शिक्षा और संस्कृति की दिशा और दशा
मेरे मित्र ने जिस चिन्ता से कातर हो कर अपनी टिप्पणी लिखी थी वह प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति की चिंता का विषय होना चाहिए। समस्या इतनी सीधी और उजागर है कि इसके लिए लाग लपेट की ज़रूरत नहीं । लग लपेट से उसकी तीव्रता घटती है। चिंता यह कि शिक्षा और संस्कृति के सभी पदों पर संघ का कब्ज़ा होता जा रहा है। यह अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि मोदी संघ की कार्य योजना को लागू करने वाले हैं। मेरा यह विचार कि वह साम्प्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद से भारतीय राजनीति को बाहर, सबका साथ सबका विकास की रास्ते पर लेजाना चाहते हैं एक भ्रम है। मेरा अपना भ्रम यह है कि जिन लोगों ने आज तक मोदी की प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण ही अपनाया है वे उन चुनौतियों को समझ नहीं सकते जिनका सामना मोदी को करना पड़ रहा है। इनमें से एक चुनौती उनके असहयोग और उपद्रव से निबटने का है, दूसरा संघ केदबोच से बचते हुए अपनी महत्वाकांक्षी योजनाओं को अमल में लाने का है और तीसरी चुनौती उत्तराधिकार में मिली समस्याओं और उनके अपने समय के अन्तर्देशीय और अन्तर्राष्ट्रीय दबाव से निकटने की है।
इन पर पहले मैं कुछ पोस्ट लिख चुका हूं ।.कुछ मामलों में मेरी अपनी प्रतिक्रिया मित्र की प्रतिक्रिया से कुछ अधिक ही उग्र रही होगी जिसमें बाहुबल और बुद्धिबल को परिभाषित करते हुए संघ की कठोर मुहावरों में आलोचना की थी। आलोचनाएं दूसरी सीमाओं को ले कर भी रही हैं जिनकी कुछ बानगी मेरी अपनी टिप्पणियों और मेरी पोस्ट में आए उद्धरणों में मिल सकती हैः
I also felt annoyed when I heard speaker after speaker in RSS gatherings pouring contempt on “intellectuals” who had read books but who knew nothing of the “practical problems”.p.80
One dayA BJS leaderAsked me to write a book presenting the BJS to the West. I said that I knew very little about the BJS, and that it would be better if the job was undertaken by one of their own scholars. He said that the problem was that they had no scholar in their organization.
5 दिसंबर 2016
मुझे इस बात की पीड़ा है कि न तो हिन्दुओं के हित संघ और भाजपा के साथ सुरक्षित हैं न मुसलमानों के हित अपने को सेक्युलर अर्थात् सेक्युलरिस्ट कहने वालों के साथ सुरक्षित हैं क्योंकि इन दोनों का लक्ष्य दोनों समाजों में पिछड़ापन लाते, मध्ययुगीन प्रवृत्तियों को उभारते हुए अपनी रोटी सेंकने की है। वहीं इनके वास्तविक हितों की चिन्ता करने वाली संस्थाओं या संगठनों का ऐेसा अभाव है कि इनके हित रक्षक के रूप में ये ही बच रहते हैं। 21 दिसंबर 2016
संघ से इसका संबंध मन में मध्यकालीन मूल्यों, पंडों, पुजारियों, महंतो और संतों की दखलंदाजी की आशंका पैदा करता था। इसके द्वारा बारह साल पहले कारसेवकों के लिए साबरमती एक्सप्रेस की बोगियां भर कर भेजने की घटना, मन्दिर मस्जिद तनाजे की वापसी लगती थी। शायद इन्हीं सारी आशंकाओं के चलते हमारे कई मित्रों ने मोदी के केन्द्र में प्रवेश को सांप्रदायिकता के अतिरेक और भारत के भावी दुर्भाग्य के रूप में देखा था, परन्तु मेरी आशंकाओं का निवारण चुनाव अभियान का आरंभ होते ही हो चुका था, जब कि उनकी बनी रह गई थीं और वे अपनी हताशा, घबराहट को बहुत तल्ख इबारतों में प्रकट कर रहे थे। 6 अक्टूबर 2016
, संघ से और इसलिए भाजपा से बृहत्तर हिन्दू समाज परहेज सा करता था। यह परहेज गांधी जी की हत्या के बाद पैदा हुआ। संघ भले अभियोग से मुक्त हो गया हो, परन्तु हिन्दू समाज के मन में उसके प्रति मैल बनी रह गई थी। हिन्दू समाज का यह भाषातीत, तर्कातीत, सहज बोध प्रायः अचूक होता है।
संघ ने अपने चरित्र में बदली परिस्थितियों में कोई गुणात्मक परिवर्तन किया ही नहीं और पीछे जो बात हम अपने हिन्दुत्वद्रोही संगठनों के विषय में और मजहबपरस्त मुसलमानों के विषय में कह आए हैं, वही बात संघ पर भी लागू होती है। सर्वोपयुक्त की अतिजीविता के डारविन के नियम से संघ भी अश्मीभूत संस्था बन गई जब कि यही बात मैं मुस्लिम लीग के विषय में नहीं कह सकता। उसने अपनेे लक्ष्य को हासिल करने के लिए जिस तरह की लोच दिखाते हुए कम्युनिस्ट आन्दोलन को अपने अपने कार्यक्रम से जोड़ लिया, कांग्रेस और समाजवादी दलों की धर्मनिरपेक्षता को मुस्लिम वोट बैंक बन कर इस हद तक प्रभावित किया कि यदि हिन्दू अपने देश में ही उत्पीड़ित हों तो, मात्र इस आषंका के कारण ही कि उसे हिन्दू सांप्रदायिकता से ग्रस्त मान लिया जा सकता है, उनकी पीड़ा को मुखर करने तक का साहस किसी को न हो, और किसी मुसलमान का नाखून भी कटे तो उसका गला कटने का प्रयास मान कर आर्तनाद आरंभ हो जाय।
संघ ने स्वतन्त्रता संग्राम में भाग नहीं लिया, ब्रितानी हुकूमत का साथ देता रहा, हामी भरते हुए अपनी ओर से यह भी जड़ा है कि संघ के लोग खादी से और गांधी टोपी से भी परहेज करते थे।
गांधी के विरुद्ध उन दिनों संघ में जिस तरह का दुष्प्रचार किया जा रहा था, उसमें मैं इतना उत्तेजित अनुभव करता था कि यदि गोडसे ने गांधी जी की हत्या न की होती, उसकी जगह मैं होता और मेरे हाथ में पिस्तौल होती तो मैं उन्हें गोली मार सकता था।
23 अक्तूबर 2016
शिक्षा की समस्या मित्र के लिए संघ के कब्जा जमाने से आगे नहीं जाती मेरी चिंता पूरी शिक्षा प्रणाली और शिक्षा की योजना और स्तर को लेकर है जिसे भी बार बार दुहराता आया हूँ. वर्तमान शिक्षा प्रणाली में तकनीकी शिक्षा पर जोर है जिससे मेक इन इंडिया के लिए कुशल और सुयोग्य करमीवर्ग सुलभ हो सके.
तकनीकी शिक्षा आदमी का पेट भरने के काम आती है, सामान्य शिक्षा ज्ञान और ज्ञेय का विस्तार करती है, मानविकी की शिक्षा हमें बेहतर मनुष्य बनाती है। आज की शिक्षा नीति में पहली के लिए पर्याप्त तत्परता दिखाई जा रही है, परन्तु उसका क्रियान्वयन कहां तक हो पा रहा है उसकी जानकारी मुझे नहीं है। दूसरी में जहां तक अनुसंधान और सर्वेक्षण की बात है, हो सकता है विज्ञान के क्षेत्र में स्थिति अधिक बुरी न हो या पहले से कुछ अच्छी हो, मानविकी की स्थिति बहुत आशाजनक नहीं लगती।
इसका एक कारण योग्य व्यक्तियों का अभाव है। यह परंपरा सत्तर के बाद से चली आ रही है कि शिक्षा, अनुसंधान और पाठ्यसामग्री के चयन का काम एक विशेष सोच के तहत किया जाता रहा है, उस सोच से सहमत लोगों को ही पदों पर नियुक्त किया जाता रहा है और उनको उस मान्यता के अनुसार ढलने को विवश किया जाता रहा है।
मेरे मित्र की चिंता के मूल में एक दूसरी बात यह कि इन सभी पदों पर संघ के लोग कब्जा जमाते जा रहे हैं और पूरा प्रशासन एक तरह से संघ के हाथों में सिमटता जा रहा है। शिक्षा, संस्कृति और ज्ञान के उस पक्ष के विषय में यह कथन सही है और संघ में शिक्षा और ज्ञान के प्रति उदासीनता रही है, जैसा मैं कह चुका हूं कि इसमें सचेत रूप में अध्ययन और अनुसंधान को हतोत्साहित किया जाता रहा है। पिछले बीस सक सालों से इसने इतिहास के नाम पर ऐतिहासिक संकलन का काम शुरू अवश्य किया परन्तु उसका स्तर और दिशा संघ की सोच से प्रभावित है। संघ के लोग भारतीय संस्कृति और इतिहास में रुचि नहीं रखते । इसकी उनमें समझ नहीं है। अध्ययन और अनुसंधान करने वालों का उस सीमा तक ही उपयोग करने का प्रयास करते रहे हैं जिस सीमा तक उनके निष्कर्षों का रणनीतिक उपयोग कर सकते हैं। प्राचीन इतिहास का उनका ज्ञान वैदिक काल तक नहीं जाता, उसके केवल एक पक्ष तक जाता है कि भारत पर बाहर से आर्यों का कोई आक्रमण नहीं हुआ था जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि हम तो यहां के मूल निवासी हैं और मुसलमान बाहरी हैं और यह भी भुला दिया जाता है कि इस्लाम मानने को विवश होने वाले भी इसी देश के मूल निवासी हैं.। यह इतिहास का बहुत संकरा और इतिहासविरोधी अध्ययन है जिसके लिए मानना जानने से अधिक उपादेय है।
मेरी अपनी समझ यह है कि संघ अपनी ओर से भाजपा को अपने चंगुल में रखने की कोशिश से कभी बाज नहीं आ सकता और अपने लोगों को पदासीन करने का ही नहीं संघ के प्रति गहरी निष्ठा रखने वालों को ही विश्वसनीय मानता है और तनिक भी उदारता उसे विश्वासघात प्रतीत होती है। इसी कररण वाजपेयी जी संघ को खटकते थे। वे उन्हें नाम को संघ से जुड़ा और विचार से नेहरूवादी मानते थे । इसके बाद भी दूसरे किसी नेता की जनस्वीकार्यता ऐसी न थी जो उनका स्थान ले पाता। वाजपेयी का तीन बार प्रधान मंत्री के पद पर पहुंचना इसी का परिणाम था। अडवानी जी की जिन्ना के विषय में मात्र एक टिपण्णी उनके भविष्य पर भारी पड़ी और उनकी उपेक्षा में संघ की भूमिका थी।
ऐसी स्थिति में गोरक्षकों का गुंडा कह कर उनके साथ दंडात्मक कार्रवाई ही मोदी की मांग, देवालय की तुलना में शौचालय को अधिक वरीयता देने जैसे बयान, एक अलगाववादी तक के साथ सरकार बनाने चुनाव और सबको साथ लेने का नारा उस जनसमर्थन के बल पर हैं न कि संघ की सहमति से जो संभावित चुनाव का साल आने से पहले जनता उनके पक्ष में देने लगी थाी। यहीं संघ की नीति और मोदी की अपनी नीति का अन्तर खड़ा होता है। यहां मेरा आकलन यह है कि मोदी देश को सामंती सोच से आगे पूजीवादी विकास की ओर ले जाना चाहते हैं। संघ का प्रयत्न सांप्रदायिकता का अपना आधार बनाए रखने का अवश्य हो सकता है।
मेरी आपत्ति इस बात से नहीं है कि संघ या भाजपा सरकार की कमियों की ओर ध्यान क्यों दिया जा रहा है। आपत्ति इस बात से है कि मोदी कि ऎसी कोई उपलब्धि उनके आलोचकों को क्यों नहीं दिखाई देती.जब कि मैं उनके अंधविरोध के कारण मोदी के प्रति अपनी घोषित पक्षधरता के बाद भी संघ और स्वयं मोदी की आलोचना करने के अवसर निकाल लेता हूँ। वस्तुपरक कौन है? वे आलोचना की जगह निंदा क्यों करते है। मोदी को सही मानने वालों को गालियां क्यों देते हैं और यह तक भूल जाते हैं की वे पुरे देश को गाली दे रहे हैं। बदजबान लोग बदजबानी के बल पर अभ्व्यक्ति के समस्त अधिकार पर कब्जा ज़माना चाहते हैं और तिलमिलाते हैं कि शोर मचने के एकाधिकार के बाद भी उनकी बात उनके गिरोह से बाहर कोई सुन ही नहीं रहा है। मेरे मित्र को जो अन्यथा खासे सुलझे हैं इन बातों का ध्यान रखना चाहिए।