Post – 2017-07-21

इस अंश को मैंने दो दिन पहले लिखा था और कंप्यूटर की समस्या के कारण एक दूसरे वाल पर पोस्ट कर दिया था। इससे बाद की कड़ी कल आपने पढ़ी और कल के बाद की कड़ी को आज अपराह्न में कभी पढ़ सकते हैं ।
21 Jul at 7:57 AM

हम जिस देश में रहते हैं उस देश में भंगी रहते हैं

{मेरा डेस्क टॉप कल बैठ गया. जो कुछ लिखा था और हाज़िर करना चाहता था न कर सका. पर मैं इस विफलता पर जितना खिन्न था उतना कभी न हुआ था. कुशल यह कि उसे पेन ड्राइव में भी बचा लिया था, अब उसे दे रहा हूँ. इस बीच इस पर संसद में कुछ नज़ारे भी देखने को मिले. उनसे उठे सवालों को भी इसमें जोड़ने की कोशिश करूँगा, कर पाऊँगा या नहीं नहीं जानता.}

मेरा इरादा किसी का अपमान करने का नहीं. यह इरादा तो हो ही नहीं सकत्ता कि अपने देश का अपमान करूं. ये दोनों स्वयम अपना अपमान करने जैसे हैं. परन्तु यदि यह लगे कि हमने अपना सम्मान खो दिया है और इसके लिए हम स्वयम् उत्तरदायी हैं तो क्या उस दशा में भी आत्मश्लाघा करते रहेंगे. इस देश की सामाजिक या आर्थिक व्यवस्था यदि पाशविक रही हो और आज भी वही रह गई हो तो इसका कीर्तन तो नहीं किया जा सकता. देश बहुत सारी चीजों से बनता है जिनमें से कुछ प्रकृति प्रदत्त है, जैसे भौगोलिक स्थिति और भू संरचना, परन्तु यदि वह बहुत अनुकूल हुआ तो घने जंगल उगाने के लिए उपयुक्त होता है, और ऐसे जंगलों से भरे देशो के बारे में हम जो कुछ जानते हैं वह यह कि वे जानवरों के काम के ही रह जाते हैं, और यदि मनुष्य ने उसे अपने हस्तक्षेप से अपने अनुकूल नही बनाया, आलस्य, आत्मविश्वास के अभाव या सूझ की कमी के कारण अन्य पशुओं की तरह प्रकृति पर ही निर्भर रह गया तो वह भी पशुओं में से एक पशु और वह भी सबसे दीन-हीन बन कर रह जाता है. वह भूभाग एक भौगोलिक क्षेत्र बन कर रह जाता है, देश बन ही नहीं पाता. देश मानव समाज और उसकी व्यवस्था से, उसकी मूल्य प्रणाली से बनता है, और यदि उसमें कोई खोट नज़र आये तो वह उसी अनुपात में विकृत हो जाता है और ऐसे देश पर गर्व नही किया जा सकता.

एक शब्दातीत संचार प्रणाली से बहुत सारे लोग यह मानते हैं कि यह हिन्दुओं का देश है और उनका काम उनसे सुविधाएं मांगना है जिन्हें जुटाने का काम भी उन्हीं का है. यदि इसकी किन्हीं विकृतियों का सवाल आजाये तब तो वे पूरी दृढ़ता से इसका ऐलान भी करेंगे, लानत भी भेजेंगे कि यह हिन्दुओं का देश है, इसलिए इसकी साड़ी विकृतियां हिन्दुओं के कारण हैं. इसकी पड़ताल में, विकृति के मामले में, हिन्दू सिकुड़ कर सवर्ण और सवर्ण सिकुड़ कर ब्राह्मण और ब्राह्मण सिकुड़ कर संघ और भाजपा हो जाएगा और फिर भर्त्सना यज्ञ की सर्वाहुति आरम्भ हुई तो अन्त्त्याहुति का ध्यान ही न रहेगा.

यह नहीं कहता की जिस घटना ने मुझे ग्लानि से भर दिया उसके लिए वे उत्तरदायी हैं जो हिंदुत्व को गालियां देते हैं, क्योंकि यह अपने को बचाने और उस कोढ़ को जारी रखने का एक बहाना बन जाएगा. यद्यपि इसमें सहापराधी वे भी हैं. हम यह कहना चाहते हैं की एक गौरवशाली परम्परा के उत्तराधिकारी होते हुए भी, इसके निराकरण के लिए अपेक्षित इक्षाशक्ति के अभाव के कारण हम सभी उत्तरदायी हैं और जब मैं इस देश में भंगी बसते कहता हूँ तो इसकी उस आबादी में अपने को भी शामिल करता हूँ !

हमने एक ऐसी व्यवस्था बनाई और चलाई है जिसमें, जिसे स्वच्छ होना चाहिए उसे भी गंदे नाले में बदल देते हैं, लफ्फाजी के कीर्तन से उसे साफ करने की प्रतिज्ञाएं करते हुए उसकी सफाई का पैसा भी खा जाते हैं जैसे पतित पावनी गंगा और जमुना या हमें मलिनता से बचाने वाले मेहतर अर्थात अपने से श्रेष्ठतर पर उसको इतनी मलिनता में रखते हैं, इतनी दीनता में रखते हैं, इतनी जुगुप्सा से उसके साथ पेश आते हैं कि वह हमशक्ल होते हुए भी इंसान नहीं रह जाता, उसकी यातनाओं पर कोई ध्यान नही देता. उसकी मौत पर कहीं कोई पत्ता तक नहीं हिलता.

उसे कहते सफाईकर्मी हैं पर उसे ही गन्दगी में रहने को बाध्य करते हैं. गंदगी से गन्दगी साफ़ कैसे हो सकती है? ओझल अवश्य की जा सकती है. ओझल भी इस तरह कि वह हमारे शारीर पर या परिवेश में तो न दिखाई दे पर दिमाग में भर जाय, आत्मा में उतर जाय और हम उसके इतने आदी हो जायं कि यह महसूस करना तक भूल जायं कि जब तक हमारे समाज में कुछ लोग भी इतनी गर्हित अवस्था में हैं तब तक ऊपर से चिकने सुथरे दीखने वाले स्वयम्ि गंदगी को छिपानेवाले के पिटारे हैं. सड़े हुए भीतर तक.

हमारे समाज का एक हिस्सा बाहर से गन्दा है दूसरा भीतर से सडा हुआ. दो तरह के भंगियों का समाज इस सचाई को रेखांकित करता हुआ कि हम उस देश के वासी हैं जिस देश में भंगी रहते हैं. एक भंगी दूसरे इंसान का हक छीन कर खा जाता है और उसे भंगी बना देता है. एक गन्दगी में जीने वाला भंगी और दूसरा उस गंदगी में से कुछ निकाल कर खाने वाला भंगी. एक बीमार, दूसरा डरा हुआ कि यदि उसकी की दुर्गति पर आह भी भरा तो पहचान लिया जायेगा.
{इसे दो टुकड़ों में ही रखना ठीक होगा पर मैं उन चार नौजवानों के मैंनहोल में घुट कर मरने से व्यथित था यह याद रहा तो इन सरल इबारतों का अर्थ समझ में आयेगा और मेरी पीड़ा और अगले और सवाल भी, }

Post – 2017-07-20

20 Jul at 11:29 PM

मैं जब गंदगी से पैसा बना कर खाने वाले सफ़ेदपोशों की बात कर रहा था तो लगा होगा चौंकाने के लिए एक तल्ख़ मुहावरे का प्रयोग कर बैठा. पर मेरे सामने जो तथ्य थे वे इस प्रकार हैं.

१. मैनहोल में सफाई के लिए उतरने वाले, मानवीय गरिमा और सुविधा से वंचित किये गए लोग ठेकेदारों के द्वारा काम पर लगाए जाते हैं जो उनके भाई-बन्धु भी हो सकते हैं और सवर्ण भी. वह मुनिस्पलिटी से जिस रकम पर ठेका लेता है वह उससे कहीं अधिक होती है जितना इनको नियमित सेवा में रखकर चतुर्थ श्रेणी का वेतन देने पर खर्च होती. उसी का एक हिस्सा वह ठेका देनेवालों को रिश्वत में देता है. अब वह सस्ते से सस्ते भाव पर उसी समुदाय के लोगों को लगाता है जो सरकारी चाकरी में उससे चारगुना वेतन ले कर भी काम नही करता. शताब्दियों से सभी अधिकारों से वंचित रहने के बाद उसे पहली बार जातिगत टिप्पणी करने का आरोप लगा कर अपने से बड़े बड़ों को डराकर चुप करने का अधिकार मिला है और वह इसकी आड़ में कामचोरी करता है. सरकार में नौकरी की सुरक्षा ने निकम्मेपन क विस्तार किया है, वरिष्ठता क्रम से पदोन्नति ने श्रेष्ठता की स्पर्धा को समाप्त करके आलस्य को हमारे स्वभाव का अंग बना दिया, परन्तु आरक्षण के नाम पर पदोन्नति के वरिष्ठता क्रम को तोड़ की जानेवाली पदोन्नति ने लगेगा पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया. परन्तु पराकाष्ठा को भी तोड़नेवाली कुछ स्थितिया होती है. जिसे आरक्षण का भी लाभ नहीं मिला, क्योंकि वह जो काम करता है उसे कोई दूसरा करने को तैयार ही नहीं था. पदोन्नति का रास्ता ही बंद. ऐसा व्यक्ति उस एकमात्र अधिकार का दुरूपयोग करने से बड़ा कौन सा सुख पा सकता है. इसलिए मैं उस स्थिति के लिए उन्हें दोष नहीं देता कि वे कामचोरी करते थे और इस हेकड़ी से करते थे कि जो कुछ उन्होंने कर दिया उसे उनकी कृपा समझते थे.

परन्तु जिस देश में सभी स्तरों पर निकम्मापन, आलस्य और इस गिरावट पर गर्व करने की प्रवृत्ति उसके सबसे प्रबुद्ध तबकों – अध्यापकों, बुधिजीवियों और न्याय और विधिनिर्माण से जुड़े लोगों में भी आ गई हो उसमें क्या उन्हीं शिथिलताओं के लिए उस व्यक्ति या व्यक्तियों को दोष दिया जा सकता है जिसे/जिन्हें ज्ञान, अर्थ, सम्मान सभी से वंचित करके मानवाकार मानवेतर प्राणियों में बदल दिया गया हो. जिन्हें यह तक पता नहीं कि देश का मतलब क्या होता है, कर्तव्य और कार्य

निष्ठा का मतलब क्या होता है, जिसे दुसरे सभी अपना देश कहते हैं वह यदि उसका देश है तो उसमें उसकी जगह कहाँ है. जिस इतिहास की बात की जाती है उसमें वे कहाँ हैं और क्यों हैं.

इसलिए उनके गलत निर्णयों के लिए उन्हें नही उस देश और सरकार को जिम्मेदार मानना होगा जिसने न उन्हें वे सुविधाएं दीं न ही कर्तव्यबोध जाग्रत होने दिया, जिसका परिणाम ठेका पद्धति है और जिसे इसलिए अपनाया और यहाँ उसे पैसा ही तब मिलेगा जब काम करेगा.

परन्तु आप लोगों में से कुछ लोग तो उस पृष्ठभूमि से ही परिचित न होंगे जिसकी पोस्ट की अगली कड़ी यह लेख है. इसे पूरा करने में भी मुझे घबराहट हो रही है. अभी जो हमने कहा उससे आपकी सहमति और असहमति के बिंदु और कारण क्या है. मेरा कंप्यूटर मुझे दिन भर परेशां करता रहा . अब समस्या सुलझी है. इसके दूसरे पक्षों पर कल.तब तक आपकी प्रतिक्रिया भी इसमें शामिल हो जायेगी.

Post – 2017-07-18

दिन बुरे जा रहे हैं गो अपने
फिर भी खुश हैं कि हो रहा कुछ है ।
मानता क्यों मैं तोहमतों का बुरा
तुमने जी खोल कर कहा कुछ है ।

Post – 2017-07-18

देख कर तुमको रो नहीं पाया
मुझको देखा तो हंस पड़े होगे ।।
इतना बेकल था, सोच बैठा था
रास्ते में कहीं खड़े होगे ।।

Post – 2017-07-17

[मेरी टक्कर के एक मित्र आतिथेय बनकर कौसानी में मिले थे, नाम्ना रवीन्द्र शुक्लः । मुझे उनसे शिकायत थी कि वह अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए इतने विस्तार में क्यों चले जाते हैं कि कथ्य फ़ैल कर ओझल हो जाता है। पर अपनी लत का पता तक न था। मुझे अपनी लत का पता होता तो क्या उनसे यह शिकायत होती? उनको मुझसे भी ठीक यही शिकायत थी परन्तु मेरा साथ देनेवाला कोई नहीं था और उनसे किसी को शिकायत भी नहीं थी। कई बार आप अपने को अपने से बाहर जाकर देख पाते हैं और यह दूसरों की नज़र से अपने देखने पर होता है। पहली बार मैं यह मानने को तैयार हूँ कि जिसे छोटी बात सोचकर दो वाक्यों में समेटना चाहता हूँ वह बढ़कर एक अलग पोस्ट बन जाता है और उस पर एक टिप्पणी के उत्तर में जो कहना चाहता हूँ वह इतना फैल जाता है कि लगता है इसे अलग से पोस्ट करें। जब तक मैं संक्षेप में अपनी बात कहने की कला विकसित नही कर लेता तब तक आपको यह झेलना ही है, सो यह गुबार:]

हिन्दू समाज को दो खतरों का सामना करना है और दोनों की प्रकृति सामी है – एक कट्टर मुस्लिम और दूसरे कट्टर हिन्दू। दोनों में समानता यह नहीं है की दोनों के अपने धर्म ग्रंथ हैं, बल्कि यह कि एक के पास किताब है और दूसरे के पास गाय है। दोनों दोनों के लिए सामान रूप से पवित्र, अपने अर्गल और अनर्गल के साथ। दोनों इनकी आड़ में भावनाएं भड़का कर अपने समाज को निश्चेत करके उसे अपना औजार बनाने का प्रयत्न करते हैं और यदि ये सफल हो जाय तो, जहाँ जहाँ सफल होंगे वहाँ, कयामत नही तो छोटी कयामत आ ही जायेगी। जिस धर्म में भावनाओं और आवेगों को षड्रिपुओं में गिना जाता हो, उन्हें भड़काने वाले उसके रक्षक तो नहीं हो सकते, वे किताब की आड़ में ऐसा करें, या इस्लाम खतरे में के नाम पर ऐसा करें, या गाय के नाम पर ऐसा करें। जिसकी रक्षा का दावा करते हैं उसके लिए भी संकट पैदा करते है और कोई न कोई बहाना लेकर उन्माद फैलाते हैं।

मेरे एक फेसबुक मित्र उदय सिंह हैं। उन्होंने सरस्वती शिशुमंदिर से अपनी शिक्षा आरम्भ की जिस की शिक्षा पर उन्हें गर्व है। हिन्दू विचारों, मूल्यों, मान्यताओं के प्रति उनमें आदर है और इन पर चोट हो तो पीड़ित होते हैं। पर हाल ही में अपने गाँव जाकर अपने परिवार के पालित पशुओं की दशा और दिशा पर आज ही एक पोस्ट की है। जो लोग उनकी उलझन का विवेकपूर्ण और व्यावहारिक समाधान दे सकते हों, उनको ऐसा करने के बाद किसी सवाल को लेकर प्रश्न करना चाहिए। मोदी उस सच को जानते हैं जिसका प्रत्यक्ष अनुभव उदय ने किया है और जो गाय को लेकर भावनाओं को भड़का रहे हैं वे उनके साथी हैं जो किताब को लेकर भावनाएं भड़काते हैं। दोनों उस हिंदुत्व के शत्रु हैं जो मानसिक उद्वेग के सभी रूपों को अपना शत्रु मानता है और इसलिए गाय के नाम पर भावनाएं भडकानेवाले मोदी के भी शत्रु बनते जा रहे हैं।

ये बहकी बहकी बातें भी वे तभी तक कर सकते हैं जब तक मोदी के कारण भाजपा की सरकार केंद्र में है, अन्यथा जब तिकड़म से बहुमत सिद्ध करने वाली कांग्रेस सोनिआ प्रभाव में यह कानून बना रही थी कि किसी साम्प्रदायिक फसाद में यदि एक पक्ष हिन्दू हो तो जाँच किये बिना हिन्दू को दोषी माना जाये और जब कांग्रेस के बबुआ भविष्य अमेरिका को समझा रहे थे कि सबसे खतरनाक हिन्दू आतंकवाद है, (भारत में ईसाइयत का प्रचार करने को कृतसंकल्प अमेरिका को यह रास भी आता था), जब इस आरोप को प्रामाणिक बनाने के लिए कुछ लोगों को अभियुक्त बना कर जेल में डाल दिया गया पर संलिप्तता सिद्ध न की जा सकी, तब ऐसे मुखर हिन्दुत्ववादियों की मुसलामानों और सेक्युलरिस्टों से एक ही समानता थी। सभी इन सुदूर ईसाई योजनाओं से अनभिज्ञ थे, या जान बूझ कर चुप थे और अपने बिलों में समाये हुए थे। आज ये सभी अपने अपने कारणों से मोदी विरोध में सक्रिय हैं यह भी इनके बीच नई समानता है। मोदी के न रहने और कांग्रेस के किसी भी तिकड़म से सत्ता में आने के बाद यदि सोनिआ ने फरमान जारी कर दिया की मंदिरों के सामने और बाज़ारों के बीच खुले आम गोवध होगा, यह मनुष्य के खानपान की स्वतन्त्रता का प्रश्न है, तो एक तीसरी समानता दिखाई देगी। सभी चुप लगा जायेंगे। इसलिए जिन्हे हिन्दू समाज की बलि नहीं देनी है उन्हें उस नेता पर विश्वास रखना चाहिए जो देश की समस्याओं से अवगत है, किसी से कम हिन्दू नहीं है, पर देश को साम्प्रदायिकता से आगे ले जाना चाहता है। आप मेरी बात न मानें यह आपके हित में हे। मैं तो मोदी का वकील ठहरा।

Post – 2017-07-17

हिन्दू समाज को दो खतरों का सामना करना है और दोनों की प्रकृति सामी है. एक कट्टर मुस्लिम और दूसरे कट्टर हिन्दू. दोनों में समानता यह नहीं है की दोनों के अपने धर्म ग्रंथ हैं, बल्कि यह कि एक के पास किताब दूसरे के पास गाय है. दोनों इनकी आड़ में भावनाएं भड़का कर अपने समाज को निश्चेत करके उसे अपना औजार बनाने का प्रयत्न करते हैं और यदि ये सफल हो जाय तो जहाँ जहाँ सफल होंगे वहाँ कयामत नही तो छोटी कयामत आ ही जायेगी. जिस धर्म में भावनाओं और आवेगों को षड्रिपुओं में गिना जाता हो, उन्हें भड़काने वाले उसके रक्षक तो नहीं हो सकते, वे किताब की आड़ में ऐसा करें, या इस्लाम खतरे में के नाम पर ऐसा करें या गाय के नाम पर ऐसा करें. वे उन्माद फैलाते हैं.
मेरे एक फेसबुक मित्र उदय सिंह हैं. उन्होंने सरस्वती शिशु मंदिर से अपनी शिक्षा आरम्भ की जिस की शिक्षा पर उन्हें गर्व है. हिन्दू विचारों, मूल्यों, मान्यताओं के प्रति उनमें आदर है और इन पर चोट हो तो पीड़ित होते हैं. पर हाल ही में अपने गाँव जाकर अपने परिवार के पालित पशुओं की दशा और दिशा पर आज ही एक पोस्ट की है. जो लोग उनकी उलझन का विवेकपूर्ण और व्यावहारिक समाधान दे सकते हों, उनको ऐसा करने के बाद किसी सवाल को लेकर प्रश्न करना चाहिए. मोदी उस सच को जानते हैं जिसका प्रत्यक्ष अनुभव उदय ने किया है और जो गाय को लेकर भावनाओं को भड़का रहे हैं वे उनके साथी हैं जो बिताब को लेकर भावनाएं भड़काते हैं. दोनों उस हिंदुत्व के शत्रु हैं जो मानसिक उद्वेग के सभी रूपों को अपना शत्रु मानता है और इसलिए गाय के नाम पर भावनाएं भडकानेवाले मोदी के भी शत्रु बनते जा रहे हैं. ये बहकी बहकी बातें भी वे तभी तक कर सकते हैं जब तक मोदी के कारण भाजपा कि सरकार केंद्र में है, अन्यथा जब तिकड़म से बहुमत सिद्ध करने वाली कांग्रेस सोनिआ प्रभाव में यह कानून बना रही थी कि किसी साम्प्रदायिक फसाद में यदि एक पक्ष हिन्दू हो तो जाँच किये बिना हिन्दू को दोषी माना जाये और जब कांग्रेस के बबुआ भविष्य अमेरिका को समझा रहे थे कि सबसे खतरनाक हिन्दू आतंकवाद है, तो भारत में ईसाइयत का प्रचार करने को कृतसंकल्प अमेरिका को रास भी आता था, जब इस आरोप को प्रामाणिक बनाने के लिए कुछ लोगों को अभियुक्त बना कर जेल में दाल दिया गया पर संलिप्तता सिद्ध न की जा सकी तब ऐसे मुखर हिन्दुत्ववादियों की मुसलामानों, सेक्युलरिस्टों से एक ही समानता थी. सभी इन सुद्दुर ईसाई योजनाओं से अनभिज्ञ थे, या जान बूझ कर चुप थे और अपने बिलों में समाये हुए थे. आज ये सभी अपने अपने कारणों से मोदी विरोध में सक्रिय हैं यह भी इनके बीच नै समानता है. मोदी के न रहने और कांग्रेस के किसी भी तिकड़म से सत्ता में आने के बाद यदि सोनिआ ने फरमान जारी कर दिया की मंदिरों के सामने और बाज़ारों के बीच खुले आम गोवध होगा तो एक तीसरी समानता दिखाई देगी. सभी चुप लगा जायेंगे. इसलिए जिन्हे हिन्दू समाज की बलि नहीं देनी है उन्हें उस नेता पर विश्वास रखना चाहिए जो देश को आगे ले जाना चाहता है, उसकी समस्याओं से अवगत है, किसी से कम हिन्दू नहीं है पर देश को साम्प्रदायिकता से आगे ले जाना चाहता है. आप मेरी बात न मानें यह आपके हित में हे। मैं तो मोदी का वकील ठहरा.

Post – 2017-07-17

छोटी छोटी बातें

“सरदार पटेल और नेहरू की स्वतंत्र भारत में मुसलमानों के प्रति दृष्टिकोण में क्या अंतर था?“

“सरदार यथार्थवादी थे, नेहरू आत्मवादी थे। सरदार उस दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय को नेहरू की तरह ही मानने को तैयार होगए थे कि यदि लीग और जिन्ना विभाजन न होने की स्थिति में दंगे कराते रहेंगे तो अच्छा है देश बट जाय और लोग अपनी अपनी जगह शांति से रहें। यह सभी मान रहे थे कि यह फैसला भावावेश का है, इसलिए यह टिक नहीं पायेगा और जल्द ही मुसलमान भी अपनी भूल समझ कर पूरे देश को एक रखने के पक्ष में हो जाएंगे, इसलिए कांग्रेस के नेता चाहते थे कि लोग अपना घर द्वार छोड़ कर मारे मारे न फिरें। यह मियादी बुखार कुछ दिन के बाद उतर जाएगा। जिन्ना इस फितूर को सचाई बनाना चाहते थे इसलिए हिन्दुओं और मुसलमानों की आबादी के अदलबदल के हिमायती थे। विभाजन पर सहमति कांग्रेस के नेताओं की भी थी, इसलिए यह सुनिश्चित करना उनका काम था की जहां भी जो रहे वह सुरक्षित और ससम्मान रहे। इसकी गारंटी उन्हें उन मुसलमानों को भी देनी थी जो भारत में रह गए थे।

“इस बिंदु पर दोनों के नज़रिये में एक अंतर था। पटेल पाकिस्तान में रह गए हिन्दुओं की सुरक्षा और सम्मान की कीमत पर ही मुसलामानों को सुरक्षा और सम्मान की गारंटी देना चाहते थे और यह चाहते थे की भारत में रह कर वे फिर अपने पुराने हथकंडे की हिन्दुओं के साथ वे शांति से रह ही नही सकते, उसे त्याग कर मेल मिलाप से रहने की आदत डालें। नेहरू इस मामले में दुहरे मानदंड अपना रहे थे। उनका मानना था कि भारत सेक्युलर और लोकतान्त्रिक देश है जब कि पकिस्तान बना ही धार्मिक आधार पर है इसलिए वह हिन्दुओं के साथ जैसा बर्ताव करता है, वैसा बर्ताव हम मुसलमानों से भारत में नहीं कर सकते।

“इस सेकुलरिज्म के खोल के पीछे एक गहरी सचाई थी कि यदि मुसलमानों और दलितों का समग्र समर्थन उन्होंने सुनिश्चित नहीं किया तो कांग्रेस के भीतर हिंदुत्व की ओर झुकाव रखने और पटेल के जैसे को तैसा तरीके को सही मानने वालों की संख्या अधिक थी और आजिज आकर पटेल कभी भी तख्ता पलट सकते थे। इसलिए उनके सेकुलरिज्म में ही इस्लामिक रुझान या उनको पसंद न आने वाले निर्णयों से कतराना शामिल था। इससे मुस्लिम कठमुल्लावाद को वीटो पावर मिल गया।

“एक बार यह नुस्खा कारगर लगा तो वह आम रास्ता बन गया। नेहरू की इस चतुराई से भारतीय मुस्लिम अलगाववाद को प्रोत्साहन मिला। जो लोग पिछले दिनों जे एन यू में भारत की बर्वादी के नारे सुन कर हैरान रह गए थे उन्हें नहीं मालूम कि नेहरू काल में हंस के लिया है पाकिस्तान लड़ कर लेंगे हिंदुस्तान के नारे लगते थे और आज क्रिकेट मैच में कुछ कश्मीरी लड़कों को पाकिस्तान की जीत पर नारे लगाते देख कर यकीन नहीं कर पाते, उनको पता नहीं कि नेहरू काल में यह पूरे भारत में होता था और ऐसा न करने वाला मुसलमान अपवाद था, और मुमकिन है उन परिवारों और उनके रिश्तेदारों तक सीमित रहा हो जिनके बच्चे भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाड़ी थे। सेकुलरिज्म को मुस्लिमपरस्ती का पर्याय बनाने में जेएनयू का नहीं स्वयं नेहरू का ही हाथ रहा है। परन्तु नेहरू के समय में भारतीय इतिहास और संस्कृति पर वैसा हमला नहीं हुआ था जैसा सत्तर के दशक से आरम्भ हुआ जिसमे प्रतिरोध और क्षोभ पैदा किया और मनमोहन सिंह के मुंह में यह जुमला ठूंस कर कि भारत के संसाधनों पर पहला हक़ माइनोरिटी का है, अंतिम जुमले के कि इस पर पहला हक़ ईसाईयों का है, विज्ञापित होने से पहले पासा ही पलट गया।

“पर ध्यान दो इस अंतर पर कि न तो अपने कथन, कार्य और व्यवहार से वाजपेयी सरकार ने यह कहा कि इसके संसाधनों पर पहला हक़ हिन्दुओं का है, न ही नरेंद्र मोदी सरकार ने, यह हिन्दू मिजाज से मेल नहीं खता। मनमोहन और सोनिआ जुग को नेहरू के बोए बीज का फल कह सकते हो तो नरेंद्र मोदी युग को पटेल कि विरासत का विस्तार। जोड़ कर रखनेवाला कील से काम लेता है या रस्सी से यह परिस्थिति पर निर्भर करता है, पर मनमानी की छूट नहीं देगा। सब लोग मनमानी करते रहे और इसे ही स्वतंत्रता की परभाषा बना दें तो इसका परिणाम अराजकता, भ्रष्टाचार और विनाश होता है जिसके कगार पर देश को छोड़ कर वे गए हैं।

“यदि मेरे कहने में कुछ कमी रह गई हो तो तुम मेरे कल की पोस्ट पर मेरे एक मित्र नलिन चाौहान के द्वारा सुझाया एक लिंक देख सकते हो।“

Post – 2017-07-16

हताशा और विवेक

हालात हमारे अच्छे नहीं हैं. नर्वसनेस की स्थिति है और वह भी ऐसे लोगों में जो समाज को राह दिखाने की जिम्मेदारी अपने सर माथे लेते हैं. ऐसे ही एक मित्र ने यह सिद्ध करने के लिए कि मुसलामानों को भारत से हिन्दुओं से अधिक प्रेम है,राही मासूम रज़ा का एक फिकरा पेश कर दिया.

उन्होंने किसी मुंहफट को जवाब देते हुए कहा था, देखो मैं मुसलमान हूँ. मेरे पास यह यह चुनाव था कि मैं पाकिस्तान चला जाऊं या भारत में रहूं. मैंने पाकिस्तान के मुकाबले हिंदुस्तान को चुना. तुम्हारे पास ऐसा विकल्प न था, इसलिए हिंदुस्तान में रहे. अब बताओ, हिंदुस्तान को तुम अधिक प्यार करते हो या मैं?

राही बहुत हाज़िर जवाब थे. उन्होंने बहुत डूब कर महाभारत के संवाद लिखे थे और वह मिजाज से सचमुच हिन्दुस्तानी थे और ऐसा आदमी ही आधा गाँव लिख सकता था. उसके लिए जिस ईमानदारी की जरुरत होती है वही लेखक की कलम को मशाल बना देती है.

राही ने आधा गाँव में इसका जवाब दे दिया है कि मुसलमानों ने किस भ्रम का शिकार होने के कारण विभाजन का समर्थन किया था और यदि उनके ही उस चरित्र की भाषा में बात करें तो उसके बाद उसे पता चला कि उसे और पाकिस्तान का समर्थन करने वालों को चूतिया बनाया गया था, क्योंकि उनका सब कुछ तो यहां था , इसे छोड़कर वे जा ही नहीं सकते थे. अब सचाई राही की ही कलम से बाहर आ जाती है. लाचारी हिन्दुओं की नहीं थी, उनकी थी जिन्होंने पाकिस्तान बनाया और जो वहां जा भी नहीं सकते थे?

इसका दूसरा पक्ष यही जवाब पाकिस्तान में रह जाने वाले हिन्दू क्या दे सकते हैं. यह कि उन्हें भारत जाने का विकल्प था और फिर भी न गए, इसलिए पाकिस्तानी मुसलामानों की तुलना में वे पाकिस्तान को अधिक प्यार करते और अपमान और दमन के शिकार होते हैं?

ये फ़िक़रे उनके काम आते हैं जिनको आप कमजोर करना चाहते हैं, और इससे उनकी ताक़त बढ़ती और आप की घटती है। मुसलमानों में यह सन्देश जाता है कि हम तो सही हैं, सारी गलती हिन्दुओं की है और हिन्दुओं को वे सारे कारनामे और आज की करतूतें याद आ जाती हैं जिनसे वह समस्या अधिक उग्र होती है जिससे निपटना हमारी आज की सबसे बड़ी चुनौती है।

Post – 2017-07-16

कलम का सिपाही

अमृत रॉय ने प्रेमचद के लिए बहुत सही शब्द का प्रयोग किया कि वह कलम के सिपाही थे . प्रत्येक लेखक और विचारक, यदि उसके लेखन की कोई सार्थकता है तो, वह कलम का सिपाही तो होता ही है कलम लगाने और गुल खिलाने वाला माली भी होता है. परन्तु जब वह अपने हथियार से काम नही लेता तो ख़ासा दयनीय और हास्यास्पद भी हो जाता है. जिसके हथियार का प्रयोग करता है उसकी नज़रों में तुच्छ भी, क्योंकि वह जिस कौशल से अपने हथियार का प्रयोग करता है, उतने कौशल से दूसरों के हथियार का प्रयोग कर ही नहीं सकता.
लेखक की राजनीति होश ठिकाने लाने और मुर्दों में जान फूंकने की, नाइट्रोजन और बारूद की गंध को ऑक्सीजन में बदलने की राजनीति होती है, और यदि वह समर्थ है तो उसकी बादशाहत देश और काल की सीमाओं के पार तक फैली होती है. भारत में यह जानकारी बहुत पुरानी है फिर भी दुर्भाग्य से वह भौतिक प्रलोभनों में पड़ कर स्वयं अपनी महिमा भूल कर याचकों की भीड़ का हिस्सा बन जाता है.

Post – 2017-07-16

एक लेफ्ट टु दि राइट मित्र कोराइट टु दि लेफ्ट हो कर एक तुकबन्दी सुना दी। शायरी के उस्ताद ठहरे, सुनकर शेर अता फर्मा दियाः

दाद मांगे है फकत मुझसे दाद मांगे है!
मुल्क को खाज दिया, दाद भी देनी होगी?