मैंने भी तेरे हुस्न को हर कोण से देखा
तू है तो बहुत कुछ है, मगर है कि नहीँ है
हर चीज़ में तू है तो बता चीज़ कहाँ है
उस चीज़ से बाहर भी कहीं है कि नहीं है !
Month: May 2017
Post – 2017-05-14
मैं शोहरत से घबराता हूं। काम स्वयं इतना आनन्द देता है कि चाहता हूं काम भले मुझसे कोई कराए पर काम सलीके से हो, और उसकी शोहरत वह ले जाये जो इसे सलीके से, बहुग्राह्य और बहु मान्य बना सके। हम जिस युग में जी रहे हैं उसमें इस बात का विश्वास दिला पाना कठिन है, परन्तु वे कृतियां जिन्हें मैं अनन्य कह सकता हूें, उन्हें लिखने को मैं दूसरों को उकसाता रहा। मैं काम को निखोट बनाना चाहता हूं। सर्ववमान्य बनाना चाहता हूें। जिनके पास समय, रुचि, समर्पणभाव दिखाई देता है उनसे याचक भाव से अनुरोध करता हूं कि इस काम को समझो, और वे उसे ग्रहण नहीं कर पाते तो ही सोचता हूं कि इसे अभिलिखित तो कर दूं। मेंरे सभी काम अभिलेख हैं, मेरी नजर में असन्तोषजनक पर साथ ही अनन्य, क्योंकि उस दृष्टि से दुनिया के किसी विद्वान ने इस तरह सोचा ही न था। आत्मविश्वास की कमी नहीं है, इस बात का डर अवश्य है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता। अकेला व्यक्ति सही होते हुए भी पूरी तरह सही नहीं हो सकता। उसे उन कमियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए । ऐगेल्स और मार्क्स को जो सुविधा प्राप्त न थी और वे दोनों आपस में ही बहस करते हुए अपनी सोच को दुरुस्त करने का प्रयत्न करते थे वह सुविधा मुझे प्राप्त है, पर उसका लाभ नहीं मिल रहा। वह आलोचना से, कठोर हो तो भी, मिल सकता है। वह मुझे नहीं मिल रहा । आश्वस्त करें कि आप तारीफ न करेंगे, आपतित्यां दर्ज करेंगे। फेयबुक ये अच्छा मंच इसके लिए मिलेगा भी नहीं।
Post – 2017-05-14
मुझे जिस बात का डर था वह सामने आ गया। मैंने सोचा था लोग हस्तक्षेप करेंगे, गलतियों को चिन्हित करेंगे और इस तरह यह काम अधिक सुलझे रूप में संपन्न हो सकेगा। पसन्द का इसमें कोई खास मतलब नहीं क्योंकि इस विषय के अधिकारी लोगों की पसन्द ही कोई मानी रखती है, इस तरह का कोई व्यक्ति मुझे इस देश में ही नहीं अन्यत्र भी नजर नहीं आता। यह सोच ही पिछली सोच से बिल्कुल अलग है। कमियां सामधारण जानकारी रखने वाला भी निकाल सकते हैं और वे मेरे कहने में चूक या कोई बात छूट जाने या विषय को स्पष्ट न कर पाने से ले कर किसी भी तरह की हो सकती हैं। ऐसा हो नहीं रहा है इसलिए भाषा पर मैं मात्र एक सामान्य पोस्ट और करूंगा और वह बोलियों की स्वीकृति, हिन्दी से उनके संबंध और इसका राष्ट्रभाषा के भविष्य से होगा। बाकी का लेखन मैं पुस्तकीय अपेक्षाओं को ध्यान में रख कर अपने तक सीमित रखूंगा जिससे सार्वजनिकता से होने वाले सरलीकरण से बचा जा सके और तथ्यांकन में किसी की बोरियत या रुचि की बाधा से स्तर प्रभावित न हो।
Post – 2017-05-14
जिसको दिल में छिपा के रक्खा था
अब उसे ढूंढ रहे हैं देखो.
Post – 2017-05-14
देववाणी (बत्तीस)
चन्द्रमा का बीच का शब्द द्र है । यह भी कौरवी प्रभाव है। मूल’तर’ था जो घोषप्रियता में ‘दर’ हुआ और कौरवी प्रभाव में त्र, तृ,’द्र’ ‘दृ’ , ‘द्रु’
हो गया।
अब निम्न रूपों पर ध्यान दें:
तर – पानी, तैरना, तरना, तर्पण – देवों, पितरों की प्यास बुझाना, तारना – जल धारा से पार कराना, पितरो को प्रेतयोनि से मुक्ति दिलाना, तरी/ तरणी, – नौका, तरणि – सूर्य, तारा – आंख की पुतली, तारक / तारा, तारिका . तालिका – सूची, तीर्थ – तटीय या संगम का जनसंगम क्षेत्र जहां आदिम अवस्था में खाद्यान्न की प्रचुरता के दिनों में मुक्त जनसमागम होता था और जिसे बाद में पवित्र माना जाने लगा और उन विशेष दिनों में यज्ञ और स्नानादि को महत्व दिया जाने लगा, तरसना – पानी की लालसा, किसी भी अभाव की पूर्ति की उत्कट कामना, तिरसा – प्यास – कौरवी प्रभाव में तृषा/ तृष्णा – किसी अभाव की उग्र चेतना, त्रास – पिपासा जन्य व्यग्रता, उत्कट पीड़ा से गुजरना, त्रस्त – पिपासा ग्रस्त, ऐसी पीडा भोगता व्यक्ति , संत्रास / संत्रस्त, त्राहि – प्यासा मर रहा हूं कोई कोई पानी पिला कर मेरी प्राण रक्षा करे, मरणासन्न हूं, प्राण रक्षा करो, त्राण – पानी पिला कर प्राण बचाना, किसी भी संकट से मुक्ति दिलाना, किसी अन्य प्रकार से रक्षा करना,
अब हम कुछ और शब्दों को देखें:
1. द्रव, द्रवित, दारु, दारू, दरिद (दरिद्र, दारिद्र्य), दारा -( देखें कान्ता, भामा), द्रप्स, द्राक्षा, दर्प, दर्प, दर्पण, दृप्त।
2. दृक – दिक, दिश, दृग, दृश, दृष्टि, दर्श, प्रतिदर्श, आदर्श, दर्शन,वै. दृशीक, सुदृशीक, दृशेय (पितरं च दृशेयं मातरं च ), दर्शन (शास्त्र) ।
3. द्रु, द्रुण – लकड़ी का बना हुआ अर्थात् (1) डोंगी-(द्रुणा न पारमीरयते नदीनाम् ), (2) कठौत (द्रुणा सधस्थमासदत् ) और (3) दर्शन, उसी तरह लकड़ी के बने वर्तन डोंगा, डोंगी, जो उपादान बदल जाने के बाद कांच का, धातु का या चीनी मिट्टी के हों तो भी आप डोंगा, डोंगी शब्दों का प्रयोग आज भी करते हैं। ( ३), द्रुघण (द्रु =दारुमय+घन), द्रुण – लकड़ी का बना कोई हथियार या औजार जैसे मुग्दर (प्रति द्रुणा गभस्त्योर्गवां वृत्रघ्न एषते ), द्रोण – काठ का आधान जो सोलह मानी या सोलह सेर का सोलहगुना होता था, और (4) द्रोणाचार्य का अर्थ होगा मुग्दर विद्या में पारंगत। वे ऐतिहासिक थे या पौराणिक परन्तु शब्द से वह धनुर्विद्या के आचार्य नहीं गदायुद्ध में पारंगत लगते हैं। वै. द्रोघवाच – चोट पहुंचाने वाली बात करने वाला, द्रोह (विद्रोह), द्रुह्यु, द्रुहो निदो … अवद्यात् , सिंहमिव द्रुहस्पदे
४- द्रव – गतिशील, वे. द्रवतपाणि – फुर्तीली भुजाओं वाला, द्रुत – तेज गतिवाला, द्रुति- तेजी, द्रुपद – तेज भागने वाला या फुर्ती से पैतरे बदलने वाला.
अब इस पूरी समस्या पर एक दुसरे कोण से विचार करें:
क. तर्पण, त्रास, त्राण, त्राहि माम की अवधारणाएं किस जलवायु या कटिबंध में पैदा हो सकती है. यह भाषा किस भौगोलिक परिवेश में पैदा हुई. सचाई का प्रत्येक अणु उसकी असलियत बताता है. गढ कर खड़े किए गए फर्जी गवाह अपनी कसमों और रते हुए जुमलों के बावजूद अपनी असलियत बयान कर देते हैं. दुखद है कि भौतिक गुलामी मानसिक रूप में हमें इतना परजीवी बना देती है कि हम लंगड़ी दलीलों का लंग्दापन भी उजागर करने में विफल रहे. ये भरी भरकम नामों और कामों वाले विद्वान कितने धुप्पलबाज थे इसका एक नमूना ब्लूमफील्ड हैं जिन्होंने अथर्ववेद के उन सूक्तों का अनुवाद किया जिनका तंत्र मन्त्र और जादू टोन से सम्बन्ध है, इसी इरादे से उभोने वैदिक कंकार्डेंस का संपादन भी किया . उनका तर्क था कि स्नो शब्द से पता चलता है कि भारोपीय बोलनेवाले शीतप्रधान जलवायु के निवासी थे. उनकी नज़र उसी स्न से निकले स्नेक, स्नेल और सं. के स्नान आदि की और नहीं गया. यही हल सबका रहा है.
ख. इस विपुल शब्दाव्ली का एक क्षुद्र अंश ही यूरोपीय भाषाओँ में – ड्राप, ड्रिप, ड्राई, drought , थर्स्ट आदि के रूप में पहुंचा है. जब विलियम जोंस संस्कृत की समृद्धि (कोपिअसनेस ) की बात कर रहे थे तो उन्हें इसकी कल्पना भी न रही होगी कि इसका अनुपात क्या हो सकता है.
Post – 2017-05-13
टिप्पणी तीन
चन / सन से सम्बंधित शब्दावली का हवाला देकर हम आपको थकाना नहीं चाहते, पर नाद के विलोम सन्नाटा (सन्नाटा नीरवता नहीं, इसे सांय सांय करते सन्नाटे से समझा जा सकता । इसमें हवा की सनसनाहट का भाव है) और संवेगात्मक क्रिया सनसनी या सनसनाहट (जो वास्तव में तपी हुई मिटटी पर पानी पड़ने से उत्पन्न ध्वनि का अनुकार है), की ओर और काल के लिए ‘समय’, और ‘सन’ पर ध्यान देना जरूरी है. सन को सम्वत के कारण और फ़ारसी में हिज़री सन् और ईस्वी सन् जैसे प्रयोग देखकर हम भूल सकते हैं की यह बहुत पुराना, सम्भवतः देववाणी का शब्द है। सम्वत का सम् और समय का सम और सनत, सनातन, सनन्दन की कहानी का सन काल सूचक है । ये इस बात की भूली हुई याद ताज़ी कराते हैं की चवर्ग प्रेमी समाज से परिचय और हेलमेल से पहले सूर्य या चाँद के लिए देववाणी में भी सन का प्रयोग होता था और चान और चाननी की तरह यह सूरज, धूप, और समय या बेला के लिए प्रयोग में आता था और बाद में कालदेव के चिर बाल और फिर भी चिरंतन रूपों (भूत, वर्तमान और भविष्य ) का मूर्तन इसी के आधार पर हुआ। अब यदि आप इस नंग धरंग, चिर शिशु त्रिमूर्ति की उपनिषद कथा फिर पढ़ें तो इनसे सभी देव क्यों कांपते हैं, इसे समझने में कुछ मदद मिल सकती है।
Post – 2017-05-13
टिप्पणी दो
ऋग्वेद के समय तक देव समाज में पानी, चमक तथा चाँद को मन कहने वाला समाज इतने पहले मिल चुका था कि इस समाज को यह भूल चुका था कि प्रकाश, और जल और चाँद के लिए स्वतंत्र रूप में मन का प्रयोग होता था. मन तो गुजरात के खदिर की दो जल धाराओं मनहर और मनसर और मानसरोवर को छोड़कर जलार्थकता की याद दिलाने को कहीं बचा ही नहीं। ऋग्वेद में एक स्थल पर – चन्द्रमा अप्स्वन्तरा सुपर्णो धावते दिवि । में पानी के भीतर इसके निवास और उसी के आकाश में गतिमान होने का हवाला अवश्य है, पर इस पुरे सन्दर्भ पर ध्यान दिए बिना अर्थ करते हुए सर घूम जाए। ज्ञान और प्रकाश की याद तो मन, मति, मणि, मनका में फिर भी बचा है। अंग्रेजी मून, और मंथ का तो तब पता न था।
Post – 2017-05-13
जो बात कल किसी वायरल हमले से उलट पलट गई उसे पूरक टिप्पणियों में रखने का प्रयत्न कर रहा हूँ;
टिपण्णी एक
१- हम चानी कहते है तो देववाणी के उस चरण की भाषा में चांदी कहते हैं, जब तालव्य प्रेमी समाज देवसमाज का अंग बन चुका था . यह सम्भव है की इससे पहले देवसमाज को इस धातु का पता ही न रहा हो. जब चन्द्रम कहते है तो उस चरण की भाषा में चांदी कहते है जब पानी के लिए सन और चन प्रयोग करने वाले देव समाज में इसके लिए तर का प्रयोग करने वाला समाज भी आ मिला था और इस पर कौरवी प्रभाव के कारण देववाणी संस्कृत बनने की और अग्रसर थी. समाज चांदी सोने का भरपूर उपयोग कर रहा था. चंद्र पानी, प्रकाश, चन्द्रमा, शोभा, और आनंद आदि के आशय में भी प्रयोग में आरहा था. और जब चांदी कहते हैं तो देवभाषा के प्रभाव में संस्कृत चन्द्रम को अपने ध्वनिविन्यास में ढाल कर ग्रहण किया जा रहा था, इसलिए इसे तद्भव न कह कर अनुकूलन कहना अधिक न्यायसंगत होगा.
Post – 2017-05-12
देववाणी (इकतीस)
कसौटी (१)
(आज अनेक बुरे अनुभव हुए. जो लिखा वह उड़, गया. बच रहा उसे अधुरा समझ कर पढ़ें)
यदि हम जलपरक ध्वनियों को लेकर यह देखना चाहें कि इनसे उन कोटियों के कौन से शब्द बनते हैं, बनते भी हैं या नहीं, अथवा उन श्रेणियों में आने वाले किसी शब्द को ले कर यह जांचना चाहें कि यह किसी जलवाची शब्द से जुड़ता है या नहीं तो परिणाम एक जैसा ही होगा। हम विचार के लिए पहले चन्द्रमा में सम्मिलित चारों शब्दों को लेंगे और फिर अकारादिक्रम से जितने शब्दों पर संभव होगा विचार करते हुए एक शब्दभंडार तैयार करेंगे। संभव है तब तक हमारे मित्रों को यह समझ में आ जाय और यदि मुझसे यह पूरा न हो सके तो इस अधूरे काम को वे पूरा कर सकें।
चं./ चन / चम का पानी आशय वाला शब्द याद नहीं आ रहा । इसका एक कारन यह है अन्न की तरह चन का भी अर्थ अन्न विशेष अर्थात चना हो गया था । आज यदि किसी से कहें की अन्न का अर्थ जल था तो उसे हैरानी होगी। ऋग्वेद के समय तक पुराना अर्थ बचा हुआ था। चन और चना का भी पुराना अर्थ बचा हुआ था। इसे समझने के लिए हम कुछ वैदिक प्रयोगों पर ध्यान दें :
चनः (1.3.6) हविर्लक्षणमन्नं; (1.107.3; 2.31.6) अन्नं,
चनस्यतं (1.3.1) इच्छतं, चनशब्दो अन्नवाची, भुंजाथां
चनिष्टं (7.70.4) कामयेथां,
चनिष्ठं (5.77.4) बहुअन्नं कर्म,
चनोहितः (3.2.2) चनोऽन्नं हितं यजमाने, (3.11.2)अन्नं हविर्लक्षणं हितमस्येति,
चन्द्रअग्राः (5.41.14) आह्लादनं हिरण्यं वा अग्रे,
चन्द्रं (3.31.15) हिरण्यं,
चन्द्रं (4.2.13) आह्लादकारी
चन्द्ररथाः (6.65.2) कान्तिरथाः,
चन्द्रा (4.23.9) चन्द्राणि आह्लादकानि,
चन्द्रवत् (5.57.7) हिरण्योपेतं,
चन्द्राग्रा (6.49.8) हिरण्यप्रमुखा,
चन्द्रास: (3.40.4) आह्लादयितार:
चन्द्रेण (1.48.9) सर्वेषां आह्लादकत्वेन,
चन्द्रेण (1.135.4) आह्लादकेन हिरण्येन,
चन अन्न, कामना, कान्ति, आह्लाद, चांदी / सोना, के आशयों में ऋग्वेद में प्रयोग हुआ है । संस्कृत पर अधिक भरोसा करने के कारण यह सुझाव देने वाले मिल जायेंगे की चना संस्कृत चणक का अपभ्रंश है, पर ऋग्वेद से इस भ्रम का निवारण हो जायेगा और तब पता चलेगा की चणक स्वयं चना का तद्भव है.
स. आ-चमन में, और फिर तरल पदार्थ को उठाने के लिए – चमस, चमू, चम्वी, हिं. चम्मच और रसदार मिठाई चमचम में इसे पाया जा सकता है। नदी नामों में चंबल और चनाब / चिनाब में भी लक्ष्य किया जा सकता है कि इसका मूल अर्थ जल था । यह आशय अं. चैनेल / कैनाल और इसके सगोत यूरोपीय शब्दो में भी देखा जा सकता है।
पानी का एक गुण है शीतलता, इससे चैन, चन्नन (चन्दन और च / स के कारण सन्दल)। यह हिम और तुषार से लेकर तृप्तिदायक पेयतक पहुंच सकता है
यह एक ओर तो पानी के जमे !अधजमे विरोध आग से तो है ही चमक के कारण भी यह आग के लिए संज्ञा हाजिर क्र सकता है इसलिए चिनार, चिनगारी, में इसे लक्ष्य किया जा सकता है । चिनार की पत्तियां जब पतझड़ से पहले लाल होती हैं तो लगता है आग लगी हुई है । इस कारण इसका नाम ही अग्निवृक्ष है। जब आप चमड़ी में चिनचिनाहट की बात करते हैं तो जलन होने की शिकायत करते हैं। यहाँ मुझसे कुछ शिथिलता हो रही है. चिन और चिल का भी अर्थ पानी है और जैसा हमने देखा ये आग के लिए प्रयोग में आ सकते हैं। चिलम का अर्थ अबतक पता न रहा हो तो अब पता भी चल गया होगा पर इससे इस कर्म में बचना उचित था। हाँ यदि चण्ड, चण्डाल को इस कतार में खड़ा करते तो कोई हानि न थी.
जल प्राकृतिक दर्पण है इसलिए इस पर सभी रंगों का बिंब पड़ता है। अतः प्रकाश से लेकर अन्धकार तक के समस्त रंगों के लिए जल के किसी न किसी पर्याय का प्रयोग हुआ है । अतः चमक, चमकीला, चान (चांद), चाननी (चांदनी), चमकने वाली धातु- चानी (चांदी, वै. चन्द्रम्, चन्द्राणि) त. चन्दिल -शनि, आदि इसके सहजात हैं तो दूसरी ओर फा. शान, और अं. सन- सूरज, सन-धूप, शाइन, सीन , सी , साइट विचारणीय हो जाते है।
कल सम्भव हुआ तो पूरा करेंगे,
Post – 2017-05-12
“It is an old and established maxim that obsolete social forces, nominally still in possession of all the attributes of power and continuing to vegetate long after the basis of their existence has rotted away, in as much as the heirs are quarreling among them over inheritance even before the obituary notice has been printed ant the testament read – that these forces summon all their all their strength before the agony of the of death, pass from the defensive to the offensive, challenge instead of giving way and seek to draw most extreme conclusions from the premises which have not only been put in question but already condemned.”
Karl Marx, to Angels dt. London June 25, 1855