Post – 2017-07-07

“भई, मान गया तुम्हारा लोहा।” उसने दूर से ही मुझे देख कर दोनों हाथ जोड़ लिए थे, “इतनी बार इतने कोनों से घेरना चाहा, और तुम हर बार बच कर निकल गए।”

मैं सचमुच समझ नहीं पाया कि उसका इशारा किस बात की और था, पूछा किस घेरेबंदी की बात कर रहे हो मैं तो किसी भी समस्या से बचने की जगह उलटे उसकी चीर-फाड़ करते हुए इतना बढ़ा देता हूँ कि कई बार यह समझ में नहीं आता कि इससे बाहर निकलूं भी तो कैसे और तुम बच कर निकलने की बात कर रहे हो। यह कला तो मुझे तुम लोगों से सीखनी है।”

“हम तो अब एक ही कला में पारंगत रह गए हैं। इसे ‘आ बैल मुझे मार कला’ कह सकते हो।

“तुम कहते हो तो ठीक ही कहते होंगे, पर मैं किस मुद्दे से कब बच कर निकला?”

“वही जो गोरक्षकों की गुंडागर्दी का मामला था।

“हमारी दोस्ती के पचास साल तो हो ही गए होंगे।”

“पचपन, बासठ से सत्रह तक पचपन “।

“चलो, तुमने उसमे पांच साल का और इजाफा कर दिया। इतनी पुरानी दोस्ती को मैं तोड़ना नहीं चाहता। अकेला मैं हूँ जो यह जानता है कि इसे कौन करवा रहा था। ऎसी बातें समझ ली जाती हैं पर कही नहीं जातीं। मुहाविरे में तो सिर्फ दीवारों के कान होते हैं, पर सचाई यह है कि हवा के भी कान होते हैं। एक बार तुम्हारा नाम जबान पर आ गया तो पुरे ज़माने में शोर मच जाएगा। तुम आबरू गँवाओगे और मैं एक इतना पुराना दोस्त,जिसके लब इतने शीरीं हैं कि गालिया देता है तो भी बदमजा नहीं होता।”

वह भड़क उठा, आवाज तो ऊँची होनी ही थी, “मैं कराता रहा हूँ यह सब? दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा?”

“ऐसी बातें ऊँची आवाज में नहीं की जातीं. लोग मानने लगे हैं की पेड़ पौदों के भी कान होते हैं।
ऊँचा बोलो तो वे सुन भी लेते हैं और तनिक भी हवा चली तो फुसफुसाते भी हैं। मैं जो कहता हूँ उसे ध्यान से सुनो। उसके बाद तुम जो भी कहोगे मैं चुपचाप सुन लूँगा।”

उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इसका क्या जवाब दे ।

“तुम मेरे साथ टहलते हो, मुझसे बातचीत करते हो तो देखने वालों को यह भरम होगा की तुम्हारी जानकारी अच्छी तो होगी ही। ऊँचा बोलोगे तो वे समझ जायेगे कि तुम्हारा इतिहास ज्ञान गुजरात तक पहुंचता है, उसके अलावा तुम्हे ठीक उससे पहले के गोधरा तक का ज्ञान नहीं, और वर्तमान ज्ञान केवल गोरक्षकों की गुंडा गर्दी तक सिमट कर रह जाता है और किसी चीज का ज्ञान ही नहीं। तुम्हारी बौद्धिक मृत्यु तो इसके साथ ही हो जायेगी, जिसे मैं सहन न कर पाऊँगा। मैं तो जानता हूँ, तुम परले दर्जे के बेवकूफ नहीं हो, दुनिया में तुमसे भी बड़े बेकूफ खोजने पर जरूर मिल जायेंगे, पर दूसरों को कैसे समझाऊंगा, जब वे कहेंगे उन्होंने अपने कानों जो सुना है उसके आधार पर अपनी राय बनाई है।”

वह कुछ बोलने को हुआ तो मैंने बरज दिया, “अब राहत की बात यह है कि आगे से यह गुंडागर्दी बंद हो जाएगी, इसलिए इसको लेकर अधिक चिंतित होने की भी ज़रूरत नहीं।”

उस बदहवासी में भी वह जोर से हंसा, “अब समझ में आया। अब तक जो होता आ रहा था उसमें तुम्हारी भी मिली भगत थी। “

“मैं तुम्हारे मज़ाक को झेल जाऊँगा, पर जब यह उजागर होगा कि गाय के प्रति हिन्दू संवेदनशीलता का दुरूपयोग करते हुए जो कुछ गुंडागर्दी के स्तर पर हो रहा था उसे तुम लोग करा रहे थे तो कहीं मुंह दिखाने लायक रहोगे? खैर, जब मुंह मुहाना बन गया हो तो मुंह दिखने या दिखाने का प्रश्न ही अतिप्रश्न है।”

उसकी समझ में न आया कि मैं कह क्या रहा हूँ । मैंने भी उसे सस्पेंस में रखते हुए कहा, “यह तुम्हे कल समझाऊँगा ।”

Post – 2017-07-07

This sudden discovery of a vast literature , which had remained unknown for so many centuries to the western world, was the most important event of its kind since the rediscovery of the treasures of classical Greek literature at the renaissance., and luckily it coincided with the GermanRomantic revival. The Upanishads came to Schaupenhaur as a new gnosis of revelation.

Through Schopenhaur and von Hartsmann, Sanskrit philosophy profoundly affected the German transcendentalism. Kants’s great central doctrine, that things of experience are only the phenomena of the thing-in-itself, essentially that of Upanishads. … Kant was indeed, deeply concerned with Indian culture, and lectured on Indian on the basis of the knowledge available at that period. … The poem in honour of Luke Howard, the English meteorologist, written by Goethe in 1821 is, on the other hand, full of conscious allusions to the Meghadut.

Shakuntala was translated into German by Forster in 1791, and was welcomed by Herder and Goethe with the same enthusiasm that Schopenhauer had shown for Upanishads. Goethe’s epigram on the drama is well known….
Wouldst thau the young year’s blossoms and fruits of decline.
And all by which the soul is charmed, enraptured, feasted, fed
Wouldst thou the earth and Heaven itself in one sole name combine.
I name the, O Shakuntala! and all at once is said.
The prologue of Faust…is modelled on the prologue of the Sanskrit drama….Goethe had at one time formed a plan for adapting Shakuntala for German stage.

Post – 2017-07-06

मुझ पर विश्वास करेगा वह धोखा खाएगा.
नादानों में नादान वह पहचाना जाएगा

मतलब यह, जनाब, कि मेरी बात मत मानिये, उसे कई सुलभ विचारों में से एक विचार मानिये और उसके बाद अपनी अक्ल से काम लीजिये कि इनमें से कौन अधिक सही है और यदि कोई सही न लगे तो अपनी अक्ल पर भरोसा कीजिये और खुद समाधान निकालिये.
यह चेतावनी इस लिए देनी ज़रूरी हुई कि हम समझते हैं कि पश्चिम से परिचित होने के बाद भारत में नवजागरण आया, जो सच है पर संदिग्ध भी है.

मैं जो उलटी बात कर रहा हूँ वह यह कि यूरोप में तीन नवजागरण आये थे. पहला धर्मयुद्धों के दौरान अरबों का सामना करते हुए पूर्व की वैज्ञानिक और सांस्कृतिक अग्रता से परिचित होने और उनसे सीखने के साथ अपने युन्नानी अतीत के पुनरुद्धार के साथ. दूसरी उससे अर्जित ऊर्जा से विचार की स्वात्तता के उन्मेष के साथ जो कोपरनिकस और गालीलिओ में व्यक्त हुआ था और तीसरा नवजागरण संस्कृत भाषा और साहित्य से परिचित होने के बाद आया था. यूरोप के सारे दार्शनिक, सारे बुद्धिजीवी, कवि भारतीय प्रभाव में उससे अधिक सराबोर मिलते हैं जितने प्रथम नवजागरण के उनके भारतीय प्रतिरूप.

आश्चर्य इस बात का है कि जिस भारत से परिचय के बाद आधुनिक पश्चिम का सांस्कृतिक नवोन्मेष हुआ और व्हिटमैन और इलियट तक और उसके बाद के भी अनेक चिंतक अभिभूत रहे उससे हमारे तथाकथित आधुनिकतावादियों की ऐसी क्या विरक्ति हुई कि वे जो पश्चिम और पूर्व का समन्वय करते हुए ऎसी नई दिशा खोल सकते थे जिससे उनकी वह पहचान भी बनती जिसे बनाने की आतुरता में वे अपना घर तक भूल गए, अपने पाठकों से कट कर गुलदस्ते के फूल बन गए, परन्तु सही दिशा में उल्लेखनीय प्रयोग न कर सके. यह बात अपने मित्र अरविन्द कुमार के फ़ाउस्ट प्रेम से याद आई. क्या आपको पता है कि यह रचना भी भारतीय प्रभाव में लिखी गई है. यदि नही तो कल मैं इसके प्रमाण स्वरूप स्वीकृतियां दूंगा.

Post – 2017-07-06

लाख समझाओ मगर

“तुम जिन का साथ दे रहे हो वे नहीं चाहते कि उनके काले कारनामों की और किसी की नज़र जाय, इस लिए तुम चाहते हो कि बुद्धिजीवी कूप मंडूक बना केवल अपने क्षेत्र तक सिमटा रहे और वे तब तक मनमानी करते रहें जब तक पूरा सत्यानाश न हो जाए. तुम अपने बौद्धिक वर्ग से भी विश्वासघात कर रहे हो और अपने देश के साथ भी छल कर रहे हो, इसका पता है तुम्हे?”

मैं चुप रहा, इससे उत्सहित होकर वह कुछ और आवेश में आ गया, “सत्ता का विरोध करने का अधिकार हमें संविधान ने यूँ ही नहीं दिया है, तुम उसे स्वतन्त्रता का दुरूपयोग कह कर दबाना चाहते हो, यही फासिजम है और हम इसका पुरे दमखम से विरोध करते हैं और आगे भी करेंगे.”

मैं मुस्कराने लगा तो वह चिढ गया, “तानाशाहों को फ़ौज से डर नहीं लगता, विचारों से और विचारकों से डर लगता है और इसीलिए वे सबसे पहले बुद्धिजीवियों का सफाया करते हैं, यह तुम्हें पता है या नहीं?”

मैंने मुस्कराते हुए ही पूछा, “तुम्हारी बात पूरी हो गई?”

“पूरी ही मान लो.”

“मैं तुमसे पूरी तरह सहमत हूँ.”

वह मेरी सहमति से भी घबरा गया, “देखो, तुम फिर कोई बदमाशी करने वाले हो लेकिन आज मैं तुम्हारी एक न चलने दूँगा.

“यह तो मैं जानता हूँ, न तो खुद चलोगे न किसी को चलने दोगे, और इस जड़ता प्रगतिशीलता की संज्ञा भी दोगे. बुद्धि का ऐसा दिवाला केवल भारतीय सेकुलरिस्टों में ही पाया जा सकता है जो लीग के अधूरे काम को पूरा करने की योजना पर काम करते आये हैं और अपना चहरा छिपाने के लिए सेकुलरिज्म का बुरका ओढ़ लेते है. नाम और काम में कोई संगति ही नहीं.”

“फिर जरा अपना चेहरा तो दिखाओ. अभी अभी तुम मुझसे सहमत किस बात पर थे?”

“बताता हूँ. बीच में बोलना नहीं. पहली बात यह कि बुद्धिजीवी विशेषज्ञता के नाम पर कूपमंडूक बन कर नहीं रह सकता. मेरा सारा लेखन, जिस भी विधा या क्षेत्र में हो, पूरा विरोध, प्रतिरोध और फरेब को उजागर करने का लेखन है.तुमसे मेरी यह बात चीत तक, व्यक्तिगत जीवन में भी मेरे लिए अन्याय का विरोध और अन्यायी को पराजित करना सोचने और लिखने जितना ही महत्वपूर्ण है. परन्तु ये बुर्कापोश बुद्धिजीवी अपने लाभ और हित को सर्वोपरि मानते रहे हैं, इसे उन्हें निकट से देखो तो पता चल जाएगा. मैं बार बार कहता हूँ कि जिन शब्दों का वे प्रयोग करते है, उनका पूरा अर्थ भी नहीं जानते.”

“यह तो तुम्हीं कह सकते हो और तुम्ही मान सकते हो. दूसरा कोई पागल तो मिलेगा नहीं.”

“मैं बताऊँगा तो समझ जाओगे, मानो भले नहीं. पहली बात बौधिक का विरोध हुड्गंद मचाने के रूप में प्रकट नहीं होता, तुम्ही कहते हो तानाशाह फ़ौज से नहीं विचारों से डरता है. हुडदंग विचार नहीं है यह मानोगे? हुडदंग को कुचला जा सकता है, वह बंदर घुड़की हो तो उसकी उपेक्षा कर के अपनी मौत मरने को छोड़ा जा सकता है परन्तु विचारों को शक्ति से न तो दबाया जा सकता है न उपेक्षा से काल कवलित किया जा सकता है. तुम कैसे बुद्धिजीवी हो जिसके पास विचार के नाम पर दंगा, फिकरेबाजी, चुगलखोरी के अलावा कुछ है ही नहीं. पहले दिन से लेकर आज तक किसी चूक या अनीति का मार्मिक विश्लेषण तक नही.

“अब दूसरी बात समझो. सता के अनेक रूप हैं और बुद्धिजीवी उन सभी का विरोध करता है इनमे राजसत्ता सबसे बाद में आती है परन्तु तुमको इस शब्द का अंतिम अर्थ ही पता है क्योंकि तुम सता के लिए प्रयत्नशील दलों के पालतू का काम उनके तंत्र का अंग बन कर और अपनी स्वतन्त्रता की कीमत पर कर रहे हो. यह सत्ता का विरोध नही हुआ सत्ता के द्वंद्व में एक सत्ता का सेवक बनाना हुआ. बुद्धिजीवी विचार सत्ता के बल, समाज को कायल बना कर सत्ता के गलत निर्णयों के विषय में जागरूकटा पैदा करके करता है. तुम्हारी बुद्धि का दिवाला यह कि तुम इतनी गलत बातें करते हो या इतने गलत तरीके अपनाते हो कि तुम्हारी नासमझी उस सत्ता को ही मजबूत करती है जिसको मिटाने का दम भरते हो फिर भी तुम न इसे समझ पाते हो न आदत से बाज आते हो. उलटे जिस समाज को आंदोलित करना है उसे नासमझ करार दे कर अपनी ग्लानि कम करते हो.

“तानाशाह बुद्धिजीवी से इसलिए घबराता है कि वह अपनी शक्ति के लिए सत्ता के दूसरे रूपों से समर्थन और औचित्य जुटाता है जो इतिहास और परंपरा की गलत समझ से जुडा हो सकता है, वर्तमान की गलत व्याख्या से पैदा हो सकता है, अपने राष्ट्रीय हितों के विपरीत काम करने वाले विश्वासों, योजनाओं या इतर देशों से जुडा हो सकता है. सबकी एक ही काट है उनकी सही व्याख्या, वस्तुपरक विवेचन यह तुम नही कर पाते हो.

“संविधान ने हमें जो भी अधिकार दिए हैं वे अमर्यादित नहीं हैं. सत्ता का विरोध करना हमारी स्वतंत्रता का अभिन्न अंग है और यदि संविधान में इसका उल्लेख ना हो तो भी इसका हमें नैसर्गिक अधिकार है परन्तु इसकी समझ और उससे जुदा दायित्वबोध ही न हो तो उसी संविधान ने सत्ता को समाजहित में मनचलेपन को नियंत्रित करने के जिम्मेदारी और शक्ति भी दी है. उसे दमन कह कर अपना बचाव नहीं किया जा सकता.

“जो तुमने कहा उससे मेरी सैद्धांतिक सहमति है. जो तुम करते हो वह उन्हीं सिद्धांतो के विपरीत है इसलिए मै जत्थाबंद मुर्खता की आत्मविनाशी सट्टेबाजी का और बौद्धिकता को इस अधोगति में पहुंचाने का विरोध करता हूँ, “”

Post – 2017-07-05

मैं सोच रहा था की घिसी उपमाओं और जुमलों में भी सर्जनात्मकता पैदा हो सकती है क्या, और नतीजा यह रहा :

चाँद तो था नहीं पर उसके ही मानिंद था वह।
आसमाँ में न ज़मीं पर था वहीं पर था वह।
शर्म से छिपता हुआ दर्द से घबराया हुआ
अपने को खोने की गर्दिश में कहीं पर था वह।।

प्यार कहना है अगर इसको प्यार कह लीजे
जान पहचान न थी उसको यार कह लीजे
शर्म इकतरफा न थी दर्द आर पार भी था
खलिश में लिपटा कहीं था तो, कहाँ पर था वह ?

Post – 2017-07-05

दिल जो अपना है तो यह दर्द पराया तो नहीं
साथ लम्बा है औ’ आगे भी चलेगा साहब।
इसको सहलाइये बहलाइये न तो उसको
मिट गया एक तो दूजा न मिलेगा साहब।।

Post – 2017-07-05

अहंकारवश नहीं

‘‘तुमसे जवाब मांगता हूं तो तुम नसीहत देने लगते हो कि हमें क्या करना चाहिए। दूसरी कलाविधाओं के लोग जिस तरह विचार विमुख रहते हैं, उसी तरह साहित्यकार को भी बनाना चाहते हो। और मुझसे कहते हो यह समझ कर आना वह समझ कर आना। तुममें इतना अहंकार कैसे आ गया कि तुम सबको सिखाते रहो पर उनसे कुछ भी सीखने को तैयार न होओ। जब मैं कहता हूं इस इतने संवेदनशील विषय पर क्यों नहीं लिखते तो जानते हो मैं क्या करता हूं? मैं सीधे तुम्हारे ऊपर यह आरोप लगाता हूं कि तुम भी ऐसी गतिविधियों का मौन समर्थन करते हो। बोलो अपने बचाव में कुछ कहना है?’’

जाहिर है मुझे घेरने की लगातार कोशिशों के बाद वह खीझ कर मुझे शूली पर चढाने की पूरी तैयारी के साथ आया था।

मैंने अपना गुनाह कबूल करते हुए कहा, “तुम दोस्त होने के नाते मेरा कुछ लिहाज कर गए। मैं गोरक्षा के नाम पर की जा रही गुंडागर्दी पर चुप रहकर उसका ही मौन समर्थन नहीं कर रहा हूँ, सरे राह औरतों की इज़्ज़त उतारनेवालों, लोगों को ज़िंदा जला देने वालों पर, परिवार को बंधक बना कर पति और पिता की आँखों के सामने उनकी पत्नियों और बेटियों की इज़्ज़त उतारनेवालों के विरोध में न लिख कर उनका भी मौन समर्थन कर रहा हूँ, आये दिन सबसे पहले सुनाए जानेवाले गैंगरेप के किस्सों पर चुप रहकर उनका भी मौन समर्थन कर रहा हूँ, अभी बशीरहाट में जो कुछ होरहा है, उस पर भी मौन, जिसमे मुर्दे को अन्त्येष्टि तक जाने के रस्ते तक नहीं मिल रहे और मैं मौनरह कर इनका समर्थन कर रहा हूं। मेरे गुनाहों का तो कोई अंत है ही नहीं, और तुम दोस्ती में इतने सारे अपराधों में मेरी भागीदारी के बावजूद, सिर्फ गोरक्षा के नाम पर चल रही गुंडागर्दी पर मौन रहने का अपराधी बता रहे हो। इतना पक्षपात ठीक नहीं । इससे अच्छा तो यह होता की तुम पूछते मौन क्यों हूँ?”

वह कुछ सकपका तो गया पर संभल कर बोला, “उसी का मौक़ा तो दिया है ।”

“तो सुनो। मैं इसलिए मौन हूँ कि कानून और व्यवस्था का काम लेखक के जिम्मे नहीं है। यदि मैं हंगामा करूं तो जिनकी यह जिम्मेदारी है उनका काम बढ़ जायेगा। पुरानी समस्या में मुझे समझने, समझाने और चुप रखने की समस्या उस समस्या से भी अधिक उग्र हो जाएगी जिससे मूल समस्या को हल करने में उसे बाधा पड़ेगी।

“यदि सभी लोग पूरी निष्ठा से केवल अपना काम करें तो दुनिया अधिक सुथरी दिखाई देगी। यदि अपना काम छोड़कर दूसरों का काम करने लगें तो कोई काम सही न होगा और समस्यों के भीतर से समस्याएं पैदा होंगी और उनकी बाढ़ आजायेगी, जैसा कि तुम्हारी अतिसक्रियता से हुआ है और इस अतिसक्रियता के पीछे किसी की पीड़ा से कातर होने का भाव नहीं है। घटिया सौदेबाजी है। राजनीतिक लाभ है। चिताओं पर रोटी सेंकने का कमीनापन है, अन्यथा तुम चीत्कार भरते या नहीं पर तुम्हारी नज़र में यातना के सारे रूप आते और तुम अपने आप से सवाल करते, “यह समाज किसने बनाया जिसमें जघन्यतम हिंसा मनोरंजन का स्थान ले चुकी है और मनोरंजन की जिम्मेदारी लेने वाले इसी का कारोबार कर रहे है। और तब शायद मेरी तरह तुम्हे भी लगता इन गुनाहों कि कुछ जिम्मेदारी हम पर भी है क्योंकि हम अपना काम ठीक से नहीं कर सके, मानव चेतना और सुरुचि निर्माण का काम नहीं कर सके। दूसरों के काम में भी खलल डालते रहे। हमने साहित्य-संगीत-कला-विहीन करके अपने समाज को पुच्छ-विषाण-हीन पशुओं के समाज में बदल दिया। इतना समझ में आजाय तो कल आना यह जानने के लिए कि तुम्हे हल्ला मचाने की जगह सोचने की सलाह मैं अहंकारवश नहीं, व्यग्रतावश देता हूँ।

Post – 2017-07-04

बहुत दिन बाद मुझसे रूबरू हो
बहुत दिन बाद छुप कर देखता हूँ।
बहुत दिन बाद आँखें नम हुई हैं
बहुत दिन बाद खुद को देखता हूँ।
बहुत दिन बाद दिन में रौशनी है
बहुत दिन बाद रातें जगमगाती
बहुत दिन बाद खुद से पूछता हूँ
यह सच है क्या जिसे मैं देखता हूँ।

Post – 2017-07-04

हम दिल के बुरे हैं नही तू जानता है पर
जब दिन ही बुरे हों तो कहो क्या करे कोई!

Post – 2017-07-04

सच के पीछे भी कई सच हैं इन्हे देखिये तो

आज मैं तुम्हे कन्नी काटने नहीं दूंगा। यह बताओ गोरक्षा के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उसे तुम ठीक मानते हो?

तुम्हारे रात दिन मनाने के बाद भी पागल तो नहीं हुआ हूँ कि किसी भी तरह की बेहूदगी को ठीक मान लूँ।

तो फिर इसके विरोध में कुछ लिखा क्यों नहीं? मोदी और भाजपा को बचाना चाहते थे?

मोदी से मेरा क्या लेना देना? उसका स्वयंसेवी वकील तभी तक हूँ जब तक तुम्हारे हमले के कारण वह भला आदमी संकट में है। इतने सारे, अपने हुनर में माहिर, हमलावर उसे इसलिए मिटा देना चाहते हैं कि वह देश को एक नई दिशा में ले जाना चाहता है। इंसानियत पर वकालत नहीं चलती फिर भी वकीलों में भी कुछ इंसान अभी तक बचे हुए है। जिस दिन तुम तुम्हे अक्ल आजायेगी, तुम उस पर अन्याय करना बंद कर दोगे मैं तुम्हारा हूँ तुम हो हमारे सनम गाता हुआ तुम्हारे साथ हो लूंगा। अभी तो मैं तुम्हें बचाना चाहता हूँ। सच कहो तो अपनी और अपनों की इज़्ज़त बचाना चाहता हूँ।”

अजीब घामड़ आदमी हो यार! क्या मैं यह सब करा रहा हूँ?

सच कहो तो मैं इतना कमअक़्ल हूँ कि अपने कार्यक्षेत्र को छोड़कर किसी अन्य के बारे में जो कुछ जानता हूँ वह मात्र सूचना होती है. जानकारी तक नहीं! ठीक वैसे ही जैसे किसी संगीतकार, चित्रकार, अभिनेता, वैज्ञानिक, व्यवसायी, अर्थात अपने सरोकार और महारत के क्षेत्र को ही पूरा संसार मानने और उस संसार को बचाने के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगाने वाले के साथ होता है।

उसकी समझ में कुछ आ नहीं रहा था इसलिए वह झल्ला तो रहा था पर अपने को संयत करने में इतनी ताक़त लगा रहा था कि मुझे शक था कि जो कुछ मैं कह रहा हूँ उसे वह ठीक से सुन भी पा रहा था या नहीं। मैंने इसे लक्ष्य किया पर इसका आभास उसे न होने दिया।

ये सभी अपने कार्यक्षेत्र का सम्मान करते हैं, और इसलिए इनके शिखर पुरुषों का सभी, यहां तक कि साहित्यकार भी इतना सम्मान करता है, जितना अपने क्षेत्र के शिरोमणियों का भी सम्मान नहीं करता और यह अकेला निर्णय है जिसमें मैं उनके साथ हूँ । साहित्यकार की अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा होने के कारण उसे यह भरम हो जाता है कि भाषा का जितने क्षेत्रों और जितने रूपों में उपयोग होता है, उन सभी पर उसका अधिकार है। वह साम्राज्यवादी मनोवृत्ति का हो जाता है तो अपने देश को छोड़कर उन सभी देशों को जानता है जन पर वह अधिकार करना चाहता है।

तुम जानते हो तुम क्या हो?

उत्तर तो उसे देना न था, मैंने ही कहा, तुम अपनी ग्रह कक्षा से भटके हुए नक्षत्र हो जिसे किसी शक्तिपुंज से टकरा कर उल्का पिंडों में बदलना और जहां गिरे वहां ध्वंस करना ही बदा है।

सार्थकता पाने के लिए अपनी ग्रहकक्षा में लौटना होगा। कर पाओ तो कल बात करेंगे।