्रश्‍न का चरित्र तो बदल ही गया, कि हमारी ही सभ्यता के जिन मूल्यों की आड़ में हमारे ही ऊपर जिस तरह के प्रहार उन जमातों के समर्थन में किए जा रहे हैं जिनके आचार, संस्कार और मूल्य परंपरा में इनके लिए स्थान ही नहीं, तो मुझे लगा कि क्या हमें इतना मूल्य अपने अधिक सभ्य होने के कारण चुुकाते आए हैं और अपने ही सिरफिरों की उस समझ के कारण चुका रहे हैं जिसमें पीड़ा के कई रूप होते हैं। हिन्दू की पीड़ा पीड़ा नहीं होती, यदि वह किसी को पीड़ा जैसी लगती है तो वह संकीर्ण सोच वाला हिन्दुत्ववादी होगा और उसको इस संवेदनषीलता के कारण ही जघन्य सिद्ध किया जा सकता है और किया जा रहा है। हम उन उच्च आदर्षों का पालन करते रहे जिन तक आज भी संयुक्त राष्‍ट्र अपनी आकांक्षा के बाद भी नहीं पहुंच पाया है जिन्हें सभ्यता का उच्चतम मूल्यमान माना जा सकता है और फिर भी उनका निर्वाह करने के कारण हमें लगातार अपमान सहना, प्राणदान करना और गुलाम रहना पड़ा है उनका जो पाषविक मूल्यों को श्रेष्‍ठमूल्य समझते थे और आज भी स्थिति में बदलाव नहीं आया है, या आया है तो यह कि हमारे अपने ही लोग दरिंदगी के समर्थन में हमारे मूल्यों का नाम लेकर हमारे ऊपर ही आक्रमण कर रहे हैं, हमारी उपेक्षा कर रहे हैं, हमारे ही समाज में आत्मविमुखता पैदा कर रहे हैं और इसके बाद भी उनकी साख बनी हुई है और हमारी आवाज कोई सुनने को तैयार नहीं ।
आप इस रिपोर्टिंग का तरीका तो देखिए । यदि कोई मुसलमान हो, ईसाई हो, यहां तक कि दलित हो, कहें उनमें से कोई हो जिनका
”हथियार के रूप में हमारी साख और मान मर्दन के लिए काम में लाया जा रहा है तो उनका नाम सबसे पहले आएगा और उसका निहितार्थ होगा उन पर सारे अत्‍याचार हिन्‍दू समाज कर रहा है, और जब हिन्‍दू समाज के साथ जघन्‍यतम कृत्‍य बड़े से बड़ेे पैमाने पर हो रहा हो तो वह अपराधियों को बचाने के लिए दो समुदायों के बीच टकराव का रूप ले लेगा कि तड़पते और मरते हुए लोगों की आह तक किसी को न सुनाई दे।”
इसलिए यह प्रश्‍न इतना वेधक हो कर सामने आया कि क्‍या सभ्‍य होना अपराध है । हमारी सभ्‍यता की कौन सी परिभाषा है कि हम दरिन्‍दगी के पक्ष में खड़े हो कर सभ्‍यता की परिभाषा बदल रहे हैं । हमारे बुद्धिजीवी जो वैज्ञानिकता की दुहाई देते अघाते नहीं, वे अपनी सोच, समझ और प्रस्‍तुति में वस्‍तुपरक क्‍यों नहीं रह पाते और अपनी अल्‍पतम बुद्धि का उपयोग क्‍यों नहीं कर पाते हैं। उनकेे इस दिवालियापन के बाद भी हमारे समाज के पढ़े लिखे लोगों का उनसे मोहभंग क्‍यों नहीं हाेे पाता कि वे समाज काेे सही दिशा दे सकें ।”
मेरे पास शास्‍त्री जी के किसी प्रश्‍न का उत्‍तर नहीं था या था तो वह मैं बहुत पहले कई बार कई बहानों से तर्क और प्रमाण देते हुए दे चुका था कि सेक्‍युलरिज्‍म मुस्लिम लीग का बदला हुआ नाम है आैैर इसलिए अपने को सेक्‍युलर कहने वाले हिन्‍दुओं और कट्टर मुसलमानों के बीच की खाई मिट चुकी है क्‍योंकि नव धर्मान्‍तरित अपने को सच्‍चा सिद्ध करने के लिए अधिक कट्टरताा से काम लेते हैं। परन्‍तु यह उत्‍तर तो शास्‍त्री जी को पता था, इससे उनका क्षोभ दूर नहीं हो सकता था। मैंने स्थिति को संभालते हुए कहा, ”अब कल के प्रश्‍नों पर आज चर्चा तो हो नहीं सकती। क्‍या कल भी आप हमारे ही इलाके में हैं ।”
शास्‍त्री जी मुझसे सहमत हो गए, ”आप ठीक कहते हैं । आज तो किसी विषय पर बात करने का मन ही नहीं है।” इसके साथ ही वह उठ कर खड़े भी हो गए । ”कल की कौन कह सकता है।”

Post – 2016-12-23

दुश्‍चक्र

शास्‍त्री जी किसी दूसरे काम से हमारी ओर आए थे और सोचा जब आए हैं तो मुझसे भी मिलते चलें, पर जरूरी नहीं कि वह किसी और से मिलने आए हों, क्‍योंकि औपचाारिकता के बाद वह जिस तरह अपने विषय पर आ गए और आक्रामक ही नहीं हो गए, अपितु अपनी बात अपने मोबाइल पर सुरक्षित किए गए दृश्‍याेें और कतरनों से रखने लगे उससे इतना तो साफ था कि वह पूरी तैयारी से और मुझसे ही दो दो हाथ करने आए थे।
उन्‍हें शिकायत मेरे दो दिन पहले की पोस्‍ट से थी जिसमें मैंनेे पश्चिम और शेष जगत के बीच खुले युद्ध के प्रमाण देते हुए शेष जगत के सभी लोगों के बीच इसकी समझ पैदा करने और आपसी कलह से बचने की, यहां तक कि पश्चिमी देशों और विशेषत: उनके सरगना अमेरिका के द्वारा हमें अपास में लड़ाने के लिए तैयार किए जाने वाले हथियारों का खरीदार बनने से बचने की और अापसी झगड़े कम करने की सलाह दी थी ।

उन्‍होंने पहला ही सवाल दागा, ”डाक्‍साब, एक बड़े युद्ध की आड़ में क्‍या आप अपने ऊपर होने वाले हमलों में हमलावर से मेल मुहब्‍बत की बात करके सुरक्षित रह सकते हैं, विशेषत: तब ज‍ब आप का ऐसा प्रस्‍ताव उनके दुस्‍साहस को और आपकेे संकट को बढ़ा रहा हो। आप अपने धन, मान, और प्राण की रक्षा के लिए प्रत्‍याक्रमण नहींं करेंंगे ।”

मुझे कुछ अनुमान तो हुआ कि उनका संकेत किधर है परन्‍तु मैं उनसे ही सुनना चाहता था कि उनको शिकायत किस बात से हैै। मैंने अबोध बन कर कहा, ”प्रत्‍याक्रमण या प्रतिरक्षा ताेे करना ही होगा, परन्‍तु आप को यह कैसे लगा कि मैं आततायियों को गले लगाने का पक्षपाती हूं । कोई कारण तो होगा आपके ऐसा सोचने का।”

”आप सलाह देते हैं कि इस समय सबसे खतरे में मुस्लिम समुदाय है। उनमें उत्‍तेजना पैदा करके, उसे बदनाम करके अरक्षणीय बनाते हुए उनके देश के देश अमेरिका और पश्चिम के दूसरे देशों द्वारा तबाह किए जा रहे हैं आैैर उनके बाद हमारी बारी भी आ सकती है क्‍यों‍कि गोरों को पूरी दुनिया अपने लिए चाहिए और जिस तरह उन्‍होंने अमेरिका के मूल निवासियों का सफाया किया वे एक एक करके दूसरों का भी सफाया करते जाएंगेे इसलिए हमें मुसलमानों के साथ सहानुभूति और सहयोग से काम लेना चाहिए, परन्‍तु हम तो इस बीच ही उन लोगों के द्वारा मिटा दिए जाएंगे जिनको आप संकटग्रस्‍त मानते हैं।”

शास्‍त्री जी ने अपना मोबाइल खोला और उन दुर्घटनाओं की फुटेज दिखाने लगे जिनमें भारत में राज्‍य सरकारों कि शिथिलता या वोट बैंक को भुनाने की दुर्बलता के कारण मुसलमानों द्वारा हिन्‍दुओं की संपत्ति लूटी, बर्वाद की जा रही है, और उनके सम्‍मान को ठेस पहुंचाई जा रही है, खुलेेआम हत्‍या की जा रही है, वे अपने ही घर से पलायन कर रहे हैं और आप उनके साथ सहानुभूति और सहयोग की हिमायत करते हुए हमारी प्रतिरोध क्षमता पर बड़े भोलेपन से कुठाराघात कर रहे हैं, हमें आसन्‍न खतरों से असावधान कर रहे हैं और इस तरह हमारे संकट को बढ़ा रहे हैं केवल इस लालसा से कि आपको अधिक संंतुलित और दूरदर्शी मान लिया जाय । आपकी सोच और आपके ही शब्‍दों में सेकुलरिस्‍ट नाम से लीग की सियासत करते हुए हिन्‍दुओं की दुर्गति को बढ़ाने वालों में कोई अन्‍तर है ।”

कुछ देर के लिए मैं स्‍तब्‍ध रह गया । मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इसका क्‍या उत्‍तर दूं ।

उत्‍तर स्‍वयं शास्‍त्री जी देने लगे, ”आप का कहना सही है कि गोरे देशों का, रंगीन देशों काेे कई बहानों से आपस में लड़ते झगडते हुए अपनी बर्वादी स्‍वयं करने को संचार से ले कर हथियार के माध्‍यम से भड़काया जा रहा है, परन्‍तु दुनिया आज एक तरह के खतरे से नहीं जूझ रही है। दूसरे बहुत से संकट हैं। पर्यावरण के सत्‍यानाश का संकट है जिसमें अधिकांश लोगों के लिए वे गोरे हों या काले सबका जीना कठिन हो जाएगा और कुछ असाधारण संपन्‍न लोगों के पास ही अपने परिवेश में स्‍वच्‍छ वायु और स्‍वच्‍छ जल और पर्यावरण की गिरावट से बचाव के साधन बचे रहेंगे और तब दुनिया गोरों द्वारा कालों के निर्मूल किए जाने की न रहेगी अपितु असाधारण संपन्‍नों या अमीरों और शेष जगत की सुुरक्षा की बन जाएगाी और जैसे कि लक्षण है यह दूसरा संकट वेस्‍ट ऐंड द रेस्‍ट से भी पहले उपस्थित हो सकता है ।

”हमारी समस्‍या दूसरी है, हम आसन्‍न संकटों से निपटने की जगह आसन्‍न संकट पैदा करने वालों से सहयोग नहीं कर सकते, उनके साथ सहयोग करने की पहली शर्त है उनमें भी उस संकट का बोध हो और आपकी परिभाषा के अनुसार सबसे अधिक सकटग्रस्‍त वे हैं जो हमारे लिए खतरा बनते जा रहे हैं, इसलिए नम्रता और सहयोग की मांग और उसके लिए उचित मनोवैज्ञानिक पर्यावरण तैयार करने की जिम्‍मेदारी उनकी होनी चाहिए न कि हमारी । कितना हास्‍यास्‍पद है यह प्रस्‍ताव कि भाई तुम लोग सबसे अधिक संकटग्रस्‍त हो। हम तुम्‍हें बचाना चाहते हैं, तुम हमारी मदद ले लो और वह इस उदारता काेे आपकी असमर्थता मान कर आप के साथ अधिक अमानवीय व्‍यवहार करता चला जाए। आपकी सद्भावना उसकी दुर्भावना के लिए प्रेरक का काम करे, आप अपने ही विचारों से अपने विनाश केे आयोजन में सहायक हों, यह बात मेरी समझ में नहीं आती ।”

एक तो मुझे शास्‍त्री जी का उत्‍तर नहीं सूूझ रहा था, दूसरे यह भी देख रहा था कि कोई समीचीन उत्‍तर हो तो भी वह उनकी समझ में इस समय नहीं उतर सकता । मैं चुप रहा, चिन्तित और सोचता हुआ।

”मेरी चुप्‍पी नेे शास्‍त्री जी को प्रोत्‍साहित ही किया, ”वे आज भी उसी सिद्धान्‍त पर काम कर रहे हैं। मुसलमान हिन्‍दू के साथ शान्ति से नहीं रह सकता इसलिए दोनों का देश बांट देा और आबादी को अपने अपने देश में बसाओ जिससे वे शान्ति से रह सकें। जब तब आबादी का पुनर्वास नहीं हो जाता है तब तक दोनों देश अपने अपने अल्‍पमतों की सुरक्षा करें। यही तो था जिन्‍ना का प्रस्‍ताव । हमारे नेताओं ने अपने को दूसरों से अधिक उदार दिखाने के लिए जो मूर्खता की उसकी सबसे अधिक हानि केवल हिन्‍दुओं को उठानी पड़ी है, इसे चाहे आप तीनों देशों की आबादी के रैखिक अंकन से समझेंं, या उनकी सुरक्षा और संपन्‍नता से।
राजनीति सद्भावना का तमाशा नहीं है, जीवन की कठिन समस्‍याओं के सर्वोत्‍तम समाधान का दूसरा नाम हैै । हमने राजनीतिक परिपक्‍वता का परिचय नहीं दिया, चापलूसी से दूसरों का दिल जीतने का प्रयोग किया, जिसका परिणाम उल्‍टा रहा । जितनी ही उदारता दिखाई उतनी की हठधर्मिता का विस्‍तार हुआ । कश्‍मीर में हिन्‍दू मुसलमान सभी रहते थे, वह एक प्रयोगशाला थी आपसी सद्भाव की, परन्‍तु परिणाम । जिन राज्‍यों में सेकुलरिज्‍म के दिखावे की ओट में मुस्लिम वोट बैंक के लिए उनकेे साथ सदाशयता बरती गई उनमें राष्‍ट्रद्रोही गतिविधियों का विस्‍तार हुआ और किसी छोटी सी बस्‍ती या नगर में जनसंख्‍या का अनुपात बदलते ही वहां किसी हिन्‍दू का सम्‍मान से रहना असंभव हो जाता है। आतंकवा‍दियों की गतिविधियां बढ़ जाती हैं । बम बनाने के कारखाने खुल जाते हैं। वेस्‍ट ऐंड द रेस्‍ट का संकट तो दूर है, हमारे लिए तो रेस्‍ट और अनरेस्‍ट की समस्‍या सबसे उग्र है और इसे आप जैसों की समझ ने अधिक उग्र बनाया है। ”

मुझसे तत्‍काल कोई ऐसा उत्‍तर देते नहीं बन पा रहा था जिससे शास्‍त्री जी को शान्‍त कर सकूं । कहा, यदि जिस काम से इधर आए थे यदि उसके कारण आपको इधर ही रुकना हो तो कल हम इस पर बात करेंगे । आज तो मुझेे स्‍वयं भी इसका उत्‍तर नहीं सूझ रहा है । हो सकता है मेरी स्थिति को देख कर कोई दूसरा मेर सहायता को आ जाए ।”

क्‍या आपके पास कोई सही समाधान है । शास्‍त्री जी तो कल फिर आने को कह कर चले गए।

Post – 2016-12-22

ये काम किसने किया था ये काम किसका था

मैं दैनन्दिन की घटनाओं पर लिखने से बचता हूं । कारण दो हैं, एक तो समझ की कमी, दूसरे जितनी जल्‍दी लोग अपनी प्रतिक्रियाएं झोंकना आरंभ कर देते हैं, सचाई के दूसरे पहलूू सामने आने पर उसका चरित्र ही बदल जाता है। इसके आने में समय लगता है और तक तक वह विषय बासी हो चुका रहता है । इसलिए मेरे लिए आकड़ों से अधिक प्रवृत्ति या दिशा अधिक सार्थकता रखती है। कुशीनगर में प्रधानमन्‍त्री के व्‍याख्‍यान के समय ही उनकी कायिक भाषा से मुझेे लगा था कि अपने संकल्‍प और सदिच्‍छा के बाद भी वह ऐसी उलझन के शिकार हो चुके हैं जिससे बाहर निकलने का रास्‍ता सूझ नहीं रहा है और जिसकी प्रकृति ऐसी है कि उसका खुलासा सार्वजनिक रूप से नहीं किया जा सकता, क्‍योंकि उससे समस्‍या अधिक असाध्‍य होती चली जाएगी। मैंने आगे चलकर जनसाधारण को होने वाली कठिनाइयों के दौर के कुछ अधिक खिचने और इस बीच जनता के धैर्य के चुकने की आशंका को देखते हुए केवल यह कामना की थी कि इसके परिणाम शुभ हों अत: बीच की परेशानियों पर किसी टिप्‍पणी की आवश्‍यकता न थी। यह चुटकी लेने और चुटकी बजाने वालों की शगल का हिस्‍सा था जिसकी बानगियांं देखने को मिलती रहीं।

मेरे लिए निराशा का बहुत बड़ा कारण 5000 से अधिक की राशि जमा करने के साथ इस बात का स्‍पष्‍टीकरण देने का फर्मान था कि उन्‍होंने अब तक यह राशि क्‍यों जमा नहीं की । यह मोहभंग का और एक बहुत बड़े संकट का संकेत था, क्‍यों‍कि कोई भी व्‍यक्ति अपने ही आश्‍वासन को बदल नहीं सकता । सरकार तो कदापि नहीं । इससे केवल आर्थिक असुविधा नहीं पैदा होती, सरकार की साख समाप्‍त हो जाती है और इतना बड़ा खतरा मोल लेने वालों की दुर्गति का तो इससे पता चलता था, परन्‍तु इतना अक्षम्‍य कदम उठाने काेे मैं अपने तई सरकार की सबसे बड़ी हार मानता था। यह उस विकल्‍प से अधिक खतरनाक था जिसमें प्रधानमन्‍त्री ने कहा था कि मेरा क्‍या, मैं तो झोला उठाऊंगा चल दूंगा । यह विकल्‍प अपने आश्‍वासन से पहलटने से अधिक खतरनाक था। भीड से बचने के लिए यह सरकार का ही सुझाव था कि कोई जल्‍दी नहीं है, अपने पैसे आप 31 दिसंबर तक जमा करा सकते हैं और उनसे इसके बाद किसी तरह की सफाई की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। यह वादा खिलाफी थी और ऐसे में यदि सरकार किसी आर्थिक संकट में बांड आदि निकालने का प्रस्‍ताव रखती है तो उसकी विश्‍वसनीयता तक समाप्‍त हो जाती है ।

मैंने इसे एक बहुत बड़े संकट के रूप में तो देखा ही पहली बार इसके प्रस्‍तावकों की समझ और नीयत तक पर सन्‍देह पैदा हुआ । अच्‍छा है, दबाव में ही सही इस आदेेश निरस्‍त कर दिया गया। कालाबाजारी और जमाखाोरी समप्‍त करने के इस अभियान के पीछे जनसाधारण का भी उतना ही प्रबल समर्थन न होता तो विविध माध्‍यमों से जिस तरह के उकसावे दिए जा रहे थे उसमें जाने क्‍या हो सकता था। कहें यह नरेन्‍द्र मोदी का अपना निर्णय नहीं अपितु जनता की चिरप्रतीक्षित आकांक्षा का क्रियान्‍वयन था जिसने इतनी असुविधाओं के बीच भी उसके आत्‍मविश्‍वास को डिगने नहीं दिया। उसके लिए इतना आश्‍वासन ही पर्याप्‍त था कि उसकी परेशानी को कम करने के लिए सरकार अनवरत प्रयत्‍न कर रही है और उसकी असुविधा उन भ्रष्‍टों और जमाखोरों की शरारत से पैदा हुई है जिसका पूर्वाभास यदि सरकार को था भी तो उसका सही आकलन करने में उससे चूक तो हुई परन्‍तु वे बच कर निकल नहीं पाएंगे ।

जनता के इस अभूतपूर्व समर्थन और दृढ़ता के भरोसेे प्रधानमंत्री का आत्‍मविश्‍वास भी लाैैटा है और स्‍वर और कायिक भाषा में भी परिवर्तन आया है। परन्तु परेशानी बहुत जल्‍द दूर नहीं होने वाली है इसका आभास भी बना रहा है।
मैं आज इस विषय को अपने विषय से हट कर क्‍यों ले बैठा इसका एक कारण है। आज एक मित्र की टाइम लाइन पर 2000 के नये नोटों के इतने भोंड़े और शरारतपूर्ण नकल वाले तीन नोट देखने को मिले जिन्‍हें मैं साझा करना चाहूंगा कि उसे देख कर ही इसका सही चरित्र समझा जा सकता है। इनको पेश करते हुए नीचे रिजर्वबैंक के गवर्नर से इसका स्‍पष्‍टीकरण तो मांगा ही गया है, एटीएम का उपयोग करने वालों को इस विषय में कुछ नेक सलाह भी दी गई है जो उनके लिए उपयोगी हो सकती है।

परन्‍तु इस सलाह से यह भी ध्‍वनित होता है कि इनको एक ही क्रम में रखा गया था जिसके पीछे एक गहरा षड्यन्‍त्र हो सकता है, इसलिए जवाबदेही रिजर्व बैंक के गवर्नर की जितनी है उससे अधिक हमारी और उनकी भी है जिन्‍होंने यह जवाब रिजर्व बैंक के गवर्नर से मांगा। मेरी शिकायत यह है कि वे पढ़ेे लिखे, कई बार तो खासे पढ़े, खासे लिखे और खासे अनुभवी होते हुए भी उस तरह की नासमझी क्‍यों करते हैं जिसे अनपढ़ गंवार भी न करना चाहेगा । इसका कारण उनका ज्ञान या अज्ञान नहीं है, अपितु उनकी विवेकहीनता और विमुखता है जिसमें गंवारों को भी जो दीख जाता है वह उन्‍हें दीखता ही नहीं, इसलिए वे कमियों का आविष्‍कार करते हैं और प्रयत्‍न करते हैं कि उनकी बात लोग अब तो मान लें, पर उसे उनकी जमात से बाहर कोई मान नहीं पाता और यह जमात सुशिक्षित होतेे हुए भी रहस्‍यमय कारणों के इतनी अशिष्‍ट है कि यह असहमति को सहन नहीं कर सकती, अपने पक्ष में सही तर्क नहीं दे सकती और उनका कायल न होने वालों से गालियों की भाषा में बात कर सकती है और स्‍वयं अभिव्‍यक्ति के संकट का रोना रो सकती है। सुपठित हो कर ये पढ़ना तक नहीं जानते और अपने गलत पाठ पर विश्‍वास करने का दबाव डालते हैं।

पाणिनीय शिक्षा में कुपाठियों का लक्षण इन शब्‍दों में बयान किया गया है : गीती, शीघ्री, शिर:कंपी यथालिखित पाठक: । यह है तो उच्‍चारण के सन्‍दर्भ में पर इसे विचार पर भी लागू किया जा सकता है । बार बार एक ही राग अलापना, कोई पैशुनी सूचना मिलते ही झटपट उसे मान लेना, आपस में एक दूसरे का अनुमोदन करना आैैर जो लिखा है उसका मर्म समझे बिना उसका शब्‍दश: अर्थग्रहण ये सभी लक्षण या कुलक्षण इन सुपठित माने जाने वालों में मिल जाएंगे।

यदि यह सोचा जाय कि नोटबन्‍दी के माध्‍यम से जमाखोरी और कालाबाजारी का निर्णय बिना तैयारी के लिया गया तो इसका जवाब इसकी असुविधा भोगने वाली वह जनता देती है कि इसे और पहले लिया जाना चाहिए था। फिर भी पहले या बाद के साथ समुचित तैयारी का प्रश्‍न तो बना ही रह जाता है। उसके बिना कोई लाभ किसी को नहीं मिल सकता और यह सच है कि यह कठोर निर्णय लेने वालों को इस बात का ज्ञान तो था कि भ्रष्‍टाचार और जमाखोरी बहुत बड़े पैमाने पर है, उस पैमाने का सही ज्ञान नहीं था, न हो सकता था।

इसका आयाम इतना विस्‍तृत है कि छोटा दूकानदार, यहां तक कि पटरी पर रेढ़ी लगाने वाला तक इसमें शामिल है, निन्‍यानबे प्रतिशत नागरिक इसमें शामिल हैं जो बिना पर्चे के सामान इसलिए खरीदते हैं कि दूकानदार धमका देता है कि परचा लेने पर टैक्‍स की रकम भी देनी पड़ेगी और यह समझ नहीं पाता कि इस धमकी की आड़ में उसने उचित मूल्‍य से कितना अधिक वसूल कर लिया या नकली माल थमा दिया। मेरे पुराने आवास के सामने साग सब्‍जी की रेढ़ी लगाने वाला एक दिन मौज में बता रहा था कि उसने गांव पर कितनी जायदाद बनाई है और कितने खोले दल्‍लूपुरा में खरीद लिए हैं, यद्यपि वह सदा इस बात के लिए तत्‍पर रहता था कि आप सब्‍जी ढो कर क्‍यों ले जाएंगे, मेरा लड़का अर्थात् सहायक पहुंचा देगा। फल की रेढ़ी लगाने वाले की स्थिति वही थी। पुराना मकान बेचने और नया खरीदनेे वाले सभी एक अनिवार्य कालेधन की कवायद से गुजरते हैं और इस अदृश्‍य स्‍तर से ऊपर आता है रिश्‍वतखोरों, जमाखोरों, घूसखोरों, मिलावट करने वालों, अपराध करने वालों और राजनीति का कारोबार करने वालों केे व स्‍तर जिसकी ओर ही हमारा ध्‍यान जा पाता है ।

अब यदि शहरी जमात का नब्‍बे प्रतिशत और गांवों देहतोंं का दस पांच प्रतिशत भ्रष्‍टाचार से जुड़ा है तो सरकार के इस अभियान को इतना बड़ा समर्थन कहां से मिल रहा है कि असुविधा का रोना रोने वाले भी इसे सही कदम मानते हैं और इनकी संख्‍या शहरों में भी कम प्रभावशाली नहीं है । इसका एक कारण यह कि गांव देहात का नब्‍बे प्रतिशत आदमी भ्रष्‍टाचार का इतने स्‍तरों पर और इतने रूपाें में सामना करता है कि वह उस पीड़ा के सामने अपने इन कुछ महीनों के दुख को सहने के लिए तैयार है । परन्‍तु शहरों में किसी न किसी तरह अपने को दागी होने से बचा न पाने वाले भी जानते हैं कि इससे मुक्ति पाए बिना देश का कल्‍याण नहीं इसलिए नगरों से ले कर देहातों तक असुविधाओं को झेलते और त्रासदियों की कतिपय मार्मिक कहानियां सुनते हुए भी वे उससे अधिक दृढ़ता से इसका समर्थन करते दिखाई देते हैं कि इसकी पहल करने वाले प्रधानमन्‍त्री के डगमगाते आत्‍मविश्‍वास को भी सहारा दे सकें ।

अब हम उस विडंबना को समझना चाहेंगे, जिसकेे कारण एक सुचिन्तित योजना के क्रियान्‍वयन में जो बाधाएं आई उनका पूर्वानुमान इसका निर्णय लेने वाले भी न कर सके और यह योजना भितरघात का शिकार हो गई । उसे मैं निम्‍न रूप में समझ पाया हूं, पर अर्थशास्‍त्र की सीमित जानकारी के कारण मैं यदि गलत मिलूं तो आप मेरी गलतियों को सुधार सकते हैं:
1. मैं यह मानता रहा हूं कि बैंक प्रणाली में व्‍यापक भ्रष्‍टाचार है और इस भ्रष्‍टाचार को बढ़ाने में पिछली सरकार की सदिच्‍छा पूर्वक, बेरोजगारी और साधनों की कमी को दूूर करने के लिए उदार किश्‍तों पर उधार देने की योजना रही जिसका पूर्वानुमान वह भी नहीं लगा सकी। इन कर्जो या उधार धन के लिए जो औपचिारिकताएं हैं उनको पूरा करने के क्रम में बैंक अधिकारियों/ कर्मचारियों और दलालों का ऐसा भ्रष्‍ट तन्‍त्र पैदा हुआ जिसका सबसे दारुण पक्ष किसानों के ट्रैक्‍टर अादि के नाम पर उदार लोन के दो तिहाई जुटाने और अदायगी के समय पूरी रकम पर व्‍याज सहित अदा करने की किश्‍तों के इस आशा में जुटते जाने से कि संभव है सरकार की चुनाव आदि के समय माफी की घोषणा से इससे राहत मिल जाय और अन्‍तत: अपने आत्‍मसम्‍मान पर बन आने के कारण उस व्‍यक्ति के मोहभंगजनित आत्‍महत्‍याओं के रूप में सामने आया। यह आर्थिक दुर्गति का परिणाम न था, जिस रूप में प्रेस और विशेषज्ञ इसे पेश करते रहे, क्‍योंकि उस परिवार के शेष लोग उन्‍हीं स्थितियों में जीवित रहे ।

मैं किसानों की आत्‍महत्‍याओं और बैंक के भीतर व्‍याप्‍त भ्रष्‍टता की ओर आप का ध्‍यान दिलाना चाहता था और इन्‍हीं बैंको और बैंक अधिकारियों के माध्‍यम से सरकार को अपनी योजना को कार्यान्वित करना था। इन्‍होंने सरकार की ओर से सुलभ धनराशि को जमाखोरों और कालाबाजारियों से मिल कर किस तरह का कृत्रिम अभाव पैदा किया उसकी कहानियां छन कर आ रही हैं।
उनके विरुद्ध कार्रवाइ्र होगी, यही जनता के लिए बहुत बड़ा आश्‍वासन है।

2. जिन भ्रष्‍ट दलों ने ज्ञात और अज्ञात कारणों से इस अभियान के विरुद्ध मोर्चा खोल लिया उनसे जुड़ी़ यूनियनें भी थीं और मेरी जानकारी में बैंकों और जीवन बीमा निगम की यूनियनें बहुत प्रभावशाली रही हैं और इनकी पहुंच सभी बैंकों, यहां तक कि रिजर्व बैंक तक रही है। केवल कुछ भ्रष्‍ट अधिकारियों के कारण इतने बड़े पैमाने पर घोटाला नहीं हो सकता था जब तक अकथित रूप में इसके पीछे उन यूनियनों का हाथ न हो जो उन दलों के प्रभाव में रही हैं जो नोटबन्‍दी का नंगई के स्‍तर पर उतर कर भी विरोध कर रहे थे।

3. आश्‍चर्यजन यह है कि इसके पीछे रिजर्वबैंक की भी संलिप्‍तता पाई गई और उनके विरुद्ध कार्रवाई आरंभ की गई ।

4. मेरे लिए अज्ञात कारणों से पिछले दौर में एक ही अंक के अनेक नोट छाप कर निकाले गए थे, परन्‍तु उनमें नकल इतनी भोंडी नहीं थी कि जिसके हाथ में कोई नोट आए वह उसी समय यह तय कर ले कि यह नकली या डुप्लिकेट हो सकता है।

5. नए नोटों में एक ही नोट में एक जगह एक नंबर दूसरी जगह दूसरा नंबर, और एक के बाद एक कई नोटों में क्रम और संख्‍या की वे गड़बडि़यां जो एक साथ बैंक या एटीएम से जारी हों और तत्‍काल नोटिस में आ जाएं, यह क्‍या सरकार के निर्देश या गवर्नर की सहमति से किया जा रहा था।

6. यदि नहीं तो असंतुष्‍ट और इस अभियान का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों की यूनियनों की इसमें भागीदारी असंदिग्‍ध है जो उसेे विफल करने के लिए कृत संकल्‍प हैं।

7. यूनियनों के समर्थन की आशंका मेरे मन में पैदा न होती यदि बैंक कर्मचारियों ने विरोध प्रदर्शन न किया होता। अपराधी के पकड़े जाने पर दूसरा कोई उसका साथ नहीं देता। यदि उसके साथ दूसरे भी खड़े होते हैं तो मुझे यह सोचने का पर्याप्‍त कारण मिलता है कि यह उन दलों से जुड़ी यूनियनों की मिली भगत और भ्रष्‍ट कर्मचारियों अधिकारियों और देश के कालाबाजारियों के मिले जुले तन्‍त्र का परिणाम है।

इन विषम परिस्थितियों में इतनी विकट समस्‍या का अन्तिम समाधान निकालने के लिए कृत संकल्‍प सरकार की मैं भूरि भूरि प्रशंसा करता हूूूं और घबराहट में अपनी साख दांव पर लगाते हुए अपने ही आश्‍वासन से पीछे हटने के लिए उसकी भर्त्‍सना करता हूं और आशा करता हूं कि अपनी सरकार गिरने की स्थिति में भी वह सरकार की विश्‍वसनीयता को दाव पर न लगाएगी।

Post – 2016-12-21

शान्ति के लिए युद्ध

शान्ति की कामना और इसके लिए प्रयत्‍न सभ्‍यता की कसौटी है तो युद्ध जघन्‍यतम अपराध का महिमामंडन है। विश्‍व के ज्ञात इतिहास में इसकी कामना और इसके लिए प्रयत्‍न भारत में आज से पांच हजार साल से और संभव है उससे भी कुछ पहले से मिलती है, परन्‍तु हमने इसे उन भयानक संघर्षो के अनुभवों से प्राप्‍त किया था जिनके कई तरह के आख्‍यान हमारे प्राचीन साहित्‍य में मिलते हैं। यह हिंसक उपायों की व्‍यर्थता के बोध का परिणाम था, परन्‍तु इसके बाद भी ऐसा कोई समय भारतीय इतिहास में भी नहीं आया जब इसका अविकल निर्वाह संभव हुआ हो। इसका प्रधान कारण रहा है शान्ति की आड़ में दूसरों का शोषण अर्थात् जिन्‍होंने अपने श्रम से अपने जीवन यापन के उपादानों का उत्‍पादन नहीं किया, उनके द्वारा किसी भी युक्ति से दूसरों के द्वारा उत्‍पादित उपादानाें का अपहरण अथवा प्रकृति की निष्‍ठुरता के कारण श्रम के बाद भी अपने निर्वाह के लिए उन सुविधाओं को न प्राप्‍त कर पाना जो प्रकृति की उदारता के कारण दूसरे क्षेत्रों में बसने वालों द्वारा अल्‍प श्रम से ही प्रचुर मात्रा में प्राप्‍त हो जाते रहे हैं ।

प्राय: इन दोनों के मिले जुले रूप सभी सभ्‍यताओं में और यहां तक कि सभ्‍यता से पहले की अवस्‍थाओं में भी पाए जाते रहे हैं। हम यदि इसे अधिक गहराई से समझना चाहें तो समस्‍या अधिक जटिल होती जाएगी क्‍योंकि इसके सभी सूत्रों को तलाश पाना भी अनेक पड़तालों के बाद ही संभव है।

मोटे तौर पर युद्ध और शौर्य के गौरव का आधार रहा है, अन्‍याय का उन्‍मूलन और अन्‍यायियों से अपनी रक्षा के लिए सामरिक तैयारी और यह इस तैयारी में शिथिलता न आने पाए इसलिए अपनी ओर से भी आक्रामण और शक्ति विस्‍तार का प्रयत्‍न जो क्षेत्रविस्‍तार और बड़े साम्राज्यों की स्‍थापना का कारण बना ।

स्‍थायी शान्ति के लिए अन्‍यायियों का उन्‍मूलन और इसलिए बिना उनकी ओर से किसी उकसावे के उन पर आक्रमण और संहार मूल्‍य प्रणाली की भिन्‍नता के कारण भी रहा है परन्‍तु इनके बीच सनातन वैर के मूल में यह तथ्‍य रहा है कि एक मूल्‍य प्रणाली दूसरी के अस्तित्‍व में बाधक रही है।

यह मामूली भिन्‍नता हत्‍या, चोरी, लूट, ठगी या धोखाधड़ी के उन सभी अपराधों का समाहार होने के बाद भी युद्ध को गौरवान्वित कर देती हैं क्‍यों कि छोटे पैमाने पर किए जान वाले अपराध व्‍यक्तिगत लाभ्‍ा के लिए किए जाते हैं, जब कि युद्ध में वही काम अपने प्राणों को उत्‍सर्ग करने के लिए तैयार हो कर पूरे समाज, समुदाय या देश्‍ा के व्‍यापक हित के लिए किया जाता है।

कहें शान्ति और युद्ध के अपने दर्शन तैयार किए जा सकते हैं, परन्‍तु समस्‍त मानवता का ध्‍यान रखते हुए यह मोटी समझ बनती है कि यदि हम मानव ऊर्जा को हिंसा, अपराध और युद्ध पर न बर्वाद करें तो मानवता अपनी समग्र ऊर्जा के धनात्‍मक और सहयोगी उपयोग से उन ऊंचाइयों को हासिल कर सकती है जिसकी आज हम कल्‍पना भी नहीं कर सकते। इसलिए विश्‍वशान्ति की वह कामना जो भारतीय मनीषा में हजारों साल से रही है फलीभूत नहीं हो पाई उसकी कामना पश्चिम में, मेरी समझ से जो गलत भी हो सकती है, भारतीय मनीषा से परिचय के बाद, पैदा हुई जिसका एक संक्षिप्‍त इतिहास हिंदी विकीपीडिया में सुलभ हुआ जिससे मैं इस रूप में अवगत भी नहीं था न ही संभव है, आप ने भी ध्‍यान दिया होे। उसे मैं यथातथ्‍य उद्द्धृत करना चाहूंगा:

”राष्ट्रों के एक शांतिपूर्ण समुदाय की अवधारणा की रूपरेखा तो बहुत पहले 1795 में बह गई थी, जब इम्मानुअल कैण्ट की परपेचुअल पीसः ए फिलोसोफिकल स्केच[5] में एक राष्ट्रों के संघ के विचार की रूपरेखा रखी थी, जो राष्ट्रों के बीच संघर्षों को नियंत्रित करे और शांति को प्रोत्साहित करे. वहीं कैंट ने एक शांतिप्रिय विश्व समुदाय की स्थापना के लिए तर्क दिया कि यह इस अर्थ में नहीं होगा कि कोई वैश्विक सरकार बने, बल्कि इस आशा के साथ कि प्रत्येक राष्ट्र खुद को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करेगा, जो अपने नागरिकों का सम्मान करे और विदेशी पर्यटकों का एक तर्कसंगत साथी प्राणी के रूप में स्वागत करे. यह इस युक्तिकरण में है कि स्वतंत्र राष्ट्रों का एक संघ होगा जो वैश्विक रूप से एक शांतिपूर्ण समाज को प्रोत्साहित करेगा, इस प्रकार अंतरराष्ट्रीय समुदायों के बीच एक अनवरत शांति कायम हो सकेगी.
”सामूहिक सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए यूरोप समारोह में उत्पन्न अंतर्राष्ट्रीय सहयोग नेपोलियन युद्धों के बाद उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय राष्ट्रों के बीच यथास्थिति को बनाए रखने और युद्ध को टालने के लिए विकसित हुआ। इस अवधि में पहले जिनेवा सम्मेलन में भी युद्ध के दौरान मानवीय सहायता के लिए कानून स्थापित होने तथा 1899 और 1907 के अंतर्राष्ट्रीय हेग सम्मेलन में युद्ध के बारे में तथा अंतर्राष्ट्रीय विवादों के शांतिपूर्ण हल के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का विकास हुआ।
”शांति कार्यकर्ताओं विलियम हैंडल क्रीमर और फ्रेड्रिक पासी ने 1889 में राष्ट्र संघ के पूर्ववर्ती अंतर्संसदीय संघ (आईपीयू (IPU)) का गठन किया था। यह संगठन विस्तार में अंतर्राष्ट्रीय था जिसमें 24 देशों की संसदों के एक तिहाई सदस्य शामिल थे, जो 1914 तक आईपीयू (IPU) के सदस्यों के रूप में कार्यरत थे। इसका उद्देश्य सरकारों को अंतरराष्ट्रीय विवादों को शांतिपूर्ण तरीकों और मध्यस्थता के माध्यम से हल करने के लिए प्रोत्साहित करना था और सरकारों द्वारा अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता की प्रक्रिया को निखारने के लिए वार्षिक सम्मेलन आयोजित किए गए। आईपीयू (IPU) की संरचना में एक अध्यक्ष की अध्यक्षता में एक परिषद शामिल थी जो बाद में राष्ट्रसंघ की संरचना में भी परिलक्षित हुई.
”बीसवीं शताब्दी की शुरूआत में यूरोप की महाशक्तियों के बीच गठबंधन के माध्यम से दो शक्ति केंद्र उभरे थे। 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ होने के समय ये गठबंधन प्रभावी हुए थे, जिसके कारण यूरोप की सभी बड़ी शक्तियां इस युद्ध में शामिल हो गई थी। औद्योगिक राष्ट्रों के बीच यूरोप में यह पहला बड़ा युद्ध था और यह पहला मौका था कि पश्चिमी यूरोप में औद्योगीकरण के् परिणामों (उदाहरण के लिए व्यापक स्तर पर उत्पादन) को युद्ध को समर्पित किया गया था। इस औद्योगिक युद्ध के परिणामस्वरूप हताहतों की संख्या अभूतपूर्व थी, जहं 85 लाख सशस्त्र सेनाओं के सलस्य मारे गए थे और अनुमानतः 2 करोड़ 10 लाख लोग घायल हुए थे तथा करीब एक करोड़ नागिरक मारे गए थे।
”1918 में जब तक युदध समाप्त हुआ युद्ध ने बहुत गहरे प्रभाव छोड़े थे, पूरे यूरोप में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तंत्रों को प्रभावित किया था तथा उप महाद्वीप को मनोवैज्ञानिक और शारीरिक क्षति पहुंचाई थी। दुनिया भर में युद्ध विरोधी भावना उभरी, प्रथम विश्व युद्ध को “सभी युद्धों का अंत करने वाला युद्ध” बताया गया था। पहचाने गए कारणों में हथियारों की दौड़, गठबंधन, गुप्त कूटनीति और संप्रभु राष्ट्र की स्वतंत्रता शामिल थे जिनकी वजह से वे अपने हित में युद्ध में गए थे। इनके उपचारों के रूप में एक ऐसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन की रचना को देखा गया जिसका उद्देश्य निरस्त्रीकरण, खुली कूटनीति, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, युद्ध छेड़ने के अधिकार पर रोक तथा ऐसे दंड जो युद्ध को राष्ट्रों के लिए अनाकर्षक बना दे, था।
”जबकि प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था फिर भी, बहुत सी सरकारों और समूहों ने पहले से ही युद्ध की पुनरावृत्ति को रोकने की दृष्टि से, जिस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय संबंध चल रहे थे, उनको बदलने की योजनाएं बनाना शुरू कर दिया था। संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति वूड्रो विल्सन और उनके सलाहकार कर्नल एडवर्ड एम हाउस ने उत्साह से प्रथम विश्व युद्ध में देखे गए रक्तपात की पुनरावृत्ति को रोकने के एक माध्यम के रूप में संघ के विचार को प्रोत्साहित किया और संघ बनाना विल्सन के चौदह सूत्री शांति कार्यक्रम का केंद्र था।[19] विशेष रूप से अंतिम बिंदु में प्रावधान थाः “बड़े और छोटे राष्ट्रों के लिए समान रूप से राजनीतिक स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता की परस्पर गारंटी देने के उद्देश्य से विशिष्ट कानूनों के अंतर्गत राष्ट्रों का एक महासंघ बनाया जाना चाहिए.”[20]
”अपने शांति सौदे की विशेष शर्तों का मसौदा तैयार करने से पूर्व विल्सन ने यूरोप की भू-राजनैतिक स्थिति का आकलन करने के लिए जो भी जानकारी आवश्यक हो उसे संकलित करने के लिए कर्नल हाउस के नेतृत्व में एक दल का गठन किया। जनवरी 1918 के आरंभ में विल्सन ने हाउस को वॉशिंगटन बुलाया और दोनों पूर्ण गोपनीयता के साथ गहन मंत्रणा में लग गए, 8 जनवरी 1918 को राष्ट्रपति द्वारा अनजान कांग्रेस को राष्ट्र संघ पर पहला भाषण दिया गया।
”विल्सन की संघ के लिए अंतिम योजनाएं दक्षिण अफ्रीकी प्रधानमंत्री यैन क्रिस्टियन स्मट्स से अत्यधिक प्रभावित थी। 1918 में स्मट्स ने राष्ट्र संघः एक व्यावहारिक सुझाव शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया था। एप एस क्राफोर्ड द्वारा लिखी स्मट्स की आत्मकथा के अनुसार विल्सन ने स्मट्स के “विचार और शैली दोनों” को अपनाया था।
”8 जुलाई 1919 को, वुडरो विल्सन संयुक्त राज्य अमेरिका लौटे और उनके देश के संघ में प्रवेश के लिए अमेरिकी लोगों का समर्थन सुनिश्चित करने के लिए एक देशव्यापी अभियान में लग गए। 10 जुलाई 10 को, विल्सन ने सीनेट को संबोधित करते हुए घोषणा की कि “एक नई भूमिका और एक नई जिम्मेदारी इस महान राष्ट्र के सामने आई है, जिसको हम आशा करते हैं कि हम सेवा और उपलब्धि के और उच्च स्तर तक ले जाएंगे.” सकारात्मक स्वागत, खास कर रिपब्लिकनों की तरफ से, अति दुर्लभ.”

राष्‍टसंघ के विफल होने के जो कारण थे उन्‍हें दूर करते हुए संंयुुक्‍त राष्‍ट्रसंघ की स्‍थापना हुई दूसरे महायुद्ध के बाद । परन्‍तु क्‍या दुनिया में शान्ति है ? यदि नहीं तो क्‍यों नहीं । प्रथम महायुद्ध की विभीषिका केे अनुभ्‍ाव ने यह बोध जगाया कि अब आगे से सारे झकड़े आपसी पंचायत से निपटा लिए जाएं और जो भी इसकी अवमानना करे उसके विरुद्ध संयुक्‍त राष्‍टसंघ की शान्ति सेना कार्रवाई करेगी, परन्‍तु यह कहीं न कहा जा सकता था, न कहा गया कि इसका नियन्‍त्रण उसके हाथ में रहेगा जो इस संस्‍था का खर्च उठा सकेगा और यह उसके अन्‍याय को सही ठहराने और उसकी मनमानी को बढ़ावा देने वाली संस्‍था बन कर रह जायेगी।

युद्ध को रोकनेे के प्रयत्‍नों के बाद भी युद्ध जारी है। इसकी प्रकृृति में इतना अन्‍तर आया है कि पहले के दोनों महायुद्ध युराेेप के राष्‍ट्राेें के बीच लड़े गए थे और उसकी सबसे अधिक क्षति गोरों को उठाना पड़ा था यद्यपि अमेरिका को कोई क्षति नही हुई और उसे चौधराहट का मौका मिला, वहीं दूसरे महायुद्ध के बाद (1) सारे युद्ध अमेरिका की पहल से किए गए हैं, (2) इस बात का ध्‍यान रखा गया है कि गोरी नस्‍लों पर आच न आने पाए, (3) पहले गोरे राष्‍ट्र शेष जगत जिसे रंगीन त्‍वचा के लोगों का संसार कहा जा सकता है, उसको अपना उपनिवेश बनाने और उन उपननिवेशों के माध्‍यम सेे उनकी नैसर्गिक संपदा के दोहन और उनको अपना बाजार बनाने के लिए करते थे, वहां अकेले अमेरिका ने दूसरे महायुद्ध के बाद के सारे युद्ध स्‍वयं छेडें हैं और दोनों महायुद्धाेें में जितना विनाश हुआ था उससे अधिक विनाश इन युद्धाेें में हुआ है और वह भी अन्‍य देशों अर्थात रंगीन जगत की समस्‍त नैसर्गिक संपदा के दोहन और उसके अपने हथियारों का बाजार बनाने के प्रयोजन से उनमें कलह पैदा करने के लिए ।

यदि पश्चिम से इतर देश इस विराट योजना को समझ सकें तो उन्‍हें अापसी समझदारी से अपने विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाते हुए अमेरिका और यूरोप के दूसरे देशों के आयुध का बाजार बनने से बचना चाहिए और इस संकट को देखते हुए अपनी एक जुटता बढ़ानी चाहिए और ईसाइयत की आड़ में अपनी दखलअन्‍दाजी के क्षेत्र विस्‍तार के प्रति भी सजग होना चाहिए, परन्‍तु क्‍या यह संभव है । क्‍या यह समझ पैदा हो सकती है । क्‍या इसके विरुद्ध फैलाए जाने वाले अमेरिकी जाल से हम अवगत हो और उनसे बचने का प्रयास कर सकते हैं । भरोसा नहीं होता । दूसरों की समझ पर भी और अभी हमने जो विवेचन किया है उस पर भी नहीं, क्‍यों‍कि इतनी जटिल समस्‍याओं को समझने की अपनी योग्‍यता पर भी भरोसा नहीं है ।
फिर भी यह न भूलें कि कि संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ अमेरिका के हाथों का खिलौना है, उसके कुकृत्‍यों पर चुप्‍पी साधने और उसे रास न आने वाले मुद्दों पर बहाने तलाश कर सभी तरह के प्रतिबन्‍ध लगाने का माध्‍यम है, और इसने उसकी पहल से अफ्रीका के एक देश में विषाणुओं का प्रयोग करके उसमें महामारी फैलाने का अभियोग स्‍वयं स्‍वीकर किया था। अमेरिका अपनी दरिंदगी से भी सैन्‍य बल का प्रयोग कर सकता है और शान्ति के नाम पर संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ की शान्तिसेना का भी सामरिक उपयोग कर सकता है।

Post – 2016-12-20

मो सम कौन दलित दुखियारा

“तुम कल जो कुछ कह रहे थे वह इतना तर्क संगत था कि उसका प्रतिवाद नहीं किया जा सकता था, इसलिए मैं चुप रहा, पर फिर भी ऊब इसलिए रहा था कि तुमको सारी कमियां मुसलमानों में ही क्‍यों दिखाई देती है?”

”मेरी समस्‍या यह है कि तुमसेे बात करते हुए अक्‍सर लगता है कि मैं दीवार से बात कर रहा हूं क्‍योंकि मेरी बात सुनते हुए तुम बेचैनी में सुन्‍न हो जाते हो। सुनने के लिए प्रयत्‍न करते हुए भी नहीं सुन पाते। यदि ध्‍यान से सुन रहे होते तो मैं जैसे हिन्‍दू समाज के विषय में यह याद दिलाता हूं कि हम कौन थे, क्‍या हो सकते थे, क्‍या हो कर रह गए हैं और आगे यदि यही गति रही तो किस अवस्‍था को पहुंचेंगे तो मैं अपनी कमियां नहीं गिनाता, उसके पीछे एक वेदना होती है। हिन्‍दू समाज के बारे में यह बात हो सकता है तुम्‍हारी समझ में भी आ जाती हो, परन्‍तु मुस्लिम समाज के बारे में जब उसी पीड़ा को व्‍यक्‍त करता हूं तो तुम्‍हारी समझ में नहीं आती । तुम्‍हें छिद्रान्‍वेषण प्रतीत होता है । तुमको उनकी कमियां गिना कर अपने को श्रेष्‍ठतर सिद्ध करने का प्रयास प्रतीत होता होगा । जो दूसरों की कमियों के बल पर बड़ा बनना चाहते हैं वे छोटे होते हैं और छाटेपन बोध से पीडि़त होते हैं। मुझे शक है कि ऐसा तुम्‍हेें ही नहीं, मेरे मुस्लिम मित्रों को भी लग सकता है जिनके साथ सख्‍य स्‍थापित करने के प्रयत्‍न में तुमने उनकेे पिछड़ेपन का महिमामंडन किया है । उनकेे भय की खेती की है और उनके दुस्‍साहस को खूराक दी है । येे दोनों काम आज की दुनिया में परदों के पीछे से अमेरिका कर रहा है और उसके साथ छिपा हाथ मिलाए तुम कर रहे हो और भोले इतने हो कि तुुम्‍हें इसका पता तक नहीं ।

” तुम्‍हें उस वेस्‍ट ऐड द रेस्‍ट के हितों के टकराव का भी अनुमान नहीं जिसे मुस्लिम्स ऐंड द रेस्‍ट के रूप में क्‍लैश आफ सिविलाइजेशन्‍स के रूप में हंटिंगटन ने पेश किया था। पहले सबसे बड़े और सबसे साधनसंपन्‍न शत्रु को नकेल डालो या बदनाम करके उसे मिटाने की भूमिका तैयार करो, उसे दुनिया के लिए खतरा बताते हुए दुनिया को बचाने के लिए उसे मिटाना एक जरूरी कार्यभार बना दो और फिर उसके साथ अपनी कूटनीति और शक्ति का प्रयोग करते हुए उसे मिटा दो फिर वेस्‍ट ऐंड रेस्‍ट माइनस इस्‍लाम की जंग आसान हो जाएगी । मुझे इस बात की पीड़ा है कि न तो हिन्‍दुओं के हित संघ और भाजपा के साथ सुरक्षित हैंं न मुसलमानों के हित अपने को सेक्‍युलर अर्थात् सेक्‍युलरिस्‍ट कहने वालों के साथ सुरक्षित हैं क्‍योंकि इन दोनों का लक्ष्‍य दोनाेें समाजों में पिछड़ापन लाते, मध्‍ययुगीन प्रवृत्तियाें को उभारते हुए अपनी रोटी सेंकने की है। वहीं इनके वास्‍तविक हितों की चिन्‍ता करने वाली संस्‍थाओं या संगठनों का एेेसा अभाव है कि इनके हित रक्षक के रूप में ये ही बच रहते हैंं। दोनों का विश्‍वबोध इतना पंगु है कि वे यह नहीं समझ सकते कि वे वेस्‍ट की कारसाजी के शिकार हो रहे हैं । हमें सबसेे बड़ा खतरा उससे है जो हमें रेस्‍ट मानते हुए विश्‍व फलक से उसी तरह मिटाना चाहता है जैसे उसने अमेरिका और आस्‍ट्रेेलिया और कुछ दूर तक अफ्रीका के निवासियों को मिटाया था। उसकी योजना लंबी है, उसे किसी चीज की जल्‍दी नहीं है। बिल्‍ली चूेहे को दबोच लेने के बाद उसे कुछ कमजोर करने के बाद भागने के लिए छोड़ देती है, वह भागनेे की कोशिश करता है तो पंजों से दबोच कर फिर छोड़ देती है, क्‍योंकि वह जानती है कि अब यह मुझसे बच कर जा नहीं सकता। यही खेल वेस्‍ट का रेस्‍ट के साथ चल रहा है और इसका होश न हिन्‍दू संगठनों को है न मुस्लिम हितों का प्रतिनिधित्‍व करने वालेे सेेक्‍युलरिस्‍टों में न इनकी छत्रछाया में सुरिक्षित और निश्चिन्‍त अनुभव करने वाले मुस्लिम बुद्धिजीवियों में और हम एक ऐसे घपले के शिकार हैं जिसकी सही संज्ञा तलाशनी होगी।

”एक हिन्‍दू हित के नाम पर कहता है हम मन्दिर यहीं बनाएंगे और दूसरा कहता है हम बनने न देंगे, जो उसकी योजना का अंग है जो रेस्‍ट को चूहे की जिन्‍दगी दे कर अपना खेल खेल रहा है इस आत्‍मविश्‍वास से कि यह बच कर जाएगा कहां। आपदा में एक ही आपदा के शिकार दुश्‍मन भी दोस्‍त हो जाते हैं परन्‍तु यह समझ दुश्‍मन तो पैदा होने देना चाहेगा ही नहीं, जिनके सामने आपदा है वे भी पैदा होने नहीं देना चाहते। एक ऐसा नेता हमारे बीच है जो देश को इस संकट से बाहर ले जाना चाहता है पर उसका जनाधार जिस संगठन पर टिका हुआ है उसकी सोच वही पुरानी है। ”

”याद आता है, यह भी तुम्हारेे रागभैरवी का हिस्‍सा है । तुमने एक बार यही आशंका भारत में ईसाइयत के प्रसार के विषय में भी उठाई थी। साल पूरे हो रहे होंगे।”

”तुम्‍हारी याददाश्‍त बहुत अच्‍छी है यह चेतावनी पूरी छानबीन के बाद 15 जनवरी 2016 को दी थी कि ईसाइयों ने कतिपय अज्ञात कुलशील और अनाथ बालकों काेे यातना दे कर अधोगति में रखते हुए अपने समुदाय में दलित वर्ग का दावा करने की तैयारी कर रखी है इसकी विश्‍वसनीय जानकारी मिली थी पर तक भरोसा नही हो रहा था, अब इ जिसकी झलक चार दिन पहले उस खुलासे मेंं हुई कि ईसाइयों में अस्‍सी प्रतिशत के साथ भेदभाव किया जाता है और उन्‍हें आगे बढ़ने का अवसर नहीं मिलता। इसका भाष्‍य आना बाकी है जिसमें यह मांग की जाएगी कि दलित ईसाइयों के लिए भी आरक्षण की व्‍यवस्‍था होनी चाहिए और फिर इसके माध्‍यम से संस्‍थाओं और राजकीय सेवाओं में अपना प्रभाव विस्‍तार करने का अवसर मिलेगा। यदि तुम चाहोगे तो मैं उस पोस्‍ट को दुबारा तुम्‍हारी याद ताजा करने के लिए पेश कर दूंगा जिसमें इसकी भविष्‍यवाण्‍ाी की गई है परन्‍तु यह एक खतरनाक खेल है।”

”खतरनाक कैसे जब इसके पीछे इतनी लंगी सोच है तो ।”

”चालाक लोग भोले भाले लोगों से अधिक बड़ी गलतियां करते हैं।

”भारत में ईसाइयत के हित अमेरिका की उस योजना की याद दिलाते हैं जिसमें इन्दिरा जी के कडे़ रूख के बाद किलपैट्रिक ने भारत केे बाल्‍कनाइजेशन अर्थात इसके टुकड़े टुकड़े करने की धमकी दी थी। अमेरिका केे किसी नीतिज्ञ द्वारा किए जाने वाले दावे न तो उसके अपने व्‍यक्तिगत होते हैं न ही उसके पद से हट जाने के बाद उस योजना का काम बन्‍द कर दिया जाता है। उसे किसी बात की जल्‍दी भी नहीं रहती । हमने सीआइए की उस योजना की परिणिति देखी जिसमें 1949 में यह प्रस्‍ताव आया था कि यदि एक बिलियन डाालर मिल जायं तो वह सोवियत संघ की सेना तक में घुस पैठ बना कर उसके लिए ऐसी समस्‍या खड़ी कर सकता है कि उसे अपनी घरेलू समस्‍यायाअें से निबटने में ही सारी ताकत लगा देनी पडे । उसके बाद से सीआईए की वह योजना लगातार चलती रही। केजीबी उसके मुकाबले अपना काम करती रही पर पैसे का वह समर्थन जो सीआई ए के पास था वह केजीबी के पास न था और उसके भीतर भी अपनी पैठ बनाते हुए उसने वह स्थिति पैदा कर दी कि अमेरिका उनके सपनों का देश बन गया। उसके काउब्‍वाय जीन की ललक में सोवियत युकक और युवतियां पागल रहने लगे और अपने देश से ही विमुख होते चले गए और नौबत वह आ गई कि सोवियत संघ टूट बिखर कर अपनी रक्षा केे लिए चिन्तित देश बन कर रह गया जिसे वह जरूरत पड़ने पर पाल भी सकता है।

” मुझे अपनी सीमित जानकारी के कारण अन्‍देशा यही लगता है कि मिशनरियों ने माआेेवादियाों, वामपन्थियों को रेशमी धागों से बांधते हुुए वह स्थिति पैदा कर ली जिसमें किलपैट्रिक योजना का मुखर नाद जेएनयू के मंच से सुनाई पड़ा और वामपंथी उसके साथ खड़ेे दिखाई दिये। अपनी सीमति समझ के कारण मैं अपने निष्‍कर्षो के प्रति कभी पूरी तरह आश्‍वस्‍त नहीं हो पाता, परन्‍तु अपनी आशंकाओं से पूरी तरह मुक्‍त नहीं हो पाता।

‘ये किसी सीमा तक जा सकते हैं, अविश्‍वसनीय काम कर सकतेे हैं। जिस सचाई ने मुझे एक साल पहले विचलित किया था वह था खरीद कर या अपने संरक्षण में लिए गए बच्‍चों को योजनाबद्ध रूप में गन्‍दी और यातनापूर्ण स्थितियों में रख कर उनको दलित बनाने का अभियान जो छिपे रूप में चलता रहा और जिसमें मदर टेरेसा तक की भागीदारी थी जिनकी साख की चिन्‍ता में देखेे और जाने को भी बिसारने का प्रयत्‍न होता रहा। इस तथ्‍य को भुलाते हुए कि क्रूरता और उत्‍पीड़न के लिए बदनाम पोपों को भोलेराम या इन्‍नोसेंट और स्‍वर्गद्वार या थियोडोर जैसे मोहक नामों से पुकारा और उनके वास्‍तविक कारनामों पर परदा डाला जाता रहा।”

तुम बात कर रहे थे उनकी किसी बड़ी भूल की और ले कर एक दूसरा राग बैठ गए।

”गलती भारतीय सन्‍दर्भ में यह है कि अभी तक मिशनरियों द्वारा दलितों और जनजातियों को भारतीय या कहें हिन्‍दू समाज से बिलग करने के लिए दलितों के प्रति सवर्णों के अन्‍याय की कहानियां हमारे ‘सेक्‍युलर’ बुद्धिजीवियों से लिखवा कर प्रचारित किया जा रहा था कि वे ईसाइयत को इन बुराइयों से त्राण दिलाने वाला मान सकें, परन्‍तु अब उसी की इस स्‍वीकारेाक्ति के बाद कि दलित तबके के ईसाइयों के द्वारा भेद भाव किया जा रहा है उनके उस प्रचार की धार कुन्‍द हो जाएगी। ”

”तुम मूर्ख हो, सभी समस्‍याओं का तार्किक समाधान ही नहीं होता । वे जानते हैं कि पैसा समझदारों को भी बहरा और अंधा बना देता है, दलितों में तो यूं भी पढ़े लिखों की संख्‍या दयनीय है और उसके पढ़े लिखों के मन में हिन्‍दू समाज को सवर्ण समाज और सवर्णसमाज को उनका शत्रु दिखाते हुए इतना विमुख किया जा चुका है कि इस तरह की स्‍वीकारोक्तियों का कोई असर नहीं होने वाला।

”तुम लाोग छाेटी छोटी बातों पर उत्‍तेजित हो जाते हो। केरल के प्राइमरी स्‍कूल की मिशनरियों की पोथियों में ऐसी कहानियां पढ़ाई जा रही हैं कि एक गरीब आदमी हिन्‍दू देवता पास गया कि वह उसकी गरीबी दूर कर दें। वह दूर नहीं कर पाए। फिर वह ईसा की शरण आया और कहा उसकी गरीबी दूर कर दें और उसके बाद वह मालामाल हो गया। यह उसी सचाई का पाठ है जिसमें ईसाई बनने वालों को दो लाख दिया जा रहा है और उनकी गरीबी दूर की जा रही है । पैसे की ताकत को तुम समझ नहीं पाते और भावुकता में लाल पीले होने लगते हो। मुझे एक बिलियन डालर दो और मैं सोवियत संघ की सेना तक में खरमंडल पैदा कर दूंगा का ही दूसरा पाठ है मुझे इतना धन दो मैं पूरे भारत को ईसाई बना कर भारतविमुख कर दूंगा और वह ईसाई साम्राज्‍य का हिस्‍सा बन जाएगा। इसे क्‍या मुझे समझाना पडेगा। ”

Post – 2016-12-19

सेक्‍युलरिज्‍म का सही नाम हिन्‍दुत्‍व है

तुम्हारे साथ समस्या यह है, और यह समस्या केवल तुम्हारे साथ नहीं है, हिन्दू काठी के सभी लोगों की यह समस्या है कि तुम लोग गिरगिट की तरह रंग बदल कर अपने को बचाने और सही ठहराने का प्रयत्न करते हो, पर सही हो नहीं पाते! जब सही होते हो तो सबसे अधिक गलत होते हो और जब गलत होते हो तो दयनीय लगते हो !”

‘‘तुम कोई नई बात नहीं कर रहे हो, आज तक यही करते आए हो । यह आत्‍मप्रक्षेण है। परन्‍तु यह बताओ कि जब तुम हिन्‍दू समाज को कोसते हो, या जिसे तुमने हिन्‍दू काठी कहा, उसे कोसते हो, तो तुम्‍हारी काठी क्‍या रहती है? हिन्‍दू या हिन्‍दू से इतर ? यदि इतर तो उसकी संज्ञा क्‍या है ?’’

वह हंसने लगा, ”तुम जानते हो, उसकी संज्ञा क्‍या है। फिर भी यदि तुम भूल गए हो तो बता दूं , उसे सेक्‍युलरिज्‍म कहते हैं।”

”तुम हिन्‍दू नहीं हो, सेक्‍युलर हो।”

”मैं हिन्‍दू हो कर भी सेक्‍युलर हूं और तुम हिन्‍दू हो कर केवल हिन्‍दू रह गए हो या रह जाना चाहते हे। इससे बड़ी कोई पहचान तुम्‍हारे लिए कोई मानी नहीं रखती ।”

”अपनेे मनोचिकित्‍सक से कितने दिन पहले मुलाकात की थी तुमने ? याद न हो तो उनका नाम बताओ मैं पता लगा लूंगा। यदि नहीं है तो उसका प्रबन्‍ध्‍ा भी कर दूंगा पर उस दशा में तुम्‍हारा उससे मिलना मेरे खर्च पर रहा ।”

एक मिनट के लिए वह भौचक रह गया, फिर संभला तो मुस्‍कराने लगा,। ”जब जवाब देते नहीं बनता है तो लटकेबाजी का सरहारा लेते हाेे। आत्‍मनिरीक्षण करो तुम इतने क्षुद्र बन कर क्‍यों रहना चाहते हो ?”

”मैं तुम्‍हारा उत्‍तर ही दे रहा था पर तुम्‍हारी भाषा मेें बात करते हुए यह नहीं कहूंगा कि तुम इतने कमीने बन कर क्‍यों रहना चाहते हो, कि लाभ या ख्‍याति के लिए तुम अपना तिरस्‍कार करने को तैयार रहते हो, क्यों‍कि मैं जानता हूं तुम बीमार हो और तुम्‍हें सहानुभूति और मदद की जरूरत है।

”तुम इतने प्रतिभाश्‍ााली हो फिर भी यह नहीं जानते हिन्‍दू होना सेक्‍युलर होना भी है, परन्‍तु तुम जिस सेक्‍युलरिज्‍म की बात करते हो वह सामी मजहब है और उसे अपनानेे के बाद तुम हिन्‍दू नहीं रह सकते । अपने को धोखा अवश्‍य दे सकते हो। और य‍दि तुम हिन्‍दू होते हुए सेक्‍युलर भी होने की बात करते हो, तो तुमने हिन्‍दू ही नहीं भारत से जुड़े श्‍लाघ्‍य दायों को समझा नहीं और उसके ऐसे पहलुओं की तलाश करते रहे जिससे तुम अपने आप से घृणा कर सको, उस श्‍लाघ्‍य दाय को कुत्सित बना कर प्रस्‍तुत करते रहे । यही तुम्हारा आज भी मंगलाचरण था।

”अब तुम्‍हेें याद होगा एक बार मैंने पहले भी तुम्‍हेें आत्‍मपीड़क या मैसोकिस्‍ट कहा था, पर तब यदि कोई दुविधा थी तो आज वह दूर हो गई । तुुम तो यह भी नहीं जानते कि सेक्‍युलर का अर्थ क्‍या है । कोई व्‍यक्ति सेक्‍युलर नहीं हो सकता, वह धर्मपरायण हो सकता है, धर्म विमुख हो सकता है, उदार हो सकता है, सहिष्‍णु या असहिष्‍णु हो सकता है। सेक्‍युलर तो केवल राज्‍य या उसकी व्‍यवस्‍था हो सकती है। यह धर्मतन्‍त्र के विरोध में विकसित संकल्‍पना है जिसमें इस बात का ध्‍यान रखा जाता है कि राज्‍य अपने कार्यव्‍यापार में किसी धर्म के अनुसार न चले, किसी तरह का धार्मिक पक्षपात न करे, किसी धार्मिक समुदाय के आंतरिक मामलों में हस्‍तक्षेप न करे, कहो यह राज्‍य और धर्म के बिलगाव का सिद्धान्‍त है फिर तुम एक व्‍यक्ति होते हुए सेक्‍युलर कैसे हो सकते हो । क्‍या तुम अपने को राज्‍य समझते हो ? असंभव नहीं है, खब्‍ती लोग तो अपने को ही देश समझने लगते हैं और तुम भी ऐसी ही जमात में शामिल हो ।”

”दलील अच्‍छी दे लेते हो, पर दिमाग से काम नहीं लेते । मैं सेक्‍यलरिज्‍म का समर्थक हूै। ”

”तो कहाेे मैं सेक्‍युलरिस्‍ट हूं, जैसे कोई अपनेे का एनार्किस्‍ट, सोसलिस्‍ट, डेमोक्रैट, कम्‍युनिस्‍ट आदि कहता है। तुम तो जिन शब्‍दों का जाप करते हो उनका अर्थ तक नहीं जानते ।

”धर्मतन्‍त्र के स्‍थान पर लोकतन्‍त्र के हिमायती कहते तो अधिक सही होता, गो पूरा सही वह भी नहीं होता। सेक्‍युलरिज्‍म बहुत संकीर्ण और कुपरिभाषित शब्‍द है। यह दार्शनिक मीमांसा का शब्‍द नहीं है, अपितु राननयिक हेराफेरी का शब्‍द है इसलिए इसका देश और धर्म और समय के साथ अर्थ भी बदल जाता है ।

”मान सको तो जिन थियोक्रैट्स की मूर्खताओं का साक्षात्‍कार होने पर इसका जन्‍म हुआ उनके समर्थक भी अपने को सेक्‍युलरिस्‍ट सिद्ध करने का प्रयत्‍न करते हैं और राजननीतिक जोड़तोड के चलते उनको भाव भी दिया जाता है। तुम्‍हें इस बात का दावा करने वाले तक मिल जाएंंगे कि इस्‍लाम तो अपनी प्रकृति से ही सेक्‍युलर है। हदीस की ऐसी नजीरें दी जा सकती हैं कि पता चलेगा मुहम्‍मद साहव ने स्‍वयं कहा था कि धार्मिक मामलों में मेरे कथन का पालन किया जाय, क्‍योंकि उनका इलहाम हुआ था, परन्‍तु दुनियावी मामलों में अपनी समझ से काम लिया जाय। अब कोई पूछे कि कुरान प्रामाणिक है या हदीस तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी ? मुहम्‍मद साहब के नाम पर उनके जीवन के अनुभवों को किन्‍होंने और कब लिखा? मेरी समझ से यदि कुरान धर्म ग्रन्‍थ है तो हदीस उसका पुराण है । जिनको अपने कारनामों को सही सिद्ध करना होता है वे बार-बार कुरान का हवाला देते हैं, उसकी अपने ढंग से व्‍याख्‍या करते हैं, न कि हदीस का।

”इसका यह मतलब नहीं कि मुसलमान होने के नाते कोई अपने जीवन मूल्‍य में सेकुलरिस्‍ट नहीं हो सकता, सेक्‍युलैरिटी का पालन नहीं कर सकता, बल्कि यह कि वह इस्‍लामपरस्‍त मुसलमान हो कर सेक्‍युलरिस्‍ट नहीं हो सकता। और भारत में इस्‍लामपरस्‍ती को प्रोत्‍साहित किया गया है फिर भी हम सेक्‍युलर राज्‍य होने का भ्रम भी पालते हैं ।”

”तुम कहना चाहते हो कि ज हिन्‍दू है तो सेक्‍युलरिस्‍ट हो सकता है?”

”तुम समझ सको तो मैं यही कहना चाहता हूं कि हिन्‍दू होने के बाद अलग से सेक्‍युलरिस्‍ट होने की जरूरत नहीं रह जाती। यह भारतीय अवधारणा है और जिस श्‍लाघ्‍य आशय में इसका प्रयोग किया जाता है उसका दूसरा नाम भारतीयता है।”

वह इस तरह उछला जैसे बिच्‍छू ने डंक मारा हो, ”अजीब अहमक हो यार । इतने जाहिल, इतने बन्‍द दिमाग। यह तो मैंने सोचा ही नहीं था।”

”साेचते कब हो तुम । पढ़ते हो और मान लेते हो और उसे दुहराते हुए अपने को दूसरों से अलग समझते हो। पहले यह समझने का प्रयत्‍न करो कि यूरोप में नवजागरण की प्रेरणा एशिया से मिली और एशिया के जिस देश से मिली उसने भारतीय मनीषा को आत्‍मसात् करने का प्रयत्‍न किया था और इसीलिए दसवीं शताब्‍दी के बाद के एक छोटे से काल को अनेक विद्वान मुसलमानों के बीच भी सेक्‍युलरिज्‍म से प्रेम का काल मानते और अपने बचाव में इसका इस्‍तेमाल करते हैं। यह भारतीय प्रेरणा थी जिसने इस्‍लाम में भी आत्‍मालोचन की प्रवृत्ति पैदा की यद्यपि वह टिकाऊ नहीं सिद्ध हुई, पर उसके माध्‍यम से यूरोप में पहुंची इस सोच ने वहां नवजागरण का सूत्रपात किया और धर्मतन्‍त्र से दो दो हाथ करने की प्रेरणा मिली। सेक्‍युलरिज्‍म के समर्थक या प्रेरक जिन दार्शनिकों का नाम लिया जाता है, वे सभी भारतीय दर्शन से सीधे या आडे रूप में परिचित थे और पश्चिम के आधुनिक दर्शन के जनक देका (Descarte ) के नव्‍यन्‍याय से प्रभावित होने की बात तो तुम्‍हारी समझ में ही नहीं आएगी। यह दूसरी बात है कि भारतीय दर्शन की ओर इस अभिरुचि के पीछे दारा शिकोह के विद्यानुराग और उनकी पहल से उपनिषदों आदि के फारसी आदि में अनुवाद और प्रसार का भी हाथ था।”

”तुमसे बात करते हुए कई बार लगता है पत्‍थर से अपना सिर फोड़ लूं कि तुमसे बहस न करनी पड़े। तुमको यह तक नहीं मालूम कि यूरोपीय सेक्‍युलरिज्‍म को प्रेरणा यूनानी दार्शनिकों से मिली थी। ”

”जो जी में आये उसे पूरा कर लेना चाहिए । तुम्हारा सिर बना ही इसलिए है। पर यह मत भूलो कि यूनानी दर्शन और चिन्‍तन के पीछे भी कुछ है और उसका विकास यूनानी दर्शन की तरह एक झटके में चरम से चरम तक की सीमा में नहीं हुआ था अपितु उसने विकास की अनेकानेक मंजिलें पार की थीं और वे भारत में पहचानी जा सकती हैं। पर उस अतीत को तो तुमने समझने का प्रयत्‍न किया ही नहीं, मिटाने के लाख जतन किए।

”जैसे बच्‍चों का ककहरा पढ़ाया जाता है, उसी तरह तुमको सांस्‍कृतिक ककहरा पढ़ना होगा। तभी तुम उस पीले जादू से बाहर आकर अपनी आंखों देखना और समझना आरंभ करोगे। मैं तुम्‍हारी इसमें मदद कर सकता हूें। देखो, हमारे ज्ञान प्रसार में दो तरह के समाज मिलते हैं । एक विकसित, सार्वभौम और और समावेशी द़ष्टिकोण वाले तन्‍त्रों के चिन्‍तन से जुडे हुए जिनमे अपनी समावेशिता के कारण दूसरे समुदायों की मान्‍यताओं, उनके सांस्‍कृतिक प्रतीकों, उनके देवों और श्‍लाघ्‍य विचारों के लिए उदारता का भाव था। ये सभी समाज बहुदेववादी और मूर्तिपूजक रहे हैं, जिनकी पैगेनिज्‍म कह कर आज पश्चिमी समाज निन्‍दा करता है क्‍योंकि अपने दर्शन में भी वह ईसाइयत से प्रभावित रहा है। भारत, ग्रीस, रोम इसी तरह के बहुदेववादी और मूर्तिपूजक समाज रहे हैं जिनमें सभी तरह के विचारों और मान्‍यताओं के लिए छूट थी।

”इसकेे विपरीत थे अविकसित यायावर या पशुचारी कबीले जिनकी विश्‍वदृष्टि अपने कबीले तक सीमित थी इसलिए उन्होने अपने सरदार की महिमा की पराकाष्‍ठा के रूप में एक परमेश्‍वर की कल्‍पना की जिसकी महिमा तो ऐसी कि उसके सिवाय और उससे बड़ा कोई नहीं, परन्‍तु इसके बाद भी वह केवल अपने कबीले का और उस कबीले के पुरुषाें को सर्वोपरि और दूसरे सभी जीवों, पदार्थों, यहांं तक कि उसकी ही महिलाओं को उस कबीले के उपभोग के लिए ही नहीं बनाया अपितु उसे यह छूट भी दी कि वे उनके साथ किसी तरह का व्‍यवहार कर सकते हैं, क्‍योंकि वे बने ही उनके सुख के लिए हैं। उस ईश्‍वर की महिमा को जिन्‍होंने नहीं स्‍वीकार किया, उसकी मान्‍यताओं के जो कायल नहीं हुए, जिन्‍होंने तर्क से उसे समझने का प्रयत्‍न किया, वे सभी और इस ईश्‍वर का पैगाम ले कर उतरने वालेे पुरुष के आविर्भाव ही नहीं, उसके धर्मबोध से पहले के सभी पूर्वज भी नरक की आग में जलने के लिए हैं, उस ग्रन्‍थ के रचे जाने के बाद सभी ग्रन्‍थ शैतानी फरेबों से भरे इसलिए जलाए जाने के पात्र है।

”इस बुनियादी फर्क को समझ लो, समावेशिता, अपने से भिन्‍न को सहन करने और उसके साथ रहने के शऊर की और उनके निजी विश्‍वासों और मान्‍यताओं में हस्‍तक्षेप से परहेज करने के सेक्युलर सिद्धान्‍त को सम्‍मान दो तो इसके लिए एकेश्‍वरवाद में, सामी मतों में जगह न मिलेगी। यहां तक कि, उनके प्रभावक्षेत्र में आने वाले समाजों में भी सेक्‍युलरिज्‍म एक आरोपित अवधारणा है जिसका विज्ञान और नव चेतना ने सम्‍मान किया इसलिए पश्चिम दो तरह के समाजों में बंटा हुआ है। एक धर्मग्रस्‍त और पोपतान्त्रिक समाज जिसकी संख्‍या में ह्रास हुआ है इसलिए यह अपनी रक्षा के लिए एशिया और अफ्रीका के देशों में अपनी जड़ें जमाने के लिए प्रयत्‍नशील है और इस दृष्टि से ईसाइयत धर्मतान्त्रिक और पश्‍चगामी मत है जिसमें सेक्‍युलरिज्‍म के लिए स्‍थान नहीं, दूसरी ओर जैसा हमने कहा, भारतीय प्रभाव में आने वाले और तार्किक, वैज्ञानिक सोच रखने वाले सुशिक्षित जनों का समाज है जो समावेशी भी है, भिन्‍नताओं के प्रति सहिष्‍णु भी, और इसके बढ़ते हुए प्रभाव के कारण यूरोपीय देश धर्मतान्त्रिक जकड़बन्‍दी से बाहर आ कर सही माने में सेक्‍युलर बन सके हैं।

”इस्‍लाम के प्रभावक्षेत्र में, जिन देशों को पश्चिमी देशों में से किसी का उपनिवेश बन कर रहना पड़ा उनको धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का भी लाभ मिला और उन्‍हीं में उस प्रभाव के कारण एक बहुत छोटा सा तबका सेक्‍युलरिस्‍ट सोच का पैदा हुआ पर वह अपने मुल्‍लातन्‍त्र के सामने लगातार कमजोर सिद्ध हुआ है। इस पश्चिमी शिक्षा और सोच के कारण ही अता‍तुर्क कमाल पाशा ने खिलाफत को मध्‍यकालीन जकड़बन्‍दी और मुल्‍लावादी प्रभाव से बाहर निकालने का प्रयत्‍न किया पर विफल रहा। इसी पश्चिमी प्रभाव में ईरान के शाह ने सेक्‍युलर प्रशासन का प्रयत्‍न किया परन्‍तु अब्‍दुल्‍ला खुमैनी के एक नारे के सामने पूरा तन्‍त्र बिखर गया और धर्मतान्त्रिक शासन आरंभ हो गया। इस्‍लामपरस्‍ती से बाहर आना, मध्‍यकालीन सोच से बाहर आना, आधुनिक शिक्षा और आकांक्षाओंसे प्रेरित होना और दूसरे समुदायों के साथ मैत्री भाव से रहने का शऊर पैदा करना मु‍सलिम बुद्धिजीवियों के लिए एक चुनौती है । भारतीयता और सेक्‍युलरिज्‍म का वह आदर्श रूप जिसके कारण उदार सोच के लोग इस पर मुग्ध हो जाते हैं, एक दूसरे के पर्याय हैं । मैं इस सीमित अर्थ में ही अपनी बात कह रहा था।”

”और कह रहे थे उस सोच के बारे में जिसमें जातिगत भेदभाव हैं और राजा का एक कर्तव्‍य वर्णमर्यादा की रक्षा करना होता था।”

”तुम्‍हारी चिन्‍ता सही है । पर इससे लड़ने की ताकत और लड़ने वालों का सम्‍मान भी इसी समाज में रहा है। यह वर्णविभाजन आज गलत लगता है पर गलत तो आर्थिक विषमता भी है । यह समाज की अर्थव्‍यवस्‍था की पुरानी सोच से जुड़ी समस्‍या है जिसका समाधान करने की तत्‍परता भी है और इसकी व्‍यापकता के कारण इसका निदान और उपचार एक चुनौती भी है । परन्‍तु जब हम सेक्‍युलरिज्‍म के आदर्श रूप की बात करते हैं तो उसमें अर्थतन्‍त्र को शामिल नहीं करते । वह पूर्ण सामाजिक और आर्थिक न्‍याय की गारंटी नहीं देता, पर सामाजिक आर्थिक भेद भाव को मिटाना एक उदात्‍त लक्ष्‍य हो सकता है, इसका सेक्‍यलरिज्‍म से घालमेल करने पर हम किसी के साथ न्‍याय नहीं कर सकते ।”

”मैंं चलू?”

”मैं तुम्‍हेंं राकना चाहूं तो भी रोक तो पाऊंगा नहीं ।”

Post – 2016-12-19

अनुपम मिश्र का जाना एक अपूरणीय क्षति है, एक प्रेरणास्रोत के रूप में वह मेरे जीवन के अन्‍त तक मेरे साथ रहेंगे ।

Post – 2016-12-17

ईश्‍वर की तलाश

”तुम्‍हारी मुश्किल यह है कि बचपन से ही सनकी रहे हो । तुम दूसरों से अलग दीखना और अलग दीखने के लिए कुछ ऐसा करना चाहते हो, जिसे केवल सिरफिरे करना चाहते हैं या मूर्ख करते रहते हैं। दूसरों से अलग दीखना या अलग कुछ कर दिखाना आत्‍मविश्‍वास की कमी को प्रकट करता है। इसके पीछे एक टुच्‍चापन भी होता है जिसे तुम विचित्रता के आवरण से छिपा लेते हाे ।” उसके स्‍वर में ऐसा आत्‍मविश्‍वास था कि एक क्षण को मैं स्‍वयं संभ्रमित हो गया।

मुझे उलझन में देख कर वह अधिक उत्‍साह में आ गया, “जो बड़े लोग होते हैं वे विचित्र नहीं होते, न विचित्र दीखने का प्रयत्‍न करते हैं। वे साधारण जीवन जीते है, सामान्‍य बने रहना चाहते हैं, और इसके बाद भी दूसरों से कुछ ऊपर उठ जाते हैं। यह बोध ही उनकी अपनी निजता के सम्‍मुख एक चुनौती बन कर खड़ा हो जाता है और उससे टकराते हुए वे अपने लिए भी आश्‍चर्यजनक ऊंचाई या कहना चाहो तो महिमा प्राप्‍त कर लेते हैं। महानता और विलक्षणता में फर्क है ।”

”तुम्‍हारा तर्क तो बहुत सही लगता है यार, लेकिन मेरे बारे में यह धारणा तुमने बनाई कैसे।”

”मुझे धारणा बनाने की आवश्‍यकता ही न हुई । यह तो तुम स्‍वयं कहते हो कि मेरे भीतर बचपन से ही एक जिद रही है कि यदि किसी काम को अशक्‍य मान कर कोई दूसरा नहीं करता है ताे इसे मैं करूंगा। याद कराे कहा था या नहीं।

”बात तो सही है, और यह प्रवृत्ति मुझमें आज भी है, पर यह विचित्र दीखने के लिए तो नहीं है। इसका संबंध तो उस जीवट से है जिसके चलते किसी सत्‍य को जानने या किसी कृत्य को करने के लिए व्‍यक्ति खतरा उठाने, कष्‍ट सहने और विरोधों का सामना करने के लिए तैयार होता है । जहां दूसरे इसके डर से दुबक कर बैठ जाते है, पीछे हट आते हैं, वहां उस पूरी भीड़ में कोई एक होता है जिसे यह कायरता प्रतीत होती है । यह ओढ़ी हुई चीज नहीं होती, भीतर से पैदा हाेती है और इस पर हमारा पूरा नियन्‍त्रण नहीं होता।”

”तुम्‍हारा मतलब है यह ईश्‍वर प्रदत्‍त होता है।”

”तुम ईश्‍वर को जानते हो ।”

”मैं तो उसे मानता तक नहीं, जानने की आवश्‍यकता क्‍यों पड़ेगी। यह तुम्‍हारे लिए कह रहा था। तुम उसे जानते भी होगे और मानते भी होगे और जो कुछ हो रहा है उसे उसकी ही लीला भी मानते होगे।”

”कभी कभी मूर्खों के मुंह से भी समझदारी की बात निकल जाती है, तुम ठीक कहते हो। मैं उसे जानता भी हूं, मानता भी हूं और उसका सम्‍मान भी करता हूं। अक्‍ल होती तो तुम भी वैसा ही करते । नहीं है तो ठोकरें खाते हो ।”

उसने जोरदार ठहाका लगाया, ”मैं तो पहले से ही जानता था कि जब हम सभी साहित्‍यकार और बुद्धिजीवी संप्रदायवादियों का विरोध कर रहे हैं, उसे जड़ से उखाड़ फेंकना चाहते हैं तुम भाजपाइयों के साथ क्‍यों खड़े हो गए।”

”’और तुम्‍हारी बोलती बन्‍द कर दी’ उसमें यह भी तो जोड़ लो । तुम समुद्रफेन की तरह हो । कहने को महासागर से जुड़े और होने काे उसकी सतह से नीचे का पता ही नहीं। तुम जानते हो समुद्र फेन जब जम जाता है तो पत्‍थर का भ्रम पैदा करता है, परन्‍तु यह पानी पर तैर सकता है और इसी के आधार पर समुद्र पर तैरने वाले पत्‍थरों को फेंक कर रामसेतु बनाने की उद्भावना की गई थी जब कि यह एक भूसंरचना का चमत्‍कार था जिसे आज भी रामसेतु के रूप में पहचाना जा सकता है।”

”और वहां राममंदिर बनाया जा सकता है।”

”उसकी आवश्‍यकता नहीं । वहां पहले से रामेश्‍वरम् मन्दिर है, भले वह राम का न हो कर शिव का ही हो। तुम कभी उन चीजों की गहराई को आज की सूचनाओं और ज्ञान के आलोक में देखने का प्रयत्‍न करो तो तुम्‍हारी जड़ता कम हो जाएगी। पहले मैं ईश्‍वर को, उस ईश्‍वर को जिसे मैं मानता हूं और जिसके लिए पुरानी परिभाषाओं का लाभ उठाता हूं, यह समझे बिना कि जिन लोगों ने ईश्‍वर को इस रूप में परिभाषित किया था उनके मन में भी ठीक यही विचार रहे होंगे या नहीं।

”ईश्‍वर अज्ञेय है, और जहां हमारे ज्ञान की सीमा समाप्‍त होती है उससे आगे का समग्र क्षेत्र दो कारणों से अज्ञेय है । एक तो इसलिए कि वह इतना जटिल, इतना बहुलतापूर्ण, इतने असंख्‍य कारणों से प्रभावित होने के कारण अनुमान और ज्ञान दोनों की सीमाएं पार कर जाता है, कि उसका एक नाम ईश्‍वर है। यह एक कामचलाऊ प्रबन्‍ध है, कुछ उसी तरह का जैसे हम बीजगणित में अज्ञात संख्‍या को अ या क नाम दे लेते हैं। अ या क नहीं कहा ईश्‍वर कह दिया। यह भौतिक और ज्ञेय होते हुए भी अपनी जटिलता के कारण अज्ञेय जैसा प्रतीत होता है । और दूसरा है कि ज्ञेय परन्‍तु अज्ञात का इतना विराट परिमंडल हमारे ज्ञान सीमा के बाहर है जिसकी कल्‍पना तक नहीं की जा सकती और उसके एक क्षुद्र अंश का पता चलता है तो पहले की पूरी दुनिया बदल जाती है और जिज्ञासा के असंख्‍य कपाट खुल जाते हैं। उस अज्ञात को ईश्‍वर और उसके अंश ज्ञान को ईश्‍वर का साक्षात्‍कार कहो तो तुम्‍हारा सतीत्‍व भी बचा रहेगा और सत भी बचा रहेगा।

”जब प्रतिभा के सन्‍दर्भ में हम ईश्‍वरप्रदत्‍त का प्रयोग करें, तो इस अर्थ में कर सकते हैं कि असंख्‍य अज्ञात और अपने नियंत्रण से बाहर के किंचित ज्ञात परन्‍तु उससे अधिक अज्ञात दबावों, अभावों, सु‍विधाओं और स्थितियों के बीच हममें कुछ योग्‍यताएं, आन्‍तरिक श्‍‍ाक्तियां और निर्योग्‍यताएं पैदा होती हैं जिनका कुछ संबंध गुणसूत्रों से, कुछ माता पिता के स्‍वास्‍थ्‍य से, और कुछ भू्णकालीन अवस्‍था में मां के पोषण और अनुभवों से जुड़े होते हैं जिनका भौतिक आधार होते हुए भी अपनी जटिलता के कारण वह अज्ञेय लगता है और उससे बाद में हमारे जन्‍म के बाद की आर्थिक, सामाजिक परिस्थितियां और निजी अनुभव होते हैं जिसमे हमारी चेतना, मेधा और प्रतिभा या किसी विशेष रुझान का जन्‍म होता है जिसका दबाव ऐसा होता है कि उसे तुष्‍ट करने के लिए हम दूसरे प्रलोभनों की चिन्‍ता ही नहीं करते अपितु कष्‍ट और यातना तक सहने के लिए तैयार हो जाते हैं।

”सच कहो, क्‍या तुमने किसी भी विषय को नारों से आगे बढ़ कर उसकी गहराई में समझने की कोशिश की है । ईश्‍वर को दूध की मक्‍खी की तरह फेंकने की जगह रहस्‍य की उन परतों को समझने की कोशिश की है जहां ईश्‍वर का निवास है। नहीं की है इसलिए तुमको उन नेताओं को तब तक ईश्‍वर मानना होता है, जब तक उनकी धाक बनी रहती है । वह लेनिन हों, स्‍तालिन हो, ली हो या माओ हों। जो ईवर को नहीं जानता उसे मनुष्‍यों का दैवीकरण करना होता है जिनकी सीमाएं उजागर होने के बाद वे ही लोग जो उनका कीर्तन करते थे, उनकी भर्त्‍सना करते पाए जाते हैं।

ईश्‍वर मनुष्‍य की जरूरत है इसलिए मिटाए भी नहीं मिटता क्‍योंकि हमारा अज्ञात और ज्ञेय अपार है और उसका रंचमात्र आलोक हमारा कायाकल्‍प कर देता है।”
वह हत्‍प्रभ नहीं हुआ, ”आज तो तुम बच गए, कल खबर लूंगा ।”

Post – 2016-12-16

प्रसंगवश
आज एक संगोष्‍ठी में शामिल हुआ । उसमें एक वक्‍ता ने कई असुविधाजनक प्रश्‍न उठाए । आंकड़े देते हुए। आंकड़े बोलते हैं हम नहीं। मुझे समाहार करना था पर इस ओर ध्‍यान देता तो अपनी बात कह नहीं पाता और उस समय सीमा के भीतर गोष्‍ठी समाप्‍त न हो पाती जितने समय के लिए अनुमति थी। उस वक्‍ता को मैं विशेष रूप से इसलिए चर्चा में रख रहा हूं कि उनकी अधिकांश आपत्तियों का उत्‍तर दूसरे वक्‍ताओंं ने दे दिया था। प्रश्‍न करने वाले वक्‍ता का पहला वाक्‍य सुन कर ही आप अनुमान कर सकते थे कि वह किस विचारधारा से जुडे हुए है और इसी तरह उनका प्रतिवाद करने वाले वक्‍ताओं के तर्कों को सुन कर हम उनकी सोच का भी पूर्वानुमान कर सकते थे। यह कोई नई बात नहीं है। इसके प्रमाण हमारे लेखाों,वक्‍तव्‍यें और अब तो जिसे सामाजिक माध्‍यम कहते हैं उस पर भी देेखने काेे मिलते रहते हैं ।

इन दो धुवों के बीच ही सचाई के अनेक रूप हैं जिस पर कुछ अलग रह कर विचार किया जाय तो हम अपनी समझ में कुछ सुधार कर सकते हैं। उसकी सभी बातेंं गलत थींं और सभी बाते तथ्‍यों पर आधाधारित थींं। तथ्‍य तो तथ्‍य हैं, उन्‍हे झुठलाया तो जा नहीं सकता । प्रश्‍न है एक ही चीज सच होते हुए गलत क्‍यों हो जाती है और गलत होते हुए भी कुछ लोगों को अकाट्य क्‍यों प्रतीत होती है और उसी के दोनों पक्षों के बीच हम सचाई तक कैसे पहुंंच सकते हैं और उस सचाई के कितने उपेक्षित या अनदेखें पहलुओं का साक्षात्‍कार कैसे कर सकतेे हैं।

उसेे देश जैसे विशद विषय पर कुछ कहने में कुछ उलझन हो रही थी । बहुतों को ऐसे प्रश्‍न इस खतरे का संकेत प्रतीत होते हैं, कि इसकी आड़ में देश भक्ति को इस रूप में परिभाषित किया जा सकता है, और उनसे अपने जीवन व्‍यवहार में ऐसी अपेक्षाओं की पूर्ति की मांग की जा सकती है जिसे पूरी न करने पर उन्‍हें देशद्रोही या कम से कम देश के प्रति निष्‍ठा से रहित सिद्ध किया जा सकता है । यह निरा काल्‍पनिक भय नहीं है, परन्‍तु यह भय इतना उग्र नहीं होना चाहिए कि हम ठीक इसके विपरीत उस दूसरी आशंका काेे जन्‍म दे बैठे जिसमें भारत तेरे टुकड़ेे होगे इंशा अल्‍ला इंशा अल्‍ला गाने वालों को हम संकीर्ण देशभक्ति से मुक्ति दिलानेवालों की पहचान मान बैठे और उनके साथ मंच साझा करने लगें और उसमें भारत की बर्वादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी जैसे डरावने इरादे भी अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता में शामिल हो जायंं।

कांग्रेस से लेकर वाम दलों तक की यह साझेदारी जिस देश को बर्वाद करना चाहती है, वह किसका देश है जिसे उसे बर्वाद करना है । उसका नाम भारत है और इन नारों की उदारतम व्‍याख्‍या करते हुए भी आप यह मानने को बाध्‍य हैं कि यह देश कांग्रेस का नहीं है, बामदलों का नहीं है यह केवल हिन्‍दुओं का देश है और इसे बचाने की चिन्‍ता केवल हिन्‍दुओं को हो सकती है इसलिए दूसरे सभी का कर्तव्‍य है कि इसको जितना बर्वाद कर सकें उतना बर्वाद करें । अब तक अपने शासन में देश के साथ यही किया है। सत्‍ता से बाहर होते ही उपद्रवियों, आततंकवादियों, दूसरे देशों से मिल कर इसे बर्वाद करने की योजनाएं बनाई हैं और अपराधियों को बचाया है। दूसरे सभी अपनी मांगे रखते हैं, हमे आरक्षण से ले कर संरक्षण तक सभी कुछ चाहिए परन्‍तु इनकी व्‍यवस्‍था और इनके सुचारु क्रियान्‍वयन की जिम्‍मेदारी इनसे इतर किसी और की है जिसे देश को भी बचाना है और सबकी मांगें पूरी हो सकेें इसका ध्‍यान भी रखना है और यदि नहीं रखता तो उसे और उसके देश काेे बर्वाद करना उनका कर्तव्‍य बनता है। क्‍या इसके बाद भी आप कह सकते हैं कि यह देश हिन्‍दुओं का और केवल हिन्‍दुओं का नहीं है ।

इसे हिन्‍दुओं ने अपना देश नहीं बनाया है, आप ने इसे हिन्‍दुओं का देश बनाया है और यदि आप इसमें अजनवी की तरह रहते हैं तो आपकाे उन मर्यादाओं का सम्‍मान करने के लिए बाध्‍य किया जा सकता है जिनकी चिन्‍ता आपको नहीं है या जिनसे मुक्ति की कामना करते हुए आप भारत की बर्वादी तक पहुंचते हैं। खुदा वो दिन न दिखाए कि सोगवार हो तू ।

एक दूसरी चिन्‍ता नजीब के लापता होने, उसकी मां की और उससे सहानुभूति रखने वालों की वेदना का था। उसे लगा कि पुलिस उसे तलाशने में इसलिए असफल रही है कि वह मुसलमान था और संभव हैैै इस बीच उसकी हत्‍या की जा चुकी हो। यह सच नहीं हो सकता इसका दावा ऐसा कोई व्‍यक्ति नहीं कर सकता जो यह मानता है कि पुलिस का सांप्रदायीकरण हुआ है और यह व्‍याधि जानकारों के अनुसार बीस पचीस साल पुरानी है। परन्‍तु इसे सच मान लेना या इस पर एक संभावना के रूप में बलाघात से तथ्‍य बनाना शायद उचित न हो। इतनेे ही इकहरेपन से दूसरा प्रमाण की कमी के आधार पर यह संदेह जताने का अधिकार रखता है कि संभावना तो यह भी हाे सकती है कि वह डर के मारे आई एस के प्रभाव में आकर पश्चिमी एशिया में पहुंच गया हो। प्रमाण के अभाव का दोहन दोनों सि्थतियों में निष्‍ठुरता का प्रमाण है।

एक दुखद तथ्‍य है कि मनुष्‍य की वेदना को हम या शायद दूसरे समाज भी मनुष्‍य की पीड़ा के रूप में न देख कर धर्म, आर्थिक स्‍तर, जाति, रंगभेद, शिक्षा और यहां तक कि पेशे तक से जोड़ कर देखने के आदी हैं। कितने बच्‍चे और युवतियां राेज गायब होते हैं और इसकी सूचना मिलने पर भी हमें यह विक्षुब्‍ध नहीं कर पाता क्‍योंकि यह पीड़ा उस इतर से संबंधित है जो उस परिधि से बाहर है जिसकी हम चिन्‍ता करते हैं। पीड़ा का यह मजहब अपने को धर्मनिरपेक्ष मानने वालों को हिन्‍दू पीड़ा पीड़ा नहीं प्रतीत होती और मुस्लिम पीड़ा कुछ अधिक व्‍यग्र करने वाली पीड़ा होती है, दलितों की पीड़ा उतनी वेधक नहीं होती जितनी सवर्णो की, गरीबों की पीड़ा सह्य होती है, उन्‍हें इसकी आदत होती है, परन्‍तु संपन्‍न जनों की पीड़ा अधिक उद्वेलित करती है । गोरे देशों के नागरिकों की पीड़ा रंगीन देशों और समाजों की पीड़ा से अधिक विक्षोभकर होती है, इसलिए जब खालिस्‍तानी बसों से हिन्‍दुओं को उतार कर उसी तरह कत्‍ल करते थे जैसे आइएस कुछ साल से करने लगी जिसके शिकार गोरे भी हुए तब उतना भयानक कुकृत्‍य नहीं था क्‍योंकि मरने वाले हिन्‍दू थे या रंगीन त्‍वचा के लोग थे। अमेरिका ने दूसरे महायुद्ध के बाद से लगातार एशियाई और अफ्रीकी देशों के असंख्‍य लोगों का बर्बरता पूर्वक मारा है, परत मानव त्रासदी का हिस्‍सा और दुनिया का जघन्‍यतम अपराध वह तब बना जब वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर की तबाही सामने आई । मनुष्‍य की पीड़ा का यह बटवारा एक दुर्भाग्‍यपूर्ण सचाई है और जब तक यह है दुनिया का कोई देश और उन देशों का कोई समुदाय अपने को सभ्‍य नहीं मान सकता ।

आंकड़े बोलते हैं, हम नहीं, पर हम कुछ आंकड़ो को ही बोलने की छूट देते हैं, तो वेे आंकड़े हो या जीवन के तथ्‍य और अनुभव, वे जितना झूठ बोल सकते हैं उसकी तुलना आंख में आंकड़ों की धूल झोंकने से की जा सकती है। तथ्‍यों की प्रस्‍तुति में संतुलन हमारे मानसिक संतुलन का द्याेतक है और इस संतुलन को सचेत रूप में नष्‍ट किया गया है। संचार विचार के प्रसार के लिए नहीं अपितु उत्‍तेजना के प्रसार के लिए, यह आज की सतही सोच का दुखद पहलू है ।

Post – 2016-12-15

इतिहास का वर्तमान के चतुर्थ खंड की भूमिका

यह बिना किसी पूर्वयोजना के एक नई विधा में लिखी गयी पुस्तक है, जिसे बतकही कहा जा सकता है! पार्कों में, बैठकी के दूसरे अड्डों, चैक चैपाल में लोग राजनीति से ले कर समाज और परिवार की समस्याओं पर चर्चा करते हैं! यह उसी को एक स्तरीय रूप देने और अपने समय का आलोचनात्मक विमर्श बनाने की दिशा में एक प्रयोग है जो प्रयोग की सजगता के बिना इस चिन्ता के साथ आरंभ हो गया कि हमारे बौद्धिक स्तर में लगातार गिरावट क्यों आती चली गई है जब कि प्रतिभा, शिल्प और महत्वाकांक्षा की दृष्टि से हमारी आज की पीढ़ी विश्वविजय से नीचे की कोई लालसा रखती ही नहीं! इसके बाद भी किसी का कद ऐसा नहीं जो पिछली पीढ़ियों के गण्य और मान्य बौद्धिकों के समकक्ष रखा जा सके!

हमारे पास इतिहासकार नहीं है, पर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति का दावा करने वाले इतिहासकारों का मजमा है! बौद्धिक नहीं हैं, परन्तु धूम मचाने वाले बुद्धिजीवियों का जत्था है! आज से साठ सत्तर साल पहले के साहित्यकारों के कद के साहित्यकार नहीं है, पर देश विदेश में चर्चा का जुगाड़ करने वालों की संख्या में असाधारण बढ़त हुई है! हमारे विचार और संचार माध्यमों की संख्या में असाधारण बृद्धि हुई है परन्तु वे आज की बड़ी खबर को दुहराते हुए दिन काट देते हैं और हम देश और समाज का हाल जानने के लिए तरसते रह जाते हैं! उनके विचार स्थिर हैं और उनको चुनने वाले पहले से जानते हैं कि उन पर किस तरह के विचार पेश किए जाएंगे और वे नशे की लत की तरह उसी तरह के समाचारों और विचारों को सुन कर ‘‘क्या खूब कही, क्या खूब कही’’ कहते हुए अपना समय काट देते हैं! इंटरनेट पर अभिव्यक्ति के सामाजिक माध्यमों में बहुत साफ बटवारा पक्ष और विपक्ष को लेकर देखा जा सकता है! पक्ष उजागर है, विचार गायब है, वह फिकरेबाजी के स्तर पर उतर आया है।

दुखद तथ्य यह कि इतने शोरसरापे के बाद भी जनता तक न बुद्धिजीवियों की पहुंच है, न साहित्यकारों की न समाचार और विचार के सामाजिक माध्यमो की क्योंकि इनका सब कुछ पूर्वनिश्चित है। सभी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं, उनके पास समाज को देने के लिए ऐसा कुछ नहीं है जिसका पूर्वानुमान बिना पढ़े या सुने ही समाज न लगा सकता हो! इससे एक बौद्धिक निर्वात पैदा होता है जिसे भरने वाली शक्तियां झुझावात पैदा कर सकती हैं, तबाही मचा सकती हैं, पर समाज और देश को आगे बढ़ाने या अपनी अधोगति से ऊपर नहीं ला सकती।

यह शून्य या निर्वात पैदा कैसे हुआ कि इससे विचार और संचार से जुड़े सभी माध्यम और उन माध्यमों में काम करने वाले इस हद तक प्रभावित क्यों हुए कि वे अपने को बहुत-कुछ समझते हुए न-कुछ में बदल गए और इसका उन्हें आभास तक नहीं! वे विदेशों में दर दर के भिखारी बने अपनी प्रतिष्ठा की तलाश कर रहे हैं जिनको वे तभी रास आएंगे जब कि वे उनके अपने उपयोग के लगें और अपने ही घर परिवार से, अपने ही समाज से वे निर्वासित हो चुके हैं। यह निर्वासन समाज ने नहीं दिया, इसका चुनाव उन्होंने स्वयं किया और इस पर गर्व करते रहे।

इस रहस्य को समझने के लिए, मैंने फेसबुक पर उसकी सामान्य प्रकृति से बाहर जा कर एक गवेषणात्मक चर्चा आरंभ की थी जिसमें असहमत लोगों को इस बात का आमंत्रण था कि वे, जहां मैं गलत लगूं, गलत सिद्ध करते हुए एक सही सोच के विकास में हमारी सहायता करें और वस्तुपरक मूल्यांकन का रास्ता जो अब तक अवरुद्ध था उसे मुक्त कर सकें।

मेरा यह सुविचारित और लंबे ऊहापोह के बाद, जो मेरी प्रकाशित कृतियों में भी देखी जा सकती है, लिया गया निर्णय यह था कि ऐसा समाज से अधिक राजनीति को प्रधानता देने और उसे राजनीति की समझ तक सीमित न रखकर राजनीतिक भागीदारी से जोड़ने और राजनीतिक भागीदारी के कारण इसके सत्ता प्राप्ति और सत्ता को बनाए रखने की उस गजालत में उतारने के कारण हुआ जिसके लिए कम्युनिस्ट पार्टियां उत्‍तरदायी हैं क्‍योंकि, साहित्य और कला के क्षेेत्र में ही नहीं शिक्षा और विचार के क्षेत्र में उसके हस्तक्षेप के कारण ऐसा हुआ और वही गिरावट के अन्य कारणों के साथ इस बौद्धिक निर्वात के लिए भी उत्तरदायी रहा है।

उसका एकाधिकार इतना प्रबल रहा है कि उससे असहमत होने का अर्थ था आत्महत्या। जिन लोगों ने सीधे विरोध तक मोल न लिया, कुछ दबे सहमे से अपना पक्ष रखते रहे, उन्हें उनके कद और कृतित्व का उपहास करते हुए गुमनाम नहीं तो बदनाम इतना किया गया कि वे साहित्य के इतिहास से बाहर कर दिए गए।

असंख्य गलतियों के जनक विचार सत्ता पर इस तरह हावी हो जायं कि कोई विरोध में उंगली उठाए तो उंगली कट जाए, विचार के दमन के बावजूद विचार की स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के भी एकाधिकारी बने रहे!

वह बचकानी जिद जो मुझे परिभाषित करती है, जो कहती है यदि साहस की कमी के कारण कोई दूसरा यह नहीं करता कि मुझे मिटा दिया जाएगा, उसे मरने को तैयार हो कर मैं करूंगा! समझ यह कि जो बचना चाहता है उसे मिटाया जा सकता है, जो मिटने की ठान कर कोई पहल करता है, वह मिटाया नहीं जा सकता।

परन्तु मेरा उद्देश्य किसी को मिटाना नहीं था, ऐसा व्यक्ति तो मिटने की ठानने से पहले ही मिट चुका होता है। उद्देश्य अपने बौद्धिक समुदाय को इस विषय में सचेत करना था कि इस सनक में हम पराधीनता के दिनों की तुलना में भी अकिंचन हो चुके हैं। अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए हमें अपनी समझ, अपनी नजर, अपने विवेक पर भरोसा करना होगा! दूसरों के उपयोग का सामान बनने की जगह, अपने को पुनर्जीवित करना होगा उस पूंजी से ही अपने सरोकारों और समस्याओं का सामना करना होगा।

मेरा विश्वास है कि समाज की विकृतियों के लिए उसके बु़द्धजीवी दोषी है और यदि समाज मे ऐसीं विकृतियां हैं जो उन्हें भी दिखाई देती हैं तो उन्हें आत्मालोचन करना चाहिए कि समाज की मनोरचना को प्रभावित करने के समस्त औजार उनके पास होते हुए भी समाज ऐसा क्यों बन गया। यहीं से अपनी चूक को समझना और उसमें सुधार संभव होता। यह प्रयत्न न कभी किया गया न इसके महत्व को समझा गया।

एक मात्र उपाय था कि लोग आवेश में बात करने से बचें और विरोध हो या समर्थन, जिसका भी करें, तर्क, प्रमाण और औचित्य का ध्यान रखते हुए करे तो इस अधोगति से बाहर निकलने का रास्ता मिल सकता है। कम से कम हमारे बौद्धिक विमर्श का स्तर तो उठेगा। मैंने इसके लिए उस पक्ष का समर्थन करते हुए अपना हस्तक्षेप आरंभ किया, जिस पर लगातार घृणित अभियोग और आरोप लगाए जाते रहे जो मेरी समझ से गलत थे इसलिए मैंने उसके पक्ष में खड़े हो कर उस जड़ता पर प्रहार करते हुए उसे उकसाया कि वह अपनी रक्षा के लिए यदि अपने तर्क, प्रमाण और साक्ष्य प्रस्तुत कर सकता हो तो करे। यदि वह सही लगा तो मैं उसके विचारों को मान लूंगा। यह अब तक पक्षधरता के कारण जीत और हार का प्रश्न बना था, अब यह औचित्य और सत्यसाक्षात्कार और उसके सम्मान का अनुरोध बन गया।

प्रश्न यह नहीं है कि बौद्धिक वर्ग राजनीति निरपेक्ष रहेगा, या राजनीति संलिप्त अपितु यह कि वह सियासत या व्यावहारिक राजनीति का हिस्सा बनेगा और सत्ता पर अधिकार करने वालों का अनुचर बनेगा या उनका मार्गदर्शक! उसकी राजनीति राजनीतिक समझ से पैदा होगी या किसी दल या संगठन की आकांक्षा से। हमारा हस्तक्षेप इसीलिए जरूरी हुआ!

यह एक खंडनवादी या पोलेमिकल सोच लग सकती है, जिसमें अपर पक्ष के दोषों को ही गिनाया जाता है उसके गुण और योगदान की अनदेखी कर दी जाती है। यदि हमारा लक्ष्य यही होता तो हमें इस व्यायाम की आवश्यकता न थी। हमारा लक्ष्य सचाई का सम्मान करना, उभयपक्ष के गुणदोष का विवेचन करते हुए सत्य की प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्नशील होना और इसमें अपने विरोधियों को भी सहभागी बनाना था इसलिए अपनी कथित पक्षधरता के बाद भी मैंने अपनी ओर से अपर पक्ष की, अपनी समझ में आने वाली, सर्वोत्तम आपत्तियों को स्थान देते हुए अपनी बात रखने और प्रतिवाद को आमन्त्रित करते हुए अपना विवेचन किया और शैली बतकही की अपनाई थी इसलिए इस प्रयोजन से अपनी मान्यता के विरोधी चरित्र की सृष्टि करनी पड़ी।

मेरे विचारों का प्रतिवाद नहीं हुआ या प्रभावशाली रूप में नहीं हुआ यह मेरे लिए सुखद बात नहीं है! दुखद यह है कि न तो दूसरों ने अपनी मान्यताओं में कोई लोच दिखाई, न समझ से काम लेते हुए तार्किक प्रतिवाद किया और न आंखें बचाते हुए जुमलेबाजी करने की अधोगति से ऊपर उठ सके। अपने प्रयास की विफलता किसी को सन्तोष नहीं दे सकता, मुझे तो कदापि नहीं!

इन लेखों में जिनके लिए मैंने पोस्ट का प्रयोग किया है कुछ भी सही नहीं है, परन्तु कुछ भी ऐसा नहीं है कि जो प्रमाण, साक्ष्य या औचित्य से शून्य हो, इसलिए वह तब तक अकाट्य है जब तक उसका खंडन करने वाले विचार, तथ्य या साक्ष्य नहीं आ जाते। यह उनका काम है जो मुझसे असहमत होते हुए भी चुप्पी साधे रहते हैं या सलीके से अपना विरोध प्रकट नहीं कर पाते!

शैली बतकही की है तो विषय का कोई प्रतिबन्ध नहीं ! कोई सुनियोजित पूर्वयोजना नहीं ! बात से बात निकलती है, अधूरी रह गई तो अगले दिन उस पर चर्चा होगी। इसलिए कुछ लेख यदि अधिक गंभीर और गहनविमर्श से जुड़े प्रतीत होंगे तो कुछ निहायत अनुभववादी और पहली नजर में सतही, परन्तु यदि उनके प्रेरक तथ्य को समझने का प्रयत्न करें तो पाएंगे वे किसी अधिक गंभीर समस्या के साक्षात्कार से जुड़े हैं और उसके विविध आयामों और संभावनाओं की पड़ताल कर रहे हैं! एक उजड़े हुए पार्क को अकेले दम पर सरसब्ज बनाने के अभियान के क्रम में हुए अनुभवों का विवरण सच कहें तो संचार की उस समस्या से जुड़े हैं जिनको अपनी मेज पर बैठे हम हवाई ढंग से समझना चाहते हैं और इसलिए अपने ही समाज के भीतर अपनी पहुंच बना नहीं पाते। यह प्रयत्न सही है या गलत, उचित या अनुचित यह हमारे लिए विचारणीय नहीं है। विचारणीय केवल यह है कि अपनी बात पूरे सरोकार से उस व्यक्ति के मन में भी उतारी जा सकती है या नहीं जो पहले से ही उससे बिलग होने के लिए कृतसंकल्प है।

कोई विषय किन्हीं पक्षों से पूरी तरह विचारणीय हाने के बाद भी समाप्त नहीं होता जो बतकही में हुआ करता है। कभी कोई प्रश्न दुबारा उठ सकता है, इसलिए निर्णायक बात यह नहीं कि उसमें कितनी बार किन प्रश्नों को उठाया गया है अपितु यह कि उसमें अपनी मेधा और अन्तदृर्ष्टि के अनुरूप पहल की गई है या नहीं!

किसी विशेष अपेक्षा से इसे पढ़ने वालों को इसमें आए विवेचन संभ्रमित कर सकते हैं। इस पक्ष को समझ लेने के बाद उनकी सोच बदल सकती है! और बदल सकती है मेरे उन मित्रों की प्रतिक्रिया, प्रस्तुति और सोच जिससे हम आलोचना-प्रत्यालोचना करते हुए अपनी सोच और विवेचन का स्तर सुधारते हुए उस शून्य को नई पहल में बदल सकें! अस्तु !