Post – 2017-07-26

शिक्षा और संस्कृति की दिशा और दशा

मेरे मित्र ने जिस चिन्ता से कातर हो कर अपनी टिप्पणी लिखी थी वह प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति की चिंता का विषय होना चाहिए। समस्या इतनी सीधी और उजागर है कि इसके लिए लाग लपेट की ज़रूरत नहीं । लग लपेट से उसकी तीव्रता घटती है। चिंता यह कि शिक्षा और संस्कृति के सभी पदों पर संघ का कब्ज़ा होता जा रहा है। यह अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि मोदी संघ की कार्य योजना को लागू करने वाले हैं। मेरा यह विचार कि वह साम्प्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद से भारतीय राजनीति को बाहर, सबका साथ सबका विकास की रास्ते पर लेजाना चाहते हैं एक भ्रम है। मेरा अपना भ्रम यह है कि जिन लोगों ने आज तक मोदी की प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण ही अपनाया है वे उन चुनौतियों को समझ नहीं सकते जिनका सामना मोदी को करना पड़ रहा है। इनमें से एक चुनौती उनके असहयोग और उपद्रव से निबटने का है, दूसरा संघ केदबोच से बचते हुए अपनी महत्वाकांक्षी योजनाओं को अमल में लाने का है और तीसरी चुनौती उत्तराधिकार में मिली समस्याओं और उनके अपने समय के अन्तर्देशीय और अन्तर्राष्ट्रीय दबाव से निकटने की है।
इन पर पहले मैं कुछ पोस्ट लिख चुका हूं ।.कुछ मामलों में मेरी अपनी प्रतिक्रिया मित्र की प्रतिक्रिया से कुछ अधिक ही उग्र रही होगी जिसमें बाहुबल और बुद्धिबल को परिभाषित करते हुए संघ की कठोर मुहावरों में आलोचना की थी। आलोचनाएं दूसरी सीमाओं को ले कर भी रही हैं जिनकी कुछ बानगी मेरी अपनी टिप्पणियों और मेरी पोस्ट में आए उद्धरणों में मिल सकती हैः

I also felt annoyed when I heard speaker after speaker in RSS gatherings pouring contempt on “intellectuals” who had read books but who knew nothing of the “practical problems”.p.80
One dayA BJS leaderAsked me to write a book presenting the BJS to the West. I said that I knew very little about the BJS, and that it would be better if the job was undertaken by one of their own scholars. He said that the problem was that they had no scholar in their organization.
5 दिसंबर 2016
मुझे इस बात की पीड़ा है कि न तो हिन्दुओं के हित संघ और भाजपा के साथ सुरक्षित हैं न मुसलमानों के हित अपने को सेक्युलर अर्थात् सेक्युलरिस्ट कहने वालों के साथ सुरक्षित हैं क्योंकि इन दोनों का लक्ष्य दोनों समाजों में पिछड़ापन लाते, मध्ययुगीन प्रवृत्तियों को उभारते हुए अपनी रोटी सेंकने की है। वहीं इनके वास्तविक हितों की चिन्ता करने वाली संस्थाओं या संगठनों का ऐेसा अभाव है कि इनके हित रक्षक के रूप में ये ही बच रहते हैं। 21 दिसंबर 2016
संघ से इसका संबंध मन में मध्यकालीन मूल्यों, पंडों, पुजारियों, महंतो और संतों की दखलंदाजी की आशंका पैदा करता था। इसके द्वारा बारह साल पहले कारसेवकों के लिए साबरमती एक्सप्रेस की बोगियां भर कर भेजने की घटना, मन्दिर मस्जिद तनाजे की वापसी लगती थी। शायद इन्हीं सारी आशंकाओं के चलते हमारे कई मित्रों ने मोदी के केन्द्र में प्रवेश को सांप्रदायिकता के अतिरेक और भारत के भावी दुर्भाग्य के रूप में देखा था, परन्तु मेरी आशंकाओं का निवारण चुनाव अभियान का आरंभ होते ही हो चुका था, जब कि उनकी बनी रह गई थीं और वे अपनी हताशा, घबराहट को बहुत तल्ख इबारतों में प्रकट कर रहे थे। 6 अक्टूबर 2016

, संघ से और इसलिए भाजपा से बृहत्तर हिन्दू समाज परहेज सा करता था। यह परहेज गांधी जी की हत्या के बाद पैदा हुआ। संघ भले अभियोग से मुक्त हो गया हो, परन्तु हिन्दू समाज के मन में उसके प्रति मैल बनी रह गई थी। हिन्दू समाज का यह भाषातीत, तर्कातीत, सहज बोध प्रायः अचूक होता है।

संघ ने अपने चरित्र में बदली परिस्थितियों में कोई गुणात्मक परिवर्तन किया ही नहीं और पीछे जो बात हम अपने हिन्दुत्वद्रोही संगठनों के विषय में और मजहबपरस्त मुसलमानों के विषय में कह आए हैं, वही बात संघ पर भी लागू होती है। सर्वोपयुक्त की अतिजीविता के डारविन के नियम से संघ भी अश्मीभूत संस्था बन गई जब कि यही बात मैं मुस्लिम लीग के विषय में नहीं कह सकता। उसने अपनेे लक्ष्य को हासिल करने के लिए जिस तरह की लोच दिखाते हुए कम्युनिस्ट आन्दोलन को अपने अपने कार्यक्रम से जोड़ लिया, कांग्रेस और समाजवादी दलों की धर्मनिरपेक्षता को मुस्लिम वोट बैंक बन कर इस हद तक प्रभावित किया कि यदि हिन्दू अपने देश में ही उत्पीड़ित हों तो, मात्र इस आषंका के कारण ही कि उसे हिन्दू सांप्रदायिकता से ग्रस्त मान लिया जा सकता है, उनकी पीड़ा को मुखर करने तक का साहस किसी को न हो, और किसी मुसलमान का नाखून भी कटे तो उसका गला कटने का प्रयास मान कर आर्तनाद आरंभ हो जाय।

संघ ने स्वतन्त्रता संग्राम में भाग नहीं लिया, ब्रितानी हुकूमत का साथ देता रहा, हामी भरते हुए अपनी ओर से यह भी जड़ा है कि संघ के लोग खादी से और गांधी टोपी से भी परहेज करते थे।
गांधी के विरुद्ध उन दिनों संघ में जिस तरह का दुष्प्रचार किया जा रहा था, उसमें मैं इतना उत्तेजित अनुभव करता था कि यदि गोडसे ने गांधी जी की हत्या न की होती, उसकी जगह मैं होता और मेरे हाथ में पिस्तौल होती तो मैं उन्हें गोली मार सकता था।
23 अक्तूबर 2016

शिक्षा की समस्या मित्र के लिए संघ के कब्जा जमाने से आगे नहीं जाती मेरी चिंता पूरी शिक्षा प्रणाली और शिक्षा की योजना और स्तर को लेकर है जिसे भी बार बार दुहराता आया हूँ. वर्तमान शिक्षा प्रणाली में तकनीकी शिक्षा पर जोर है जिससे मेक इन इंडिया के लिए कुशल और सुयोग्य करमीवर्ग सुलभ हो सके.

तकनीकी शिक्षा आदमी का पेट भरने के काम आती है, सामान्य शिक्षा ज्ञान और ज्ञेय का विस्तार करती है, मानविकी की शिक्षा हमें बेहतर मनुष्य बनाती है। आज की शिक्षा नीति में पहली के लिए पर्याप्त तत्परता दिखाई जा रही है, परन्तु उसका क्रियान्वयन कहां तक हो पा रहा है उसकी जानकारी मुझे नहीं है। दूसरी में जहां तक अनुसंधान और सर्वेक्षण की बात है, हो सकता है विज्ञान के क्षेत्र में स्थिति अधिक बुरी न हो या पहले से कुछ अच्छी हो, मानविकी की स्थिति बहुत आशाजनक नहीं लगती।
इसका एक कारण योग्य व्यक्तियों का अभाव है। यह परंपरा सत्तर के बाद से चली आ रही है कि शिक्षा, अनुसंधान और पाठ्यसामग्री के चयन का काम एक विशेष सोच के तहत किया जाता रहा है, उस सोच से सहमत लोगों को ही पदों पर नियुक्त किया जाता रहा है और उनको उस मान्यता के अनुसार ढलने को विवश किया जाता रहा है।

मेरे मित्र की चिंता के मूल में एक दूसरी बात यह कि इन सभी पदों पर संघ के लोग कब्जा जमाते जा रहे हैं और पूरा प्रशासन एक तरह से संघ के हाथों में सिमटता जा रहा है। शिक्षा, संस्कृति और ज्ञान के उस पक्ष के विषय में यह कथन सही है और संघ में शिक्षा और ज्ञान के प्रति उदासीनता रही है, जैसा मैं कह चुका हूं कि इसमें सचेत रूप में अध्ययन और अनुसंधान को हतोत्साहित किया जाता रहा है। पिछले बीस सक सालों से इसने इतिहास के नाम पर ऐतिहासिक संकलन का काम शुरू अवश्य किया परन्तु उसका स्तर और दिशा संघ की सोच से प्रभावित है। संघ के लोग भारतीय संस्कृति और इतिहास में रुचि नहीं रखते । इसकी उनमें समझ नहीं है। अध्ययन और अनुसंधान करने वालों का उस सीमा तक ही उपयोग करने का प्रयास करते रहे हैं जिस सीमा तक उनके निष्कर्षों का रणनीतिक उपयोग कर सकते हैं। प्राचीन इतिहास का उनका ज्ञान वैदिक काल तक नहीं जाता, उसके केवल एक पक्ष तक जाता है कि भारत पर बाहर से आर्यों का कोई आक्रमण नहीं हुआ था जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि हम तो यहां के मूल निवासी हैं और मुसलमान बाहरी हैं और यह भी भुला दिया जाता है कि इस्लाम मानने को विवश होने वाले भी इसी देश के मूल निवासी हैं.। यह इतिहास का बहुत संकरा और इतिहासविरोधी अध्ययन है जिसके लिए मानना जानने से अधिक उपादेय है।

मेरी अपनी समझ यह है कि संघ अपनी ओर से भाजपा को अपने चंगुल में रखने की कोशिश से कभी बाज नहीं आ सकता और अपने लोगों को पदासीन करने का ही नहीं संघ के प्रति गहरी निष्ठा रखने वालों को ही विश्वसनीय मानता है और तनिक भी उदारता उसे विश्वासघात प्रतीत होती है। इसी कररण वाजपेयी जी संघ को खटकते थे। वे उन्हें नाम को संघ से जुड़ा और विचार से नेहरूवादी मानते थे । इसके बाद भी दूसरे किसी नेता की जनस्वीकार्यता ऐसी न थी जो उनका स्थान ले पाता। वाजपेयी का तीन बार प्रधान मंत्री के पद पर पहुंचना इसी का परिणाम था। अडवानी जी की जिन्ना के विषय में मात्र एक टिपण्णी उनके भविष्य पर भारी पड़ी और उनकी उपेक्षा में संघ की भूमिका थी।

ऐसी स्थिति में गोरक्षकों का गुंडा कह कर उनके साथ दंडात्मक कार्रवाई ही मोदी की मांग, देवालय की तुलना में शौचालय को अधिक वरीयता देने जैसे बयान, एक अलगाववादी तक के साथ सरकार बनाने चुनाव और सबको साथ लेने का नारा उस जनसमर्थन के बल पर हैं न कि संघ की सहमति से जो संभावित चुनाव का साल आने से पहले जनता उनके पक्ष में देने लगी थाी। यहीं संघ की नीति और मोदी की अपनी नीति का अन्तर खड़ा होता है। यहां मेरा आकलन यह है कि मोदी देश को सामंती सोच से आगे पूजीवादी विकास की ओर ले जाना चाहते हैं। संघ का प्रयत्न सांप्रदायिकता का अपना आधार बनाए रखने का अवश्य हो सकता है।

मेरी आपत्ति इस बात से नहीं है कि संघ या भाजपा सरकार की कमियों की ओर ध्यान क्यों दिया जा रहा है। आपत्ति इस बात से है कि मोदी कि ऎसी कोई उपलब्धि उनके आलोचकों को क्यों नहीं दिखाई देती.जब कि मैं उनके अंधविरोध के कारण मोदी के प्रति अपनी घोषित पक्षधरता के बाद भी संघ और स्वयं मोदी की आलोचना करने के अवसर निकाल लेता हूँ। वस्तुपरक कौन है? वे आलोचना की जगह निंदा क्यों करते है। मोदी को सही मानने वालों को गालियां क्यों देते हैं और यह तक भूल जाते हैं की वे पुरे देश को गाली दे रहे हैं। बदजबान लोग बदजबानी के बल पर अभ्व्यक्ति के समस्त अधिकार पर कब्जा ज़माना चाहते हैं और तिलमिलाते हैं कि शोर मचने के एकाधिकार के बाद भी उनकी बात उनके गिरोह से बाहर कोई सुन ही नहीं रहा है। मेरे मित्र को जो अन्यथा खासे सुलझे हैं इन बातों का ध्यान रखना चाहिए।

Post – 2017-07-25

न कांक्षे घालमेलनम्

मैं जो गीता पढ़ता था उसमे एक ऐसा श्लोक था जो किसी अन्य प्रकाशन में नहीं मिलता।
कांक्षे वादं च संवाद अपवादम प्रतिवादनम्
कांक्षे च विजयम् कृष्ण न कांक्षे घालमेलनम्।

मुझे जिस बात ने उद्विग्न किया था और मैं भाषा पर अपना सबसे जरूरी काम छोड़ कर इस दलदल में फँस गया था वह थी सांस्कृतिक क्षरण में बौद्धिकों और संस्कृतिकर्मियों की भागीदारी.

कालिदास के बारे में एक कथा पढ़ी थी! वह जिस डाल पर बैठे थे उसे ही काट रहे थे. पंडितो ने उनकी मूर्खता का लाभ उठाया और जिस विद्योत्तमा ने उन्हें पराजित किया था उसे धूर्तता से परास्त कर के विद्योत्तमा का जीवन नष्ट करना चाहा. वास्तविकता जानने के बाद उसके द्वारा किये गए अपमान की चेतना ने विल्वमंगल को कालिदास बना दिया. लेकिन कालिदास और भरत होने का दावा करने वाले विल्वमंगलों की जमात को आत्मबोध कराने का क्या कोई उपाय हो सकता है जो तथ्यों. तिथियों, सन्दर्भों के घालमेल से जो सिद्ध करना चाहते हैं सिद्ध कर देते हैं, जैसे विल्वमंगल और विद्योत्तमा के वाद में धूर्त पंडितों ने किया था. ऊपर से छाती पीटते हैं कि उनके चीत्कार के बाद भी कोई उनकी बात मानता क्यों नहीं. वे भूल जाते हैं कि पांडित्य के आभाव में भी घालमेल की पहचान हो जाती है और एक बार ऐसे लोगों के फरेबी सिद्ध होने के बाद लोग उन पर कम और अपनी समझ पर अधिक भरोसा रखने लगते हैं.

जीतना एक तुच्छ लक्ष्य है. सही होना और सही बने रहने के लिए उत्सर्ग होना एक पवित्र ध्येय है. जिसमे मरना तक प्रेरणादायक हो सकता है, उसमे हारने का जोखिम उठा कर सत्य पर टिके रहना विजय की परिभाषा बदल देता है. मुझे इसे आज न उठाना होता यदि मैं यह न देखता कि कालिदास होने का दावा करनेवाले विल्वमंगलों को यह याद दिलाने की आज भी जरुरत है कि जैसे खेल के नियम होते हैं वैसे ही विचार श्रृंखला के भी अपने नियम होते है. एक खेल में दूसरे के नियम नही मिलाये जा सकते.

हमने अपने अतीत को समझने की जगह उससे नफरत करने को अधिक गर्व का विषय माना. हमने जो सिद्धांत आज से ढाई हज़ार साल पहले निरूपित किये थे उन्हें पश्चिम ने मात्र दो सौ साल पहले भारत से परिचय के बाद जाना, फिर भी हम हेतुवाद या थ्योरी ऑफ़ काजेसन के सन्दर्भ में जॉन मिल को तो याद करके बिछ जायेंगे पर बुद्ध, और उनके माध्यम से भारतीय वैज्ञानिक चिंतनधारा याद न आएगी. आ गई तो भूलना चाहेंगे क्योंकि इससे हमारे पुनरुत्थानवादी सिद्ध होने का खतरा पैदा हो जाएगा. बुद्ध का हेतुवाद जहाँ तक मुझे याद है:
इमस्मिं सति इदं होति.
इमस्स उप्पादे इदं उपज्जति
इमस्मिं नसति इदं न होति
इमस्स निरोधे इदं निरुज्झति

यह हुआ तो यह होगा
यह पैदा हुआ तो यह पैदा होगा
यह न हो तो यह न होगा
इसका निरोध कर दिया जाय तो यह निरुद्ध हो जाएगा

यही दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख का अंत है और दुःख के अंत का उपाय है में भी है.

इसे उन्होंने चार आर्यसत्यों या आज कि भाषा में कहें तो वैज्ञानिक स्थापनाओं की संज्ञा दी थी.
इसकी याद इसलिए आ गई कि मेरे एक प्रबुद्ध और भरोसे के मित्र ने निवर्तमान राष्ट्रपति के भाषण में एक ऐसी पंक्ति अपनी और से जोड़ दी जो उनके भाषण में न रही होगी . यह संघ के चरित्र से सम्बंधित है. इसे मैं उस घालमेल का नमूना मानता हूँ जिसके हम इतने आदी हो गए है की यह तक नही समझ पाते कि हम कर क्या रहे हैं और इसका लाभ किसे मिलेगा.

मुझे बुद्ध का सिद्धाँत इसलिए याद आया कि सम्यक समबुद्धि के लिए यह याद दिला सकूँ कि
मुस्लिम लीग की स्थापना १९०६ में हुई थी.

उसकी प्रतिक्रिया में हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का जन्म उसके कुकृत्यों के प्रतिवाद और बचाव में हुआ था.

इन दोनों का जन्म अंग्रेजी कूटनीति की सफलता थी क्योंकि मुसलामानों के साथ अब हिन्दू जमीदारों और रजवाड़ों का समर्थक और स्वतंत्रता संग्राम का विरोधी शिविर तैयार हो गया था.

जन्मकुंडली और नाम भले भिन्न हो एक के होने पर दूसरा पैदा होगा.
उसके निरोध पर दूसरा निरुद्ध होगा.
एक को दोष देकर अपने को निर्मल विमल न हमसा कोई गाने से और इस घालमेल से बच कर ही हम अपने समाज को बचा सकते है.

Post – 2017-07-24

तुमने भगवान को देखा है कभी या कि नहीं
वह नामुराद बका करता है जाने क्या क्या !

Post – 2017-07-24

हम अपने खयाल को सनम समझे थे (1)

मेरे मित्र सिन्हा जी की प्रतिक्रिया में कुछ बातें इसलिए भी विचारणीय हैं कि मेरे विषय में अनेक दूसरे लोगों के विचार भी वैसे ही हो सकते हैं। इसका कुछ आभास मुझे कौसानी संवाद में मिला था पर ऐसे अवसरों पर जिन पर गंभीर बहस नहीं हो सकती थी। मेरे एक मित्र (मित्र कहूँ तो कॉटन धावे , क्योंकि फेसबुक फ्रेंड नहीं हैं), फिर भी मित्रोपम, आलोक श्रीवास्तव ने, चाय की चुस्की के साथ कहा, “आप की उम्र कुछ कम होती तो वे आपको किसी बड़े पद पर बैठा देते। आलोक जी उम्र में मुझसे कम हैं पर अनुभव और ज्ञान में मुझसे आगे हैं। इसलिए वह मुश्किल कथ्य का प्रीतिकर पाठ कर सकते हंजिसका अर्थ ध्वनि से ही जाना जा सकता है। वह है ही लिहाज या आतंक के दबाव में जबान बंद लोगों की आवाज। ध्वनि में यह सुविधा होती है कि आप कोई अर्थ निकालें तो दूसरा बचना चाहे तो कहे मैंने तो इस आशय से यह कहा था। यह चोरदरवाजों वाली वह भाषा है जो अप्रिय सत्य के कथन और श्रवण को संभव बनाती है । अतः उनके कथन का एक चोरदरवाजा-पाठ यह बनता है कि आप का लेखन कुछ पाने की अभिलाषा से जुड़ा है।

मैं ध्वनि और व्यंग्य समझ नहीं पाता, समझने में समय लगता है, पर जो जवाब उस कथन को स्वाभाविक वाक्य मान कर देता हूँ वह अभिधा, व्यंजना और ध्वनि सभी का जवाब बन जाता है क्योंकि मैं व्यंग्य और ध्वनि को भी अभिधा मान कर स्पष्टीकरण देता हूँ। मुझे यह खुशफहमी है कि वह मेरे उत्तर से संतुष्ट हो गए होंगे। यदि न होते, या इसका आभास देते तो भी मेरे लिए उनके विचारों का सम्मान इस सीमा तक रहता कि कुछ लोग मेरे बारे में ऎसी राय रखते है। वे अप्रिय राय रखते हैं इसलिए वे मुझे बुरे नहीं लगते, गलत नही लगते, इसलिए कटुता पैदा नहीं होती, पर मुझ पर उनकी राय का प्रभाव नहीं पड़ता। मेरा मानना है कि तक तक अपने ज्ञान, अनुभव और विवेक से कोई किसी बात को सही मानता है, तब तक उसे अपने मंतव्य पर दृढ रहना चाहिए और इसलिए जो लोग यह सोचकर कि ‘सभी लोग तो यह मानते हैं, यदि मैंने वैसा न माना तो मैं कहीं का न रहूँगा’ दूसरों के विचार से अनुकूलित हो जाते हैं , उनके पास दिमाग तो होता है पर उससे काम न लेकर दूसरों के दिमाग से काम लेते हैं और उनके काम के होते हैं जिनके मुहाविरे दुहराते है.। उनका अपना अस्तित्व तक नही होता। वे विचारक नहीं होते. मात्र ढिंढोरची होते है. उनको कान में उंगली लगाकर सुनना कान खोल कर सोचने और समझने की पहली शर्त है.

लेखक को अलग से सफाई देने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए, क्योंकि उसका समग्र लेखन ही अपने विषय के साथ लेखक के भी अन्तर्मन का अघोषित दस्तावेज होता है। उसका कोई कथन या लेखन उसकी समग्रता में ही देखा या समझा जा सकता है जैसे हमारे किसी आचरण को हमारे समग्र व्यक्तित्व के सन्दर्भ में देखा जाता है। परन्तु किसी से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह आपके समग्र लेखन से या समग्र पूर्ववृत्त से परिचित हो तभी आप से संवाद करे इसलिए यदा कदा संक्षिप्त स्पष्ट कथन जरूरी हो सकता है।

मेरी यह पक्की राय है कि हमें केवल अपने कार्य और विशेषज्ञता के क्षेत्र में ही अधिकार से कुछ कहने का अधिकार है, उसे हम पूरी निष्ठा से कर सकें तो वह काम अपने से अलग एक सामाजिक और राजनीतिक, यहां तक कि रणनीतिक भूमिका भी निभाता है।

मैंने यह कई बार कई तरह से रेखांकित किया है कि मोदी पहले राजनेता हैं जो मन्दिर और मजहब और किताब और जाति की राजनीति को देश के लिए अहितकर मानते हुए विकास की राजनीति की बात करते हैं। सामरिक तैयारी के स्थान पर आर्थिक विकास को वरीयता देते हैं, और इस कारण संघ के हिन्दू राष्ट्रवाद से आगे बढ़ कर समग्र देश के उत्थान से जुड़ी राष्ट्रवादिता के प्रवक्ता बन कर केन्द्रीय राजनीति में आए हैं और जो वादे उन्होंने चुनाव से पहले किए थे उन्हें पूरा करने के लिए प्रयत्नशील हैं।

जिन दलों की जमीन खिसक गई वे लगतार उनके कम में बाधा डालते और समस्याएं पैदा करते रहे हैं और उनके सही दिशा में प्रयोगों की भी उलटी व्याख्या करते रहे हैं और इसलिए उन्हें दो तरह की समस्याओं से जूझना पड रहा है. एक वास्तविक, दूसरी इनके द्वारा पैदा की गई. इससे पहले कभी किसी सर्कार को इस तरह के आतंरिक अवरोधों और खुराफातों का सामना नही करना पड़ा. इसके बाद भी उन्हें असाधारण सफलता और स्वीकार्यता मिली है. मैं अर्थशास्त्री नही पर इतनी बात सब को पता है कि पूंजीवादी विकास समस्याएं पैदा करता है. बड़ी मशीन हजारों का रोजगार छीनती है पर दूसरे रस्ते भी तैयार करती है. वहाँ कौशल और निजी पहल की जरुरत होती है. पूंजीवादी विकास में पूंजीपति अधिक धनी और ताकतवर होता है, पीठ पीछे से सरकार भी वही चलाता है. पर सामंती व्यवस्था से आगे बढ़ने का भी वही रास्ता है. समाजवाद उससे बाद की और उसकी विफलता से पैदा अवस्था है. सामंती व्यवस्था में समाजवादी प्रयोग अल्पजीवी होते हैं इसलिए मैं अम्बानी अदानी के नाम पर छाती नही पीटता. समाजवाद की मेरी यही समझ है और इसलिए मैं अपने को अधिक सही समाजवादी मानता हूँ.

मोदी का विरोध करने वाले अराजकतावादी हथकंडे अपना रहे हैं, अपने को जिलाने के लिए देश का अहित करने पर उतारू हैं, इसलिए मैं उनका समर्थन नहीं कर सकता. मार्क्सवादी अराजकतावादी नहीं हो सकता. मोदी लोकतंत्रवादी हैं और अभी तक कोई तानाशाही रुझान नही दिखाया है. बकौल मार्क्स समाजवाद का रास्ता लोकतंत्र से हो कर गुजरता है.

Post – 2017-07-24

मैं अभी कल के वादे के अनुसार नजर अपनी अपनी का अगला हिस्सा लिखने जा रहा था कि फेसबुक ने पिछले साल आज के दिन लिखी एक तुकबन्दी पेश कर दी। इसे मैंने इसलिए साझा कर लिया कि मेरा आधा जवाब इसमें दिया जा चुका है । आधा कुछ देर बाद।

Post – 2017-07-23

नजर अपनी अपनी समझ अपनी अपनी

कल जिन दो उपयोगी टिप्पणियों की बात कर रहा था उनमें से एक का उत्तर मैंने अपनी समझ से कल दे दिया था। जरूरी नहीं कि वह स्वीकार्य भी लगे।

दूसरी टिप्पणी डा.भगवान प्रसाद सिन्हा की थी। यह दो टुकड़ों में थी। एक में उनका आरोप था कि येदियुरप्पा ने भी अपने शासन काल में कर्नाटक राज्य के झंडे की बात की थी परन्तु उसकी मैंने निन्दा नहीं की।

सचाई यह है कि मुझे इसकी जानकारी नहीं थी और मैंने उनसे ही इसके स्रोत की जानकारी चाही तो उन्होंने किसी के वाल से एक चित्र प्रमाण स्वरूप भेज दिया। इस तरह की प्रवृत्ति को मैं निन्दनीय मानता हूं परन्तु उन्होंने जो स्रोत दिया है वह भी भरोसे का नहीं, आज कल सामाजिक मंचों पर कई तरह की हेराफेरी हो रही है। परन्तु इसके आधार पर मैं यह नहीं कह सकता कि येदियुरप्पा ने ऐसा न किया होगा। वह संदिग्ध चरत्रि के व्यक्ति हैं और इसके लिए उनको निष्कासन का भी सामना करना पड़ा था। ऐसे लोग दुस्साहसिक कृत्यों से अपने लिए आवरण तैयार करते हैं।

जिस बात को सिन्हा जी जैसा मनस्वी व्यक्ति भी लक्ष्य करने से चूक गया वह यह कि येदियुरप्पा ने राष्ट्रीय ध्वज की अवज्ञा कारते हुए ऐसा न किया था और इसीलिए यह उन दिनों भी यह चर्चा में न आया था । उसी चित्र में पहले राष्ट्रध्वज फहराया जा चुका है और उसके बाद एक राज्य ध्वज फहराने का प्रयत्न हो रहा है। इसके विपरीत कर्नाटक के नये मंत्री के कारनामे की जा सूचना है वह निम्न प्रकार हैः

पत्रिका
“आजाद भारत में पहली बार किसी राज्य ने अलग झंडे की मांग की है। वहीं इस मुद्दे पर कर्नाटक का पीएम भी बनाओ की बहस छिड़ चुकी है। जम्मू-कश्मीर की तर्ज पर कर्नाटक में यह मांग उठी है। कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने 9 सदस्यीय कमेटी बनाई है जो झंडे का डिजाइन तैयार करेगी। केंद्र सरकार ने राज्य की इस मांग को खारिज कर दिया है। केंद्रीय मंत्री सदानंद गौडा ने कहा कि भारत एक राष्ट्र है, इसके दो झंडे नहीं हो सकते। कांग्रेस ने भी इसका विरोध किया है। इसके अलावा इस कमेटी को नए झंडे के लिए कानूनी दांव-पेंच से जुड़ी रिपोर्ट भी बनानी होगी। जम्मू-कश्मीर को संविधान की धारा-370 के तहत स्पेशल स्टेट्स दिया गया है।”

सिन्हा साहब जैसा विद्वान, मनस्वी, और सामाजिक रूप में जागरूक माना जाने वाला व्यक्ति इस गर्हित चेष्टा की कठोर शब्दों में निन्दा करने की जगह येदियुरप्पा की आड़ में इसका बचाव न किया होता तो यह उनकी गरिमा के अधिक अनुरूप रहा होता। परन्तु मोदी द्रोह में लोग जो चाहते हैं उसे ही बाहर देख लेते हैं और इस तरह अपने सामाजिक यथार्थ से कट जाते हैं जिसके परिणाम उनके लिए ही अनिष्टकर होते हैं। यदि वह वामपंथी सोच रखते हैं तो वस्तुपरक होना उसकी पहली जरूरत है।

उनकी दूसरी टिप्पणी मेरे इस दावे का खंडन करने के लिए थी कि मोदी का लक्ष्य सबका साथ और सबका विकास है। टिप्पणी निम्न प्रकार हैः

“ग़रीबी हटाओ जैसे नारे का हश्र भी देखा और सबका साथ सबका विकास नारे की दुर्गति भी तीन साल में लोग महसूस कर रहे हैं ,अंबानी की संपत्तियों में रेकॉर्डतोड़ विकास और किसानों और जवानों की आत्महत्या और हत्या में रेकॉर्डतोड़ बढ़ोतरी ! गोरक्षकों के ज़रिये और ख़ननमाफ़ियाओं को उपकृत कर सबका साथ सबका विकास जारी है । नौकरियों के अवसरों में रेकॉर्डतोड़ गिरावट से सबका साथ सबका विकास हो रहा है । आपके ही पोस्ट पर कभी लिखा मैंने पाया था कि योगी आदित्य जैसे कट्टर साम्प्रदायवादियों की अवहेलना कर मोदी ने पंथनिरपेक्षता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जता दी । चुनाव के बाद आपके इस विश्वास की साख का ध्वंस होते देखा मैंने । शायद उस समय यह आपके ज़ेहन में नहीं आया होगा कि योगी का कद मोदी से बड़ा है जैसे कभी वाजपेयी को यह पता नहीं चला था कि गुजरात का मुख्यमंत्री भारत के प्रधानमंत्री से बड़ा हो चुका है । आपलोगों के पास एक weeping boy है वामपंथी ! बस उससे जनता में काल्पनिक ख़ौफ़ भरते हैं जबकि उसका वास्तविक ख़ौफ़ आपके शासकों के पास होता है जिसको अगर विश्वास हो जाय कि शुद्ध मुनाफ़े की 300 प्रतिशत गारंटी है तो आप ही जैसे विचारकों से सौ तर्क गढ़वा लेंगे कि देश का टुकड़ा हो जाने में फ़ायदा है जैसे सोवियत संघ के पतन के बाद रूस , चेकोस्लोवाकिया , उक्रेन , यूगोस्लाविया के टुकड़े कर दिये जाने के तर्क गढ़े गए थे ।“

इसमें उनका आवेश अधिक और विवेक कम प्रकट हुआ है क्योंकि उत्तर में उस धारणा से असहमति ही पर्याप्त थी। पर मोदी का नाम आते ही हमारे मित्र अपने मन का सारा गुबार बाहर कर देते हैं और इस गुबार के कारण भी सामने की सचाई आंखों से ओझल हो जाती हैः
पुर हूं मैं शिकवे से यूं राग से जैसे बाजा
इक जरा छेड़िए फिर देखिए क्या होता है।
पूरा बाजा सभी मित्रों द्वारा आवेश में और आविष्ट भाव से बार बार भाव कुभाव अनख आलस हूं बजाया इस तरह जाता है कि इसका सुरीलापन समाप्त हो गया है सिर्फ कर्कश शोर बचा रह गया है।

फिर भी इसमें मेरी सोच और दृष्टि और रुझाान को ले कर भी सवाल उठाए गए हैं और जब मैं कहता हूं कि हमें अपने लिखे और कहे के लिए जवाबदेह होना होगा तो यह जवाबदेही मुझ पर भी आती है। डर यह कि यदि इसकी मीमांसा में आज गए तो पाठकों को झपकी आने लगेगी, इसलिए कल।

Post – 2017-07-22

अलं विस्तरेण

बढ़ चढ़ कर बात करना, बड़बोलापन तो यूं भी असहनीय होता है, अधिक समझा कर बात करना भी एक तरह की गुस्ताखी है। दूसरों को सीख देने वाला सही और जरूरी सीख दे रहा हो तो भी सुनने वाले को यह लगे कि यह आदमी मुझे मूर्ख समझता है, और अकड़ जाय कि मुझसे ज्ञान बघारने चला है तो आप ने उसका भला करना चाहा और वह उल्टे आपको सबक पढ़ाने पर उतारू हो जाएगा। आपका सिखाना तो बेकार जाएगा ही, जिसका भला करने की सोच रहे थे वह आपको मिटाने की सोचने लगेगा। मुझ बया और बन्दर की कहानी पढ़ लें।
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मुझे स्वयं अपने आप से शिकायत है कि मैं अपने कथ्य को बोधगम्य बनाने के लिए इतने विस्तार में चला जाता हूं कि सुनने या पढ़ने वाले को ही नहीं, स्वयं मुझे भी सिर पीटने का मन करता है। इसलिए आज मैं यथा संभव संक्षेप में बात करूंगा।
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संक्षेप का एक कारण यह है कि मैं उन सभी विषयों पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे सकता जो मुझे किसी रूप में उद्वेलित करती है। विस्तार में जाने पर तो निश्चय ही नहीं।
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आज जिस घटना ने मुझे आहत किया वह है कुछ युवकों का सेल्फी लेने के चक्कर में प्राण गंवाना। ऐसी घटनाएं पहले भी होती रही हैं, खिन्न तब भी हुआ था। इन सभी दुर्घनाओं का दोषी मैं अपने प्रधानमंत्री को मानता हूं जिन्होंने संल्फी कल्चर का आरंभ न भी किया तो उसे प्रचारित करके इसकों सम्मोहक बनाया और भूल गए कि राजा जो करता है प्रजा उसका अनुकरण करती है। वह जो मानदंड स्थापित करता है, लोग उसी की नकल करने लगते हैं, परन्तु उनको या किसी को यह पता नहीं हो सकता कि उसके किस कार्य का क्या परिणाम हो सकता है इसलिए उन्हें दोषमुक्त मानते हुए भी यह निवेदन करना चाहता हूं कि वह पदीय गरिमा का ध्यान रखते हुए फैशन परेड वाली पोशाकें बदलने पर पुनर्विचार करें । यह पदीय गरिमा की रक्षा के लिए भी जरूरी है, मध्यवर्गीय नक्काल जनों के लिए भी हितकर है और हमारी अर्थव्यव्स्था के भी अनुरूप है। किसी को इस बात का हिसाब रखना चाहिए कि महीने में वह कितनी बार वेश परिवर्तन करते हैं और उसका खर्च उनके वेतन की सीमा में आता है या नहीं। मुझमें बहुत सारी ग्रन्थियां हैं और मैं उनकी शक्ति को जानता हूं, वे हमें बन्दर की तरह नचाती हैं। मैंने कुछ दृष्टियों से मोदी जी से अधिक सामान्य और कुछ दृष्टियों से उनसे अधिक असामान्य जीवन जिया है, इनकी शक्ति को इनके सम्मुख व्यक्ति की विवशता कोजानता हूं। इसीलिए इन्हें इतना बड़ा दोष न मानते हुए भी हानिकारक मानता हूं फिर भी क्या मोदी जी इस प्रवृत्ति से बच कर नेहरू की तरह एक शालीन पोशाक पर ध्यान देंगे। अब तो लगता है नये महामहिम भी वेश पर ही ध्यान देंगे उनकी सादगी से अधिक चर्चा उनके दर्जी की है। एक के सधने से सभी सध जाते हैं सबको साधन चलें तो सभी चले जाते हैं इसलिए यह आरंभ देश के कार्यकारी शक्तिसंपन्न व्यक्ति से हो तो देशहित में होगा।
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मैंने अपना कार्यक्षेत्र छोड़ते हुए पहली बार तात्कालिक राजनीति में हस्तक्षेप किया था कि हम एक लेखक के रूप में, एक बुद्धिजीवी के रूप में स्वतन्त्र तभी तक हैं जब तक हम अपनी स्वतन्त्रता का उठाईगीर के रूप में, लगे हाथ कुछ ले भागने के इरादे से इस्तेमाल नहीं करते हैं, अपितु समाजहित को देखते हुए अपनी निजी स्वार्थका कुछ बलिदान करते हैं। स्वतन्त्रता अपने लिए कुछ पाना नहीं हैं, समाज के किए अपना कुछ खोना है और इसकी हससे भिन्न कोई भी परिभाषा उचक्कों की परिभाषा है।
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सही कौन है गलत कौन यह तो पक्षधरता से तय नहीं हो सकता। यहीं वस्तुपरकता का महत्व समझ में आता है, परन्तु यह अजूबा है क्या और इसे कैसे पाया जा सकता है? तरीका एक ही है, प्रमाण, साक्ष्य, आंकड़े, और उनसे निकलने वाले निष्कर्ष के प्रति समर्पण अथवा इसका अभाव वस्तुपरकता और आत्मग्रस्तता का फर्क बताता है।

हम एक ऐसे सांस्कृतिक दौर से गुजर रहे हैं जिसमें उन लोगों के बीच भी जो अन्य बातों में असहमत हैं, एक सहमति है है कि हमारा सांस्कृतिक ह्रास हुआ है। यह किस कारण हुआ है इसे लेकर मतभेद अवश्य है। मतभ्सेद में जो सबसे केन्द्रीय सवाल है वही गायब है क्योंकि यह कोई मानने को तैयार नहीं कि सामाजिक शिक्षा का दायित्व बुद्धिजीवी पर आता है और व्यवस्था प्रशासन से भी संबंध रखती है परन्तु चिंतक व्यवस्था के प्रति भी विद्रोह कर सकता है। संकट यह है कि बुद्धिजीवी न तो समाज शिक्षा कोअपना काम मानता है न ही समाज में आई गिरावट के लिए अपने को उत्तरदायी। जिसके पास कार्यक्षेत्र नहीं उसके कुछ भी करने की जगह ही नहीं रह जाती अतः उसके किए कुछ हो ही नहीं सकता ।

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राजनीति वह क्षेत्र है जिसमें गलत कोई नहीं होता,सही कोई हो नहीं सकता, जो जहां है वहां अटल है इसलिए उसमें यथास्थितिवाद से बाहर के रास्ते ही बन्द हैं।
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हम नहीं जानते कि सामाजिक संचार माध्यम का यह मंच कितना महत्वपूर्ण है और यदि हमने इसे व्यर्थ किया, शगल और भडैंती के लिए इस्तेमाल किया तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा। समाज के बीच आप को अपनी संगत और गोष्ठी चुननी होती है। यह एक जिम्मेदारी है और इससे प्रमाद करके हम अपने को और उन चीजों और मूल्यों को बचा नहीं सकते जिनके लिए हम चिन्तित रहते हैं।
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मैं मानता हूं कि हमें अपने शब्दों के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। इसका मतलब है हम जो कुछ कहें या लिखें उसके समर्र्थन में हमारे पास तर्क और प्रभाण होने चाहिए। वे हमारे सर्वोत्तम ज्ञान और बोध के अनुसार सही होने चाहहिए और इस लिए हमें अपनी बहसों में इसकी मांग करनी चाहिए और जहां इसकी मांग हो वहां अपनी जवाबदेही अनुभव करनी चाहिए।
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मैने अपनी कल की पोस्ट में जो कुद कहा था उस पर दो बहुत सार्थक टिप्पणियां पढ़ने को मिली थीं। वे निम्न प्रकार थीः

धर्म विशेष की राज नीतिकौन कर रहा है?

धर्म की राजनीति की जगह धर्मविशेष कहां से पैदा हो गया? प्रश्नकर्ता उत्तर जानता ही नहीं अपितु अपने माने हुउसे सब पर मढ़ना चाहता है और किसी विशेष धर्म के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। वह धर्म कोई भी हो क्या उसके पक्ष में बुद्धिजीवी खड़ा हो सकता है? विशेष विशेष की प्रतिक्रिया होता है । इसका एक इतिहास है और लम्बा है, उसे पढ़ें। संभव हो तो हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास देखें।

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अगला प्रश्न इसी से पैदा हुआ, पर विस्तार तो आज भी हो गया। कल के लिए रखें!

Post – 2017-07-21

मैं लाख कोशिश करू अपने मित्रों को इस बात का कायल नहीं कर सकता कि सोनिया चालित कांग्रेस और वामपंथियों की रुचि देश को तोड़ने, बांटने में में रही है परन्तु कारण अलग रहे हैं। उनकी तफसील में जाना जरूरी नहीं, पर यदि कर्नाटक कश्मीर के बाद पहली बार अपने अलग झंडे की आवाज बुलन्द करता है तो इस बात पर नजर जानी चाहिए कि वहां किस पार्टी का शासन है और उसे चला कौन रहा है।

Post – 2017-07-21

हे मोर दुर्भागा देश जादेर करेछो अपमान

मैं यह किसी को दोष देने के लिए नहीं कह रहा हूं पर हमारे समाज में इस विषय में इतनी संवेदनशू न्यता है कि पिछले आठ दस सालों में ही हजारों व्यक्तियों की मौत मैन मोल में उतरने के बाद उसकी गैस से हुइ है जो नहीं मरे उनको किन व्याधियों और यातनाओं से गुजरना पड़ा, किन लतों का सहारा ले कर वे अपनी यातना और कमतरी के बोध से बचने का प्रयास करते हैं, उसमें हमें नहीं जाना। इसके बाद भी हमारे समाज के किसी भी व्यक्ति, संगठन, सरकार, या राजनीतिक दल ने इस अधोगति को समाप्त करने का औपचिारिक प्रयत्न तक नहीं किया। इसके निराकरण की तो बात ही अलग। इसका राजनीतिक उपयोग करने के लिए संसद या विधानसभा में या बाहर मंच से वे सत्ता में न होने पर विरोधी दल की आलोचना के लिए भले उठाएं पर दोषारोपण से आगे न उनके पास कोई ठोस प्रस्ताव होता है न ही सही कार्य योजना, न ही इच्छाशक्ति।

मुझे आज भी नरेन्द्रमोदी के नेतृत्व पर भरोसा है पर कई बातों को लेकर संन्देह भी है। वह अपने को विज्ञापित अधिक करते हैं, और काम उससे बहुत कम कर पाते हैं। इसका एक उदाहरण उनका स्वच्छता अभियान और अन्त्योदय का उनका नारा भी है। जिस बिन्दु पर ये दोनों नारे किसी ठोस पहल की मांग करते हैं वह है जलमलनिकास प्रणाली को अद्यतन बनाना जिसके अनगिनत कुपरिणाम प्रतिवर्ष भारतीय नगरों में देखने में आते हैं जिनमें गंन्दे पानी का पेय जल में मिलना, भरी बरसात में सड़कों का नालों में बदल जाना, कूड़े की ढेरियों और उनसे उत्पन्न बीमारियां तो हैं ही, जिसके हृदयविदारक दृष्टान्त उन जघन्य स्थितियों के रूप में भी आते हैं जिनसे हमने अपनी चर्चा आरंभ की।

यह काम किसी ने नहीं किया, यह उन संगठनों या संस्थाओं की कारगुजारी के क्षेत्र में नहीं आता जिनको केन्द्र का दायित्व माना जाता है, मैं मोदी जी को उससे अधिक खराब नहीं मानता जैसी पिछली व्यवस्थाएं रही हैं । परन्तु वह पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने स्वच्छता को एक गंभीर समस्या के रूप में उठाया और यह नारेबाजी तक सीमित न रह जाय इसलिए सफाई के यंन्त्रों पर बल और इसकी दिशा में धनप्रबन्धन की ओर ध्यान देने की मैं आशा करता था। अपेक्षा के अनुरूप कुछ नहीं किया गया। संभवतः यह उनके सरोकार का हिस्सा बन ही नहीं पाया।

जिन कामों को केन्द्रीय सरोकार मान कर हाथ में लिया गया है जैसे गंगा जमुना की सफाई उनमें भी जबानी काम अधिक दिखाई देता है वास्तविक कम। गंगा के किनारे से ऐसे कारखानों को तो एक आदेश से बन्द किया या स्थानान्तरित किया जा सकता था जिनका अशोधित जल गंगा में मिलता है परन्तु क्या यही काम उन शहरों के मलशोधन की दिशा में उसी तत्परता से किया गया है जो इन नदियों के तट पर बसे हैं? यहा आदेश से काम नहीं चलेगा। ठोस योजना, सूझ और सक्रियता की जरूरत पड़ेगी, इसलिए गंगा की सफाई का काम गंगा की पूजा से आगे नहीं बढ़ पाया।

मेरा जो सरोकार है और जिसके बिना मैं किसी भी प्रयत्न को अधूरा या निकम्मेपन के निकट मानता हूं वह यह है कि यह चिन्ता किसी में दिखाई नहीं देती कि इस अमानवीय और गुलामी के सबसे गर्हित रूप को समाप्त कैसे किया जाय? बहुतों को लगता होगा कि इसमें सुधार संभव ही नहीं इसलिए मेरे निम्न प्रस्ताव हैं जिन को किसी आवेश में लिखा गया और दूसरों द्वारा पढ़ा गया लेख न मान कर व्यक्तिगत अभियान मान कर, सभी इस दिशा में सक्रिय हों तो इससे मुक्ति पाई जा सकती है। सुझाव निम्न हैं और नये भी नहीं हैं, उन्नत देशों में इनका पालन होता है और उन्नत देश बनने की हमारी यात्रा सभ्य बनने से आरंभ होती है।

राजनीतिज्ञ सत्ता के पीछे दौड़ते हैं उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। यह सामाजिम समस्या है, समाज के सवाल बुद्धिजीवी के सरोकार हैं, हमारे साहित्य में तो इन त्रासदियों पर कहानियां और कविताएं तक नहीं। साहित्य को गन्दगी से वचा रखा है हमने। ले दे कर दो उपन्यास जिनको केन्द्रीयता न मिली – मुर्दा घर और नरककुंड में वास। इसे हमें उठाना चाहिए और तब तक चैन से बैठना नहीं चाहिए जब तक यह समस्या है। यह हमारी राजनीतिक पहल का मोर्चा है।

Post – 2017-07-21

हिन्दू राष्ट्रवाद का दमन

हिन्दू राष्ट्रवाद का दमन करने के लिए इन्दिरा जी ने आपात काल लगाया था। पता नहीं क्यों उसमें हिन्दुओं से अधिक परेशान मुसलमान ही हो गए थे। हिन्दू राष्ट्रवाद को रोकने के लिए मणिशंकर ऐयर और खुर्शीद आलम खान पाकिस्तान हो आए थो, “तुम कश्मीर में उूधम मचाओ हम तुम्हारे साथ है। सेना पर हमला तुम करो सेना की कार्रवाई की आलोचना और दंगाइयों का समर्थन हम करेंगे।” हिन्दू राष्ट्रवाद को खत्म करने के लिए सुनते हैं राहुल और प्रियंका चीनी दूतावास में नाश्ते पर पहुंच गए, “तुम आगे बढ़ो हम तुम्हारे साथ हैं।” शायद सोनिया जी ने कहा “मैं नाश्ते में नही तुम्हारे विजय भोज में शरीक होना चाहती हूं।” मेरा खयाल है कि हिन्दू राष्ट्रवाद को परास्त करने के लिए हमारे सभी सेक्युलर मित्र चीन की धमकी के हकीकत में बदलने का समथन करेंगे। “जिसका राष्ट्र है वह बचाए, हम तो राज से और राजघराने से वास्ता रखते हैं। जब राज ही चला गया तो देश लेकर क्या करेंगे?” मैं इन गतिविधियों और उक्तियों को राष्ट्रघाती नहीं कहूंगा, क्योंकि ऐसा कहना या सोचना फासिज्म का समर्थन है।